Sunday, April 30, 2023

चोटी

जब भी कोई  "चोटी" और "जनेऊ" को देखता है तो उनके मन में एक धारणा होती है कि ये ब्राह्मण है, और कई तो पूछ भी लेते है कि आप ब्राह्मण हो क्या?

लेकिन उन्हें जब पता चलता है कि ये जाट, गुर्जर,  यदुवंशी, सैनी, बनिया, क्षत्रिय, वाल्मीकि, वनवासी तो वो पूछते है दूसरे कास्ट होकर "चोटी" क्यों रखते हो?

अब यहाँ एक सवाल खड़ा होता है!

क्या आप कभी किसी सरदार जी से पूछते हो कि "पगड़ी" क्यो बांधते हो?

किसी मौलाना  से पूछते हो "टोपी" क्यों पहनते हो?

किसी ईसाई से पूछते हो यीशु का लोकेट क्यों पहनते हो?

सोच विचार कर देखिए आज कितने हिन्दू चोटी रखते है? कितने जनेऊ पहनते है?

कितने वेद, शास्त्र, उपनिषद, दर्शन, रामायण, महाभारत, सत्यार्थ प्रकाश, गीता आदि ग्रन्थ पढ़ते है?

हमारे पतन का कारण हम स्वयं है!

समाज में मुश्किल से कुछ प्रतिशत लोग है जो अपनी पहचान बनाए हुए है! उन्हें भी लोग अलग ही नजरिए से देखते है!

किसी अन्य को दोष देने से बेहतर है अपने आप मे सुधार करें, अपनी आने वाली पीढ़ी को संस्कारित करें। उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाए अपने धर्म और संस्कृति को और ज्यादा गहराई से जानने के लिए अपने आस-पास के मंदिरों में जाएं वहां होने वाली गतिविधियों में भाग ले और अपने श्रेष्ठ ऋषियों-महर्षियों की विद्या यानी वेद विद्या को जानकर अपनी महान सनातन संस्कृति को अपनाएं

जय श्री राम...🙏🏻

Saturday, April 29, 2023

हनुमान चालीसा के कुछ रोचक तथ्य।

1. चालीसा 40 चौपाई का एक संग्रह होता है जो किसी भक्त द्वारा उपासना के साथ किसी देवता की कृति की प्रशंसा करने के लिए गाया जाता है।

2. हनुमान चालीसा का गान/रचना 16वीं सदी में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा हनुमान जी की उपासना में एक कारावास में किया गया था।

3. तुलसीदास को रामायण की रचना करने वाले वाल्मीकि का अवतार माना जाता है। इसलिए माना जाता है कि हनुमान चालीसा रामायण रचने वाले उसी व्यक्ति द्वारा लिखा गया है।

4. कुछ ऐतिहासिक खातों में बताया गया है कि अकबर ने फतेहपुर सीकरी में तुलसीदास को कैद कर दिया था क्योंकि अकबर ने उनसे अपनी तारीफ में कुछ लिखने को कहा था। तुलसीदास ने इससे भी इनकार कर दिया। उसके बाद अकबर ने तुलसीदास से कहा कि वह उन्हें राम को एक चमत्कार के जरिए दिखा दे। तुलसीदास ने भी इसे इनकार कर दिया और कहा, "राम को केवल सच्ची उपासना से ही देखा जा सकता है।"

5. उसके बाद अकबर ने तुलसीदास को कैद में डाल दिया। इसके अलावा, कुछ ऐतिहासिक खाते में बताया जाता है कि उनकी कैद में तुलसीदास ने हनुमान चालीसा बनाई और 40 दिन तक उसे जाप किया। 40 वें दिन, एक बंदरों की एक बड़ी भीड़ नगर में आ गई और फतेहपुर सीकरी के सभी कोनों में हाहाकार मचा दिया ।

6. हनुमान चालीसा के आरंभ में 2 दोहे होते हैं, फिर 40 चौपाई आते हैं, और अंत में एक दोहा होता है।

7. यह माना जाता है कि हनुमान चालीसा का जप नकारात्मक तरंगों को दूर कर देता है। हनुमान चालीसा में कई चौपाई ऐसी मानी जाती हैं जो हनुमान जी की दिव्य ज्ञान को उनके भक्तों तक पहुँचाती हैं और उन्हें नकारात्मक ऊर्जाओं और विचारों से सुरक्षित रखने में समर्थ बनाती हैं।

8. एक अचंभित करने वाली बात यह है की हनुमान चालीसा में धरती और सूर्य के बीच की दूरी का एकदम सही उल्लेख मिलता है।

Friday, April 28, 2023

भागीरथ!

वर्ष 1899-1900 में राजस्थान में एक बदनाम अकाल पड़ा था...

विक्रम संवत १९५६ (1956) में ये अकाल पड़ने के कारण राजस्थान में इसे छप्पनिया-काळ कहा जाता है...

एक अनुमान के मुताबिक इस अकाल से राजस्थान में लगभग पौने-दो करोड़ लोगों की मृत्यु हो गयी थी...
पशु पक्षियों की तो कोई गिनती नहीं है...
लोगों ने खेजड़ी के वृक्ष की छाल खा-खा के इस अकाल में जीवनयापन किया था...

यही कारण है कि राजस्थान के लोग अपनी बहियों (मारवाड़ी अथवा महाजनी बही-खातों) में पृष्ठ संख्या 56 को रिक्त छोड़ते हैं...
छप्पनिया-काळ की विभीषिका व तबाही के कारण राजस्थान में 56 की संख्या अशुभ मानी है....

इस दौर में बीकानेर रियासत के यशस्वी महाराजा थे... 
गंगासिंह जी राठौड़(बीका राठौड़ अथवा बीकानेर रियासत के संस्थापक राव बीका के वंशज)....

अपने राज्य की प्रजा को अन्न व जल से तड़प-तड़प के मरता देख गंगासिंह जी का हृदय द्रवित हो उठा.... 

गंगासिंह जी ने सोचा क्यों ना बीकानेर से पँजाब तक नहर बनवा के सतलुज से रेगिस्तान में पानी लाया जाए ताकि मेरी प्रजा को किसानों को अकाल से राहत मिले...

नहर निर्माण के लिए गंगासिंह जी ने एक अंग्रेज इंजीनियर आर जी कनेडी (पँजाब के तत्कालीन चीफ इंजीनियर) ने वर्ष 1906 में इस सतलुज-वैली प्रोजेक्ट की रूपरेखा तैयार की...

लेकिन....
बीकानेर से पँजाब व बीच की देशी रियासतों ने अपने हिस्से का जल व नहर के लिए जमीन देने से मना कर दिया.... 
नहर निर्माण में रही-सही कसर कानूनी अड़चनें डाल के अंग्रेजों ने पूरी कर दी...

महाराजा गंगासिंह जी ने परिस्थितियों से हार नहीं मानी और इस नहर निर्माण के लिए अंग्रेजों से एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी और जीती भी...

बहावलपुर (वर्तमान पाकिस्तान) रियासत ने तो अपने हिस्से का पानी व अपनी ज़मीन देने से एकदम मना कर दिया...

महाराजा गंगासिंह जी ने जब कानूनी लड़ाई जीती तो वर्ष 1912 में पँजाब के तत्कालीन गवर्नर सर डैंजिल इबटसन की पहल पर दुबारा कैनाल योजना बनी...

लेकिन...
किस्मत एक वार फिर दगा दे गई...
इसी दरमियान प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था...

4 सितम्बर 1920 को बीकानेर बहावलपुर व पँजाब रियासतों में ऐतिहासिक सतलुज घाटी प्रोजेक्ट समझौता हुआ...

महाराजा गंगासिंह जी ने 1921 में गंगनहर की नींव रखी...

26 अक्टूम्बर 1927 को गंगनहर का निर्माण पूरा हुआ....

हुसैनवाला से शिवपुरी तक 129 किलोमीटर लंबी ये उस वक़्त दुनियाँ की सबसे लंबी नहर थी...

गंगनहर के निर्माण में उस वक़्त कुल 8 करोड़ रुपये खर्च हुए...

गंगनहर से वर्तमान में 30 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है...

इतना ही नहीं...
वर्ष 1922 में महाराजा गंगासिंह जी ने बीकानेर में हाई-कोर्ट की स्थापना की... 
इस उच्च-न्यायालय में 1 मुख्य न्यायाधीश के अलावा 2 अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति भी की...

इस प्रकार बीकानेर देश में हाई-कोर्ट की स्थापना करने वाली प्रथम रियासत बनी...

वर्ष 1913 में महाराजा गंगासिंह जी ने चुनी हुई जनप्रतिनिधि सभा का गठन किया...

महाराजा गंगासिंह जी ने बीकानेर रियासत के कर्मचारियों के लिए एंडोमेंट एश्योरेंस स्कीम व जीवन बीमा योजना लागू की...

महाराजा गंगासिंह जी ने निजी बैंकों की सुविधाएं आम नागरिकों को भी मुहैय्या करवाई...

महाराजा गंगासिंह जी ने बाल-विवाह रोकने के लिए शारदा एक्ट कड़ाई से लागू किया....

महाराजा गंगासिंह जी ने बीकानेर शहर के परकोटे के बाहर गंगाशहर नगर की स्थापना की....

बीकानेर रियासत की इष्टदेवी माँ करणी में गंगासिंह जी की अपने पूर्व शासकों की भाँति अपार आस्था थी... 
इन्होंने देशनोक धाम में माँ करणी के मंदिर का जीर्णोद्धार भी करवाया...

महाराजा गंगासिंह जी की सेना में गंगा-रिसाला नाम से ऊँटों का बेड़ा भी था... 
इसी गंगा-रिसाला ऊँटों के बेड़े के साथ महाराजा गंगासिंह जी ने प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध में अदम्य साहस शौर्य वीरता से युद्ध लड़े... 
इन्हें ब्रिटिश हुकूमत द्वारा उस वक़्त सर्वोच्च सैन्य-सम्मान से भी नवाजा गया...

गंगासिंह जी के ऊँटों का बेड़ा गंगा-रिसाला आज सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) की शान है.... व देश सेवा में गंगा-रिसाला हर वक़्त मुस्तैद है....

(बीकानेर महाराजा करणीसिंह... निशानेबाजी में भारत के प्रथम अर्जुन पुरस्कार विजेता)...

(वर्तमान में करणीसिंह जी की पौत्री व बीकानेर राजकुमारी सिद्धि कुमारी जी बीकानेर से भाजपा विधायक है)....

कहते हैं माँ गंगा को धरती पे राजा भागीरथ लाये थे इसलिए गंगा नदी को भागीरथी भी कहा जाता है...

21 वर्षों के लंबे संघर्ष और कानूनी लड़ाई के बाद महाराजा गंगासिंह जी ने अकाल से जूझती बीकानेर/राजस्थान की जनता के लिए गंगनहर के रूप रेगिस्तान में जल गंगा बहा दी थी...

गंगनहर को रेगिस्तान की भागीरथी कहा जाता है...

इसलिए...
महाराजा गंगासिंह जी को मैं कलयुग का भागीरथ कहूँ तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी!!!!....

चित्र- इंदिरा गांधी  नहर परियोजना की खुदाई के दुर्लभ चित्र उस समय ऊँटगाड़ो की सहायता से नहर खुदाई का कार्य सम्पन्न हुआ था। नमन है उन कामगारों को जिनकी मदद से आज वीरान राजस्थान हरा भरा हुआ है

रितेश प्रज्ञांश की वाल से.......

Wednesday, April 26, 2023

शरिया-फरिया जैसा कोई कानून नहीं रहेगा श्रीलंका में.

बचपन में एक बिल्ली हमारे घर में रोज आ जाया करती थी.

हालांकि, बिल्ली को शेर की प्रजाति का माना जाता है लेकिन बिल्ली बहुत ही डरपोक जीव होती है और जरा सा आवाज होते ही वो तुरत भाग जाती है.

तो, हमारे यहाँ आने वाली बिल्ली भी आवाज होते ही तुरत भाग जाती थी.

लेकिन, मुसीबत ये थी कि वो फिर आ जाती थी.

उसकी इस आदत को देखकर मैं बहुत चिढता था.

और, एक दिन मैंने बिल्ली को सबक सिखाने की ठानी.

मैंने दूध का कटोरा किचेन से हटाकर एक रूम में रख दिया.

और, मैं एक डंडे के साथ छुप कर बिल्ली के आने का इंतजार करने लगा ताकि जब वो आये तो रूम बंद करके उसे दमभर डंडे से मारूं.

लेकिन, बिल्ली आने से पहले भैया आ गए और मेरी इस तरह की तैयारी देखकर उसका कारण पूछा.

कारण जानकर वे मुझे बहुत डांटने लगे और बताया कि बिल्ली को रूम बंद करके मारने का प्लान एकदम बेहूदा प्लान है.

क्योंकि, बिल्ली भले ही स्वभाव से डरपोक होती है लेकिन जब उसे भागने का रास्ता नहीं मिलेगा और उसके जान पर बन आएगी तो फिर वो खूंखार हो जाएगी तथा वो तुमपर हमला कर देगी.

फिर, बिल्ली के तेज दांत और तीखे नाखून से तुम्हारा बच पाना संभव नहीं होगा.

इसके बाद मैंने बिल्ली को पीटने का प्लान त्याग दिया और भैया ने खिड़की में जाली लगवा कर इस समस्या को सॉल्व कर दिया.

तो... कहने का मतलब है कि.... जब किसी के पास बचने का कोई उपाय नहीं बचता है तो अंतिम उपाय के तौर पर डरपोक से डरपोक तथा शांत से शांत प्रजाति भी खूंखार हो जाती है.

उदाहरण के तौर पर... बौद्ध एक शांत एवं अहिंसक धर्म माना जाता है.

लेकिन, मियाँ मार देश के असिन बिराथु की ही तरह ... बौद्ध भिक्षु गलागोदा अथ्थे ज्ञानसारा थेरो के नाम से श्रीलंका में मुतलिमों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है..

और, इनका ये रूप मुतलिमों के अतिवादी रवैये ने बनाने पर मजबूर कर दिया.

लंका में भड़के दंगे, मधरसों में दी जाने वाले शिक्षा और कट्टरपंथी मुतलिमों के कारण ज्ञानसारा मैदान में कूदे.. 

और, ऐसा कूदे कि सबकी नानी याद दिला दी.

अभी श्रीलंका सरकार 'वन कंट्री वन लॉ' याने 'एक देश एक कानून' के ऊपर कार्य कर रही है.. 

यानि कि... सीधा संदेश है कि शरिया-फरिया जैसा कोई कानून नहीं रहेगा श्रीलंका में.

राजपक्षे सरकार ने इसके लिए 13 सदस्यीय टीम भी गठित कर दिया है.

और, मजे की बात ये है कि इस टीम का नेतृत्व ज्ञानसारा ही कर रहे हैं. 

मतलब कि इस टीम के प्रमुख ज्ञानसारा जी हैं.

और, इन्होंने साफ कह दिया है कि बुर्का का चलन श्रीलंका में नहीं होगा...

साथ, ही हजारों इ स्लामिक स्कूलों को बंद कर दिया जाएगा क्योंकि श्रीलंका की शिक्षा नीति में इनका कोई योगदान नहीं है.

राजपक्षे के हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी... 

क्योंकि, जब पूरी दुनिया इसके खिलाफ हो गई थी तब भी ये अपने देश से लिट्टे को जड़ से उखाड़ फेंकने में कोई कोताही नहीं बरती.. 
तथा, दुनिया को ठेंगे पे रख के सारा झंझट ही खत्म कर दिया.

और... अब ये इसमें लग गए हैं. 

इसमें भी, सबसे सुलगाने वाला काम ये कि इतने बड़े कानून बनाने वाली टीम का प्रमुख सबसे स्पष्ट और उग्र चेहरे को बना दिया है.

ये देखने वाली बात होगी कि भारत में कब इस तरह का कोई धर्मगुरु खड़ा होकर उत्पात मचा रहे कटासुर पर लगाम लगाता है.

क्योंकि, जब अंतिम विकल्प के तौर पर बिल्ली और बौद्ध जैसे शांत लोग भी आक्रामक हो सकते हैं तो फिर तो हम हिन्दू शेर ही हैं...
जिनका पूरा इतिहास ही राक्षसों और असुरों के वध से पटा पड़ा है.

जय महाकाल...!!!
चेतावनी : धर्मांतरित नीले beemte दूर रहें

Thursday, April 20, 2023

अतीक अहमद:- आरंभ से अंत तक.

अहमद पर आने से पहले समझिए कि "चांद बाबा" क्या था ? तब पोस्ट सही से समझ में आएगी।

दरअसल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से उथल पुथल शहर के हम्माम गली में रहने वाला "शौक ए इलाही उर्फ चांद हड्डी" हार्डकोर क्रिमिनल था , उसके जुर्म का इतिहास सराए गढ़ी के हमाम गली में झाड़ फूंक करने वाले एक बाबा की हत्या से शुरू हुआ, चांद हड्डी को शक था कि उसके बड़े भाई रहमत की मौत बाबा के झाड़ फूंक की वजह से हुई है।

इस घटना से चांद हड्डी, चांद बाबा बन गया , चांद बाबा के खिलाफ शाहगंज थाने में एफआईआर दर्ज हुई और चांद बाबा को गिरफ्तार करके नैनी जेल भेज दिया गया।

जेल से जमानत पर छूटते ही चांद बाबा अपने बड़े भाई रहमत के करीबी दोस्त को गोलियों से भून दिया। क्योंकि चांद बाबा को शक था कि यह खास दोस्त भी रहमत की मौत का ज़िम्मेदार है।

यहां से शुरू होता है चांद बाबा के जुर्म का दौर और चांद बाबा ने तीसरी हत्या अपने वकील की ही कर दी जब वकील की उसके साथ किसी बात पर बहस हो गई। वकील का सीना पहले चांद बाबा ने गोलियों से छलनी किया फिर बम मार कर उसके शव को चिथड़े चिथड़े कर दिया।

चांद बाबा के खिलाफ मुकदमों की फेहरिस्त लंबी होती चली गई और चांद बाबा ने सरेंडर कर दिया।

चांद बाबा को नैनी सेंट्रल जेल भेज दिया गया, नैनी सेंट्रल जेल में चांद बाबा की एक मांग ना मांगे जाने पर चांद बाबा ने जेल में रहते हुए अपने साथी जग्गा के साथ नैनी सेंट्रल जेल के जेलर पर बमों से हमला करवा दिया‌।

कुछ दिनों के बाद चांद बाबा ज़मानत पर बाहर आ चुका था , चांद बाबा अपने गैंग का विस्तार करने लगा और कुछ ही समय में उसके गैंग में 100 से 150 शातिर अपराधी और बमबाज शामिल हो गए और यह इलाहाबाद के तमाम मुहल्ले तक फैल गये।

उसी समय गढ़ी सराय में चकलाघर चलते थे , इसके संचालक थे "अच्छे" और उसका भाई "लड्डन"। यह छोटे मोटे बदमाश थे जो वैश्यावृत्ति की दलाली किया करते थे‌। 

मुहल्ले वालों के निवेदन पर चांद बाबा ने मोर्चा संभाला और अच्छे ऐंड ब्रदर्स के साथ भयंकर बमबाजी हुई। और अंत में चांद बाबा ने इस इलाके से वैश्याओं के घरों पर बम मार मार कर मीरगंज तक भगा दिया और सरायगढ़ी क्षेत्र खाली हो गया। और इससे चांद बाबा का प्रभाव शहर में और बढ़ गया।

चांद बाबा का नाम शहर की हर अपराधिक घटना में आने लगा और पुलिस तथा प्रशासन की नाक में चांद बाबा ने दम कर दिया।

पुलिस ने चांद बाबा को पकड़ने का प्रयास शुरू किया , उस समय शहर के कोतवाल आए नवरंग सिंह ने जून 1986 के एक दिन सारे थानों की पुलिस बुलाकर चांद बाबा की घेराबंदी शुरू कर दी। मगर चांद बाबा और उसके गैंग के सभी लोग बमबाजी करते हुए पुलिस को चकमा देकर भाग निकले।

इससे गुस्से में आया चांद बाबा अगले ही दिन अपने गैंग के साथ शहर कोतवाली पर ही धावा बोल दिया और कोतवाली पर इतने बम बरसाए कि बमों की मार से शहर कोतवाली दहल गयी। पुलिस ने किसी तरह कोतवाली का गेट बंद करके अपनी जान बचाई।

कोतवाली पर आक्रमण से गुस्से में आई पुलिस और चांद बाबा के बीच चूहे बिल्ली का खेल शुरू हो गया और पुलिस ने चांद बाबा के घर के पास हम्माम गली में ही एक पुलिस चौकी स्थापित की जिसे कुछ ही दिनों में चांद बाबा और उसके गैंग ने बमों से उड़ा दिया।

पुलिस पर दोहरे आक्रमण से पुलिस ने अब चांद बाबा के खिलाफ कार्रवाई को अपने मान सम्मान से जोड़ लिया और ताबड़तोड़ छापेमारी करने लगी।

तब शहर उत्तरी के तत्कालीन कांग्रेस विधायक ने चांद बाबा को अपने पास बुलाया और उन्हें सरेंडर करने की सलाह दी और 1988 में चांद बाबा सरेंडर करके जेल चला गया।

जेल से ही 1989 के सभासद के चुनाव में चांद बाबा ने नामांकन कर दिया और जीत दर्ज की और कुछ ही दिनों बाद चांद बाबा को सशर्त जमानत मिल गई और नैनी जेल से चांद बाबा को लेने शहर से भारी हुजूम उमड़ पड़ा।

अतीक अहमद खुद खुली जिप्सी में चांद बाबा को नैनी जेल से पूरे जुलूस के साथ लेकर शहर आए।

1989 के शुरुआती दिनों तक ज़िले के दो दबंग अपराध के आरोप लिए और कानून को चुनौती देते अतीक अहमद और चांद बाबा इलाहाबाद में चर्चित हो चुके थे , और तब तक इलाहाबाद दंगों का इतिहास समेटे हुए चल रहा था।

जो लोग इलाहाबाद को जानते हैं वह इलाहाबाद की भौगोलिक स्थिति को भी जानते होंगे, इलाहाबाद जंक्शन सिटी साईड के सामने मुख्य सड़क लीडर रोड आगे बढ़ती हुई जानसेनगंज तक जाती है और फिर हिवेट रोड से होती हुई यह रामबाग तक पहुंचती है , इलाहाबाद से गुज़रने वाली यह दूसरी जीटी रोड है। पहली जीटी रोड चौक नखास कोहना, खुल्दाबाद,हिम्मत गंज और चकिया होकर निकलती है।

यह सड़क इलाहाबाद को दो हिस्सों में बांटती है , इसके दाहिनी तरफ मुसलमान बहुल इलाके आते हैं और दूसरी तरफ हिन्दू बहुल इलाके आते हैं।

इन मुहल्लों में अक्सर दंगे हो जाते थे जो बहुत बड़े तो नहीं पर शहर को अस्थिर करने के लिए काफ़ी थे।

शौक ए इलाही उर्फ चांद बाबा घनघोर धार्मिक व्यक्ति था , इलाहाबाद में हुए अक्सर दंगों में वह शामिल रहता था।

इलाहाबाद रेलवे स्टेशन और चौक से 2 किमी और दूर ही मुस्लिम बहुल इलाके में उत्तर प्रदेश आवास विकास परिषद की कालोनी है , "करैली" अर्थात गुरु तेग बहादुर नगर।

1979 में बनी शहर के सबसे करीब यह कालोनी अपने निर्माण से ही हिंदू और सिख बहुल थी। इसी कालोनी के बीच में वक्फ़ बोर्ड का एक बहुत पुराना कब्रिस्तान है जिसमें मौजूद मस्जिद के इक्सटेंशन को लेकर अक्सर शहर का माहौल खराब होता था।

सरकार का कहना था कि आवास विकास परिषद की कालोनी में कानूनन सार्वजनिक धार्मिक स्थल प्रतिबंधित है तो मुस्लिम लोगों का‌ दावा था कि चुंकि यह ज़मीन और कब्रिस्तान वक्फ़ बोर्ड की है इसलिए हम इसपर कुछ भी निर्माण कर सकते हैं।

चुंकि यह कालोनी मुस्लिम क्षेत्र में थी और 99% मुस्लिम मुहल्लों के बीच थी तो धीरे धीरे हिंदू और सिख भाई लोग अपना मकान बेच बेच कर यहां से जाने लगे।

फिर 1984 के सिख विरोधी दंगों‌ ने सिख भाइयों को यहां से घर बेचकर जाने को मजबूर कर दिया।

फिर संभवतः 1985 या 1986 के एक दिन शौक ए इलाही उर्फ चांद बाबा ने ऐलान किया कि शहर से करैली को जोड़ने वाली नूरुल्लाह रोड को ब्लाक करके 24 घंटे के अंदर मस्जिद के निर्माण को पूरा किया जाएगा , जो भी इसके बीच में आएगा बम से मारा जाएगा।

पूरे शहर में भारी सांप्रदायिक तनाव और डर फैल गया था और चांद बाबा और उसके गैंग के लोगों ने वैसा ही किया और नूरूल्लाह रोड को 24 घंटे के लिए ब्लॉक कर दिया और लगातार बम बरसाते रहे तथा उस मस्जिद में 24 घंटे के अंदर कुछ नवनिर्माण करा दिए गए , 24 घंटे के बाद भारी पुलिस बल के साथ आवास विकास परिषद के लोगों ने मस्जिद का कुछ नवनिर्मित हिस्सा हटा भी दिया।

मगर इस घटना से करैली से गैरमुस्लिमों का पलायन‌ शुरू होने लगा, यह सभी लोग मुसलमानों को औने पौने दामों में अपने मकान और जमीन बेचकर जाने लगे।

1988 तक चांद बाबा के सभासद बनने के बाद शांतिप्रिय लोगों को शहर में सांप्रदायिक झड़प और दंगों का डर सताने‌ लगा।

उलट खोपड़ी और सनकी "चांद बाबा" क्या ऐलान कर दे यह उस दौर में हर एक को डराने लगा और गैर मुस्लिम लोग करैली छोड़ कर जाने लगे।

डरते डरते शहर के सामने आ गया 1989 का विधान सभा चुनाव, और अतीक अहमद ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर नामांकन कर दिया।

अतीक अहमद को नामांकन करता देख आगबबूला "चांद बाबा" ने भी ऐलान कर दिया कि वह भी विधायक का निर्दलीय उम्मीदवार होगा और अगले दिन ही उसने भी नामांकन कर दिया।

अतीक अहमद ने चांद बाबा को समझाने की कोशिश की , कि मुस्लिम वोट बंट जाएंगे , तो चांद बाबा गालियां देते हुए कहता कि "ठीक है चलो तुम नामांकन वापस लेलो , विधायक मैं बनूंगा। तुम जाहिल अनपढ़ विधायक बन कर क्या करोगे ?" 

और इसी से अतीक अहमद और चांद बाबा के संबंध खराब हो गये और दोनों दबंग लठैत विधानसभा के चुनाव में आमने सामने थे।

चुनाव प्रचार शुरू हो चुका था, अतीक अहमद इस चुनाव में नियंत्रित रहते तो चांद बाबा बेहद आक्रामक।

शहर पश्चिमी विधानसभा चुनाव के प्रचार में शहर के अटाला , बुड्ढा ताज़िया , अकबरपुर, करैली में स्टेज से ही चांद बाबा अतीक अहमद को गालियां देता , अनपढ़ गंवार कह कर मज़ाक उड़ाता और इसी सबके बीच दोनों की दुश्मनी बढ़ती गयी।

अतीक अहमद के समर्थन में चांद बाबा से पीड़ित लोग आने लगे, प्रशासन और नेता अतीक अहमद के पक्ष में आने लगे जिसमें शहर उत्तरी से विधायक का चुनाव लड़ रहे उस समय शहर की एक बड़ी हस्ती भी थे जिनकी प्रशासन पर तगड़ी पकड़ थी।

अपनी कमज़ोर होती स्थिति देखकर चांद बाबा बौखलाने लगा और स्टेज से गालियां बढ़ती चली गयीं। और फिर आ गया मतदान का दिन अर्थात 22 नवंबर 1989

उस दिन "चांद बाबा" पर सनक सवार थी , हर पोलिंग बूथ पर चांद बाबा जाकर गाली गलौज करता और दोपहर बाद वह पहुंच गया शहर पश्चिमी विधानसभा की सबसे बड़े पोलिंग स्टेशन "अटाला" के मजीदिया इस्लामिया इंटर कालेज।

उसे किसी ने बताया कि यहां पर अतीक अहमद के समर्थन में फर्जी वोटिंग हो रही है , और‌ उसने वहां सबसे पहले मौजूद पुलिस के आला अधिकारियों के साथ बत्तमीज़ी और गाली गलौज की , कुछ लोगों का कहना था कि उसने पुलिस के एक आला अधिकारी की कालर पकड़ कर चुनाव बाद वर्दी उतार लेने की धमकी दी।

तभी उसकी नज़र घोड़े पर बैठे अतीक अहमद के पिता फिरोज़ अहमद पर पड़ी। चांद बाबा पहले तो उनके पास जाकर फ़र्ज़ी मतदान का आरोप लगाकर उन्हें और अतीक अहमद को गंदी गंदी गालियां दीं और फिर उन्हें घोड़े से नीचे उतार कर उनकी दाढ़ी नोच ली और उनके ऊपर थूक दिया।

अब यह अति हो गया था और यह खबर फैलते ही शहर पश्चिमी में एक सनसनी फैल गई कि पुलिस और प्रशासन अवश्य चांद बाबा को गिरफ्तार करेगा‌, लोगों में डर और संभावित दंगे होने का डर सताने लगा।

मतदान संपन्न होने तक पुलिस और प्रशासन सहनशीलता और ज़िम्मेदारी का परिचय देता रहा और शाम के 6 बजते बजते विधानसभा चुनाव का मतदान सकुशल संपन्न हो गया।

22 नवंबर 1989 रात करीब 8.30 से 9 बजे के बीच, स्थान - रोशन बाग ढाल स्थित कवाब पराठे की एक मशहूर दुकान "जब्बार होटल"।

मतदान संपन्न होने के बाद चांद बाबा को आरिफ नाम के एक शख्स ने खबर दी कि जब्बार होटल पर अतीक अहमद बैठे हुए खाना खा रहे हैं।

अपने गैंग के लोगों के साथ चांद बाबा अतीक अहमद को मारने जब्बार होटल पहुंचा ही था कि अचानक इस पूरे क्षेत्र की बिजली चली गई और चारों ओर धुप अंधेरा।

उस क्षेत्र के पुराने लोग कहते हैं कि रोशन बाग के उस रेस्टोरेंट से लगी सभी सड़कें ब्लाक कर दी गयीं और आवागमन ठप हो गया।

कुछ लोगों का कहना है कि यह प्रशासन ने किया, कुछ लोग अतीक अहमद के लोगों का काम बता रहे थे।

चांद बाबा घिर गया था , उसके गैंग के लोग मामले को समझ कर भाग खड़े हुए और अकेले चांद बाबा बम पटकते रहे। भाग खड़े होने वालों में उसके सबसे विश्वसनीय जग्गा और छम्मन भी थे।

उस रेस्टोरेंट के आसपास लगातार बमबाजी होने लगी और फिर रात करीब 10 बजे खबर आई कि चांद बाबा की हत्या हो गयी।

वहां के पुराने लोगों का कहना है कि रात के अंधेरे में घिर गए चांद बाबा ने भागने की कोशिश नहीं की और अतीक अहमद को गालियां देता रहा और तभी अतीक अहमद वहां पहुंच गए।

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में चांद बाबा के शव में सीक कवाब की गरमागरम नुकीली राड से 12 सुराख होने की बात कही गई।

एक आम धारणा आज भी है कि यह अतीक अहमद ने अपने हाथों से किया मगर यह भी सच है कि अतीक अहमद पर चांद बाबा की हत्या का कोई मुकदमा दर्ज नहीं हुआ,और प्रशासन द्वारा अज्ञात लोगों द्वारा की गई हत्या दिखा कर मामले को रफा दफा कर दिया गया।

चांद बाबा की ऐसी विभत्स हत्या के बाद पूरे इलाहाबाद में अतीक अहमद का खौफ और दबंगई उरूज़ पर आ गयी। उनकी कहीं भी मौजूदगी सनसनी पैदा करने लगी। चांद बाबा से पीड़ित हिन्दू भाई भी अतीक अहमद के प्रति विश्वास करने लगे।

उस समय यह एक जनमानस था कि चांद बाबा की हत्या अतीक अहमद, प्रशासन और शहर उत्तरी के एक विधायक का मिला जुला परिणाम थी।

हकीकत क्या थी पता नहीं पर एफआईआर अज्ञात लोगों पर हुई जिसे रात के अंधेरे में पहचाना‌ नहीं गया।

अगले ही दिन विधानसभा चुनाव का परिणाम आया और अतीक अहमद निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर 25906 अर्थात 33.54%‌ वोट पाकर विजयी घोषित हुए। मृतक चांद बाबा 9281 वोट पाकर चौथे स्थान पर रहे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गोपाल दास यादव‌ 17804 वोट पाकर दूसरे तो तीरथ राम कोहली निर्दलीय के तौर पर 12237 वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे।

इलाहाबाद पश्चिमी को एक‌ नये विधायक मिले अतीक अहमद जिनका असर उस समय के युवाओं पर तेज़ी से पड़ रहा था।

विधायक बनने के कुछ समय बाद ही करैली मस्जिद में निर्माण का कार्य पुनः शुरू करने का प्रयास हुआ, विधायक अतीक अहमद वहां आ खड़े हुए और मस्जिद के ज़िम्मेदारान को बुला कर ऐसा डांटा कि यह मामला सदैव के लिए शांत हो गया और आज तक शांत है। करैली से इसके बाद पलायन रुक गया।

अतीक अहमद ने अपराध किए होंगे, मामले न्यायालय के समक्ष थे और हैं मगर अतीक अहमद ने इलाहाबाद शहर को दंगा मुक्त बना दिया।

जहां सांप्रदायिक तनाव की खबर सुनते बीच में आकर खड़े हो जाते, दंगाईयों को घूर देते तो‌ लोग पीछे हट जाते। अतीक अहमद ने शहर में बमबाजी बंद करा दी‌।

ऐसी ही एक घटना मुस्लिम बहुल बख्शी बाज़ार की है जहां से कुछ मुस्लिम लड़के सटे हुए हिन्दू इलाके महाजनी टोला में पत्थरबाजी कर रहे थे।

यह चित्र उस समय समाचार पत्रों में प्रमुखता से छपा था कि अतीक अहमद अकेले ही उन‌ लड़कों को बख्शी बाज़ार की तंग गलियों में दौड़ा लिए और कुछ एक को पकड़ कर वहीं पीटने लगे।

ऐसा जहां सांप्रदायिक तनाव होता अतीक अहमद बीच में खड़े मिलते और इलाहाबाद को आजतक दंगा मुक्त कर दिया।

नुपुर शर्मा के हालिया विवादास्पद बयान के बाद इलाहाबाद में पिछले साल पुलिस पर पथराव और भड़की हिंसा भी यदि अतीक अहमद बाहर होते तो नहीं होती।

खैर इसके बाद अतीक अहमद को क्षेत्र के हिंदू और सिख भाइयों का समर्थन मिलता चला गया और अतीक अहमद आगे बढ़ते चले गए।

राजनीति और अपराध को साथ साथ समेटे हुए।

विधानसभा चुनाव में जनता दल को 208 सीटें मिलीं और मुलायम सिंह यादव भाजपा के 57 विधायक के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। कांग्रेस ने मुलायम सिंह यादव को बाहर से समर्थन दिया।

क्रमशः- कल इसी समय

डिस्क्लेमर:- सभी तथ्य और बातें अतीक अहमद के विधानसभा क्षेत्र शहर पश्चिमी में पब्लिक डोमेन से लेकर संकलित किए गए हैं।

Mohd Zahid ✍️✍️✍️

Sunday, April 16, 2023

जोधा अकबर" की कहानी झूठी निकली ।

सैकड़ो सालों से प्रचारित झूठ का खण्डन हुआ। अकबर की शादी "हरकू बाई" से हुई थी, जो मान सिंह की दासी थी।

-- जयपुर के रिकॉर्ड।

पुरातत्व विभाग भी यही मानता है कि जोधा एक झूठ है, जिस झूठ को वामपन्थी इतिहासकारों ने और फिल्मी भाँड़ों ने रचा है।

यह ऐतिहासिक षड़यन्त्र है। 

आइये, एक और ऐतिहासिक षड़यन्त्र से आप सभी को अवगत कराते हैं। अब कृपया ध्यानपूर्वक पूरा पढ़ें। 

जब भी कोई राजपूत किसी मुगल की गद्दारी की बात करता है तो कुछ मुगल प्रेमियों द्वारा उसे जोधाबाई का नाम लेकर चुप कराने की कोशिश की जाती है। बताया जाता है कि कैसे जोधा ने अकबर से विवाह किया। परन्तु अकबर के काल के किसी भी इतिहासकार ने जोधा और अकबर की प्रेमकथा का कोई वर्णन नहीं किया !

सभी इतिहासकारों ने अकबर की केवल 5 बेगमें बताई हैं।

1. सलीमा सुल्तान।

2. मरियम उद ज़मानी।

3. रज़िया बेगम।

4. कासिम बानू बेगम।

5. बीबी दौलत शाद।

अकबर ने स्वयम् अपनी आत्मकथा अकबरनामा में भी, किसी रानी से विवाह का कोई उल्लेख नहीं किया। परन्तु राजपूतों को नीचा दिखाने के लिए कुछ इतिहासकारों ने अकबर की मृत्यु के लगभग 300 साल बाद 18 वीं सदी में “मरियम उद ज़मानी”, को जोधा बाई बता कर एक झूठी अफवाह फैलाई और इसी अफवाह के आधार पर अकबर और जोधा की प्रेमकथा के झूठे किस्से शुरू किये गये, जबकि अकबरनामा और जहाँगीरनामा के अनुसार ऐसा कुछ नहीं था ! 

18 वीं सदी में मरियम को हरखा बाई का नाम देकर, उसको मान सिंह की बेटी होने का झूठा प्रचार शुरू किया गया। फिर 18 वीं सदी के अन्त में एक ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड ने अपनी किताब “एनैलिसिस एंड एंटीक्स ऑफ राजस्थान” में मरियम से हरखा बाई बनी, इसी रानी को जोधा बाई बताना शुरू कर दिया और इस तरह यह झूठ आगे जाकर इतना प्रबल हो गया कि आज यही झूठ भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है और जन जन की जुबान पर यह झूठ, सत्य की तरह बैठ गया है तथा इसी झूठ का सहारा लेकर राजपूतों को नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है ! जब भी मैं जोधाबाई और अकबर के विवाह के प्रसङ्ग को सुनता या देखता हूँ , तो मन में कुछ अनुत्तरित प्रश्न कौंधने लगते हैं ! 

आन, बान और शान के लिए मर मिटने वाले, शूरवीरता के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं ?

हजारों की संख्या में एक साथ अग्निकुण्ड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती है ? जोधा और अकबर की प्रेमकथा पर केन्द्रित अनेक फिल्में और टीवी धारावाहिक, मेरे मन की टीस को और अधिक बढ़ा देते हैं ! 

अब जब यह पीड़ा असहनीय हो गई तो एक दिन इस प्रसङ्ग में इतिहास जानने की जिज्ञासा हुई, तो पास के पुस्तकालय से अकबर के दरबारी "अबुल फजल" के द्वारा लिखित  "अकबरनामा" निकाल कर पढ़ने के लिए ले आया, उत्सुकतावश उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ गया। पूरी किताब पढ़ने के बाद घोर आश्चर्य तब हुआ जब पूरी पुस्तक में जोधाबाई का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं मिला !

मेरी आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा को भाँपते हुए मेरे मित्र ने एक अन्य ऐतिहासिक ग्रन्थ  "तुजुक-ए-जहाँगीरी" को, जो जहाँगीर की आत्मकथा है, मुझे दिया ! इसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहाँगीर ने अपनी माँ जोधाबाई का एक बार भी उल्लेख नहीं किया है ! 

हाँ, कुछ स्थानों पर हीर कुवँर और हरका बाई का उल्लेख अवश्य था। अब जोधाबाई के बारे में सभी ऐतिहासिक दावे झूठे लग रहे थे। कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात्  सच्चाई सामने आई कि “जोधा बाई” का पूरे इतिहास में कहीं कोई उल्लेख या नाम नहीं है ! 

इस खोजबीन में एक नई बात सामने आई, जो बहुत चौकानें वाली है ! इतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर पता चला कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में "रुकमा" नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी, जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी। 

रुकमा की बेटी होने के कारण उस लड़की को "रुकमा-बिट्टी" के नाम से बुलाया जाता था। आमेर की महारानी ने "रुकमा बिट्टी" को "हीर कुवँर" नाम दिया। हीर कुँवर का लालन पालन राजपूताना में हुआ, इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भाँति परिचित थी।

राजा भारमल उसे कभी हीर कुवँरनी तो कभी हरका कह कर बुलाते थे। राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बनाकर अपनी पर्सियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुवँर का विवाह अकबर से करा दिया, जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया ! 

चूँकि राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था, इसलिये ऐतिहासिक ग्रन्थों में हीर कुवँरनी को राजा भारमल की पुत्री बताया गया, जबकि वास्तव में वह कच्छवाह की राजकुमारी नहीं, बल्कि दासी-पुत्री थी ! 

राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन के तौर पर किया था। इस विवाह के विषय में अरब में बहुत सी किताबों में लिखा गया है !

(“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें सन्देह

इसी तरह इरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में, एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक पर्सियन दासी की पुत्री से करवाये जाने की बात लिखी है !

"अकबर-ए-महुरियत" में यह साफ-साफ लिखा है कि (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں) हमें इस हिन्दू निकाह पर सन्देह है, क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आँखों में आँसू नहीं थे और न ही हिन्दू गोदभराई की रस्म हुई थी ! 

सिक्ख धर्मगुरु अर्जुन और गुरु गोविन्द सिंह ने इस विवाह के विषय में कहा था कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनों का इस्तेमाल करना सीख लिया है, मतलब राजपूताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि से भी काम लेने लगा है ! 

17 वीं सदी में जब "परसी" भारतभ्रमण के लिये आये तब उन्होंने अपनी रचना ”परसी तित्ता” में लिखा, “यह भारतीय राजा एक पर्सियन वेश्या को सही हरम में भेज रहा है, अत: हमारे देव (अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें” ! 

भारतीय राजाओं के दरबारों में राव और भाटों का विशेष स्थान होता था। वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे, उन्होंने साफ साफ लिखा है,

”गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ले ग्याली पसवान कुमारी, राण राज्या 

राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत ! (1563 AD)

मतलब आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है! हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतो, तुमने इतिहास में ले ली, बिना लड़े पहली जीत 1563 AD !

ये कुछ ऐसे तथ्य हैं जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझकर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है ! 

किन्तु अब यह षड़यन्त्र अधिक दिन नहीं चलने वाला।😏😏😏

Saturday, April 15, 2023

सुरजकली कुशवाहा उर्फ़ जयश्री.

जमीन छीना, पति गायब, बेटे पर फायरिंग, घर में घुसकर कई
 बार पीटा… अतीक अहमद से 33 साल से लड़ रहीं सुरजकली
 कुशवाहा उर्फ़ जयश्री जी को जानते हैं आप नहीं ना तो जानें 📌

यूपी के प्रयागराज में धूमनगंज इलाके के झलवा की रहने 
वाली जयश्री के पति बृजमोहन कुशवाहा के पास 12 बीघा से
 अधिक जमीन थी। इस पर बढ़िया खेती होती थी। परिवार का
 पालन-पोषण हो रहा था। लेकिन एक दिन अचानक सब कुछ
 बदल गया। जयश्री के पति गायब हो गए। जमीन पर अतीक
 का कब्जा हो गया। जयश्री कहती हैं कि अतीक के अब्बू फिरोज के पास लाल रंग का एक ट्रैक्टर था। इस ट्रैक्टर से
 किसानों के खेतों की जुताई-बुवाई होती थी। यही ट्रैक्टर उनके
 खेत में भी चलता था। लेकिन उनकी जमीन देखकर अतीक के
 मन में लालच जाग गया। अतीक का करीबी लेखपाल मानिकचंद श्रीवास्तव एक दिन जयश्री के पास आया और कहा कि उनकी जमीन शिवकोटी सहकारी आवास समिति के नाम
 पर दर्ज हो गई है।

दरअसल, अतीक ने शिवकोटी सहकारी समिति बनाकर जयश्री
 की पूरी जमीन अपने नाम करवा ली थी। यही नहीं अतीक ने
 इसमें दो लोगों को सचिव बनाया और इस जमीन को बेचना
 शुरू कर दिया। जयश्री के अनुसार 1989 में एक दिन उनके
 पति अचानक से गायब हो गए। वह कहाँ गए किसी को पता
 नहीं। इसके कुछ दिनों बाद उन्हें पता चला कि जमीन अब
 उनकी नहीं रही। जमीन जयश्री और उनके परिवार के जीवनयापन का सबसे बड़ा सहारा था। इसलिए उन्होंने गाँव
 वालों से सहायता माँगी और अपनी जमीन वापस पाने के लिए
 कोर्ट में आपत्ति दाखिल कर दी। इस बीच उन्हें यह पता चल गया था कि जमीन हड़पने का पूरा खेल अतीक अहमद का था।
 लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।

उन्होंने बताया कि जब उनकी जमीन हड़पी गई, तब अतीक
 अहमद विधायक था। उसने उन्हें कई बार अपने कार्यालय में बुलाया। अतीक के बुलावे पर जब वह पहली बार गईं तो उसने
 कहा कि तुम्हारा पति मेरा बहुत खास था। अब नहीं रहा। इसलिए अब तुम्हारे परिवार जिम्मेदारी मेरी है। अपनी जमीन दे
 दो और घर में रहो। जयश्री ने इनकार किया तो अतीक भड़क
 गया। कहा कि जिस तरह तुम्हारे पति को गायब करवाया है, उसी तरह तुमको भी गायब करवा दूँगा।

जयश्री के अनुसार इसके बाद अतीक के गुर्गों ने कई बार घर
 में घुसकर उनके साथ मारपीट की। उसके गुर्गे उन्हें लगातार धमकी देते रहे। लेकिन उन्होंने हमेशा ही अतीक का डटकर मुकाबला किया। वे अपने भाई प्रह्लाद कुशवाहा की करेंट लगने से हुई मौत के लिए भी अतीक अहमद को जिम्मेदार ठहराती हैं। उनका कहना है कि बीते 30 सालों में उनपर 7 बार हमला हुआ। अतीक के गुर्गों ने सैंकड़ों बार उन्हें धमकियाँ दीं। साल 2016 में उनके घर के सामने बेटे और परिवार पर हमला हुआ। इसमें उनके बेटे को गोली लगी थी। लेकिन बेटे की जान बच गई।

जयश्री के अनुसार वह कई सालों तक कोर्ट और थाने के चक्कर काटती रहीं। लेकिन अतीक के खिलाफ कहीं भी सुनवाई नहीं हो रही थी। साल 1991 में उन्हें अतीक के खिलाफ पहली FIR करवाने में कामयाबी हासिल हुई। लेकिन साल 2001 में आरोपों को निराधार बताकर केस बंद कर दिया गया। 2005 में जयश्री को बड़ी सफलता मिली। सीलिंग एक्ट से अनुमति नहीं मिलने के कारण शिवकोटी सहकारी आवास समिति का नामांतरण रद्द हो गया। इसके बाद जमीन उनके नाम पर दर्ज कर दी गई।

 साल 2007 में सूबे के सियासत में परिवर्तन हुआ यानि मायावती सत्ता में लौटी तो इसके बाद अतीक के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई और कार्रवाई का सिलसिला शुरू हुआ।
और बाबा के शासन काल में अतीक का अंत देख ही रहे हैं📌
ये खानदानी क्रिमिनल है इसी को इन्होने धंधा बना लिया था..
राजनीतिक दल ख़ासकर सपा का संरक्षण प्राप्त था इनको...

याद रखिए दर्द उतना ही किसी दें जितना खुद सह सकें🔥

Friday, April 7, 2023

क्या हनुमान जी वास्तव में बन्दर थे?

प्रश्न - क्या हनुमान जी वास्तव में बन्दर थे? क्या वाकई में उनके पूंछ लगी हुई थी ?

उत्तर - इस प्रश्न का उत्तर इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्यूंकि अज्ञानी लोग, सैकुलर वामपंथी लोग वीर हनुमान जी का नाम लेकर परिहास करने का असफल प्रयास करते रहते है। आईये इन प्रश्नों का उत्तर वाल्मीकि रामायण से ही प्राप्त करते है। 

1.  प्रथम “वानर” शब्द पर विचार करते है। सामान्य रूप से हम “वानर” शब्द से यह अभिप्रेत कर लेते है कि वानर का अर्थ होता है "बन्दर"  परन्तु अगर इस शब्द का विश्लेषण करे तो वानर शब्द का अर्थ होता है वन में उत्पन्न होने वाले अन्न को ग्रहण करने वाला। जैसे पर्वत अर्थात गिरि में रहने वाले और वहाँ का अन्न ग्रहण करने वाले को गिरिजन कहते है।  उसी प्रकार वन में रहने वाले को वानर कहते है। वानर शब्द से किसी योनि विशेष, जाति , प्रजाति अथवा उपजाति का बोध नहीं होता।

2. सुग्रीव, बालि आदि का जो चित्र हम देखते है उसमें उनकी पूंछ लगी हुई दिखाई देती हैं।  परन्तु उनकी स्त्रियों के कोई पूंछ नहीं होती? नर-मादा का ऐसा भेद संसार में किसी भी वर्ग में देखने को नहीं मिलता। इसलिए यह स्पष्ट होता हैं की हनुमान आदि के पूंछ होना केवल एक चित्रकार की कल्पना मात्र है वाल्मीकि रामायण में कहीं भी ऐसा संकेत नहीं मिलता जिससे हनुमान जी बंदर प्रतीत होते हो । 

3. किष्किन्धा कांड (3/28-32) में जब श्री रामचंद्र जी महाराज की पहली बार ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान से भेंट हुई तब दोनों में परस्पर बातचीत के पश्चात रामचंद्र जी लक्ष्मण से बोले-

न अन् ऋग्वेद विनीतस्य न अ यजुर्वेद धारिणः |
न अ-साम वेद विदुषः शक्यम् एवम् विभाषितुम् || 4/3/28

अर्थात-

“ऋग्वेद के अध्ययन से परिपूर्ण और यजुर्वेद का जिसको बोध है तथा जिसने सामवेद का अध्ययन किया है, वह व्यक्ति इस प्रकार परिष्कृत बातें नहीं कर सकता। निश्चय ही इन्होनें सम्पूर्ण व्याकरण का अनेक बार अभ्यास किया है, क्यूंकि इतने समय तक बोलने में इन्होनें किसी भी अशुद्ध शब्द का उच्चारण नहीं किया है। शास्त्रों का इतना बडा ज्ञाता महान् विद्वान् कोई बन्दर  नहीं हो सकता बल्कि वह तो मनुष्यों में भी कोई सर्वगुणसम्पन्न कोई अतिश्रेष्ठ मनुष्य ही हो सकता है । क्योंकि इसी प्रकार का व्यवहार सृष्टिनियमों में दिखाई पडता है ।
इस विषय में वास्तविकता यही है कि हमारा सम्पूर्ण इतिहास व साहित्य साहित्यिक अलंकारिक भाषा में लिखा गया । मूढ बुद्धि स्वार्थयुक्त तथाकथित मुर्खो के द्वारा संस्कृत में निहित साहित्य व इतिहास के साहित्यिक अलंकारिक भाषा के अनुसार अर्थ न करके रामायण आदि ग्रन्थों में उपस्थित वानर शब्द का बन्दर व लाङ्गूल शब्द का पूंछ अर्थ कर दिया गया जबकि वास्तविकता यह थी कि वनों में रहने के कारण उन्हें वानर कहा गया व लाङ्गूल वानर जाति का एक राष्ट्रीय चिह्न होता था जिसे वे मोरपंख के समान अपने शरीर में धारण करते थे व उसे धारण करना अपने लिए गर्व का विषय समझते थे ।
जय हनुमान जी

इसकी तुलना अपने देश की संततियों से कीजिये ।

#यहूदी जब बेबीलोन में निर्वासित जीवन जी रहे थे तो वहां की नदियों के तट पर बैठकर #येरूशलम की ओर मुंह करके  रोते थे और विरह गीत गाते थे ।

उन्होंने वहां सौगंध ले ली कि हम तब तक कोई आनंदोत्सव नहीं मनाएंगे जब तक कि हमें हमारा येरुशलम और जियान पर्वत दोबारा नहीं मिल जाता ।

50 सालों के निर्वासित जीवन में न कोई हर्ष, न गीत, न संगीत और सिर्फ़ अपनी मातृभूमि की वेदना...

इसकी तुलना अपने देश की संततियों से कीजिये ।

जो #अफगानिस्तान से निकाले गए, जो #पाकिस्तान से निकाले गए, जो बांग्लादेश से निकाले गए, जो कश्मीर से निकाले गए, क्या उनके अंदर अपनी उस भूमि के लिए कोई वेदना है ?

इन निर्वासितों की किसी संस्था को अखंड भारत के लिए कोई कार्यक्रम करते देखा या सुना है ?

अपने छोड़े गए शहर, पहाड़, नदी आदि की स्मृति को क्या उन्होंने किसी रूप में संजोया हुआ है ?

क्या कोई विरह गीत ये अपनी उस खो गई भूमि के लिए गाते हैं ?

क्या अपनी #संततियों को समझाते हैं कि उनके दादा-पड़दादा को क्यों, कब और किसने कहाँ से निकाला था ?

मैं ये नहीं कहता कि इनमें से सब ऐसे ही हैं पर जो ऐसे हैं वो बहुसंख्यक में हैं या फिर मान लीजिये कि कल को मैं मेरे जन्मस्थान से खदेड़ दिया गया तो क्या उसकी स्मृति को उसी तरह जी पाऊँगा जैसा बेबीलोन के #निर्वासित यहूदी जीते थे...

शायद "नहीं"

 एक #सभ्यता के रूप में हमारी हार का सबसे बड़ा सबूत यही है कि न तो हमें भारत के अधूरे मानचित्र को देखकर दर्द होता है और न ही हमें हमारी खोई हुई भूमि, नदियां, पर्वत और लूटे धर्मस्थान पीड़ा देते हैं।

Wednesday, April 5, 2023

बटुकेश्वर दत्त कौन हैं।

भारत की आजादी में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले महान क्रन्तिकारी अमर शहीद बटुकेश्वर दत्त जी सरदार भगत सिंह सुखदेव औऱ राजगुरु के गोल में एक थे।

(1) बटुकेश्वर दत्त ने 1929 में अपने साथी भगत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजी सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फेंक, इंकलाब ज़िंदाबाद के नारों के साथ आजन्म काला-पानी स्वीकार किया था।

(2) आजादी के बाद भी वे सरकारी उपेक्षा के चलते गुमनामी और उपेक्षित जीवन जीते रहे।

(3) जीवन निर्वाह के लिए कभी एक सिगरेट कंपनी का एजेंट बनकर पटना की गुटखा-तंबाकू की दुकानों के इर्द-गिर्द भटकना पड़ा तो कभी बिस्कुट और डबलरोटी बनाने का काम किया।

(4) जिस व्यक्ति के ऐतिहासिक किस्से भारत के बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर होने चाहिए थे उसे एक मामूली टूरिस्ट गाइड बनकर गुजर-बसर करनी पड़ती है।

(5) देश की आजादी और जेल से रिहाई के बाद दत्त पटना में रहने लगे. पटना में अपनी बस शुरू करने के विचार से जब वे बस का परमिट लेने  पटना के कमिश्नर से मिलते हैं तो कमिश्नर द्वारा उनसे उनके #बटुकेश्वर_दत्त होने का प्रमाण मांगा गया । 

(6) उन्होंने बिस्कुट और डबलरोटी बनाने का काम भी किया।
 पटना की सड़कों पर खाक छानने को विवश बटुकेश्वर दत्त की पत्नी मिडिल स्कूल में नौकरी करती थीं जिससे उनका गुज़ारा हो पाया।

(7) अंतिम समय उनके 1964 में अचानक बीमार होने के बाद उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया, पर उनका ढंग से उपचार नहीं हो रहा था।
इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है. चमनलाल आजाद के मार्मिक लेकिन कडवे सच को बयां करने वाले लेख को पढ़ पंजाब सरकार ने अपने खर्चे पर दत्त का इलाज़ करवाने का प्रस्ताव दिया। तब जाकर बिहार सरकार ने ध्यान देकर मेडिकल कॉलेज में उनका इलाज़ करवाना शुरू किया. पर दत्त की हालात गंभीर हो चली थी।  

(8) 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया. दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था, “मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था कि मैं उस दिल्ली में जहां मैने बम डाला था, एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाउंगा.” दत्त को दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती किये जाने पर पता चला की उन्हें कैंसर है और उनके जीवन के कुछ दिन ही शेष बचे हैं। यह सुन भगत सिंह की मां विद्यावती देवी अपने पुत्र समान दत्त से मिलने दिल्ली आईं। 

(9) वहीं पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन जब दत्त से मिलने पहुंचे और उन्होंने पूछ लिया, हम आपको कुछ देना चाहते हैं, जो भी आपकी इच्छा हो मांग लीजिए। छलछलाई आंखों और फीकी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा, हमें कुछ नहीं चाहिए। बस मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।

(10) 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर दत्त इस दुनिया से विदा हो गये. उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुसार, भारत-पाक सीमा के समीप हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के निकट किया गया।

(11) उक्त प्रसंग प्रत्येक भारतीय को ज्ञात होना चाहिए और चिंतन करना चाहिए कि ऐसे कई युवा अपना यौवन, सुख सुविधाएँ , परिवार के कष्ट निवारण की आशाओं पर तुषारापात कर देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हुए बलिदान हुए, उनमें से ऐसे कुछ ही लोग भाग्य से स्वतंत्रता का दिन देख पाए । लेकिन उन्हें कष्ट भोगने पड़े, उसका दोषी कौन?
 (12) उन लोगों को आज हम अज्ञात कह देते हैं लेकिन तब के अखबारों की सुर्खियां गवाह है कि वे अज्ञात तो नहीं ही थे। तब के रेडियो में प्रमुख खबरों में होते थे उनके नाम।
शहरों में उनके पोस्टर लगते थे, मोटी इनामी धनराशि का लालच देकर उनके लिए मुखबिरी करवाई जाती थी।
(13) तो फिर बाद में वे अनाम कैसे बना दिए गए? भगतसिंह के साथ बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त को कालापानी की सजा हुई, जो कि मृत्युदण्ड से भी अधिक दुखदायी थी,अतः फाँसी से कमतर सजा नहीं थी।
फिर भी आज न कोई नामलेवा है,न साधारणतः कोई जानता है, न कहीं फोटो सहज उपलब्ध हैं।जनता सरकार मोर्चा संकल्पबद्ध है इन सभी आजादी के दीवानों को सम्मान दिलाने के लिए। 

Saturday, April 1, 2023

प्रभु श्रीराम किस वंश से थे ??

1 - ब्रह्मा जी से मरीचि हुए,
2 - मरीचि के पुत्र कश्यप हुए,
3 - कश्यप के पुत्र विवस्वान थे,
4 - विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए. वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था,
5 - वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था, इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की |
6 - इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए,
7 - कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था,
8 - विकुक्षि के पुत्र बाण हुए,
9 - बाण के पुत्र अनरण्य हुए,
10- अनरण्य से पृथु हुए,
11- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ,
12- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए,
13- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था,
14- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए,
15- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ,
16- सुसन्धि के दो पुत्र हुए-- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित,
17- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए,
18- भरत के पुत्र असित हुए,
19- असित के पुत्र सगर हुए,
20- सगर के पुत्र का नाम असमंज था,
21- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए,
22- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए,
23- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए, भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे |
24- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है |
25- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए,
26- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे,
27- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए,
28- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था,
29- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए,
30- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए,
31- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे,
32- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए,
33- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था,
34- नहुष के पुत्र ययाति हुए,
35- ययाति के पुत्र नाभाग हुए,
36- नाभाग के पुत्र का नाम अज था,
37- अज के पुत्र दशरथ हुए,
38- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए |

इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ |
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