Sunday, October 30, 2022

कौन है?

अहमदाबाद :- कौन है अहमद ?
 मुरादाबाद :- मुराद कौन है ?
 औरंगाबाद :- औरंगजेब कौन है ?
 फैजाबाद :- कौन है फैज ?
 फारूकाबाद :- कौन है फारूक ?
 आदिलाबाद :- कौन है आदिल ?
 साहिबद :- कौन है साहब ?
 हैदराबाद :- हैदर कौन है ?
 सिकंदराबाद :- सिकंदर कौन है ?
 फिरोजाबाद :- फिरोज कौन है ?
 मुस्तफाबाद :- कौन है मुस्तफा ?
 अहमदनगर :- अहमद कौन है ?
 तुगलकाबाद :- तुगलक कौन है ?
 फतेहाबाद :- कौन है फतेह ?
 उस्मानाबाद :- कौन है उस्मान ?
 बख्तियारपुर :- बख्तियार कौन है ?
 महमूदाबाद :- महमूद कौन है ?
 मुजफ्फरपुर और मुजफ्फर नगर :- कौन है मुजफ्फर ?
 बुरहानपुर :- बुरहानि कौन है ?

कौन हैं ये सब?  ये वे लोग हैं जिन्होंने आपकी संस्कृति को नष्ट कर दिया, आपके मंदिरों को नष्ट कर दिया, आपकी मूर्तियों को भ्रष्ट कर दिया और हिंदुओं को इस्लाम में परिवर्तित कर दिया।  यह भारत के इतिहास में उनका योगदान है।  इसके बावजूद हम शहरों का नामकरण उन्हीं के नाम पर क्यों करते हैं?
  इन शहरों के नाम बदलने चाहिए।  
 
 इसे दूर-दूर तक फैलाएं!

Saturday, October 29, 2022

बख्त्यारपुर की ट्रेन।

कुछ साल पहले बिहार गया.
अचानक इच्छा हुई कि समय है तो क्यों ना
नालन्दा विश्वविद्यालय के जले हुए अवशेषों को देखा जाए.
पटना में नालन्दा का रास्ता पता किया.
पता चला कि नालन्दा जाने के लिए
पटना से बख्त्यारपुर की ट्रेन पकडनी पड़ेगी.
आश्चर्य हुआ कि जिस बख्त्यार खिलजी ने
2000 बौद्ध भिक्षु अध्यापकों
व 10000 विद्यार्थियों को
गाजर मूली की तरह काट दिया.
विश्व प्रसिद्ध पुस्तकालय को जला कर राख कर दिया
उसके हत्यारे के नाम पर रेलवे स्टेशन ?
इंडिया बनाम भारतवर्ष
- डॉ. शंकर शरण
अंग्रेजी कहावत है, नाम में क्या रखा है! लेकिन दक्षिण अफ्रीका में यह कहने पर लोग आपकी ओर अजीब निगाहों से देखेंगे कि कैसा अहमक है! पिछले कुछ महीनों से वहां के कुछ बड़े शहरों, प्रांतों के नाम बदलने को लेकर देशव्यापी विवाद चल रहा है। प्रीटोरिया, पॉटचेफ्स्ट्रोम, पीटर्सबर्ग, पीट रेटिफ आदि शहरों, प्रांतों के नाम बदलने का प्रस्ताव है। तर्क है कि जो नाम लोगों को चोट पहुंचाते हैं, उन्हें बदला ही जाना चाहिए।
यह विषय वहां इतना गंभीर है कि साउथ अफ्रीका ज्योग्राफीकल नेम काउंसिल (एस.ए.जी.एन.सी.) नामक एक सरकारी आयोग इस पर सार्वजनिक सुनवाई कर रहा है। प्रीटोरिया का नाम बदलने की घोषणा हो चुकी थी। किसी कारण उसे अभी स्थगित कर दिया गया है। प्रीटोरिया पहले त्सवाने कहलाता था जिसे गोरे अफ्रीकियों ने बदल कर प्रीटोरिया किया था। त्सवाने वहां के किसी पुराने प्रतिष्ठित राजा के नाम से बना था जिसके वंशज अभी तक वहां हैं।
इस प्रकार नामों को बदलने का अभियान और विवाद वहां लंबे समय से चल रहा है। पिछले दस वर्ष में वहां 916 स्थानों के नाम बदले जा चुके हैं। इनमें केवल शहर नहीं; नदियों, पहाड़ों, बांधों और हवाई अड्डों तक के नाम हैं। सैकड़ों सड़कों के बदले गए नाम अतिरिक्त हैं। वहां की एफपीपी पार्टी के नेता पीटर मुलडर ने संसद में कहा कि ऐतिहासिक स्थलों के नाम बदलने के सवाल पर अगले बीस वर्ष तक वहां झगड़ा चलता रहेगा। उनकी पार्टी और कुछ अन्य संगठन प्रीटोरिया नाम बनाए रखना चाहते हैं।
इसलिए नाम में बहुत कुछ है। यह केवल दक्षिण अफ्रीका की बात नहीं। पूरी दुनिया में स्थानों के नाम रखना या पूर्ववत करना सदैव गंभीर राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्त्व रखता है। जैसे किसी को जबरन महान बनाने या अपदस्थ करने की चाह। इन सबका महत्त्व है जिसे हल्के से नहीं लेना चाहिए। इसीलिए कम्युनिज्म के पतन के बाद रूस, यूक्रेन, मध्य एशिया और पूरे पूर्वी यूरोप में असंख्य शहरों, भवनों, सड़कों के नाम बदले गए। रूस में लेनिनग्राद को पुन: सेंट पीटर्सबर्ग, स्तालिनग्राद को वोल्गोग्राद आदि किया गया। कई बार यह सब भारी आवेग और भावनात्मक ज्वार के साथ हुआ। हमारे पड़ोस में भी सीलोन ने अपना नाम श्रीलंका और बर्मा ने म्यांमा कर लिया। खुद ग्रेट ब्रिटेन ने अपनी आधिकारिक संज्ञा बदल कर यूनाइटेड किंगडम की। इन सबके पीछे गहरी सांस्कृतिक, राजनीतिक भावनाएं होती हैं।
हमारे देश में भी शब्द और नाम गंभीर माने रखते हैं। अंग्रेजों ने यहां अपने शासकों, जनरलों के नाम पर असंख्य स्थानों के नाम रखे, कवियों-कलाकारों के नाम पर नहीं। फिर, जब 1940 में मुसलिम लीग ने मुसलमानों के अलग देश की मांग की और आखिरकार उसे लिया तो उसका नाम पाकिस्तान रखा। जैसा जर्मनी, कोरिया आदि के विभाजनों में हुआ था- पूर्वी जर्मनी, पश्चिमी जर्मनी और उत्तरी कोरिया, दक्षिणी कोरिया- वे भी नए देश का नाम ‘पश्चिमी भारत’ या ‘पश्चिमी हिंदुस्तान’ रख सकते थे। पर उन्होंने अलग मजहबी नाम रखा। इसके पीछे एक पहचान छोड़ने और दूसरी अपनाने की चाहत थी। यहां तक कि अपने को मुगलों का उत्तराधिकारी मानते हुए भी मुसलिम नेताओं ने मुगलिया शब्द ‘हिंदुस्तान’ भी नहीं अपनाया। क्यों?
इसलिए कि शब्द कोई उपयोगिता के निर्जीव उपकरण नहीं होते। वे किसी भाषा और संस्कृति की थाती होते हैं। कई शब्द तो अपने आप में संग्रहालय होते हैं, जिनमें किसी समाज की सहस्रों वर्ष पुरानी परंपरा, स्मृति, रीति और ज्ञान संघनित रहता है। इसीलिए जब कोई किसी भाषा या शब्द को छोड़ता है तो जाने-अनजाने उसके पीछे की पूरी अच्छी या बुरी परंपरा भी छोड़ता है। इसीलिए श्रीलंका ने ‘सीलोन’ को त्याग कर औपनिवेशिक दासता के अवशेष से मुक्ति पाने का प्रयास किया। हमने वह आज तक नहीं किया है।
सन 1947 में हमसे जो सबसे बड़ी भूलें हुईं उनमें से एक यह थी कि स्वतंत्र होने के बाद भी देश का नाम ‘इंडिया’ रहने दिया। लब्ध-प्रतिष्ठित विद्वान संपादक गिरिलाल जैन ने लिखा था कि स्वतंत्र भारत में इंडिया नामक इस ‘एक शब्द ने भारी तबाही की’। यह बात उन्होंने इस्लामी समस्या के संदर्भ में लिखी थी। अगर देश का नाम भारत होता, तो भारतीयता से जुड़ने के लिए यहां किसी से अनुरोध नहीं करना पड़ता! गिरिलाल जी के अनुसार, इंडिया ने पहले इंडियन और हिंदू को अलग कर दिया। उससे भी बुरा यह कि उसने ‘इंडियन’ को हिंदू से बड़ा बना दिया। अगर यह न हुआ होता तो आज सेक्युलरिज्म, डाइवर्सिटी, ह्यूमन राइट्स और मल्टी-कल्टी का शब्द-जाल और फंदा रचने वालों का काम इतना सरल न रहा होता। अगर देश का नाम भारत या हिंदुस्तान भी रहता तो इस देश के मुसलमान स्वयं को भारतीय मुसलमान कहते। इन्हें अरब में अब भी ‘हिंदवी’ या ‘हिंदू मुसलमान’ ही कहा जाता है। सदियों से विदेशी लोग भारतवासियों को ‘हिंदू’ ही कहते रहे और आज भी कहते हैं।
विदेशियों द्वारा जबरन दिए गए नामों को त्यागना अच्छा ही नहीं, आवश्यक भी है। इसमें अपनी पहचान के महत्त्व और उसमें गौरव की भावना है। इसीलिए अब तक जब भी भारत में औपनिवेशिक नामों को बदल स्वदेशी नाम अपनाए गए, हमारे देश के अंग्रेजी-प्रेमी और पश्चिमोन्मुखी वर्ग ने विरोध नहीं किया है। पर यह उन्हें पसंद भी नहीं आया। क्योंकि वे जानते हैं कि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। ऐसे में एक दिन अंग्रेजी को भी राज-सिंहासन से उतरना पड़ेगा। इसीलिए, जब देश का नाम पुनर्स्थापित करने की बात उठेगी, वे विरोध करेंगे। चाहे इंडिया को बदलकर भारतवर्ष करने में किसी भाषा, क्षेत्र, जाति या संप्रदाय को आपत्ति न हो। वैसे भी भारतवर्ष ऐसा शब्द है जो भारत की सभी भाषाओं में प्रयुक्त होता रहा है। बल्कि जिस कारण मद्रास, बोम्बे, कैलकटा, त्रिवेंद्रम आदि को बदला गया, वह कारण देश का नाम बदलने के लिए और भी उपयुक्त है। इंडिया शब्द भारत पर ब्रिटिश शासन का सीधा ध्यान दिलाता है। आधिकारिक नाम में इंडिया का पहला प्रयोग ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ में किया गया था जिसने हमें गुलाम बना कर दुर्गति की। पर जब वह इस देश में व्यापार करने आई थी तो यह देश स्वयं को भारतवर्ष या हिंदुस्तान कहता था। क्या हम अपना नाम भी अपना नहीं रखा सकते?
अगर देश का नाम पुन: भारतवर्ष कर लिया जाए तो यह हम सब को स्वत: इस भूमि की गौरवशाली सभ्यता, संस्कृति से जोड़ता रहेगा जो पूरे विश्व में अनूठी है। अन्यथा आज हमें अपनी ही थाती के बचाव के लिए उन मूढ़ रेडिकलों,वामपंथियों, मिशनरी एजेंटों, ग्लोबल सिटिजनों से बहस करनी पड़ती है जो हर विदेशी नारे को हम पर थोपने और हमें किसी न किसी बाहरी सूत्रधार का अनुचर बनाने के लिए लगे रहते हैं।
इसीलिए जब देश का नाम भारतवर्ष या हिंदुस्तान करने का प्रयास होगा- इसका सबसे कड़ा विरोध यही सेक्युलर-वामपंथी बौद्धिक करेंगे। उन्हें ‘भारतीयता’ और ‘हिंदू’ शब्द और इनके भाव से घोर शत्रुता है। यही उनकी मूल सैद्धांतिक टेक है। इसीलिए चाहे वे कैलकटा, बांबे आदि पर विरोध न कर सकें, पर इंडिया को बदलने के प्रस्ताव पर वे चुप नहीं बैठेंगे। यह इसका एक और प्रमाण होगा कि नामों के पीछे कितनी बड़ी सांस्कृतिक, राजनीतिक मनोभावनाएं रहती हैं। वस्तुत: समस्या यही है कि जिस प्रकार कोलकाता, चेन्नई और मुंबई के लिए स्थानीय जनता की सशक्त भावना थी, उस प्रकार भारतवर्ष के लिए नहीं दिखती। इसलिए नहीं कि इसकी चाह रखने वाले देश में कम हैं। बल्कि ठीक इसीलिए कि भारतवर्ष की भावना कोई स्थानीयता की नहीं, राष्ट्रीयता की भावना है। लिहाजा, देशभक्ति और राष्ट्रवाद से किसी न किसी कारण दूर रहने वाले, या किसी न किसी प्रकार के ‘अंतरराष्ट्रीयतावाद’ से अधिक जुड़ाव रखने वाले उग्र होकर इसका विरोध करेंगे। यानी चूंकि इंडिया शब्द को बदल कर भारतवर्ष करना राष्ट्रीय प्रश्न है, इसीलिए राष्ट्रीय भाव को कमतर मानने वाली विचारधाराएं, हर तरह के गुट और गिरोह एकजुट होकर इसका प्रतिकार करेंगे। वे हर तरह की ‘अल्पसंख्यक’ भावना उभारेंगे और आधुनिकता के तर्क लाएंगे।
वैसे भी, उत्तर भारत की सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना और स्वाभिमान मंद है। यहां वैचारिक दासता, आपसी कलह, विश्वास, भेद और क्षुद्र स्वार्थ अधिक है। इन्हीं पर विदेशी, हानिकारक विचारों का भी अधिक प्रभाव है। वे बाहरी हमलावरों, पराए आक्रामक विचारों आदि के सामने झुक जाने, उनके दीन अनुकरण को ही ‘समन्वय’, ‘संगम’, ‘अनेकता में एकता’ आदि बताते रहे हैं। यह दासता भरी आत्मप्रवंचना है।
डॉ राममनोहर लोहिया ने आजीवन इसी आत्मप्रवंचना की सर्वाधिक आलोचना की थी जो विदेशियों से हार जाने के बाद ‘आत्मसमर्पण को सामंजस्य’ बताती रही है। अत: इस कथित हिंदी क्षेत्र से किसी पहलकदमी की आशा नहीं। इनमें अपने वास्तविक अवलंब को पहचानने और टिकने के बदले हर तरह के विदेशी विचारों, नकलों, दुराशाओं, शत्रु शक्तियों की सदाशयता पर आस लगाने की प्रवृत्ति है। इसीलिए उनमें भारतवर्ष नाम की पुनर्स्थापना की कोई ललक या चाह भी आज तक नहीं जगी है। अच्छा हो कि देश का नाम पुनर्स्थापित करने का अभियान किसी तमिल, मराठी या कन्नड़ हस्ती की ओर से आरंभ हो। यहां काम दक्षिण अफ्रीका की तुलना में आसान है, पर हमारा आत्मबल क्षीण है।

टेफलोन कोटिंग या काला जहर ???

 कोटिंग वाले बर्तनों का इतना प्रचार या दुष्प्रचार हुआ कि आजकल हर घर में ये काली कोटिंग वाले बर्तन होना शान की बात समझी जाती है।
न जाने कितने ही ये टेफलोन कोटिंग वाले बर्तन हमारे घर में आ गये हैं, जैसे कि नॉन स्टिक तपेली (पतीली), तवा, फ्राई पेन आदि....अब इजी टू कुक, इजी टू क्लीन वाली छवि वाले ये बर्तन हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गए है। 
मुझे आज भी दादी नानी वाला ज़माना याद आ जाता है, जब चमकते हुए बर्तन किसी भी घर के स्टेंडर्ड की निशानी माने जाते थे, लेकिन आजकल उनकी जगह इन काले बर्तनों ने ले ली है।
हम सब इन बर्तनों को अपने घर में बहुतायत से उपयोग में ले रहे हैं और शायद कोई बहुत बेहतर विकल्प नहीं मिल जाने तक आगे भी उपयोग करते रहेंगे।
किन्तु इनका उपयोग करते समय हम ये बात भूल जाते हैं कि ये काले बर्तन हमारे शरीर को भी काला करके नुकसान पहुंचा रहे हैं।
हम में से कई लोग यह बात जानते भी नहीं हैं कि वास्तव में ये बर्तन हमारी बीमारियाँ बढ़ा रहे हैं और इनका प्रयोग करके हम हमारे अपनों को ही तकलीफ दे रहे हैं।
टेफलोन को 20 वी शताब्दी की सबसे बेहतरीन केमिकल खोज में से एक माना गया है, जिसका प्रयोग इंजीनियरिंग के क्षेत्र जैसे कि स्पेस सुइट और पाइप में उर्जा रोधी के रूप में किया जा रहा है, किन्तु यह भी एक बड़ा सच है की ये टेफलोन कोटिंग का काला जहर स्वास्थ्य के लिए बना ही नहीं है और अत्यंत खतरनाक है।
इसके प्रयोग से श्वास की बीमारी, कैंसर, ह्रदय रोग आदि कई गंभीर बिमारियां भी होती देखी जा रही हैं।
यह भी सच है की जब टेफलोन कोटेड बर्तन को अधिक गर्म किया जाता है, तो आसपास के क्षेत्र में रह रहे पालतू पक्षियों की जान जाने का खतरा तुरंत ही काफी बढ़ जाता है। 
एक न्यूज के अनुसार कुछ समय पहले एक घर के आसपास के 14 पालतू पक्षी तब मारे गए, जब टेफलोन के बर्तन को पहले से गरम किया गया और तेज आंच पर खाना बनाया गया ये पूरी घटना होने में सिर्फ 15 मिनिट लगे....टेफलोन कोटेड बर्तनों में सिर्फ 5 मिनिट में 700 डिग्री टेम्प्रेचर तक गर्म हो जाने की प्रवृति होती है और इसी दौरान 6 तरह की खतरनाक गैस वातावरण में फैल जाती हैं इनमे से 2 गैस ऐसी होती हैं जो केंसर को भी जन्म देती हैं।
 अध्ययन बताते हैं कि टेफलोन को अधिक गर्म करने से पक्षियों के लिए हानिकारक टेफलोन टोक्सिकोसिस बनती है और इंसानों के लिए खतरनाक पोलिमर फ्यूम फीवर की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है टेफलोन कोटिंग से उत्पन्न होने वाले केमिकल के शरीर में जाने से होने वाली बीमारियाँ इस तरह की होती हैं....
1- पुरुष इनफर्टिलिटी - हाल ही में हुए एक सर्वे में ये बात सामने आई है कि लम्बे समय तक टेफलोन केमिकल के शरीर में जाने से पुरुष इनफर्टिलिटी का खतरा बढ़ जाता है और इससे सम्बंधित कई बीमारियाँ पुरुषों में देखी जा सकती हैं।
थायराइड - हाल ही में एक अमेरिकन एजेंसी द्वारा किया गए अध्ययन में यह बात सामने आई है कि टेफलोन की मात्र लगातार शरीर में जाने से थायराइड ग्रंथि सम्बन्धी समस्याएं हो सकती है।
2- बच्चे को जन्म देने में समस्या - केलिफोर्निया में हुई एक स्टडी में ये पाया गया है कि जिन महिलाओं के शरीर में जल, भोजन या हवा के माध्यम से पी ऍफ़ ओ (टेफलोन) की मात्रा सामान्य से अधिक पाई गई थी, उन्हें बच्चो को जन्म देते समय अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ा. इसी के साथ उनमे बच्चो को जन्म देने की क्षमता भी अपेक्षाकृत कम हो गई, जिससे सीजेरियन ऑपरेशन करना पड़ा।
3- शारीरिक समस्याएं व अन्य बीमारियाँ - पी ऍफ़ ओ की अधिक मात्रा शरीर में पाई जाने वाली महिलाओं के बच्चो पर भी इसका असर जन्मजात शारीरिक विकार या समस्याओं के रूप में देखा गया है ।
4- लीवर केंसर का बढ़ा खतरा - एक अध्ययन में यह भी सामने आया है कि पी ऍफ़ ओ की अधिक मात्रा होने पर लीवर केंसर का खतरा बढ़ जाता है ।
5- केंसर या ब्रेन ट्यूमर का खतरा - एक प्रयोग के दौरान जब चूहों को पी ऍफ़ ओ के इंजेक्शन लगाए गए तो उनमे ब्रेन ट्यूमर विकसित हो गया. साथ ही केंसर के लक्षण भी दिखाई देने लगे। 
6- जहरीला पी ऍफ़ ओ 4 साल तक शरीर में बना रहता है - पी ऍफ़ ओ जब एक बार शरीर के अन्दर चला जाता है तो लगभग 4 साल तक शरीर में बना रहता है जो एक बड़ा खतरा हो जाता है।

■ टेफलोन के दुष्प्रभाव से बचने के उपाय...
1- टेफलोन कोटिंग वाले बर्तनों को कभी भी गैस पर बिना कोई सामान डाले अकेले गर्म करने के लिए न छोड़े।
2- इन बर्तनों को कभी भी 450 डिग्री से अधिक टेम्प्रेचर पर गर्म न करे सामान्यतया इन्हें 350 से 450 डिग्री तक गर्म करना बेहतर होता है।
3- लेकिन हमारे देश में महिलाओं को पता ही नहीं रहता है कि गेस के बर्नर पर रखे बर्तन का टेम्प्रेचर कितना हुआ है, तो वे कंट्रोल कैसे करेंगी???
4-  टेफलोन कोटिंग वाले बर्तनों में पक रहा खाना बनाने के लिए कभी भी मेटल की चम्मचो का इस्तेमाल ना करे इनसे कोटिंग हटने का खतरा बढ़ जाता है।
5- टेफलोन कोटिंग वाले बर्तनों को कभी भी लोहे के औजार या कूंचे ब्रश से साफ़ ना करे, हाथ या स्पंज से ही इन्हें साफ़ करे।
6- इन बर्तनों को कभी भी एक दूसरे के ऊपर जमाकर ना रखे।
7- घर में अगर पालतू पक्षी हैं, तो इन्हें अपने किचन से दूर रखें।
8- अगर गलती से घर में ऐसा कोई बर्तन ज्यादा टेम्प्रेचर पर गर्म हो गया है, तो कुछ देर के लिए घर से बाहर चले जाए और सारे खिड़की दरवाजे खोल दे।
9-  ये गलती बार-बार ना दोहराएं, क्यूंकि चारो ओर के वातावरण के लिए भी ये गैस हानिकारक होती हैं और लाखों सूक्ष्म जीवों को भी मार देती हैं।
10- टूटे या जगह-जगह से घिसे हुए टेफलोन कोटिंग वाले बर्तनों का उपयोग बंद कर दे. क्यूंकि ये धीरे धीरे आपके भोजन में ज़हर घोल सकते हैं।
11- अगर आपके बर्तन नहीं भी घिसे हैं, तो भी इन्हें हर दो साल में अवश्य ही बदल दें।
12- जहाँ तक हो सके इन बर्तनों कम ही प्रयोग करिए।
13- इन छोटी छोटी बातों का ध्यान रखकर आप अपने और अपने परिवार के स्वास्थ को बेहतर बना सकते हैं...टेफलोन कोटिंग के काले जहर से अपने परिवार को बचाएं।

Monday, October 24, 2022

काला पहाड़।

भारतीय इतिहास की भयंकर भूले #काला_पहाड़
#बांग्लादेश यह नाम स्मरण होते ही भारत के पूर्व में एक बड़े भूखंड का नाम स्मरण हो उठता है। 
जो कभी हमारे देश का ही भाग था।
 जहाँ कभी बंकिम के ओजस्वी आनंद मठ, कभी टैगोर की हृद्यम्य कवितायेँ, कभी अरविन्द का दर्शन, कभी वीर सुभाष की क्रांति ज्वलित होती थी। 

आज बंगाल प्रदेश एक मुस्लिम राष्ट्र के नाम से प्रसिद्द है। जहाँ हिन्दुओं की दशा दूसरे दर्जें के नागरिकों के समान हैं। 
क्या बंगाल के हालात पूर्व से ऐसे थे? बिलकुल नहीं। अखंड भारतवर्ष की इस धरती पर पहले हिन्दू सभ्यता विराजमान थी।
कुछ ऐतिहासिक भूलों ने इस प्रदेश को हमसे सदा के लिए दूर कर दिया। एक ऐसी ही भूल का नाम कालापहाड़ है।
 बंगाल के इतिहास में काला पहाड़ का नाम एक अत्याचारी के नाम से स्मरण किया जाता है। काला पहाड़ का असली नाम कालाचंद राय था। कालाचंद राय एक बंगाली ब्राहण युवक था।

पूर्वी बंगाल के उस वक्‍त के मुस्लिम शासक की बेटी को उससे प्‍यार हो गया। बादशाह की बेटी ने उससे शादी की इच्‍छा जाहिर की। 
वह उससे इस कदर प्‍यार करती थी। वह उसने इस्‍लाम छोड़कर हिंदू विधि से उससे शादी करने के लिए तैयार हो गई। 
ब्राहमणों को जब पता चला कि कालाचंद राय एक मुस्लिम राजकुमारी से शादी कर उसे हिंदू बनाना चाहता है तो ब्राहमण समाज ने कालाचंद का विरोध किया। 

उन्होंने उस मुस्लिम युवती के हिंदू धर्म में आने का न केवल विरोध किया, बल्कि कालाचंद राय को भी जाति बहिष्‍कार की धमकी दी। कालाचंद राय को अपमानित किया गया। अपने अपमान से क्षुब्ध होकर कालाचंद गुस्‍से से आग बबुला हो गया और उसने इस्‍लाम स्‍वीकारते हुए उस युवती से निकाह कर उसके पिता के सिंहासन का उत्‍तराधिकारी हो गया। अपने अपमान का बदला लेते हुए राजा बनने से पूर्व ही उसने तलवार के बल पर ब्राहमणाों को मुसलमान बनाना शुरू किया।

 उसका एक ही नारा था मुसलमान बनो या मरो। पूरे पूर्वी बंगाल में उसने इतना कत्‍लेआम मचाया कि लोग तलवार के डर से मुसलमान होते चले गए। इतिहास में इसका जिक्र है कि पूरे पूर्वी बंगाल को इस अकेले व्‍यक्ति ने तलवार के बल पर इस्‍लाम में धर्मांतरित कर दिया। यह केवल उन मूर्ख, जातिवादी, अहंकारी व हठधर्मी ब्राहमणों को सबक सिखाने के उददेश्‍य से किया गया था। उसकी निर्दयता के कारण इतिहास उसे काला पहाड़ के नाम से जानती है। अगर अपनी संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर कुछ हठधर्मी ब्राह्मणों ने कालाचंद राय का अपमान न किया होता तो आज बंगाल का इतिहास कुछ ओर ही होता।।

Thursday, October 13, 2022

S क्लास.

जर्मनी की मर्सिडीज़-बेंज की "S क्लास" कार इस ब्रैंड की सबसे बड़ी एवं विलासितापूर्ण वाहन है। 

कई दशकों से मर्सिडीज़ इस कार का निर्माण कर रही है।  

पिछले वर्ष मर्सिडीज़ ने इस कार का एकदम नया मॉडल मार्केट में उतारा।  

एकदम नया से तात्पर्य यह है कि S क्लास कार की पुनः डिज़ाइन की गयी। नए ढाँचे (chassis) पर कार का निर्माण किया गया और कई प्रकार की नयी सुविधाओं, सुरक्षा साधन एवं विलासिता से कार को सुसज्जित किया गया। 

और इस कार के उत्पादन के लिए जर्मनी में एक नए कारखाने का निर्माण किया गया।  

मर्सिडीज़ ने निर्णय लिया कि कार की गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए पूरे विश्व में बिकने वाली नयी S क्लास का उत्पादन केवल जर्मनी के प्लांट में किया जाएगा। जबकि मर्सिडीज़ की अन्य कारो का निर्माण कई देशो में होता है। 

अमेरिका में इस कार को 17 जुलाई 2021 में लांच किया गया जिसका पहला बैच सीधे जर्मनी से आया था। जुलाई में ही नयी S क्लास की अधिक शक्तिशाली एवं विलासितापूर्ण कार (S-580) मेरे पास थी। 

कुछ ही दिन बाद मर्सिडीज़ से पत्र आया कि कार में कुछ कमी या समस्या पायी गयी है; अतः कार को recall किया गया है और मुझसे उस कार को सर्विस सेंटर में लाने का आग्रह किया गया जिससे उस समस्या को ठीक किया जा सके। 

तब से लेकर लगभग एक वर्ष तक, कुछ माह के अंतराल पर recall के पत्र आते रहे जिसे फिक्स कराने के लिए कार को सर्विस सेंटर ले जाना पढ़ा। 

उदाहरण के लिए, कुछ कार ड्राइव करते समय एकाएक बंद हो जाती थी या फिर कार की कंप्यूटर स्क्रीन ब्लैंक हो जाती थी।  

यद्यपि मेरी कार में ऐसी कोई समस्या नहीं थी, तब भी कार को सर्विस सेंटर ले जाकर उस recall को फिक्स कराया गया। 

यह भी उस कार में जो विश्व की एक श्रेष्ठतम कार कंपनी - मर्सिडीज़ - की है और वह भी जर्मनी के प्लांट में जर्मन इंजीनियर एवं लेबर द्वारा बनाई गयी हो। 

लगभग आधे दर्जन recall के बाद भी इस कार पर मेरा विश्वास अडिग है। 

भारत के संदर्भ में देखा जाए तो वंदे भारत को लेकर यही स्थिति है। पहली बार एक नयी ट्रेन भारत में बनी है। भारत में ही इस ट्रेन का ढांचा, फ्रेमवर्क एवं डिज़ाइन बनाया गया है। प्रत्येक कार्य भारतीय इंजीनियर एवं लेबर ने किया है।
 
दो बार जानवर टकराने से इस ट्रेन के प्लास्टिक या फाइबर के ढांचे में थोड़ा सा नुकसान हुआ है जिसे बदल दिया गया है। एक बार ब्रेक जाम हो गया। अर्थात, निर्माण एवं डिज़ाइन में कुछ समस्या केवल एक बार ही सामने आयी है। 

लेकिन देश-तोड़क शक्तियां इस एक्सीडेंट एवं ब्रेक जाम होने का उपहास उड़ा रही है। 

चाहे शाहीन बाग या फर्जी किसान आंदोलन का षणयंत्र हो; या फिर चंद्रयान की अंतिम क्षणों की विफलता; या फिर सर्जिकल स्ट्राइक की सफलता; या फिर डिजिटल भुगतान को लांच करना; या फिर भारतीय उद्यमियों की सफलता; हर पड़ाव पर यह लोग राष्ट्र के विरोध में खड़े है। 

इस शक्तियों का विश्वास भारत पर है ही नहीं। 

भारत की कोई भी उपलब्धि हो, यह शक्तियां चाहती है भारत फेल हो जाए, राष्ट्र की इमेज गिर जाए। 

क्योकि भारत के फेल होने पर ही वे लोग अनुचित रूप से अरबो-खरबो रुपये कमा सकते है, राष्ट्र की सत्ता हथिया सकते है।

भूमि आंवला एक आयुर्वेदिक दवाई.

लिवर-किडनी से लेकर सर्दी-खांसी तक को खत्म कर देता है यह एक छोटा सा पौधा,बारिश में इधर-उधर अपने आप उग जाता है,इसे कहा जाता है आयुर्वेदिक दवाई।
 भूमि आंवला एक आयुर्वेदिक दवाई है। इसके फल बिल्कुल आंवले जैसे दिखते हैं और यह बहुत छोटा पौधा होता है इसलिए इसे भुई आंवला या भूमि आंवला कहते हैं। यह बरसात में अपने आप उग जाता है और छायादार नमी वाले स्थानों पर पूरे साल मिलता है। इसे उखाड़ कर व छाया में सुखा यूज किया जाता है। ये जड़ी- बूटी की दुकान पर भी आसानी से मिल जाता है।
कैसे प्रयोग करें-
> इसके चूर्ण को आधा चम्मच पानी के साथ दिन में 2-3 बार
> पौधे का ताजा रस 10 से 20ML 2 से 3 बार
> ताजा पौधे को उखाड़ कर और साफ धोकर भी खाया जा सकता है।
फायदे- लीवर बढ़ गया है या उसमे सूजन है तो यह उसके लिए बहुत असरदार दवाई है।
- पीलिया में इसकी पत्तियों के पेस्ट को छाछ के साथ मिलाकर दिया जाता है इससे पीलिया बहुत जल्दी ठीक हो जाता है।
- किडनी के इन्फेक्शन और किडनी फेलियर में यह बहुत लाभदायक है। यह किडनी के सिस्टम को ठीक करती है। यह डाइयूरेटिक है जिससे यूरिन ज्यादा बनती है जिससे बॉडी की सफाई होती है।
- एन्टीवायरल गुण होने के कारण यह हेपेटाइटिस B और C के लिए रामबाण दवाई है।
- मुंह में छाले होने पर इसके पत्तों का रस चबाकर निगल लें या थूक दें। मुंह के छाले ठीक हो जाएंगे।
- ब्रेस्ट में सूजन या गांठ हो तो इसके पत्तों का पेस्ट लगा लेने से आराम होगा।
- सर्दी- खांसी में इसके साथ तुलसी के पत्ते मिलाकर काढ़ा बनाकर पीने से आराम मिलता है।
- डायबिटीज में घाव न भरते हों तो इसका पेस्ट पीसकर लगा दें और इसे काली मिर्च के साथ लिया जाए तो शुगर कंट्रोल हो जाती है।

Friday, October 7, 2022

श्रीमान कृष्णमूर्ति अय्यर.

इस फोटो में जो सज्जन हैं 
उनका नाम श्रीमान कृष्णमूर्ति अय्यर है -जोकि किट्टू मामा के नाम से प्रसिद्ध हैं। अयंगर ब्राह्मण हैं। 

किट्टू मामा एक 68 वर्षीय वरिष्ठ नागरिक हैं 
और थेपीकुलम के पास त्रिची में दोसा और इडली बेचते हैं,
जो चतिराम बस स्टैंड के निकट है।

वह शाम 6 बजे के बाद अपनी दुकान खोलते हैं 
और स्वादिष्ट इडली-दोसा स्वादिष्ट चटनी के साथ बहुत सस्ती कीमतों पर बेचते हैं।
जोकि सड़क पर 1 ठेले में संचालित करते हैं।
इस काम में उनकी पत्नी और एक युवा कर्मी सहायता करते हैं।

उनके ज्यादातर ग्राहक मजदूर हैं,
महिला हॉस्टल में रहने वाली कामकाजी महिलाएं,
बस कंडक्टर / ड्राइवर,ऑटो रिक्शा 
और टैक्सी ड्राइवर, माल गाड़ी खींचने वाले, टेम्पो ड्राइवर / ट्रक ड्राइवर आदि।

वहां के स्थानीय लोग उनके उत्पादों की शुद्धता और स्वाद के लिए उनका बहुत सम्मान करते हैं।
बहुत ही उचित मूल्य पर लोगों को स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध करवाते हैं।

कुछ दिन पहले वह हमेशा की तरह इडली और डोसा बना और बेच रहे थे।
और एक स्थानीय निगम पार्षद पांडियन ने आकर इडली / डोसा मांगा ..
वह नशे में धुत था।
वह एक स्थानीय "भाई" है 
और विक्रेताओं से हफ्ता वसूली करता है।  उसके साथ २ चमचे भी थे।
उन सभी ने खाना खाया और पांडियन ने खाने के पैसे नहीं दिए।

जब किट्टू मामा की पत्नी ने पैसे मांगे,
तो पांडियन क्रोधित हो गया और उसने किट्टू मामा को धक्का दे दिया और 
इडली / इडली के साथ उसके घोल को फेंक दिया।
और उन्हें गाली दी - "तुम अय्यर - तुम मुझसे पैसे माँगने की हिम्मत कैसे कर रहे हो?"

 और वह किट्टू राम के जनेऊ को पकड़कर खींचने और तोड़ने का प्रयास करने लगा।

किट्टू मामा उग्र हो गए और पास में पड़ी एक बांस की छड़ी को उठाया और गुंडों को पीटा।
और बोला कि,
"हाँ मैं एक गरीब ब्राह्मण हूँ लेकिन मेरा जनेऊ "वेदस्वरुप" है।
तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इसका अपमान करने की?

मैं मार्शल आर्ट भी जानता हूं।"

फिर उन्होंने सिलम्बट्टम में अपना कौशल दिखाया और गुंडों को विधिवत तोड़ दिया।

वहाँ सभी लोग देख रहे थे लेकिन डर के कारण गुंडे को नहीं रोका।

नशे में धुत नेता पांडियन भाग गया
लेकिन किट्टू मामा को धमकी दी कि वह अगले दिन अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ आएगा और उन्हें "देख" लेगा।

किट्टू मामा ने खाना बनाने का अपना काम जारी रखा।

वहां आसपास के कुछ मजदूरों ने किट्टू अय्यर से कहा कि अगले दिन गुंडे आने पर वे उसकी रक्षा करेंगे।

अगले दिन शाम को किट्टू मामा ने हमेशा की तरह अपनी दुकान शुरू की।

पार्षद और उसके गुंडे नहीं आए।
उसके अगले दिन भी नहीं आये।

तब किट्टू मामा को पता चला कि 
उनके साथ लड़ने के बाद,
पार्षद एक दूसरी दुर्घटना में घायल हो गया है और आईसीयू में है,
और ऑपरेशन के लिए "दुर्लभ रक्त समूह" के रक्त की आवश्यकता है।
टीवी पर भी रक्तदान का अनुरोध किया गया था।

किट्टू मामा तुरंत अस्पताल गए,
रक्तदान किया क्योंकि उनके "रक्त" पार्षद के रक्त समूह का ही था,
जब तक ऑपरेशन खत्म नहीं हुआ,
किट्टू मामा अस्पताल में ही रहे

अगले दिन सुबह,पार्षद के परिवार ने उन्हें धन्यवाद दिया और किट्टू मामा ने जाकर उस पार्षद से मुलाकात की,
जो बात करने की हालत में था।
उसने किट्टू मामा से हाथ जोड़कर माफ़ी मांगी।

 और किट्टू मामा ने बताया - “मुझे अपने 'जनेऊ" की रक्षा करनी थी 
क्योंकि यह मेरा "धर्म' है।

मुझे तुम्हें भी बचाना था क्योंकि यह भी मेरा "धर्म" है।

और आपके पास एक परिवार है 
इसलिए मुझे लगा कि 
मुझे निश्चित रूप से रक्त दान करके आपकी सहायता करनी चाहिए 
इसलिए मैं पुनः अपने "धर्म" का पालन करने आ गया।

पारस सिंह शांडिल्य