Tuesday, May 31, 2022

ईसाई समाज अपने गिरेबान में तो झांकें।

आज के समाचार पत्र में पढ़ा। हैदराबाद के आर्चबिशप अन्थोनी पुला होंगे प्रथम दलित कार्डिनल। पढ़कर अचरज हुआ। ईसाई होकर भी दलित ही रह गए।  इससे अच्छा तो हिन्दू समाज में रहकर जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष कर जातिवाद के उन्मूलन में पुरुषार्थ करते। इससे यही सिद्ध होता है कि यह सब दिखावा बेचारे दलित हिन्दुओं को ईसा मसीह की भेड़े बनाने के लिए किया जा रहा हैं। ईसाई समाज अपनी धर्मांतरण की गतिविधियों के चलते सदा से हिन्दू संगठनों की आलोचना का शिकार बनता आ रहा है।  नैतिकता की बात करने वाले चर्च को वर्तमान के साथ साथ इतिहास में भी झांक कर देख लेना चाहिए। जैसे आज साम, दाम, दंड और भेद की नीति से वह धर्म परिवर्तन में लीन हैं। इतिहास में उसने इससे भी अधिक काले और अक्षम्य अपराध किये हैं। इस लेख में आप वह इतिहास जानिए।

भारत देश में ईसाई मत का आगमन कब हुआ। यह कुछ निश्चित नहीं हैं। एक मान्यता के अनुसार 52 AD में संत थॉमस का आगमन दक्षिण भारत में हुआ। उनके प्रभाव से ईसाई बने भारतीय अपने आपको सीरियन ईसाई कहते हैं। ईसाई इतिहासकारों की इस मान्यता में अनेक कल्पनायें समाहित हैं।[i] वास्को दे गामा के 1498 में भारत आगमन के साथ ईसाई व्यापारी के रूप में भारत आने लगे। वास्को दी गामा ने केरल के राजा के ऊपर कैसा अत्याचार किया था। यह जगजाहिर है। 
भारत में ईसाइयों के इतिहास में दो हस्तियों के कारनामे सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। पहले फ्रांसिस ज़ेवियर और दूसरे रोबर्ट दी नोबिली। पुर्तग़ालियों के भारत आने और गोवा में जम जाने के बाद ईसाई पादरियों ने भारतीयों का बलात् धर्म-परिवर्तन करना शुरू कर दिया[ii]। इस अत्याचार को आरम्भ करने वाले ईसाई पादरी का नाम फ्रांसिस जेवियर (Francis Xavier, 7 April 1506–3 December 1552) था। फ्रांसिस जेवियर ने हिन्दुओं को धर्मान्तरित करने का भरसक प्रयास किया मगर उसे आरम्भ में विशेष सफलता नहीं मिली। उसने देखा की उसके और ईसा मसीह की भेड़ों की संख्या में वृद्धि करने के मध्य हिन्दू ब्राह्मण सबसे अधिक बाधक हैं। फ्रांसिस जेवियर के अपने ही शब्दों में ब्राह्मण उसके सबसे बड़े शत्रु थे क्योंकि वे उन्हें धर्मांतरण करने में सबसे बड़ी रुकावट थे। फ्रांसिस जेवियर ने इस समस्या के समाधान के लिए ईसाई शासन का आश्रय लिया। वायसराय द्वारा यह आदेश लागू किया गया कि सभी ब्राह्मणों को पुर्तगाली शासन की सीमा से बाहर कर दिया जाये । गोवा में किसी भी स्थान पर नए मंदिर के निर्माण एवं पुराने मंदिर की मरम्मत करने की कोई स्वीकृति नहीं होगी[iii]। इस पर भी असर न देख अगला आदेश लागू किया गया की जो भी हिन्दू ईसाई शासन के मार्ग में बाधक बनेगा उसकी सम्पति जब्त कर ली जाएगी। इससे भी सफलता न मिलने अधिक कठोरता से अगला आदेश लागू किया गया। राज्य के सभी ब्राह्मणों को धर्म परिवर्तन कर ईसाई बनने का अथवा देश छोड़ने का फरमान जारी हुआ। इस आदेश के साथ हिन्दुओं विशेष रूप से ब्राह्मणों पर भयंकर अत्याचार आरम्भ हो गये। हिन्दू पंडित और वैद्य पालकी पर सवारी नहीं कर सकता था। ऐसा करने वालों को दण्डित किया जाता था। यहाँ तक जेल में भी ठूस दिया जाता था[iv]। हिन्दुओं को ईसाई बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। ईसाई बनने पर राज संरक्षण की प्राप्ति होना एवं हिन्दू बने रहने पर प्रताड़ित होने के चलते हजारों हिन्दू ईसाई बन गए[v]। हिन्दुओं को विवाह आदि पर उत्सव करने की मनाही करी गई। ईसाई शासन के अत्याचारों के चलते हिन्दू बड़ी संख्या में पलायन के लिए विवश हुए[vi]। फ्रांसिस जेवियर के शब्दों में परिवर्तित हुए हिन्दुओं को ईसाई बनाते समय उनके पूजा स्थलों को, उनकी मूर्तियों को उन्हें तोड़ने देख उसे अत्यंत प्रसन्नता होती थी। हजारों हिन्दुओं को डरा धमका कर, अनेकों को मार कर, अनेकों को जिन्दा जला कर, अनेकों की संपत्ति जब्त कर, अनेकों को राज्य से निष्कासित कर अथवा जेलों में डाल कर ईसाई मत ने अपने आपको शांतिप्रिय एवं न्यायप्रिय सिद्ध किया[vii]। हिन्दुओं पर हुए अत्याचार का वर्णन करने भर में लेखनी कांप उठती है। गौरी और गजनी का अत्याचारी इतिहास फिर से सजीव हो उठा था[viii]। विडंबना देखिये की ईसा मसीह के लिए भेड़ों की संख्या में वृद्धि के बदले फ्रांसिस जेवियर को ईसाई समाज ने संत की उपाधि से सम्मानित किया गया। गोवा प्रान्त में एक गिरिजाघर में फ्रांसिस जेवियर की अस्थियां सुरक्षित रखी गई है। हर वर्ष कुछ दिनों के लिए इन्हें दर्शनार्थ रखा जाता है। सबसे बड़ी विडंबना देखिये इनके दर्शन एवं सम्मान करने गोवा के वो ईसाई आते है जिनके पूर्वज कभी हिन्दू थे एवं उन्हें इसी जेवियर ने कभी बलात ईसाई बनाया गया था।

रोबर्ट दी नोबिली नामक ईसाई का आगमन 1606 में मदुरै, दक्षिण भारत में हुआ। उसने पाया की वहां पर हिन्दुओं को धर्मान्तरित करना लगभग असंभव ही है। उसने देखा की हिन्दू समाज में ब्राह्मणों की विशेष रूप से प्रतिष्ठा हैं। इसलिए उसने धूर्तता करने की सोची। उसने पारम्परिक धोती पहन कर एक ब्राह्मण का वेश धरा। जनेऊ, शिखा रख कर शाकाहारी भोजन करना आरम्भ कर दिया। उसने यह प्रचलित कर दिया की वह सुदूर रोम से आया हुआ ब्राह्मण है। उसके पूर्वज भारत से रोम गए थे। उसने तमिल और संस्कृत भाषा में ग्रन्थ रचना करने का नया प्रपंच भी किया। इस ग्रन्थ को उसने "वेद" का नाम दिया। ब्राह्मण वेश धरकर नोबिली ने सत्संग करना आरम्भ कर दिया। उसके सत्संग में कुछ हिन्दू आने लग गए। धीरे धीरे उसने सत्संग में ईसाई प्रार्थना का समावेश कर दिया। उसके प्रभाव से अनेक हिन्दू ईसाई बन गए[ix]। कालांतर में मैक्समूलर ने नोबिली के छदम "वेद" का रहस्य उजागर कर दिया। पाठक सोच रहे होंगे की मैक्समूलर ने ऐसा क्यों किया। जबकि दोनों ईसाई थे। उत्तर सुनकर रोंगटे खड़े हो जायेंगे। नोबिली ईसाइयत के एक सम्प्रदाय रोमन कैथोलिक से सम्बंधित था जबकि मैक्समूलर प्रोटोस्टेंट सम्प्रदाय से सम्बंधित था। दोनों के आपसी जलन और फुट ने इस भेद का भंडाफोड़ कर दिया। जहाँ पर धर्म का स्थान मज़हब/मत मतान्तर ले लेते हैं। वहां पर ऐसा ही होता है।

नोबिली को ईसाई समाज में दक्षिण भारत में धर्मान्तरण के लिए बड़े सम्मान से देखा जाता है। पाठक स्वयं विचार करे। वेश बदल कर धोखा देने वाला नकल करने वाला सम्मान के योग्य है अथवा तिरस्कार के योग्य है? प्रसिद्ध राष्ट्रवादी लेखक सीता राम गोयल द्वारा ईसाई समाज द्वारा हिन्दू वेश धारण करने, हिन्दू मंदिरों के समान गिरिजाघर बनाने, हिन्दू धर्मग्रंथों के समान ईसाई भजन एवं मंत्र बनाने, हिन्दू देवी देवताओं के समान ईसा मसीह एवं मरियम की मूर्तियां बनाने, ईसाई शिक्षण संस्थान को गुरुकुल की भाँति नकल करने की अपने ग्रंथों में भरपूर आलोचना करी है[x]। विचार करे क्या ईसाइयों को अपने धर्म ग्रंथों एवं सिद्धांतों पर इतना अविश्वास है की उन्हें नकल का सहारा लेकर अपने मत का प्रचार करना पड़ता है। धर्म की मूल सत्यता पर टिकी हुई है। न की जूठ, फरेब, नकल और धोखे पर टिकी हैं।

भारत देश के विशाल इतिहास के ईसाइयों के अत्याचार, जूठ, धोखे से सम्बंधित दो कारनामों का सत्य इतिहास मैंने अपने समक्ष रखा हैं। यह इतिहास उस काल का है जब भारत में अंग्रेजी हुकूमत की स्थापना नहीं हुई थी। पाठक कल्पना करे अंग्रेजों के संरक्षण में ईसाइयों ने कैसे कैसे कारनामे करे होगे। मदर टेरेसा का नोबेल की आड़ में धर्म परिवर्तन करना किसी से छिपा नहीं हैं। ईसाई पादरियों द्वारा चंगाई सभा के नाम पर सरेआम लोगों को बेवकूफ बनाना किसी से छुपा नहीं है। इसलिए अन्यों को दोष देने से पहले ईसाइयों को अपने गिरेबान में अवश्य झांक लेना चाहिए।

#डॉ_विवेक_आर्य

[i] The myth of Saint Thomas and the Mylapore Shiva Temple by Ishwar Sharan, Voice of India, New Delhi, 1991
[ii] Alfredo DeMello, “The Portuguese Inquisition in Goa”
[iii] Viceroy António de Noronha issued in 1566, an order applicable to the entire area under Portuguese rule:
“I hereby order that in any area owned by my master, the king, nobody should construct a Hindu temple and such temples already constructed should not be repaired without my permission. If this order is transgressed, such temples shall be, destroyed and the goods in them shall be used to meet expenses of holy deeds, as punishment of such transgression.”
[iv] Priolkar, A. K. The Goa Inquisition. (Bombay, 1961)
[v] Shirodhkar, P. P., Socio-Cultural life in Goa during the 16th century, p. 35
[vi] Shirodhkar, P. P., Socio-Cultural life in Goa during the 16th century, p. 35
[vii] Charles Dellon ,L'Inquisition de Goa (The Inquisition of Goa)
[viii] The words Auto da fé reverberated throughout Goa, reminiscent of the furies of Hell, which concept, incidentally does not exist in the Hindu pantheon. On April 1st 1650 for instance, four people were burnt to death, the next auto da fé was on December 14, 1653, when 18 were put to the flames, accused of the crime of heresy. And from the 8th April 1666 until the end of 1679 – during which period Dellon was tried – there were eight autos da fé, inwhich 1208 victims were sentenced. In November 22, 1711 another auto da fé took place involving 41 persons. Another milestone was on December 20, 1736, when the Inquisition burnt an entire family of Raaim, Salcete, destroying their house, putting salt on their land, and placing a stone padrao, which still existed in the place (at least in 1866)-Alfredo De Mello (‘Memoirs of Goa’ Chapter 21)
[ix] History of Hindu Christian encounters by Sita Ram Goel, Chap 4
[x] The masquerade of Robert Di Nobili has been described in detail in Sita Ram Goel, Catholic Ashrams: Sannyasins or Swindlers?, Voice of India, New Delhi, 1995.

रेत पर मुरझाते फूल।

#विजयमनोहरतिवारी

"द फ्लॉवर ऑफ अलेप्पो' ट्यूनीशिया के एक 18 साल के नौजवान मुराद की कहानी है। 2016 में आई डेढ़ घंटे की इस फिल्म में इस्लामी दुनिया की एक ऐसी मामूली झलक है, जो इस्लामिक स्टेट के धूमकेतु जैसे उभार के दिनों में दुनिया के हजारों घरों में घटित हुई थी। ये वो घर थे, जिनके नौजवान लड़के-लड़कियां इस्लामी खलीफा के आदर्श राज्य की खातिर िसर पर कफन बांधकर निकल गए थे। भारत से भी कुछ नौजवान सीरिया और इराक की तरफ गए थे। 
ट्यूनीशिया सवा करोड़ से कम 98 फीसदी मुस्लिम आबादी वाला एक उत्तर अफ्रीका का मुल्क है, जो सातवीं सदी में ही अरबों के हाथों अपनी प्राचीन पहचान खो चुका था। यहांं एक बिखरते परिवार का इकलौता बेटा है मुराद। उसकी मां सलमा नर्स है और जिस परिवेश में वे रहते हैं, वह पूरी तरह पाश्चात्य रंग में ढला हुआ समाज है। सलमा अपने आर्टिस्ट पति से अलग हो रही है। मुराद उसके साथ ही है। सलमा को ज्यादातर एंबूलैंस में अपनी मेडिकल सेवा में व्यस्त ही बताया गया है।
सीरिया में इस्लामिक स्टेट के उभार का असर यहां भी दिखने लगता है, जब कट्‌टर दिमागवालों का एक जत्था फैशन स्टोर्स की लड़कियों को डराने-धमकाने लगता है। वे कुरान पढ़ते हैं। नमाज करते हैं। उनके हाथों में हथियार हैं और प्लास्टिक के उन पुतलों के सिरों पर िनशाना लगाते हैं, जो आधुनिक लिबास की दुकानों पर सजे होते हैं। मुराद म्युजिक का शौकीन है, जो अपनी गर्लफ्रेंड के साथ गिटार के तार छेड़ता रहता है। उसका अकेलापन इन टोपीधारियों तक लेकर आ जाता है, जहां मजहब की एक कड़क खुराक उसके दिमाग में डाली जाती है। अब दीन की दूरदृष्टि के साथ उसके सिर पर भी टोपी आ जाती है। अचानक ही हंसती-खेलती दुनिया दुश्मन हो जाती है और दुश्मन को मारना बेहद जरूरी है।
एक दिन वह घर छोड़ देता है। ट्यूनीशिया में अचानक दर्जनों परिवार तस्वीरों के साथ सामने आने लगते हैं, जिनके नौजवान बच्चे घर छोड़कर चले गए। वे सब सीरिया का रुख करते हैं। मुराद भी वहीं जा पहुंचता है। काले झंडों पर अरबी नारे लिखी खुली गाड़ियों में में हथियार लहराते हुए निकलते हैं। अल्लाहो-अकबर का महामंत्र गुंजाते, सरकारी फौजों पर निशाना लगाते, अपने ख्वाबों की जन्नत का मुल्क बनाते, सिर पर सवार अपना खून और दूसरों के खून के प्यासे जिहादी।
सलमा अपने इकलौते बेटे को वापस लाने की खातिर नर्स के रूप में इस्लामिक स्टेट को अपनी सेवाएं देने के लिए ट्यूनीशिया से सीरिया आती है। वह आतंकियों के गिरोहों में काम शुरू करती है और यहां उस जैसी दूसरी औरतें पहले से देखती है, जो हथियार चलाने में माहिर हैं और इस्लाम उनके सिर पर भी वैसा ही सवार है, जैसा उन हथियारबंद जिहादियों के सिर पर, जिन्हें किसी का भी सिर काट लाना बच्चों के खेल जैसा है।
अगर आपने इराक की यजीदी लड़की नादिया मुराद की कहानी "द लास्ट गर्ल' पढ़ी है तो सलमा के सीरिया पहुंचते ही ऐसी कई नादिया मुरादों से आप रूबरू होते हैं। खूबसूरत सलमा को एक सेक्स स्लेव के रूप में वे ही आतंकी इस्तेमाल करते हैं। वह उसका वीडियो भी बनाते हैं। सब तरफ से हताश और लुटी-पिटी सलमा एक दिन गन से उन सबको मार देती है। वह फौजी लिबास में बाहर निकलती है तो उसे दुश्मन समझकर एक बंदूक उसे निशाने पर लेती हुई नजर आती है। वह बंदूक उसी के बेटे मुराद के हाथों में हैं। ट्रिगर दबता है। गोली उसके सीने में धंसती है। वह गिरती है। मुराद जोश में उसके पास आकर नकाब हटाता है तो चौंककर देखता है। 
काले लिबास में मौसूल की मस्जिद में देखे गए खलीफा अबू बकर अल बगदादी को एक दिन कुत्ते की मौत मरता हुआ दुनिया ने देखा मगर वह दुनिया भर के हजारों घरों के नौजवान लड़के-लड़कियों को ईंधन के रूप में इस्तेमाल कर चुका था। नादिया मुराद की किताब  इस्लामी विजेताओं के हाथ आने वाली गुलाम लड़कियों की दर्द भरी दास्तान है, जो बाजार में कौड़ियों के दाम बेची और खरीदी जाती हैं। खुद नादिया को एक हाजी से लेकर एक दीनदार डॉक्टर तक ने खरीदा और इस्तेमाल करके बेचा था। 
सलमा की लाश के सामने मुराद के आते ही फिल्म खत्म हो जाती है। मगर फिल्म तो बगदादी के मरने से भी खत्म नहीं हुई है। जब तक मरने के बाद काल्पनिक जन्नत का ख्वाब किताबी दास्तानों में रहेगा, बगदादी भी होते रहेंगे और कोई न कोई सलमा अपने किसी न किसी इकलौते मुराद को खोएगी ही। गैर मजहबी होने से कोई न कोई नादिया कहीं न कहीं से उठाई ही जाएगी। वह बिकेगी और बरबाद होगी। बेमौत मरने वाले बेकसूर अनगिनत लोगों के तो न अब किसी को नाम मालूम हैं और न आगे होंगे। 
ये न फिल्म हैं, न किताबें। ये रेत पर मुरझाते फूलों की कहानियां हैं। वे फूल, जिन्हें खिलकर गुलशन को महकाना था। उस गुलशन को, जिसमें कोई दुश्मन था ही नहीं। वह कल्पना से पैदा किया गया डर था। एक ख्वाबों की जन्नत के लिए, जो कहीं है ही नहीं!
#TheFowerofAleppo #NadiaMurad #thelastgirl #islamicstate #vijaymanohartiwari

Sunday, May 29, 2022

वेदों में स्त्रियों की शिक्षा।

वेद नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान करते हैं| वेदों में स्त्रियों की शिक्षा- दीक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का जो सुन्दर वर्णन पाया जाता है, वैसा संसार के अन्य किसी धर्मग्रंथ में नहीं है| वेद उन्हें घर की सम्राज्ञी कहते हैं और देश की शासक, पृथ्वी की सम्राज्ञी तक बनने का अधिकार देते हैं|
इसी विषय मे विस्तार से जानने के लिए पढिए 
1- स्त्रियॉं के वेदाध्ययन अधिकार 
2- वैदिक नारी 
3- आदर्श गार्हस्थ्य जीवन 
तीनों पुस्तकों का मूल्य 250 रूपए ( डाक खर्च सहित) 
Cash on Delivery सुविधा उपलब्ध नहीं है. पहले मूल्य प्राप्त होने पर ही पुस्तक भेजी जाएगी। अन्य सभी सूचना प्राप्त करने व पुस्तक खरीदने के लिए -
Whatsapp करें +917015591564 (इस नंबर पर फोन कालिंग सुविधा नहीं है। केवल Whatsapp से ही सम्पर्क होगा)
वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय| वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली, सुख – समृद्धि लाने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इन्द्राणी, उषा- जो सबको जगाती है इत्यादि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं|
वेदों में स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है – उसे सदा विजयिनी कहा गया है और उन के हर काम में सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है| वैदिक काल में नारी अध्यन- अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र में भी जाती थी| जैसे कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी| कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार देकर वेद पुरुष से एक कदम आगे ही रखते हैं|
अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा हैं – अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति- दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि |
तथापि, जिन्होनें वेदों के दर्शन भी नहीं किए, ऐसे कुछ रीढ़ की हड्डी विहीन बुद्धिवादियों ने इस देश की सभ्यता, संस्कृति को नष्ट – भ्रष्ट करने का जो अभियान चला रखा है – उसके तहत वेदों में नारी की अवमानना का ढ़ोल पीटते रहते हैं |
आइए, वेदों में नारी के स्वरुप की झलक इन मंत्रों में देखें -
यजुर्वेद २०.९
स्त्री और पुरुष दोनों को शासक चुने जाने का समान अधिकार है |
यजुर्वेद १७.४५
स्त्रियों की भी सेना हो | स्त्रियों को युद्ध में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करें |
यजुर्वेद १०.२६
शासकों की स्त्रियां अन्यों को राजनीति की शिक्षा दें | जैसे राजा, लोगों का न्याय करते हैं वैसे ही रानी भी न्याय करने वाली हों |
अथर्ववेद ११.५.१८
ब्रह्मचर्य सूक्त के इस मंत्र में कन्याओं के लिए भी ब्रह्मचर्य और विद्या ग्रहण करने के बाद ही विवाह करने के लिए कहा गया है | यह सूक्त लड़कों के समान ही कन्याओं की शिक्षा को भी विशेष महत्त्व देता है |
कन्याएं ब्रह्मचर्य के सेवन से पूर्ण विदुषी और युवती होकर ही विवाह करें |
अथर्ववेद १४.१.६
माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धीमत्ता और विद्याबल का उपहार दें | वे उसे ज्ञान का दहेज़ दें |
जब कन्याएं बाहरी उपकरणों को छोड़ कर, भीतरी विद्या बल से चैतन्य स्वभाव और पदार्थों को दिव्य दृष्टि से देखने वाली और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने – कराने वाली हो तब सुयोग्य पति से विवाह करे |
अथर्ववेद १४.१.२०
हे पत्नी ! हमें ज्ञान का उपदेश कर |
वधू अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों से पति के घर में सब को प्रसन्न कर दे |
अथर्ववेद ७.४६.३
पति को संपत्ति कमाने के तरीके बता |
संतानों को पालने वाली, निश्चित ज्ञान वाली, सह्त्रों स्तुति वाली और चारों ओर प्रभाव डालने वाली स्त्री, तुम ऐश्वर्य पाती हो | हे सुयोग्य पति की पत्नी, अपने पति को संपत्ति के लिए आगे बढ़ाओ |
अथर्ववेद ७.४७.१
हे स्त्री ! तुम सभी कर्मों को जानती हो |
हे स्त्री ! तुम हमें ऐश्वर्य और समृद्धि दो |
अथर्ववेद ७.४७.२
तुम सब कुछ जानने वाली हमें धन – धान्य से समर्थ कर दो |
हे स्त्री ! तुम हमारे धन और समृद्धि को बढ़ाओ |
अथर्ववेद ७.४८.२
तुम हमें बुद्धि से धन दो |
विदुषी, सम्माननीय, विचारशील, प्रसन्नचित्त पत्नी संपत्ति की रक्षा और वृद्धि करती है और घर में सुख़ लाती है |
अथर्ववेद १४.१.६४
हे स्त्री ! तुम हमारे घर की प्रत्येक दिशा में ब्रह्म अर्थात् वैदिक ज्ञान का प्रयोग करो |
हे वधू ! विद्वानों के घर में पहुंच कर कल्याणकारिणी और सुखदायिनी होकर तुम विराजमान हो |
अथर्ववेद २.३६.५
हे वधू ! तुम ऐश्वर्य की नौका पर चढ़ो और अपने पति को जो कि तुमने स्वयं पसंद किया है, संसार – सागर के पार पहुंचा दो |
हे वधू ! ऐश्वर्य कि अटूट नाव पर चढ़ और अपने पति को सफ़लता के तट पर ले चल |
अथर्ववेद १.१४.३
हे वर ! यह वधू तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है |
हे वर ! यह कन्या तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है | यह बहुत काल तक तुम्हारे घर में निवास करे और बुद्धिमत्ता के बीज बोये |
अथर्ववेद २.३६.३
यह वधू पति के घर जा कर रानी बने और वहां प्रकाशित हो |
अथर्ववेद ११.१.१७
ये स्त्रियां शुद्ध, पवित्र और यज्ञीय ( यज्ञ समान पूजनीय ) हैं, ये प्रजा, पशु और अन्न देतीं हैं |
यह स्त्रियां शुद्ध स्वभाव वाली, पवित्र आचरण वाली, पूजनीय, सेवा योग्य, शुभ चरित्र वाली और विद्वत्तापूर्ण हैं | यह समाज को प्रजा, पशु और सुख़ पहुँचाती हैं |
अथर्ववेद १२.१.२५
हे मातृभूमि ! कन्याओं में जो तेज होता है, वह हमें दो |
स्त्रियों में जो सेवनीय ऐश्वर्य और कांति है, हे भूमि ! उस के साथ हमें भी मिला |
अथर्ववेद १२.२.३१
स्त्रियां कभी दुख से रोयें नहीं, इन्हें निरोग रखा जाए और रत्न, आभूषण इत्यादि पहनने को दिए जाएं |
अथर्ववेद १४.१.२०
हे वधू ! तुम पति के घर में जा कर गृहपत्नी और सब को वश में रखने वाली बनों |
अथर्ववेद १४.१.५०
हे पत्नी ! अपने सौभाग्य के लिए मैं तेरा हाथ पकड़ता हूं |
अथर्ववेद १४.२ .२६
हे वधू ! तुम कल्याण करने वाली हो और घरों को उद्देश्य तक पहुंचाने वाली हो |
अथर्ववेद १४.२.७१
हे पत्नी ! मैं ज्ञानवान हूं तू भी ज्ञानवती है, मैं सामवेद हूं तो तू ऋग्वेद है |
अथर्ववेद १४.२.७४
यह वधू विराट अर्थात् चमकने वाली है, इस ने सब को जीत लिया है |
यह वधू बड़े ऐश्वर्य वाली और पुरुषार्थिनी हो |
अथर्ववेद ७.३८.४ और १२.३.५२
सभा और समिति में जा कर स्त्रियां भाग लें और अपने विचार प्रकट करें |
ऋग्वेद १०.८५.७
माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबल उपहार में दें | माता- पिता को चाहिए कि वे अपनी कन्या को दहेज़ भी दें तो वह ज्ञान का दहेज़ हो |
ऋग्वेद ३.३१.१
पुत्रों की ही भांति पुत्री भी अपने पिता की संपत्ति में समान रूप से उत्तराधिकारी है |
ऋग्वेद १० .१ .५९
एक गृहपत्नी प्रात : काल उठते ही अपने उद् गार कहती है -
” यह सूर्य उदय हुआ है, इस के साथ ही मेरा सौभाग्य भी ऊँचा चढ़ निकला है | मैं अपने घर और समाज की ध्वजा हूं , उस की मस्तक हूं | मैं भारी व्यख्यात्री हूं | मेरे पुत्र शत्रु -विजयी हैं | मेरी पुत्री संसार में चमकती है | मैं स्वयं दुश्मनों को जीतने वाली हूं | मेरे पति का असीम यश है | मैंने वह त्याग किया है जिससे इन्द्र (सम्राट ) विजय पता है | मुझेभी विजय मिली है | मैंने अपने शत्रु नि:शेष कर दिए हैं | ”
वह सूर्य ऊपर आ गया है और मेरा सौभाग्य भी ऊँचा हो गया है | मैं जानती हूं , अपने प्रतिस्पर्धियों को जीतकर मैंने पति के प्रेम को फ़िर से पा लिया है |
मैं प्रतीक हूं , मैं शिर हूं , मैं सबसे प्रमुख हूं और अब मैं कहती हूं कि मेरी इच्छा के अनुसार ही मेरा पति आचरण करे | प्रतिस्पर्धी मेरा कोई नहीं है |
मेरे पुत्र मेरे शत्रुओं को नष्ट करने वाले हैं , मेरी पुत्री रानी है , मैं विजयशील हूं | मेरे और मेरे पति के प्रेम की व्यापक प्रसिद्धि है |
ओ प्रबुद्ध ! मैंने उस अर्ध्य को अर्पण किया है , जो सबसे अधिक उदाहरणीय है और इस तरह मैं सबसे अधिक प्रसिद्ध और सामर्थ्यवान हो गई हूं | मैंने स्वयं को अपने प्रतिस्पर्धियों से मुक्त कर लिया है |
मैं प्रतिस्पर्धियों से मुक्त हो कर, अब प्रतिस्पर्धियों की विध्वंसक हूं और विजेता हूं | मैंने दूसरों का वैभव ऐसे हर लिया है जैसे की वह न टिक पाने वाले कमजोर बांध हों | मैंने मेरे प्रतिस्पर्धियों पर विजय प्राप्त कर ली है | जिससे मैं इस नायक और उस की प्रजा पर यथेष्ट शासन चला सकती हूं |
इस मंत्र की ऋषिका और देवता दोनों हो शची हैं | शची इन्द्राणी है, शची स्वयं में राज्य की सम्राज्ञी है ( जैसे कि कोई महिला प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष हो ) | उस के पुत्र – पुत्री भी राज्य के लिए समर्पित हैं |
ऋग्वेद १.१६४.४१
ऐसे निर्मल मन वाली स्त्री जिसका मन एक पारदर्शी स्फटिक जैसे परिशुद्ध जल की तरह हो वह एक वेद, दो वेद या चार वेद , आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद , अर्थवेद इत्यादि के साथ ही छ : वेदांगों – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छंद : को प्राप्त करे और इस वैविध्यपूर्ण ज्ञान को अन्यों को भी दे |
हे स्त्री पुरुषों ! जो एक वेद का अभ्यास करने वाली वा दो वेद जिसने अभ्यास किए वा चार वेदों की पढ़ने वाली वा चार वेद और चार उपवेदों की शिक्षा से युक्त वा चार वेद, चार उपवेद और व्याकरण आदि शिक्षा युक्त, अतिशय कर के विद्याओं में प्रसिद्ध होती और असंख्यात अक्षरों वाली होती हुई सब से उत्तम, आकाश के समान व्याप्त निश्चल परमात्मा के निमित्त प्रयत्न करती है और गौ स्वर्ण युक्त विदुषी स्त्रियों को शब्द कराती अर्थात् जल के समान निर्मल वचनों को छांटती अर्थात् अविद्यादी दोषों को अलग करती हुई वह संसार के लिए अत्यंत सुख करने वाली होती है |
ऋग्वेद १०.८५.४६
स्त्री को परिवार और पत्नी की महत्वपूर्ण भूमिका में चित्रित किया गया है | इसी तरह, वेद स्त्री की सामाजिक, प्रशासकीय और राष्ट्र की सम्राज्ञी के रूप का वर्णन भी करते हैं |
ऋग्वेद के कई सूक्त उषा का देवता के रूप में वर्णन करते हैं और इस उषा को एक आदर्श स्त्री के रूप में माना गया है | कृपया पं श्रीपाद दामोदर सातवलेकर द्वारा लिखित ” उषा देवता “, ऋग्वेद का सुबोध भाष्य देखें |
सारांश (पृ १२१ – १४७ ) -
१. स्त्रियां वीर हों | ( पृ १२२, १२८)
२. स्त्रियां सुविज्ञ हों | ( पृ १२२)
३. स्त्रियां यशस्वी हों | (पृ १२३)
४. स्त्रियां रथ पर सवारी करें | ( पृ १२३)
५. स्त्रियां विदुषी हों | ( पृ १२३)
६. स्त्रियां संपदा शाली और धनाढ्य हों | ( पृ १२५)
७.स्त्रियां बुद्धिमती और ज्ञानवती हों | ( पृ १२६)
८. स्त्रियां परिवार ,समाज की रक्षक हों और सेना में जाएं | (पृ १३४, १३६ )
९. स्त्रियां तेजोमयी हों | ( पृ १३७)
१०.स्त्रियां धन-धान्य और वैभव देने वाली हों | ( पृ १४१-१४६)*

Saturday, May 28, 2022

केनोपनिषदके प्रथम खंडके पहले मंत्र।

केनोपनिषदके प्रथम खंडके पहले मंत्र में जो प्रश्न पूछा गया है उसका उत्तर दूसरे मंत्रसे, पूछनेवाले योग्य शिष्यसे गुरुने कहा-- तू जो पूछता है कि मन आदि इंद्रियसमूहको अपने विषयोंकी ओर प्रेरित करनेवाला कौन देव है और वह उन्हें किस प्रकार प्रेरित करताहै, सुन--
       ---  आत्माका सर्वनियन्तृत्व---
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणश्चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराः  प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ।।२।।

जो श्रोत्रका श्रोत्र, मनका मन और वाणीका भी वाणीहै वही प्राणका प्राण और चक्षुका चक्षु है (ऐसा जानकर) धीर पुरुष संसारसे मुक्त होकर इस लोकसे जाकर अमर हो जाते हैं ।। २।।
श्रोत्रस्य श्रोतम् -- जिससे श्रवण करते हैं वह 'श्रोत्र’ है अर्थात् शब्दके श्रवणमें साधन यानी शब्दका अभिव्यंजक श्रोत्रेन्द्रिय है । उसकाभी श्रोत्र वह है जिसके विषयमें तुने पूछा है कि ‘चक्षु और श्रोत्रको कौन देव नियुक्त करता है ?’
शंका--- प्रश्नके उत्तरमें तो यह बतलाना चाहिये था कि इस प्रकार के गुणोंवाला व्यक्ति श्रोत्रादिको प्रेरित करता है ; उसमें यह कहना कि वह श्रोत्रका श्रोत्र है -- ठीक उत्तर नहीं है ।
समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उस प्रेरकका और किसी प्रकार कोई विषेश रूप नहीं जाना जा सकता । यदि दराँती आदिका प्रयोग करनेवालेके समान श्रोत्रादि व्यापारसे अतिरिक्त किसी अपने व्यापारसे विशिष्ट कोई श्रोत्रादिका नियोक्ता ज्ञात होता तो यह उत्तर अनुचित होता । किंतु यहां खेत काटनेवालेके समान कोई श्रोत्रादिका स्वव्यापारविशिष्ट प्रयोक्ता ज्ञात नहीं है । अवयव सहयोगसे उत्पन्न है श्रोत्रादिका जो चिदाभासकी फलव्याप्तिका लिंगरूप आलोचना, संकल्प एवं निश्चय आदिरूप व्यापार है उसीसे यह जाना जाता है कि गृह आदिके समान जिसके प्रयोजनसे श्रोत्रादि कारण- कलाप प्रवृत्त हो रहा है वह श्रोत्रादिसे असंहत (पृथक्) कोई तत्व अवश्य है । संहत पदार्थ परार्थ (दूसरेके साधनरूप) हुआ करते हैं ; इसीसे कोई श्रोत्रादिका प्रयोक्ता अवश्य है -- यह जाना जाता है । अतः यह ’श्रोत्रस्य श्रोत्रम्’ इत्यादि उत्तर ठीक ही है ।
शंका -- किन्तु इस ‘श्रोत्रस्य श्रोतम्’ इत्यादि पदका यहाँ क्या अर्थ अभिप्रेत है ? क्योंकि जिस तरह एक प्रकाशको दूसरे प्रकाशका प्रयोजन नहीं होता उसी तरह एक श्रोत्रको दूसरे श्रोत्रसे तो कोई प्रयोजन है ही नहीं ।
समाधान -- यह भी कोई दोष नहीं है । यहां इस पदका अर्थ इस प्रक़र है -- श्रोत्र अपने विषयको अभिव्यक्त करनेमें समर्थ है -- यह देखा ही जाता है । किन्तु श्रोत्रका वह अपने विषयको अभिव्यक्त करने का सामर्थ्य नित्य असंहत, सर्वांतर चेतन आत्मज्योतिके रहनेपर ही रह सकता है, न रहनेपर नहीं रह सकता ।अतः उसे ‘श्रोत्रस्य श्रोत्रम्’ इत्यादि कहना उचित ही है । ‘यह अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित है’ ‘उसके प्रकाशसे ही यह सब प्रकाशित होता है’ ‘जिस तेजसे प्रदिप्त हूआ सूर्य तपता है’ इत्यादि श्रुतियाँभी इसी अर्थकी द्योतक हैं । तथा गीतामें भी कहा है -- ‘जो तेज सूर्यमें स्थित होकर संपूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है ।’ ’हे भारत ! इसी प्रकार संपूर्ण क्षेत्रको क्षेत्री प्रकाशित करता है । ‘कठोपनिषदमें भी कहा है -- ‘वह नित्योंका नित्य और चेतनोंका चैतन है’ इत्यादि । श्रोत्रादि इन्द्रियवर्ग ही सबका आत्मभूत चेतन है -- यह बात (लोकमें) प्रसिद्ध है । उसे भ्रांतिका इस पदसे निराकरण किया जाता है । अतः श्रोत्रादिका भी श्रोत्रादि अर्थात् उनकी सामर्थ्यका निमित्तभूत ऐसा कोई पदार्थ है, जो आत्मवेत्ताओंकी बुद्धिका विषय सबसे अन्तरतम, कूटस्थ, अजन्मा, अजर, अमर और अभयरूप है -- इस प्रकार यह उत्तर और शब्दार्थ ठीक ही है ।
इसी प्रकार वह मनका -- अंत:करणका मन है, क्योंकि चिज्ज्योतिके प्रकाशके बिना अंत:करण अपने विषय संकल्प और अध्यवसाय (निश्चय) आदिमें समर्थ नहीं हो सकता । अतः वह मनका भी मन है ; यहां बुद्धि और मनको एक मानकर मनका निर्देश किया गया है ।
यद्वाचो ह वाचम् -- इस वाक्यके ‘यत्’ शब्दका ‘यस्मात्’ अर्थ ( हेत्वर्थ) -- में ‘क्योंकि वह श्रोत्रका श्रोत्र है, क्योंकि वह मनका मन है’  इस प्रकार श्रोत्रादि सभी पदोंसे संबंध है । ‘ वाचो ह वाचम्’ इस पदसमूहमें ‘वचम’ पदकी द्वितीया विभक्ति प्रथमा विभक्तके रूपमें परिणत कर ली जा है, जैसा कि ‘प्राणस्य प्राण:’ में देखा जाता है । यदि कहो कि ‘वाचो ह वाचम्’ इस प्रयोगके अनुरोधसे ’प्राणस्य प्राणम्’इस प्रकार द्वितीया ही क्यों नहीं कर ली जाती ? तो ऐसा कहना उचित नहीं क्योंकि बहुतोंका अनुरोध मानना ही युक्ति संगत है । अतः ‘स उ प्राणस्य प्राण:’ इस पदसमूहके (स और प्राण:) दो शब्दोंके अनुरोधसे ‘वाचम्’ इस शब्दको ही ‘वाक्’ इतना कहना चाहिये । ऐसा करनेसे ही बहुतोंका अनुरोधयुक्त  (स्वीकार) किया समझा जायगा । 
इसके सिवा, पूछी हुई वस्तुका निर्देश प्रथमा विभक्तिसे ही करना उचित है । (अभिप्राय यह कि) जिसके विषयमें तूने पूछा है वह प्राणका यानी प्राण नामक वृत्ति-विशेषका प्राण है । उसके कारण ही प्राणका प्राणनसामर्थ्य है, क्योंकि आत्मासे अनधिष्ठित प्राणका प्रणन संभव नहीं है, जैसा कि  ’यदि यह आनंदस्वरूप आकाश न होता तो कौन जीवीत रहता और कौन श्वासोच्छ्वास करता’ ‘यह प्राणको उपर ले जाता है तथा अपानको नीचेकी ओर छोडता है’ इत्यादि श्रुतियाँसे सिद्ध होता है । यहां( इस उपनिषद में) भी यह कहेंगे ही कि जिसके द्वारा प्राण प्राणन करता है ऊसीको तू ब्रह्म जान ।
शंका -- परंतु यहाँ श्रोत्रादि इन्द्रियोंके प्रसंगमें घ्राणको ही ग्रहण करना युक्तियुक्त है, प्राणको नहीं ।
समाधान -- यह ठीक है । किन्तु श्रुति, प्राणको ग्रहण करनेसे ही घ्राणकाभी ग्रहण किया मानती है । इस प्रकरणको यही अर्थ बतलाना अभिष्ट है कि जिसके लिये संपूर्ण इन्द्रियसमूहकी प्रवृत्ति है वही ब्रह्म है ।
  तथा (वह ब्रह्म) चक्षुका चक्षु है । रूपको प्रकाशित करने वाले चक्षु- इन्द्रियमें जो रूपको ग्रहण करने की सामर्थ्य है वह आत्मचैतन्यसे अधिष्ठित होनेके कारण ही है ।इसलिए वह चक्षुका चक्षु है । 
प्रश्न --- कर्ताको अपने पूछे हुए पदार्थको जाननेकी इच्छा हुई ही करती है, इसलिए तथा ‘ अमृता भवन्ति’ (अमर हो जाते हैं) ऐसी फलश्रुति होनेके कारण भी उपर्युक्त श्रोत्रादिके श्रोत्रादिरूप ब्रह्मको जानकर --इस प्रकार यहाँ ‘ज्ञात्वा’ क्रियाका अध्याहार किया जाता है, क्योंकि अमरत्वकी प्राप्ति ज्ञानसे ही होती है, जैसा कि(ब्रह्मको) जानकार मुक्त हो जाता है’ इस उक्तिकी सामर्थ्यसे सिद्ध होता है । जीव श्रोत्रादि करण- कलापको त्यागकर -- श्रोत्रादिमें ही आत्मभाव करके उनकी उपाधिसे युक्त होकर जन्मता मरता और संसारको प्राप्तहोता है । अतः श्रोत्रादिका श्रोत्रादि रूप ब्रह्मही आत्मा है ऐसा जानकर और अतिमोचन करके अर्थात् श्रोत्रादिमें आत्मभावकोत्यागकर धीर पुरुष ‘प्रेत्य’ अर्थात् पुत्र, मित्र, कलत्र और बन्धुओंमें अहंता- ममताके व्यवहाररूप इस लोकसे विलग होकर यानी संपूर्ण एषणाओंसे मुक्त होकर अमृत- अमरण- धर्मा हो जाते हैं । जो लोग श्रोत्रादिमें आत्मभावका त्याग करते हैं वे धीर यानी बुद्धिमान होते हैं । क्योंकि विशिष्ट बुद्धिमत्वके बिना श्रोत्रादिमें आत्म- भावका त्याग नहीं किया जा सकता । 
‘कर्मसे, प्रजासे अथवा धनसे नहीं, किन्हीं-किन्हींने केवल त्यागसे ही अमरत्व लाभ किया है’ ‘स्वयंभूने इन्द्रियोंको बहिर्मुख करके हिंसित कर दिया है, इसलिए जीव बाह्य वस्तुओंको ही देखता है, अपने अंतरात्माको नहीं देखता । कोइ बुद्धिमान पुरुष अमरत्वकी इच्छासे इन्द्रियोंको रोककर अपने प्रत्यगात्माको देखता है’ ‘जिस समय इसके ह्वदयकी कामनाएँ छूट जाती हैं.....इस अवस्थामें वह ब्रह्मकोप्राप्तहोता है’ इत्यादि श्रुतियाँसे भी यही सिद्ध होता है ।अथवा एषणात्याग तो ’अतिमुच्य’ इस पदसे ही सिद्ध हो जाता है, अतः ‘अस्माल्लोकात्प्रेत्य’ का यह भाव समझना चाहिये कि इस शरीरसे अलग होकर यानी मरकर(अमर हो जाते हैं) ।।२।।

🌹🙏ऊँ परमात्मने नमः🙏🌹

🌹🌹🌼🌼🌹🏵🏵🌹🌹

🙏🙏जय श्री कृष्ण 🙏🙏

जिन्नाह महान सावरकर गद्दार: भ्रम का निवारण।

हमारे देश में एक विशेष जमात यह राग अलाप रही है कि जिन्नाह अंग्रेजों से लड़े थे इसलिए महान थे। जबकि वीर सावरकर गद्दार थे क्यूंकि उन्होंने अंग्रेजों से माफ़ी मांगी थी। वैसे इन लोगों को यह नहीं मालूम कि जिन्नाह इस्लाम की मान्यताओं के विरुद्ध सारे कर्म करते थे। जैसे सूअर का मांस खाना, शराब पीना, सिगार पीना आदि। वो न तो पांच वक्त के नमाजी थे। न ही हाजी थे। न ही दाढ़ी और टोपी में यकीन रखते थे। जबकि वीर सावरकर। उनका तो सारा जीवन ही राष्ट्र को समर्पित था। पहले सावरकर को जान तो लीजिये।
1. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा का विरोध किया और कहा कि वो हमारे शत्रु देश की रानी थी, हम शोक क्यूँ करें? क्या किसी भारतीय महापुरुष के निधन पर ब्रिटेन में शोक सभा हुई है.?
2. वीर सावरकर पहले देशभक्त थे जिन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने वालों को त्र्यम्बकेश्वर में बड़े बड़े पोस्टर लगाकर कहा था कि गुलामी का उत्सव मत मनाओ...
3. विदेशी वस्त्रों की पहली होली पूना में 7 अक्तूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी...
4. वीर सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का दहन किया, तब बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की थी जबकि इस घटना की दक्षिण अफ्रीका के अपने पत्र 'इन्डियन ओपीनियन' में गाँधी ने निंदा की थी...
5. सावरकर द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गाँधी उनके मार्ग पर चले और 11 जुलाई 1921 को मुंबई के परेल में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया...
6. सावरकर पहले भारतीय थे जिनको 1905 में विदेशी वस्त्र दहन के कारण पुणे के फर्म्युसन कॉलेज से निकाल दिया गया और दस रूपये जुर्माना लगाया ... इसके विरोध में हड़ताल हुई... स्वयं तिलक जी ने 'केसरी' पत्र में सावरकर के पक्ष में सम्पादकीय लिखा...
7. वीर सावरकर ऐसे पहले बैरिस्टर थे जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में ग्रेज-इन परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफादार होने की शपथ नही ली... इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नही दिया गया...
8. वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा ग़दर कहे जाने वाले संघर्ष को '1857 का स्वातंत्र्य समर' नामक ग्रन्थ लिखकर सिद्ध कर दिया...
9. सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे जिनके लिखे '1857 का स्वातंत्र्य समर' पुस्तक पर ब्रिटिश संसद ने प्रकाशित होने से पहले प्रतिबन्ध लगाया था...
10. '1857 का स्वातंत्र्य समर' विदेशों में छापा गया और भारत में भगत सिंहने इसे छपवाया था जिसकी एक एक प्रति तीन-तीन सौ रूपये में बिकी थी... भारतीय क्रांतिकारियों के लिए यह पवित्र गीता थी... पुलिस छापों में देशभक्तों के घरों में यही पुस्तक मिलती थी...
11. वीर सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जो समुद्री जहाज में बंदी बनाकर ब्रिटेन से भारत लाते समय आठ जुलाई 1910 को समुद्र में कूद पड़े थे और तैरकर फ्रांस पहुँच गए थे...
12. सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जिनका मुकद्दमा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला, मगर ब्रिटेन और फ्रांस की मिलीभगत के कारण उनको न्याय नही मिला और बंदीबनाकर भारत लाया गया...
13. वीर सावरकर विश्व के पहले क्रांतिकारी और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई थी...
14. सावरकर पहले ऐसे देशभक्त थे जो दो जन्म कारावास की सजा सुनते ही हंसकर बोले- "चलो, ईसाई सत्ता ने हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को मान लिया."
15. वीर सावरकर पहले राजनैतिक बंदी थे जिन्होंने काला पानी की सजा के समय 10 साल से भी अधिक समय तक आजादी के लिए कोल्हू चलाकर 30 पौंड तेल प्रतिदिन निकाला...
16. वीर सावरकर काला पानी में पहले ऐसे कैदी थे जिन्होंने काल कोठरी की दीवारों पर कंकड़ और कोयले से कवितायें लिखी और 6000 पंक्तियाँ याद रखी...
17. वीर सावरकर पहले देशभक्त लेखक थे, जिनकी लिखी हुई पुस्तकों पर आजादी के बाद कई वर्षों तक प्रतिबन्ध लगा रहा...
18. आधुनिक इतिहास के वीर सावरकर पहले विद्वान लेखक थे जिन्होंने हिन्दू को परिभाषित करते हुए लिखा कि-'आसिन्धु सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका.पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरितीस्मृतः.'अर्थात समुद्र से हिमालय तक भारत भूमि जिसकी पितृभू है जिसके पूर्वज यहीं पैदा हुए हैं व यही पुण्य भू है, जिसके तीर्थ भारत भूमि में ही हैं, वही हिन्दू है...
19. वीर सावरकर प्रथम राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सत्ता ने 30 वर्षों तक जेलों में रखा तथा आजादी के बाद 1948 में नेहरु सरकार ने गाँधी हत्या की आड़ में लाल किले में बंद रखा पर न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने के बाद ससम्मान रिहा कर दिया... देशी-विदेशी दोनों सरकारों को उनके राष्ट्रवादी विचारोंसे डर लगता था...
20. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी थे जब उनका 26 फरवरी 1966 को उनका स्वर्गारोहण हुआ तब भारतीय संसद में कुछ सांसदों ने शोक प्रस्ताव रखा तो यह कहकर रोक दिया गया कि वे संसद सदस्य नही थे जबकि चर्चिल की मौत पर शोक मनाया गया था...
21.वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त स्वातंत्र्य वीर थे जिनके मरणोपरांत 26 फरवरी 2003 को उसी संसद में मूर्ति लगी जिसमे कभी उनके निधनपर शोक प्रस्ताव भी रोका गया था....
22. वीर सावरकर ऐसे पहले राष्ट्रवादी विचारक थे जिनके चित्र को संसद भवन में लगाने से रोकने के लिए कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा लेकिन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने सुझाव पत्र नकार दिया और वीर सावरकर के चित्र अनावरण राष्ट्रपति ने अपने कर-कमलों से किया...
23. वीर सावरकर पहले ऐसे राष्ट्रभक्त हुए जिनके शिलालेख को अंडमान द्वीप की सेल्युलर जेल के कीर्ति स्तम्भ से UPA सरकार के मंत्री मणिशंकर अय्यर ने हटवा दिया था और उसकी जगह गांधी का शिलालेख लगवा दिया...वीर सावरकर ने दस साल आजादी के लिए काला पानी में कोल्हू चलाया था जबकि गाँधी ने कालापानी की उस जेल में कभी दस मिनट चरखा नही चलाया....
24. महान स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी-देशभक्त, उच्च कोटि के साहित्य के रचनाकार, हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्थान के मंत्रदाता, हिंदुत्व के सूत्रधार वीर विनायक दामोदर सावरकर पहले ऐसे भव्य-दिव्य पुरुष, भारत माता के सच्चे सपूत थे, जिनसे अन्ग्रेजी सत्ता भयभीत थी, आजादी के बाद नेहरु की कांग्रेस सरकार भयभीत थी...
25. वीर सावरकर माँ भारती के पहले सपूत थे जिन्हें जीते जी और मरने के बाद भी आगे बढ़ने से रोका गया... पर आश्चर्य की बात यह है कि इन सभी विरोधियों के घोर अँधेरे को चीरकर आज वीर सावरकर के राष्ट्रवादी विचारों का सूर्य उदय हो रहा है..
।।वन्देमातरम।।
Source- Facebook

#VeerSavarkar 
#VeerSavarkarJayanti

Friday, May 27, 2022

पृथ्वीराज चौहान।

पुरा नाम :-          पृथ्वीराज चौहान 
अन्य नाम :-         राय पिथौरा 
माता/पिता :-       राजा सोमेश्वर चौहान/कमलादेवी
पत्नी :-               संयोगिता
जन्म :-               1149 ई.  
राज्याभिषेक :-     1169 ई.   
मृत्यु :-                1192 ई. 
राजधानी :-          दिल्ली, अजमेर
वंश :-                 चौहान (राजपूत)

आज की पिढी इनकी वीर गाथाओ के बारे मे..
 बहुत कम जानती है..!! 
तो आइए जानते है.. 
#RajputSamratPrithvirajChauhan से जुडा इतिहास एवं रोचक तथ्य,,,

''(1)  प्रथ्वीराज चौहान ने 12 वर्ष कि उम्र मे बिना किसी हथियार के खुंखार जंगली शेर का जबड़ा फाड़ 
ड़ाला था ।

(2) पृथ्वीराज चौहान ने 16 वर्ष की आयु मे ही
 महाबली नाहरराय को युद्ध मे हराकर माड़वकर पर विजय प्राप्त की थी।

(3) पृथ्वीराज चौहान ने तलवार के एक वार से जंगली हाथी का सिर धड़ से अलग कर दिया था ।

(4) महान सम्राट प्रथ्वीराज चौहान कि तलवार का वजन 84 किलो था, और उसे एक हाथ से चलाते थे ..सुनने पर विश्वास नहीं हुआ होगा किंतु यह सत्य है.. 

(5) सम्राट पृथ्वीराज चौहान पशु-पक्षियो के साथ बाते करने की कला जानते थे। 

(6) महान सम्राट पुर्ण रूप से मर्द थे ।
 अर्थात उनकी छाती पर स्तंन नही थे  ।

(8) प्रथ्वीराज चौहान 1166 ई.  मे अजमेर की गद्दी पर बैठे और तीन वर्ष के बाद यानि 1169 मे दिल्ली के सिहासन पर बैठकर पुरे हिन्दुस्तान पर राज किया।

(9) सम्राट पृथ्वीराज चौहान की तेरह पत्निया थी। 
इनमे संयोगिता सबसे प्रसिद्ध है..

(10) पृथ्वीराज चौहान ने महमुद गौरी को 16 बार युद्ध मे हराकर जीवन दान दिया था..
और 16 बार कुरान की कसम का खिलवाई थी ।

(11) गौरी ने 17 वी बार मे चौहान को धौके से बंदी बनाया और अपने देश ले जाकर चौहान की दोनो आँखे फोड दी थी ।
उसके बाद भी राजदरबार मे पृथ्वीराज चौहान ने अपना मस्तक नहीं झुकाया था।

(12) महमूद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को बंदी बनाकर  अनेको प्रकार की पिड़ा दी थी और कई महिनो तक भुखा रखा था.. 
फिर भी सम्राट की मृत्यु न हुई थी ।

(13) सम्राट पृथ्वीराज चौहान की सबसे बड़ी विशेषता यह थी की...
जन्मसे शब्द भेदी बाण की कला ज्ञात थी।
जो की अयोध्या नरेश "राजा दशरथ" के बाद..
 केवल उन्ही मे थी। 

(14) पृथ्वीराज चौहान ने महमुद गौरी को उसी के भरे दरबार मे शब्द भेदी बाण से मारा था ।
 गौरी को मारने के बाद भी वह दुश्मन के हाथो नहीं मरे.. 
 अर्थार्त अपने मित्र चन्द्रबरदाई के हाथो मरे, दोनो ने एक दुसरे को कटार घोंप कर मार लिया.. क्योंकि और कोई विकल्प नहीं था ।

दुख होता है ये सोचकर कि वामपंथीयो ने इतिहास की पुस्तकों में टीपुसुल्तान, बाबर, औरँगजेब, अकबर जैसे हत्यारो के महिमामण्डन से भर दिया और पृथ्वीराज जैसे योद्धाओ को नई पीढ़ी को पढ़ने नही दिया बल्कि इतिहास छुपा दिया....

राजपूत सम्राट पृथ्वीराज चौहान की 856 वी जन्म जयंती पर सादर नमन...💐🌼🙏

चार बांस चौबीस गज,अंगुल अष्ट प्रमाण,
ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान।”

#राजपूतसम्राटपृथ्वीराजचौहान 🏹🚩
#राजपूत_सम्राट_पृथ्वीराज_चौहान 🏹🚩
#RajputSamratPrithviRajChauhan 🏹🚩
#श्री_पृथ्वीराज_चौहान 🦁
#क्षत्रिय_धर्म_युगे_युगे 🏹

Thursday, May 26, 2022

WHAT IS LOVE SHIVA, ASKED SHAKTI.

One day Shakti was talking to Shiva about the intricate ways of love and Shiva was quietly but intently listening to her. Unexpectedly Shakti got inquisitive, sprang to Shiva’s feet, pressed her hands on his knees and asked “Tell me Adiyogi, what is love? What is it that you feel for me?”

Shiva, known for his eternal peace and little need for communication looked at Shakti, smiled dotingly and said “When you cook for me and feed me from your own hands, only to watch the contentment in my eyes which only a good meal can bring. Thats when you turn into Annapoorna and I feel love for you. In the same way when you make me the subject of your intimate desires by igniting my passion you become a Khamakhya. I feel a surge of love for you. These two feelings are best explained as love in its original form, called Bhog.

“Original form - Bhog?” probed Shakti “Is that all love is?” Shiva laughed perceptively, held Shakti’s face in his palms and said “Yes Bhog, Shakti, don’t devalue it. It is extremely gratifying for me but becomes apparent only for the body.” 

Shiva added “The other form of love that visits me is when I feel an assured influence over you. When I observe that in my company you effortlessly overlook how accomplished and powerful you are. You let me dominate you, question you, pester you and take you for granted. It is mesmerizing to see you turn into a demure Gauri. But then at times you turn into a Durga and wield brutal weaponries in order to shield me. Both these forms grant me a certain power over you. This influence makes me feel the love beyond the body. Love for the heart – Shakti.”

Now shining with the reflective glow of Shiva’s deep observations of her, Shakti asked “Ah! And is there a third form too?” Shiva smiled and added “Yes, the final and the most significant yet the masked one!” Shakti asked curiously “And what’s that?” Shiva explained “When you turn into a Kali, unafraid to show your dark skin, naked self, untamed tresses and dance on top of me. It’s an unmatchable mix of raw power and defenselessness at the same time. Your audacity with fearlessness for being mocked is hypnotic. That’s also the time you become a Sarasvati and show me the mirror of truth. I feel empowered with the grit to see the undressed-murky truth. And I feel a gush of love, the love of a beautiful mind – Darshan.”

Shakti placed her face on Shiva’s feet and said “One needs to be a Shiva to know a Shakti”. Shiva kept his hand on Shakti’s face and said “Just the way one needs to be a Shakti to know a Shiva”

Aurangzeb and his religious policies।

Take home lesson

Akbaruddin Owaisi's visit to Aurangzeb’s tomb at Khuldabad in Maharashtra's Aurangabad district has brought the historical figure into the news again. 

Owaisi once issued a controversial statement “remove police for fifteen minutes, we will teach Hindus.” Owaisi Brothers have been seen as competing with other Muslim leaders in spreading hatred against Hindus, and wanting to project themselves as 20th century Jinnah. 
Why they want to align themselves with the image of Aurangzeb is a natural question? The answer lies in the religious policies of Aurangzeb. 
Aurangzeb was a true believer in the Islamic theory of Jihad. According to Islamic theology, a true believer’s highest duty is to follow in the path of God, by waging war against infidel lands (Dar-ul-harb) until they become a part of the realm of Islam (Dar-ul-Islam) and the people are converted into ‘true believers’. 

Aurangzeb’s reputation suffered greatly in the Muslim world after he executed all his brothers and their sons and for imprisoned his father. To combat this image he became a ruthless puritan who took on the aim of restoring Islam to its original glory. 
In the beginning of his reign Aurangzeb ordered “the local officers in every town and village of Orissa from Katak to Medinipur”, to pull down all temples, including even clay huts, built during the last 10 or 12 years, and to allow no old temple to be repaired. He then proceeded to demolish many other Hindu temples in the province.

Aurangzeb decided to use all the resources of a vast empire in suppressing Hinduism and converting people to Islam. During his viceroyalty of Gujarat in 1644, he desecrated the recently built Hindu Temple of Chintaman in Ahmadabad by killing a cow in it and then turned the building into a Mosque. 

In 1661-62 a big temple was demolished at Mathura and a Jama Masjid was erected in its place in the heart of Hindu population. From April, 1665, Hindus were charged double the customs duty of that paid by Muslims on all articles brought for sale. In May 1667, Muslims were exempted from payment of customs duty altogether, while Hindus had to pay the old rate of five per cent.

In 1668 Hindu fairs and festivals were stopped. On April 9, 1669, a general order applicable to all parts of the Mughal Empire was issued “to demolish all the schools and temples of the infidels and to put down their religious teaching”. 

In January, 1670, the biggest temple of Keshav Rae at Mathura was destroyed and the city was named Islamabad. 

The destruction of Hindu places of worship was one of the chief duties of the Muhtasibs (Censors of Morals) who were appointed in all parts of the empire. Hindus employed in public services, including clerks and accountants, were dismissed in 1671. The post of Qanungo (insert meaning here) could be retained by a Hindu only if they embraced Islam. Hindus who became Muslims received stipends, rewards, government jobs, release from jails, right to ancestral property and may other privileges. 

The new converts were paraded through the streets and bazars, made to ride on elephants followed by bands and flags as a show of Islamic superiority. Jizya was charged from all Hindus from April 2, 1679.  Many Hindus, unable to pay the heavy taxes, converted to Islam to obtain relief from the insults of the debt collectors. 

In June 1680, the temples of Amber, the capital of Jaipur State, the most loyal Hindu State, were demolished. In March 1695, all the Hindus except Rajputs, were banned from riding on elephants, horses and in palanquins. They were also prohibited from carrying arms. 

Syad Muhammad Latifs writes:

“He discouraged the teaching of the Hindus, burnt to the ground the great Pagoda near Delhi, and destroyed the temple of Bishnath at Benares, and the great temple of Dera Kesu Rai at Mathura, said to have been built by Raja Narsingh Deo, at a cost of thirty-three lakhs of rupees. The gilded domes of this temple were so high that they could be seen from Agra 54 kms distant. On the site of the ruined temple, he built a vast mosque at a great cost. The richly decorated idols of the temples were removed to Agra and placed beneath the steps leading to the mosque of Nawab Begum. The name Mathura was changed into Islamabad, and was so written in all correspondence and spoken by the people. Aurangzeb had resolved that the belief in one God and the Prophet should be, not the prevailing, but the only religion of the empire of Hindustan. He issued mandates to the viceroys and governors of provinces to destroy pagodas and idols throughout his dominions. About three hundred temples in various parts of Rajputana were destroyed and their idols broken. The emperor appointed mullahs, with a party of horse attached to each, to check all ostentatious display of idol worship, and, sometime afterwards, he forbade fairs on Hindu festivals, and issued a circular to all governors and men in authority prohibiting the employment of Hindus in the offices of state immediately under them, and commanding them to confer all such offices on Mahomedans only. About the year 1690, the emperor issued an edict prohibiting Hindus from being carried in palanquins or riding on Arab horses. All servants of the state were ordered to embrace the Mahomedan religion, under pain of dismissal, those who refused were deprived of their posts. A large number of jogis, sanyasis and other religious men were driven out of the king's dominions. The emperor reduced the duty on merchandise belonging to Mahomedans to one half the amount paid by Hindus, and remitted a number of other obnoxious taxes. Following the tradition of his house, he, in 1661, married his son, Moazzam, to the daughter of Raja Rup Singh. In the 22nd year of his reign, he renewed the Jazia, or poll-tax, on Hindus, throughout his dominions. The Hindus of Delhi gathered in large numbers beneath the jharoka window, on the banks of the river, and implored his majesty to remit the obnoxious tax; but the emperor was inexorable. The Hindus adopted the expedient of closing the shops in the city, and all business came to a standstill. They thronged the bazars from the palace to the grand mosque, one Friday, with the object of seeking relief. The crowd increased every moment, and the king's equipage was interrupted at every step. He stopped for a while to hear them, but the multitude held their ground. At length under orders from the emperor, war elephants were directed against the mob, and, the retinue forcing its way through, numbers were trodden to death by horses and elephants. After this the Hindus submitted without further demur”.

 Conversion of Hindus to Islam was in full swing. Bakhtawar Khan states that Aurangzeb himself administered Kalima to prominent persons and adorned them with Khilats with his own hands.

The persecution of Hindus led to revolts by The Jats, Sainamis, Sikhs, Rajputs and Maratha.

Gokal, a Jat of Tilpat, revolted against the bigoted governor of Mathura, Abdu Nabi and shot him dead in May, 1669. Aurangzeb sent a strong force against him. After fierce resistance Gokal was defeated and hacked to pieces. Women from his family were given away to Muslims. Five thousand Jats were killed and 7,000 were taken prisoners. 

Satnamis lived in and around Narnaul. Though they dress like faqirs, most of followed agriculture or small capital trade. One day in 1672 a Mughal soldier picked up a quarrel with a Satnami and broke his head with his baton. Other Satnamis beat the soldier in return. The local officer sent a party of footmen to punish the Satnamis, who came together in retaliation, seized their arms and drove them away. About 5,000 Satnamis continued to repulse troops sent by local officers. The rebels plundered Narnaul and demolished mosques. Aurangzeb sent a artillery of 10,000 strong and after an obstinate battle, two thousand of the Satnamis fell on the battlefield. The rest were slain in the pursuit that followed and the Satnamis were wiped out, without a trace. 

Aurangzeb dealt with the Sikhs in a similar manner. In November, 1675, Guru Tegh Bahadur was called upon to embrace Islam, and on his refusal he was beheaded. His companions were cruelly murdered. The resistance against the Mughals gave an opportunity to Son of Guru Tegh Bahadur, Guru Govind Rai to transform the Sikhs into Khalsa Army. The establishment of Khalsa army and their struggle against Islam wiped out the Islamic rule form Punjab forever. 

In December, 1678, Maharaja Jaswant Singh of Jodhpur passed away. Aurangzeb immediately proceeded to annex his kingdom to the Mughal Empire and went to Ajmer in January, 1679. Jaswant Singh's two widows gave birth to sons on their way back at Lahore. One of them died soon afterwards. The other child, Ajit Singh, was detained at Delhi to be brought up in the imperial harem. “The throne of Jodhpur was offered to Ajit on condition of his turning Muslim. On the Rani's refusal, Aurangzeb ordered them to be taken under a strong escort to the prison fortress of Nurgarh.” 
Before the Mughal troops could arrive, their residence in Delhi was besieged by Raghu Nath, a noble of Jodhpur, with one hundred devoted soldiers. There were a few Mughal troopers guarding the mansion. In the melee, Durga Das slipped out with Ajit and the Ranis and rode away direct for Marwar. Jodhpur and all the great towns in the plain were pillaged, the temples were torn down and mosques erected on their sites.

The annexation of Marwar was followed by the conquest of Mewar. Aurangzeb's artillery defeated Maharana Raj Singh of Udaipur. Chitor was seized and 63 temples in the town were razed to the ground. At Udaipur 173 temples were demolished. 

Aurangzeb then turned his attention towards the Marathas. He reached Aurangabad on March 22 1682, never to return to the north, and died at the same place 25 years later. 

The great Shivaji had passed away at the age of 53 on April 4, 1680. His eldest son, Shambhuji, succeeded him. On February 1, 1689, he was captured by Aurangazeb and dragged out by his long hair. 

Twenty-five of his leading chiefs along with their wives and daughters were also captured. Shambhuji and his Prime Minister Kavikalash were dressed as buffoons with long fool's caps and bells placed on their heads, mounted on camels, and brought to Bahadurgarh with drums beating and trumpets pealing. Hundreds of thousands of spectators lined the roads to gaze at Shambhuji. Thus degraded, the captives were slowly paraded through the entire camp and finally brought to Aurangzeb who was sitting in full durbar for the occasion. 

Shambhuji did not bow before the Emperor though pressed hard by the courtiers to do so. He was immediately blinded and the tongue of Kavikalash was cut off. They were tortured for a fortnight. On March 11, 1689, their limbs were hacked to pieces, and dogs fed on their flesh. Their heads were fixed on spears and exhibited in all the major towns and cities of the Deccan with the beat of drums and blowing of trumpets. Aurangzeb then seized the surviving widows of Shivaji, wives of Shambhuji and of his younger brother Raja Ram and their sons and daughters including seven-year-old Shahu. 

With no proper leader, hundreds of Maratha chiefs at the head of their own small bands began to harass the Mughals anywhere and everywhere. It became a people's war. Aurangzeb and his generals could not be present at all places. The emperor had to face an enemy all pervasive from Bombay to Madras across the Indian Peninsula, elusive as the wind, without any headman or stronghold whose capture would naturally result in the extinction of their power. 

The Empire's leading chiefs and men suffered terribly. Porters disappeared, elephants and horses died of hunger and overwork, scarcity of grain was ever present in his camps. The endless war in the Deccan exhausted his treasury, the Government was bankrupt, and the soldiers starving from arrears of pay mutinied. 

The Marathas were supreme. They plundered Mughal territory. Their power increased under the regime of Rajaram, and after his demise, his widow Tarabai became their leader. The detritus of the Deccan war which raged intensely for nearly twenty-years, was one hundred thousand soldiers and three times that number of horses, elephants, camels and oxen on the Mughals side, every single year. 

Aurangzeb, a man who once ruled as an unchallenged Emperor from Jamrud to Cuttack was watched the destruction of his kingdom through his old eyes. He became so devastated that he confessed to his son Azam, in February 1707

“I came alone and I go as a stranger. I do not know who I am, nor what I have been doing.”

Aurangzeb’s Jihad ended, not in a glorified Islamic nation but a long-drawn-out war with no winners or losers. Peace eluded him till the very end, with records indicating that came to regret the endless destruction. 
Perhaps then, one wonders, the true lesson that we are to learn from Aurangzeb’s bloody conquests, is that violence against and the desecration of a people will never end in the way we expect. So, is Aurangzeb’s policy truly the answer?

[This article is based on book History of the Sikhs, The Sikh gurus 1469-1708, Volume 3 by Hari Ram Gupta published from Munshi Ram Manoharlal]
Dr Vivek Arya 

शिवलिंग पर पैर लगाते एक व्यक्ति।

शिवलिंग पर पैर लगाते एक व्यक्ति की तस्वीर सोशल मिडिया पर क्यों वायरल हो रही है?
जैसे ही खबर आई कि कोर्ट के आदेश पर बनी एक कमेटी की जांच में ज्ञानवापी मस्जिद के वजूखाने में एक बड़ा शिवलिंग मिला है, सोशल मीड़िया पर तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आने लगीं। कई नेताओं ने भी शिवलिंग का मजाक उड़ाया, एक प्रोफेसर ने भी ऐसा ही किया, पुलिस ने भी कई लोगों को इस मामले में जेल भेज दिया।
लेकिन एक ऐसी तस्वीर कई लोगों ने शिवलिंग की शेयर की, जो देखने में बेहद आपत्तिजनक लगती है। जिस भी शिव भक्त ने उसे देखा उसे गुस्सा आ रहा है, लेकिन चूंकि वो तस्वीर एडिट करके नहीं बनाई गई है, बल्कि मूर्ति रूप की भी तस्वीर है, सो लोग समझ नहीं पा रहे कि आखिर वो कौन होगा जिसने ये मूर्ति बनाई होगी। कोई ऐसा कैसे कर सकता है कि शिवलिंग पर पैर लगाते हुए व्यक्ति की मूर्ति बना सके?
ये तस्वीर शेयर करने वालों में सबसे प्रमुख नाम है देवदत्त पटनायक का, हिंदू पौराणिक ग्रंथों में ढूंढ़-ढूंढकर वो बातें निकालना, जो राष्ट्रवादियों की आस्था को चोट पहुंचाती हैं, ये देवदत्त को काफी पसंद आता है, अपने इस अभियान में वह कई बार गलत बातें भी शेयर कर देते हैं और फिर उनकी फजीहत भी होती है, लेकिन रुकते नहीं है। पहले देवदत्त पटनायक का ट्वीट पढ़िए...
उन्होंने लिखा है कि, ‘’Remember Kanappa today... this Nayamnar saint of South India loved Shiva in his own way.... full of love... considered superior to the Brahmin ritual performance of devotion’’। इस ट्वीट में जो उन्होंने लिखा है, उससे संदेश मिलता है कि दक्षिण भारत के ये संत शिव को इसी तरह यानी लिंग पर पैर रखकर सम्मान देते थे। आदत के मुताबिक ब्राह्मणों की आलोचना करते हुए उन्होंने ये भी लिखा है कि इसे ब्राह्मणों की पूजा से बेहतर समझा जाता था।
लेकिन उनके ट्वीट पर गौर करेंगे तो आप पाएंगे कि वह आपको पूरा सच नहीं बता रहे हैं। एक तरह से आधा सच गुमराह ही करता है। संदेश उनकी ट्वीट से ये जा रहा है संत कनप्पा इसी तरह से अपने आराध्य महादेव की पूजा करते थे, लिंग पर पैर लगाकर. जबकि ये बिलकुल भी सच नहीं है।
अकेले देवदत्त नहीं सोशल मीडिया खासतौर पर ट्विटर व फेसबुक पर बहुत से लोगों ने इस तस्वीर को शेयर किया है, किसी में इसी मुद्रा में बनी मूर्तियों की फोटो है, तो कहीं किसी चित्रकार ने पेंटिंग की तरह बनाया है। इससे ये तो पता चलता है कि कई जगह कनप्पा की शिव लिंग को पैर लगाते हुए मूर्तियां भी हैं, अगर वाकई में ऐसा है तो आज तक कोई हंगामा क्यों नहीं हुआ? कोई नाराज क्यों नहीं होता? भगवा दल वाले क्यों इस पर ऐतराज नहीं करते?
इसका मतलब साफ है कि उनको पता है कि इसमें कुछ भी विवादित नहीं है। जबकि देवदत्त जैसे तमाम लोग हैं, जो इसे गलत ना बताते हुए भी भ्रम में डालने वाला टैक्स्ट उसके साथ लिख रहे हैं। जैसे एआईएमआईएम से जुड़े मुबासिर किसी और की ऐसी ही पोस्ट शेयर करते हुए लिखते हैं कि, ‘’मुझे नहीं पता कि उत्तर भारतीयों को भक्त कनप्पा के बारे में पता भी है कि नहीं, अगर ये आज के दौर में होता तो कनप्पा के खिलाफ शिवलिंग पर पैर रखने के चलते ना जाने कितने केस हो गए होते।’’
सभी लोग कनप्पा को शिवभक्त ही बता रहे हैं, ये नहीं बता रहे कि वो अपमान कर रहे हैं, यानी कहना चाहते हैं कि ये भी एक तरीका है शिवलिंग की पूजा करने का। ये सारी कवायद इसलिए है ताकि इतने सालों तक ज्ञानवापी के वजू खाने में शिवलिंग के साथ जो भी हुआ, उसको जायज ठहराया जा सके।
संत कनप्पा उन 63 नयनार संतों में गिने जाते हैं, जो शिव के उपासक थे, व तीसरी से आठवीं शताब्दी के बीच हुए थे। जबकि अलवार संत विष्णु के उपासक थे। कनप्पा पेशे से शिकारी थे, जो बाद में संत बन गए। उनके भक्त मानते हैं कि वो पिछले जन्म में पांडवों में से एक अर्जुन थे। कनप्पा नयनार के कई नाम चलन में हैं, जैसे थिनप्पन, थिन्नन, धीरा, कन्यन, कन्नन आदि। माता पिता ने उनका नाम थिन्ना रखा था। आंध्र प्रदेश के राजमपेट इलाके में उनका जन्म हुआ था।
उनके पिता बड़े शिकारी थे और शिवभक्त थे, शिव के पुत्र कार्तिकेय को पूजते थे। कनप्पा श्रीकलहस्तीश्वरा मंदिर में वायु लिंग की पूजा करते थे, शिकार के दौरान उन्हें ये मंदिर मिला था। पांचवी सदी में बना इस मंदिर का बाहरी हिस्सा 11वीं सदी में राजेन्द्र चोल ने बनवाया था, बाद में विजय नगर साम्राज्य के राजाओं ने उसका जीर्णोद्धार करवाया।
लेकिन थिन्ना को पता नहीं था कि शिव भक्ति और पूजा के विधि विधान क्या है। किन नियमों का पालन करना है, लेकिन उनकी श्रद्धा अगाध थी। कहा ये तक जाता है कि वह पास की स्वर्णमुखी नदी से मुंह में पानी भरकर लाते थे और उससे शिवलिंग का जलाभिषेक करते थे, चूंकि शिकारी थे, सो जो भी उन्हें मिलता था, एक हिस्सा शिव को अर्पित कर देते थे, यहां तक कि एक बार सुअर का मांस भी।
लेकिन शिव अपने इस भक्त की आस्था को देखकर खुश थे, उनको पता था कि इसे पूजा करनी नहीं आती है, ना मंत्र पता हैं ना किसी तरह के विधि विधान। सैकड़ों सालों से ये कथा कनप्पा के भक्तों में प्रचलित है कि एक दिन महादेव ने उनकी परीक्षा लेने की ठानी और उन्होंने उस मंदिर में उस वक्त भूकंप के झटके दिए, जब मंदिर में बाकी साथियों, भक्तों और पुजारियों के साथ कनप्पा भी मौजूद थे।
जैसे ही भूकंप के झटके आए, लगा कि मानो मंदिर की छत गिरने वाली है, तो डर के मारे सभी भाग गए, भागे नहीं तो बस कनप्पा। उन्होंने ये किया कि अपने शरीर से शिव लिंग को पूरी तरह से ढक लिया ताकि कोई पत्थर अगर गिरे तो शिवलिंग के ऊपर ना गिरे बल्कि उनके ऊपर गिरे। इससे वह पूरी तरह सुरक्षित रहा।
शिवलिंग पर तीन आंखें बनी हुई थीं। जैसे ही भूकम्प के झटके थोड़ा थमे, कनप्पा ने देखा कि शिवलिंग पर बनी एक आंख से रक्त और आंसू एक साथ निकल रहे थे। उनकी समझ में आ गया कि किसी पत्थर से शिवजी की एक आंख घायल हो गई है। आव देखा ना ताव, कनप्पा ने फौरन अपनी एक आंख अपने एक वाण से निकालने की प्रक्रिया शुरू कर दी और उसे निकालकर शिवलिंग की आंख पर लगा दिया, जिससे उसमें से खून निकलना बंद हो गया। लेकिन थोड़ी देर बाद ही शिवलिंग की दूसरी आंख से रक्त और आंसुओं का निकलना शुरू हो गया।
तब कनप्पा ने जैसे ही दूसरी आंख निकालने की प्रक्रिया शुरू की, उनके दिमाग में आया कि जब मैं अपनी दूसरी आंख भी निकाल लूंगा तो बिलकुल अंधा हो जा जाऊंगा, ऐसे में मुझे कैसे दिखेगा कि उस आंख को शिवलिंग में कैसे लगाना है।
ऐसे में उन्हें एक उपाय सूझा, उन्होंने फौरन अपना एक पैर उठाया और पैर का अंगूठा ठीक उस आंख के पास लगा दिया, ताकि अंधा होने के बावजूद वो शिवजी की दूसरी आंख की जगह अपनी आंख लगा सके। उसी वक्त भगवान शिव प्रकट हुए और उससे खुश होकर उसकी आंखें एकदम ठीक कर दीं। यही वो घटना थी, जिसके चलते थिन्ना को नया नाम कनप्पा मिला था।
इसी मौके की वो तस्वीर या मूर्तियां हैं, कि कैसे वह एक हाथ में वाण से आंख निकालेंगे, दूसरे हाथ से उसे पकड़ेंगे तो जहां से आंख निकालनी है, उस जगह को कैसे चिन्हित करेंगे, तो पैर का अंगूठा उस मासूम भक्त ने शिवलिंग पर रखा, इस काम के लिए था। लेकिन जितने भी लोग शेयर करे रहे हैं, चाहे वो देवदत्त पटनायक ही क्यों ना हो, किसी को ये नहीं बता रहे कि शिव भगवान ने उनकी भक्ति की परीक्षा ली थी और ये बस एक पल का वाकया था, ना कि रोज कनप्पा ऐसा किया करते थे. लेकिन इससे सच्चाई बाहर आ जाती और उनमें से बहुत से लोग ये चाहते भी नहीं।
- विष्णु शर्मा

Wednesday, May 25, 2022

कश्मीर फाइल्स और छद्म अम्बेडकरवादी।

विवेक रंजन अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित फिल्म कश्मीर फाइल्स का सेकुलरवादी, शांतिदूत, साम्यवादी, लिब्रान्डु, जेनयू के अधेड़ों की जमात द्वारा सोशल मीडिया में विरोध लाजमी हैं। पर हैरानी तब हुई जब विरोध करने वालों में छद्म अम्बेडकरवादी भी शामिल थे। कुछ वर्षों से महान विचारक श्री पुष्पेंदर कुलश्रेष्ठ जी द्वारा सार्वजनिक मंचों से कश्मीर में पिछले 70 वर्षों से शांति-दूतों का दलितों पर किये जा रहे अत्याचारों का वर्णन हम सुन रहे है। इस अत्याचार का कोई भी छद्म अम्बेडकरवादी कभी वर्णन नहीं करता। 

1940 के दशक में पंजाब से  अनेकों दलित परिवारों को ले जाकर कश्मीर में बसाया गया था। इन परिवारों से केवल शांति-दूतों के घर-ऑफिस आदि की सफाई का काम लिया जाता था। यह दस्तूर तीन पीढ़ियों तक जारी था।  70 साल गुजर जाने के बाद भी इन परिवारों को सफाई कर्मचारी के अतिरिक्त अन्य किसी सरकारी नौकरी करने का, किसी बड़े कॉलेज में उच्च शिक्षा लेने का अधिकार नहीं था। उन्हें कश्मीर का मूल निवासी ही नहीं समझा जाता था।  यह तो धारा 370 के समाप्त होने के बाद ही उन्हें समान अवसर मिलना आरम्भ हुआ। जय भीम-जय मीम का नारा लगाना वाले सभी नेताओं के मुंह में इस विषय पर दही जैम जाती हैं।  यही नेता कश्मीर फाइल्स का पुरजोर विरोध करते मिलते हैं। उसका कारण इनका इतिहास के एक सत्य से अपरिचित होना भी है। कश्मीरी में रहने वाले हिन्दू को कश्मीरी पंडित कहा जाता है।  उन्हें कश्मीरी हिन्दू नहीं कहा जाता। क्यों? इसका उत्तर आपको जानने के लिए कश्मीर के इतिहास में जाना पड़ेगा जो राजतरंगिणी में मिलता हैं। 

कश्मीर के इतिहास में अन्धकार के अनेक काल है। एक दौर में यहाँ के मुस्लिम शासक का नाम सिकंदर था। वो हिन्दुओं के प्रति इतना द्वेष रखता था कि हिन्दू मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ना दीन की सेवा समझता था। इसीलिए उसका नाम सिकंदर 'बुतशिकन' अर्थात मूर्तियों का संहार करने वाला प्रसिद्ध हो गया। उस समय का कश्मीर हिंदुओं की शिकारगाह बन चुका था। हिंदू महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार और उसके उपरांत भी उनके सम्मान से खेलते नरपिशाचों को देखकर हर पिता का या पति का या पुत्र का कलेजा निकल जाता था। ऐसे ही अमानवीय और पाशविक अत्याचारों से उस समय का हिंदू समाज जिस प्रकार चीख और चिल्ला रहा था उसे देखकर पाषाण हृदय भी पिघल जाता था, पर मुस्लिम अत्याचारी थे कि उनको तनिक भी दया नहीं आती थी। यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि उस समय मुस्लिम नर-पिशाचों के अत्याचार अपने चरम पर थे। जबरन मुसलमान बनाना आये दिन की बात थी।  इन अत्याचारों से तंग आकर कश्मीर के हिन्दू घाटी छोड़कर इधर उधर विस्थापित हो गए। कश्मीर की जनसंख्या में भारी  कमी हुई। विद्या, व्यापार, कला आदि गुणों से सुशोभित जनता विस्थापित होने से राज्य उजड़ गया। 
             समय ने फेर खाया।  सिकंदर का दूसरा पुत्र सुल्तान जैनुल आब्दीन सन 1420 ईस्वी में कश्मीर का शासक बना, तो उसने अपने पिता के द्वारा हिंदुओं के विरुद्ध किए गए अत्याचारों के लिए प्रायश्चित्त किया। यह एक उदार और दयालु शासक था । वास्तव में यह सुल्तान भारत में मुस्लिम इतिहास में हुए बहुत से बादशाहों, नवाबों व सुलतानों में से एक अपवाद है । इतिहासकार श्रीवर ने भी इस उदार मुस्लिम शासक के विषय में लिखा है कि :- '(इसे ऐसे मानो) जैसे रेगिस्तान की गर्मी के विदा हो जाने के पश्चात किसी ने चंदन का लेप लगा दिया हो।'

 शासन सूत्र संभालने के 2 वर्ष पश्चात ही जैनुल- आब्दीन को सीने में एक खतरनाक फोड़ा बन गया था। मुस्लिम हकीमों के द्वारा जब उसका कोई उपचार नहीं किया जा सका।  सरकारी दमन के कारण कश्मीर से विष के ज्ञाता वैद्य पलायन कर चुके थे। राज्य के कर्मचारियों ने अंततः विष का प्रभाव दूर करने वाले श्रीभट्ट नामक व्यक्ति को ढूंढ निकाला। वैद्य राज पंडित श्रीभट्ट आयुर्वेद के महान ज्ञाता थे।  वह घाव भरने का उपचार भी भली प्रकार जानता जानते थे। परंतु भय के कारण श्रीभट्ट ने आने में देर लगी। जब वह पहुंचा तो राजा ने उनका उत्साह बढ़ाया। श्रीभट्ट ने अपनी चिकित्सा राजा के विषैले फोड़े को पूर्णतया ठीक कर दिया।"

    जब सुल्तान ठीक हो गया तो उसने हीरे, जवाहरात आदि देकर वैद्यराज को पुरस्कृत करना चाहा। परंतु वैद्यराज पंडित श्रीभट्ट ने ऐसा कोई पुरस्कार लेने के स्थान पर सुल्तान से आग्रह किया कि वह उदार होकर शासन करें और अपनी हिंदू प्रजा के साथ भी न्याय करने का प्रयास करें । श्रीभट्ट ने राजा को उसका राजधर्म समझाया और बताया कि किस प्रकार हिंदू परंपरा में राजा अपनी प्रजा के कल्याण को ही अपना सर्वोपरि कर्तव्य और धर्म मानता है ?  यदि आप भी इस प्रकार शासन करेंगे तो निश्चय ही आपका हिंदू प्रजा स्वागत व सम्मान करेगी । अपने इस महान कार्य के माध्यम से आप यश और कीर्ति को प्राप्त करेंगे। राजा पर पंडित श्रीभट्ट की इस प्रकार की उपदेशात्मक बातें बड़ी अच्छी लगीं। उसने उपकार भरे हृदय से उसकी बातों को बड़े ध्यान से सुना और उन पर कार्य करने का भी मन बना लिया। 

डॉ_विवेक_आर्य

कश्मीर के शासक ने कश्मीर को उसका पुराना वैभव और गौरव लौटाने का निर्णय लिया। जो लोग अब से पहले कश्मीर छोड़कर इधर - उधर जाकर बस गए थे या इधर-उधर बिखर गए थे, इस शासक ने उन सबको बुलाने का निर्णय लिया। सुल्तान के इन उदारता पूर्ण कार्यों का हिंदुओं ने ह्रदय से स्वागत किया। कश्मीर की घाटियों में लगी आग के बीच उन्हें सुल्तान के इस प्रकार के आचरण से ठंडी-ठंडी वायु के झोंके आते हुए प्रतीत हुए। स्मरण रहे कि सुल्तान को इस प्रकार के आचरण करने के लिए वैद्य राज पंडित श्रीभट्ट ने विशेष रूप से प्रेरित किया था। 

   'राजतरंगिणी' से हमें ज्ञात होता है कि वैद्यराज पंडित श्रीभट्ट ने सुल्तान के समक्ष प्रस्ताव रखा कि वह किसी भी हिंदू को मात्र धार्मिक विद्वेष के आधार पर किसी प्रकार का दंड ना दे। जितने हिंदू मंदिर तोड़े गए हैं उन्हें फिर से बनवाने का प्रयास करे, जो हिंदू अपने मूल धर्म में लौटना चाहते हैं- उन्हें लौटने की आज्ञा दे, इसके अतिरिक्त जो हिंदू कश्मीर को छोड़कर अन्य प्रदेशों में चले गए हैं उन्हें भी वहां से अपने घरों के लिए वापस लाने का प्रबंध किया जाए, हिंदू छात्रों को विकास और उन्नति के सभी अवसर उपलब्ध कराये जाएं, जिन हिंदुओं पर 'जजिया' लगाया गया है उनसे वह भी हटा दिया जाए, गोवध पर पूर्ण पाबंदी लगाई जाए, इसके अतिरिक्त हिंदुओं को अपने धार्मिक अनुष्ठान करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की जाए और जिन - जिन पुस्तकालयों को जला दिया गया है उनका जीर्णोद्धार कराया जाए।  इस प्रकार उस समय दर-दर की ठोकरें खाने वाले हिंदू समाज के लोगों के लिए वैद्यराज पंडित श्रीभट्ट उद्धारक का रूप बनकर प्रकट हुए। बताया जाता है कि सुल्तान ने वैद्यराज पंडित श्रीभट्ट के इन सभी प्रस्तावों को सहर्ष स्वीकार कर लिया। जिससे कश्मीर में फिर से नई हवा बहती हुई प्रतीत होने लगी।
   
शुद्ध होकर अपने पूर्वजों के वैदिक धर्म में वापिस आने वाले कश्मीरी हिन्दुओं के सामने एक समस्या आई। उन्हें कौन सा वर्ण दिया जाये। तब वैद्यराज पण्डित श्रीभट्ट ने उन सबको एक ही वर्ण स्वीकार करने हुए 'पंडित' नाम से सुशोभित किया। पंडित श्रीभट्ट की उदारता, दूर-दृष्टि और विशाल-हृदयता से प्रभावित होकर उस समय के सारे हिंदू समाज ने उनकी बात को स्वीकार किया। उन लोगों ने अपने जातीय स्वरूप या पहचान को समाप्त कर अपने आपको पंडित ही कहना और लिखना आरंभ किया। आज भी हम कश्मीर के रहने वाले हिन्दू लोगों को कश्मीरी हिंदू ना कहकर 'कश्मीरी पंडित' के नाम से पुकारते हैं। आज के आन्दोलनजीवी इस इतिहास से अनभिज्ञ होकर पंडित उपनाम देखकर कश्मीर हिन्दू का विरोध आरम्भ कर देते है।  उन्हें लगता है कि वे इस प्रकार से ब्राह्मणवाद, मनुवाद का विरोध कर रहे  है। खैर सत्य देर से ही सही सामने अवश्य आता है। ईश्वर सभी को सद्बुद्धि दे।

नमाज़ वैदिक संध्या से उत्तम कैसे हैं?

शंका- वैदिक संध्या प्रातः: और सांय दो बार करने का प्रावधान बताया गया हैं। जबकि नमाज़ एक दिन में पाँच बार करने का प्रावधान बताया गया है। इससे तो यह सिद्ध होता है कि नमाज़ वैदिक संध्या से उत्तम हैं क्योंकि पाँच बार करने से उसका प्रभाव अधिक रहेगा।

समाधान-
1. दो बार वैदिक संध्या करने का प्रावधान इसलिए रखा गया है क्योंकि प्रातः: करी गई संध्या से प्रातः: से सांय तक परमेश्वर का स्मरण करते हुए उत्तम आचरण करने की प्रेरणा मिलती हैं और सांय करी गई संध्या से सांय से प्रातः: तक परमेश्वर का स्मरण करते हुए उत्तम आचरण करने की प्रेरणा मिलती हैं।

2. वैदिक संध्या पूर्णतः वैज्ञानिक और प्राचीन काल से चली आ रही हैं। यह ऋषि-मुनियों के अनुभव पर आधारित हैं जबकि नमाज तो केवल पिछले 1400 वर्षों में एक मत से सम्बंधित कल्पित पद्यति हैं। इस्लाम की स्थापना से पूर्व लोग ईश्वर उपासना किस प्रकार करते थे इस पर इस्लाम मौन हैं।

3 . नमाज़ का इतिहास पढ़े तो अल्लाह ने आदम को एक दिन में हज़ारों बार नमाज़ पढ़ने को कहा। मुहम्मद साहिब ने उनसे सिफारिश करके उसे एक दिन में पाँच बार सीमित करने निवेदन किया। अब यह प्रसंग कल्पित सिद्ध होता है। क्या इस्लाम का ईश्वर इतना अपरिपक्व और अज्ञानी हैं कि वह यह भी नहीं जानता कि एक दिन में हज़ारों बार नमाज़ पढ़ना मनुष्य के लिए संभव नहीं हैं? फिर मुहम्मद साहिब के माध्यम से सुलहनामा कराना यह सिद्ध करता हैं यह मुहम्मद साहिब का महिमा मंडन (Marketing Agenda) करने की सोची समझी रणनीति हैं। निष्पक्ष लोग इसे नबी को अल्लाह से अधिक महत्व देना कहेंगे।

4. वैदिक संध्या की विधि से उसके प्रयोजन पर प्रकाश पड़ता है। मनुष्य में शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, चित और अहंकार स्थित हैं। वैदिक संध्या में आचमन मंत्र से शरीर, इन्द्रिय स्पर्श और मार्जन मंत्र से इन्द्रियाँ, प्राणायाम मंत्र से मन, अघमर्षण मंत्र से बुद्धि, मनसा-परिक्रमा मंत्र से चित और उपस्थान मंत्र से अहंकार को सुस्थिति संपादन किया जाता है। फिर गायत्री मंत्र द्वारा ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना और उपासना की जाती हैं। अंत में ईश्वर को नमस्कार किया जाता हैं।

यह पूर्णतः वैज्ञानिक विधि हैं जिससे व्यक्ति धार्मिक और सदाचारी बनता हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करता हैं।

नमाज अरबी भाषा में होने के कारण विश्व के 99.9% मुसलमानों को समझ ही नहीं आती। दूसरा वह कल्पित हैं इसलिए उसके प्रयोजन और उद्देश्य का ज्ञान होना उनके लिए असंभव हैं। मुल्ला मौलवियों को भी उसका अर्थ और प्रयोजन नहीं मालूम। सम्भवत इसीलिए इस्लाम में क़ुरान की मान्यताओं पर प्रश्न करने पर मनाही है। ऐसे में स्वतंत्र चिंतन के स्थान पर भेड़चाल अधिक दिखती है। तीसरा इस्लाम में जीवन का उद्देश्य मोक्ष के स्थान पर भोग है। जन्नत, हूरें, मीठे पानी के चश्मे, शराब की नहरें, गिलमान। क्या इन्हें आप जीवन का उद्देश्य मानते हैं? यह किसी रेगिस्तान में रहने वाले निर्धन चरवाहे का सुनहरी ख़्वाब लगता हैं। वैज्ञानिक वैदिक संध्या के समक्ष नमाज़ केवल प्रयोजन रहित भेड़चाल सिद्ध होती हैं।

5. वैदिक ईश्वर की स्तुति करने का उद्देश्य ईश्वर के समान न्यायकारी, दयालु, सत्यवादी, श्रेष्ठ कर्म करने वाला बनना हैं। इस्लाम का ईश्वर अशक्त प्रतीत होता है। उसे अपना ज्ञान बार बार बदलना पड़ता हैं। कभी तौरेत, कभी जबूर, कभी इंजील और अंत में क़ुरान दिया। इस्लाम के ईश्वर को अपना पैगाम देने के लिए 4 लाख फरिश्ते चाहिए। वैदिक ईश्वर को कोई मध्यस्थ नहीं चाहिए। इस्लाम का ईश्वर चौथे आसमान पर विराजमान है। उनसे मिलने के लिए लड़की के सर और पंख वाला उड़ने वाला बराक गधा चाहिए। जो केवल मुहम्मद साहिब को नसीब था। इसलिए मुसलमानों को जीवन भर नबी से अधिक रसूल की खुशामद करनी पड़ती हैं। वैदिक ईश्वर हमारे हृदय में आत्मा में स्थित है। इसलिए स्वयं में पूर्णतः: सक्षम और सर्वशक्तिमान है। किसी पर निर्भर नहीं हैं। इस्लाम का ईश्वर मुहम्मद साहिब से सिफारिश स्वीकार करता है। वैदिक ईश्वर किसी भी मनुष्य के कर्मों के अनुसार फल देता हैं। कोई पक्षपात नहीं। इसलिए नमाज़ खुद से अधिक रसूल की खुशामद सिद्ध होती हैं। नमाज में एक अशक्त अल्लाह की इबादत है जबकि वैदिक संध्या में सर्वशक्तिमान ईश्वर की उपासना हैं।

उपरोक्त कारणों से वैदिक संध्या केवल और केवल ईश्वर की आराधना होने के कारण नमाज से श्रेष्ठ सिद्ध होती हैं।

Monday, May 23, 2022

मंदिर चाहिये या रोजगार ?

इस प्रश्न में दूषित मानसिकता छिपी है। लेकिन क्या इसका उत्तर वही है, जो हम दे रहे है।

पिछले दिनों मैं अपने परिवार के साथ मंदिर गया ।पूजा से पहले दुकान से प्रसाद लिया , चढ़ाने के लिए माला ली । हम तो तुरंत दर्शन कर लिये , बाकी लोग विधि विधान के साथ पूजा पाठ कर रहे थे। 

जिज्ञासु प्रवृत्ति से मैं मंदिर के चारों तरफ घूमने लगा। हर दुकान , हर ठेलिया को देखे कौन क्या बेच रहा है।
फिर सब लोग एक जगह चाट खाये , एक जगह जलेबी , फिर एक दुकान से महिलाओं ने अपने लिए श्रृंगार आदि के सामान लिए फिर आगे आकर सब लोग चाय पीये।

फिर अचानक ध्यान आया यह मंदिर दो से ढाई हजार लोगों को रोजगार दे रहा है। यह काम तो हजार करोड़ लगाकर कोई कम्पनी नहीं कर सकती है।

लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात है। मंदिर किसको रोजगार दे रहा है ! यह वह लोग है ,जिनके पास किसी संस्थान से डिग्री नहीं है। इतना धन नहीं है कि कोई बड़ा निवेश कर सकें। अर्थव्यवस्था में समाज के निचले स्तर के लोग है।
*मंदिर*
*करोड़ो लोगों को रोजगार देते हैं।*
*कैसे...... ????*

१.धार्मिक पुस्तक बेचने वालों को और उन्हें छापने वालों को रोजगार देते हैं।

२. माला बेचने वालों को घंटी-शंख और पूजा का सामान बेचने वालों को रोजगार देते हैं।

३. फूल वालों को माला बनाने और किसानों को रोजगार देते हैं।

४. मूर्तियां-फोटुएं बनाने और बेचने वालों को रोजगार देते हैं।

५. मंदिर प्रसाद बनाने और बेचने वालों को रोजगार देते हैं।

६. कांवड़ बनाने-बेचने वालों को भी रोजगार देते हैं।

७. रिक्शे वाले गरीब लोग जो कि धार्मिक स्थल तक श्रद्धालुओं को पहुंचाते हैं उन रिक्शा और आटो चालकों को रोजगार देते हैं।

८. लाखों  पुजारियों को भी रोजगार देते हैं।

९. रेलवे की अर्थव्यवस्था का १८% हिस्सा मंदिरों से चलता है।

१०. मंदिरों के किनारे जो गरीबों की छोटी-छोटी दुकानें होती है उन्हें भी रोजगार मिलता है।

११. मंदिरों के कारण अंगूठी-रत्न बेचने वाले गरीबों का परिवार भी चलता है।

१२. मंदिरों के कारण दिया बनाने और कलश बनाने वालों को भी तो रोजगार मिलता है।

१३. मंदिरो से उन ६५,००० खच्चर वालों को रोजगार मिलता है जो किश्रद्धालुओ श्रद्धालुओं को दुर्गम पहाड़ों पर प्रभु के द्वार तक ले जाते हैं।

१४. भारत में दो लाख से अधिक जो भी होटल हैं और धर्मशालाएं हैं उनमें रहने वाले लोगों को मंदिर ही तो रोजगार देतें हैं।

१५. तिलक बनाने वाले- नारियल और सिंदूर आदि बेचने वालों को भी ये मंदिर रोजगार देते हैं।

१६. गुड-चना बनाने वालों को भी मंदिर रोजगार देते हैं।

१७. मंदिरों के कारण लाखों अपंग और भिखारियों और अनाथ बच्चों को रोजी-रोटी मिलती है।

१८. मंदिरों के कारण लाखों वानरों की रक्षा होती है और सांपों की हत्या होने से बचती है।

१९. मंदिरों के कारण ही हिंदू धर्म में पीपल-बरगद -पिलखन- आदिहै वृक्षों की रक्षा होती है।

२०. मंदिर के कारण जो हजारों मेले हर वर्ष लगते हैं- मेलों में जो चरखा-झूला चलाने वालों को भी तो रोजगार मिलता है।

२१. मंदिरों के कारण लाखों टूरिस्ट मंदिरों में घूमते हैं और छोटे-छोटे चाय-पकौडे-टिक्की बेचने वाले सभी गरीबों का जीवन यापन भी तो चलता है।

सनातन धर्म उन करोड़ों लोगों को रोजगार देता है जो गरीब हैं।
जो ज्यादा पड़े लिखे नहीं हैं और जिन के पास धन-जमीन और खेती नहीं है जो बचपन में अनाथ हो गए।

जिनका कोई नहीं उनका राम है।
उनका श्याम है उनका शिव है।

यह मंदिर कई सौ वर्ष तक रहेगा।
तब तक रोजगार देता रहेगा।

यह सामाजिक , धार्मिक उन्नयन का केंद्र है।
यदि आर्थिक दृष्टि से देखे तो मंदिर , अपने निवेश से कई हजार गुना रोजगार दे रहा है।
शायद हमनें अपनी धार्मिक आस्था के कारण इसको देखा नहीं। हमारे मंदिर , आर्थिक वितरण के बहुत बड़े , स्थाई केंद्र है।
🚩🚩🌶️ 🚩🚩🌱

Sunday, May 22, 2022

वाल्मीकि रामायण।

मूल्य . ₹450 + डाक खर्च ₹40=490₹
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श्रीराम द्वारा दी गई शिक्षाएं

●निर्मर्यादस्तु पुरुष: पापाचारसमन्वित:।
मानं न लभते सत्सु भिन्नचारित्रदर्शन:।।
जो मनुष्य मर्यादारहित, पापचरण से युक्त और साधु-सम्मत शास्त्रों के विरुद्ध आचरण करनेवाला है वह सज्जन पुरुषों में सम्मान प्राप्त नहीं कर सकता।
●कुलीनमकुलीनं वा वीरं पुरुषमानिनम्।
चारित्रमेव व्याख्याति शुचिं वा यदि वाऽशुचिम्।।
कुलीन अथवा अकुलीन, वीर हैं अथवा भीरु, पवित्र हैं अथवा अपवित्र- इस बात का निर्णय चरित्र ही करता है।
●ऋषयश्चैव देवाश्च सत्यमेंव हि मेनिरे।
सत्यवादी हि लोकेऽस्मिन परमं गच्छति क्षयम।।
ऋषि और विद्वान् लोग सत्य ही उत्कृष्ट मानते हैं, क्योंकि सत्यवादी पुरुष ही इस संसार में अक्षय [परान्तकाल तक] मोक्ष सुख को प्राप्त होते हैं।
●उद्विजन्ते यथा सर्पान्नरादनृतवादिन:।
धर्म: सत्यं परो लोके मूलं स्वर्गस्य चोच्यते।।
मिथ्यावादी पुरुष से लोग वैसे ही डरते हैं, जैसे सर्प से। संसार में सत्य ही सबसे प्रधान धर्म माना गया है। स्वर्ग प्राप्ति का मूल साधन भी सत्य ही है।
●सत्यमेवेश्वरो लोके सत्यं पद्माश्रिता सदा।
सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्।।
संसार में सत्य ही ईश्वर है। सत्य ही लक्ष्मी= धन-धान्य का निवास है। सत्य ही सुख-शान्ति एवं ऐश्वर्य का मूल है। संसार में सत्य से बढ़कर और कोई वस्तु नहीं है।
●दत्तामिष्टं हुतं चैव तप्तानि च तपांसि च।
वेदा: सत्यप्रतिष्ठानास्तस्मात्सत्यपरो भवेत्।।
दान, यज्ञ, हवन, तपश्चर्या द्वारा प्राप्त सारे तप और वेद- ये सब सत्य के आश्रय पर ही ठहरे हुए हैं, अत: सभी को सत्यपरायण होना चाहिए।
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मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम

 तपः स्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम्। 
नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुंगवम्॥१॥ 
तप और स्वाध्याय में निरत, वक्ताओं में चतुर एवं मुनियों में श्रेष्ठ नारदजी से तपस्वी वाल्मीकि मुनि ने पूछा-
🔥कोन्वस्मिन्साम्प्रतं लोके गुणवान्कश्च वीर्यवान्। 
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः॥२॥ 
भगवन्! इस समय इस संसार में गुणवान्, शूरवीर, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी और दृढ़-प्रतिज्ञ कौन है ? 
🔥चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः। 
विद्वान्कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः ॥३॥ 
सदाचार से युक्त, सब प्राणियों का हित करने वाला, विद्वान्, सामर्थ्यवान् और प्रिय-दर्शन कौन है ? 
🔥आत्मवान्को जितक्रोधो द्युतिमान्कोऽनसूयकः। 
कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे॥४॥ 
धैर्ययुक्त, काम-क्रोधादि शत्रुओं का विजेता, कान्तियुक्त, ईर्ष्या तथा निन्दा न करनेवाला तथा युद्ध में क्रुद्ध होने पर देवताओं को भी भयभीत करनेवाला कौन है? 
🔥एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे। 
महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवं विधं नरम्॥५॥ 
हे महर्षे ! ऐसे गुणों से युक्त व्यक्ति के सम्बन्ध में जानने की मुझे उत्कट अभिलाषा है और आप इस प्रकार के मनुष्य को जानने में समर्थ हैं। 
🔥श्रुत्वा चैतत् त्रिलोकज्ञो वाल्मीके रदो वचः। 
श्रूयतामिति चामन्त्र्य प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत्॥६॥ 
यह सुन, तीनों लोको का वृत्तान्त जाननेवाले देवर्षि नारद प्रसन्न होकर कहने लगे - 
🔥बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणाः। 
मुने वक्ष्याम्यहं बुद्ध्वा तैर्युक्तः श्रूयतां नरः ॥७॥
हे मुने! आपने जिन बहुत-से तथा दुर्लभ गुणों का वर्णन किया है, उनसे युक्त मनुष्य के सम्बन्ध में सुनिए-मैं सोच-विचार के पश्चात् कहता हूँ।। 
🔥इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः। 
नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान्धृतिमान्वशी॥८॥ 
इक्ष्वाकु-वंश में उत्पन्न, राम नाम से लोगों में विख्यात, श्रीरामचन्द्र नियतस्वभाव (मन को वश में रखनेवाले) अतिबलवान्, तेजस्वी, धैर्यवान् और जितेन्द्रिय हैं। 
🔥बुद्धिमान्नीतिमान्वाग्मी श्रीमाञ्छत्रुनिबर्हणः। 
विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवो महाहनुः॥९॥ 
🔥महोरस्को महेष्वासो गूढजत्रुररिन्दमः। 
आजानुबाहुः सुशिराः सुललाटः सुविक्रमः॥१०॥ 
वे श्रीराम बुद्धिमान्, नीतिज्ञ, मधुरभाषी, श्रीमान्, शत्रुनाशक, विशाल कन्धोंवाले, गोल तथा मोटी भुजाओंवाले, शंख के समान गर्दनवाले, बड़ी ठोड़ीवाले और बड़े भारी धनुष को धारण करनेवाले हैं। उनके गर्दन की हड्डियाँ मांस से छिपी हुई हैं । वे शत्रु का दमन करनेवाले हैं। उनकी भुजाएँ घुटनों तक लटकती हैं। उनका सिर सुन्दर एवं सुडौल है, माथा चौड़ा है। वे अच्छे विक्रमशाली हैं। 
🔥समः समविभक्ताङ्गः स्निग्धवर्णः प्रतापवान्। 
पीनवक्षा विशालाक्षो लक्ष्मीवाञ्छुभलक्षणः ॥११॥
उनके अङ्गों का विन्यास सम है। वे न बहुत छोटे हैं, न बहुत बड़े। उनके शरीर का रंग चिकना एवं सुन्दर है। वे बड़े प्रतापी हैं। उनकी छाती उभरी हुई है और नेत्र विशाल हैं। उनके सब अङ्ग-प्रत्यङ्ग सुन्दर हैं और वे शुभ लक्षणों से सम्पन्न हैं। 
🔥धर्मज्ञः सत्यसन्धश्च प्रजानां च हिते रतः। 
यशस्वी ज्ञानसम्पन्नः शुचिर्वश्यः समाधिमान्॥१२॥ 
वे धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ, परोपकारी, कीर्तियुक्त, ज्ञाननिष्ठ, पवित्र, जितेन्द्रिय और समाधि लगानेवाले। 
🔥प्रजापतिसमः श्रीमान्धाता रिपुनिषूदनः। 
रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता ॥१३॥ 
🔥रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता। 
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः॥ १४॥ 
वे प्रजापति ब्रह्मा के समान प्रजा के रक्षक, अतिशोभावान् और सबके पोषक हैं । वे शत्रुओं का नाश करनेवाले हैं। वे प्राणिमात्र के रक्षक और धर्म के प्रवर्तक हैं। वे अपने प्रजा-पालनरूप धर्म के रक्षक, स्वजनों के पालक, वेद और वेदाङ्गों के मर्मज्ञ तथा धनुर्वेद में निष्णात हैं (शास्त्र और शस्त्र दोनों में प्रवीण हैं)। 
🔥सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः स्मृतिमान्प्रतिभानवान्। 
सर्वलोकप्रियः साधुरदीनात्मा विचक्षणः ॥१५॥ 
वे सब शास्त्रों के तत्त्वों को भली-भाँति जाननेवाले, उत्तम स्मरणशक्ति से युक्त, प्रतिभा-शाली (सूझ -बूझवाले), सर्वप्रिय, सज्जन, कभी दीनता न दिखाने वाले और लौकिक तथा अलौकिक क्रियाओं में कुशल हैं। 
🔥सर्वदाभिगतः सद्भिः समुद्र इव सिन्धुभिः। 
आर्य: सर्वसमश्चैव सदैव प्रियदर्शनः ॥१६॥ 
जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में पहुँचती हैं उसी प्रकार उनके पास सदा सज्जनों का समागम लगा रहता है। वे आर्य हैं, वे समदृष्टि हैं और सदा प्रियदर्शन हैं।
🔥स च सर्वगुणोपेतः कौसल्यानन्दवर्धनः। 
समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव ॥१७॥ 
🔥विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शनः। 
कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः। 
धनदेन समस्त्यागे सत्ये धर्म इवापरः॥ १८॥ 
वे सब गुणों से युक्त और कौसल्या के आनन्द को बढ़ानेवाले हैं। वे गम्भीरता में समुद्र के समान, धैर्य में हिमालय के तुल्य, पराक्रम में विष्णु के सदृश, प्रियदर्शन में चन्द्रमा-जैसे, क्षमा में पृथिवी की भाँति और क्रोध में कालाग्नि के समान हैं। वे दान में कुबेर के समान और सत्य-भाषण में मानो दूसरे धर्म हैं।

गाँधी का पर्दाफाश।

आपने बहुत से देशों में से नए देशों का निर्माण देखा होगा, U S S R टूटने के बाद बहुत से नए देश बने, जैसे ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान आदि ... परन्तु यह सब देश जो बने वो एक परिभाषित अविभाजित सीमा के अंदर बने l

और जब भारत का विभाजन हुआ .. तो क्या कारण थे की पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान बनाए गए... क्यों नही एक ही पाकिस्तान बनाया गया... या तो पश्चिम में बना लेते या फिर पूर्व में l

परन्तु ऐसा नही हुआ .... यहाँ पर उल्लेखनीय है की मोहनदास करमचन्द ने तो यहाँ तक कहा था की पूरा पंजाब पाकिस्तान में जाना चाहिए, बहुत कम लोगों को ज्ञात है की 1947 के समय में पंजाब की सीमा दिल्ली के नजफगढ़ क्षेत्र तक होती थी ...

यानी की पाकिस्तान का बोर्डर दिल्ली के साथ होना तय था ... मोहनदास करमचन्द के अनुसार l

नवम्बर 1968 में पंजाब में से दो नये राज्यों का उदय हुआ .. हिमाचल प्रदेश और हरियाणा l

पाकिस्तान जैसा मुस्लिम राष्ट्र पाने के बाद भी जिन्ना और मुस्लिम लीग चैन से नहीं बैठे ...

उन्होंने फिर से मांग की ... की हमको पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान जाने में बहुत समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं l

1. पानी के रास्ते बहुत लम्बा सफर हो जाता है क्योंकि श्री लंका के रस्ते से घूम कर जाना पड़ता है l

2. और हवाई जहाज से यात्राएं करने में अभी पाकिस्तान के मुसलमान सक्षम नही हैं l इसलिए .... कुछ मांगें रखी गयीं 1. इसलिए हमको भारत के बीचो बीच एक Corridor बना कर दिया जाए....

2. जो लाहोर से ढाका तक जाता हो ... (NH - 1)

3. जो दिल्ली के पास से जाता हो ...

4. जिसकी चौड़ाई कम से कम 10 मील की हो ... (10 Miles = 16 KM)

5. इस पूरे Corridor में केवल मुस्लिम लोग ही रहेंगे l

30 जनवरी को गांधी वध यदि न होता, तो तत्कालीन परिस्थितियों में बच्चा बच्चा यह जानता था की यदि मोहनदास करमचन्द 3 फरवरी, 1948 को पाकिस्तान पहुँच गया तो इस मांग को भी ...मान लिया जायेगा l

तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार तो मोहनदास करमचन्द किसी की बात सुनने की स्थिति में था न ही समझने में ...और समय भी नहीं था जिसके कारण हुतात्मा नाथूराम गोडसे जी को गांधी वध जैसा अत्यधिक साहसी और शौर्यतापूर्ण निर्णय लेना पडा l

हुतात्मा का अर्थ होता है जिस आत्मा ने अपने प्राणों की आहुति दी हो .... जिसको की वीरगति को प्राप्त होना भी कहा जाता है l

यहाँ यह सार्थक चर्चा का विषय होना चाहिए की हुतात्मा पंडित नाथूराम गोडसे जीने क्या एक बार भी नहीं सोचा होगा की वो क्या करने जा रहे हैं ?

किसके लिए ये सब कुछ कर रहे हैं ?

उनके इस निर्णय से उनके घर, परिवार, सम्बन्धियों, उनकी जाती और उनसे जुड़े  संगठनो पर क्या असर पड़ेगा ?

घर परिवार का तो जो हुआ सो हुआ .... जाने कितने जघन्य प्रकारों से समस्त परिवार और सम्बन्धियों को प्रताड़ित किया गया l

परन्तु ..... अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले मोहनदास करमचन्द के कुछ अहिंसक आतंकवादियों ने 30 जनवरी, 1948 की रात को ही पुणे में 6000 ब्राह्मणों को चुन चुन कर घर से निकाल निकाल कर जिन्दा जलाया l

10000 से ज्यादा ब्राह्मणों के घर और दुकानें जलाए गए l

सोचने का विषय यह है की उस समय संचार माध्यम इतने उच्च कोटि के नहीं थे, विकसित नही थे ... फिर कैसे 3 घंटे के अंदर अंदर इतना सुनियोजित तरीके से इतना बड़ा नरसंहार कर दिया गया ....

सवाल उठता है की ... क्या उन अहिंसक आतंकवादियों को पहले से यह ज्ञात था की गांधी वध होने वाला है ?

जस्टिस खोसला जिन्होंने गांधी वध से सम्बन्धित केस की पूरी सुनवाई की... 35 तारीखें पडीं l

अदालत ने निरीक्षण करवाया और पाया हुतात्मा पनदिर नाथूराम गोडसे जी की मानसिक दशा को तत्कालीन चिकित्सकों ने एक दम सामान्य घोषित किया l  पंडित जी ने अपना अपराध स्वीकार किया पहली ही सुनवाई में और अगली 34  सुनवाइयों में कुछ नहीं बोले ... सबसे आखिरी सुनवाई में पंडित जी ने अपने शब्द कहे ""

गाँधी वध के समय न्यायमूर्ति खोसला से नाथूराम ने अपना वक्तव्य स्वयं पढ़ कर सुनाने की अनुमति मांगी थी और उसे यह अनुमति मिली थी | नाथूराम गोडसे का यह न्यायालयीन वक्तव्य भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था |इस प्रतिबन्ध के विरुद्ध नाथूराम गोडसे के भाई तथा गाँधी वध के सह अभियुक्त गोपाल गोडसे ने ६० वर्षों तक वैधानिक लडाई लड़ी और उसके फलस्वरूप सर्वोच्च न्यायलय ने इस प्रतिबन्ध को हटा लिया तथा उस वक्तव्य के प्रकाशन की अनुमति दे दी। नाथूराम गोडसे ने न्यायलय के समक्ष गाँधी वध के जो १५० कारण बताये थे उनमें से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं -

1. अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (1919) से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के खलनायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाए। गान्धी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से मना कर दिया।

2. भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गान्धी की ओर देख रहा था कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचाएं, किन्तु गान्धी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकार कर दिया। क्या आश्चर्य कि आज भी भगत सिंह वे अन्य क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहा जाता है।

3. 6 मई 1946 को समाजवादी कार्यकर्ताओं को अपने सम्बोधन में गान्धी ने मुस्लिम लीग की हिंसा के समक्ष अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।

4.मोहम्मद अली जिन्ना आदि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए 1921 में गान्धी ने खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की। तो भी केरल के मोपला में मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग 1500 हिन्दु मारे गए व 2000 से अधिक को मुसलमान बना लिया गया। गान्धी ने इस हिंसा का विरोध नहीं किया, वरन् खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के रूप में वर्णन किया।

5.1926 में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या अब्दुल रशीद नामक एक मुस्लिम युवक ने कर दी, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गान्धी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दु-मुस्लिम एकता के लिए अहितकारी घोषित किया।

6.गान्धी ने अनेक अवसरों पर छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरू गोविन्द सिंह जी को पथभ्रष्ट देशभक्त कहा।

7.गान्धी ने जहाँ एक ओर काश्मीर के हिन्दु राजा हरि सिंह को काश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निज़ाम के शासन का हिन्दु बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।

8. यह गान्धी ही था जिसने मोहम्मद अली जिन्ना को कायदे-आज़म की उपाधि दी।

9. कॉंग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिए बनी समिति (1931) ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गाँधी कि जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।

10. कॉंग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से कॉंग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गान्धी पट्टभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहा था, अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पदत्याग कर दिया।

11. लाहोर कॉंग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।

12. 14-15 जून, 1947  को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कॉंग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी ने वहाँ पहुंच प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।

13. मोहम्मद अली जिन्ना ने गान्धी से विभाजन के समय हिन्दु मुस्लिम जनसँख्या की सम्पूर्ण अदला बदली का आग्रह किया था जिसे गान्धी ने अस्वीकार कर दिया।

14. जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे ने सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और 13 जनवरी 1948 को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।

15. पाकिस्तान से आए विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।

16. 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने काश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउँटबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को 55 करोड़ रुपए की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन किया- फलस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी।

उपरोक्त परिस्थितियों में नथूराम गोडसे नामक एक देशभक्त सच्चे भारतीय युवक ने गान्धी का वध कर दिया।

न्य़यालय में चले अभियोग के परिणामस्वरूप गोडसे को मृत्युदण्ड मिला किन्तु गोडसे ने न्यायालय में अपने कृत्य का जो स्पष्टीकरण दिया उससे प्रभावित होकर उस अभियोग के न्यायधीश श्री जे. डी. खोसला ने अपनी एक पुस्तक में लिखा-

"नथूराम का अभिभाषण दर्शकों के लिए एक आकर्षक दृश्य था। खचाखच भरा न्यायालय इतना भावाकुल हुआ कि लोगों की आहें और सिसकियाँ सुनने में आती थींऔर उनके गीले नेत्र और गिरने वाले आँसू दृष्टिगोचर होते थे। न्यायालय में उपस्थित उन प्रेक्षकों को यदि न्यायदान का कार्य सौंपा जाता तो मुझे तनिक भी संदेह नहीं कि उन्होंने अधिकाधिक सँख्या में यह घोषित किया होता कि नथूराम निर्दोष है।"

तो भी नथूराम ने भारतीय न्यायव्यवस्था के अनुसार एक व्यक्ति की हत्या के अपराध का दण्ड मृत्युदण्ड के रूप में सहज ही स्वीकार किया। परन्तु भारतमाता के विरुद्ध जो अपराध गान्धी ने किए, उनका दण्ड भारतमाता व उसकी सन्तानों को भुगतना पड़ रहा है। यह स्थिति कब बदलेगी?

प्रश्न यह भी उठता है की पंडित नाथूराम गोडसे जी ने तो गाँधी वध किया उन्हें पैशाचिक कानूनों के द्वारा मृत्यु दंड दिया गया परन्तु नाना जी आप्टे ने तो गोली नहीं मारी थी ... उन्हें क्यों मृत्युदंड दिया गया ?

नाथूराम गोडसे को सह अभियुक्त नाना आप्टे के साथ १५ नवम्बर १९४९ को पंजाब के अम्बाला की जेल में मृत्यु दंड दे दिया गया। उन्होंने अपने अंतिम शब्दों में कहा था...

यदि अपने देश के प्रति भक्तिभाव रखना कोई पाप है तो मैंने वो पाप किया है और यदि यह पुन्य हिया तो उसके द्वारा अर्जित पुन्य पद पर मैं अपना नम्र अधिकार व्यक्त करता हूँ
 
*– पंडित नाथूराम गोडसे*

*आशा है कि लोग पंडित नाथूराम को समझे व् जानें। प्रणाम हुतात्मा को।*

भारत माता की जय