1920 के आरम्भ की बात है। महात्मा गाँधी ने देश के आज़ादी की लड़ाई के साथ मुसलमानों के खिलाफत आंदोलन को नत्थी कर दिया। यह मुसलमानों का निजी मामला था। गाँधी जी यह सोचते थे कि इससे भारतीय मुसलमान भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने लगेंगे। स्वामी श्रद्धानन्द भी उसी काल में राष्ट्रीय राजनीती में उभरे थे। महात्मा गाँधी ने हिन्दुओं को खिलाफत से जुड़ने का आवाहन किया। हिन्दुओं ने कहा की गौहत्या पर प्रतिबन्ध के मुद्दे पर वे कांग्रेस को सहयोग देने को तैयार है तब महात्मा गाँधी ने यंग इंडिया के 10 दिसंबर, 1919 के अंक में लिखा-
"मेरे विचार है कि हिन्दुओं को गौरक्षा के मुद्दे को यहाँ पर नहीं रखना चाहिए। मित्रता की परीक्षा आपदाकाल में ही होती है, वो भी बिना किसी शर्त के। जो सहयोग शर्त पर आधारित हो वह सहयोग नहीं। अपितु व्यापारिक समझौता है। सशर्त सहयोग उस मिलावटी सीमेंट के समान है, जो कभी नहीं जोड़ती। यह हिन्दुओं का कर्त्तव्य है कि अगर वे मुसलमानों के मुद्दे में इन्साफ देखते है तो उन्हें सहयोग अवश्य देना चाहिए। और अगर मुसलमान भी हिन्दुओं की भावना का सम्मान करते हुए गौवध न करे तो उन्हें भी ऐसा करना चाहिए। चाहे हिन्दू उन्हें सहयोग दे न दे। इसलिए मैं हिन्दुओं से प्रार्थना करूँगा कि उन्हें गौ वध पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग नहीं करनी चाहिए। अपितु बिना किसी शर्त के सहयोग करना चाहिए जो कि गौरक्षा के समान हैं।"
1921 में गाँधी ने अंग्रेजी कपड़ों के बहिष्कार का ऐलान किया। उन्होंने विदेशी कपड़ों की होली जलाने का निर्णय लिया। स्वामी श्रद्धानन्द को जब यह पता चला तो उन्होंने महात्मा गाँधी को तार भेजा। उसमें उन्होंने गाँधी जी से कहा कि आप विदेशी कपड़ों को जलाकर अंग्रेजों के प्रति शत्रुभाव को बढ़ावा न दे। आप उन कपड़ों को जलाने के स्थान पर निर्धन और नग्न गरीबों में बाँट दे। स्वामी जी की सलाह को दरकार कर सी.आर.दास और नेहरू ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई। जबकि खिलाफत आंदोलन से जुड़े मुसलमानों ने गाँधी जी से कपड़ों को तुर्की की पीड़ित जनता को भेजने की अनुमति प्राप्त कर ली। स्वामी जी के लिए यह एक सदमे जैसा था। हिन्दुओं के मुद्दों पर स्वामी जी पहाड़ के समान अडिग और सिद्धांतवादी बन जाते थे। जबकि मुसलमानों के लिए उनके हृदय में सदा कोमल स्थान उपलब्ध रहता था।स्वामी जी लिखते है कि मैं कभी अपने जीवन में यह समझ नहीं पाया कि अपने देश के लाखों गरीबों को अपनी नग्नता छुपाने देने के स्थान पर कपड़ों को सुदूर दूसरे देश तुर्की भेजने में कौनसी नैतिकता है?
1920-1921 के दौर में स्वामी जी ने खिलाफत की आड़ में मुसलमानों को दिए जा रहे प्रलोभनों से यह आशंका पहले ही भांप ली थी कि यह प्रयास मुसलमानों को स्वराज से अधिक कट्टर-पंथ की ओर ले जायेगा। नागपुर कांग्रेस अधिवेशन के समय कांग्रेस के मंच से क़ुरान की वो आयतें पढ़ी गई जिनका लक्ष्य गैर मुसलमानों अर्थात काफिरों को जिहाद में मारना था। स्वामी जी ने इन आयतों की ओर गाँधी जी का ध्यान दिलाया। गाँधी जी ने कहा कि इन आयतों का इशारा अंग्रेजी राज के लिए है। स्वामी जी ने उत्तर दिया कि ये आयतें अहिंसा के सिद्धांत के प्रतिकूल है और जब विरोध के स्वर उठेंगे तो मुसलमान इनका प्रयोग हिन्दुओं के लिए करने से पीछे नहीं हटेंगे। इसी बीच में मुहम्मद अली का तार सार्वजनिक हो गया। जिसमें उसने काबुल के सुल्तान को अंग्रेजों से सुलह न करने का परामर्श दिया था। स्वामी जी को मुहम्मद अली का यह व्यवहार बहुत अखरा।
अंत में वही हुआ जिसका स्वामी जी को अंदेशा था। 1921 में केरल में मोपला के दंगे हुए। निरपराध हिन्दुओं को बड़ी संख्या में मुसलमानों ने मारा, उनकी संपत्ति लूटी, उनका सामूहिक धर्म परिवर्तन किया। आर्यसमाज ने सुदूर लाहौर से महात्मा आनंद स्वामी जी, पंडित ऋषिराम आदि के नेतृत्व में सुदूर केरल में राहत कार्य हेतु स्वयं-सेवक भेजे। वहां से वापिस लौटकर महात्मा आनंद स्वामी जी ने "आर्यसमाज और मालाबार" के नाम से पुस्तक छापी जिससे दुनिया को प्रथम बार मालाबार में हुए अत्याचार का आँखों देखा हाल पता चला। इस नर-पिशाच तांडव के होने के बाद भी महात्मा गाँधी जी का मौन स्वामी जी बेहद अखरा। महात्मा गाँधी हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए हिन्दुओं की सामूहिक हत्या पर प्रतिवाद तक करने से बचते रहे। न ही उन्होंने मुसलिम नेताओं को मोपला दंगों की सार्वजनिक निंदा करने के लिए कहा। आखिर में दबाव बढ़ने पर गाँधी ने बोला तो भी वह मुसलमानों के हिमायती ही बने रहे।
गाँधी जी सबसे पहले तो मोपला मुसलमानों को बहादुर ईश्वर 'भक्त' मोपला लिखते हुए इस युद्ध के लिए जिसे वो धार्मिक युद्ध समझते है के लिए बधाई देते हैं। फिर हिन्दुओं को सुझाव देते है कि हिन्दुओं में साहस और विश्वास होना चाहिए कि वे ऐसे कट्टर विद्रोह में अपनी धर्म-रक्षा कर सके। मोपला मुसलमानों ने जो किया उसे हिन्दू मुस्लिम सहयोग की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। मुसलमानों के लिए ऐसा करना निंदनीय है, जो उन्होंने मोपला में जबरन धर्मान्तरण और लूट खसोट के रूप में किया। उन्हें अपना कार्य चुपचाप और प्रभावशाली रूप में करना चाहिए ताकि भविष्य में ऐसा न हो। चाहे उनमें कोई कितना भी कट्टर क्यों न हो। मेरा मानना है कि हिन्दुओं को मोपला के पागलपन को समभाव के रूप में लेना चाहिए। और जो सभ्य मुसलमान है उन्हें मोपला मुसलमानों को नबी की शिक्षाओं को गलत अर्थ में लेने के लिए क्षमा मांगनी चाहिए।
कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने भी मोपला दंगों पर आधिकारिक बयान दिया। उस बयान में कहा गया कि मोपला देंगे खेदजनक है। अभी भी देश में ऐसे लोग है जो कांग्रेस और खिलाफत कमेटी ने सन्देश को समझ नहीं पा रहे है। हम सभी कांग्रेस के सदस्यों से यही कहेंगे कि चाहे उन्हें भारत के किसी भी कौने में कितनी भी चुनौती मिले, वे अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ेंगे। हमें कुछ जबरन धर्म-परिवर्तन की सुचना मिली है। ये धर्म-परिवर्तन उन मुसलमानों द्वारा किये गए है जो खिलाफत और असहयोग आंदोलन के भी विरुद्ध थे।
इस प्रकार से गाँधी जी और कांग्रेस ने हिन्दू मुस्लिम एकता के नाम पर मुसलमानों के इस कुकृत्य का जोरदार प्रतिवाद करने के स्थान पर कूटनीतिक भाषा का प्रयोग कर अपना मंतव्य प्रकट किया।
स्वामी श्रद्धांनद लिबरेटर के अंक में मोपला के दंगों के विषय में लिखते है-
"मुझे सबसे पहला आभास तब हुआ जब कांग्रेस की सब्जेक्ट कमेटी में मोपला द्वारा हिन्दुओं पर अत्याचार के लिए निंदा प्रस्ताव रखा गया था। तब उस प्रस्ताव को बदल कर मोपला मुसलमानों के स्थान पर कुछ व्यक्तिगत लोगों द्वारा किया गया कृत्य करार दिया गया। प्रस्ताव में परिवर्तन का आग्रह करने वाले कुछ हिन्दू भी थे। परन्तु कुछ मुस्लिम सदस्यों को भी नामंजूर था। मौलाना फ़क़ीर और अन्य मौलाना ने स्वाभाविक रूप से इस प्रस्ताव का विरोध किया। परन्तु मेरे आश्चर्य की सीमा तब न रही जब मैंने राष्ट्रवादी कहे जाने वाले मौलाना हसरत मोहानी को इस प्रस्ताव का विरोध करते सुना। उनका कहना था कि मोपला अब दारुल-अमन नहीं बल्कि दारुल-हर्ब है। वहां के हिन्दुओं ने मोपला के शत्रु अंग्रेजों के साथ सहभागिता की हैं। इसलिए मोपला मुसलमानों का हिन्दुओं को क़ुरान या तलवार देने का प्रस्ताव उचित हैं। और अगर अपने प्राण बचाने के लिए हिन्दुओं ने इस्लाम स्वीकार कर लिया तो यह स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन कहलायेगा नाकि जबरन धर्म परिवर्तन। अंत में नाममात्र का निंदा प्रस्ताव भी सहमति से स्वीकार नहीं हो पाया। अंत में वोटिंग द्वारा प्रस्ताव स्वीकार हुआ जिसमें बहुमत प्रस्ताव के पक्ष में था। यह प्रकरण एक बात और सिद्ध करता था कि मुसलमानों कांग्रेस को अधिक बर्दाश्त करने वाले नहीं हैं। अगर उनके अनुसार कांग्रेस नहीं चली तो वह इस दिखावटी एकता का त्याग करने से पीछे नहीं हटेंगे।"
स्वामी जी का कांग्रेस से मोह-भंग होता गया। अंत में 1922 में उन्होंने गाँधी जी और कांग्रेस से दूरी बना ली। स्वामी जी अब खुलकर हिन्दू हितों की बात करने लगे।
कांग्रेस से असंतुष्ट होकर स्वामी जी पंडित मदन मोहन मालवीय और सेठ घनश्याम बिरला के प्रस्ताव पर हिन्दू महासभा से जुड़े। उनका कर्नल यु. सी. मुखर्जी से मिलना हुआ जिन्होंने 1921 की जनसँख्या जनगणना के आधार पर स्वामी जी को बताया कि अगर हिन्दुओं की जनसंख्या इसी प्रकार से घटती गई तो लगभग 420 वर्षों में हिन्दू इस धरा से सदा के लिए विलुप्त हो जायेगा।
स्वामी जी ने जब देखा कि अछूतों को सार्वजनिक कुएँ से पानी भरने का अधिकार नहीं मिल रहा है तो उन्होंने 13, फरवरी 1924 को अछूतों के साथ मिलकर दिल्ली में जुलूस निकाला। वे अनेक कुओं पर गए और सार्वजनिक रूप से पानी पिया। एक कुएँ मुसलमानों से विवाद हुआ जिन्होंने उन्हें पानी भरने से रोका। इस विवाद में पत्थरबाजी हुई जिसमें स्वामी जी के साथ आये अछूतों और आर्यों को चोटें आई। बाद में पुलिस ने आकर दखल दिया।
नौ मुसलमानों की शुद्धि के लिए स्वामी जी ने 13 फरवरी, 1923 को आगरा में भारतीय हिन्दू शुद्धि सभा की स्थापना की। स्वामीजी इस सभा के प्रधान और लाला हंसराज इसके उप-प्रधान चुने गए।
स्वामी जी ने लीडर समाचार पत्र में शुद्धि के लिए अपील निकाली जो इस प्रकार थी।
"हमारा महान आर्यावर्त देश वर्तमान में पतन की ओर विमुख है। न केवल इसके सदस्यों की संख्या कम हो रही है। अपितु यह पूरी तरह से अव्यवस्थित भी है। इस देश के निवासियों के समान पूरी दुनिया में कोई अन्य नहीं हैं। उनके समान प्रतिभा, उनके क्षमता, उनके नैतिकता दुनिया में किसी अन्य नस्ल में नहीं मिलती। इतना होते हुए भी यह नस्ल विभाजित और स्वार्थी होने के कारण असहाय है। लाखों मुसलमान बन गए और हजारों ईसाई बन गए। पिछली दो शताब्दियों से जो ब्राह्मण, वैश्य, राजपूत और जाट नव-मुस्लिम बनने के बाद भी हिन्दू समाज की और आशा-भरी नज़रों से देखते है कि एक दिन उन्हें वापिस अपने भ्रातृत्व में शामिल कर लिया जायेगा।
अगले दो महीनों तक स्वामी जी गांव गांव घूमकर वर्ष के अंत तक 30000 शुद्धियाँ कर लेते है। स्वामी जी स्वाभाविक रूप से मुसलमानों के विरोधी बन गए। जमायत-अल-उलेमा ने 18 मार्च, 1923 को स्वामी जी के विरोध में मुंबई में सभी का आयोजन किया। अनेक शहरों में विज्ञापन के माध्यम यह अफ़वाह उड़ाई गई कि कुछ मुसलमान हिन्दू साधुओं के वेश में मल्कानों को डराने और स्वामी जी की निंदा के लिए घूम रहे हैं। कुछ आर्यों को अपने नेता की सुरक्षा की चिंता हुई। उन्होंने स्वामी जी को अंगरक्षक रखने की सलाह दी। पर उन्होंने परम-पिता मेरा रक्षक है। कहकर मना कर दिया। मुरादाबाद में स्वामी जी को भाषण देने से मना कर दिया गया। अनेक स्थानों पर मुसलमानों ने विरोध में सभाएं भी आयोजित की।
राष्टीय स्तर पर अनेक नेताओं ने स्वामी जी का विरोध करना आरम्भ कर दिया। 8 अप्रैल, 1923 को मोतीलाल नेहरू ने लीडर समाचार पत्र में लिखा कि मुझे प्रसन्नता होती अगर यह आंदोलन इस समय न आरम्भ किया जाता जब पंजाब में हिन्दू और मुसलमानों के मध्य विवाद अपने चरम पर हैं। मौलाना अब्दुल कलाम ने लिखा की शुद्धि के बहाने व्यक्तियों का शोषण किया जा रहा हैं। स्वामी जी ने 5 और 6 मई ,1923 के लीडर में इसका प्रतिवाद लिखा। जवाहरलाल नेहरू ने 13 मई, 1923 ले लीडर में अच्छा होता इस समय यह मुद्दा न उछाला जाता। मेरे विचार से सभी बाहरी व्यक्तियों को मलकाना को तुरंत छोड़ देना चाहिए और उन्हें अपने आप शांति पूर्वक अपना काम करने देना चाहिए।
उस काल की CID रिपोर्ट में शुद्धि को लेकर अनेक समाचार दर्ज है। जहां आर्यसमाज और हिन्दू सभा शुद्धि पक्षधर थे। वही कांग्रेस के बड़े नेताओं जहाँ शुद्धि की निंदा कर रहे थे। तो मुसलमानों के प्रतिनिधि बड़े बड़े बयान देकर उकसाने से पीछे नहीं हट रहे थे। स्वामी जी शुद्धि अभियान को दरभंगा के महाराज और बनारस के भारत धर्म महामण्डल के पंडितों का साथ मिला। निःसन्देश स्वामी दयानन्द द्वारा आरम्भ किये गए शुद्धि आंदोलन को स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा गति देकर लाखों बिछुड़े हुए को वापिस हिन्दू धर्म में शामिल किया गया।
देश में 1923 में हिन्दू और मुसलमानों के मध्य अनेक दंगे हुए। मुलतान, अमृतसर, कोलकाता, सहारनपुर जल उठे। कांग्रेस द्वारा 1923 में एक सम्मेलन कर तत्कालीन परिस्थितियों पर विचार किया गया। मौलाना अहमद सौद ने स्वामी जी पर हिन्दू मुस्लिम एकता को भंग करने का आरोप लगाया। उसने यहाँ तक कह दिया कि स्वामी जी को इस कार्य के लिए अंग्रेजों से पैसा मिलता है। स्वामी जी ने शुद्धि और संगठन के समर्थन में अपना वक्तव्य पेश किया जो दो घंटे चला। उनका कहना था कि हिन्दू मुस्लिम एकता भारत की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है। मगर इस एकता का शुद्धि या संगठन से कुछ भी लेना देना नहीं है। अपने अपने प्रचारकों को आगरा से हटाने पर कोई सहमति नहीं बन पाई। (सन्दर्भ- हिन्दू मुस्लिम इत्तिहाद की कहानी, दिल्ली ,1924)
यह विवाद चल ही रहा था कि स्वामी जी के प्रकाश में ख्वाजा हसन निज़ामी का लिखा एक उर्दू दस्तावेज "दाइये इस्लाम" के नाम से आया। इस पुस्तक को इतने गुप्त तरीके से छापा गया था की इसका प्रथम संस्करण का प्रकाशित हुआ और कब समाप्त हुआ इसका मालूम ही नहीं चला। इसके द्वितीय संस्करण की प्रतियाँ अफ्रीका तक पहुँच गई थी। एक आर्य सज्जन को उसकी यह प्रति अफ्रीका में प्राप्त हुई जिसे उन्होंने स्वामी श्रद्धानंद जी को भेज दिया। स्वामी ने इस पुस्तक को पढ़ कर उसके प्रति उत्तर में पुस्तक लिखी जिसका नाम था "अलार्म बेल अर्थात खतरे का घंटा"। इस पुस्तक में उस समय के 21 करोड़ हिन्दुओं में से 1 करोड़ हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित करने का लक्ष्य रखा गया था। स्वामी जी ने अलार्म बेल अर्थात खतरे का घंटा के नाम से पुस्तक लिखकर हिन्दुओं को इस सुनियोजित षड़यंत्र के प्रति आगाह किया। स्वामी जी ने आर्यसमाज से 250 प्रचारक और 25 लाख रुपये एकत्र करने की अपील की ताकि इस षड़यंत्र को रोका जा सके। सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के अंतर्गत दलितोद्धार फण्ड के अंतर्गत यह अपील निकाली गई थी।
स्वामी जी इस बीच में दक्षिण भारत जाते हुए महात्मा गाँधी से जुहू में मिले। दोनों में 2 घंटा चर्चा हुई। गाँधी जी ने अपनी असहमति को 29 मई, 1925 के यंग इंडिया समाचार पत्र में "हिन्दू मुस्लिम तनाव: कारण और निवारण " के नाम से एक लेख लिखा। इस लेख में गाँधी जी ने आर्यसमाज, स्वामी दयानन्द और स्वामी श्रद्धानन्द तीनों के मंतव्यों पर प्रहार किया। गाँधी जी लिखते है-
"स्वामी श्रद्धानन्द जी पर अविश्वास किया जाता है। मैं यह जानता हूँ की उनकी वकृततायें भड़काने वाली होती है। परन्तु वे हिन्दू मुस्लिम एकता में भी विश्वास करते हैं। दुर्भाग्य से उनका यह विश्वास है कि किसी दिन सारे मुसलमान आर्य बन जायेंगे। जिस प्रकार कि संभवत: बहुत से मुसलमान यह समझते है कि किसी दिन सारे गैर-मुस्लिम इस्लाम को स्वीकार कर लेंगे। श्रद्धानन्द जी निर्भय है। अकेले ही उन्होंने एक निर्जन जंगल में आलीशान विश्वविद्यालय की स्थापना की। उनका अपनी शक्तियों और उद्देश्य में विश्वास है, परन्तु वे जल्दबाज़ हैं और शीघ्रता से क्रोध के आवेश में आ जाते हैं। उन्होंने आर्यसमाजिक स्वाभाव विरासत में लिए हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती के लिए मेरे हृदय में बड़ा सम्मान है। मैं समझता हूँ कि उन्होंने हिन्दू धर्म की बड़ी सेवा की है। उनकी वीरता में कोई संदेह नहीं किया जा सकता। परन्तु उन्होंने हिन्दू धर्म को तंग बना दिया है। मैंने आर्यसमाजियों की बाइबिल सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ा है। जब में यरवदा जेल में था तब मेरे मित्रों ने मेरे पास तीन प्रतियाँ भेजी थीं। मैंने इस प्रकार से महान सुधारक के हाथ से लिखी, इससे अधिक निराशाजनक और कोई पुस्तक नहीं पढ़ी। उन्होंने इस बात का दावा किया है कि वह सत्य के प्रतिनिधि हैं। परन्तु उन्होंने अनजाने जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई मत तथा इस्लाम की असत्य व्याख्या की हैं। उन्होंने संसार भर के अत्यंत विशाल और उदार धर्म को संकुचित बना दिया है। मूर्तिपूजा के विरुद्ध होते हुए भी उन्होंने मूर्तिपूजा चलाई है, क्योंकि उन्होंने वेद का अक्षर-अक्षर सत्य माना है और सब विद्याओं का होना वेद में बताया है। आर्यसमाज की उन्नति का कारण सत्यार्थप्रकाश की शिक्षायें नहीं है, परन्तु इनके प्रवर्तक का उत्तम आचार है। जहाँ कहीं तुम आर्य समाजियों को देखो वहां जीवन दृष्टिगोचर होगा। परन्तु दृष्टि के संकुचित और दुराग्रही होने के कारण से वे और मतों के लोगों से लड़ाई ठान लेते हैं और जब कोई और लड़ने को नहीं होता तो आपस में लड़ पड़ते हैं। श्रद्धानन्द जी में इस भाव की पर्याप्त मात्रा है। परन्तु इन सब दोषों के होते हुए भी वह इस योग्य हैं कि उनके लिए मंगल कामना कीजिये। यह संभव है कि मेरे लेख से आर्यसमाजियों को क्रोध आयेगा। परन्तु में किसी पर आक्षेप करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ। मेरा समाजियों से प्रेम हैं क्यूंकि उनमें से बहुत से मेरे सहयोगी हैं। जब दक्षिण अफ्रीका में था तब भी स्वामी जी से मेरा प्रेम था, यद्यपि अब मेरा उनसे पास का परिचय हो गया है तथापि मेरा उनसे प्रेम कम नहीं हुआ। यह सब बातें प्रेमभाव से लिखी हैं। "
शुद्धि और तबलीग के विषय में लिखते हुए गाँधी जी बोले-
"शुद्धि करने का वर्तमान दंग हिन्दू मुस्लिम ऐक्य को बिगाड़ने का एक प्रधान कारण हैं। मेरी सम्मति में हिन्दू धर्म में कहीं भी ऐसी शुद्धि का विधान नहीं है- जैसी ईसाइयों और उनसे कम मुसलमानों ने समझी है। मैं समझता हूँ कि इस प्रकार के प्रचार का दंग आर्यसमाज ने ईसाइयों से लिया है। यह वर्तमान दंग मुझे अपील नहीं करता। इससे लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक हुई है। एक आर्यसमाज का प्रचारक कभी इतना प्रसन्न नहीं होता, जितना दूसरे धर्मों की निंदा करने से। मेरी हिन्दू प्रकृति मुझसे कहती है कि सब धर्म थोड़े बहुत सच्चे हैं। सबका स्रोत्र एक ही परमात्मा है। परन्तु क्योंकि उनके आने का साधन अपूर्ण मनुष्य हैं, इसलिए सब धर्म अपूर्ण हैं। वास्तविक शुद्धि यही है कि प्रत्येक मनुष्य अपने धर्म में पूर्णता प्राप्त करे। यदि धर्म परिवर्तन से आदमी में कोई उच्चता पैदा न हो तो इस प्रकार से धर्म परिवर्तन में कोई लाभ नहीं। हमें इससे क्या लाभ होगा कि यदि हम अन्य मतावलम्बियों को अपने धर्म में लायें जबकि हमारे धर्म के बहुत से अनुयायी अपने कार्यों से परमात्मा की सत्ता से इंकार कर रहे हैं। चिकित्सक पहिले अपने आपको स्वस्थ करें यह एक नित्य सच्चाई है। यदि आर्यसमाजी शुद्धि के लिए अपनी अंतरात्मा से आवाज़ पाते हैं तो विशेष उन्हें इसके जारी रखने में कोई संकोच न करना चाहिये। इस प्रकार की आवाज़ के लिए समय की तथा अनुभव के कारण बाधा नहीं हो सकती। यदि अपनी आत्मा की आवाज़ को सुनकर कोई आर्यसमाजी या मुसलमान अपने धर्म का प्रचार करता है और उसके प्रचार करने से यदि हिन्दू मुस्लिम ऐक्य में विघ्न पड़े तो इसकी परवाह नहीं करनी चाहिये। इस प्रकार के आंदोलनों को रोका नहीं जा सकता। केवल उसके आधार में सच्चाई होनी चाहिए। यदि मलकाने हिन्दू धर्म में आना चाहते हैं, तो इसका उनको पूरा अधिकार है। परन्तु ऐसा कोई भी कार्य नहीं किया जाना चाहिये जिससे दूसरे धर्मों को हानि पहुंचे। इस प्रकार के कार्यों का समूह रूप से विरोध करना चाहिये। मुझे पता लगा है कि मुसलमान और आर्यसमाजी दोनों ही स्त्रियों को भगाकर अपने धर्मों में लाने का उद्योग करते हैं।"
आर्यसमाज में गाँधी जी के लेख की बड़ी भारी प्रतिक्रिया हुई। पूरे देश से गाँधी जी को अनेक पत्र इसके विरोध में लिखे गए। गाँधी जी ने मगर अपने शब्द वापिस नहीं लिए। स्वामी जी से जब इसका उत्तर देने के लिए कहा गया। तब स्वामी जी ने 13 जून, 1924 के लीडर उत्तर दिया कि
"मैं नहीं समझता कि गाँधी जी के लेख की किसी को उत्तर देने की आवश्यकता है। गाँधी जी की लेख ही उसका प्रति उत्तर है क्यूँकि यह अंतर्विरोध से भरा पड़ा है। जो अपने आप यह सिद्ध करता है कि गाँधी जी ने आर्यसमाज के विरुद्ध क्यों लिखा है। आर्यसमाज का ऐसे लेखों से कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है। अगर आर्यसमाजी सही है तो न तो महात्मा गाँधी के लेख से और न ही किसी अन्य के लेख से आर्यसमाज की गतिविधियां रुकने वाली हैं।"
पंडित चमूपति और बृजनाथ मित्तल द्वारा गाँधी जी के लेख के प्रति उत्तर में लिखे गए लेख पठनीय हैं। इतिहास की करवट देखिये कि जिन गाँधी जी ने शुद्धि का तीव्र विरोध किया था। उन्हीं गाँधी जी का ज्येष्ठ पुत्र हीरालाल धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बन गया था। उसी हीरालाल को वापिस से शुद्ध करने के लिए गाँधी जी की पत्नी कस्तूरबा ने आर्यसमाज से गुहार लगाई। आर्यसमाज ने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मुंबई में अब्दुल्लाह गाँधी को वापिस हीरालाल बनाकर शुद्ध किया था।
महात्मा गाँधी के लेख के पश्चात मुसलमानों में धार्मिक उन्माद चरम सीमा एक बढ़ गया। उन्हें गाँधी जी के रूप में समर्थक जो मिल गया था। मार्च 1926 में स्वामी जी के पास कराची असगरी बेगम के नाम से एक महिला अपने बच्चों को लेकर शुद्ध होने के लिए आयी। उन्होंने स्वेच्छा से शुद्ध होकर अपन नाम शांति देवी रख लिया। कुछ महीनों बाद उसका पति उसे खोजते हुए दिल्ली आया। उसने अपनी पत्नी का मन बदलने मगर वह नहीं मानी। उसने 2 सितम्बर को स्वामी जी, उनके पुत्र इंद्र जी और जमाई डॉ सुखदेव पर उसकी पति बहकाने का मुकदमा कर दिया। 4 दिसंबर को इस मुक़दमे में फैसला स्वामी जी के पक्ष में हुआ। इस दौरान मुसलमानों में विशेष उत्तेजना देखने को मिली। ख्वाजा हसन निज़ामी दरवेश पत्र के माध्यम से मुसलमानों को भड़का रहा था। इन्द्र विद्यावाचस्पति ने स्वामी जी मुस्लिम मोहल्लों से रोजाना भ्रमण करने से मना भी किया। इस दौरान बनारस का दौरा कर स्वामी जी लौटे तो उन्हें निमोनिया ने घेर लिया। वो बीमार होकर अपने निवास पर आराम कर रहे थे। 23 दिसंबर को अब्दुल रशीद के नाम से एक मुसलमान स्वामी जी से चर्चा करने आया। स्वामी जी के सेवक धर्म सिंह ने उसे कहा स्वामी जी बीमार है। आप नहीं मिल सकते। स्वामी जी ने उसे अंदर बुला लिया और कहा कि वो अभी बीमार है। ठीक होने पर उसकी शंका का समाधान अवश्य करेंगे। अब्दुल रशीद ने पीने को पानी माँगा। जैसे ही धर्म सिंह पानी लेने गया तो रशीद ने स्वामी जी पर दो गोलियां दाग दी। स्वामी जी का तत्काल देहांत हो गया। धर्म सिंह ने उसे पकड़ने का प्रयास किया तो उसने धर्म सिंह की जांघ पर गोली मार दी। शोर सुनकर धर्मपाल जो स्वामी जी का सचिव था अंदर आया। उसने रशीद को कसकर पकड़ लिया। इतनी देर में पुलिस आ गई। इंद्र जी ने आकर स्वामी जी का चेहरा देखा जिस पर असीम शांति थी। कुछ दिनों पहले ही स्वामी जी ने इंद्र से कहा था कि
"मुझे संतुष्टि है कि मेरा चुनाव अब बलिदान के लिए हो गया है।"
25 दिसंबर, 1926 को स्वामी जी की अंतिम यात्रा निकली। भीड़ इतनी अधिक थी कि बेकाबू हो रही थी। स्वामी जी का अंतिम संस्कार इंद्रा जी ने किया। अब्दुल रशीद को फांसी पर चढ़ा दिया गया। कट्टरपंथी मुसलमानों ने उसको पहले बचाने का और फिर शहीद घोषित करने का भरसक प्रयास किया। मगर उनका यह सपना सपना ही रह गया।
महात्मा गाँधी ने 1926 के पश्चात रंगीला रसूल मामले में महाशय राजपाल की हत्या पर भी मुसलमानों का पक्ष लिया। हैदराबाद आंदोलन में आर्यसमाज ने जब हिन्दू समाज के हितों के लिए निज़ाम हैदराबाद के विरोध में आंदोलन किया तब भी मुसलमानों का पक्ष लिया। 1945 में सिंध में सत्यार्थ प्रकाश सत्याग्रह के समय में गाँधी जी मुसलमानों के पक्ष में खड़े दिखाई दिए। 1946 में कोलकाता और नोआखली के दंगों में भी उनका यही हाल था। और देश के 1947 के विभाजन में भी वे मुसलमानों का तुष्टिकरण करते दिखाई दिए। खेदजनक बात यह है कि आज भी उसी गाँधीवादी मानसिकता को हमारे ऊपर थोपा जा रहा है।
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