Monday, December 28, 2015

‘‘आर्य भारत में बाहर से आये’’

 यह मान्यता देशद्रोह है.

बहुत वर्ष पूर्व भी एंग्लो इण्डियन राज्यसभा सदस्य ने इस प्रकार का प्रश्न उठाया था, परन्तु उस समय किसी ने इस विचार की घातकता को समझा नहीं था। उस समय मान्य सदस्य ने सदन में कहा था- भारतीयों को अंग्रेजी भाषा से द्वेष नहीं करना चाहिए, क्योंकि संस्कृत भी भारतीयों के लिये विदेशी भाषा है। यह भारत में बाहर से आये आर्यों की भाषा है। जब इस देश के लोग संस्कृत से प्रेम करते हैं, तो फिर विदेशी भाषा के नाम पर अंग्रेजी से द्वेष क्यों करते हैं? आर्यों का भारत में बाहर से आकर बसने का विचार अंग्रेजों के मस्तिष्क की उपज है। भारत पर आक्रमण मुसलमानों ने भी किया और देश को पराधीनाी किया था। उन्होंने यहाँ की सयता, संस्कृति को बलपूर्वक नष्ट करने का प्रयत्न किया। अंग्रेजों ने इस देश को दास बनाया और यहाँ की सयता, संस्कृति को बुद्धिपूर्वक नष्ट करने की योजना बनाकर कार्य किया। मल्लिकार्जुन खडगे इस षड्यन्त्र के शिकार बने हैं।
अंग्रेज आज भी इस देश को खण्डित करने के प्रयासों में लगे हैं। प्रमुख रूप से इस्लाम और ईसाइयों के माध्यम से धर्म परिवर्तन द्वारा तथा दूसरे रूप से माओवादी हिंसा फैलाकर देश में अराजकता उत्पन्न करने के प्रयासों द्वारा व्यापार व आधुनिकता के नाम पर समाज में नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों के नाश करने के उपायों द्वारा तथा भारत में आर्य- द्रविड़ संघर्ष के काल्पनिक सिद्धान्त का उपयोग कर पाश्चात्य योरोप अमेरिका की शक्तियाँ चर्च एवं व्यापार द्वारा हिंसा, असन्तोष फैलाकर फिर से ईसाइस्तान, इस्लामिस्तान, द्रविड़स्तान तथा माओवाद के नाम से नक्सलियों के राज्य के रूप में इस देश के विभाजन का प्रयास अपनी पूरी शक्ति से करने में लगे हुए हैं। अन्य प्रयासों की चर्चा का प्रसंग यहाँ नहीं है। जहाँ तक खडगे का प्रश्न है, इसे तो स्वतन्त्रता के साथ ही समाप्त किया जाना चाहिए था, परन्तु गत साठ वर्ष के शासन ने खडगे की पार्टी का ही समर्थन किया, जो भारतीय परपराओं का, संस्कृति का और भाषा का नाश करने को ही देश की प्रगति का मूल मन्त्र समझती थी। इनकी दृष्टि में अंग्रेज और अंग्रेजी ही प्रगति के पर्याय हैं। परिणामस्वरूप हमारे शासन में आदिवासी जैसे शदों का प्रयोग किया जाता है। आदिवासी शद का प्रयोग करना अपने आपको बाहर से आया स्वीकार करना। इन शदों के अर्थों को हमने आज तक समझा नहीं, इसी कारण अपनी रक्षा में इस मिथ्या मान्यता को स्थान दिया हुआ है। हमारे बच्चे आज भी यही पढ़ते हैं कि इस देश में आर्य बाहर से आये और यहाँ के मूल निवासी द्रविड़ लोगों को पराजित कर दक्षिण में भगा दिया और अपना शासन स्थापित किया। इस मिथ्या मान्यता को इतना प्रचारित किया गया कि भारतीय संसद में कांग्रेस के नेता खडगे इस मान्यता के प्रवक्ता बन खड़े होने में अपना गौरव समझने लगे, अपने आपको द्रविड़ मूल और आर्य से भिन्न अनार्य मनाने लगे।
आज हमारे लिये एक अवसर आया है, जिसका लाभ उठाकर हमें अपनी शिक्षा से इस मान्यता को बहिष्कृत कर देना चाहिए तथा प्रशासन शदावली से आदिवासी जैसे शदों का प्रयोग निषिद्ध कर देना चाहिए। खडगे यदि आर्यों से भिन्न होते तो उनका नाम मल्लिकार्जुन नहीं होता। यदि खडगे भाजपा को विदेशी मानते हैं, तो वे श्रीमती सोनिया गाँधी को क्या कहेंगे, जिसके वे सेनापति बने हुए हैं? खडगे जी इस देश के नागरिक हैं, अपने देश से निश्चय ही प्रेम होगा, तो उन्हें इस आर्य-अनार्य सिद्धान्त और षड्यन्त्र को समझना चाहिए।
प्रथम बात किसी के लिये भी जानने की यह है कि आर्य-अनार्य शद जातिवाचक नहीं, गुणवाचक हैं, क्योंकि कृण्वन्तो विश्वमार्यम् कहते हुए वेद कहता है- सपूर्ण रूप से आर्य बनो और सब को आर्य बनाओ। जब सबको आर्य बनाया जायेगा, तब खडगे जी अनार्य कैसे रह पायेंगे? आर्य-अनार्य शद अच्छे और बुरे के अर्थ में हैं। मनु कहते हैं- इस देश में आर्य और दस्यु अर्थात् अनार्य रहते हैं, क्या खडगे जी अपने को चोर, डाकू कहलाना पसन्द करेंगे? क्या चोर, डाकू, लूटेरों की कोई जाति होती है? क्या इनके लिये संविधान, कानून, पुलिस, होती है? फिर ऐसी निरर्थक विचारधारा के लिये खडगे जी अपने को उनका प्रतिनिधि कैसे कह सकते हैं? भारतीय संस्कृति, साहित्य, परपरा से आर्य वे हैं, जो लोग श्रेष्ठ परपरा के धनी हैं। वेद और वैदिक धर्म स्वीकार करते हैं, वे सभी आर्य है। कोई भी आर्य बन सकता है, किसी को आर्य कह सकते हैं। हमारी आर्य परपरा में एक पत्नी अपने पति को आर्य-पुत्र कहकर पुकारती है। पाश्चात्य लोगों ने आर्य-अनार्य सिद्धान्त की कपोल कल्पना की, जिसका उद्देश्य भारतीय समाज में विभाजन उत्पन्न करना था। आर्य-अनार्य का विचार, आर्य भारत में बाहर से आये हैं- यह सिद्धान्त विद्वानों, वैज्ञानिकों की दृष्टि में खण्डित हो चुका है, परन्तु योरोप-अमेरिकी पक्ष इसका पूरा उपयोग इस देश को बांट ने में करने में लगा हुआ है। इस षड्यन्त्र को सबसे पहले ऋषि दयानन्द ने समझा था और उन्होंने अपने ग्रन्थों में इस सिद्धान्त का स्पष्ट रूप से खण्डन किया था। ऋषि दयानन्द ने लिखा- आर्यों का बाहर से भारत में आने का, भारतीय साहित्य के किसी भी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं मिलता। यदि आर्य बाहर से आकर भारत में बसे होते तो इतने बड़े ऐतिहासिक सन्दर्भ का उल्लेख उनके साहित्य में न हो, यह असभव है। किसी देश से आकर बसने की घटना उस समाज में निरन्तर स्मरण की जाती है। आज कोई पाकिस्तान से उजड़कर आया, कोई आक्रमणकारी के रूप में आया, दोनों का इतिहास मिलता है। समाज में कथायें मिलती हैं, परपरायें मिलती हैं, पुराने रीति-रिवाज, जीवन शैली के अंश मिलते हैं, क्या आर्यों की कोई परपरा किसी तथाकथित मध्य एशिया या किसी अन्य देश में मिलती है? क्या आर्यों की भाषा मौलिक रूप से किसी दूसरे देश में बोली जाती है या इतिहास में पाई जाती है? इतना ही नहीं, इतनी बड़ी जाति का संक्रमण एक दिन में तो नहीं हो सकता, उसके उस स्थान से चलकर यहाँ तक पहुँचने के मार्ग में उनके चिह्न, अवशेष तो मिलने चाहिए। यदि बाहर से चलकर भारत को आर्यों ने जीता था, तो क्या बीच के देश उन्होंने बिना जीते ही छोड़ दिये थे? यदि जीते थे तो आज वहाँ उनका अस्तित्व क्यों नहीं है, वहाँ उनका राज्य क्यों नहीं है? आर्यों के इतिहास, संस्कृति के अवशेष वहाँ क्यों नहीं पाये जाते?
ऋषि दयानन्द कहते हैं- भारतवर्ष में सबसे पहले आकर निवास करने वाले आर्य ही हैं। शास्त्रों की, ऋषि दयानन्द की मान्यता है कि जब इस पृथ्वी का निर्माण हुआ, सपूर्ण जलमय संसार में से पृथ्वी का जो भाग सबसे पहले जल से बाहर निकला, वह तिबत था तथा सबसे ऊँचा होने के कारण उसी भाग पर मनुष्यों की सृष्टि सबसे पहले हुई। जो मनुष्य वहाँ से उतरकर सबसे पहले भारत आये और जिन्होंने इस देश को बसाया, वे ही लोग आर्य कहलाये। शेष संसार में यहीं से लोगों का जाना हुआ है। बाहर से इस देश में आने की बात मनगढ़न्त, मिथ्या और षड्यन्त्रपूर्ण है। विश्व साहित्य में आर्यों का बाहर भारत में आना लिखा नहीं मिलता, हाँ विश्व के अनेक ग्रन्थों में जिनका पुराना इतिहास मिलता है, उनमें उनके पूर्वजों का भारत से आकर वहाँ निवास करना लिखा मिलता है। ईरान के इतिहास और धर्म ग्रन्थ जिन्द अवेस्ता में उनके पूर्वजों का भारत से जाकर ईरान में वास करने का उल्लेख मिलता है। जब कोई देश जाति किसी पर विजय प्राप्त करती है तो वह अपने उल्लास और हर्ष को प्रकाशित करने के लिये अनेक प्रकार के आयोजन करती है, उसे स्थायी बनाने के लिये इतिहास लिखती है। शिलालेख, ताम्र लेख, स्तूप, स्तभ, भवन, स्मारक बनाये जाते हैं, परन्तु पूरे भारत में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं मिलता, कोई चिह्न भी नहीं मिलता। इससे पता लगता है कि यह एक कपोल-कल्पना है, जो एक षड्यन्त्र के माध्यम से की गई है। इसके विपरीत ब्राह्मण ग्रन्थ, मनुस्मृति आदि प्राचीन ग्रन्थों में आर्यों के तिबत से भारत में आने, अनेक युद्ध जीतने आदि का विवरण मिलता है, परन्तु मध्य एशिया या किसी अन्य देश से भारत में आकर बसने का, यहाँ के मूल निवासियों को निकाल कर  उनका राज्य छीनने का कोई उल्लेख प्राचीन भारतीय शास्त्रों, साहित्य या इतिहास के ग्रन्थों में नहीं मिलता, अतः आर्यों द्वारा द्रविड़ों पर आक्रमण की कल्पना मिथ्या षड्यन्त्र मात्र है।
जिन्हें हम द्रविड़, दलित, शूद्र मान रहे हैं, वे किस अर्थ में आर्यों से भिन्न हैं? भारतीय हिन्दू समाज के सवर्ण-असवर्ण दोनों ही अंग हैं। दोनों के गोत्र एक से हैं, परपरायें, खान-पान, वस्त्र, आभूषण, पहनावा- सभी कुछ एक जैसा है। सभी के देवी-देवता, धर्मग्रन्थ, उपास्य, उपासना पद्धति- सब एक जैसे हैं। सभी राम, हनुमान, शिव, गणेश आदि की पूजा-उपासना करते हैं। व्रत, उपवास, संस्कार साी कुछ पूरे समाज का एक दूसरे से मिलता है। सपन्नता-निर्धनता के आधार पर सभी में परस्पर स्वामी-सेवक सबन्ध पाया जाता है, अतः समग्र रूप में समाज एक है। यदि कोई अन्तर है तो विद्या या अविद्या का, सपन्नता या निर्धनता का, अन्याय या न्याय का अन्तर और परिणाम देखने में आता है। यह सभी समाजों में स्वाभाविक रूप से देखा जा सकता है। इसका मूल कारण भारतीय समाज का जन्मना जाति स्वीकार करने का दुष्परिणाम है। यह अज्ञान, अविद्या, पाखण्ड, शोषण, सवर्ण-असवर्ण, जन्मना जाति, ऊँच-नीच, छुआछूत के परिणामस्वरूप, जिसका पाश्चात्य लोग लाभ उठाकर समाज में विरोध और द्वेष उत्पन्न करने का प्रयास कर रहे हैं। अंग्रेजों ने पं. भगवद्दत्त के पास भी अपना सन्देश वाहक भेजा था- वे अपनी पुस्तकों में लिख दें कि जाट लोग इस देश में बाहर से आर्य के रूप में आये हैं, परन्तु पण्डित जी ने दृढ़ता से इसका निषेध कर दिया। जहाँ आर्य विद्वानों ने निषेध किया, वहीं पर धन व प्रतिष्ठा के लोभी लोगों ने अंग्रेजों की इच्छानुसार लेखन भी किया।
इस षड्यन्त्र को ऋषि दयानन्द ने समझा था और इसका सप्रमाण प्रतिकार भी किया था। सामान्य रूप से आर्यावर्त्त की सीमा मनु के श्लोक ‘आसमुद्रात्’ से निष्पादित करते हैं, विन्ध्याचल से सतपुडा की ओर हिमालय के मध्य आर्यावर्त की सीमा पढ़ते हैं, परन्तु इसी श्लोक के अर्थ ऋषि दयानन्द पूर्व-पश्चिम पर्वत शृंखला के मध्य रामेश्वरम् पर्यन्त स्वामी जी आर्यावर्त की सीमा का उल्लेख करते हैं। यहाँ एक घटना का उल्लेख प्रमाण रूप में ठीक होगा। स्वामी श्रद्धानन्द ने पं. लेखराम की जीवनी लिखते हुए एक घटना लिखी है कि सरस्वती हषद्वती नदियाँ आर्यावर्त की सीमा बनाती है और पं. लेखराम का ग्राम सरस्वती के दूसरी ओर पड़ता था, तो पण्डित लेखराम कहा करते थे- मेरे गाँव की इस ओर की नदी सरस्वती नहीं है, मेरे गाँव के बाद बहने वाली नदी सरस्वती है, जिससे उनका गाँव भी आर्यावर्त में आ जाता था। सचमुच में भारत में रहने वाले आर्य का गाँव आर्यावर्त से बाहर हो तो अच्छा तो नहीं लगेगा। इसी तर्क को लेकर मैंने एक बार अपने पिता जी से कह दिया- आपका गाँव आर्यावर्त में नहीं आता, एक क्षण वे स्तध हुए और अगले ही क्षण बोले- तू नहीं जानता, मेरा गाँव आर्यावर्त में है क्योंकि जो संकल्प पाठ उत्तर भारत के गाँव-नगर में किया जाता है, वही मेरे गाँव मेंाी आदि काली से हो रहा है-आर्यावर्ते जबू द्वीपे भरत खण्डे- सचमुच में उनका प्रमाण अकाट्य था।
ऋषि दयानन्द ने वे दोत्पत्ति प्रकरण, वे दोत्पत्ति काल के निर्धारण में भारतीय समाज में श्रेष्ठकर्म करने के समय पढ़े जाने वाले संकल्प का उल्लेख किया है, उसमें जब –आर्यावर्ते जबू द्वीपे भरत खण्डे- शदों का पाठ करते हैं, तो सिद्ध है इस देश में आने वाले पहले लोग आर्य ही हैं और उन्होंने ही इस देश का नाम आर्यावर्त रखा। इस देश के बदले गये बाद के नामों की चर्चा तो मिलती है, परन्तु आर्यावर्त या ब्रह्मवर्त से पहले के किसी भी नाम की चर्चा विश्व इतिहास में नहीं मिलती, अतः यह कहना कि भारत में आर्य बाहर से आये- यह पाखण्डपूर्ण कथन है। भारत में आर्य बाहर से आये- यह कहना वदतो व्याघात अर्थात् परस्पर विरोधी है, क्योंकि इस देश का भारत नामकरण भी आर्यों का है, फिर भारत में आर्यों का बाहर से आना कैसे बनेगा।
खडगे ने लोकसभा में आर्यों के बाहर से आने की जो बात कही, उसका कारण है, आजकल किया जाने वाला दुष्प्रचार। भारत जातिगत आधार पर जो आरक्षण किया गया है, इसको आधार बनाकर इस आन्दोलन को इस देश में चलाया जा रहा है। इसके लिये अमेरिका, योरोप का ईसाई समुदाय बड़ी मात्रा में धन उपलध कराता है। इस कार्य को करने वाले संगठन भारत में बामसेफ और मूल निवासी परिषद् है। पाश्चात्य लोगों ने ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, योरोप के अनेक विश्वविद्यालयों में इस मूलनिवासी लोगों के इतिहास के अनुसन्धान के लिए अनेक शोधपीठ भी स्थापित किये हैं, जिनमें डी.एन.ए तक मूल निवासियों का आर्यों से पृथक् होने की बात कही गई है। ये संगठन ज्योतिबा फूले और डॉ. अबेड़कर के नाम से लोगों को हिन्दू समाज से अलग करने का प्रयास करते हैं। दलित प्रकाशन के नाम से प्रकाशित दो सौ से भी अधिक पुस्तकों में यही समझाने का प्रयास किया है कि स्वतन्त्रता संग्राम का दलितों से कुछ लेना-देना नहीं है, दलितों का उद्धार अंग्रेजों ने किया है। डॉ. अबेडकर ने ही उनके लिये कार्य किया है, समाज में सवर्ण कहलाने वाले लोगों ने उनका शोषण किया है। अंग्रेज शासन उनके लिये अच्छा था, स्वतन्त्रता संग्राम तो सवर्णों की अपने अधिकारों की लड़ाई थी, चाहे रानी झाँसी की लड़ाई हो या महाराणा प्रताप व शिवाजी की। इनके साहित्य में ऋषि दयानन्द या स्वामी श्रद्धानन्द और आर्यसमाज या किसी अन्य संस्था द्वारा किये समाज सुधार की चर्चा नहीं मिलती। इनके साहित्य में ऋषि दयानन्द को ब्राह्मण और सवर्णों का पक्षधर कहकर निन्दा की गई।
वर्तमान में इस कार्य को करने वाले दो संगठन हैं- एक बामसेफ और दूसरा है- मूल निवासी परिषद्। ये निरन्तर दलित जातियों में भारत विरोधी, सवर्ण और असवर्ण के मध्य पृथकतावादी प्रवृत्ति बढ़ाने का कार्य करते हैं। इसके लिये इनका सैंकड़ों की संया में साहित्य प्रकाशित कर वितरित किया जाता है। इसी प्रकार की फिल्में बनाकर दिखाई जाती हैं। प्रतिवर्ष देश के विभिन्न भागों में इनके अधिवेशन होते हैं, जिनमें दलित समाज के लोगों को भाग लेने के लिये प्रेरित किया जाता है। सवर्ण या भिन्न विचार के लोगों को ये लोग अपने कार्यक्रम में भाग लेने की अनुमति नहीं देते। पुस्तक मेलों में दलित प्रकाशनों की दुकानों पर बिकने वाले साहित्य से इस बात को समझा जा सकता है।
इस कार्य को करने वाली संस्था बामसेफ, जिसका पूरा नाम ऑल इण्डियन बैकवर्ड एंड माइनॉरिटीज एप्लाइज फैडरेशन है, जिसका निर्माण बहुजन समाजवादी पार्टी के संस्थापक कांशीराम और डी.के. खापडे ने अमरीकी सहायता से 1973 में किया था। इसका उद्देश्य आरक्षण का लाभ उठाकर भारतीय समाज में सवर्ण-असवर्ण की खाई को गहरी करना और समाज में विघटन के बीज बोना था। सामाजिक लोगों को अभी तक इसका विशेष परिचय नहीं है। जो परिचित भी हैं, वे इनके कार्य को विशेष महत्त्व नहीं देते, परन्तु खडगे ने संसद में बता दिया, यह विचार समाज में तेजी से घर कर रहा है। समाज और सरकार को इसका निराकरण करने के लिये सक्रिय होना होगा।
क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक आर्य के अतिरिक्त अपने देश के लिये इतने सुन्दर शदों का प्रयोग कोई कर सकता है, जैसा राम ने किया था। राम ने कहा-जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। इतना ही नहीं, आर्यों ने अपने भारतवर्ष को देवताओं के लिये भी ईर्ष्या का कारण बताया-
गायन्ति देवाः किल गितकानि
धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे
स्वर्गापवर्गास्पद मार्गभूते
भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।

महौषधि है गौमूत्र......


गौमूत्र मनुष्य जाति तथा वनस्पति जगत को प्राप्त होने वाला अमूल्य अनुदान है। यह धर्मानुमोदित, प्राकृतिक, सहज प्राप्य हानिरहित, कल्याणकारी एवं आरोग्यरक्षक रसायन है। गौमूत्र- योगियों का दिव्यपान है। इससे वे दिव्य शक्ति पाते थे। गौमूत्र में गंगा ने वास किया है। यह सर्वपाप नाशक है। अमेरिका में अनुसंधान से सिध्द हो गया है कि विटामिन बी गौ के पेट में सदा ही रहता है। यह सतोगुणी रस है व विचारों में सात्विकता लाता है। 6 मास लगातार पीने से आदमी की प्रकृति सतोगुणी हो जाती है। यह रजोगुण व तमोगुण का नाशक है। शरीरगत विष भी पूर्ण रूप से मूत्र, पसीना व मलांश के द्वारा बाहर निकलता है। यह मनोरोग नाशक है। विष को शमन करने में गौमूत्र पूर्ण समर्थ है। आयुर्वेद की बहुत सी विषैली जड़ी-बूटियों व विष के पदार्थ गौमूत्र से ही शुध्द किये जाते हैं।
गौ क्या है? गौ मूत्र क्या है?- गौ में सब देवताओं का वास है। यह कामधेनु का स्वरूप है। सभी नक्षत्र कि किरणों का यह रिसीवर है, अतएव सबका प्रभाव इसी में है। जहां गौ है, वहां सब नक्षत्रों का प्रभाव रहता है। गौ ही ऐसा दिव्य प्राणी है, जिसकी रीढ़ की हड्डी में अंदर सूर्यकेतु नाड़ी होती है इसलिये दूध, मक्खन, घी, स्वर्ण आभा वाला है, क्योंकि सूर्यकेतु नाड़ी सूर्य की किरणों के द्वारा रक्त में स्वर्णक्षार बनाती है। यही स्वर्णक्षार गौ रस में विद्यमान है।
गौमूत्र : गौ के रक्त में प्राणशक्ति होती है। गौमूत्र रक्त का गुर्दों द्वारा छना हुआ भाग है। गुर्दे रक्त को छानते हैं। जो भी तत्व इसके रक्त में होते हैं वही तत्व गौमूत्र में है।
गौमूत्र का चमत्कारिक प्रभाव
5 कीटाणुओं से होने वाली सभी प्रकार की बीमारियां गौमूत्र से नष्ट होती है।
5 गौमूत्र शरीर में लिवर को सही कर स्वच्छ खून बनाकर किसी भी रोग का विरोध करने की शक्ति प्रदान करता है।
5 गौमूत्र में ऐसे सभी तत्व हैं जो हमारे शरीर के आरोग्यदायक तत्वों की कमी को पूरा करते हैं।
5 गौमूत्र को मेघ और हृघ कहा है। यह मस्तिष्क एवं हृदय को शक्ति प्रदान करता है। मानसिक कारणों से होने वाले आघात से हृदय की रक्षा होती है।
5 शरीर में किसी भी औषधि का अति प्रयोग हो जाने से तत्व शरीर में रहकर किसी प्रकार से उपद्रव पैदा करते हैं। उनको गौमूत्र अपनी विषनाशक शक्ति से नष्ट कर रोगी को निरोग करता है।
5 गौमूत्र रसायन है। यह बुढ़ापा रोकता है।
5 शरीर में पोषक तत्वों की कमी होने पर गौमूत्र उसकी आपूर्ति करता है।
5 गौमूत्र- मानव शरीर की रोग प्रतिरोधी शक्ति को बढ़ाकर रोगों को नाश करने की शक्ति प्रदान करता है।
रसायन मतानुसार गौमूत्र में निम्न रासायनिक तत्व पाये जाते हैं
नाइट्रोजन, सल्फर, गंधक, अमोनिया, कापर, आयरन, ताम्र, यूरिया, यूरिक ऐसिड, फास्फेट, सोडियम, पोटेशियम, मैग्नीज, कार्बोलिक एसिड, कैल्शियम, साल्ट, विटामिन ए,बी,सी,डी, ई क्रियाटिनिन, स्वर्णक्षार
श्री गोपाल गौशाला चितौड़गढ़ के राजवैद्य रेवा शंकर शर्मा के अनुसार-
20 मिली गौमूत्र प्रात: सायं पीने से निम्न रोगों में लाभ होता है।
1. भूख की कमी, 2. अजीर्ण, 3. हर्निया, 4. मिर्गी, 5. चक्कर आना, 6. बवासीर, 7. प्रमेह, 8.मधुमेह, 9.कब्ज, 10. उदररोग, 11. गैस, 12. लू लगना, 13.पीलिया, 14. खुजली, 15.मुखरोग, 16.ब्लडप्रेशर, 17.कुष्ठ रोग, 18. जांडिस, 19. भगन्दर, 20. दन्तरोग, 21. नेत्र रोग, 22. धातु क्षीणता, 23. जुकाम, 24. बुखार, 25. त्वचा रोग, 26. घाव, 27. सिरदर्द, 28. दमा, 29. स्त्रीरोग, 30. स्तनरोग, 31.छिहीरिया, 32. अनिद्रा।
गौमूत्र प्रयोग का ढंग

1. उसी गाय का मूत्र प्रयोग करें, जो वन की घास चरती हो और स्वच्छ जल पीती हो।
2. देशी गाय का ही गोमूत्र लें, जरसी गाय का नहीं।
3. रोगी, गर्भवती गाय का मूत्र प्रयोग न करें।
4. बिना व्याही गाय का मूत्र अधिक अच्छा है।
5. ताजा गौमूत्र प्रयोग करें।
6. मिट्टी, कांच, स्टील के बर्तन में रखे

Saturday, December 26, 2015

क्या कोई क्रीम गोरा बना सकती है...

हर व्यक्ति चाहता है की उसकी त्वचा और व्यक्तिव हमेशा जवां और आकर्षक बना रहे। एैसा तब हो सकता है जब इस बात का पाता हो कि आखिर कौन से एैसे तरीके हों जिससे त्वचा आकर्षक और सुंदर दिखे। संवाली त्वचा सबसे अच्छी मानी जाती है। लेकिन हमारे देश में गोरे रंग को ज्यादा प्राथमिकता दी जाती है। यही वजह है जिससे गोरा होने की बहुत सी क्रीमें भारत में बिकती हैं। लेकिन सच तो ये है कि त्वचा का रंग बदला नहीं जा सकता है। लेकिन त्वचा को निखरा और साफ सुतरा किया जा सकता है जिससे त्वचा का रंग बेहद खूबसूरत और दमकदार बन सकता है।

प्राकृतिक उपायों के द्वारा त्वचा का रंग संवारने के तरीके-
चेहरे की रंगत को गोरी करने के लिए चेहरा दिन में कई बार चेहरा धोना चाहिए। और नींबू, पपीते और दही से चेहरे की मालिश करनी चाहिए। 1 सप्ताह तक एैसा करने से त्वचा का रंग गोरा होने लगेगा। और जितना हो सके पानी पीएं। पानी पीने से शरीर की गंदगी बाहर निकल जाती है। और चेहरा ग्लो करने लगता है।

यदि कोई क्रीम गोरा नहीं कर सकती है, तो जो त्वचा प्राकृतिक रूप से मिली है उसे सुंदर और आकर्षक बनाने के लिए कोशिश जरूर करनी चाहिए।
त्वचा की रंगत निखारने के प्राकृतिक तरीके -1. हर वक्त चेहरे को धोना चाहिए। एैसा करने से चेहरे का रंग धीरे-धीरे साफ होता है। साथ ही इससे चेहरे पर जमी धूल मिट्टी भी हट जाती है।
2. नींबू चेहरे को गोरा बनाने में मदद करता है। नींबू एक प्राकृतिक ब्लीज है आप इसे सीधे चेहरे पर लगा सकते हो। या फिर इसे किसी भी फेस पैक में डालकर भी प्रयोग कर सकते हो।
3. दही त्वचा को अंदर से गोरा बनाता है। क्योंकि दही में प्रोबायोटिक तत्व होते हैं। इसलिए रोज दही से चेहरे की मालिश करें।
4. संतरे व नींबू के छिलकों को सुखाकर चूर्ण बना लें। और इस पाउडर को दूध में मिलाकर त्वचा पर लगाएं। इससे त्वचा में चमक आती है।
5. गर्मियों में दो बार संतरे का जूस पीने से रंग साफ होने लगता है।
6. दूध में एक चम्मच हल्दी मिलाकर पीने से खून साफ होता है।
7. आलूबुखारे और नींबू का रस निकालें और इसे उबले आलू में मिला लें और चेहरे पर मलें। इससे चेहरे का रंग साफ और मुलायम होता है।
8. थोड़े से बेसन में सेब का रस मिलाकर चेहरे पर लगाने से झाइयां और झुर्रियां दूर हो जाती हैं।
9. परवल को बारीक पीस लें और उसमें कच्चा दूध मिलाकर चेहरे पर अच्छे से रगड़ें इससे सांवलापन दूर हो जाता है।
10. यदि आखों के नीचे कालापन हो तो कच्चे आलू की फांके को आखों के निचे रगड़ने से काले धब्बे दूर हो जाते हैं।
11. गुलाब के फूल के पत्तों को पीसें और इसका लेप को ग्लिसरीन में मिला लें और चेहरे पर इसे मलें। एैसा करने से चेहरे का सौंदर्य दमकता है।
12. दूध में नाशपाती के गूदे को घोल लें और इसका लेप चेहरे पर रई से लगाएं। और चेहरे को गुनगुने पानी से धो लें। एैसा करने से चेहरा खिलता है।
13. मलाई, शहद को माल्टा के रस में मिलाकर चेहरे पर लगाने से चेहरे की रंगत बढ़ती है।
14. रात को सोने से पहले हल्दी को दही में अच्छे से फेंटे और इसे पैरों और हाथों में मलने से इनका रंग निखरता है।
15. हाथ पैरों का सौन्दर्य निखारने के लिए खट्टे फलों के गूदे को हाथ पैरों पर मलें।
16. गुलाब के रस को होंठों पर लगाने से होंठों में प्राकृतिक चमक आती है और होंठ भी नहीं फटते हैं।

दूध द्वारा चेहरे के निखार के उपाय

दूध को सेहत के लिए फायदेमंद बताया गया है। दूध में मौजूद प्रोटीन आपकी त्वचा के लिए भी गुणकारी होते हैं। दूध जितना सेहत के लिए फायदेमंद होता है उतना ही आपकी त्वचा में निखार लाने के लिए लाभदायक होता है। कैसे करें दूध का इस्तेमाल सौंदर्य को बढ़ाने में। आइये जानते हैं दूध के सौंदर्यवर्धक फायदे (Beauty tips in hindi) 
होठों के कालेपन को दूर करने के लिए
दूध के इस्तेमाल से आप फटें होठों में राहत पा सकते हो। दूध को फटें होठों पर लगाने से होठों को राहत मिलती है। नींबू के रस में 1 बूंद गुलाबजल और थोड़ी सी दूध की मलाई मिलाकर होठों पर लगाने से फटे होठ ठीक होते हैं। कच्चे दूध को होठों पर लगाने से होठों का कालापन दूर होता है।
त्वचा में निखार
दूध में पाए जाने वाले पोषक तत्व आपके रूप को निखारते हैं।गाजर के रस में 1 चम्मच बेसन, 1 चम्मच पीसा हुआ बादाम को मिलाकर पेस्ट बनाएं और इसे चेहरे पर लगाएं। 15 से 20 मिनट तक चेहरे में रखने के बाद चेहरे को धो लें। यह त्वचा में निखार लाता है।

गुलाबजल में कच्चा दूध मिला लें और इसे चेहरे पर लगाएं। यह त्वचा की सेहत और चमक दोनों को बढ़ाता है।
हल्दी और दूध से बनी मलाई के पेस्ट को चेहरे पर लगाते रहने से चेहरे में ग्लो (glow) आता है।
मुहांसो में दूध का लाभ
दूध के इस्तेमाल से मुहासों में राहत मिलती है। थोड़ा सा नमक दूध के साथ मिलाकर चेहरे पर लगाने से मुंहासे धीरे-धीरे ठीक होने लगते हैं।
आटे में नींबू का रस और आलू का रस मिलाकर उसमें दूध डालें और इसका उबटन चेहरे पर लगाने से मुंहासे दूर होते हैं।
लौंग और बादाम को पीसकर पाउडर बना लें और इसमें थोडा सा दूध डालकर, सरसों और काले तिलों को पीसकर दूध में मिला लें और इसे मुहांसों पर लगाते रहें।
हाथों की सुंदरता में दूध
दूध चेहरे के साथ आपके हाथों को भी आकर्षक बनाता है। हाथों की त्वचा को मुलायम करने के लिए नींबू के रस में दूध को मिलाकर लगायें। आपके हाथ मुलायम हो जाएगें।
दूध का प्रयोग आप फेश्यिल के रूप में भी कर सकते हो। थोड़े से पानी में दूध की मलाई डालकर फेश्यिल कर सकते हो।
करे झुर्रियों को कम
शहद में 2 से 3 चम्मच दूध की मलाई मिलाकर चेहरे पर लगाने से चेहरे की झांइयां कम होने लगती है। त्वचा को सुंदर और चमकदार बनाने के लिए हमेशा दूध में हल्दी मिलाकर सेवन करें।
दूध सेहत और सौदर्य दोनो के लिए फायदेमंद होता है। इसलिए आप दूध का इस्तेमाल जरूर करें।

Friday, December 25, 2015

चाय पीने वाले इसे जरूर पढ़े !!!!!!!!!!!!!!

चाय के दुष्प्रभाव

सिर्फ दो सौ वर्ष पहले तक भारतीय घर में चाय नहीं होती थी। आज कोई भी घर आये अतिथि को पहले चाय पूछता है। ये बदलाव अंग्रेजों की देन है। कई लोग ऑफिस में दिन भर चाय लेते रहते है., यहाँ तक की उपवास में भी चाय लेते है । किसी भी डॉक्टर के पास जायेंगे तो वो शराब - सिगरेट - तम्बाखू छोड़ने को कहेगा , पर चाय नहीं,
क्योंकि यह उसे पढ़ाया नहीं गया और वह भी खुद इसका गुलाम है. परन्तु किसी अच्छे वैद्य के पास जाओगे तो वह पहले सलाह देगा चाय ना पियें। चाय की हरी पत्ती पानी में उबाल कर पीने में कोई बुराई नहीं परन्तु जहां यह फर्मेंट हो कर काली हुई सारी बुराइयां उसमे आ जाती है। आइये जानते है कैसे? अंत में विकल्प ज़रूर पढ़ लें: -
हमारे गर्म देश में चाय और गर्मी बढ़ाती है, पित्त बढ़ाती है। चाय के सेवन करने से शरीर में उपलब्ध
विटामिन्स नष्ट होते हैं। इसके सेवन से स्मरण शक्ति में दुर्बलता आती है। - चाय का सेवन लिवर पर बुरा प्रभाव डालता है।
१. चाय का सेवन रक्त आदि की वास्तविक उष्मा को नष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
२. दूध से बनी चाय का सेवन आमाशय पर बुरा प्रभाव डालता है और पाचन क्रिया को क्षति पहुंचाता है।
३. चाय में उपलब्ध कैफीन हृदय पर बुरा प्रभाव डालती है, अत: चाय का अधिक सेवन प्राय: हृदय के रोग को उत्पन्न करने में सहायक
होता है।
४. चाय में कैफीन तत्व छ: प्रतिशत मात्रा में होता है जो रक्त को दूषित करने के साथ शरीर के अवयवों को कमजोर भी करता है।
५. चाय पीने से खून गन्दा हो जाता है और चेहरे पर लाल फुंसियां निकल आती है।
६. जो लोग चाय बहुत पीते है उनकी आंतें जवाब दे जाती है. कब्ज घर कर जाती है और मल निष्कासन में कठिनाई आती है।
७. चाय पीने से कैंसर तक होने
की संभावना भी रहती है।
८. चाय से स्नायविक गड़बडियां होती हैं, कमजोरी और पेट में गैस भी।
९. चाय पीने से अनिद्रा की शिकायत भी बढ़ती जाती है।
१०. चाय से न्यूरोलाजिकल गड़बड़ियां आ जाती है।
११. चाय में उपलब्ध यूरिक एसिड से मूत्राशय या मूत्र नलिकायें निर्बल
हो जाती हैं, जिसके परिणाम स्वरूप चाय का सेवन करने वाले
व्यक्ति को बार-बार मूत्र आने की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
१२. इससे दांत खराब होते है. - रेलवे स्टेशनों या टी स्टालों पर बिकने वाली चाय का सेवन यदि न करें तो बेहतर होगा क्योंकि ये बरतन को साफ किये बिना कई बार इसी में चाय बनाते रहते हैं जिस कारण कई बार चाय विषैली हो जाती है। चाय को कभी भी दोबारा गर्म करके न पिएं तो बेहतर होगा।
१३. बाज़ार की चाय अक्सर अल्युमीनियम के भगोने में
खदका कर बनाई जाती है। चाय के अलावा यह अल्युमीनियम भी घुल कर पेट की प्रणाली को बर्बाद करने में कम भूमिका नहीं निभाता है।
१४. कई बार हम लोग बची हुई चाय को थरमस में डालकर रख देते हैं इसलिए भूलकर भी ज्यादा देर तक थरमस में रखी चाय का सेवन न करें। जितना हो सके चायपत्ती को कम उबालें तथा एक बार चाय बन जाने पर इस्तेमाल की गई चायपत्ती को फेंक दें।
१५. शरीर में आयरन अवशोषित ना हो पाने से एनीमिया हो जाता है. - इसमें मौजूद कैफीन लत लगा देता है. लत हमेशा बुरी ही होती है.
१६. ज़्यादा चाय पिने से खुश्की आ जाती है.आंतों के स्नायु भी कठोर बन जाते हैं।
१७. चाय के हर कप के साथ एक या अधिक चम्मच शकर
ली जाती है जो वजन बढाती है।
१८. अक्सर लोग चाय के साथ नमकीन , खारे बिस्कुट ,पकौड़ी आदि लेते है. यह विरुद्ध आहार है. इससे त्वचा रोग होते है.।
१९. चाय से भूख मर जाती है, दिमाग सूखने लगता है, गुदा और वीर्याशय ढीले पड़ जाते हैं। डायबिटीज़ जैसे रोग होते हैं। दिमाग सूखने से उड़ जाने वाली नींद के कारण आभासित कृत्रिम स्फूर्ति को स्फूर्ति मान लेना, यह
बड़ी गलती है।
२०. चाय-कॉफी के विनाशकारी व्यसन में फँसे हुए लोग स्फूर्ति का बहाना बनाकर हारे हुए जुआरी की तरह व्यसन
में अधिकाधिक गहरे डूबते जाते हैं। वे लोग शरीर, मन, दिमाग और
पसीने की कमाई को व्यर्थ गँवा देते हैं और भयंकर व्याधियों के शिकार बन जाते हैं।

चाय का विकल्प :-
पहले तो संकल्प कर लें की चाय नहीं पियेंगे. दो दिन से एक हफ्ते तक याद आएगी ; फिर सोचोगे अच्छा हुआ छोड़ दी.एक दो दिन सिर दर्द हो सकता है.
सुबह ताजगी के लिए गर्म पानी ले. चाहे तो उसमे आंवले के टुकड़े मिला दे. थोड़ा एलो वेरा मिला दे.
सुबह गर्म पानी में शहद निम्बू डाल के पी सकते है. - गर्म पानी में तरह तरह की पत्तियाँ या फूलों की पंखुड़ियां दाल कर पी सकते है. जापान में लोग ऐसी ही चाय पीते है और स्वस्थ और दीर्घायु होते है.
कभी पानी में मधुमालती की पंखुड़ियां , कभी मोगरे की , कभी जासवंद , कभी पारिजात आदि डाल कर पियें.
गर्म पानी में  लेमन ग्रास ,   तेजपत्ता , पारिजात ,आदि के पत्ते या अर्जुन की छाल या इलायची , दालचीनी इनमे से एक कुछ डाल कर पियें ।

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Wednesday, December 16, 2015

आर्य - अनार्य और सुर व असुर कौन थे ?

आर्य - अनार्य और सुर व असुर कौन थे ?
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आर्य =श्रेष्ठ और संस्कारी
अनार्य= अश्रेष्ठ और असंस्कारी
सुर=देव गुणों को धारण करने वाला
असुर=नीच गुणों को धारण करने वाला
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आर्य:-जो सदाचारी हैं सदा अच्छे कर्म करते हैं,विपत्ति में भी धर्म का परित्याग नहीं करते,सरलता,न्यायप्रिय,अभिमान-क्रोध-लोभ रहित हैं व सबकी भलाई चाहते हैं वे आर्य हैं।
अनार्य:-जो सदा बुरे कर्म करते हैं,दूसरों को दुःख देते रहते हैं और चोरी,जारी,झूठ,कपट,लोभ,क्रोध,मोह,अहंकार,आदि से युक्त हों,और गुणी जनों में दोष निकालने वाले हों तथा दूसरों से ईर्ष्या,द्वेष रखते हों वे अनार्य हैं।
यही सुर व असुर की पहचान हैं।
सुर-देवता-आर्य।
असुर-राक्षस-अनार्य।
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* आर्य (श्रेष्ठ )--
आर्या व्रता विसृजन्तो अधि क्षमि।
                ऋ0 10-65-11
आर्य वे कहलाते हैं जो इस पृथ्वी पर सत्य अंहिसा, परोपकार, पवित्रतादि। उत्तम व्रतों को विशेष रुप से धारण करते हैं।

*  अनार्य ( दस्यु )--
अकर्मा दस्युरभि नो अमन्तुरन्यव्रतो अमानषः।
             ऋ010-22-8
दस्यु वह है जो श्रम  न करने वाला, विचारशील नहीं है, जो सत्य, अहिंसादि, अच्छे व्रतों को न ग्रहण करता है, मनुष्यता की पवित्र भावना न रखता हुआ क्रुर, कठोर होने के कारण मानवता से दूर है और पशु बलि,पाषाण पूजा आदि वेद विरुद्ध बातों पर विश्वास करता है |
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आर्य कौन है ? who is Arya

मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि भिन्न-भिन्न जातियाँ है। जिन जीवों की उत्पत्ति एक समान होती है वे एक ही जाति के होते है। अत: मनुष्य एक जाति है। जाति रूप से तो मनुष्यों में कोई भेद नहीं होता है परंतु गुण, कर्म, स्वभाव व व्यवहार आदि में भिन्नता होती है। कर्म के भेद से मनुष्यजाति(mankind) में दो भेद होते है १ आर्य २ दस्यु। दो सगे भाई आर्य और दस्यु हो सकते है। वेद(ved) में कहा है“विजानह्याय्यान्ये च दस्यव:” अर्थात आर्य और दस्युओं का विशेष ज्ञान रखना चाहिए। निरुक्त आर्य को सच्चा ईश्वर पुत्र से संबोधित करता है। वेद मंत्रों में सत्य, अहिंसा, पवित्रता आदि गुणों को धारण करने वाले को आर्य कहा गया है और सारे संसार को आर्य बनाने का संदेश दिया गया है। वेद कहता है “कृण्वन्तो विश्वमार्यम”अर्थात सारे संसार को आर्य बनावों। वेद में आर्य (श्रेष्ठ मनुष्यों) को ही पदार्थ दिये जाने का विधान किया गया है – “अहं भूमिमददामार्याय” अर्थात मैं आर्यों को यह भूमि देता हूँ। इसका अर्थ यह हुआ कि आर्य परिश्रम से अपना कल्याण करता हुआ, परोपकार(philanthropy) वृत्ति से दूसरों को भी लाभ पहुंचवेगा जबकि दस्यु दुष्ट स्वार्थी सब प्राणियों को हानि ही पहुंचाएगा। अत: दुष्ट को अपनी भूमि आदि संपत्ति नहीं दिये जाने चाहिए चाहे वह अपना पुत्र ही क्यों न हो।

आर्य कौन है ? who is arya
बाल्मीकी रामायण में समदृष्टि रखने वाले और सज्जनता से पूर्ण श्री रामचन्द्र (shri ram) जी को स्थान-स्थान पर ‘आर्य’ व“आर्यपुत्र” कहा गया है। विदुरनीति में धार्मिक को, चाणक्यनीति में गुणीजन को, महाभारत में श्रेष्ठबुद्धि वाले को व श्रीकृष्ण जी को “आर्यपुत्र” तथा गीता में वीर को ‘आर्य’ कहा गया है। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने आर्य शब्द की व्याख्या (meaning of arya) में कहा है कि “जो श्रेष्ठ स्वभाव, धर्मात्मा, परोपकारी, सत्य-विद्या आदि गुणयुक्त और आर्यावर्त (aryavart) देश में सब दिन से रहने वाले हैं उनको आर्य कहते है।”

आर्य संज्ञा वाले व्यक्ति किसी एक स्थान अथवा समाज में नहीं होते, अपितु वे सर्वत्र पाये जाते है। सच्चा आर्य वह है जिसके व्यवहार से सभी(प्राणिमात्र) को सुख मिलता है, जो इस पृथ्वी पर सत्य, अहिंसा, परोपकार, पवित्रता आदि व्रतों का विशेष रूप से धारण करता है।

आर्यों का आदि देश :-
प्रश्न :- मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई ?
उत्तर :- त्रिविष्टप अर्थात जिस को ‘तिब्बत’ (Tibet) कहते है।

प्रश्न :-  आदि सृष्टि में एक जाति थी वा अनेक ?
उत्तर :- एक मनुष्य जाति थी। पश्चात ‘विजानह्याय्यान्ये च दस्यव:’ यह ऋग्वेद का वचन है। श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वानों का देव और दुष्टों के दस्यु अर्थात डाकू, मूर्ख नाम होने से आर्य और दस्यु दो हुए।‘उत शूद्रे उतार्ये’ अथर्ववेद वचन। आर्यों में पूर्वोक्त कथन से ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र चार भेद हुए। मूर्खों का नाम शूद्र और अनार्य अर्थात अनाड़ी तथा विद्वानों का आर्य हुआ।

प्रश्न :- फिर वे यहाँ कैसे आए ?
उत्तर :- जब आर्य और दस्युओं में अर्थात विद्वान (जो देव) व अविद्वान (असुर), उन में सदा लड़ाई बखेड़ा हुआ करता, जब बहुत उपद्रव होने लगा तब आर्य लोग सब भूगोल में उत्तम इस भूमि के खण्ड को जानकार यहीं आकर बसे। इसी से इस देश का नाम ‘आर्यावर्त’ हुआ।

प्रश्न :- आर्यावर्त की अवधि कहाँ तक है ?
उत्तर :- मनुस्मृति के अनुसार –
उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र। हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर और रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जीतने देश है उन सब को आर्यावर्त इसलिए कहते है कि यह आर्यावर्त देव अर्थात विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त कहाया है।

प्रश्न :- प्रथम इस देश का नाम क्या था और इस में कौन बसते थे?
उत्तर :- इस के पूर्व इस देश का कोई नाम भी न था और न कोई आर्यों के पूर्व इस देश में बस्ते थे। क्योंकि आर्य लोग सृष्टि की आदि में कुछ काल के पश्चात तिब्बत से सूधे इस देश में आकर बसे थे।

प्रश्न :- कोई कहता है कि ये लोग ईरान (Iran) से आए है ?
उत्तर :- किसी संस्कृत ग्रंथ में वा इतिहास (history) में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आए। अत: विदेशियों का लेख मान्य कैसे हो सकता है। मनुस्मृति में इस आर्यावर्त से भिन्न देशों को दस्यु और मलेच्छदेश कहा है।

नाम की महत्ता व हिन्दू शब्द का सच (Hindu word truth)
कुछ व्यक्ति हिन्दू शब्द के पक्षपाती हैं। उनकी कल्पना है कि “सिंधु” अथवा “इन्दु” शब्द से हिन्दू बन गया, अत: यहाँ के निवासियों को हिन्दू कहना ठीक है। यह बात अप्रामाणिक है। प्रथम तो उनके मत से ही सिद्ध है कि हिन्दू नाम पड़ने से पूर्व कोई और नाम अवश्य था। दूसरे सिन्धु और इन्दु नाम आज भी वैसे ही बने हुए है। अत: इस मत में कुछ भी सार नहीं। हिन्दू नाम विदेशियों (मुस्लिमों) ने दिया और हमने उसको वैसे ही मान लिया जैसे अंग्रेजों ने “इंडिया” और “इंडियन” नाम दिया। इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने हमें“नेटिव” शब्द से पुकारा और हम नेटिव कहलाने में गर्व करने लगे, जबकि नेटिव का अर्थ दास है। इसी प्रकार हिन्दू शब्द का अर्थ काला, काफिर, लुच्चा,  वहशी, दगाबाज, बदमाश और चोर आदि है।फारसी, अरबी व उर्दू आदि के उपलब्ध शब्दकोश गयासुल्लोहात, करिमुल्लोहात, लोहातफिरोजी आदि में हिन्दू के अर्थ को आप सभी ढूंढ लेना। कई बार हम कह देते है कि यदि यह कार्य में नहीं कर पाया तो मेरा नाम बदल देना। अर्थात जब हम किसी काम के नहीं रहते तब लोग हमारा नाम बदल देते है। हमारे तो तीन-तीन नाम बदले गए है, फिर भी कहते है कि गर्व से कहो हम हिन्दू है। यह बड़े अपमान का विषय है। अत: इस मत को दूर से ही छोड़ देना चाहिए।
कोई सज्जन कह सकता है कि नाम को लेकर विवाद करना ठीक नहीं, नाम कैसा ही हो, काम अच्छा होना चाहिए। यह बात सुनने में अच्छी लगती हो परंतु ठीक बिलकुल भी नहीं। नाम का पदार्थ पर विशेष प्रभाव पड़ता है। ऋषि दयानन्द (maharishi dayanand) ने एक बार किसी सज्जन का नाम सुनकर कहा था कि “कर्मभ्रष्ट तो हो गए परंतु नामभ्रष्ट तो न बनो।” जिस प्रकार भारत के नाम के साथ भारतीय राष्ट्र की परंपरा आँखों के सामने दिखाई से देने लगती है वैसे ही आर्य नाम के श्रवण मात्र से प्राचीन काल की सारी ऐतिहासिक झलक हमारे सामने आ जाती है। यह मानसिक भाव है, परंतु कर्म पर मन का पूर्ण प्रभाव पड़ता है। यदि आर्य नाम को छोड़ अन्य हिन्दू आदि नाम स्वीकार कर लेते हैं तो आर्यत्व व सारा परंपरागत इतिहास (Traditional History) समाप्त हो जाता है। इसी कारण विदेशी लोग पराधीन देश की नाम आदि परम्पराएँ नष्ट कर देते व बदल देते है, जिससे पराधीन राष्ट्र अपने पुराने गौरव को भूल जावे। इतिहास की स्मृति से मनुष्य फिर खड़ा हो जाता है व पराधीनता की बेड़ियों को काटकर स्वतंत्र बन जाता है। यह सब नाम व इतिहास के कारण ही संभव हो पता है। अत: हमें सर्वत्र प्रयोग करना चाहिए कि हम “आर्य” है,“आर्यावर्त” हमारा राष्ट्र है। आर्यों का भूतअत्यंत उज्जवल (extremely bright)रहा है, हमें उसी पर फिर पहुँचना है। इसी प्रकार हमें अपना, अपने राष्ट्र और अपनी भाषा के नाम का भी सुधार कर लेना चाहिए। हमारे महापुरुषों ने सदैव कहा है कि “हमें हठ, दुराग्रह व स्वार्थ को त्यागकर सत्य (truth) को अपनाने में सर्वदा तैयार रहना चाहिए।”