Wednesday, June 21, 2023

दामोदर राव (असली नाम आनंद राव).

झांसी के अंतिम संघर्ष में महारानी की पीठ पर बंधा उनका बेटा दामोदर राव (असली नाम आनंद राव) सबको याद है. रानी की चिता जल जाने के बाद उस बेटे का क्या हुआ
वो कोई कहानी का किरदार भर नहीं था, 1857 के विद्रोह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी को जीने वाला राजकुमार था जिसने उसी गुलाम भारत में जिंदगी काटी, जहां उसे भुला कर उसकी मां के नाम की कसमें खाई जा रही थी.
अंग्रेजों ने दामोदर राव को कभी झांसी का वारिस नहीं माना था, सो उसे सरकारी दस्तावेजों में कोई जगह नहीं मिली थी. ज्यादातर हिंदुस्तानियों ने सुभद्रा कुमारी चौहान के कुछ सही, कुछ गलत आलंकारिक वर्णन को ही इतिहास मानकर इतिश्री कर ली.
1959 में छपी वाई एन केलकर की मराठी किताब ‘इतिहासाच्य सहली’ (इतिहास की सैर) में दामोदर राव का इकलौता वर्णन छपा.
महारानी की मृत्यु के बाद दामोदार राव ने एक तरह से अभिशप्त जीवन जिया. उनकी इस बदहाली के जिम्मेदार सिर्फ फिरंगी ही नहीं हिंदुस्तान के लोग भी बराबरी से थे.
आइये, दामोदर की कहानी दामोदर की जुबानी सुनते हैं –
15 नवंबर 1849 को नेवलकर राजपरिवार की एक शाखा में मैं पैदा हुआ. ज्योतिषी ने बताया कि मेरी कुंडली में राज योग है और मैं राजा बनूंगा. ये बात मेरी जिंदगी में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से सच हुई. तीन साल की उम्र में महाराज ने मुझे गोद ले लिया. गोद लेने की औपचारिक स्वीकृति आने से पहले ही पिताजी नहीं रहे.
मां साहेब (महारानी लक्ष्मीबाई) ने कलकत्ता में लॉर्ड डलहॉजी को संदेश भेजा कि मुझे वारिस मान लिया जाए. मगर ऐसा नहीं हुआ.
डलहॉजी ने आदेश दिया कि झांसी को ब्रिटिश राज में मिला लिया जाएगा. मां साहेब को 5,000 सालाना पेंशन दी जाएगी. इसके साथ ही महाराज की सारी सम्पत्ति भी मां साहेब के पास रहेगी. मां साहेब के बाद मेरा पूरा हक उनके खजाने पर होगा मगर मुझे झांसी का राज नहीं मिलेगा.
इसके अलावा अंग्रेजों के खजाने में पिताजी के सात लाख रुपए भी जमा थे. फिरंगियों ने कहा कि मेरे बालिग होने पर वो पैसा मुझे दे दिया जाएगा.
मां साहेब को ग्वालियर की लड़ाई में शहादत मिली. मेरे सेवकों (रामचंद्र राव देशमुख और काशी बाई) और बाकी लोगों ने बाद में मुझे बताया कि मां ने मुझे पूरी लड़ाई में अपनी पीठ पर बैठा रखा था. मुझे खुद ये ठीक से याद नहीं. इस लड़ाई के बाद हमारे कुल 60 विश्वासपात्र ही जिंदा बच पाए थे.
नन्हें खान रिसालेदार, गनपत राव, रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख ने मेरी जिम्मेदारी उठाई. 22 घोड़े और 60 ऊंटों के साथ बुंदेलखंड के चंदेरी की तरफ चल पड़े. हमारे पास खाने, पकाने और रहने के लिए कुछ नहीं था. किसी भी गांव में हमें शरण नहीं मिली. मई-जून की गर्मी में हम पेड़ों तले खुले आसमान के नीचे रात बिताते रहे. शुक्र था कि जंगल के फलों के चलते कभी भूखे सोने की नौबत नहीं आई.
असल दिक्कत बारिश शुरू होने के साथ शुरू हुई. घने जंगल में तेज मानसून में रहना असंभव हो गया. किसी तरह एक गांव के मुखिया ने हमें खाना देने की बात मान ली. रघुनाथ राव की सलाह पर हम 10-10 की टुकड़ियों में बंटकर रहने लगे.
मुखिया ने एक महीने के राशन और ब्रिटिश सेना को खबर न करने की कीमत 500 रुपए, 9 घोड़े और चार ऊंट तय की. हम जिस जगह पर रहे वो किसी झरने के पास थी और खूबसूरत थी.
देखते-देखते दो साल निकल गए. ग्वालियर छोड़ते समय हमारे पास 60,000 रुपए थे, जो अब पूरी तरह खत्म हो गए थे. मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि सबको लगा कि मैं नहीं बचूंगा. मेरे लोग मुखिया से गिड़गिड़ाए कि वो किसी वैद्य का इंतजाम करें.
मेरा इलाज तो हो गया मगर हमें बिना पैसे के वहां रहने नहीं दिया गया. मेरे लोगों ने मुखिया को 200 रुपए दिए और जानवर वापस मांगे. उसने हमें सिर्फ 3 घोड़े वापस दिए. वहां से चलने के बाद हम 24 लोग साथ हो गए.
ग्वालियर के शिप्री में गांव वालों ने हमें बागी के तौर पर पहचान लिया. वहां तीन दिन उन्होंने हमें बंद रखा, फिर सिपाहियों के साथ झालरपाटन के पॉलिटिकल एजेंट के पास भेज दिया. मेरे लोगों ने मुझे पैदल नहीं चलने दिया. वो एक-एक कर मुझे अपनी पीठ पर बैठाते रहे.
हमारे ज्यादातर लोगों को पागलखाने में डाल दिया गया. मां साहेब के रिसालेदार नन्हें खान ने पॉलिटिकल एजेंट से बात की.
उन्होंने मिस्टर फ्लिंक से कहा कि झांसी रानी साहिबा का बच्चा अभी 9-10 साल का है. रानी साहिबा के बाद उसे जंगलों में जानवरों जैसी जिंदगी काटनी पड़ रही है. बच्चे से तो सरकार को कोई नुक्सान नहीं. इसे छोड़ दीजिए पूरा मुल्क आपको दुआएं देगा.
फ्लिंक एक दयालु आदमी थे, उन्होंने सरकार से हमारी पैरवी की. वहां से हम अपने विश्वस्तों के साथ इंदौर के कर्नल सर रिचर्ड शेक्सपियर से मिलने निकल गए. हमारे पास अब कोई पैसा बाकी नहीं था.
सफर का खर्च और खाने के जुगाड़ के लिए मां साहेब के 32 तोले के दो तोड़े हमें देने पड़े. मां साहेब से जुड़ी वही एक आखिरी चीज हमारे पास थी.
इसके बाद 5 मई 1860 को दामोदर राव को इंदौर में 10,000 सालाना की पेंशन अंग्रेजों ने बांध दी. उन्हें सिर्फ सात लोगों को अपने साथ रखने की इजाजत मिली. ब्रिटिश सरकार ने सात लाख रुपए लौटाने से भी इंकार कर दिया.
दामोदर राव के असली पिता की दूसरी पत्नी ने उनको बड़ा किया. 1879 में उनके एक लड़का लक्ष्मण राव हुआ.दामोदर राव के दिन बहुत गरीबी और गुमनामी में बीते। इसके बाद भी अंग्रेज उन पर कड़ी निगरानी रखते थे। दामोदर राव के साथ उनके बेटे लक्ष्मणराव को भी इंदौर से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी।
इनके परिवार वाले आज भी इंदौर में ‘झांसीवाले’ सरनेम के साथ रहते हैं. रानी के एक सौतेला भाई चिंतामनराव तांबे भी था. तांबे परिवार इस समय पूना में रहता है. झाँसी के रानी के वंशज इंदौर के अलावा देश के कुछ अन्य भागों में रहते हैं। वे अपने नाम के साथ झाँसीवाले लिखा करते हैं। जब दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे थे तब इंदौर में रहते हुए उनकी चाची जो दामोदर राव की असली माँ थी। बड़े होने पर दामोदर राव का विवाह करवा देती है लेकिन कुछ ही समय बाद दामोदर राव की पहली पत्नी का देहांत हो जाता है। दामोदर राव की दूसरी शादी से लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। दामोदर राव का उदासीन तथा कठिनाई भरा जीवन 28 मई 1906 को इंदौर में समाप्त हो गया। अगली पीढ़ी में लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।
दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं। 
उनके वंशज श्री लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे ! अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है। वंशजों में प्रपौत्र अरुणराव झाँसीवाला, उनकी धर्मपत्नी वैशाली, बेटे योगेश व बहू प्रीति का धन्वंतरिनगर इंदौर में सामान्य नागरिक की तरह माध्यम वर्ग परिवार हैं। 
कांग्रेस के चाटुकारों ने तो सिर्फ नेहरू परिवार की ही गाथा गाई है इन लोगों को तो भुला ही दिया गया है जिन्होंने असली लड़ाई लड़ी थी अंग्रेजो के खिलाफ आइए इस को आगे पीछे बढ़ाएं और लोगों को सच्चाई से अवगत कराए l

Saturday, June 10, 2023

हेलेन और चन्द्रगुप्त.

जब यूनानी आक्रमणकारी सेल्यूकस सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य से हार गया और उसकी सेना बंदी बना ली गयी तब उसने अपनी अतिसुंदर पुत्री हेलेन के विवाह का प्रस्ताव सम्राट चन्द्रगुप्त के पास भेजा..

हेलेन,सेल्यूकस की सबसे छोटी अतिसुंदर पुत्री थी उसके विवाह का प्रस्ताव मिलने पर आचार्य चाणक्य ने सम्राट चन्द्रगुप्त से उसका विवाह कराया था..!!

पर उन्होंने विवाह से पहले हेलेन और चन्द्रगुप्त से कुछ शर्ते रखीं थीं,जिस पर ही उन दोनों का विवाह हुआ था

पहली शर्त यह थी कि उन दोनों के संसर्ग से उत्पन्न संतान उनके राज्य की उत्तराधिकारी नहीं होगी

और कारण बताया कि हेलेन एक विदेशी महिला है, भारत के पूर्वजों से उसका कोई नाता नहीं है भारतीय संस्कृति से हेलेन पूर्णतः अनभिज्ञ है

दूसरा कारण बताया की हेलेन विदेशी शत्रुओं की बेटी है। उसकी निष्ठा कभी भी भारत के साथ नहीं हो सकती 

तीसरा कारण बताया की हेलेन का बेटा विदेशी माँ का पुत्र होने के नाते उसके प्रभाव से कभी मुक्त नहीं हो पायेगा और भारतीय माटी, भारतीय लोगों के प्रति कभी भी पूर्ण निष्ठावान नहीं हो पायेगा

एक और शर्त आचार्य चाणक्य ने हेलेन के सामने रखी थी कि वह कभी भी चन्द्रगुप्त के राजकार्य में हस्तक्षेप नहीं करेगी और राजनीति और प्रशासनिक अधिकार से पूर्णतया दूर रहेगी
परन्तु गृहस्थ जीवन में हेलेन का पूर्ण अधिकार होगा

विचार कीजिए .. भारत ही नहीं विश्वभर में आचार्य चाणक्य जैसा कूटनीतिज्ञ और महान नीतिकार राजनीतिज्ञ आज तक कोई दूसरा नहीं हुआ 

किन्तु दुर्भाग्य देखिए आज देश को वर्तमान में एक ऐसी ही महिला का कुपुत्र प्राप्त हुआ है,जो कभी भी भारत और भारतीय नागरिकों के हितों की चिन्ता नहीं करता,विदेशों में जाकर सदैव भारत एवं भारतीयों के विरुद्ध निरन्तर जहर उगलता रहता है।

Thursday, June 8, 2023

40 वर्ष तक के कार्यकाल में 42 युद्ध लड़े

जिस व्यक्ति ने अपनी आयु के 20 वे वर्ष में पेशवाई के सूत्र संभाले हों,||
40 वर्ष  तक के कार्यकाल में 42 युद्ध लड़े हों और सभी जीते हों यानि जो सदा "अपराजेय" रहा हो,||
जिसके एक युद्ध को अमेरिका जैसा राष्ट्र अपने सैनिकों को पाठ्यक्रम के रूप में पढ़ा रहा हो ..ऐसे 'परमवीर' को आप क्या कहेंगे ...?
आप उसे नाम नहीं दे पाएंगे ..क्योंकि आपका उससे परिचय ही नहीं,||
सन 18 अगस्त सन् 1700 में जन्मे उस महान पराक्रमी पेशवा का नाम है -
 " बाजीराव पेशवा "||

"अगर मुझे पहुँचने में देर हो गई तो इतिहास लिखेगा कि एक राजपूत ने मदद मांगी और ब्राह्मण भोजन करता
 रहा||"
ऐसा कहते हुए भोजन की थाली छोड़कर बाजीराव अपनी सेना के साथ राजा छत्रसाल की मदद को बिजली की गति से दौड़ पड़े,||

धरती के महानतम योद्धाओं में से एक , अद्वितीय , अपराजेय और अनुपम योद्धा थे बाजीराव बल्लाल,||

छत्रपति शिवाजी महाराज का हिन्दवी स्वराज का सपना जिसे पूरा कर दिखाया तो सिर्फ - बाजीराव बल्लाल भट्ट जी ने,||

अटक से कटक तक , कन्याकुमारी से सागरमाथा तक केसरिया लहराने का और हिंदू स्वराज लाने के सपने को पूरा किया पेशवा 'बाजीराव प्रथम' ने,||

इतिहास में शुमार अहम घटनाओं में एक यह भी है कि दस दिन की दूरी बाजीराव ने केवल पांच सौ घोड़ों के साथ 48 घंटे में पूरी की, बिना रुके, बिना थके,||

देश के इतिहास में ये अब तक दो आक्रमण ही सबसे तेज माने गए हैं,||
 एक अकबर का फतेहपुर से गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए नौ दिन के अंदर वापस गुजरात जाकर हमला करना और दूसरा बाजीराव का दिल्ली पर हमला,||

बाजीराव दिल्ली तक चढ़ आए थे,||
 आज जहां तालकटोरा स्टेडियम है, वहां बाजीराव ने डेरा डाल दिया,||
 उन्नीस-बीस साल के उस युवा ने मुगल ताकत को दिल्ली और उसके आसपास तक समेट दिया था,||

तीन दिन तक दिल्ली को बंधक बनाकर रखा,||
 मुगल बादशाह की लाल किले से बाहर निकलने की हिम्मत ही नहीं हुई,||
यहां तक कि 12वां मुगल बादशाह और औरंगजेब का नाती दिल्ली से बाहर भागने ही वाला था कि उसके लोगों ने बताया कि जान से मार दिए गए तो सल्तनत खत्म हो जाएगी,||
 वह लाल किले के अंदर ही किसी अति गुप्त तहखाने में छिप गया,||
बाजीराव मुगलों को अपनी ताकत दिखाकर वापस लौट गए,||

हिंदुस्तान के इतिहास के बाजीराव बल्लाल अकेले ऐसे योद्धा थे जिन्होंने अपनी मात्र 40 वर्ष की आयु में 42 बड़े युद्ध लड़े और

Monday, June 5, 2023

भारत में सेवा करने वाले ब्रिटिश अधिकारि.

भारत में सेवा करने वाले ब्रिटिश अधिकारियों को इंग्लैंड लौटने पर सार्वजनिक पद/जिम्मेदारी नहीं दी जाती थी। तर्क यह था कि उन्होंने एक गुलाम राष्ट्र पर शासन किया है जिसकी वजह से उनके दृष्टिकोण और व्यवहार में फर्क आ गया होगा। अगर उनको यहां ऐसी जिम्मेदारी दी जाए, तो वह आजाद ब्रिटिश नागरिकों के साथ भी उसी तरह से ही व्यवहार करेंगे। इस बात को समझने के लिए नीचे दिया गया वाकया जरूर पढ़ें...

एक ब्रिटिश महिला जिसका पति ब्रिटिश शासन के दौरान पाकिस्तान और भारत में एक सिविल सेवा अधिकारी था। महिला ने अपने जीवन के कई साल भारत के विभिन्न हिस्सों में बिताए, अपनी वापसी पर उन्होंने अपने संस्मरणों पर आधारित एक सुंदर पुस्तक लिखी।

महिला ने लिखा कि जब मेरे पति एक जिले के डिप्टी कमिश्नर थे तो मेरा बेटा करीब चार साल का था और मेरी बेटी एक साल की थी। डिप्टी कलेक्टर को मिलने वाली कई एकड़ में बनी एक हवेली में रहते थे। सैकड़ों  लोग डीसी के घर और परिवार की सेवा में लगे रहते थे। हर दिन पार्टियां होती थीं, जिले के बड़े जमींदार हमें अपने शिकार कार्यक्रमों में आमंत्रित करने में गर्व महसूस करते थे और हम जिसके पास जाते थे, वह इसे सम्मान मानता था। हमारी शान और शौकत ऐसी थी कि ब्रिटेन में महारानी और शाही परिवार भी मुश्किल से मिलती होगी।

ट्रेन यात्रा के दौरान डिप्टी कमिश्नर के परिवार के लिए नवाबी ठाट से लैस एक आलीशान कंपार्टमेंट आरक्षित किया जाता था। जब हम ट्रेन में चढ़ते तो सफेद कपड़े वाला ड्राइवर दोनों हाथ बांधकर हमारे सामने खड़ा हो जाता और यात्रा शुरू करने की अनुमति मांगता। अनुमति मिलने के बाद ही ट्रेन चलने लगती।

एक बार जब हम यात्रा के लिए ट्रेन में सवार हुए, तो परंपरा के अनुसार, ड्राइवर आया और अनुमति मांगी। इससे पहले कि मैं कुछ बोल पाती, मेरे बेटे का किसी कारण से मूड खराब था। उसने ड्राइवर को गाड़ी न चलाने को कहा।  ड्राइवर ने हुक्म बजा लाते हुए कहा, जो हुक्म छोटे सरकार। कुछ देर बाद स्टेशन मास्टर समेत पूरा स्टाफ इकट्ठा हो गया और मेरे चार साल के बेटे से भीख मांगने लगा, लेकिन उसने ट्रेन को चलाने से मना कर दिया। आखिरकार, बड़ी मुश्किल से, मैंने अपने बेटे को कई चॉकलेट के वादे पर ट्रेन चलाने के लिए राजी किया और यात्रा शुरू हुई।

कुछ महीने बाद, वह महिला अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलने यूके लौट आई। वह जहाज से लंदन पहुंचे, उनकी रिहाइश वेल्स में एक काउंटी में थी जिसके लिए उन्हें ट्रेन से यात्रा करनी थी। वह महिला स्टेशन पर एक बेंच पर अपनी बेटी और बेटे को बैठाकर टिकट लेने चली गई। लंबी कतार के कारण बहुत देर हो चुकी थी, जिससे उस महिला का बेटा बहुत परेशान हो गया था। जब वह ट्रेन में चढ़े तो आलीशान कंपाउंड की जगह फर्स्ट क्लास की सीटें देखकर उस बच्चे को फिर गुस्सा आ गया।

ट्रेन ने समय पर यात्रा शुरू की तो वह बच्चा लगातार चीखने-चिल्लाने लगा। वह ज़ोर से कह रहा था, "यह कैसा उल्लू का पट्ठा ड्राइवर है। उसने हमारी अनुमति के बिना  ट्रेन चलाना शुरू कर दी है। मैं पापा को बोल कर इसे जूते लगवा लूंगा।" महिला को बच्चे को यह समझाना मुश्किल हो रहा था कि यह उसके पिता का जिला नहीं है, यह एक स्वतंत्र देश है। यहां डिप्टी कमिश्नर जैसा तीसरे दर्जे का सरकारी अफसर तो क्या प्रधानमंत्री और राजा को भी यह अख्तियार नहीं है कि वह लोगों को अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए अपमानित कर सके।

आज भले ही हमने अंग्रेजों को खदेड़ दिया है लेकिन हमने गुलामी को अभी तक देश बदर नहीं किया। आज भी कई अधिकारी, एसपी, मंत्री, सलाहकार और राजनेता अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए आम लोगों को घंटों सड़कों पर परेशान करते हैं।

प्रोटोकॉल आम जनता की सुविधा के लिए होना चाहिए, ना कि उनके लिए परेशानी का कारण।

Copied from अमित भदौरिया मुखिया कांयछी

Sunday, June 4, 2023

सिन्धु घाटी की लिपि : क्यों अंग्रेज़ और कम्युनिस्ट इतिहासकार नहीं चाहते थे कि इसे पढ़ाया जाए!

▪️इतिहासकार अर्नाल्ड जे टायनबी ने कहा था - विश्व के इतिहास में अगर किसी देश के इतिहास के साथ सर्वाधिक छेड़ छाड़ की गयी है, तो वह भारत का इतिहास ही है।

भारतीय इतिहास का प्रारम्भ सिन्धु घाटी की सभ्यता से होता है, इसे हड़प्पा कालीन सभ्यता या सारस्वत सभ्यता भी कहा जाता है। बताया जाता है, कि वर्तमान सिन्धु नदी के तटों पर 3500 BC (ईसा पूर्व) में एक विशाल नगरीय सभ्यता विद्यमान थी। मोहनजोदारो, हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल आदि इस सभ्यता के नगर थे।

पहले इस सभ्यता का विस्तार सिंध, पंजाब, राजस्थान और गुजरात आदि बताया जाता था, किन्तु अब इसका विस्तार समूचा भारत, तमिलनाडु से वैशाली बिहार तक, आज का पूरा पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान तथा (पारस) ईरान का हिस्सा तक पाया जाता है। अब इसका समय 7000 BC  से भी प्राचीन पाया गया है।

इस प्राचीन सभ्यता की सीलों, टेबलेट्स और बर्तनों पर जो लिखावट पाई जाती है उसे सिन्धु घाटी की लिपि कहा जाता है। इतिहासकारों का दावा है, कि यह लिपि अभी तक अज्ञात है, और पढ़ी नहीं जा सकी। जबकि सिन्धु घाटी की लिपि से समकक्ष और तथाकथित प्राचीन सभी लिपियां जैसे इजिप्ट, चीनी, फोनेशियाई, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई आदि सब पढ़ ली गयी हैं।

आजकल कम्प्यूटरों की सहायता से अक्षरों की आवृत्ति का विश्लेषण कर मार्कोव विधि से प्राचीन भाषा को पढना सरल हो गया है।

सिन्धु घाटी की लिपि को जानबूझ कर नहीं पढ़ा गया और न ही इसको पढने के सार्थक प्रयास किये गए।
भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद (Indian Council of Historical Research) जिस पर पहले अंग्रेजो और फिर कम्युनिस्टों का कब्ज़ा रहा, ने सिन्धु घाटी की लिपि को पढने की कोई भी विशेष योजना नहीं चलायी।

आखिर ऐसा क्या था सिन्धु घाटी की लिपि में? अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकार क्यों नहीं चाहते थे, कि सिन्धु घाटी की लिपि को पढ़ा जाए?

अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों की नज़रों में सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्नलिखित खतरे थे -

1. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने के बाद उसकी प्राचीनता और अधिक पुरानी सिद्ध हो जायेगी। इजिप्ट, चीनी, रोमन, ग्रीक, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई से भी पुरानी. जिससे पता चलेगा, कि यह विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है। भारत का महत्व बढेगा जो अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों को बर्दाश्त नहीं होगा।
2. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने से अगर वह वैदिक सभ्यता साबित हो गयी तो अंग्रेजो और कम्युनिस्टों द्वारा फैलाये गए आर्य- द्रविड़ युद्ध वाले प्रोपगंडा के ध्वस्त हो जाने का डर है।

3. अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों द्वारा दुष्प्रचारित ‘आर्य बाहर से आई हुई आक्रमणकारी जाति है और इसने यहाँ के मूल निवासियों अर्थात सिन्धु घाटी के लोगों को मार डाला व भगा दिया और उनकी महान सभ्यता नष्ट कर दी। वे लोग ही जंगलों में छुप गए, दक्षिण भारतीय (द्रविड़) बन गए, शूद्र व आदिवासी बन गए’, आदि आदि गलत साबित हो जायेगा।

कुछ फर्जी इतिहासकार सिन्धु घाटी की लिपि को सुमेरियन भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे तो कुछ इजिप्शियन भाषा से, कुछ चीनी भाषा से, कुछ इनको मुंडा आदिवासियों की भाषा, और तो और, कुछ इनको ईस्टर द्वीप के आदिवासियों की भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे। ये सारे प्रयास असफल साबित हुए।

सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्लिखित समस्याए बताई जाती है - 
सभी लिपियों में अक्षर कम होते है, जैसे अंग्रेजी में 26, देवनागरी में 52 आदि, मगर सिन्धु घाटी की लिपि में लगभग 400 अक्षर चिन्ह हैं। सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में यह कठिनाई आती है, कि इसका काल 7000 BC से 1500 BC तक का है, जिसमे लिपि में अनेक परिवर्तन हुए साथ ही लिपि में स्टाइलिश वेरिएशन बहुत पाया जाता है। लेखक ने लोथल और कालीबंगा में सिन्धु घाटी व हड़प्पा कालीन अनेक पुरातात्विक साक्षों का अवलोकन किया।

भारत की प्राचीनतम लिपियों में से एक लिपि है जिसे ब्राह्मी लिपि कहा जाता है। इस लिपि से ही भारत की अन्य भाषाओँ की लिपियां बनी। यह लिपि वैदिक काल से गुप्त काल तक उत्तर पश्चिमी भारत में उपयोग की जाती थी। संस्कृत, पाली, प्राकृत के अनेक ग्रन्थ ब्राह्मी लिपि में प्राप्त होते है।

सम्राट अशोक ने अपने धम्म का प्रचार प्रसार करने के लिए ब्राह्मी लिपि को अपनाया। सम्राट अशोक के स्तम्भ और शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए और सम्पूर्ण भारत में लगाये गए।

सिन्धु घाटी की लिपि और ब्राह्मी लिपि में अनेक आश्चर्यजनक समानताएं है। साथ ही ब्राह्मी और तमिल लिपि का भी पारस्परिक सम्बन्ध है। इस आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि को पढने का सार्थक प्रयास सुभाष काक और इरावाथम महादेवन ने किया।

सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 400 अक्षर के बारे में यह माना जाता है, कि इनमे कुछ वर्णमाला (स्वर व्यंजन मात्रा संख्या), कुछ यौगिक अक्षर और शेष चित्रलिपि हैं। अर्थात यह भाषा अक्षर और चित्रलिपि का संकलन समूह है। विश्व में कोई भी भाषा इतनी सशक्त और समृद्ध नहीं जितनी सिन्धु घाटी की भाषा।

बाएं लिखी जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मी लिपि भी दाएं से बाएं लिखी जाती है। सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 3000 टेक्स्ट प्राप्त हैं।

इनमे वैसे तो 400 अक्षर चिन्ह हैं, लेकिन 39 अक्षरों का प्रयोग 80 प्रतिशत बार हुआ है। और ब्राह्मी लिपि में 45 अक्षर है। अब हम इन 39 अक्षरों को ब्राह्मी लिपि के 45 अक्षरों के साथ समानता के आधार पर मैपिंग कर सकते हैं और उनकी ध्वनि पता लगा सकते हैं।

ब्राह्मी लिपि के आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि पढने पर सभी संस्कृत के शब्द आते है जैसे - श्री, अगस्त्य, मृग, हस्ती, वरुण, क्षमा, कामदेव, महादेव, कामधेनु, मूषिका, पग, पंच मशक, पितृ, अग्नि, सिन्धु, पुरम, गृह, यज्ञ, इंद्र, मित्र आदि।

निष्कर्ष यह है कि -
1. सिन्धु घाटी की लिपि ब्राह्मी लिपि की पूर्वज लिपि है।
2. सिन्धु घाटी की लिपि को ब्राह्मी के आधार पर पढ़ा जा सकता है।
3. उस काल में संस्कृत भाषा थी जिसे सिन्धु घाटी की लिपि में लिखा गया था।
4. सिन्धु घाटी के लोग वैदिक धर्म और संस्कृति मानते थे।
5. वैदिक धर्म अत्यंत प्राचीन है।
हिन्दू सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन व मूल सभ्यता है, हिन्दुओं का मूल निवास सप्त सैन्धव प्रदेश (सिन्धु सरस्वती क्षेत्र) था जिसका विस्तार ईरान से सम्पूर्ण भारत देश था।वैदिक धर्म को मानने वाले कहीं बाहर से नहीं आये थे और न ही वे आक्रमणकारी थे। आर्य - द्रविड़ जैसी कोई भी दो पृथक जातियाँ नहीं थीं जिनमे परस्पर युद्ध हुआ हो।