Monday, April 27, 2020

ब्रह्मचर्य पालन के बहुत जरूरी टिप्स।

सबसे पहले ब्रह्मचर्य पालन का अति कठोर संकल्प होना जरूरी है। 

1. फिर जानो की ये काम विकार(sex-lust) क्या है ? इसने मेरी इतनी दुर्गति क्यों कर रखी है ? इसके लिए चैकिंग करने कि जरूरत है ।

2 दुश्मन पर जीत प्राप्त करने के लिए दुश्मन को अच्छी तरह जानना जरूरी है ठीक वैसे ही इस काम विकार को जीतने के लिए इसको अच्छी तरह जानना बहुत जरूरी है जैसे कि एक कब आता है किन जगह पर आता है किन के साथ आता है क्या करने पर आता है? उन्हें पहचान कर उनसे बचे उन्हें दूर कर दे!

3.ब्रह्मचर्य संबंधित अच्छी किताबों का अध्ययन बहुत ही ज्यादा जरूरी है क्योंकि जब तक हमें पूरी जानकारी नहीं है तब तक हम चाह कर भी इस पर जीत प्राप्त नहीं कर सकते! इसलिए रोजाना कुछ ना कुछ ब्रह्मचर्य के बारे में पढ़ें। ब्रह्मचारी की किताबें ,वीडियोस  इत्यादि ।

4. खुद को बिजी रखें अगर आप खुद को बिजी रखते हो तो आपको गंदे विचार आ ही नहीं सकते तो चेक करें कि किस समय मैं फ्री हूं और उस समय की कुछ ना कुछ प्लानिंग कर ले पहले से ही!

5 हम कोशिश करते हैं फिर भी गलत विचार आते हैं इसका एक बड़ा कारण भोजन है अगर भोजन में हम उत्तेजित करने वाली चीजें लाल मिर्च ज्यादा मिर्च मसाला जरा तली भुनी चीजें प्याज लहसुन इन चीजों का प्रयोग करते हैं तो ना चाहते हुए भी हमारे मन में काम विकार के संकल्प आएंगे तो भोजन पर पूरा नियंत्रण जरूरी है क्योंकि  जब तक रस इंद्रियों को नहीं जीत सकते तब तक जनन इंद्रियों को जीतना संभव ही नहीं है।
इसके अलावा मल त्याग का भी ध्यान रखें। खाया हुआ भोजन कितना भी सात्विक हो, यदि निश्चित समय से अधिक शरीर मे रहता है तो वही सड़ना शुरू हो कर राजसिकता व तामसिकता पैदा करने लगता है। 

6. सुबह जल्दी उठने की आदत डालें सुबह 4,5 बजे तक उठ जाए इससे आपकी समस्या काफी हद तक हल हो जाएगी जल्दी सोने की आदत डाले। 

7. सबसे जरूरी चीज है हम क्या देख सुन पढ़ रहे हैं जो हम देखेंगे सुनेंगे पड़ेंगे उसका प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है तो इस बात का पूरा ध्यान रखें हम जो भी देख ,सुन व पढ़ रहे हैं वह सात्विक हो उसमें किसी भी प्रकार की गंदगी न हो!

8. इंटरनेट ,मोबाइल का केवल जरूरत पड़ने पर ही प्रयोग करें सीमित मात्रा में । बिना लक्ष्य के इंटरनेट पर ना जाए और अपना लक्ष्य पूरा होने के बाद वापस इंटरनेट से बाहर आ जाए।

9. ऐसा कोई भी वीडियो फोटो ऑडियो किताब या कोई चैनल फेसबुक टेलीग्राम यूट्यूब टिक टॉक इंस्टाग्राम पर हो जिसमें अश्लीलता हो मन को उत्तेजित करने वाला हो उसे तुरंत अनफॉलो अनसब्सक्राइब कर देवें यह गंदे चित्र वीडियो ऑडियो आपके लिए जहर है ट्रिगर है इन्हें तुरंत ना कह देवें अगर आप सच में जीवन में सफल होना चाहते हैं!

10. खुद को आध्यात्मिकता से जुड़े योग करें प्रणाम करें मेडिटेशन करें व्यायाम करें अच्छी किताबें पढ़ें अच्छे ऑडियो सुने।

11. अपनी संग(Company,फ्रेंड सर्कल)  का ध्यान रखें हम किन लोगों के साथ रहते हैं बात करते हैं केवल लोग ही संग नहीं जो हम देखते पढ़ते सुनते हैं वह भी संग है क्योंकि जैसी हमारी संग होगी उसका रंग हमें लग जाएगा।

12. अगर आपको कभी असफलता मिलती भी है तो हिम्मत ना हारे वापस उठ खड़े हुए और एक नई शुरुआत कर पूरी ऊर्जा के साथ दोबारा लग जाए आपकी जीत निश्चित है!👍

13. आखिर में यही कहेंगे कि ये जीवन बहुत अनमोल है हीरे के समान बेशकीमती है इसका एक एक सेकंड बहुत मूल्यवान है इसे व्यर्थ नहीं गंवाना है इसका सदुपयोग करके जीवन में सफलता का सोपान पाना है कुछ बड़ा करके दिखाना है।

14 . ज्यादा से ज्यादा युवाओं युवाओं के साथ यह मैसेज शेयर करें जिससे उनके भी जीवन में रोशनी आ जाए, और एक नई शुरुआत करें सफल जीवन की ओर।

आप सभी को उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएं।

 धन्यवाद🌷

Friday, April 24, 2020

वैदिक धर्म बुद्ध के बाद कि हैं?

अशोक के गिरनार और कालसी अभिलेख में हवन , यज्ञ आदि का जिक्र हुवा है , जिसमे अशोक ने यह लिखवाया है की :-
"" किसी जीव को मार कर हवन ( यज्ञ ) न किया जाये , आगे लिख है की पहले हमारी पाक शाला में अर्थात अशोक कि पाक शाला में लाखो जीवो की हत्या सुप के निम्मित की जाती थी। लेकिन जब यह शिलालेख लिखे जा रहे है तब अशोक की पाक शाला में प्रतिदिन सिर्फ तीन ही प्राणी मारे जाते है ,दो मोर एव एक मृग "
अब यहां ध्यान देने योग्य बात यह है इस शिलालेख में हवन यज्ञ आदि का उल्लेख होना ही इस बात का पुष्ट प्रमाण है की अशोक के समय यज्ञ हवन होते थे ,, और उस समय यज्ञ हवन की आड़ में पशु बलि दी जाती थी। स्वयं अशोक की पाक शाला में लाखो जीव सिर्फ सुप के उद्देश्य से मार दिये जाते थे।
लेकिन यहाँ प्रश्न यह उठता है कि बौधों के इकलौते भाषा वैज्ञानिक 52 भाषाओं के जानकार ताऊ राजेन्द्र प्रसाद जी का हमेसा से यही जुमला रहता है कि वैदिक सस्कृति जो है वह बौद्ध संस्कृति के बाद की है। पाली प्रचीन भाषा है। सस्कृत बाद कि ,, बौद्ध सस्कृति प्रचीन है वैदिक बाद कि है :....
तो अब यहां प्रश्न यह बनता है की हवन यज्ञ में उस वक्त पशुओं की बलि देता कौन था , क्या यह कुकृत्य बौद्ध ही करते थे ?
क्यो की राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार तो बौद्ध संस्कृति ही प्राचीन है वैदिक संस्कृति वेद उपनिषद आदि रामायण महाभारत आदि तो कनिष्क के बाद के है। 
... लेकिन यहाँ गिरनार कालसी अभिलेख में यज्ञ एव हवन का जिक्र , इस बात को बल देता है कि ताऊ रजेंद्र प्रसाद कही न कही से निहायत ही मक्कार और धूर्त टाईप के व्यक्ति है ... जो लोगो से वास्तविकता छुपा कर सिर्फ मनगढंत तथ्य प्रस्तुत कर के अंधों के बीच कानिया राजा वाली स्थिति पैदा करते रहते है।
अब अगर पाली को प्रचीन माने ....बौद्ध सस्कृति को प्रचीन माने तो क्या बौद्ध यज्ञ हवन करते थे ? क्या हवन यज्ञ आदि के मंत्रोचार पाली में होते थे ? प्रकृत में होते थे ?
और अगर बौद्ध यज्ञ हवन नही करते थे तो अशोक के शिलालेख में यज्ञ हवन का जिक्र क्यो ?
यह सबको पता है यज्ञ हवन करते समय मंत्रोचार होता है , अब राजेन्द्र प्रसाद जी यह बताये की उस समय अगर यज्ञ हवन होता था तो मंत्रोचार की भाषा क्या थी ?
अगर मंत्रोचार की भाषा पाली थी तो , पाली बोधो मूलनिवासीयो की भाषा कैसे हो गई , क्यो की बौद्ध और मूलनिवासी तो यज्ञ हवन करते नही है। यज्ञ हवन तो ब्राह्मण करते थे तो क्यो न पाली ब्राह्मणो की भाषा मान ली जाये , क्यो की पाली भाषा के शिलालेख में हवन का उल्लेख तो सिद्ध करता है की उस वक्त हवन यज्ञ आदि होते थे ?
और अगर यज्ञ हवन आदि की पररम्परा प्रारंभ में बोधो की थी तो अपने हवन में पशु बलि वह दिया करते थे , यह कुकृत्य बोधो का था फिर दोष वैदिकों एव ब्राह्मणो पर क्यो ?
इस तरह के पशुवध युक्त यज्ञ हवन का वैदिक यज्ञ हवन से क्या लेना देना ? क्यो की वेद और वैदिक संस्कृति तो आप के हिसाब से बौद्ध संस्कृति के बहुत बाद की है। और अगर कही से वैदिक सस्कृति में इस तरह भी बातें या त्रुटियां दिखती भी है तो यह आप से ही आई है क्यो की बौद्ध सस्कृति को प्रचीन संस्कृति होने का दावा आप और आप के चेले ही करते है।
तो आप या आप के अंधभक्त कृपया इस पर अपना स्पष्टीकरण प्रस्तुत करें। कि बौद्ध संस्कृति प्राचीन है या वैदिक , पाली प्राचीन है या संस्कृत।
और अगर यज्ञ हवन बौद्ध संस्कृति नही है तो आप खुद को भी और अपने अंधभक्त चेलों को भी समझाये की वैदिक संस्कृति बौद्ध सभ्यता से पूर्व की है।
अगर आप वैदिक सस्कृति को बौद्ध सभ्यता से पूर्व मानेंगे तभी आप की इज्जत यहां बच सकती है , नही मानेगे तो आप के साथ साथ आप का पूरा बुद्धिज्म नंगा हो जाएगा।
क्यो की प्रायः सभी बौद्ध यज्ञ हवन आदि की बात को सिरे से नकारते है और उसे वैदिक संस्कृति का अंग बताते है। कोई भी बौद्ध यज्ञ नही करता बल्कि वह यज्ञ हवन का विरोध करता है अतः हवन यज्ञ यह बौद्ध सस्कृति का अंग तो नही है।
तो क्यो न यह मान ले की अशोक के समय हवन यज्ञ आदि का जिक्र यह साफ करता है की उससे पूर्व वेद और वैदिक सस्कृति दोनो विद्धमान थी।
क्यो न हम यह माने की पाली भी वैदिक भाषा थी, क्यो की यह बोधो का ही मत है कि पिछले 5 हजार सालो से तो यह अंगूठा छाप और जाहिल थे इन्हें पढ़ने लिखने का अधिकार नही था , तो इन अनपढों ने कोई भाषा कैसे सृजित कर ली , उस भाषा के शिलालेख कैसे लिखवा दिए।
निसंदेह यह अभिलेख इस मत को पुष्ट करता है कि उस वक्त वैदिक ही पाली बोलते थे , और पाली बोधो की नही वैदिको की भाषा थी। क्यो की बुद्ध के समय तो कोई बौद्ध था ही नही बुद्ध के 2 लाख सुत्तों में कही भी किसी बौद्ध नाम के जीव का जिक्र नही है।
रही हवन में पशु बलि की बात तो यह विकृति बौद्ध युग में ही अस्तित्व में आई थी,, बुद्ध से पूर्व वैदिक लोग यज्ञ में पशु बलि नही दिया करते थे , इसका प्रमाण स्वयं बुद्ध ने ही दिया है।
उदहारण देखे :-
गोतम बुद्ध ......गोतम सुतानिपात में कहते है :-
"अन्नदा बलदा नेता बण्णदा सुखदा तथा
एतमत्थवंस ञत्वानास्सु गावो हनिसुते |
न पादा न विसाणेन नास्सु हिंसन्ति केनचि
गानों एकक समाना सोरता कुम्भ दुहना |
ता विसाणे गहेत्वान राजा सत्येन घातयि |"
अर्थ -पूर्व समय वैदिक काल में ब्राह्मण लोग गौ को अन्न,बल ,कान्ति और सुख देने वाली मानकर उसकी कभी हिंसा नही करते थे | परन्तु आज घडो दूध देने वाली ,पैर और सींग न मारने वाली सीधी गाय को मारते है ।
यहाँ ध्यान देना होगा पशु हिंसा बुद्ध के युग में थी न की वैदिक युग में । यह स्वयं बुद्ध ने स्पष्ट किया है।
गौ मेध का अर्थ गौ के गुण से है ,
( गौ - गाय + मेध - गुण या प्रतिभा )
किन्तु मंद बुद्धि लोग गौमेध का अर्थ गौ वध से लगा कर दुष्प्रचार करते है।
इससे पता चलता है कि बुद्ध के समय में भी यह ज्ञात था कि प्राचीन काल में यज्ञो में गौ हत्या अथवा गौ मॉस या किसी भी जीव ही यज्ञ में हत्या का कोई प्रयोजन नही था ।
इस संधर्भ में एक अन्य प्रमाण हमे कूटदंतुक में मिलता है | जिसमे बुद्ध ब्राह्मण कुतदंतुक से कहते है कि उस यज्ञ में पशु बलि के लिए नही थे |
कूटदंतुक में बुद्ध ने यज्ञ पुरोहित के गुण भी बताये है :-
सुजात ,त्रिवेद (वेद ज्ञानी ) ,शीलवान और मेधावी | और यज्ञ में घी ,दूध ,दही ,अनाज ,मधु के प्रयोग को बताया है |
अत: स्पष्ट है कि बुद्ध यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ में हिंसा विरोधी थे ,सुतानिपात ५६९ में बुद्ध का निम्न कथन है :-
अर्थात छंदो मे सावित्री छंद(गायत्री छंद ) मुख्य है ओर यज्ञो मे अग्निहोत्र यज्ञ श्रेष्ट है।
सुत्निपात श्लोक ५०३ तथा ४५८ में कहते है -
यदन्तु वेदगू यज्ञ काले यस्याहुति |"
अर्थात पूण्य की कामना करने वाले यज्ञ करे |
सालेय्य सुतंत १.५.१ में कहते है - जो लोग यह कहते है कि यज्ञ कुछ नही ,यह उनकी दृष्टि में मिथ्या है ...इस तरह कहने वाले लोग मर कर नर्क में जाते है |
इस तरह यहां बुद्ध स्वयं यज्ञ और वैदिक युग के यज्ञों में किसी भी तरह की हिंसा की बात को अस्वीकार कर देते है। अतः यज्ञ के नाम पर हिंसा बौद्ध युग की देंन थी वैदिक काल में ऐसा नही होता था।
अतः यह निर्विवाद सिद्ध है की वैदिक संस्कृति ही प्राचीन संस्कृति है सस्कृत ही प्राचीन श्रेष्ट जन की भाषा है। क्यो की प्रकृत और पाली भाषा तो अनपढ़ ग्वार गधे बकलोल और जाहिल लोगो की भाषा थी जो 5 हजार साल से अनपढ़ अशिक्षित थे , श्रेष्ट जन अनपढों मूर्खो और ग्वारो से संवाद के लिए प्रकृत एव पाली का प्रयोग करते थे।
उदाहरण के लिए :-
जैन आचार्य हरिभद्र सूरी अपने दशवेकालीक टिका में लिखते है कि :-
" बाल स्त्री मूढ़ मूर्खाणां मूणा चरित्रकंगक्षिणाम।
अनुग्रहार्थ तत्वज्ञ: सिद्धान्त: प्राकृत: स्मृतः।।
बाल मूढ़ मूर्ख के लिए जैन सिद्धान्त प्राकृत भाषा मे दिया गया ।
अतः यह बात तो तय है कि प्रकृत भाषा उसके बाद पाली भाषा मे जो संदेश ज्ञान दिया गया जैन या बौद्ध संस्कृति में वह मूर्खो मूढो बच्चो और स्त्रियों के लिए था ,, अतः प्राकृत या पाली विद्वानों द्वारा मूर्खो गवारो जाहिलो को समझाने के लिए प्रयुक्त होती थी।
जबकि श्रेष्ट एव विद्वान जन जो थे वह वैदिक थे ,, उस समय वैदिक संस्कृति और भाषा का प्रयोग करते थे। इस बात की पुष्टि हमने गिरनार एव कालसी अभिलेख से ही कर दी है। ,
यद्यपि हवन यज्ञ वैदिक कर्म है ,, पाली वाले जाहिल ग्वार अनपढ़ थे इसी लिए यज्ञ हवन नही करते थे। आज भी नही करते है क्यो की उन्हें इसकी जानकारी नही थी और न आज है ये चिन्दी चोर की तरह सड़क छाप इतिहासकारों भाषा वैज्ञानिकों के भरम जाल में उलझे रहते है। यह बुद्ध और अशोक पर अपना कॉपी राईट दिखाते है लेकिन उनकी बात उनके पल्ले जरा भी नही पड़ती क्यो की आखिर है तो यह मूर्ख अनपढ़ ग्वार ही न।
यह वैदिकों से कितनी भी नफरत करें . . लेकिन अपने पिता के अस्तित्व को नकारने वाली औलाद दोगली होती है वह वैदिक संस्कृति के ही लोग थे जिन्होंने प्रकृत पाली भाषा विकसित की थी जिससे की वह इन 5 हजार साल वाले अंगूठा छापो को कुछ बता और समझा सके उन्ही की भाषा मे।

वंदेमातरम

Thursday, April 23, 2020

मूल निवासी कौन ?

कई दिनों से देख रहा हूँ कुछ अम्बेडकरवादी लोग आर्यों को विदेशी कह रहे है। ये कहते हैं कि कुछ साल पहले ( 1500 BC लगभग ) आर्य बाहर से ( इरान/ यूरेशिया या मध्य एशिया के किसी स्थान से) आए और यहाँ के मूल निवासियों को हरा कर गुलाम बना लिया. तर्क के नाम पर ये फ़तवा देते हैं कि ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य आदि सभी विदेशी है. क्या आर्य विदेशी है?

बाबा भीमराव अम्बेडकर जी के ही विचार रखूंगा जिससे ये सिद्ध होगा की आर्य स्वदेशी है।

1) डॉक्टर अम्बेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस खंड 7 पृष्ट में अम्बेडकर जी ने लिखा है कि आर्यो का मूलस्थान(भारत से बाहर) का सिद्धांत वैदिक साहित्य से मेल नही खाता। वेदों में गंगा,यमुना,सरस्वती, के प्रति आत्मीय भाव है। कोई विदेशी इस तरह नदी के प्रति आत्मस्नेह सम्बोधन नही कर सकता।

2) डॉ अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक "शुद्र कौन"? Who were shudras? में स्पष्ट रूप से विदेशी लेखको की आर्यो के बाहर से आकर यहाँ पर बसने सम्बंधित मान्यताओ का खंडन किया है। डॉ अम्बेडकर लिखते है--

1) वेदो में आर्य जाती के सम्बन्ध में कोई जानकारी नही है।

2) वेदो में ऐसा कोई प्रसंग उल्लेख नही है जिससे यह सिद्ध हो सके कि आर्यो ने भारत पर आक्रमण कर यहाँ के मूलनिवासियो दासो दस्युओं को विजय किया।

3) आर्य,दास और दस्यु जातियो के अलगाव को सिद्ध करने के लिए कोई साक्ष्य वेदो में उपलब्ध नही है।

4)वेदो में इस मत की पुष्टि नही की गयी कि आर्य,दास और दस्युओं से भिन्न रंग के थे।

5)डॉ अम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से शुद्रो को भी आर्य कहा है(शुद्र कौन? पृष्ट संख्या 80)

अगर अम्बेडकरवादी सच्चे अम्बेडकर को मानने वाले है तो अम्बेडकर जी की बातो को माने।

वैसे अगर वो बुद्ध को ही मानते है तो महात्मा बुद्ध की भी बात को माने। महात्मा बुद्ध भी आर्य शब्द को गुणवाचक मानते थे। वो धम्मपद 270 में कहते है प्राणियो की हिंसा करने से कोई आर्य नही कहलाता। सर्वप्राणियो की अहिंसा से ही मनुष्य आर्य अर्थात श्रेष्ठ व् धर्मात्मा कहलाता है।

यहाँ हम धम्मपद के उपरोक्त बुध्वचन का Maha Bodhi Society, Bangalore द्वारा प्रमाणित अनुवाद देना आवश्यक व् उपयोगी समझते है।.
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विदेशी यात्रिओं के प्रमाण -
अम्बेडकरवादी सभी संस्कृत ग्रंथों को गप्प कहते हैं इसलिए कुछ विदेशी यात्रिओं के प्रमाण विचारणीय हैं...
1- मेगस्थनीज 350 ईसापूर्व - 290 ईसा पूर्व) यूनान का एक राजदूत था जो चन्द्रगुप्त के दरबार में आया था। वह कई वर्षों तक चंद्रगुप्त के दरबार में रहा। उसने जो कुछ भारत में देखा, उसका वर्णन उसने "इंडिका" नामक पुस्तक में किया है। उसमे साफ़ साफ़ लिखा है कि भारतीय मानते हैं कि ये सदा से ही इस देश के मूलनिवासी हैं. 
2- चीनी यात्री फाह्यान और ह्यून्सांग- इन दोनों ने एक शब्द भी नहीं लिखा जो आर्यों को विदिशी या आक्रान्ता बताता हो. ये दोनों बौद्ध थे.
3- इतिहास के पितामह हेरोड़ेट्स - इन्होने भी अपने लेखन में भारत का कुछ विवरण दिया है.परन्तु इन्होने भी एक पंक्ति नहीं लिखी भारत में आर्य आक्रमण पर.
4- अलबेरूनी - यह मूलतः मध्य पूर्व ( इरान+अफगानिस्तान) से महमूद गजनवी के साथ आया. लम्बे समय तक भारत आया. भारत के सम्बन्ध में कई पुस्तकें लिखी. परन्तु एक शब्द भी नहीं लिखा आर्यों के बाहरी होने के बारें में.
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वेद क्या कहता है शूद्र से सम्बन्ध  के बारे में 

1- हे ईश्वर - मुझको परोपकारी विद्वान ब्राह्मणो मे प्रिय करो, मुझको शासक वर्ग मे प्रिय करो, शूद्र और वैश्य मे प्रिय करो, सब देखनों वालों मे प्रिय करो । अथर्व वेद 19/62/1
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2- हे ईश्वर - हमारे ब्राह्मणों मे कान्ति, तेज, ओज, सामर्थ्य भर दो, हमारे शासक वर्ग (क्षत्रियों) मे तेज, ओज, कान्ति युक्त कर दो, वैश्यो तथा शूद्रों को कान्ति तेज ओज सामर्थ्य युक्त कर दो। मेरे भीतर भी विशेष कान्ति, तेज, ओज भर दो। यजुर्वेद 18/48 

सभी से कहूँगा सत्य को स्वीकार करें.

#भारत_का_मूल_निवासी_कौन 

जानिए इस सत्य को...

#विज्ञान कहता है कि धरती पर जीवन की उत्पत्ति 60 करोड़ वर्ष पूर्व हुई एवं महाद्वीपों का सरकना 20 करोड़ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ, जिससे पांच महाद्वीपों की उत्पत्ति हुई।  स्तनधारी जीवों का विकास 14 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ। मानव का प्रकार (होमिनिड) 2.6 करोड़ वर्ष पूर्व आया, लेकिन आधुनिक मानव 2 लाख वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया। पिछले पचास हजार (50,000) वर्षों में मानव समस्त विश्व में जाकर बस गया। विज्ञान कहता है कि मानव ने जो भी यह अभूतपूर्व प्रगति की है वह 200 से 400 पीढ़ियों के दौरान हुई है। उससे पूर्व मानव पशुओं के समान उससे पूर्व मानव पशुओं के समान ही जीवन व्यतीत करता था।

प्रत्येक देश का नागरिक खुद को वहां का मूल निवासी मानता है। जैसे अमेरिकावासी खुद को मूल निवासी मानते हैं लेकिन वहां की रेड इंडियन जाती के लोग कहते हैं कि यह गोरे और काले लोग बाहर से आकर यहां बसे हैं। इसी तरह योरपवासियों का एक वर्ग खुद को आर्य मानता है। अधिकतर इतिहासकार मानते हैं कि आर्य मध्य एशिया के मूल निवासी थे। अब आओ हम इतिहास और विज्ञान की नजरों से जानते हैं कि भारत का मूल निवासी कौन?
#क्या आर्यों ने सिंधु सभ्यता को नष्ट कर दिया था?
#शब्दों का फर्क समझें : अंग्रेजी का नेटिव (native) शब्द मूल निवासियों के लिये प्रयुक्त होता है। अंग्रेजी के ट्राइबल शब्द का अर्थ 'मूलनिवासी' नहीं होता है। ट्राइबल का अर्थ होता है 'जनजातीय'। 9 अगस्त को 'विश्व जनजातीय दिवस' मनाया जाता है। 'विश्व जनजातीय दिवस' अर्थात विश्व की सभी जनजातीयों का दिवस।
#अधिकतर लोग मतांध हैं : किसी जाति, धर्म, समाज, राष्ट्र या किसी महान व्यक्ति के ज्ञान का अपनी आंखों पर चश्मा लगाकर उक्त बातों को मानना या जानना मतांधता और अंधविश्वास ही माना जाएगा। दरअसल, यह मतांधता धर्म और राजनीति के स्वार्थ के कारण भी उपजी है। भारत में जातिगत विभाजन एक चुनावी खेल भी है जिसके चलते देश का सामाजिक तानाबाना ही नहीं टूटा बल्कि लोगों के बीच नफरत भी काफी हद तक बढ़ गई है। यह हमारी इतिहास की भ्रमित समझ और शिक्षा का ही परिणाम है।
#विज्ञान की थ्योरी : यदि हम मूलनिवासी की बात करें तो धरती के सभी मनुष्य अफ्रीकन या दक्षिण भारतीय है। 35 हजार वर्ष पूर्व मानव अफ्रीका से निकलकर मध्य एशिया और योरप में जाकर बसा। योरप से होता हुआ मनुष्य चीन पहुंचा और वहां से वह पुन: भारत के पूर्वोत्तर हिस्सों में दाखिल होते हुए पुन: दक्षिण भारत पहुंच गया। वैज्ञानिकों की मानें तो इससे पहले लगभग 19 करोड़ साल पहले सभी द्वीपराष्ट्र एक थे और चारों ओर समुद्र था। यूरोप, अफ्रीका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका सभी एक दूसरे से जुड़े हुए थे। अर्थात धरती का सिर्फ एक टुकड़ा ही समुद्र से उभरा हुआ था। इस इकट्ठे द्वीप के चारों ओर समुद्र था और इसे वैज्ञानिकों ने नाम दिया- 'एंजिया'।
#अब हम यह समझ सकते हैं कि प्रारंभिक मानव पहले एक ही स्थान पर रहता था। वहीं से वह संपूर्ण विश्व में समय, काल और परिस्थिति के अनुसार बसता गया। विश्वभर की जनतातियों के नाक-नक्ष आदि में समानता इसीलिए पायी जाती है क्योंकि उन्होंने निष्क्रमण के बाद भी अपनी जातिगत शुद्धता को बरकरार रखा और जिन आदिवासी या जनतातियों के लोगों ने अपनी भूमि और जंगल को छोड़कर अन्य जगह पर निष्क्रमण करते हुए इस शुद्धता को छोड़कर संबंध बनाए उनमें बदलाव आता गया। यह बदलावा वातावरण और जीवन जीने के संघर्ष से भी आया।..खैर अब हम बात करते हैं भारत के मूल निवासियों की।
#वेदों में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो आर्यों, दासों, दस्युओं में नस्लीय भेद को प्रदर्शित करता हो। वैज्ञानिक अध्ययनों, वेद शास्त्रों, शिलालेखों, जीवाश्मों, श्रुतियों, पृथ्वी की सरंचनात्मक विज्ञान, जेनेटिक अध्ययन और डीएनए के संबंधों आदि के आधार पर यह तथ्‍य सामने आता है कि धरती पर प्रथम जीव की उत्पत्ति गोंडवाना लैंड पर हुई थी। जिसे तब पेंजिया कहा जाता था और जो गोंडवाना और लारेशिया को मिलाकर बना था।
#गोंडवाना लैंड के अमेरिका, अफ्रीका, अंटार्कटिका, ऑस्ट्रेलिया एवं भारतीय प्रायद्वीप में विखंडन के पश्चात् यहां के निवासी अपने अपने क्षेत्र में बंट गए। जीवन का विकास सर्वप्रथम भारतीय दक्षिण प्रायद्वीप में नर्मदा के तट पर हुआ था जो नवीनतम शोधानुसार विश्व की सर्वप्रथम नदी मानी गई है। यहां बड़ी माथा में डायनासोर के अंडे और जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। भारत के सबसे पुरातन आदिवासी गोंडवाना प्रदेश के गोंड कारकू समाज की प्राचीन कथाओं में यह तथ्‍य कई बार आता है।
#जातिगत भिन्नता का कारण प्रकृति और भिन्न प्रदेश :भारत में #कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक गोरे, काले, सांवले, लाल और गेहूंवे रंग के हैं। एक ही परिवार में कोई काला है तो कोई गोरा, एक ही समाज में कोई काला है तो कोई गोरा। सभी वर्गों में सभी तरह के रंग के लोग आपको मिल जाएंगे। कश्मीरी ब्राह्मण गोरे हैं तो दक्षिणी ब्राह्मण काले। दक्षिण भारत में अधिकर लोग काले रंग के होते हैं। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई और हिन्दुओं में दलित और ब्राह्मण सभी काले रंग के हैं।
#इस तरह हम भारतीयों के नाक-नक्ष की बात करें तो वह चीन और अफ्रीका के लोगों से बिल्कुल भिन्न है। यदि रंग की बात करें तो भारतीयों का रंग योरप, अफ्रीका के लोगों से पूर्णत: भिन्न है। अमेरिकी और अफ्रीकी लोगों का गौरा रंग और भारत के लोगों के गौरे रंग में बहुत फर्क है। इसी तरह अफ्रीका के काले और भारत के काले रंग में भी बहुत फर्क है। ब्राह्मणों में कितने ही काले और भयंकर काले रंग के मिल जाएंगे और दलितों में कितने ही गोरे रंग के मिल जाएंगे।
#हजारों वर्षों के मानव-समाज के विकास के बाद आज अगर कोई यह दावा करता है कि वह मूलनिवासी है, तो वह बहुत बड़ी गलतफहमी का शिकार है। अगर कोई यह मानता है कि आर्य और दास अलग-अलग थे और उनमें कोई रक्त मिश्रिण नहीं हुआ तो यह भी उसके अल्पज्ञान का ही परिणाम है। 
#डीएनए रिपोर्ट अनुसार आर्य और दृविड़ एक ही है...
आर्यों को कोई सेंट्रल एशिया कहता है, तो कोई साइबेरिया, तो कोई मंगोलिया, तो कोई ट्रांस कोकेशिया, तो कुछ ने आर्यों को स्कैंडेनेविया का बताया। ऐसा बताने का एक कारण भारतीय लोगों को उनके मूल इतिहास से काटकर जातिगत विभाजन करना भी रहा है जिसके चलते पश्चिमी धर्मों का विकास हो सकते।
#उल्लेखनीय है कि प्राचीन भारतीय जैन, बौद्ध और हिन्दू ग्रंथों अनुसार आर्य कोई जाति नहीं बल्कि यह विशेषण था। आर्य शब्द का प्रयोग महाकुल, कुलीन, सभ्य, सज्जन, साधु आदि के लिए पाया जाता है। आर्य का अर्थ श्रेष्ठ होता है। आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक विशेष विचारधारा को मानने वाले का समूह था जिसमें श्‍वेत, पित, रक्त, श्याम और अश्‍वेत रंग के सभी लोग शामिल थे। नई खोज के अनुसार आर्य आक्रमण नाम की चीज न तो भारतीय इतिहास के किसी कालखण्ड में घटित हुई और ना ही आर्य तथा द्रविड़ नामक दो पृथक मानव नस्लों का अस्तित्व ही कभी धरती पर रहा।
#यह बहुत बहुत प्रचारित किया जाता है कि आर्य बाहरी और आक्रमणकारी थे। उन्होंने भारत पर आक्रमण करके यहां के द्रविड़ लोगों को दास बनाया। पहले अंग्रेजों ने भी फिर हमारे ही इतिहाकारों ने इस झूठ को प्रचारित और प्रसारित किया। आर्य को उन्होंने एक जाति माना और द्रविड़ को दूसरी। इस तरह विभाजन करके उन्होंने भारत का इतिहास लिखा। इतिहासकारों द्वारा किया गया यह विभाजन भारत को तोड़ गया।
आर्यन इन्वेजन थ्योरी गलत है?
भारत की सरकारी किताबों में आर्यों के आगमन को आर्यन इन्वेजन थ्योरी कहा जाता है। इन किताबों में आर्यों को घुमंतू या कबीलाई बताया जाता है। यह ऐसे खानाबदोश लोग थे जिनके पास वेद थे, रथ थे, खुद की भाषा थी और उस भाषा की लिपि भी थी। मतलब यह कि वे पढ़े-लिखे, सभ्य और सुसंस्कृत खानाबदोश लोग थे। यह दुनिया का सबसे अनोखा उदाहरण है। इतिहासकारों के एक वर्ग मानता है कि यह थ्योरी मैक्स मूलर ने जानबूझकर गढ़ी होगी?
#मैक्स मूलर ने ही भारत में आर्यन इन्वेजन थ्योरी को लागू करने का काम किया था, लेकिन इस थ्योरी को सबसे बड़ी चुनौती 1921 में मिली। अचानक से सिंधु नदी के किनारे एक सभ्यता के निशान मिल गए। कोई एक जगह होती, तो और बात थी। यहां कई सारी जगहों पर सभ्यता के निशान मिलने लगे। इसे सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाने लगा। अब सवाल यह पैदा हो गया कि यदि इस सभ्यता को हिन्दू या आर्य सभ्यता मान लिया गया तो फिर आर्यन इन्वेजन थ्योरी का क्या होगा। ऐसे में फिर धीरे-धीरे यह प्रचारित किया जाने लगा कि सिंधु लोग द्रविड़ थे और वैदिक लोग आर्य।
#जब अंग्रेजों और उनके अनुसरणकर्ताओं ने यह देखा कि सिंधु घाटी की सभ्यता तो विश्वस्तरीय शहरी सभ्यता थी। इस सभ्यता के पास टाउन-प्लानिंग का ज्ञान कहां से आया और उन्होंने स्वीमिंग पूल बनाने की तकनीक कैसे सीखी? वह भी ऐसे समय जबकि ग्रीस, रोम और एथेंस का नामोनिशान भी नहीं था।..तो उन्होंने एक नया झूठ प्रचारित किया। वह यह कि सिंधु सभ्यता और वैदिक सभ्यता दोनों अलग अलग सभ्यता है। सिंधु लोग द्रविड़ थे और वैदिक लोग आर्य। आर्य तो बाहर से ही आए थे और उनके काल सिंधु सभ्यता के बाद का काल है। इस थ्योरी को हमारे यहां के वामी इतिहासकारों ने जमकर प्रचारित किया।
#पहला डीएनए शोध : फिनलैण्ड के तारतू विश्वविद्यालय, एस्टोनिया में भारतीयों के डीनएनए गुणसूत्र पर आधारित एक अनुसंधान हुआ। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉं. कीवीसील्ड के निर्देशन में एस्टोनिया स्थित एस्टोनियन बायोसेंटर, तारतू विश्वविद्यालय के शोधछात्र ज्ञानेश्वर चौबे ने अपने अनुसंधान में यह सिद्ध किया है कि सारे भारतवासी जीन अर्थात गुणसूत्रों के आधार पर एक ही पूर्वजों की संतानें हैं, आर्य और द्रविड़ का कोई भेद गुणसूत्रों के आधार पर नहीं मिलता है, और तो और जो अनुवांशिक गुणसूत्र भारतवासियों में पाए जाते हैं वे डीएनए गुणसूत्र दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाए गए।
शोधकार्य में वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनसंख्या में विद्यमान लगभग सभी जातियों, उपजातियों, जनजातियों के लगभग 13000 नमूनों के परीक्षण-परिणामों का इस्तेमाल किया गया। इनके नमूनों के परीक्षण से प्राप्त परिणामों की तुलना मध्य एशिया, यूरोप और चीन-जापान आदि देशों में रहने वाली मानव नस्लों के गुणसूत्रों से की गई। इस तुलना में पाया गया कि सभी भारतीय चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाले हैं, 99 प्रतिशत समान पूर्वजों की संतानें हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि भारत में आर्य और द्रविड़ विवाद व्यर्थ है। उत्तर और दक्षिण भारतीय एक ही पूर्वजों की संतानें हैं। 
#शोध में पाया गया है कि तमिलनाडु की सभी जातियों-जनजातियों, केरल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश जिन्हें पूर्व में कथित द्रविड़ नस्ल से प्रभावित माना गया है, की समस्त जातियों के डीनएन गुणसूत्र तथा उत्तर भारतीय जातियों-जनजातियों के डीएनए का उत्पत्ति-आधार गुणसूत्र एकसमान है। उत्तर भारत में पाये जाने वाले कोल, कंजर, दुसाध, धरकार, चमार, थारू, दलित, क्षत्रिय और ब्राह्मणों के डीएनए का मूल स्रोत दक्षिण भारत में पाई जाने वाली जातियों के मूल स्रोत से कहीं से भी अलग नहीं हैं।
#इसी के साथ जो गुणसूत्र उपरोक्त जातियों में पाए गए हैं वहीं गुणसूत्र मकरानी, सिंधी, बलोच, पठान, ब्राहुई, बुरूषो और हजारा आदि पाकिस्तान में पाए जाने वाले समूहों के साथ पूरी तरह से मेल खाते हैं। जो लोग आर्य और दस्यु को अलग अलग बानते हैं उन्हें बाबासाहब आम्बेडकर की किताब 'जाती व्यवस्था का उच्चाटन' (Annihilation of caste) को अच्छे से पढ़ना चाहिए।
#दूसरा डीएनए शोध : इसी तरह का एक अनुसंधान भारत और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने भी किया था। उनके इस साझे आनुवांशिक अध्ययन अनुसार उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच बताई जाने वाली आर्य-अनार्य असमानता अब नए शोध के अनुसार कोई सच्ची आनुवांशिक असमानता नहीं है। अमेरिका में हार्वर्ड के विशेषज्ञों और भारत के विश्लेषकों ने भारत की प्राचीन जनसंख्या के जीनों के अध्ययन के बाद पाया कि सभी भारतीयों के बीच एक अनुवांशिक संबंध है। इस शोध से जुड़े सीसीएमबी अर्थात सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी (कोशिका और आणविक जीवविज्ञान केंद्र) के पूर्व निदेशक और इस अध्ययन के सह-लेखक लालजी सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि शोध के नतीजे के बाद इतिहास को दोबारा लिखने की जरूरत पड़ सकती है। उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच कोई अंतर नहीं रहा है।
सीसीएमबी के वरिष्ठ विश्लेषक कुमारसमय थंगरंजन का मानना है कि आर्य और द्रविड़ सिद्धांतों के पीछे कोई सचाई नहीं है। वे प्राचीन भारतीयों के उत्तर और दक्षिण में बसने के सैकड़ों या हजारों साल बाद भारत आए थे। इस शोध में भारत के 13 राज्यों के 25 विभिन्न जाति-समूहों से लिए गए 132 व्यक्तियों के जीनों में मिले 500,000 आनुवांशिक मार्करों का विश्लेषण किया गया।
#इन सभी लोगों को पारंपरिक रूप से छह अलग-अलग भाषा-परिवार, ऊंची-नीची जाति और आदिवासी समूहों से लिया गया था। उनके बीच साझे आनुवांशिक संबंधों से साबित होता है कि भारतीय समाज की संरचना में जातियाँ अपने पहले के कबीलों जैसे समुदायों से बनी थीं। उस दौरान जातियों की उत्पत्ति जनजातियों और आदिवासी समूहों से हुई थी। जातियों और कबीलों अथवा आदिवासियों के बीच अंतर नहीं किया जा सकता क्योंकि उनके बीच के जीनों की समानता यह बताती है कि दोनों अलग नहीं थे।
#इस शोध में सीसीएमबी सहित हार्वर्ड मेडिकल स्कूल, हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ तथा एमआईटी के विशेषज्ञों ने भाग लिया। इस अध्ययन के अनुसार वर्तमान भारतीय जनसंख्या असल में प्राचीनकालीन उत्तरी और दक्षिणी भारत का मिश्रण है। इस मिश्रण में उत्तर भारतीय पूर्वजों (एन्सेंस्ट्रल नॉर्थ इंडियन) और दक्षिण भारतीय पूर्वजों (एन्सेंस्ट्रल साउथ इंडियन) का योगदान रहा है। पहली बस्तियाँ आज से 65,000 साल पहले अंडमान द्वीप और दक्षिण भारत में लगभग एक ही समय बसी थीं। बाद में 40,000 साल पहले प्राचीन उत्तर भारतीयों के आने से उनकी जनसंख्या बढ़ गई। कालान्तर में प्राचीन उत्तर और दक्षिण भारतीयों के आपस में मेल से एक मिश्रित आबादी बनी। आनुवांशिक दृष्टि से वर्तमान भारतीय इसी आबादी के वंशज हैं। अध्ययन यह भी बताने में मदद करता है कि भारतीयों में जो आनुवांशिक बीमारियाँ मिलती हैं वे दुनिया के अन्य लोगों से अलग क्यों हैं। 
#लालजी सिंह कहते हैं कि 70 प्रतिशत भारतीयों में जो आनुवांशिक विकार हैं, इस शोध से यह जानने में मदद मिल सकती है कि ऐसे विकार जनसंख्या विशेष तक ही क्यों सीमित हैं। उदाहरण के लिए पारसी महिलाओं में स्तन कैंसर, तिरुपति और चित्तूर के निवासियों में स्नायविक दोष और मध्य भारत की जनजातियों में रक्ताल्पता की बीमारी ज्यादा क्यों होती है। उनके कारणों को इस शोध के जरियए बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
#शोधकर्ता अब इस बात की खोज कर रहे हैं कि यूरेशियाई अर्थात यूरोपीय-एशियाई निवासियों की उत्पत्ति क्या प्राचीन उत्तर भारतीयों से हुई है। उनके अनुसार प्राचीन उत्तर भारतीय पश्चिमी यूरेशियाइयों से जुड़े हैं। लेकिन प्राचीन दक्षिण भारतीयों में दुनियाभर में किसी भी जनसंख्या से समानता नहीं पाई गई। हालांकि शोधकर्ताओं ने यह भी कहा कि अभी तक इस बात के पक्के सबूत नहीं हैं कि भारतीय पहले यूरोप की ओर गए थे या फिर यूरोप के लोग पहले भारत आए थे।

 वंदे मातरम। 

Monday, April 6, 2020

अमर बलिदानी राजा नाहर सिहं जी।

1857 क्रांति के सिरमौर ,अमर बलिदानी राजा नाहर सिहं जी की जयंती पर इस महान क्रांतिकारी योद्धा को शत्-शत् नमन् !!

#हुतात्मा_राजा_नाहर_सिंह_की_गौरवगाथा  

#जन्म_व_बचपन
राजा नाहर सिंह का जन्म 6 अप्रैल 1821 को बल्लभगढ नरेश राजा रामसिंह के घर हुआ था।वे  महान यौद्धा राजा बलराम सिंह की सातवीं पीढ़ी में पैदा हुए थे। उनकी माता का नाम बसन्त कौर था। उनके माता पिता बहुत ही धार्मिक थे।
उनके छोटे भाई का नाम रणजीत सिंह था। जो बाद में अपने नाना की उत्तर प्रदेश में साहनपुर की कुचेसर रियासत के राजा हुए।

बालक नाहर सिंह का जन्म गोगा जी की पूजा के बाद हुआ था इसलिए प्रजा उन्हें गोगा जी का अवतार मानती थी।

दस वर्ष की अवस्था तक राजा नाहर सिंह ने शास्त्रों का काफी अध्ययन कर लिया था।उन्हे रामायण के लक्ष्मण व महाभारत के अर्जुन बहुत प्रिय पात्र लगते थे।
नाहर सिंह को राज पाठशाला में पण्डित कुलकर्णी जी द्वारा शिक्षा दी गयी थी।
15 वर्ष की उम्र पूरी करते करते नाहर सिंह शस्त्र विद्या में निपुण हो गए थे।सेनापति जोधा सिंह ने उन्हें घुड़सवारी, तीरंदाजी, तैराकी, भाला, तलवार आदि की शिक्षा दी।
राजा नाहर सिंह सुंदर व फुर्तीला नौजवान था।उनकी बड़ी बड़ी आंखे व चौड़े कंधे थे।और वह पारंपरिक भारतीय पगड़ी पहनता था जिस पर हीरे जवाहरात भी जड़े रहते थे और शानदार मूंछे रखते थे।

#कैसे_पड़ा_नाहर_सिंह_नाम

राजा साहब के बचपन का नाम #नर_सिंह था।

एक बार जब वे अपने अंगरक्षकों के साथ शिकार खेलने गये थे तो एक शेर ने उन पर हमला कर दिया था।वह आदमखोर शेर था जिसके कारण कई दुर्घटनाएं घट चुकी है।
काफी दाव पेंच खेलने के बाद युवराज ने शेर को मार गिराया।

लेकिन इस खतरनाक प्रयास में इनके एक अंगरक्षक वीर हरचंद गुर्जर शेर से लड़ते हुए अपने प्राण गंवा बैठे।

तब उनकी माता बसन्त कौर ने उनका नाम नर सिंह से नाहर सिंह रख दिया।
इस समय राजा नाहर सिंह जी की आयु मात्र 15 से 16 वर्ष थी।

और उस स्थान पर वीर हरचंद के नाम पर गांव  हरचंदपुर बसा दिया जो आज भी बल्लभगढ से सोहना जाने वाले मार्ग पर पड़ता है।

#राज_तिलक
नाहर सिंह जी की राह आसान नहीं रही जब वे 9 साल के थे तब ही 1829 में उनके पिता राजा रामसिंह की मृत्यु हो गयी थी।
उसके बाद उनकी उम्र कम होने के कारण उनके मामा नवल किशोर जी ने संभाला।
1835 में 15 साल की उम्र में उनकी शादी सिख जाट राजघराने की राजकुमारी रघुबीर कौर से हुई थी।

1836 में नवल किशोर ने उनकी अल्पायु का फायदा उठाकर उनकी मोहर के साथ मनमानी शुरू कर दी।मामा के कुप्रबन्धो से बहुत सा पैसा बर्बाद हो गया था। नाहर सिंह ने पैनी नजर रखनी शुरू कर दी वह बहुत सा काम खुद सम्भालना शुरू कर दिया।
20 जनवरी 1839 को बसन्त पंचमी के दिन 18 वर्ष की आयु में उन्होंने खुद राज्य की बागडोर सम्भाल ली। पण्डित नारायण सिंह और गुरु पण्डित कुलकर्णी ने उनका विधिपूर्वक राज तिलक किया।

#बहादुर_शाह_जफर_पर_राजा_नाहर_सिंह_का_गुस्सा-

उनके खजाने में उनके मुख्य अधिकारियों ने भ्रस्टाचार किया व 11 लाख 25 हजार का गबन कर दिया जिसमे से अकेले हकीम अब्दुल हक ने 10 लाख रुपये हड़प लिए थे।
जब तक नाहर सिंह को यह पता चला तो उससे पहले ही वे अधिकारी दिल्ली भाग गए थे।

राजा नाहर सिंह के खजाने में गड़बड़ करने वालो को मुगल शासक ने शरण दी। और बल्लभगढ दिल्ली के बीच के व्यापार मार्ग को बन्द करवा दिया।

इससे नाहर सिंह बहुत गुस्सा हुए और उन्होंने गढ़ गंगा के मेले के दिन मुगल शासक के खिलाफ विद्रोह करने का निश्चय कर लिया था।
लेकिन उनके राज पुरोहित पण्डित नारायण सिंह व अन्य अधिकारियों ने उन्हें समझाया कि खजाने में पैसा कम है ऊपर से अंग्रेज भी इसी ताक में है तो उन्हें संयम रखना चाहिए।
फिर उन्होंने अपने राज्य की प्रगति पर ध्यान दिया व उसे समृद्ध बनाया।

#क्रांति_की_शुरुआत व जफर का साथ

1856 में देश मे विद्रोह के हालात बनने लगे और उन्होंने भी क्रांति करने का फैसला किया।
उधर अंग्रेजो के खतरे के कारण बहादुर शाह जफर की अखड़ भी ढीली पड़ गयी थी इसलिए उसे नाहर सिंह बहुत प्यारा लगने लगा था।

नाहर सिंह ने भी सोचा कि देश के लिए फिलहाल दुश्मन पालना ठीक नहीं होगा इसलिए उन्होंने बहादुरशाह जफर का बढ़ा हुआ हाथ थाम लिया। एक मुसलमान पर विश्वास करने का उनका यह निर्णय उनके जीवन की गलती सिद्ध हुआ।

#1857_की_क्रांति_को_जगाने_में_नाहर_सिंह_जी_का_योगदान-
नाहर सिंह ने बल्लभगढ के शिव मंदिर में कसम खाई थी कि वे अपनी अंतिम सांस तक अपने देश के दुश्मन अंग्रेजों से लड़ेंगे।नाहर सिंह ने अपनी रियासत के सभी लोगो मे क्रांति की भावना जगा दी।

उन्होंने अपने राज्य के अलीपुर गांव में पंचायत करके अंग्रेजो के बल्लभगढ में बिना इजाजत घुसने पर प्रतिबंध लगवा दिया था।

जब 1857 में क्रांतिकारियों की बैठक हुई थी तो उसमे राजा नाहर सिंह वहां मौजूद थे।

उन्होंने आस पास के राजा व नवाबो को क्रांति से जोड़ा व उन्हें अंग्रेजो के खिलाफ लड़ने के लिए उकसाया।

बहादुर शाह जफर ने उन्हें दिल्ली की सुरक्षा की जिम्मेदारी देकर क्रांति का सिरमौर बनाया था।

#क्रांतिकारियों_की_मदद
उन्होंने अपने राज्य में ऐलान करवा दिया था कि कोई भी अंग्रेज विरोधी सेना या क्रांतिकारी आये तो उनसे किसी भी समान के पैसे न लिए जाए उसका खर्चा वह खुद दे देंगे।

उन्होंने हर तरह की क्रांति सेना को समर्थन व हथियार से सहायता की व भोजन का प्रबंध कराया।
मंगल पांडे के गोली चलाने के बाद तिथि पूर्व ही क्रांति शुरू हो गयी नाहर सिंह का राज्य क्रांतिकारियों व अंग्रेजो से बचने के लिए शरण का गढ़ बन गया था।

#नाहर_सिंह_की_बेटी_की_शादी
नाहर सिंह की बेटी की शादी 17 मई को निश्चित की गई थी।
लेकिन इस स्थिति में या तो शादी हो सकती थी या क्रांति।

इसलिए उन्होंने ऐसे माहौल में इस प्रोग्राम को भव्य न बनाकर उन्होंने राजकुमार की सोने की तलवार मंगवाकर उससे राजकुमारी की शादी की रस्म को पूरा कर दिया।

#मंगल_पांडे_की_बटालियन_के_सैनिको_को_शरण 

मंगल पांडे की बटालियन में ज्यादातर ब्राह्मण थे व कुछ अन्य जातियों के भी थे। उन सबने मंगल पांडे के पकड़े जाने पर विद्रोह स्वरूप अंग्रेजी सेना छोड़ दी जिससे अंग्रेज उन्हें ढूंढ ढूंढ कर मारने लगे।

तो वे सब नाहर सिंह की शरण मे आ गए नाहर सिंह ने उन्हें अलग अलग गांवों में बसाया। हर गांव में 2-2, 4-4 परिवार बसाए ताकि अंग्रेजो का हमला हो तो भी सब एक साथ उनके हाथ न लगे।
उनमे से क्रान्तिमय युवकों ने नाहर सिंह की सेना जॉइन कर ली।

#अंग्रेजों_से_युद्ध_व_दिल्ली_बल्लभगढ_की_सुरक्षा

फिर दिल्ली में क्रांतिकारियों का विद्रोह हुआ जिसम नाहर सिंह अपनी सेना समेत कूद पड़े व अंग्रेजो को काट फेंका।

इसके बाद उन्होंने पलवल व फतेहपुर से भी अंग्रेजो को खदेड़कर वहां अपना अधिकार जमा लिया।
हिंडन के युद्ध मे भी नाहर सिंह ने अपनी सेना भेजी थी।

उन्होंने पलवल फतेहपुर पाली कस्बों में थाने खोल लिए व दिल्ली से मथुरा तक गस्त करने लगे।
इस समय नाहर सिंह ने अंग्रेजो तक आने वाले गोला बारूद व युद्ध सामग्री आदि का मटियामेट करते रहे।

फिर अंग्रेजो ने बल्लभगढ पर आक्रमण कर दिया बल्लभगढ के समीप ही इस युद्ध मे इतने अंग्रेज मारे गये थे कि वहां स्थित एक तालाब का रंग अंग्रेजो के खून से लाल हो गया था। और उसका नाम लाल तालाब पड़ गया था।

फिर दिल्ली में उनकी जरूरत महसूस हुई जफर ने उन्हें प्रार्थना करके बुलाया।इस बीच बल्लभगढ में सैनिको की कमान सेनापति गुलाब सिंह सैनी के हाथ मे रही।उन्होंने भी बड़ी वीरता से बल्लभगढ की अंग्रेजो से रक्षा करी।

उधर राजा नाहर सिंह दिल्ली को सम्भाले गए थे।जो भी अंग्रेज दिल्ली की तरफ बढ़ा उसे नाहर सिंह व उनके सैनिको ने चिर दिया।दिल्ली पुलिस की कमान भी उनके हाथ मे ही थी।

अंग्रेज अधिकारी लॉरेंस ने खुद कहा कि जब तक नाहर सिंह के हाथों में कमान है दिल्ली पर विजय असम्भव है।
अंग्रेजो ने नाहर सिंह को दिल्ली से भटकाने के लिए बहुत चालाकियां खेली उन्होंने बल्लभगढ पर आक्रमण कर दिया लेकिन नाहर सिंह हटे नहीं।उनकी गैर मौजूदगी में भी बल्लभगढ के वीरो ने अंग्रेजो को खदेड़ कर भगा दिया।

दिल्ली 134 दिन तक आजाद रही वह नाहर सिंह के बल पर ही थी।

अंग्रेज अधिकारी ने पत्र लिखा कि बल्लभगढ का नरेश iron gate of delhi बना खड़ा है जब तक चीन से हमे हथियार न मिल जाये तब तक इस लोहे की दीवार को तोड़ना नामुमकिन है।
और यही हुआ अंग्रेजो के पास नये आधुनिक हथियार व भारी गोला बारूद पहुंचा।

#बहादुर_शाह_जफर_की_गिरफ्तारी

हुआ भी यही 13 सितम्बर को उन्होंने दिल्ली पर आक्रमण किया कश्मीरी गेट के पास जबरदस्त युद्ध चला लेकिन नाहर सिंह ने उन्हें घुसने न दिया दूसरी और से भी अंग्रेजो ने आक्रमण किया तो कुछ अंग्रेज सैनिक दिल्ली में आ घुसे।
बहादुर शाह जफर को अपना किला छोड़कर हुमायूं के मकबरे में शरण लेनी पड़ी।
इन परिस्थितियों में नाहर सिंह ने उसे बल्लभगढ चलने को बोला लेकिन बहादुर शाह जफर ने अपने विश्वस्त इलाही बख्श की सलाह पर मना बहादुर शाह जफर कायर था और उसका विश्वस्त इलाहीबख्श अंदर ही अंदर अंग्रेजो से मिला हुआ था।
मौका देखकर अंग्रेज सेनापति हडसन ने चुपके से जफर को गिरफ्तार कर लिए।

लेकिन नाहर सिंह थोड़े समय बाद ही अपनी सेना के साथ वहां पहुंच लिया व हडसन को घेर लिया। हडसन ने खतरा भांपकर बहादुर शाह जफर को मारने की धमकी दी।

जिसके कारण नाहर सिंह को पीछे हटना पड़ा क्योंकि बूढा जफर क्रांति का मुख्य चेहरा बना हुआ था उसके मरते ही क्रांतिकारियों के हौसले पस्त हो जाता।

#बल्लभगढ_में_फिर_से_अंग्रेजों_का_रक्त_संहार

वे वापिस बल्लभगढ चले गए।यहाँ आते ही उन्होंने यहां आस पास स्थित अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर दिया व खून की नालियां बहा दी व अपना किला सुरक्षित किया।

#मुसलमानों_की_धोखेबाजी

दिल्ली को मजबूत करने के बाद अंग्रेजो ने नाहर सिंह से बदला लेनी की सोची लेकिन मुसलमानों से उन्हें पता चला था कि नाहर सिंह को सीधी लड़ाई में जितना बहुत मुश्किल है इसलिए उन्होंने बहादुरशाह जफर के विश्वस्त इलाही बख्श के मिलकर एक चाल चली। इलाही बख्श शांतिदूत बनकर अपने साथ कुछ सैनिक लेकर गया व उन्हें संदेशा दिया कि अंग्रेज बहादुरशाह जफर से सन्धि करना चाहते हैं इसलिए जफर ने कहा है कि इस महत्वपूर्ण मौके पर आपकी जरूरत है ।जफर का विश्वस्त आदमी साथ होने के कारण उन्हें शक नहीं हुआ।
और वे अपने सिर्फ 500 सैनिकों के साथ दिल्ली चल दिये।
जब वे बदरपुर से थोड़ा आगे बढ़े थे तो रास्ते मे झाड़ियों में छिपे अंग्रेज सैनिको ने पीछे से हमला कर दिया।
भयंकर युद्ध मे नाहर सिंह के सभी सैनिक बलिदान हो गए।
सब वीरता से लडते लेकिन पीछे से अचानक हमले के कारण वे तैयार न थे।
उनके साथ सिर्फ भूरा वाल्मीकि,गुलाब सिंह सैनी ही बचे थे।
जिन्हें मुसलमानों के साथ मिलकर अंग्रेजो ने धोखे से बंदी बना लिया।

#नाहर_सिंह_पर_दबाव_और_लालच देने की कोशिश

इसके बाद उन्हें मटियामहल रखा गया फिर मेटकाफ हॉउस ले जाया गया।
जब उन्हें मेटकाफ हॉउस में रखा गया था तब अंग्रेजो उन्हें अपनी तरफ मिलाने का प्रयास किया था।लेकिन स्वाभिमानी राजा ने साफ कहा था  "देश के शत्रुओं के आगे झुकना मैन सीखा नहीं।"
कुछ दिन बाद हडसन ने भी 36 वर्षीय राजा की लुभावनी छवि देखकर दयाभाव से कहा था कि नाहर सिंह जी मैं आपको फांसी से बचा सकता हूँ। थोडा से झुक जाओ।

लेकिन नाहर सिंह दोबारा भी तेजस्वी स्वर में क़हा कि गौरे मेरे देश के शत्रु हैं इसलिए मेरे शत्रु हैं।उनसे क्षमा कदापि नहीं मांग सकता।...एक नाहर सिंह के बलिदान से लाख नाहर सिंह कल फिर पैदा होंगे।

अंग्रेजो ने महाराजा फरीदकोट जो नाहर सिंह के सम्बधी थे व अंग्रेजो की तरफ से उनसे भी दबाव बनवाया लेकिन लाख प्रयत्न के बाद भी नाहर सिंह टस से मस न हुये।

#फांसी

फिर उन पर मुकदमा चला व उन्हें 2 जनवरी 1858 को फांसी की सजा सुनाई गई।

उसके बाद 9 जनवरी को दिल्ली के चांदनी चौक पर उन्हें फांसी दी गयी थी। व अपने प्रिय राजा को सुनने के लिये जनता सामने खड़ी थी।
उस समय तक नाहर सिंह का कोई पुत्र नहीं था। उनकी पत्नी गर्भवती थी।जिसने बाद में एक पुत्र को जन्म दिया था।

फांसी के समय लोग एक ही नारा लगा रहे थे-
"मथुरा से दिल्ली तक नाहर सारे तेरे लाल
चढजा फांसी पर सब भली करेंगे भगवान"

नाहर सिंह से गौरों ने अंतिम इच्छा पूछी तो उन्होंने कहा कि मैं गौरों से कुछ मांगकर अपना स्वाभिमान नहीं गिराउंगा मैं तो बस जनता से कुछ कहना चाहता हूं फिर उन्होंने जनता को कुछ सन्देश देने को कहा। दुभाषिये के ट्रांसलेट करते ही गौरों ने असमर्थता जताई। तो नाहर सिंह ने खुद ही ऊँचे स्वर में कहा "कि मेरे देशवासियों जो लौ जलाई है उसे मत बुझने देना,लाख नाहर सिंह कल फिर पैदा हो जाएंगे"

इसके बाद हर तरफ से जय नाहर सिंह जय राजा नाहर सिंह की आवाज आने लगी।
फिर उन्होंने खुशी खुशी फांसी के फंदे को चूम लिया।

उनके साथ उनके सेनापति चौधरी मोहन सिंह व उनके वीर सैनिक गुलाब सैनी भूरा वाल्मीकि व खुशाल सिंह को भी फांसी दी गयी।
इस तरह हंसते हंसते देश की खातिर एक राजा व उनके वीर सैनिको ने अपना राज प्राण सब कुछ न्यौछावर कर दिया।