Saturday, January 30, 2021

विस्मृत बलिदान।

वीर_हकीकत_राय_एक_निर्भीक_धर्मयोद्धा🙏🚩🚩

13 वर्ष का एक हिन्दू बालक फारसी पढ़ने मदरसे जाया करता था। एक दिन मदरसे खेलते समय उसके मुस्लिम सहपाठियों ने हिन्दुओं की आराध्या माँ दुर्गा का बारम्बार उपहास किया। हिन्दू बालक के प्रतिवाद करने पर यह बात और अधिक बढ़ी तो उस हिन्दू बालक ने तर्क दिया कि ऐसी ही बदजुबानी यदि मुस्लिमों के पैगम्बर की बेटी फातिमा के बारे में की जाए तो कैसा लगेगा?

17वीं सदी, मुगलों का शासन और जनसँख्या में मुस्लिमों की बहुलता होना इस प्रतिप्रश्न को इस्लाम पर हमला सिद्ध करने के लिए पर्याप्त अनुकूल परिस्थितियाँ थीं। बात मदरसे के उस्ताद से होती हुई शहर काजी तक पहुँची। हिन्दू बालक को दोषी पाया ही जाना था, दोषी पाया गया। चिरपरिचित दो विकल्प देने की उदारता दिखाई गई

१. इस्लाम कुबूल करो और जीवित रहो....अथवा
२. सिर कलम होगा

हिन्दू परिवार में हाहाकार मच गया, कहा जाता है कि पुत्रमोह में माँ-बाप कमजोर पड़े भी कि मुसलमान बनकर ही सही किन्तु जीवित तो रहोगे पर 13 वर्ष का वह बालक धर्म से नहीं डिगा। 

उस हिन्दू बालक का नाम था #हकीकत_राय।

1734 में इस्लाम की तौहीन के इल्जाम में 13 वर्षीय हकीकत राय का सिर कलम कर दिया गया और इस प्रकार इस्लाम की शान बरकरार रखी गई।

वो दिन जब वीर हकीकत राय का बलिदान हुआ, बसन्त पंचमी का ही दिन था। वह कुशाग्र बुद्धि का था और पारिवारिक संस्कारों के चलते अपने धर्म को लेकर सजग भी था। 

अविभाजित भारत के लाहौर में बसन्त पंचमी के दिन वीर हकीकत राय की याद में एक मेला लगा करता था, विभाजन के बाद भारत के पंजाब में कई स्थानों पर अब भी वीर बालक को याद किया जाता है। एक बात और, एक कॉलोनी या बसावट हकीकत नगर के नाम से लगभग हर उस शहर में मिलेगी जिसमें पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए लोग अधिक संख्या में बसे थे और अपने इतिहास को याद रखने का यह उनका एक अनकहा प्रयास था।

वर्तमान के एक स्थापित सेक्यूलर पत्रकार शिरोमणि ने अपने कार्यक्रम में पूछा था, "क्या हो जाएगा यदि भारत में मुस्लिम बहुसंख्यक हो जाएंगे? कम से कम इंसानियत तो जिंदा रहेगी न?"

यह उदाहरण उसको उत्तर के रूप में दिया जा सकता था किंतु जिन्हें आँखों के सामने के प्रशांत पुजारी और रामालिंगम नहीं दिखते, उन्हें तीन सौ वर्ष पहले का हकीकत राय कैसे दिखता?

आज के कथित सेक्यूलर वही हैं जो अपने ऐन्द्रिक स्वादों और भौतिक स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए स्वधर्म, निज अराध्यों, स्वजनों का अपमान करते हुए धरती का बोझ बने रहने को ही इंसानियत का जिंदा रहना मानते हैं।

कुछ दिनों पहले हमारे एक मित्र बहुत व्यथित थे कि हकीकत राय को लोग भूल गए, मैंने कह दिया कि न भूला हूँ और न भूलने दूँगा। बसन्त पंचमी आती है तो मैं चाहे एक को ही याद दिला पाऊँ किन्तु वीर हकीकत राय के बलिदान को याद अवश्य करता हूँ और ऐसा मैं अकेला नहीं हूँ। मुझे भी आश्चर्य हुआ था जब यूट्यूब पर हकीकत राय पर बनी हरियाणवी रागिनी और फिल्में भी दिखीं।

आप सबको बसन्त पंचमी की हार्दिक शुभकामनायेँ। आज के दिन आप किसी एक को भी हकीकत राय की कहानी सुना पाएं तो यह उस वीर बालक को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Sunday, January 24, 2021

वर्ष 2003, कश्मीर शोपियां।

वर्ष 2003, कश्मीर शोपियां: -   एक युवा कश्मीरी लड़का इफ्तिखार भट्ट, कंधे की लंबाई के बाल और पारंपरिक कश्मीरी परिधान फेरन पहने हुए खूंखार आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के पास उनके संगठन में सम्मिलित होने पहुंचा, 

जब उससे पूछा गया कि वह भारतीय सेना से क्यों लड़ना चाहता है, तो उसने खालिस कश्मीरी में भारतीय सेना को भद्दी से भद्दी गालियां देते हुए एक पथराव के दौरान की गयी सैन्य कार्यवाही में हुए अपने भाई की मौत के लिए सेना को ज़िम्मेदार ठहराया।

उसकी कहानी सुनने और सेना के प्रति उसकी नफरत और उसके जुनून को देखते हुए उसे अपने काम का लड़का समझकर उसे सैन्य प्रशिक्षण हेतु पाकिस्तान ले जाया गया, जहां अन्य युवा जेहादियों की तुलना में इस युवा लड़के ने कहीं बढ़कर प्रदर्शन किया और उनसे कहीं अधिक मजहबी कट्टरता भी दिखाई, जिसे देखते हुए उसे नेतृत्व और वैचारिक प्रशिक्षण के लिए तुरंत ही चिह्नित कर लिया गया, और फिर कई स्तर के सैन्य वैचारिक और नेतृत्व प्रशिक्षण के बाद अंत में उसे LOC पार कर भारतीय सेना की चौकी पर हमला करने हेतु भेजा गया ।

उसकी क्षमताओं को देखते हुए एक अभूतपूर्व कदम उठाया गया और उसे अबू सबजार और अबू तोरा जैसे दशकों का अनुभव रखने वाले हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडरों का दायां हाथ नियुक्त किया गया , जिससे उसकी वास्तविक कॉम्बैट एक्शन स्किल्स और उसकी नेतृत्व क्षमताओं का भी विकास हो सके,

2004 में इफ्तिखार भट्ट ने अपने दोनों वरिष्ठ हिजबुल कमांडरों को आश्वस्त किया कि वह सेना की चौकी पर एक सफल हमला कर सकता है जिसमें भारतीय सेना को अधिकतम नुकसान होगा, फिर वह उन्हें उस स्थान पर ले गया जहां से वह भारतीय सेना पर हमला अंजाम देना चाहता था और उन्हें प्रभावित करते हुए उसने उन्हें सेना पर हमले की अपनी योजना की पूरी विस्तृत रणनीति बताई, 

हिजबुल कमांडर अबू सबजार को इस बात पर संदेह हुआ कि बिना किसी असली कॉम्बैट अनुभव के यह युवा लड़का आखिर इतनी कुशलता, बारीकी व् सावधानीपूर्वक ऐसे जटिल सैन्य हमले की योजना कैसे बना सकता है.....
जिसके बाद उन्होंने उससे उसकी पृष्ठभूमि, उसके अतीत और उसकी कहानी के बारे में उससे सवाल पूछने शुरू कर दिये,

आपने वरिष्ठ कमांडरों में अपने प्रति अविश्वास को देख भड़कते हुए युवा लड़के ने उन्हें अपनी AK 47 दी और कहा कि यदि वे उसपर भरोसा नहीं करते हैं तो वे उसे तत्क्षण गोली मार सकते हैं, और कुछ कदम पीछे हटकर खड़ा हो गया, 
इसके पहले हाथों में AK-47 पकड़े हिजबुल कमांडर किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाते, उस युवा लड़के ने बिजली की तेजी से TT-30 9mm टोक्रेव पिस्टल निकाली और दोनों को गोली मार दी, 2-2 गोलियां छाती पर व् एक-एक सिर पर, भारतीय सेना के पैरा एसएफ ऑपरेटर का टिपिकल सिग्नेशर मूव, दोनो हिजबुल कमांडरों को यह पता तक नही चला कि उनके संग क्या हुआ, इसके बाद उस लड़के इफ्तिखार भट्ट ने सारे हथियार समेटे और उन्हें लेकर पास के आर्मी कैंप तक टहलते हुए चला गया, उस लड़के का वास्तविक नाम था मेजर मोहित शर्मा, 1 पैरा एसएफ, (मद्रास रेजिमेंट) भारतीय सेना।

भारतीय सेना का यह अधिकारी वर्ष 2009 में कश्मीर में एक कोर्डन व् सर्च ऑपरेशन में मातृभूमि पर अपना सर्वस्व बलिदान कर गया, और अपने सेकेंड इन कमांड से कहे उसके अंतिम शब्द थे "सुनिश्चित करो कि कोई भी बचके निकलने न पाय।"

कड़वा यथार्थ वास्तविक हीरो फिल्मों, टीवी सीरियलों,वेब सीरीज़ व् सिनेमा हॉल की स्क्रीन पर नहीं पाए जाते...

ऐसे मां भारती के सपूत को कोटि कोटि नमन 

Saturday, January 23, 2021

तोजो का कुत्ता।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस को 'तोजो का कुत्ता' बताते थे वामपंथी
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लगभग आरंभ से ही कम्युनिस्टों को अपनी वैज्ञानिक विचारधारा और प्रगतिशील दृष्टि का घोर अहंकार रहा है। लेकिन अनोखी बात यह है कि इतिहास व भविष्य ही नहीं, ठीक वर्तमान यानी आंखों के सामने की घटना-परिघटना पर भी उनके मूल्यांकन, टीका-टिप्पणी, नीति, प्रस्ताव आदि प्राय: मूढ़ता की पराकाष्ठा साबित होते रहे हैं। यह न तो एक बार की घटना है, न एक देश की। सारी दुनिया में कम्युनिस्टों का यही रिकॉर्ड है। इसके निहितार्थ समझने से पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस के कम्युनिस्ट मूल्यांकन को उदाहरण के लिए देखें।
1940 में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तिका 'बेनकाब दल व राजनीति' में नेताजी को 'अंधा मसीहा' कहा गया। फिर उनके कामों को कहा गया, 'सिद्धांतहीन अवसरवाद, जिसकी मिसाल मिलनी कठिन है। यह सब तो नरम मूल्यांकन था। धीरे-धीरे नेताजी के प्रति कम्युनिस्ट शब्दावली हिंसक और गाली-गलौज से भरती गई। जैसे, 'काला गिरोह', 'गद्दार बोस', 'दुश्मन के जरखरीद एजेंट', 'तोजो (जापानी तानाशाह) और हिटलर के अगुआ दस्ते', 'राजनीतिक कीड़े', 'सड़ा हुआ अंग जिसे काटकर फेंकना है',आदि। ये सब विशेषण सुभाष बोस और उनकी सेना आई़ एऩ ए़ (इंडियन नेशनल आर्मी) के लिए थे। तब कम्युनिस्ट मुखपत्रों, पत्रिकाओं में नेताजी के कई कार्टून छपे थे, जिससे कम्युनिस्टों की घोर अंधविश्वासी मानसिकता की झलक मिलती है (उन पर सधी नजर रखने वाले इतिहासकार स्व़ सीताराम गोयल के सौजन्य से वे कार्टून उपलब्ध हैं)। अधिकांश कार्टूनों में सुभाष बाबू को 'जापानी, जर्मन फासिस्टों का कुत्ते या बिल्ली' जैसा दिखाया गया है, जिससे उसका मालिक जैसे चाहे खेलता है।
एक कार्टून में बोस को तोजो का मुखौटा, तो अन्य में भारतवासियों पर जापानी बम गिराने वाला दिखाया गया है। एक में बोस को 'गांधीजी की बकरी छीनने वाला' दिखाया गया। एक कार्टून में तोजो एक गधे के गले में रस्सी डाले सवारी कर रहा है, उस गधे का मुंह बोस जैसा बना था। दूसरे में बोस को 'तोजो का पालतू क्षुद्र बौना' दिखाया, आदि।
कम्युनिस्ट अखबार पीपुल्स डेली (10 जनवरी 1943) में तब कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता रणदिवे ने अपने लेख में बोस को 'जापानी साम्राज्यवाद का गुंडा' तथा उनकी सेना को 'भारतीय भूमि पर लूट, डाका, विध्वंस मचाने वाला भड़ैत' बताया। लेकिन रोचक बात यह है कि यह सब कहने के बाद, समय बदलते ही, जब आई़ एऩ ए. की लोकप्रियता देशभर में बढ़ने लगी, तो कम्युनिस्टों ने उसके बंदी सिपाहियों के पक्ष में लफ्फाजी शुरू कर दी!
उपर्युक्त इतिहास के संदर्भ में स्मरण रखने की पहली बात है कि यह सब न अपवाद था, न अनायास। दूसरी बात, जो बुद्धि अपने सामने हो रही घटना, व्यक्तित्व का ऐसा मूढ़ मूल्याकंन करती रही, वह दूसरे लोगों, घटनाओं, सत्ताओं का मूल्यांकन भी वैसे ही करती है। यानी जड़-विश्वास, घोर मतिहीन। सभी मूल्यांकनों का स्रोत एक बनी-बनाई विचारधारा में अंधविश्वास ही था और है, जो तथ्यों को यथावत देखने की बजाए एक, और खास एक ही तरह से देखने को मजबूर करता था। यह बंदी मानसिकता देश और समाज के लिए कितनी घातक रही है, हमें इसे ठीक से समझना चाहिए। अतएव तीसरी बात यह है कि नेताजी सुभाष, जय प्रकाश नारायण, गांधीजी आदि के अपमानजनक और जड़मति मूल्यांकनों की क्षमा मांग लेने के बाद भी इस देश में कम्युनिस्ट वही काम बार-बार करते रहे हैं। उनकी देश-समाज-विरोधी प्रवृत्ति नहीं बदली है। आज भी अयोध्या, कश्मीर, गोधरा, इस्लामी आतंकवाद आदि गंभीर मुद्दों और अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी या नरेन्द्र मोदी जैसे शीर्ष नेताओं के मूल्यांकन और तद्नुरूप कम्युनिस्ट अभियान चलाने में ठीक उसी मूढ़ता और देशघाती जिद की अक्षुण्ण परंपरा है। यह काम कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ-साथ तमाम मार्क्सवादी प्रोफेसर, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी भी करते रहे हैं। चूंकि ये लोग कम्युनिस्ट पार्टी से सीधे जुड़े हुए नहीं हैं तथा बड़े-बड़े अकादमिक या मीडिया पदों पर रहे हैं, इससे इनका वास्तविक चरित्र पहचानने में गलती नहीं करनी चाहिए।
इस प्रकार, नेताजी व आई़ एऩ ए. को 'तोजो का कुत्ता' और राष्ट्रीय स्वयंयेवक संघ को 'तालिबान, अल कायदा सा आतंकवादी' बताने में एक सी भयंकर मूढ़ता और हानिकारक क्षमता है, यह हमें देखना, समझना चाहिए। कभी भगवाकरण, तो कभी असहिष्णुता के बहाने चलते अभियान उसी घातक अंधविश्वास व हिन्दू-विरोध से परिचालित हैं। इस से देश-समाज बंटता है, जो कम्युनिस्ट 1947 में एक बार सफलतापूर्वक करवा चुके हैं। आज भी प्रगतिशील, सेक्युलर, लिबरल आदि विशेषणों की आड़ में वही भारत-विरोधी और हिन्दू-द्वेषी राजनीति थोपी जाती है। क्योंकि घटनाओं, स्थितियों, व्यक्तियों, समुदायों की माप-तौल के पैमाने, बाट, इंच-टेप वही हैं।
लंबे नेहरूवादी-कम्युनिस्ट गठजोड़ के कारण वही पैमाने हमारे बुद्धिजीवियों की मानसिकता में अनायास जमा दिए गए हैं। तभी जन-समर्थन के बावजूद मोदी सरकार को अपदस्थ, लांछित करने में हर हथकंडा आसानी से चलता है। इससे जो हानि होती है, उससे युवाओं को पूरी तरह अवगत होना चाहिए। नेताजी के कम्युनिस्ट मूल्यांकन का यही जरूरी सबक है।
लेखक : डॉ. शंकर शरण

Thursday, January 14, 2021

कौन थे राजा वीर विक्रमादित्य ?

बड़े ही शर्म की बात है कि महाराज विक्रमादित्य के बारे में देश को लगभग शून्य बराबर ज्ञान है, जिन्होंने भारत को सोने की चिड़िया बनाया था, और स्वर्णिम काल लाया था

उज्जैन के राजा थे गन्धर्वसैन , जिनके तीन संताने थी , सबसे बड़ी लड़की थी मैनावती , उससे छोटा लड़का भृतहरि और सबसे छोटा वीर विक्रमादित्य...
बहन मैनावती की शादी धारानगरी के राजा पदमसैन के साथ कर दी , जिनके एक लड़का हुआ गोपीचन्द , आगे चलकर गोपीचन्द ने श्री ज्वालेन्दर नाथ जी से योग दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , फिर मैनावती ने भी श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग दीक्षा ले ली ,
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रामायण, और महाभारत जैसे ग्रन्थ खो गए थे, महाराज विक्रम ने ही पुनः उनकी खोज करवा कर स्थापित किया विष्णु और शिव जी के मंदिर बनवाये और सनातन धर्म को बचाया विक्रमदित्य के 9 रत्नों में से एक कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् लिखा, जिसमे भारत का इतिहास है। अन्यथा भारत का इतिहास भुला दिया गया होता
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हमारे ग्रन्थ ही भारत में खोने के कगार पर आ गए थे, उस समय उज्जैन के राजा भृतहरि ने राज छोड़कर श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग की दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , राज अपने छोटे भाई विक्रमदित्य को दे दिया , वीर विक्रमादित्य भी श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से गुरू दीक्षा लेकर राजपाट सम्भालने लगे और आज उन्ही के कारण सनातन धर्म बचा हुआ है, हमारी संस्कृति बची हुई है।
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महाराज विक्रमदित्य ने केवल धर्म ही नही बचाया उन्होंने देश को आर्थिक तौर पर सोने की चिड़िया बनाई, उनके राज को ही भारत का स्वर्णिम राज कहा जाता है।
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विक्रमदित्य के काल में भारत का कपडा, विदेशी व्यपारी सोने के वजन से खरीदते थे
भारत में इतना सोना आ गया था की, विक्रमदित्य काल में सोने की सिक्के चलते थे , आप गूगल इमेज कर विक्रमदित्य के सोने के सिक्के देख सकते हैं।
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हिन्दू कैलंडर भी विक्रमदित्य का स्थापित किया हुआ है। आज जो भी ज्योतिष गणना है जैसे , हिन्दी सम्वंत , वार , तिथीयाँ , राशि , नक्षत्र , गोचर आदि उन्ही की रचना है , वे बहुत ही पराक्रमी , बलशाली और बुद्धिमान राजा थे।
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 विक्रमदित्य के काल में हर नियम धर्मशास्त्र के हिसाब से बने होते थे, न्याय , राज सब धर्मशास्त्र के नियमो पर चलता था
विक्रमदित्य का काल राम राज के बाद सर्वश्रेष्ठ माना गया है, जहाँ प्रजा धनि और धर्म पर चलने वाली थी।
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राजस्थानी भजनों में इन सभी हिन्दू
शूरवीर ओर सत्यवादी राजाओं की कथाएं गाते हैं। इसलिए राजस्थान के ज्यादातर लोगों को सभी हिन्दू राजाओं के बारे में जानकारी है।
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पर बड़े दुःख की बात है की भारत के सबसे महानतम राजा के बारे में कांग्रेसी और वामपंथीयों का इतिहास भारत की जनता को शून्य ज्ञान देता है, कृपया आप शेयर तो करें ताकि देश जान सके कि सोने की चिड़िया वाला देश का राजा कौन था।

दलित-मुस्लिम एकता की असलियत डॉ अम्बेडकर के शब्दों में।

आजकल एक नया प्रचलन चला है। दलित अपने आपको मुसलमानों से नत्थी कर यह दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि वे हिन्दुओं से अधिक मुसलमानों के निकट हैं। जमीनी हक़ीक़त एवं इतिहासिक तथ्यों को सरेआम ठेंगा दिखाना इसी को कहते हैं। भारतवर्ष का इतिहास उठा कर देख लीजिये बुद्ध विहारों को तहस-नहस करने वाले कौन थे? जातिवाद निश्चित रूप से अभिशाप था मगर अगर कुछ हिन्दुओं ने जातिवाद के रूप में अत्याचार किया तो मुसलमान भी पीछे नहीं थे। जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष करने वाले डॉ अम्बेडकर मुसलमानों के अत्याचार से भली-भांति परिचित थे। अपने अनुभवों और विचारों को डॉ अम्बेडकर ने "थॉट्स ओन पाकिस्तान" में संकलित किया था। उनके विचारों को पढ़कर भी जय भीम का नारा लगाने वाले दलित समाज के सदस्य सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे तो इसे बेईमानी कही जाएगी।
पढ़िए इस्लाम के सम्बन्ध में डॉ अम्बेडकर के विचार
१. हिन्दू काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं-”मुसलमानों के लिए हिन्दू काफ़िर हैं, और एक काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं है। वह निम्न कुल में जन्मा होता है, और उसकी कोई सामाजिक स्थिति नहीं होती। इसलिए जिस देश में क़ाफिरों का शासनहो, वह मुसलमानों के लिए दार-उल-हर्ब है ऐसी सति में यह साबित करने के लिए और सबूत देने की आवश्यकता नहीं है कि मुसलमान हिन्दू सरकार के शासन को स्वीकार नहीं करेंगे।” (पृ. ३०४)
२. मुस्लिम भ्रातृभाव केवल मुसलमानों के लिए-”इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है, जो मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो भेद यह करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है, परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा ओर शत्रुता ही है। इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है और स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता, क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती, बल्कि वह उस धार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है, जिसका कि वे एक हिस्सा है। एक मुसलमान के लिए इसके विपरीत या उल्टे सोचना अत्यन्त दुष्कर है। जहाँ कहीं इस्लाम का शासन हैं, वहीं उसका अपना विश्वासहै। दूसरे शब्दों में, इस्लाम एक सच्चे मुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट सम्बन्धी मानने की इज़ाजत नहीं देता। सम्भवतः यही वजह थी कि मौलाना मुहम्मद अली जैसे एक महान भारतीय, परन्तु सच्चे मुसलमान ने, अपने, शरीर को हिन्दुस्तान की बजाए येरूसलम में दफनाया जाना अधिक पसंद किया।”
३. एक साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय मुसलमान में अन्तर देख पाना मुश्किल-”लीग को बनाने वाले साम्प्रदायिक मुसलमानों और राष्ट्रवादी मुसलमानों के अन्तर को समझना कठिन है। यह अत्यन्त संदिग्ध है कि राष्ट्रवादी मुसलमान किसी वास्तविक जातीय भावना, लक्ष्य तथा नीति से कांग्रेस के साथ रहते हैं, जिसके फलस्वरूप वे मुस्लिम लीग् से पृथक पहचाने जाते हैं। यह कहा जाता है कि वास्तव में अधिकांश कांग्रेसजनों की धारण है कि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, और कांग्रेस के अन्दर राष्ट्रवादी मुसलमानों की स्थिति साम्प्रदायिक मुसलमानों की सेना की एक चौकी की तरह है। यह धारणा असत्य प्रतीत नहीं होती। जब कोई व्यक्ति इस बात को याद करता है कि राष्ट्रवादी मुसलमानों के नेता स्वर्गीय डॉ. अंसारी ने साम्प्रदायिक निर्णय का विरोध करने से इंकार किया था, यद्यपिकांग्रेस और राष्ट्रवादी मुसलमानों द्वारा पारित प्रस्ताव का घोर विरोध होने पर भी मुसलमानों को पृथक निर्वाचन उपलब्ध हुआ।” (पृ. ४१४-४१५)
४. भारत में इस्लाम के बीज मुस्लिम आक्रांताओं ने बोए-”मुस्लिम आक्रांता निस्संदेह हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा के गीत गाते हुए आए थे। परन्तु वे घृणा का वह गीत गाकर और मार्ग में कुछ मंदिरों को आग लगा कर ही वापस नहीं लौटे। ऐसा होता तो यह वरदान माना जाता। वे ऐसे नकारात्मक परिणाम मात्र से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने इस्लाम का पौधा लगाते हुए एक सकारात्मक कार्य भी किया। इस पौधे का विकास भी उल्लेखनीय है। यह ग्रीष्म में रोपा गया कोई पौधा नहीं है। यह तो ओक (बांज) वृक्ष की तरह विशाल और सुदृढ़ है। उत्तरी भारत में इसका सर्वाधिक सघन विकास हुआ है। एक के बाद हुए दूसरे हमले ने इसे अन्यत्र कहीं को भी अपेक्षा अपनी ‘गाद’ से अधिक भरा है और उन्होंने निष्ठावान मालियों के तुल्य इसमें पानी देने का कार्य किया है। उत्तरी भारत में इसका विकास इतना सघन है कि हिन्दू और बौद्ध अवशेष झाड़ियों के समान होकर रह गए हैं; यहाँ तक कि सिखों की कुल्हाड़ी भी इस ओक (बांज) वृक्ष को काट कर नहीं गिरा सकी।” (पृ. ४९)
५. मुसलमानों की राजनीतिक दाँव-पेंच में गुंडागर्दी-”तीसरी बात, मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर-तरीके अपनाया जाना है। दंगे इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि गुंडागिर्दी उनकी राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है।” (पृ. २६७)
६. हत्यारे धार्मिक शहीद-”महत्व की बात यह है कि धर्मांध मुसलमानों द्वारा कितने प्रमुख हिन्दुओं की हत्या की गई। मूल प्रश्न है उन लोगों के दृष्टिकोण का, जिन्होंने यह कत्ल किये। जहाँ कानून लागू किया जा सका, वहाँ हत्यारों को कानून के अनुसार सज़ा मिली; तथापि प्रमुख मुसलमानों ने इन अपराधियों की कभी निंदा नहीं की। इसके वपिरीत उन्हें ‘गाजी’ बताकर उनका स्वागत किया गया और उनके क्षमादान के लिए आन्दोलन शुरू कर दिए गए। इस दृष्टिकोण का एक उदाहरण है लाहौर के बैरिस्टर मि. बरकत अली का, जिसने अब्दुल कयूम की ओर से अपील दायर की। वह तो यहाँ तक कह गया कि कयूम नाथूराम की हत्या का दोषी नहीं है, क्योंकि कुरान के कानून के अनुसार यह न्यायोचित है। मुसलमानों का यह दृष्टिकोण तो समझ में आता है, परन्तु जो बात समझ में नहीं आती, वह है श्री गांधी का दृष्टिकोण।”(पृ. १४७-१४८)
७. हिन्दू और मुसलमान दो विभिन्न प्रजातियां-”आध्याम्कि दृष्टि से हिन्दू और मुसलमान केवल ऐसे दो वर्ग या सम्प्रदाय नहीं हैं जैसे प्रोटेस्टेंट्‌स और कैथोलिक या शैव और वैष्णव, बल्कि वे तो दो अलग-अलग प्रजातियां हैं।” (पृ. १८५)
८. इस्लाम और जातिप्रथा-”जाति प्रथा को लीजिए। इस्लाम भ्रातृ-भाव की बात कहता है। हर व्यक्ति यही अनुमान लगाता है कि इस्लाम दास प्रथा और जाति प्रथा से मुक्त होगा। गुलामी के बारे में तो कहने की आवश्यकता ही नहीं। अब कानून यह समाप्त हो चुकी है। परन्तु जब यह विद्यमान थी, तो ज्यादातर समर्थन इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से ही मिलता था। कुरान में पैंगबर ने गुलामों के साथ उचित इस्लाम में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस अभिषाप के उन्मूलन के समर्थन में हो। जैसाकि सर डब्ल्यू. म्यूर ने स्पष्ट कहा है-
”….गुलाम या दासप्रथा समाप्त हो जाने में मुसलमानों का कोई हाथ नहीं है, क्योंकि जब इस प्रथा के बंधन ढीले करने का अवसर था, तब मुसलमानों ने उसको मजबूती से पकड़ लिया….. किसी मुसलमान पर यह दायित्व नहीं है कि वह अपने गुलामों को मुक्त कर दें…..”
”परन्तु गुलामी भले विदा हो गईहो, जाति तो मुसलमानों में क़ायम है। उदाहरण के लिए बंगाल के मुसलमानों की स्थिति को लिया जा सकता है। १९०१ के लिए बंगाल प्रांत के जनगणना अधीक्षक ने बंगाल के मुसलमानों के बारे में यह रोचक तथ्य दर्ज किए हैं :
”मुसलमानों का चार वर्गों-शेख, सैयद, मुग़ल और पठान-में परम्परागत विभाजन इस पांत (बंगाल) में प्रायः लागू नहीं है। मुसलमान दो मुखय सामाजिक विभाग मानते हैं-१. अशरफ अथवा शरु और २. अज़लफ। अशरफ से तात्पर्य है ‘कुलीन’, और इसमें विदेशियों के वंशज तथा ऊँची जाति के अधर्मांतरित हिन्दू शामिल हैं। शेष अन्य मुसलमान जिनमें व्यावसायिक वर्ग और निचली जातियों के धर्मांतरित शामिल हैं, उन्हें अज़लफ अर्थात्‌ नीचा अथवा निकृष्ट व्यक्ति माना जाता है। उन्हें कमीना अथवा इतर कमीन या रासिल, जो रिजाल का भ्रष्ट रूप है, ‘बेकार’ कहा जाता है। कुछ स्थानों पर एक तीसरा वर्ग ‘अरज़ल’ भी है, जिसमें आने वाले व्यक्ति सबसे नीच समझे जाते हैं। उनके साथ कोई भी अन्य मुसलमान मिलेगा-जुलेगा नहीं और न उन्हें मस्जिद और सार्वजनिक कब्रिस्तानों में प्रवेश करने दिया जाता है।
इन वर्गों में भी हिन्दुओं में प्रचलित जैसी सामाजिक वरीयताऔर जातियां हैं।
१. ‘अशरफ’ अथवा उच्च वर्ग के मुसलमान (प) सैयद, (पप) शेख, (पपप) पठान, (पअ) मुगल, (अ) मलिक और (अप) मिर्ज़ा।
२. ‘अज़लफ’ अथवा निम्न वर्ग के मुसलमान
(i) खेती करने वाले शेख और अन्य वे लोग जो मूलतः हिन्दू थे, किन्तु किसी बुद्धिजीवी वर्ग से सम्बन्धित नहीं हैं और जिन्हें अशरफ समुदाय, अर्थात्‌ पिराली और ठकराई आदि में प्रवेश नहीं मिला है।
( ii) दर्जी, जुलाहा, फकीर और रंगरेज।
(iii) बाढ़ी, भटियारा, चिक, चूड़ीहार, दाई, धावा, धुनिया, गड्‌डी, कलाल, कसाई, कुला, कुंजरा, लहेरी, माहीफरोश, मल्लाह, नालिया, निकारी।
(iv) अब्दाल, बाको, बेडिया, भाट, चंबा, डफाली, धोबी, हज्जाम, मुचो, नगारची, नट, पनवाड़िया, मदारिया, तुन्तिया।
३. ‘अरजल’ अथवा निकृष्ट वर्ग
भानार, हलालखोदर, हिजड़ा, कसंबी, लालबेगी, मोगता, मेहतर।
जनगणना अधीक्षक ने मुस्लिम सामाजिक व्यवस्था के एक और पक्ष का भी उल्लेख किया है। वह है ‘पंचायत प्रणाली’ का प्रचलन। वह बताते हैं :
”पंचायत का प्राधिकार सामाजिक तथा व्यापार सम्बन्धी मामलों तक व्याप्त है और……..अन्य समुदायों के लोगों से विवाह एक ऐसा अपराध है, जिस पर शासी निकायकार्यवाही करता है। परिणामत: ये वर्ग भी हिन्दू जातियों के समान ही प्रायः कठोर संगोती हैं, अंतर-विवाह पर रोक ऊंची जातियों से लेकर नीची जातियों तक लागू है। उदाहरणतः कोई घूमा अपनी ही जाति अर्थात्‌ घूमा में ही विवाह कर सकता है। यदि इस नियम की अवहेलना की जाती है तो ऐसा करने वाले को तत्काल पंचायत के समक्ष पेश किया जाता है। एक जाति का कोई भी व्यक्ति आसानी से किसी दूसरी जाति में प्रवेश नहीं ले पाता और उसे अपनी उसी जाति का नाम कायम रखना पड़ता है, जिसमें उसने जन्म लिया है। यदि वह अपना लेता है, तब भी उसे उसी समुदाय का माना जाता है, जिसमें कि उसने जन्म लिया था….. हजारों जुलाहे कसाई का धंधा अपना चुके हैं, किन्तु वे अब भी जुलाहे ही कहे जाते हैं।”
इसी तरह के तथ्य अन्य भारतीय प्रान्तों के बारे में भी वहाँ की जनगणना रिपोर्टों से वे लोग एकत्रित कर सकते हैं, जो उनका उल्लेख करना चाहते हों। परन्तु बंगाल के तयि ही यह दर्शाने के लिए पर्याप्त हैं कि मुसलमानों में जाति प्राणी ही नहीं, छुआछूत भी प्रचलित है।” (पृ. २२१-२२३)
९. इस्लामी कानून समाज-सुधार के विरोधी-”मुसलमानों में इन बुराइयों का होना दुखदहैं। किन्तु उससे भी अधिक दुखद तथ्य यह है कि भारत के मुसलमानों में समाज सुधार का ऐसा कोई संगठित आन्दोलन नहीं उभरा जो इन बुराईयों का सफलतापूर्वक उन्मूलन कर सके। हिन्दुओं में भी अनेक सामाजिक बुराईयां हैं। परन्तु सन्तोषजनक बात यह है कि उनमें से अनेक इनकी विद्यमानता के प्रति सजग हैं और उनमें से कुछ उन बुराईयों के उन्मूलन हेतु सक्रिय तौर पर आन्दोलन भी चला रहे हैं। दूसरी ओर, मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि ये बुराईयां हैं। परिणामतः वे उनके निवारण हेतु सक्रियता भी नहीं दर्शाते। इसके विपरीत, वे अपनी मौजूदा प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं। यह उल्लेखनीय है कि मुसलमानों ने केन्द्रीय असेंबली में १९३० में पेश किए गए बाल विवाह विरोधी विधेयक का भी विरोध किया था, जिसमें लड़की की विवाह-योग्य आयु १४ वर्ष् और लड़के की १८ वर्ष करने का प्रावधान था। मुसलमानों ने इस विधेयक का विरोध इस आधार पर किया कि ऐसा किया जाना मुस्लिम धर्मग्रन्थ द्वारा निर्धारित कानून के विरुद्ध होगा। उन्होंने इस विधेयक का हर चरण पर विरोध ही नहीं किया, बल्कि जब यह कानून बन गया तो उसके खिलाफ सविनय अवज्ञाअभियान भी छेड़ा। सौभाग्य से उक्त अधिनियम के विरुद्ध मुसलमानों द्वारा छोड़ा गया वह अभ्यिान फेल नहीं हो पाया, और उन्हीं दिनों कांग्रेस द्वारा चलाए गए सविनय अवज्ञा आन्दोलन में समा गया। परन्तु उस अभियान से यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि मुसलमान समाज सुधार के कितने प्रबल विरोधी हैं।” (पृ. २२६)
१०. मुस्लिम राजनीतिज्ञों द्वारा धर्मनिरपेक्षता का विरोध-”मुस्लिम राजनीतिज्ञ जीवन के धर्मनिरपेक्ष पहलुओं को अपनी राजनीति का आधार नहीं मानते, क्योंकि उने लिए इसका अर्थ हिन्दुओं के विरुद्ध अपने संघर्ष में अपने समुदाय को कमजोर करना ही है। गरीब मुसलमान धनियों से इंसाु पाने के लिए गरीब हिन्दुओं के साथ नहीं मिलेंगे। मुस्लिम जोतदार जमींदारों के अन्याय को रोकने के लिए अपनी ही श्रेणी के हिन्दुओं के साथ एकजुट नहीं होंगे। पूंजीवाद के खिलाफ श्रमिक के संघर्ष में मुस्लिम श्रमिक हिन्दू श्रमिकों के साथ शामिल नहीं होंगे। क्यों ? उत्तर बड़ा सरल है। गरीब मुसलमान यह सोचता है कि यदि वह धनी के खिलाफ गरीबों के संघर्ष में शामिल होता है तो उसे एक धनी मुसलमान से भी टकराना पड़ेगा। मुस्लिम जोतदार यह महसूस करते हैं कि यदि वे जमींदारों के खिलाफ अभियान में योगदान करते हैं तो उन्हें एक मुस्लिम जमींदार के खिलाफ भी संघर्ष करना पड़ सकता है। मुसलमान मजदूर यह सोचता है कि यदि वह पूंजीपति के खिलाफ श्रमिक के संघर्ष में सहभागी बना तो वह मुस्लिम मिल-मालिक की भावाओं को आघात पहुंचाएगा। वह इस बारे में सजग हैं कि किसी धनी मुस्लिम, मुस्लिम ज़मींदार अथवा मुस्लिम मिल-मालिक को आघात पहुंचाना मुस्लिम समुदाय को हानि पहुंचाना है और ऐसा करने का तात्पर्य हिन्दू समुदाय के विरुद्ध मुसलमानों के संघर्ष को कमजोर करना ही होगा।” (पृ. २२९-२३०)
११. मुस्लिम कानूनों के अनुसार भरत हिन्दुओं और मुसलमानों की समान मातृभूमि नहीं हो सकती-”मुस्लिम धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार, विश्व दो हिस्सो में विभाजित है-दार-उल-इस्लाम तथा दार-उल-हर्ब। मुस्लिम शासित देश दार-उल-इस्लाम हैं। वह देश जिसमें मुसलमान सिर्फ रहते हैं, न कि उस पर शासन करते हैं, दार-उल-हर्ब है। मुस्लिम धार्मिक कानून का ऐसा होने के कारण भारत हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों की मातृभूमि नहीं हो सकती है। यह मुसलमानों की धरती हो सकती है-किन्तु यह हिन्दुओं और मुसलमानों की धरती, जिसमें दोनोंसमानता से रहें, नहीं हो सकती। फिर, जब इस पर मुसलमानों का शासन होगा तो यह मुसलमानों की धरती हो सकती है। इस समय यह देश गैर-मुस्लिम सत्ता के प्राधिकार के अन्तर्गत हैं, इसलिए मुसलमानों की धरती नहीं हो सकती। यह देश दार-उल-इस्लाम होने की बजाय दार-उल-हर्ब बन जाताप है। हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि यह दृष्टिकोण केवल शास्त्रीय है। यह सिद्धान्त मुसलमानों को प्रभावित करने में बहुत कारगर कारण हो सकता है।” (पृ. २९६-२९७)
१२. दार-उल-हर्व भारत को दार-उल-इस्लाम बनाने के लिए जिहाद-”यह उल्लेखनीय है कि जो मुसलमान अपने आपको दार-उल-हर्ब में पाते हैं, उनके बचाव के लिए हिजरत ही उपाय नहीं हैं मुस्लिम धार्मिक कानून की दूसरी आज्ञा जिहाद (धर्म युद्ध) है, जिसके तहत हर मुसलमान शासक का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि इस्लाम के शासन का तब तक विस्तार करता रहे, जब तक सारी दुनिया मुसलमानों के नियंत्रण में नहीं आ जाती। संसार के दो खेमों में बंटने की वजह से सारे देश या दो दार-उल-इस्लाम (इस्लाम का घर) या दार-उल-हर्ब (युद्ध का घर) की श्रेणी में आते हैं। तकनीकी तौर पर हर मुस्लिम शासक का, जो इसके लिए सक्षम है, कर्त्तव्य है कि वह दार-उल-हब्र कोदार-उल-इस्लाम में बदल दे; और भारत में जिस तरह मुसलमानों के हिज़रत का मार्ग अपनाने के उदाहरण हैं, वहाँ ऐसेस भी उदाहरण हैं कि उन्होंने जिहाद की घोषणा करने में संकोच नहीं किया।”
”तथ्य यह है कि भारत, चाहे एक मात्र मुस्लिम शासन के अधीन न हो, दार-उल-हर्ब है, और इस्लामी सिद्धान्तों के अनुसार मुसलमानों द्वारा जिहाद की घोषणा करना न्यायसंगत है। वे जिहाद की घोषणा ही नहीं कर सकते, बल्कि उसकी सफलता के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति की मदद भी ले सकते हैं, और यदि विदेशी मुस्लिम शक्ति जिहाद की घोषणा करना चाहती है तो उसकी सफलता के लिए सहायता दे सकते हैं।” (पृ. २९७-२९८)
१३. हिन्दू-मुस्लिम एकता असफल क्यों रही ?-”हिन्दू-मुस्लिम एकता की विफलता का मुखय कारण इस अहसास का न होना है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो भिन्नताएं हैं, वे मात्र भिन्नताएं ही नहीं हैं, और उनके बीच मनमुटाव की भावना सिर्फ भौतिक कारणों से ही नहीं हैं इस विभिन्नता का स्रोत ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दुर्भावना है, और राजनीतिक दुर्भावना तो मात्र प्रतिबिंब है। ये सारी बातें असंतोष का दरिया बना लेती हैं जिसका पोषण उन तमाम बातों से होता है जो बढ़ते-बढ़ते सामान्य धाराओं को आप्लावित करता चला जाता हैं दूसरे स्रोत से पानी की कोई भी धारा, चाहे वह कितनी भी पवित्र क्यों न हो, जब स्वयं उसमें आ मिलती है तो उसका रंग बदलने के बजाय वह स्वयं उस जैसी हो जाती हैं दुर्भावना का यह अवसाद, जो धारा में जमा हो गया हैं, अब बहुत पक्का और गहरा बन गया है। जब तक ये दुर्भावनाएं विद्यमान रहती हैं, तब तक हिन्दू और मुसलमानों के बीच एकता की अपेक्षा करना अस्वाभाविक है।” (पृ. ३३६)
१४. हिन्दू-मुस्लिम एकता असम्भव कार्य-”हिन्दू-मुस्लिम एकता की निरर्थकता को प्रगट करने के लिए मैं इन शब्दों से और कोई शबदावली नहीं रख सकता। अब तक हिन्दू-मुस्लिम एकता कम-से-कम दिखती तो थी, भले ही वह मृग मरीचिका ही क्यों न हो। आज तो न वह दिखती हे, और न ही मन में है। यहाँ तक कि अब तो गाांी ने भी इसकी आशा छोड़ दी है और शायद अब वह समझने लगे हैं कि यह एक असम्भव कार्य है।” (पृ. १७८)
१५. साम्प्रदायिक शान्ति के लिए अलपसंखयकों की अदला-बदली ही एक मात्र हल-”यह बात निश्चित है कि साम्प्रदायिक शांति स्थापित करने का टिकाऊ तरीका अल्पसंखयकों की अदला-बदली ही हैं।यदि यही बात है तो फिर वह व्यर्थ होगा कि हिन्दू और मुसलमान संरक्षण के ऐसे उपाय खोजने में लगे रहें जो इतने असुरक्षित पाए गए हैं। यदि यूनान, तुकी और बुल्गारिया जैसे सीमित साधनों वाले छोटे-छोटे देश भी यह काम पूरा कर सके तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हिन्दुस्तानी ऐसा नहीं कर सकते। फिर यहाँ तो बहुत कम जनता को अदला-बदली करने की आवश्यकता पड़ेगी ओर चूंकि कुछ ही बाधाओं को दूर करना है। इसलिए साम्प्रदायिक शांति स्थापित करने के लिए एक निश्चित उपाय को न अपनाना अत्यन्त उपहासास्पद होगा।” (पृ. १०१)
१६. विभाजन के बाद भी अल्पसंखयक-बहुसंखयक की समस्या बनी ही रहेगी-”यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि पाकिस्तान बनने से हिन्दुस्तान साम्प्रदायिक समस्यासे मुक्त नहीं हो जाएगा। सीमाओं का पुनर्निर्धारण करके पाकिस्तान को तो एक सजातीय देश बनाया जा सकता हे, परन्तु हिन्दुस्तान तो एक मिश्रित देश बना ही रहेगा। मुसलमान समूचे हिन्दुस्तान में छितरे हुए हैं-यद्यपि वे मुखयतः शहरों और कस्बों में केंद्रित हैं। चाहे किसी भी ढंग से सीमांकन की कोशिश की जाए, उसे सजातीय देश नहीं बनायाजा सकता। हिन्दुस्तान को सजातीय देश बनाने काएकमात्र तरीका है, जनसंखया की अदला-बदली की व्यवस्था करना। यह अवश्य विचार कर लेना चाहिए कि जब तक ऐसा नहीं कियाजाएगा, हिन्दुस्तान में बहुसंखयक बनाम अल्पसंखयक की समस्या और हिन्दुस्तान की राजनीति में असंगति पहले की तरह बनी ही रहेगी।” (पृ. १०३)
१७. अल्पसंखयकों की सुरक्षा के लिए संवैधानिक उपाय-”अब मैं अल्पसंखयकों की उस समस्या की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ जो सीमाओं के पुनः निर्धारण के उपरान्त भी पाकिस्तान में बनी रहेंगी। उनके हितों की रक्षा करने के दो तरीके हैं। सबसे पहले, अल्पसंखयकों के राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान में सुरक्षा उपाय प्रदान करने हैं। भारतीय के लिए यह एक सुपरिचित मामला है और इस बात पर विस्तार से विचार करना आवश्यक है।” (पृ. ३८५)
१८. अल्पसंखयकों की अदला-बदली-एक संभावित हल-”दूसरा तरीका है पाकिस्तान से हिन्दुस्तान में उनका स्थानान्तरणकरने की स्थिति पैदा करना। अधिकांश जनता इस समाधान को अधिक पसंद करती हे और वह पाकिस्तान की स्वीकृति के लिए तैयार और इच्छुक हो जाएगी, यदि यह प्रदर्शित किया जा से कि जनसंखया का आदान-प्रदान सम्भव है। परन्तु इसे वे होश उड़ा देने वालीऔर दुरूह समस्या समझते हैं। निस्संदेह यह एक आतंकित दिमाग की निशनी है। यदि मामले पर ठंडे और शांतिपूर्ण एंग से विचार किया जाए तो पता लग जाएगा कि यह समस्या न तो होश उड़ाने वाली है, और न दुरूह।” (पृ. ३८५)
(सभी उद्धरण बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्‌मय, खंड १५-‘पाकिस्तान और भारत के विभाजन, २००० से लिए गए हैं

मै महेंद्र पाल आर्य।

मै महेंद्र पाल आर्य कोलकाता के असगर मिस्त्री लेन कोलकाता३९.पश्चिम बंगाल के राजधानी में इक पढ़े लिखे परिवार में जन्मा|परिवार के रीती रिवाज़ अनुसार पला बढ़ा.परिवारके लोग हर दिशा में काम करतेरहे| शिक्षा क्षेत्रमें मेरे फूफेरे भाई-डॉ.अबू ताहिर बोलपुर शांतिनिकेतन.में.अरबी.फारसी-विभाग अध्क्ष.रहे–अब्दुर रउफ कोलकाता के मेयर रहे|कई डॉ और वकील भी इस परिवार ने दिया-धार्मिक क्षेत्र में भी ठीक.यही गति विधि होने के कारण मुझे भी बचपन से इस्लामिक शिक्षा मिलती रही-जिसमे मै अपनी पढ़ाई कोलकाता और दिल्ली में पूरी कि |

दिल्ली में रहते मै अपने मित्र से मिलने ग्राम बरवाला जिला मेरठ{अब बागपत}में गया यहाँकि बड़ी मस्जिद खाली थी|मित्र ने सब से बात की.अब्दुल लतीफ़-हाजी फिज़ू –हाजी शफी-और जितने भी कमिटी के लोग थे १२० घर उस मस्जिद से जुड़े थे-लोगोंने मेंरी पढ़ने का तरीका बोलचाल व्यवहार कुशलता को पसंद किया-और इमामत करने कि बात पक्की करली|मै लगभग तीन साल तक इमामत की-आस पास के लोगोंमे मेरी चर्चा होने लगी|मै बंगाल का रहने वाला इतनी अच्छी जान कारी रखने वाला आलिम.को पा कर गांव के लोग बेहद पसंद करने लगे |बहुत ज़ल्द पुरे जिले में-और आसपास के जिलों में भी बात खूब फैली-लोगों में चर्चा थी बंगाली जादू जानता है-पर ऐसा कुछ भी नहीं था ज़ब्की मै ही इस काम का बिरोधी था-फिरभी लोग मुझसे तावीज़ आदि बनवाने आते थे-कुछ तो अपनी दवा लेने को आते थे अदि.कुल मिलाकर सब ठीक चलरहा था| उसी ग्राम का मास्टर कृष्ण पाल सिंह जो गुरुकुल इंद्र प्रस्थ में बिज्ञान के मास्टर थे-मेरी तारीफ अपने गुरुकुल में जाकर की.स्वामी शक्तिवेश जी संचालक थे-उनहोंने मुझे मिलनेको बुलावा भेजा |

मै समय निकाल कर उनसे मिलने गया-एक रात रुका भी गुरुकुल के सभी मास्टरों से आधिकारी और पढ़ने वालों से मिला=वह गुरुकुल लालकिला से कुछ कम नहीं=उन्ही लोगों के साथ खाया–वहां नमाज़ भी पढ़ी फिर ज़ब वहां से चलने लगा तो वहां के श्री मंत्री जी ने मुझे उर्दू वाली सत्यार्थ प्रकाश नामी किताब दी-उसे लेकर मै बरवाला के लिये रवाना होगया |उसे पलटने पर कुरान कि अयातें मिली खूब मोनोयोग से पढ़ा.सवालों.को देख कर माथा ठनका|अरे कुरान पर सवाल यह कैसे संभव हुवा?कारण बचपन से अबतक कि मेरी जो तालीम थी वह यही थी.कि कुरान पर सवाल करना?किसी कि बसकी बात नहीं ?मै तो हक्का बक्का रह गया| मै अपनी पुस्तक में खूब बिस्तार से लिखा हूँ–अस्तु- मैंने इसी किताब से कुछ सवाल उठा कर २५ ज़गहजिस में दारुल इफ्ताह–फतवा देनेका अधिकार-जहाँ –जहाँ-मदरसे में है भेज दिया|७ ज़गह से उत्तर मिला आप इस लायक ही नहीं–आप गुमराह.होगये–मुर्तित होगये–आदि ज़ब ज़वाब सही नहीं मिल पाया तो १९६३ को मैंने सत्य सनातन बैदिक धर्म स्वीकार किया |उसी बरवाला ग्राम के हाई स्कूल में कई मुस्लिम मास्टर भी थे-उसी ग्राम के जाने माने-मास्टर गुलाम रसूल साहब भी थे |सब के सामने हजारों कि भीड़ में मैंने सत्य सनातन बैदिक धर्म को स्वीकार किया-पुरे परिवार के साथ |

स्वामी शक्ति वेश जी ने परिवार का नाम करण किया-मेरा नाम मोलवी महबूब अली से पंडित महेन्द्र पाल-और बेटोंका–भी इसी प्रकार नाम बदला गया|अब मुझे स्वामी जीने जनता को संबोधित करने को कहा तो मै अपने पहले भाषण में कहा कि मै धर्म नहीं बदल रहा हूँ-धर्म मानव मात्र के लिये एक ही है धर्म बदलना.संभव नहीं |धर्म ईश्वर प्रदत्त होता है जो मानव मात्र केलिये है-जैसा सूरज अपना प्रकाश प्राणी मात्र को देता है-कारण यह ईश्वर आधीन है-तो धर्म भी ईश्वर आधीन होने से उससे अलग होना मुनासिब नहीं है.मै समाज.बदल.रहा हूँ| मुस्लिम समाज अंध बिश्वासिवों का समाज है ज़हा अल्लाह को पाने के लिये मोहम्मद का पाना ज़रूरी है| वा आतिउल्लाह व अतिउर्रसुल –अर्थ इतायत करो मेरी और मेरी रसूल कि-वेद में वह बात नहीं|

अगर कोई परमात्मा को पाना चाहता है?तो किसी भी बिचोलिया किज़रूरत नहीं-वह सीधा परमात्मा को पा सकता है|शर्त है कि वह परमात्मा को जान जाए-दुनिया के लोग उसे बिना जाने ही मानते हैं-कुरान का फरमान है ज़ालिकल किताबु ला राइ बफिः–अर्थ कोई शक कि गुन्जाईश नहीं इस किताब में|ذا لك الكتاب لا ريب فيه | मैंने कहा मै इन्सान हूँ हमारे पास अक़ल है हमे अक़ल से काम लेना है|अतःहमें देख कर मानना होगा |इस अंध बिश्वास से मै मुक्ति पाने के लिये वैदिक धर्म को अपनाया है|बाकी जिंदगी मै पढ़े लिखे लोगों के साथ गुजार.ना चाहता हूँ | सभी लोगों ने पुरे परिवार को आशीर्वाद दिया.एक सौहार्द पूर्ण वाता वरण में कार्य क्रर्म संपन्न हुआ–मास्टर कृष्ण पाल जी के घर पर प्रीती भोज कर हम सभी इन्द्रप्रस्थ गुरुकुल लौटे| मै आधिकारी बनकर रहने लगा-अर्याज़गत के सभी बड़े-बड़े-विद्वानों से मिलाने का काम स्वामी शक्तिवेश जीने अपने ऊपर लिया और उत्तर प्रदेश-दिल्ली–हरयाणा–चारो तरफ धुवां धार प्रचार चलती रही | मै अपना विषय तुलनात्मक अद्धायन ही पसंद किया|वेद और कुरान ही मेरा विषय है जिसको.आज.पूरी.दुनिया देख रही है और समझ रही है| जिसके वल पर अब तक मै इस्लाम जगत के कई जाने माने हस्तिओं से.जो लोग अपने को कुरान और हदीसों के जानकार मानते हैं-उन्ही लोगोंसे शाश्त्रार्थ कर चूका हूँ |

परमात्मा और अल्लाह के संदर्भ में ज़ब मैंने कहा कि दोनों एक नहीं है?तो अब्दुल्लाह तारिक झुनझला.गये.कि यह सही नहीं है?मेरे प्रमाण देने पर भी मानने को तैयार नहीं |तो इसे मै पुस्तक के रूप में दुनिया वालों को बताना उचित समझा |और पूर्व इमाम के कलम से वेद और कुरान कि समिक्षा लिखी-जो मेरे वैदिकज्ञान वेब साइट में देखा जा सकता है |जिस में अल्लाह के ९९ नाम बताया जाता है-और कुरान में वह.किस.किस.ज़गह आया है?उसका अर्थ सहित सह प्रमाण लिखा हूँ| और वेद में परमात्मा के आसंख नाम आया.है.वह किन किन मन्त्रों में आया है-उसको भी अर्थ सहित लिखा हूँ-भली भांति आप सभी जने उसको देख व पढ़ सकते है वहा से ले भी सकते हैं किसी प्रकार का कोई फ़ीस भरने कि ज़रूरत नहीं | वैदिक ज्ञान को मै इस लिये चुना-कि वेदों के नाम से लोग अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं-उन लोगों द्वारा हो रहा है जो वेदों का व तक नहीं जानते | और नाहक वेद में मोहम्मद का नाम बताने लगे-पर यह समझ नहीं.लोगों में?कि परमात्मा का दिया ज्ञान जो मनुष्य मात्र के लिया है-तो उसमे किसी व्यक्ति बिशेष का नाम होना ही दोष है?और यह दोष परमात्मा पर लगेगा-फिर उसका परमात्मा होना-सम्भव नहीं होगा |कुरान तथा बाइबिल में यही सब दोष है–तो लोगों ने सोचा कि वेद भी ठीक ऐसा ही होगा? इसी विचार ने वेदों पर आकक्षेप लगा ने कि हिम्मत कि है |वेद क्या है पहले हमें जानना पड़ेगा?उसे जाने बिना ही उस पर टिप्णी करना खतरा से खाली नही होगा|

बृहस्यते प्रथमं वाचो अग्रं यत्प्रेरत नामधेयं दधानाः|यदेषां श्रेषठं यदरि प्रमासीत्प्रेणा तदेषां निहितं गुहाबिः || अर्थ=जब् मनुष्य उत्पन्न हुए-और उन्होने चारों ओर परिदृश्यमान पदार्थों के नामकरण की तब परमगुरु विद्या निधान ने उनमे वाणी की प्रेरणा की-वही वाणी का प्रथम प्रकाश है |वह वाणी किनको मिली ?जो गर्भारम्भ से श्रेस्ट.एवं निर्दोष-होने के साथ प्रभु की कल्याणी वाणी के प्रचार के लिये उत्कट भावना रखते.थे| सर्व ब्यापक अन्तर्यामी प्रभु ने उनके हृदय में प्रेरणा की | यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत-का अर्थ- है जो ज्ञान श्रेस्ठ हो=सबसे उत्तम-निर्दोष-भ्रम-विप्रलिप्सा-आदि दोषों से शून्य-जिनके हृदय में परमात्मा ने प्रगट कराया | यह है वेद ज्ञान का आबिर्भाव |अब कुरान का नाजिल होने को देखें-यह तो सभी को मालूम है कि हजरत मोहम्मद- रसूले खोदा पर अल्लाह तयला ने कुरान नाजिल की है | ज़ब यह गारे हेरा में जा कर एकांत वास करते थे-तो ज़ेब्राइल नामी फ़रिश्ते हुजुर के पास आए –और उनका सीना चाक किया | यानि उनके दिल को निकला|यानि सर्ज़रिकी?बताया जाता है कि उनके दिलको निकाल कर एक तश्तरी में-A2 रखी गई | फिर उसे,ज़म.ज़म.के.पानी से धोयागाया आदि-एक बार हज़रत गारे हेरा अय्तेकाफ़{ध्यान}अबस्थित थे.और उसी वक़्त कि यह घटना है |جب وقت نبوت کا قریب آیا سینہ مبارک چاک کیا گیا یہ کام حضرت جبریل اور میکا ییل زمیں پر لٹا دی اور دل میرا آب زم زم سے طشت کیا دھو کر کوی چیز اس سے نکالی مجھ کو کچھ معلوم نہ ہوا پھر دل کو رکھ کر سینے کو درست کیا اور میرے ہاتھ پا ووں پکڑ کر لیتا دیا | جس طرح برتن سے کوی سا مان نکالا मै हिंदी में पहले लिख चूका हूँ –मै उपर बतायाहू वेद का आना कैसे हुवा?अब कुरान पर कई सवाल आ गया कि जो-फ़रिश्ता जिब्रील और मिकाईल-ने मोहम्मद साहब का दिल निकाला?कहा कि गारेहिरा नाम कि गुफा में? भाई लोगो ज़रा वीचार तो करो कि गुफा में यह काम होना कैसे सम्भोव्?क्या वह कोई नर्सिंग होम था? या कोई हॉस्पिटल?और उन फरिश्तों ने किस मेडिकल कॉलेज से सर्ज़री पढ़ी थी?इस्लाम का ज़वाब होगा अल्लह कि मर्ज़ी?इसी का नाम है अंध बिस्वास?जो मै पहले बताया हूँ कि मै इस्लाम के इन अंधानुकरण से निकल कर बैदिक रूपी सच्चे दीन को कुबूल किया हूँ |

वैदिक ज्ञान को छोड़ धरती पर जितने भी मत पंथ है सब में यही बात है अल्लाह कि मर्ज़ी वैदिक मान्यता में परमात्मा कि मर्ज़ी नहीं होती |इस भेद को हमें जानना होगा–जो मै वैदिक ज्ञान के माध्यम.से दुनिया वालों को बताना अपना कर्तब्य समझ कर इस कार्य को आरम्भ किया हूँ |आप लोगों को भी उचित है कि इस सत्य को समझ कर औरों तक बताना या पोहुचा देना | इस अंध बिस्वास को ज़रा और खोल दें तो हो सकता है सब कि दिमाग में बात सही सही लगने लगे ?अब तो अल्लाह ने कुरान जिब्रील के माध्यम से भेजा-और उन्हों ने हज़रत मोहम्मद साहब के दिलको धो कर लगा ने के बाद कहा पढ़ो=ज़वाब मिला मै पढ़ना नहीं जानता-जो कुरान के ५ आयत-एकरा बिसमे रबबीकल लज़ी खलक-१-खालाक़ल इंसाना मिनअलाकीन-२-एकरा वा रब्बुकल अक्रमु-३-ल्ल्ज़ी अल्लामा बिल कलामे-४-अल्लमल इंसाना मालम यलम-५=अर्थ==पढ़ साथ नाम परवर दीगार अपने के-जिसने पैदा.किया=पैदा किया आदमी को जमें हुयेलहू से=पढ़ और परवरदिगार तेरा बोहत कर्म करनेवाला है=जिसने सिखाया साथ कलमके =सिखाया आदमीको जो कुछ नहीं जनता था= إقرا باسم رابيك الذي خلق ٠ خلق الإنسان من علق أقرا وربك الاأكرامولزي المبالقلم علم الان سان ما لم يع لم

यह है वह ५ आयत=अर्थ मै उपर लिख चूका हूँ |अप इसपर वीचार करना है?कुरान के अनुसार तो ज़िबरील ने जो आयत मोहम्मद को पढ़ाया=क्या अल्लाह ने उसे पढ़ाकर भेज़ाथा? अगर नही तो जिब्रील को कहांसे मिली ?कि तुम्हे जा कर यह बोलना है? और अगर अल्लाह ने पढ़ाकर भेजा तो जिब्रील के सर्ज़री बिना अल्लाह ने कैसे पढ़ा दिया? ज़ब कि वही बात बताने के लिया मोहम्मद साहब का दिल निकल ना पढ़ा ?अब कुरान का कलामुल्लाह होना कैसे संभव हो सकता है ?दूसरी बात है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जिब्राएल ने अपनी तरफ से यह सारा काम किया हो? कुरान में अल्लाह ने जिब्रील को यही आयत पढ़ा कर भेजा यह चर्चा पूरी कुरान में कही नहीं ? इसी का नाम अंध बिस्वास है.हर दशा में कुरान सवालों के घेरे में है | कुरान के मानने वालों कि मान्यता है कि अल्लाह कि मर्ज़ी है|يمحو الله ما يشا أ و يثبت و عنده أ م الكتا ب अर्थ =मिटाता है अल्लाह और रखता है.जिस बात को चाहता है| यहाँ तो भाई अल्लाह कि मन मर्ज़ी है-जो.कि एक साधारण इन्सान भी नहीं कर सकता=अल्लाह की कैसे कैसे मर्ज़ी हैं देखें?जैसा दिल निकला गया उपर देखा आप लोगोंने|ठीक उसी प्रकार आदमके अन्दर रूह डाला अल्लाह ने=أد خل كر هاوأخ روج كر هان = أيها الرو ح أد خل في هذا الجسد अर्थ =ऐरुह आदम की कालिब के-अन्दर जा=ऐ.जानआदम दाखिल हो तन में नफरत से और निकल आंत से | अब सवाल है कि आदम में डालने के लिये अल्लाह को रूह मिली कहाँ ?रूह बनी किस चीज़ से?इसे बनानेवालेकौन इस प्रकार कुरान से अनेक सवाल है|जिसका ज़वाब इस्लाम के आलिमों से नहीं मिल पाया-और न हीं मिलना संभव है| बैदिक ज्ञान के द्वारा-मत.पंथों.की.बातोको-औरोंतक.पोहुंचाना.मै अपना.लक्ष.माना है |

मै यह कई दिनसे देख रहा हूँ की कुछ इस्लाम नामधारियों ने ज्यादा कुछ बड़बोला पण का कम कर रहे हैं और कुछ अप्धाब्द जैसा जाहिल अदि लिख रहे हैं मुझे |किन्तु यह नहीं समझते की जाहिल वही हिता है जो दिमाग से कम न ले | तो भाइयों को जानना था की इस्लाम में अकल पर दखल देना मना है ,तो जाहिल कौन हुवा ?

जड़ो से नफरत।

भारत और पाकिस्तान के मुस्लिमों मे एक समस्या है जिसका नाम है - पहचान का संकट। उर्दू मे शिनाख्त का बोहरान और इंगलिश मे Identity Crisis.
आज भी ये लोग अपने पूर्वज अरब मे ढूंढते हैं। पिछले 1 साल से पाकिस्तानियों के पूर्वज तुर्की मे ढूँढे जा रहे हैं। 
पाकिस्तान के सबसे बड़े आदर्श हैं मुहम्मद बिन कासिम और महमूद गजनवी। दोनों लुटेरे और बलात्कारी। आज सिन्ध मे कासिम की याद मनाई जाती हैं, जिसने सिन्ध की बेटियाँ उठाई थी। 
ऐसे मे उन्हे बेटियों को बचाने वाला क्यों पसंद आएगा। महाराजा रणजीत सिंह हो या दुल्ला भट्ट उन्हे तो दुश्मन ही लगेगा। मामूली सा राजपूत जो अकबर से टकरा गया उससे नफरत ही होगी। 
पाकिस्तानी पंजाब मे लोकगाथा इस प्रकार है -
सुंदरदास किसान था, उस दौर में जब संदल बार में मुगल सरदारों का आतंक था. उसकी दो बेटियां थीं सुंदरी और मुंदरी. गांव के नंबरदार की नीयत लड़कियों पर ठीक नहीं थी. वो सुंदरदास को धमकाता बेटियों की शादी खुद से कराने को. सुंदरदास ने दुल्ला भट्टी से बात कही. दुल्ला भट्टी नंबरदार के गांव जा पहुंचा. उसके खेत जला दिए. लड़कियों की शादी वहां की, जहां सुंदरदास चाहता था.
अकबर की 12 हजार की सेना दुल्ला भट्टी को न पकड़ पाई थी, तो सन 1599 में धोखे से पकड़वाया. लाहौर में दरबार बैठा. आनन-फानन फांसी दे दी गई. मियानी साहिब कब्रगाह में अब भी उनकी कब्र है. जिसको पिछले साल तोड़ दिया गया था। 

वाघा अटारी बॉर्डर से लगभग 200 किलोमीटर पार, पाकिस्तान के पंजाब में पिंडी भट्टियां है. वहीं लद्दी और फरीद खान के यहां 1547 में हुए दुल्ला भट्टी .उनके पैदा होने से चार महीने पहले ही उनके दादा संदल भट्टी और बाप को हुमायूं ने मरवा दिया था. खाल में भूसा भरवा के गांव के बाहर लटकवा दिया था. वजह ये कि मुगलों को लगान देने से मना कर दिया था। 
दुला भट्टी जो कि किन्हीं कारणों से मुसलमान बन गया था? वह व्यक्ति बहुत ही दयालु स्वभाव का था, लोगों के कष्टों को देखकर उसका हृदय द्रवित हो उठा करता था। हो सकता है कि वह प्रारंभ में विद्रोही हिंदू रहा हो पर कालांतर में किसी प्रकार के दबाव में आकर मुस्लिम बन गया था। मुस्लिम बनकर भी उसका अपने धर्म बंधुओं के प्रति व्यवहार अत्यंत भद्र रहा। हिंदुओं ने भी उसकी विवशता और बाध्यता को समझा तथा उसके प्रति सभी ने सहयोगी दृष्टिकोण अपनाया।
‘भटनेर का इतिहास’ के लेखक हरिसिंह भाटी इस पुस्तक के पृष्ठ संख्या 183 पर लिखते हैं :-”दुला भट्टी की स्मृति में पंजाब, जम्मू कश्मीर, दिल्ली, हरियाणा राजस्थान और पाकिस्तान में (अकबर का साम्राज्य की लगभग इतने ही क्षेत्र पर था) लोहिड़ी का पर्व हर्षोल्लास के साथ मकर संक्रांति (14 जनवरी) से एक दिन पूर्व अर्थात प्रति वर्ष 13 जनवरी को मनाया जाता है। उसके काल में यदि धनाभाव के कारण कोई हिंदू या मुसलमान अपनी बहन बेटी का विवाह नही कर सकता था तो दुला धन का प्रबंध करके उस बहन बेटी का विवाह धूमधाम से करवाता था। अगर वह स्वयं विवाह के समय उपस्थित नही हो सकता था तो विवाह के लिए धन की व्यवस्था अवश्य करवा देता था।”
दुला भट्टी को मुगलों ने एक डाकू के रूप में उल्लिखित किया है। परंतु उसे डाकू कहना उसकी वीरता का अपमान करना है। कारण कि डाकू का उद्देश्य दूसरों का धन हड़पकर अपनी निजी आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है। इसके लिए डकैत का कोई सिद्घांत नही होता कि उसे ऐसा धन किसी विशेष व्यक्ति से लेना है छीनना है और किसी विशेष व्यक्ति वर्ग से नही छीनना है वह तो धनी, निर्धन छोटे-बड़े किसी से भी धन छीन सकता है। किसी की कमाई की संपत्ति को हड़पने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से डकैत होता है।
। उसकी पावन-स्मृति में मनाये जाने वाले पर्व लोहड़ी को हमें और भी अधिक गरिमा प्रदान करनी चाहिए, जिससे कि उसके मनाये जाने के पावन उद्देश्य को लोग समझ सकें और हम भी एक शहीद को उसका सच्चा स्थान इतिहास में दे सकें।

कब्र तोड़ कर पाकिस्तान के लोगों ने बता दिया कि उनकी नजर मे बेटियाँ बचाने वाला गलत है और बेटियों को उठाने वाला सही।

12 साल में अरब के सभी मूर्तिपूजक।

622 ई से लेकर 634 ई तक  मात्र 12 साल में अरब के सभी मूर्तिपूजकों को मूहम्मद साहब ने इस्लाम की तलवार से पानी पिलाकर मुसलमान बना दिया ।।

634 ईस्वी से लेकर 651 तक , यानी मात्र 16 साल में सभी पारसियों को तलवार की नोक पर इस्लाम की दीक्षा दी गयी ।।

640 में मिस्र में पहली बार इस्लाम ने पांव रखे, ओर देखते ही देखते मात्र 15 सालों में , 655 तक इजिप्ट के लगभग सभी लोग मुसलमान बना दिये गए ।।

नार्थ अफ्रीकन देश जैसे - अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, मोरक्को आदि देशों को 640 से 711 ई तक पूर्ण रूप से इस्लाम धर्म मे बदल दिया गया, 3 देशों का सम्पूर्ण सुख चैन लेने में मुसलमानो ने मात्र 71 साल लगाए ।

711 ईस्वी में स्पेन पर आक्रमण हुआ, 730 ईस्वी तक स्पेन की 70% आबादी मुसलमान थी । मात्र 19 सालों में ।

तुर्क थोड़े से वीर निकले, तुर्को के विरुद्ध जिहाद 651 ईस्वी में शुरू हुआ, ओर 751 ईस्वी तक सारे तुर्क मुसलमान बना दिये गए ।।

मंगौलो यानी इंडोनेशिया के विरुद्ध जिहाद मात्र 40 साल में पूरा हुआ । 1260 में मुसलमानो ने इंडोनेशिया में मार काट मचाई, ओर 1300 ईस्वी तक सारे इंडोनेशिया के मंगोल मुसलमान बन चुके थे । नाममात्र के लोगो को छोड़कर ।

फिलिस्तीन, सीरिया, लेबनान, जॉर्डन आदि देशों को 634 से 650 के बीच मुसलमान बना दिया गया ।।

उसके बाद 700 ईस्वी में भारत के विरुद्ध जिहाद शुरू हुआ वह अब तक चल रहा है ।।

 इस्लामिक आक्रमणकारियों की क्रूरता का अंदाजा इस बात से लगाएं की मुसलमानो का ईरान पर आक्रमण हुआ, मुसलमानी सेना ईरानी राजा के महल तक पहुंच गई । महल में लगभग 2 या 3 साल की पारसी राजकुमारी थी । ईरान पर आक्रमण अली ने किया था, जिसे शिया मुसलमान मानते है ।

आपको लगता होगा कि अली कोई बहुत बड़ा महात्मा था, इसलिए शिया मुसलमान थोड़े ठंडे होते है, जबकि ऐसा कुछ नही है, कासिम, अकबर, औरंगजेब ओर इस अली नाम के राक्षस में सुत मात्र का भी फर्क नही था ।। 

पारसी राजकुमारी को बंदी बना लिया गया, अब वह कन्या थी, तो लूट के माल पर पहला हक़ खलीफा मुगीरा इब्न सूबा का था । खलीफा को वह मासूम बच्ची भोग के लिए भेंट की गई ।लेकिन खलीफा ईरान में अली की लूट से इतना  खुश हुआ कि अली को कह दिया, इसका भोग तुम करो । मुसलमानी क्रूरता , पशु संस्कृति का एक सबसे गलीच नमूना देखिये, की  तीन साल की बच्ची में भी उन्हें औरत दिख रही थी । वह उनके लिए बेटी नही, भोग की वस्तु थी । 

बेटी के प्रेम में पिता को भी बंदी बनना पड़ा, इस्लाम या मौत में से एक चुनने का बिकल्प पारसी राजा को दिया गया । पारसी राजा ने मृत्यु चुनी । अली ने उस तीन साल की मासूम राजकुमारी को अपनी पत्नी बना लिया ।। अली की पत्नी Al Sahba' bint Rabi'ah मात्र 3 साल की थी, ओर उस समय अली 30 साल ले भी ऊपर था । यह है इस्लाम, ओर यह है इस्लाम की संस्कृति । 

मेने मात्र ईरान का उदाहरण दिया है, इजिप्ट हो या अफ्रीकन देश सब जगह यही हाल है । जिस समय सीरिया आदि को जीता गया था, उसकी कहानी तो ओर दर्दनाक है ।  मुसलमानो ने ईसाई सैनिकों के आगे अपनी औरतों को कर दिया । मुसलमान औरते गयी ईसाइयों के पास की मुसलमानो से हमारी रक्षा करो, बेचारे मूर्ख ईसाइयों ने इन धूर्तो की बातों में आकर उन्हें शरण दे दी, फिर क्या था, सारी सुपर्णखाओ ने मिलकर रातों रात सभी सैनिकों को हलाल करवा दिया ।।

अब आप भारत की स्थिति देखिये ।  जिस समय आक्रमणकारी ईरान तक पहुंचकर अपना बड़ा साम्राज्य स्थापित कर चुके थे , उस समय उनकी हिम्मत नही थी की भारत के राजपूत साम्राज्य की ओर आंख उठाकर भी देख सकें ।।

जब ईरान , सऊदी आदि को जबरन मुसलमान बना लिया गया था, तो आक्रमणकारियों का मन हुआ कि अब हिंदुस्थान के क्षत्रियों को जीता जाएं, लेकिन यह स्वपन उनके लिए काल बनकर खड़ा हो गया । 636 ईस्वी में खलीफा ने भारत पर पहला हमला बोला । एक भी आक्रांता जिंदा वापस नही जा पाया ।। 

कुछ वर्ष तक तो मुस्लिम अक्रान्ताओ की हिम्मत तक नही हुई की भारत की ओर मुंह करके सोया भी जाएं, लेकिन कुछ ही वर्षो में गिद्धों ने अपनी जात दिखा ही दी ।। दुबारा आक्रमण हुआ, इस समय खलीफा की गद्दी पर उस्मान आ चुका था । उसने हाकिम नाम के सेनापति के साथ विशाल इस्लामी टिड्डिडल  भारत भेजा ।। सेना का पूर्णतः सफाया हो गया, ओर सेनापति हाकिम बंदी बना लिया गया । हाकिम को भारतीय राजपूतो ने बहुत मारा, ओर बड़े बुरे हाल करके वापस अरब भेजा, जिससे उनकी सेना की दुर्गति का हाल, उस्मान तक पहुंच जाएं ।।

यह सिलसिला लगभग 700 ईस्वी तक चलता रहा ।। जितने भी मुसलमानो ने भारत की तरफ मुँह किया, राजपूतो ने उनका सिर कंधे से नीचे उतार दिया ।।

उसके बाद भी भारत के वीर जवानों ने हार नही मानी ।। जब 7 वी सदी इस्लाम की शुरू हुई , जिस समय अरब से लेकर अफ्रीका, ईरान यूरोप, सीरिया , मोरक्को, ट्यूनीशिया, तुर्की यह बड़े बड़े देश जब मुसलमान बन गए, स्पेन तक कि 70% आबादी मुसलमान थी, तब आपको ज्ञात है भारत मे " बप्पा रावल " महाराणा प्रताप के पितामह का जन्म हो चुका था, वे पूर्णतः योद्धा बन चुके थे, इस्लाम के पंजे में जकड़ गए अफगानिस्तान तक से मुसलमानो को उस वीर ने मार भगाया, केवल यही नही, वह लड़ते लड़ते खलीफा की गद्दी तक जा पहुंचा, जहां खुद खलीफा को अपनी जान की भीख मांगनी पड़ी ।

उसके बाद भी यह सिलसिला रुका नही । नागभट्ट प्रतिहार द्वितीय जैसे योद्धा भारत को मिले । जिन्होंने अपने पूरे जीवन राजपूती धर्म का पालन करते हुए पूरे भारत की न केवल रक्षा की, बल्कि हमारी शक्ति का डंका विश्व मे बजाए रखा ।।

पहले बप्पा रावल में साबित किया था कि अरब अपराजित नही है, लेकिन 836 ई के समय भारत मे वह हुआ, की जिससे विश्वविजेता मुसलमान थर्रा गए । मुसलमानो ने अपने इतिहास में उन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन कहा है, वह सरदार भी राजपूत ही थे । सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार ।।  मिहिरभोज के बारे में कहा जाता है, की उनका प्रताप ऋषि अगस्त्य से भी ज़्यादा चमका । ऋषि अगस्त्य वहीं है, जिन्होंने श्रीराम को वह अस्त्र दिया था, जिससे रावण का वध सम्भव था ।। राम के विजय अभियान के हिडन योद्धाओं में एक । उन्होंने मुसलमानो को केवल 5 गुफाओं तक सीमित कर दिया ।। यह वही समय था, जिस समय मुसलमान किसी युद्ध मे केवल जीत हासिल करते थे, ओर वहां की प्रजा को मुसलमान बना देते, भारत वीर राजपूत मिहिरभोज ने इन अक्रान्ताओ को अरब तक थर्रा दिया ।।

प्रथ्वीराज चौहान तक इस्लाम के उत्कर्ष के 400 सालों बाद तक 
भारत के राजपूतो ने इस्लाम नाम की बीमारी भारत को नही लगने दी, उस युद्ध काल मे भी भारत की अर्थव्यवस्था को गिरने नही दिया ।। उसके बाद मुसलमान विजयी भी हुए, लेकिन राजपूतो ने सत्ता गंवाकर भी हार नही मानी , एक दिन वह चैन से नही बैठे, अंतिम वीर दुर्गादास जी राठौड़ ने दिल्ली को झुकाकर, जोधपुर का किला मुगलो के हलक ने निकाल कर हिन्दू धर्म की गरिमा, वीरता शौर्य को चार चांद लगा दिए ।।

किसी भी देश को मुसलमान बनाने में मुसलमानो में 20 साल नही लिए, ओर भारत मे 500 साल राज करने के बाद भी मेवाड़ के शेर महाराणा राजसिंहः  ने अपने घोड़े पर भी इस्लाम की मुहर नही लगवाई ।।

महाराणा प्रताप, दुर्गादास राठौड़, मिहिरभोज, दुर्गावती, चौहान, परमार लगभग सारे राजपूत अपनी मातृभूमि के लिए जान पर खेल गए ।।  एक समय ऐसा आ गया था, लड़ते लड़ते राजपूत केवल 2% पर आकर ठहर गए ।।

एक बार पूरी दुनिया देखे, ओर आज अपना वर्तमान देखे ।  जिन मुसलमानो ने 20 साल में आधी विश्व आबादी को मुसलमान बना दिया, वह भारत मे केवल पाकिस्तान बांग्लादेश तक सिमट कर ही क्यो रह गए ? 

मान लिया कि उस समय लड़ना राजपूत राजाओं का धर्म था, लेकिन जब  राजाओं ने अपना धर्म निभा दिया, तो आज उनकी बेटियों, पोतियों पर काल्पनिक कहानियां गढ़कर उन योद्धाओं के वंशजो का हिंदुओ द्वारा ही अपमान , कुछ हिन्दू द्वारा ही उनका इतिहास चोरी करना, क्या यह बलिदानियों को भेंट करता है हिन्दू समाज ?

राजा भोज, विक्रमादित्य, नागभट्ट प्रथम और नागभट्ट द्वितीय, चंद्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार, समुद्रगुप्त, स्कंद गुप्त, छत्रसाल बुंदेला, आल्हा उदल, राजा भाटी, भूपत भाटी, चाचादेव भाटी, सिद्ध श्री देवराज भाटी, कानड़ देव चौहान वीरमदेव चौहान, हठी हम्मीर देव चौहान, विग्रहराज चौहान, मालदेव सिंह राठौड़, विजय राव लांझा भाटी, भोजदेव भाटी, चूहड़ विजयराव भाटी, बलराज भाटी, घड़सी, रतनसिं, राणा हमीर सिंह और अमर सिंह, अमर सिंह राठौड़ दुर्गादास राठौड़ जसवंत सिंह राठौड़ मिर्जा राजा जयसिंह राजा जयचंद, भीमदेव सोलंकी, सिद्ध श्री राजा जय सिंह सोलंकी, पुलकेशिन द्वितीय सोलंकी, रानी दुर्गावती, रानी कर्णावती, राजकुमारी रत्नाबाई,  रानी रुद्रा देवी, हाड़ी रानी, पद्मावती, तोगा जी वीरवर कल्लाजी जयमल जी जेता कुपा, गोरा बादल राणा रतन सिंह, पजबन  राय जी कच्छावा, मोहन सिंह मंढाड़ , राजा पोरस, हर्षवर्धन बेस, सुहेलदेव बेस , राव शेखाजी, राव चंद्रसेन जी दोड़ , राव चंद्र सिंह जी राठौड़, कृष्ण कुमार सोलंकी, ललितादित्य मुक्तापीड़, जनरल जोरावर सिंह कालुवारिया, धीर सिंह पुंडीर ,बल्लू जी चंपावत, भीष्म रावत चुण्डा  जी, रामसाह सिंहतोमर और उनका वंश, झाला राजा मान, महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर, 
 स्वतंत्रता सेनानी राव बख्तावर सिंह अमझेरा वजीर सिंह पठानिया, राव राजा राम बक्स सिंह, व्हाट ठाकुर कुशाल सिंह, ठाकुर रोशन सिंह,ठाकुर महावीर सिंह, राव बेनी माधव सिंह, डूंगजी, भुरजी , बलजी, जवाहर जी, छत्रपति शिवाजी और हमारे न जाने अनगिनत लोक देवता, और गुजरात में एक से बढ़कर एक योद्धा लोक देवताओं, संत, सती जुझार, भांजी जडेजा, अजय पाल देव जी
   यह तो सिर्फ कुछ ही नाम है जिन्हें हमने गलती से किसी इतिहास सोशल मीडिया या फिर किसी पुस्तक में पढ़ लिया वरना न जाने कितने अनगिनत युद्ध हुए हैं हमारा इतिहास औरों की तरह कोई सौ 200 साल का लिए बल्कि हजारों लाखों साल से हमारे अनगिनत योद्धाओं ने इस भारत देश को भारत देश रैली में अपना बलिदान दिया है चाहे युधिष्ठिर संवत हो चाहे विक्रम संवत हो या चाहे ईसा पूर्व हो और संवत में एक से बढ़कर एक योद्धा पैदा हुए हैं जिन्होंने 18 साल की उम्र से पहले ही अपना योगदान दे दिया घर के घर गांव के गांव ढाणी की ढाणी खाली हो गई जब कोई भी पुरुष नहीं बचा किसी गांव या ढाणी में पूरा का पूरा परिवार पूरे पूरे गांव कुर्बान हो गया रणभेरी पर चल गया धर्म के लिए।

Wednesday, January 13, 2021

मकर संक्रांति का महत्व।

58 दिन बाणों की शैया पर बिताने के बाद मकर संक्राति को भीष्म पितामह ने त्यागे थे प्राण, इच्छा मृत्यु का वरदान था प्राप्त

18 दिनों तक चले महाभारत के युद्ध में 10 दिन तक लगातार भीष्म पितामह लड़े थे।

महर्षि वेदव्यास की महान रचना महाभारत ग्रंथ के प्रमुख पात्र भीष्म पितामह हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे एकमात्र ऐसे पात्र है जो महाभारत में शुरूआत से अंत तक बने रहे। 18 दिनों तक चले महाभारत के युद्ध में 10 दिन तक लगातार भीष्म पितामह लड़े थे। पितामह भीष्म के युद्ध कौशल से व्याकुल पाण्डवों को स्वयं पितामह ने अपनी मृत्यु का उपाय बताया। भीष्म पितामह 58 दिनों तक बाणों की शैया पर रहे लेकिन अपना शरीर नहीं त्यागा क्योंकि वे चाहते थे कि जिस दिन सूर्य उत्तरायण होगा तभी वे अपने प्राणों का त्याग करेंगे।

1.भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था इसलिए उन्होने स्वंय ही अपने प्राणों का सूर्य उत्तरायण यानी कि मकर संक्राति के दिन त्याग किया।

2.जिस समय महाभारत का युद्ध चला कहते हैं उस समय अर्जुन की उम्र 55 वर्ष, भगवान कृष्ण की उम्र 83 वर्ष और भीष्म पितामह की उम्र 150 वर्ष के लगभग थी।

3.भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान स्वयं उनके पिता राजा शांतनु द्वारा दिया गया था क्योंकि अपने पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए भीष्म पितामह ने अखंड ब्रह्मचार्य की प्रतिज्ञा ली थी।

4.कहते हैं कि भीष्म पितामह के पिता राजा शांतनु एक कन्या से विवाह करना चाहते थे जिसका नाम सत्यवती था। लेकिन सत्यवती के पिता ने राजा शांतनु से अपनी पुत्री का विवाह तभी करने की शर्त रखी जब सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न शिशु को ही वे अपने राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करेंगे।

5.राजा शांतनु इस बात को स्वीकार नहीं कर सकते थे क्योंकि उन्होने तो पहले ही भीष्म पितामह को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

6.सत्यवती के पिता की बात को अस्वीकार करने के बाद राजा शांतनु सत्यवती के वियोग में रहने लगे। भीष्म पितामह को अपने पिता की चिंता की जानकारी हुई तो उन्होने तुरंत अजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा ली।

7.भीष्म पितामह ने सत्यवती के पिता से उनका हाथ राजा शांतनु को देने को कहा और स्वयं के आजीवन अविवहित रहने का बात कही जिससे उनकी कोई संतान राज्य पर अपना हक ना जता सके।

8.इसके बाद भीष्म पितामह ने सत्यवती को अपने पिता राजा शांतनु को सौंपा। राजा शांतनु अपने पुत्र की पितृभक्ति से प्रसन्न हुए और उन्हे इच्छा मृत्यु का वरदान दिया।

9.धार्मिक मान्यताओं के हिसाब से कहा जाता है कि भीष्म पितामह ने सूर्य उत्तरायण यानी कि मकर संक्राति के दिन 58 दिनों तक बाणों की शैया पर रहने के बाद अपने वरदान स्वरूप इच्छा मृत्यु प्राप्त की ।

10.सूर्य उत्तरायण के दिन मृत्यु को प्राप्त होने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है और इस दिन भगवान की पूजा का विशेष महत्व है।

इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है , भीष्म पितामह भी गंगा पुत्र थे ।

Sunday, January 10, 2021

महर्षि दयानन्द को विष प्रदान।

🙏।।#ओ३म्।।🙏

#महर्षि_दयानन्द_को_विष_प्रदान_एवम्_उनका_जगत्_से_दिव्य_प्रयाण - सम्पूर्ण विवरण

उल्लेखनीय है कि कुछ द्वेषभाव से ग्रसित लोग, बिना ऋषि दयानंद की किसी प्रामाणिक जीवनी का आधार लिए, यह दुष्प्रचार कर रहे हैं कि स्वामी दयानंद की मृत्यु विष देने से नहीं हुई, परंतु उनके द्वारा कोई स्वयं ली गई औषधि ही उन पर दुष्प्रभाव कर गई। इस प्रकार के मिथ्या प्रचार का और कोई कारण नहीं, केवल यही है कि स्वामी दयानन्द ने लोगों की मूर्तिपूजा छुड़वा कर उन्हें योगाभ्यास की तरफ प्रवृत्त किया कि जिससे वह अपने भीतर ईश्वरानन्द की उपलब्धि कर सकें। अत्यन्त शोक है कि महर्षि के इस परम उपकार का बदला वह महर्षि के प्रति दुष्प्रचार करके पूर्ण कर रहे हैं। दिन-रात द्वेषाग्नि में जलने वाले यह लोग, क्या कभी शांति से सो पाते होंगे? परमात्मा ऐसे लोगों को सद्बुद्धि दें और इनके हृदयों में असत्याचरण के लिए दण्डभय उत्पन्न करे।

महर्षि दयानंद की जीवनी लिखने में अनेक वर्षों तक कठोर परिश्रम करने वालों में पंडित लेखराम, स्वामी सत्यानंद, पंडित देवेंद्रनाथ मुखोपाध्याय और श्री लक्ष्मणजी आर्योपदेशक का नाम प्रमुख है। इन सभी ने ऋषि दयानन्द की मृत्यु का कारण विष देना ही बताया है। श्री लक्ष्मण जी ने बृहद् जीवनी के साथ एक लघु पुस्तक भी लिखी "महर्षि दयानंद के प्रेरक प्रसंग" जिसका संपादन श्री राजेंद्र जिज्ञासु द्वारा किया गया। इसी पुस्तक से और स्वामी जगदीश्वरानंद कृत "देवर्षि दयानन्द चरित" से कुछ अंशों को सम्मिलित करके महर्षि के जीवन के अंतिम समय का वृतांत निम्नलिखित है, जो नास्तिकों को भी आस्तिक बना देता है और उनके अनुयायियों को अपार सहनशक्ति की दिव्य प्रेरणा देता है -

#ऋषि_का_जोधपुर_आगमन_और_नन्ही_भक्तन_नामक_वेश्या_का_प्रभावः- श्री स्वामी जी महाराज को महाराजा यशवन्त सिंह द्वारा बहुत श्रद्धा से जोधपुर में आमन्त्रित किया गया। उस समय स्वामी जी शाहपुरा में थे। निमंत्रण स्वीकार करके जब स्वामी जी जोधपुर पहुंचे, तो महाराजा ने सम्मानपूर्वक उनका स्वागत किया और उनके निवास एवं भोजन की सुव्यवस्था कर दी। साथ ही उनको लोगों के हितार्थ अपने उपदेशामृत की वर्षा करने के लिए प्रार्थना की। अतः वहां पहुंचने के दूसरे ही दिन, बिना किसी लाग-लपेट के निर्भय होकर ऋषि दयानन्द, महाराजा के बंगले के विशाल आंगन में उपदेशों द्वारा जनसमूह के समक्ष, सत्य का मण्डन तथा असत्य का खण्डन करते रहे। कुछ दिनों पश्चात् उनको पता चला कि महाराजा ने नन्ही भक्तन नाम की एक वेश्या रखी हुई है, और राज्य की नीति का निर्धारण उसके परामर्श से ही होता है। (राजस्थान में भक्तन जाति की कन्यायें वेश्या ही होती थी। उर्दू में वेश्याओं के नाम के साथ "जान" शब्द लगता है। अतः पंडित लेखराम द्वारा उर्दू में लिखी जीवनी में "नन्ही जान" भी छपा मिलता है।)

एक दिन अपने निश्चित नियम के अनुसार स्वामी जी दरबार में पहुँचे। उस समय महाराजा यशवन्त सिंह के पास नन्हीजान आई हुई थी। स्वामी जी के आने का समय जानकर महाराजा उसे डोली में रवाना कर रहे थे। डोली उठने के पूर्व ही स्वामी जी को समीप आता देखकर, महाराजा घबरा गये और पालकी जो एक ओर झुकी, तो महाराजा ने अपना कंधा अथवा हाथ लगवाया। देशस्थ राजाओं की यह अवस्था देखकर उस सच्चे देश हितैषी के हृदय पर गहरी चोट लगी। वेश्या-प्रेम के घोर घृणित कुव्यसन का, वे वैसे ही कड़ा खण्डन किया करते थे। सैकड़ों पुरुषों का उन्होंने इस पाप-पंक और दुर्व्यसन की दलदल में से उद्धार किया था। अतः आपने महाराजा को स्पष्ट कह दिया कि राजपुरुष सिंह सदृश है तथा वेश्या कुत्तिया के समान है। सिंहों के लिये उनका संसर्ग कदापि उचित नहीं है। इन वेश्याओं पर आसक्त मन कुत्तों सरीखा ही कार्य करता है। यह भले मनुष्यों का चलन नहीं है। यह आर्य जाति की कुल मर्यादा के विपरीत है। इस कुव्यसन के कारण धर्म-कर्म भ्रष्ट हो जाता है।

इतने पर ही बस नहीं, आपने महाराजा के भाई सर प्रताप सिंह को पत्र लिखा कि मुझे बहुत शोक है कि आप और बाबा साहेब दोनों रोगयुक्त शरीर वाले हैं। सोलह लाख लोगों की रक्षा और कल्याण का भार आप लोगों पर है। सुधार और बिगाड़ भी आप लोगों पर निर्भर है, फिर भी आप अपने स्वास्थ्य की रक्षा तथा आयु बढ़ाने के कार्य पर बहुत कम ध्यान देते हैं, प्राचीन भारतीय राजा शूरवीर और जितेन्द्रिय होते थे।

इन सब बातों का परिणाम यह निकला कि महाराजा को इस वेश्या से कुछ-कुछ घृणा आरम्भ हुई, परन्तु जब नन्हीजान को इसका पता लगा, तो वह बदला लेने के लिये तुल गई। दूध जैसे सर्प के भीतर जाकर विष बनता है, वैसे ही स्वामी जी का कथन संकीर्ण लोगों के हृदय में बहुत बड़े अत्याचार का बीज बना। नन्हीजान व्याख्यान के बारे में सुनकर जल भुन गई, फिर जब महाराजा को अपने से कुछ घृणा करता हुआ पाया, तो लगी कहने कि स्वामी जी ने मेरे ऊपर बहुत अत्याचार किया है। जैसे भी हो प्रतिशोध लेना चाहिये।

#वेश्याओं_के_लम्बे_हाथः- वेश्याओं के व्यापक सम्बन्ध इस अंधकार के युग में सारा जग जानता है। और यह वेश्या भी ऐसी जिसने महाराजा को वश में कर रखा था। उसने अपने सारे रोब और प्रभाव का पूरा-पूरा प्रयोग किया। महाराजा तो अनपढ़ ब्राह्मणों से घृणा करते थे, परन्तु यह वेश्या ब्राह्मणों को बहुत मानती थी। यह घोर मूर्तिपूजक थी। मेहता विजयसिंह चक्रांकित मत के खण्डन से बहुत रुष्ट थे। जोधपुर में स्वामी जी के इस्लाम मत पर खण्डन के कारण भैय्या फैजुल्ला खाँ घोर विरोधी बन गया था। मूर्तिपूजा और मृतक श्राद्ध के खण्डन से यहांँ के ब्राह्मण और पुजारी पहले ही अपनी आजीविका की हानि समझ रहे थे। वह यह भी जानते थे कि ऋषि दयानंद को शास्त्रार्थ में हराना असंभव है। अतः उन्हें भी नन्ही भक्तन की सहानुभूति का आधार मिल गया। अंग्रेजों की वक्र-दृष्टि तो ऋषि दयानन्द के स्वराज्य के समस्त क्रियाकलापों पर थी ही। बस फिर क्या था, कठपुतली बन गये और जो नाच नचाया गया नाचते गये। ऋषि के प्राण-हरण की सांँठ-गांँठ होने लगी। कई प्रकार से महर्षि को कष्ट दिये गये।

#मिली_भगत_से_सब_कुछ_हुआ:- पहले तो जिस कहार पर स्वामी जी को बड़ा प्रेम और विश्वास था और जो अत्यन्त प्रीति से सेवा किया करता था, वह छह सात सौ रुपये का माल लेकर भाग गया। जो ब्रह्मचारी द्वार पर सोता था, उसे उस रात्रि वहाँ सोने ही न दिया। प्रात:काल ही चोरी होने का शोर मच गया। महाराजा ने आदेश दिया कि जैसे भी सम्भव हो, उस कहार को जहाँ से भी हो खोज कर लाया जावे। वह स्वयं जोधपुर राज्य के कठिन मार्ग और घाटियों से सर्वथा अपरिचित था, फिर भी वह आश्चर्य का विषय है कि वह वहीं कहीं गुम हो गया। उसका कुछ भी अता पता न चला।

#राज्य_कर्मचारी_हँसी_उड़ाते_थे:- इसी प्रकार इस षड्यन्त्रकारी जत्थे की कृपा से पहरे वाले तथा दारोगा आदि हृदय से विरोध करते रहते थे। स्वामी जी तर्जना करते तो यह लोग कर जोड़कर उनके सामने तो कुछ आज्ञा दे देते - कुछ कह देते और पीठ पीछे मिलकर ये सब हँसते थे, अतः स्वामी जी का इन सब पर से विश्वास उठ गया था। जिन लोगों पर चोरी का सन्देह था, उनके बारे में बड़े अधिकारियों द्वारा जानकारी तो ती गई, परन्तु जेल में किसी को न डाला गया।

#जोधपुर_के_कर्मचारियों_पर_से_विश्वास_उठ_गयाः- ऐसे सब कारणों से राज्य के व्यक्तियों पर स्वामी जी का विश्वास जाता रहा और वे इस नगर से प्रस्थान करने का विचार करने लगे। परंतु तब तक बहुत देर हो गई थी, षड्यंत्र को अंतिम रूप देने के लिए काली रात निकट आ चुकी थी।

#स्वामी_जी_को_प्राणघातक_विष_प्रदानः- यह आश्विन कृष्णपक्ष, चतुर्दशी संवत् १९४० (२९ सितम्बर १८८३) की रात्रि की घटना है। सबने गुप्त मन्त्रणा कर स्वामी जी के पाचक के द्वारा दूध में कालकूट संखिया नामक विष मिलाकर उन्हें पिलवा दिया। (पंडित लेखराम कृत जीवनी के अनुसार उस पाचक का नाम "धौड़मिश्र" था, जो शाहपुरा का निवासी था। वही देवेंद्रनाथ कृत जीवनी में वर्णन है कि "कालिया नामक व्यक्ति ने एक माली से मिलकर नन्ही भक्तन के प्रोत्साहन से दूध में विष मिलाकर स्वामी जी को पिलाया। इस कालिया का नाम ही "जगन्नाथ" कहा जाता है।" महर्षि की एक अन्य जीवनी - "नवजागरण के पुरोधा" के लेखक डॉक्टर भवानीलाल भारतीय के अनुसार संखिया के साथ कुछ पिसा हुआ कांच भी दूध में मिलाया गया था।)

#कालकूट_विष_का_भयंकर_प्रभावः- महर्षि दुग्धपान करके थोड़ी ही देर सो पाये थे कि उदर-वेदना की खलबली ने उन्हें जगा दिया। उसी व्याकुलता में उन्होंने तीन बार वमन किया। स्वयं ही जलादि लेकर कुल्ले करते रहे, पास सोये सेवकों को जगाकर कष्ट नहीं दिया। कुछ विश्राम कर सो गये और प्रात: बहुत देर से उठे। उठते ही फिर उल्टी हुई। इस वमन से उन्हें कुछ सन्देह हुआ, अत: कुछ जलपान करके दूसरी उल्टी उन्होंने स्वयं कर डाली। वे अपने कर्मचारियों से कहने लगे - "आज हमारा जी उल्टा आता है। शीघ्र अग्निकुण्ड में धूप डाल, सुगन्धि कर कोठी से दुर्गन्धि निकाल दो।" तदानुसार ऐसा ही किया गया। इसके पश्चात् पेट में शूल चला, तो आपने अजवाइन आदि का काढ़ा बनवाकर पिया, जिससे अतिसार की छेड़छाड़ हो गई, परन्तु शूल को चैन न पड़ा। तब डॉ० सूरजमल जी को बुलवाया गया, जिन्होंने वमन बन्द करने की औषधि दी और जब स्वामी जी ने कहा कि अत्यन्त शूल हो रहा है, तथा प्यास भी लगी है, तब डॉक्टर साहब ने प्यास बन्द होने की औषधि दी और कहा कि इस रोग का कारण यही है कि इस भयानक देश के जोधपुर नगर में ऐसे महात्मा का निवास न हुआ होता, तो यह शूल काहे को जमता।

#असह्य_कष्टों_में_कैसे_शान्त_सहनशील_रहे:- इसी प्रकार शूल बढ़ता गया। शरीर के सब अंगों में प्रविष्ट हुआ। श्वास के साथ बड़े वेग से चलता था, परन्तु ऐसे दुःख में भी स्वामी जी महाराज ने ईश्वर के ध्यान के उपरान्त कभी हाय तक नहीं की। सायं समय महाराजा को सूचना मिली। उन्होंने तुरन्त डॉ० अलीमर्दान खाँ को चिकित्सा के लिये भिजवाया, परन्तु इस डॉक्टर का सारा इलाज ही उलटा पड़ता गया और 
रोग ने महाभयंकर रूप धारण कर लिया। एक दिन में तीस-चालीस दस्त होने लगे। शूल ज्यों-का-त्यों बना रहा। मुख, सिर और माथा छालों से भर गया, हिचकी बँध गई और शरीर कृश होने लगा। यह डॉक्टर महाशय स्वामी जी को चौगुनी मात्रा में दवा देते था। विरेचक औषधियों के अतिरिक्त वह इंजेक्शन द्वारा भी स्वामी जी के शरीर में विष प्रक्षेप करता रहा। महाराज के उदर में ऐसा तीव्र, ऐसा विषम और ऐसा भीषण शूल उठता था कि यदि कोई दूसरा मनुष्य होता तो छटपटा कर प्राणान्त को पहुँच जाता। वे धैर्य से असह्य दारुण वेदना सहन कर रहे थे। 'आह' तक न करते थे।

दिन प्रतिदिन स्वामी जी के कष्टों में वृद्धि होती गई। निर्बलता अत्यधिक हो गई। करवट बदलना, उठना दो चार व्यक्तियों की सहायता के बिना कठिन हो गई। हिचकियों के आधिक्य और उदर शूल ने शक्ति को और भी क्षीण कर दिया, परन्तु धन्य थे स्वामी जी महाराज जो सब कष्टों को अत्यन्त शान्ति और धीरज से सहन कर रहे थे। हिचकी बहुत सताती, तो दो-दो घंटा के पश्चात् प्राणायाम से उसका निवारण करते, तो लोग बहुत आश्चर्य करते थे कि वह शरीर जो पूर्ण ब्रह्मचर्य से, पूरे संयम और सावधानी से गढ़ गढ़कर बना था, किस प्रकार इसका नाश किया जा रहा था। हाँ, स्वामी जी ने महाराजा प्रताप सिंह को स्पष्ट कह दिया था कि विष दिया गया था। उपचार उलटा किया गया।

इन सब घटनाक्रम के अतिरिक्त स्वामी सत्यानंद कृत "श्रीमद्दयानंद प्रकाश" जीवनी में विषदाता पाचक जगन्नाथ को क्षमादान देने का प्रकरण भी है, जो कि अन्य जीवनियों में नहीं है -

#दयानन्द_की_अद्भुत_क्षमाः- 
पवित्र परमहंस जी ने अपने तन-पिंजर को जर्जरीभूत करने वाले और प्राण पखेरुओं के वधिक जगन्नाथ को पकड़ लिया। जगन्नाथ ने अपने अधमतम अपराध को मान भी लिया। परन्तु कर्म-गति और फलभोग के विश्वासी महर्षि ने ताड़ना-तर्जना तो कहाँ, उसे तू तक नहीं कहा! वे गम्भीर भाव से दया दर्शाते बोले - "जगन्नाथ, मेरे इस समय मरने से मेरा कार्य सर्वथा अधूरा रह गया। आप नहीं जानते कि इससे लोक हित की कितनी भारी हानि हुई है। अच्छा, विधाता के विधान में ऐसा ही होना था। इसमें आपका भी क्या दोष है। जगन्नाथ, लो ये कुछ रुपये हैं, मैं आपको देता हूँ। आपके काम आएंगे। परन्तु जैसे भी हो राठौर-राज्य की सीमा से पार हो जाओ। नेपाल राज्य में जा छिपने से ही आपके प्राणों का परित्राण हो सकता है। यदि यहाँ के नरेश को घुणाक्षर न्याय से भी इस बात का पता लग गया, तो वह आपका बिन्दु विसर्ग तक विनष्ट करके ही विश्राम लेंगे। उनके प्रकोप के उत्ताप से आपका परित्राण कोई भी न कर सकेगा। जगन्नाथ, अब देर न करो। जाओ, चुपचाप भाग जाओ। मेरी ओर से सर्वथा निश्चिन्त रहना। इस हृदय सागर से आपका, यह भेद किसी प्रकार कभी भी प्रकाशित न होगा। जगन्नाथ ऋषि की आज्ञानुसार वहां से चला गया।

बहुत से लेखक इस प्रकरण को प्रामाणिक नहीं मानते, परंतु सत्यानंद जी ने इसकी सत्यता के लिए निम्न प्रमाण दिए -
महाराज के चरण-चिह्नों का अवलोकन करते, उनकी परम पावन पदपंक्तियों की यात्रा के भाव से गङ्गा-कूल पर फिरते समय, हमने भी यह सुना था कि राजघाट में संवत् १९७० तक एक जगन्नाथ नामक ब्राह्मण, प्रायः आकर वास किया करता था। वह साधुओं के वेश में रहता था। पगला सा प्रतीत होता था। वह जोधपुर में महाराज दयानन्द के सङ्ग था। कुछ एक साधु जनों में यह भेद खुल भी गया था कि उसकी उन्मत्तता कृत्रिम थी। वास्तव में वह ब्रह्मघातक था।

यह घटना यदि प्रामाणिक नहीं भी मानी जाती, तो भी ऋषि दयानंद की अपूर्व क्षमाशीलता के प्रसंगों कि कोई न्यूनता नहीं होगी, क्योंकि इससे पूर्व अनेकों बार उन्होंने विषदाताओं को क्षमा किया था और किसी को उसके विषय में बताया भी नहीं था। आगे का घटनाक्रम श्री लक्ष्मण जी बताते हैं -

#आर्य_पुरुषों_को_सूचना_तक_न_दी_गई:- आर्य पुरुषों को महर्षि की इस अवस्था की जानकारी देने का कतई प्रबंधन न किया गया। विष दिये जाने के तेरह दिन पश्चात् आर्य समाज अजमेर के एक सभासद् ने पत्रिका में रुग्णता का समाचार पढ़कर सबको सूचना दी, परन्तु पुराने अनुभव के आधार पर वे (आर्य लोग) यही समझे कि विरोधियों ने यह समाचार उड़ा दिया होगा। यदि सचमुच ऐसा होता, तो उस समय तारों (चिट्ठियों) की भरमार हो जाती, फिर भी उचित जानकर एक सभासद् स्वामी जी के पास भेजा गया। वह श्री महाराज को देखते ही दंग रह गया। उसने कहा, " भगवन्! यह क्या हुआ? तथा अधिक शोक तो इस बात पर है कि हमें सूचना तक भी नहीं दी गई।"

#यह_तो_शरीर_का_धर्म_हैः- स्वामी जी ने कहा, “रोग का क्या लिखते? यह तो शरीर का धर्म ही है। इसके अतिरिक्त तुम लोगों को क्लेश होता।” इस प्रकार इस सभासद् के कारण अजमेर तथा वहाँ से सारे देश में समाचार प्रसारित हुआ। तार पर तार आने लगे। अनेक भक्तजन स्वामीजी की रुग्णावस्था का समाचार पाकर, अपने सभी काम-धन्धे छोड़कर जोधपुर के लिए दौड़ पड़े। वहाँ पहुँच स्वामीजी की दशा देख वे चकित रह गये। रोग की दशा, इलाज की शिथिलता और सेवा की असुविधा देखकर आर्यपुरुषों ने ऋषि से आबू पर्वत पर चलने का आग्रह किया। स्वामीजी ने भी ऐसा ही कहा, परन्तु इसमें महाराजा ने अपनी अपकीर्ति जानी, परन्तु स्वामी जी ने जाने का विचार बना लिया।

इसी बीच महाराजा ने डॉ. ऐडम सिविल सर्जन को भी इलाज के लिये बुलवाया। उनका मत भी ऋषि को आबू ले जाने का था। यह खेद की बात है कि दो सप्ताह पर्यन्त रोग को दिन प्रतिदिन बढ़ते और जटिल होते देखकर भी इलाज न बदला गया। फिर सिविल सर्जन के साथ भी उसी डॉक्ट अलीमर्दान खाँ को भी साथ जोड़े रखा। बात केवल इतनी थी कि हितैषी लोग लज्जा के मारे बाहर बात नहीं कर सकते थे। जो देखभाल (आतिथ्य) करने वाले थे, वे रोगी की मृत्यु ही ईश्वर से चाहते थे।

#ऋषि_का_आबू_प्रस्थानः- अन्त को आबू जाने की तैयारी हुई। महाराजा ने बहुत शोक प्रकट किया तथा लज्जा भी अनुभव की, परन्तु अब रोकना ठीक नहीं था, अत: ढाई सहस्र रुपये तथा दो शाल भेंट किये गये। बहुत मान आदर के साथ स्वामी जी को विदा किया गया तथा मार्ग में सुविधापूर्वक यात्रा के लिये सब सामग्री दी गई, जिससे स्वामी जी आबू पहुँच गये। मार्ग में अजमेर के एक नामी हकीम पीर जी से जो औषधि मँगवाई गई, उससे प्यास आदि कुछ शान्त हुई। २१ अक्तूबर को प्रात:काल स्वामीजी महाराज आबूरोड पहुँचे। यहाँ कुछ समय विश्राम के अनन्तर उन्हें पुन: पालकी में लिटा दिया गया। जिस समय महाराज की पालकी आबूरोड से आबू पर्वत की ओर जा रही थी, उस समय राजकीय अस्पताल के चिकित्सा डॉ० लक्ष्मणदास स्थानान्तरित होकर आबू से अजमेर जा रहे थे। काषाय वेशधारी संन्यासी को पालकी में लेटे देखकर उन्होंने पूछताछ की तो पता लगा कि संन्यासी, प्रसिद्ध स्वामी दयानन्द सरस्वती हैं। वे भयंकर रोग से ग्रस्त होने के कारण आबू जा रहे हैं। उस समय स्वामीजी संज्ञा-रहित अवस्था में थे। डॉ० महाशय ने नाड़ी देखकर अमोनिया की थोड़ी-थोड़ी मात्रा तीन बार महाराज को दी। इस औषध से महाराज ने आँखें खोल दीं और कहा - "किसी ने मुझे अमृत दिया है।" डॉक्टर लक्ष्मण दास ने उसी समय निश्चय कर लिया कि उनकी नौकरी रहे या जाए, वह महाराज के साथ आबू जाकर उनकी सेवा और चिकित्सा करेगा और महाराज के साथ ही लौट पड़ा।

इनके दो दिन के उपचार से हिचकी बन्द हो गई तथा अतिसार भी बन्द हो गया, परन्तु डॉ० लक्ष्मण दास को उनके अधिकारी ने बड़ी कठोर आज्ञा देकर अजमेर जाने का आदेश दिया। उन्होंने बहुत अनुनय विनय की। त्यागपत्र तक दे दिया, परन्तु श्री स्वामी जी महाराज ने ही वह त्याग पत्र लेकर फाड़ दिया और उन्हें अजमेर जाने को कहा। देव दयानन्द ! धन्य है, आपका परहित चिंतन ! डॉ० लक्षमण दास विवश थे। क्या करते? आपने दूसरी बार फिर त्यागपत्र दिया, परन्तु डॉ० स्पैन्सर ने अस्वीकार करते हुए कहा कि - "तुम्हें अजमेर जाना पड़ेगा। मैं तुम्हारे गुरु की चिकित्सा स्वयं करूँगा।" दो तीन दिन के लिये औषधि और खानपान के बारे में डॉ० लक्ष्मण दास जी ने लिखकर दिया और फिर अजमेर चले गये।

#स्वामी_जी_का_अजमेर_प्रस्थानः- कर्नल स्पैंसर की चिकित्सा महाराज को अनुकूल न पड़ी। पुनः रोग ने उग्र रूप धारण कर लिया। स्वामी जी महाराज के भक्त भूपालसिंह ने महाराज से अजमेर चलने के लिए निवेदन किया। महाराज की इच्छा न थी कि शरीर की इस विषम अवस्था में भक्तजनों को कष्ट दिया जाए। न चाहते हुए भी भक्तजनों का अनुरोध स्वीकार करना पड़ा। कार्तिक कृष्ण एकादशी (२६ अक्टूबर १८८३) के दिन महाराज ने आबू पर्वत से प्रस्थान किया। अगले दिन चार बजे ब्राह्ममुहूर्त के समय आप अजमेर पहुँच गये। उस दिन बहुत लोग दर्शनार्थ स्टेशन पर पहुँचे तथा उनकी अवस्था को देखकर घबरा गये। चार व्यक्तियों ने बड़ी सावधानी से आपको गाड़ी से उतारा। गाड़ी से उतरते ही मूर्छा आ गई। उन्हें पुनः पालकी में लिटाया गया। धीरे-धीरे पालकी कोठी पर ले आये। पुनः डॉ० लक्षमणदास को बुलाकर उनकी चिकित्सा आरम्भ की गई। परन्तु खेद है कि अब कोई भी औषधि कुछ भी प्रभाव नहीं कर पाई। कष्ट दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। हाथ पांवों प्रत्युत सारे शरीर के ऊपर छाले पड़ गये थे। सब छालों को गर्म कपड़े से सेक किया जाता था। कहीं से पस और कहीं से रक्त निकलता था। गले से लेकर नाभि तक छाले पड़ गये थे। एक आर्य ने गला बैठ जाने का कारण पूछा, तो आपने मुख को खोलकर दिखाया तथा धीरे से बोले कि नाभि तक छाले पड़ गये हैं। श्वास बहुत शीघ्र आता था। स्वामी जी श्वास रोक रोककर फिर जल्दी ज़ोर से श्वास निकाल देते थे तथा कुछ ईश्वर का ध्यान भी करते थे। संयम तो अद्भुत था। कष्ट का संकेत तक नहीं करते थे। बैठकर निरन्तर टकोर करवाते, हाँ कभी इतना पूछते थे - “जो कुछ करना था, हो चुका कि नहीं?"

दीपमाला के दो दिन पूर्व लाहौर से पं० गुरुदत्त एम० ए० तथा लाला जीवनदास जी भी महाराज के दर्शनों के निमित्त अजमेर पहुँच गये।

#दिव्य_प्रयाण_की_तैयारी, #ऋषिवर_का_अंतिम_दिवसः- कार्तिक अमावास्या (३० अक्टूबर) के दिन डॉ० लक्ष्मण दास ने महाराज के जीवन की सब आशाएँ छोड़ दीं। भक्तजनों से अनुरोध किया कि किसी अन्य सुयोग्य डॉक्टर को भी महाराज को दिखाने लिए बुलाया जाए। अजमेर के सिविल सर्जन डॉ० न्यूमैन को बुलाया गया। आप देखते ही बोले कि यह व्यक्ति बहुत विशालकाय, साहसी तथा रोग को सहने वाला है। इतना असह्य रोग तथा यह अपने आपको दु:खी नहीं मानता है, स्वयं को सम्भाले हुये और अभी तक जीवित है। डॉ० लक्ष्मण दास ने स्वामी जी का नाम बताया, तो डॉ० न्यूटन का शोक और भी बढ़ गया। जो कुछ उनकी समझ में आया उन्होंने उपचार किया। एक मुसलमान वैद्य पीरजी बड़े प्रसिद्ध थे। वे भी उन्हें देखने आये। उन्होंने आते ही कह दिया - "इन्हें किसी कुल-कण्टक ने विष देकर अपनी आत्मा को कालिख लगाई है। इनकी देह पर सारे चिह्न विष-प्रयोग-जन्य ही दिखाई देते हैं।" पीरजी ने भी महाराज का सहन-सामर्थ्य देख दाँतों में अंगुली दबाते हुए कहा - “धैर्य का ऐसा धनी धरती-तल पर हमने दूसरा नहीं देखा।”

#ईश्वरेच्छा_मेंः- नश्वर देह को कब तक बचाया जा सकता था। जब भी अत्यधिक कष्ट हुआ, तो स्वामी जी से उनका वृत्त पूछा गया, तब उन्होंने अच्छा ही कहा, परन्तु आज ग्यारह बजे तो आपका कण्ठ भी खुल गया। यह अन्तिम दिवस के लिए ईश्वर ने सम्भाला था, परन्तु समझा गया स्वास्थ्य में सुधार। स्वामी जी ने स्वयं कहा कि आज जैसा आपका जी चाहे, भोजन बनाओ। भिन्न-भिन्न प्रकार का भोजन पकाकर सामने मेज पर रखा गया, जिसे देखकर श्री स्वामी जी ने कहा, "बस ले जाओ।" केवल एक चम्मच चने का पानी ही लिया। लाला जीवनदास जी लाहौर से आये थे। आपने पूछा, "महाराज! कहिये प्रकृति कैसी है? "कहा, "अच्छी है, आज एक मास के पश्चात् आराम का दिन है।"

एक बार विचार आया कि स्वामी जी होश में नहीं है। परीक्षा के लिये पूछा, "स्वामी जी! आप इस समय कहांँ है?" उत्तर दिया, "ईश्वरेच्छा में।" प्रभु के प्यारे उस योगेश्वर मृत्युञ्जय महर्षि का वास्तविक चित्र तो यही है।

पीड़ा को सहन करने में ऐसी सिद्धि थी, कि माथे पर जो छाला था, उसे आपने हाथ से रगड़ डाला। नापित को कहकर बुलवाया, तो वह मुखड़े पर उस्तरा नहीं फेरता था। उसे फोड़ों से रक्त बहने के विचार से ऐसा करने से संकोच हो रहा था। ऋषिवर ने कहा, "कोई चिन्ता मत करो, सब पर उस्तरा फेर दो।" ऐसा ही किया गया। इसके पश्चात् आपने वस्त्र से सिर को पोछा, कारण कि स्नान से सबने रोक दिया था।

#नश्वर_देह_का_क्या_अच्छा_होगाः- चार बजे के समय महाराज ने अपने शिष्य स्वामी आत्मानन्द को बुलाया। उसे अपने पीछे सिर के पास बैठने का आदेश दिया। उससे पूछा - "आत्मानन्द! तुम क्या चाहते हो?" आत्मानन्द ने कहा - " महाराज! मैं ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि आप ठीक हो जाएँ।" महाराज ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा - "यह देह पञ्चभौतिक है। इसका अच्छा क्या होगा?" पुनः उसके सिर पर आशीर्वाद का हाथ रखकर कहा - "आनन्द से रहना। महाराज के दर्शनार्थ काशी से स्वामी गोपालगिरि भी आये हुए थे। उन्हें भी इसी प्रकार आशीर्वाद दिया।

यह अवस्था देखकर सब स्थानों से आये हुए आर्य पुरुष स्वामी जी के सामने आकर खड़े हो गये। स्वामी जी ने ऐसी कृपा दृष्टि से सबकी ओर देखा कि लेखनी और वाणी से इसका वर्णन करना कठिन है। वह दृष्टि मानो कि अपनी मूकवाणी से आर्यों को यह कह रही थी कि तुम क्यों उदास हो। धीरज धरना चाहिये।

#सूर्य_अस्ताचल_की_ओर, #दिव्यात्मा_की_विदाई_का_समयः- इसके पश्चात् दो सौ रुपये तथा दो दुशाले आत्मानंद जी तथा पं० भीमसेन जी को दिये, परन्तु उन्होंने लौटा दिये। उस समय पाँच बज गये थे। महाराज से चित्त के बारे पूछा गया तो कहने लगे, “अच्छा है। तेज तथा अंधकार का भाव है।”

महाराज ने सब समागत भक्तजनों को आदेश दिया कि वे उनके पीछे खड़े हो जाएँ। दरवाजे और रोशनदान खुलवा दिया। आपने पूछा, "कौन सा पक्ष, क्या तिथि तथा क्या वार है? किसी भक्त ने कहा, "कृष्ण पक्ष का अंत है तथा शुक्ल पक्ष की आदि, अमावस, मंगलवार है।" तब आपने ऊपर की ओर दृष्टिपात किया, पुनः चारों ओर चमत्कार भरी दृष्टि डाली, फिर वेद मंत्रों का उच्चारण किया। तत्पश्चात् संस्कृत में ईश्वरोपासना की, फिर भाषा में ईश्वर का गुण कीर्तन किया। फिर बड़ी प्रसन्नता और हर्षपूर्वक गायत्री मन्त्र का पाठ किया। फिर हर्षित और प्रफुल्लित चित्त से कुछ समय के लिये समाधिस्थ रहकर नेत्र खोले और कहा, "दयामय, हे सर्वशक्तिमान् ईश्वर! तेरी यही इच्छा है। तेरी यही इच्छा है। तेरी इच्छा पूर्ण हो। आहा! तूने अच्छी लीला की।" वहीं करवट बदली तथा श्वासों को रोक कर एकदम बाहर निकाल दिया। आर्य भारत के भाग्य का भानु, देव दयानन्द, कार्तिक अमावस्या सम्वत् १९४० वैक्रमी, मंगलवार को सायं के छः बजे एकाएक, काल कराल रूप अस्ताचल की ओट में हो गया। उस समय सूर्यदेव भी अस्त हो गये थे। इस प्रकार दयानन्द सरस्वती इहलीला समाप्त कर ज्योतिर्मय की शरण में चले गए।

#पं०_गुरुदत्त_को_मिला_प्रत्यक्ष_प्रमाणः- भक्तजन निहारते रह गये। पं० गुरुदत्त विद्यार्थी प्रथम बार दयानन्द सरस्वती के दर्शन करने आये थे। वे पाश्चात्य विज्ञान के विद्यार्थी थे। ईश्वर का विश्वास कुछ कम था। भक्त-जनों के साथ योगी की देह-विसर्जन लीला उस कमरे के एक कोने में दीवार के साथ खड़े हुए चुपचाप देख रहे थे। वे विचार कर रहे थे कि असह्य वेदना और अन्तर्दाह में भी यह योगी किस प्रकार आनन्दमग्न है! यह सहनशीलता शरीर की सर्वथा नहीं है, अवश्य ही यह इनका आत्मिक बल है। विचार किया कि कोई दिव्य शक्ति इनका आह्वान कर रही है। यह उसकी शरण में प्रसन्नचित्त जा रहे हैं। यह योगी सदा के लिए अमरपद प्राप्त कर रहा है। गुरुदत्त को भी उस दिव्य शक्ति के दर्शन हो गये। अन्धकार नष्ट हुआ। दिव्य ज्योति का अन्त:प्रवेश हो गया। आज से वह पूर्ण आस्तिक हो गया। इस प्रकार ऋषिवर जाते-जाते भी गुरुदत्त जैसे नास्तिक का हृदय परिवर्तन कर गए। धन्य हे ऋषिवर!

सभी समुपस्थित भक्तजनों के नेत्र, इस योगी की वेदनामय विदाई में अश्रुपूर्ण थे, परन्तु इस विदाई के दिव्यतापूर्ण दृश्य को देखकर वे अपने हृदयों में अद्भुत ज्योति के प्रवेश का गौरव अनुभव कर रहे थे। यद्यपि उनके मृण्मय घरों में आज अन्धकार था, परन्तु हृदयों में आत्मिक दीपावली का अमिट प्रकाश था।

#ऋषि_की_देह_का_अंतिम_संस्कारः- अगले दिन इस योगी के शरीर की अन्त्येष्टि क्रिया की तैयारी हुई। काष्ठमय अर्थी को केले के पुष्पों और पत्तों से सजाया गया। शरीर पर चन्दन का लेप किया गया। अर्थी पर रखकर एक विशाल शोभा यात्रा में अजमेर की जनता के साथ, वहाँ रहने वाले बंगाली, पंजाबी, दाक्षिणात्य तथा अन्य भक्त पुरुष बड़ी संख्या में सम्मिलित हुए। श्री हरविलास शारदा भी अर्थी के साथ थे।

श्मशान घाट पर अन्त्येष्टि क्रिया के निमित्त विशेषरूप से वेदी का निर्माण किया गया। वेदी बन जाने पर भक्त लोगों ने दो मन चन्दन और दस मन पीपल की समिधाओं से चिता चयन की। अपने टूक-टूक होते हृदयों को थामकर उन्होंने गुरुदेव का शव उस अन्तिम शय्या पर शायी कर दिया। रामानन्द और आत्मानन्दजी ने यथाविधि अग्न्याधान किया। अग्नि-स्पर्श होते ही घृतसिंचित चिता ज्वाला-माल से आवृत हो गई। उस दाह-कुण्ड में चार मन घी, पाँच सेर कपूर, एक सेर केसर और दो तोले कस्तूरी डाली गई। चरु और घृत की पुष्कल आहुतियों से हुत श्री महाराज का शव, प्रेमियों के नीर-नेत्रों से देखते ही देखते अपने कारणों में लय हो गया।

(देवेंद्रनाथ कृत जीवनी के अनुसार शवदाह में जो सब सामग्री लगी, उसका कुल मूल्य ₹२०० के लगभग था। आज के मूल्य वृद्धि के हिसाब से यह रुपए बहुत अधिक नहीं बैठेंगे। जो अज्ञलोग आज यह आक्षेप कर रहे हैं कि उनके दाह संस्कार में लाखों रुपए लगा दिए गए, किस आधार और गणना के हिसाब से यह कह रहे हैं, यह तो वही बताएंगे। अस्तु, मूर्ख लोगों का कुछ नहीं किया जा सकता। इन्हें ईश्वर की दया पर छोड़ देना चाहिए।)

ऋषि की अस्थियों को चयन करके, शहापुराधीश के दिये उद्यान में गाड़ दिया गया। वह उद्यान अनासागर के किनारे पुष्कर की सड़क पर है। ऋषिवर की जीवनी लिखने वालों में एक श्री हरविलासजी शारदा भी थे, जिन्होंने जीवनी लिखने हेतु कई वर्षों तक अनुसंधान किया। उन्होंने अन्तिम दृश्य का वर्णन इन शब्दों में किया है - (स्वामीजी के देहत्याग के पश्चात्) हम तीनों (शारदाजी तथा उनके पुत्र रामगोपाल और चचेरा भाई रामविलास) रोते हुए लौटे। दीपावली के पुण्य अवसर पर हमें रोता देखकर पिताजी को आश्चर्य हुआ। उन्होंने रोने का कारण पूछा। मैंने सुबकियाँ भरते हुए कहा - "भारत का सूर्य छिप गया है।" मेरे पिताजी को समझते देर नहीं लगी। उन्होंने हमें दिलासा दिया।

दूसरे दिन स्वामीजी का शव जलाया गया। प्रात: ९ बजे और १० बजे के मध्य उनके मृत-देह को विमान-जुलूस के रूप में श्मशान-भूमि में ले जाया गया। मैं प्रारम्भ से ही जुलूस के साथ था। अन्य आर्य भाइयों के साथ, अरथी को कन्धा लगाने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह अरथी बहुत बड़ी थी और १६ व्यक्ति उसे उठाये हुए थे। एक बार अजमेर नगर में एक व्याख्यान में उन्होंने बाल-विवाह की कुप्रथा का प्रबल खण्डन और ब्रह्मचर्य का मण्डन किया था। उन्होंने कहा था कि जो ब्रह्मचर्य धारण नहीं करते और बाल-विवाह के शिकार होते हैं, वे दुर्बलकाय होते हैं । अपने सम्बन्ध में बोलते हुए उन्होंने कहा था कि - "मैंने अपने जीवन में पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया है और मेरे शव को उठाने में १६ आदमी लगेंगे।" मुझे यह बात सहसा याद आ गई।

महर्षि दयानन्द की इहलोक-लीला समाप्त हुई, किन्तु उनका जीवन जीवित-प्रेरक आलोक बन आज भी हमारे सम्मुख विद्यमान है। ऋषि दयानन्द अमर हैं, अपने कीर्तिमय जीवन-सुमन में। संसार उनकी सुगन्धि से सदा सुवासित रहेगा।

🙏#प्रस्तुति - आर्य विजय चौहान

।। #ओ३म्_शम् ।।

जिहाद' मुंशी प्रेमचंद की कहानी।

-खजानचंद ने मृत्यु को स्वीकार किया पर नहीं बना मुसलमान

-मुंशी प्रेमचंद

बहुत पुरानी बात है। हिंदुओं का एक काफिला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से भागा चला आ रहा था। मुद्दतों से उस प्रांत में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आये थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाती थी। बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था। जान का बदला जान था, खून का बदला खून; इस नियम में कोई अपवाद न था। यही उनका धर्म था, यही ईमान; मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिंदू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे। पर एक महीने से देश की हालत बदल गयी है। एक मुल्ला ने न जाने कहां से आकर अनपढ़ धर्मशून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है। उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष खिंचे चले आते हैं। वह शेरों की तरह गरज कर कहता है-खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो, दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो। एक काफिर के दिल को इस्लाम के उजाले से रोशन कर देने का सबाब सारी उम्र के रोजे, नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है। जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएं लेंगी और फरिश्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे, खुदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा। और सारी जनता यह आवाज सुनकर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है। उसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है। प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है। उन्हीं हिंदुओं पर, जो सदियों से शांति के साथ रहते थे, हमले होने लगे हैं। कहीं उनके मंदिर ढाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियां दी जाती हैं। कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। हिंदू संख्या में कम हैं, असंगठित हैं, बिखरे हैं, इस नयी परिस्थिति के लिए बिल्कुल तैयार नहीं। उनके हाथ-पांव फूले हुए हैं, कितने तो अपनी जमा-जगह छोड़ कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ इस आंधी के शांत हो जाने का अवसर देख रहे हैं। यह काफिला भी उन्हीं भागने वालों में था।

दोपहर का समय था। आसमान से आग बरस रही थी। पहाड़ों से ज्वाला-सी निकल रही थी। वृक्ष का कहीं नाम न था। ये लोग राज-पथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे। पग-पग पर पकड़ लिये जाने का खटका लगा हुआ था। यहां तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अंत को लोग एक उभरी हुई शिला की छांह में विश्राम करने लगे। सहसा कुछ दूर पर एक कुआं नजर आया। वहीं डेरे डाल दिये। भय लगा हुआ था कि जिहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो। दो युवकों ने बंदूक भरकर कंधे पर रखीं और चारों तरफ गश्त करने लगे। बूढ़े कम्बल बिछा कर कमर सीधी करने लगे। स्त्रियां बालकों को गोद से उतारकर माथे का पसीना पोंछने और बिखरे हुए केशों को संभालने लगीं। सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे। सभी चिंता और भय से त्रस्त हो रहे थे, यहां तक कि बच्चे जोर से न रोते थे। दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला रूपवान है। उसकी आंखों से अभिमान की रेखाएं-सी निकल रही हैं, मानो वह अपने सामने किसी की हकीकत नहीं समझता, मानो उसकी एक-एक गत पर आकाश के देवता जयघोष कर रहे हैं। दूसरा कद का दुबला-पतला, रूपहीन-सा आदमी है, जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है, मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं, मानो वह दीपक की भांति रो-रोकर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है। उसका नाम धर्मदास है; इसका खजानचंद। धर्मदास ने बंदूक को जमीन पर टिका कर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा-तुमने अपने लिए क्या सोचा? कोई लाख-सवा लाख की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी?
खजानचंद ने उदासीन भाव से उत्तर दिया-लाख-सवा लाख की तो नहीं, हां, पचास-साठ हजार तो नकद ही थे।

'तो अब क्या करोगे ?'

'जो कुछ सिर पर आयेगा, झेलूंगा! रावलपिंडी में दो-चार संबंधी हैं, शायद कुछ मदद करें। तुमने क्या सोचा है?'

'मुझे क्या गम! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं। वहां इन्हीं का सहारा था, आगे भी इन्हीं का सहारा है।' 'आज और कुशल से बीत जाये तो फिर कोई भय नहीं। मैं तो मना रहा हूं कि एकाध शिकार मिल जाय। एक दर्जन भी आ जाएं तो भूनकर रख दूं।'
इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा-डोर लिये निकली और सामने कुएं की ओर चली। प्रभात की सुनहरी, मधुर, अरुणिमा मूर्तिमान हो गयी थी। दोनों युवक उसकी ओर बढ़े, लेकिन खजानचंद तो दो-चार कदम चल कर रुक गया, धर्मदास ने युवती के हाथ से लोटा-डोर ले लिया और खजानचंद की ओर सगर्व नेत्रों से ताकता हुआ कुएं की ओर चला। खजानचंद ने फिर बंदूक संभाली और अपनी झेंप मिटाने के लिए आकाश की ओर ताकने लगा। इसी तरह कितनी ही बार धर्मदास के हाथों वह पराजित हो चुका था। शायद उसे इसका अभ्यास हो गया था। अब इसमें लेशमात्र भी संदेह न था कि श्यामा का प्रेमपात्र धर्मदास है। खजानचंद की सारी सम्पत्ति धर्मदास के रूप-वैभव के आगे तुच्छ थी। परोक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष रूप से भी श्यामा कई बार खजानचंद को हताश कर चुकी थी; पर वह अभागा निराश होकर भी न जाने क्यों उस पर प्राण देता था। तीनों एक ही बस्ती के रहने वाले थे। श्यामा के माता-पिता पहले ही मर चुके थे। उसकी बुआ ने उसका पालन-पोषण किया था। अब भी वह बुआ ही के साथ रहती थी। उसकी अभिलाषा थी कि खजानचंद उसका दामाद हो, श्यामा सुख से रहे और उसे भी जीवन के अंतिम दिनों के लिए कुछ सहारा हो जाये; लेकिन श्यामा धर्मदास पर रीझी हुई थी। उसे क्या खबर थी कि जिस व्यक्ति को वह पैरों से ठुकरा रही है, वही उसका एकमात्र अवलम्ब है। खजानचंद ही वृद्धा का मुनीम, खजांची, कारिंदा सब कुछ था और यह जानते हुए भी कि श्यामा उसे जीवन में नहीं मिल सकती। उसके धन का यह उपयोग न होता, तो वह शायद अब तक उसे लुटाकर फकीर हो जाता।

धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि उसे पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखायी दिए। जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पांच आदमी हैं। उनकी बंदूक की नलियां धूप में साफ चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें लेकिन कंधे पर बंदूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज न दौड़ सकता था। फासला दो सौ गज से कम न था। रास्ते में पत्थरों के ढेर टूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाय, कहीं पैर न फिसल जाएं। इधर सवार प्रतिक्षण समीप होते जाते थे। अरबी घोड़ों से उसका मुकाबला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा हुआ। मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सिर पर आ पहुंचे और तुरंत उसे घेर लिया। धर्मदास बड़ा साहसी था; पर मृत्यु को सामने खड़ी देख कर उसकी आंखों में अंधेरा छा गया, उसके हाथ से बंदूक छूटकर गिर पड़ी। पांचों उसी के गांव के महसूदी पठान थे। एक पठान ने कहा-उड़ा दो सिर मरदूद का। दगाबाज काफिर।
दूसरा-नहीं, नहीं, ठहरो। अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले, तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दगा की क्या सजा दी जाय? हमने तुम्हें रात-भर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था। मगर तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुंचा दिये जाओगे; लेकिन हम तुम्हें फिर मौका देते हैं। यह आखिरी मौका है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी। धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा-जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे ...। पहले सवार ने आवेश में आकर कहा-मजहब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं।

तीसरा-कुफ्र है! कुफ्र है!

पहला-उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआं इस पार।

दूसरा-ठहरो-ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है। तुम्हारे और साथी कहां हैं धर्मदास?

धर्मदास-सब मेरे साथ ही हैं।

दूसरा-कलामे शरीफ की कसम; अगर तुम सब खुदा और उनके रसूल पर ईमान लाओ, तो कोई तुम्हें तेज निगाहों से देख भी न सकेगा।

धर्मदास-आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौका न देंगे?

इस पर चारों सवार चिल्ला उठे-नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे, यह आखिरी मौका है। इतना कहते ही पहले सवार ने बंदूक छतिया ली और नली धर्मदास की छाती की ओर करके बोला-बस बोलो, क्या मंजूर है?

धर्मदास सिर से पैर तक कांप कर बोला-अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूं तो मेरे साथियों को तो कोई तकलीफ न दी जायेगी?

दूसरा-हां, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे। पहला-हम इस शर्त को नहीं मानते। तुम्हारे साथियों से हम खुद निपट लेंगे। तुम अपनी कहो। क्या चाहते हो? हां या नहीं? धर्मदास ने जहर का घूंट पीकर कहा-मैं खुदा पर ईमान लाता हूं। पांचों ने एक स्वर से कहा-अलहमद व लिल्लाह! और बारी-बारी से धर्मदास को गले लगाया।

श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी। वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें पानी लाने भेजा? अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगी, तो मैं प्यासी मर जाती, पर इन्हें न जाने देती। श्यामा से कुछ दूर खजानचंद भी खड़ा था। श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देख कर कहा-अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती।

खजानचंद-बंदूक भी हाथ से छूट पड़ी है। श्यामा-न जाने क्या बातें हो रही हैं। अरे गजब! दुष्ट ने उनकी ओर बंदूक तानी है! खजानचंद-जरा और समीप आ जाएं, तो मैं बंदूक 
चलाऊ़। इतनी दूर की मार इसमें

नहीं है।

श्यामा-अरे! देखो, वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं। यह माजरा क्या है?

खजानचंद-कुछ समझ में नहीं आता।

श्यामा-कहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया? खजानचंद-नहीं, ऐसा क्या होगा, धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है।
श्यामा-मैं समझ गयी। ठीक यही बात है। बंदूक चलाओ। खजानदान-धर्मदास बीच में हैं। कहीं उन्हें न लग जाय।
श्यामा-कोई हर्ज नहीं। मैं चाहती हूं, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़े। कायर! निर्लज्ज! प्राणों के लिए धर्म त्याग किया। ऐसी बेहयाई की जिंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है। क्या सोचते हो। क्या तुम्हारे भी हाथ-पांव फूल गये। लाओ, बंदूक मुझे दे दो। मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूंगी।
खजानचंद-मुझे तो विश्वास नहीं होता कि धर्मदास...
श्यामा-तुम्हें कभी विश्वास न आयेगा। लाओ, बंदूक मुझे दो। खडे़ क्या ताकते हो? क्या जब वे सिर पर आ जायंगे, तब बंदूक चलाओ? क्या तुम्हें भी यह मंजूर है कि मुसलमान होकर जान बचाओ? अच्छी बात है, जाओ। श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है; मगर उसे अब मुंह न दिखाना।
खजानचंद ने बंदूक चलायी। गोली एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई निकल गयी। जिहादियों ने 'अल्लाहो अकबर!' की हांक लगायी। दूसरी 
गोली चली और घोड़े की छाती पर बैठी। घोड़ा वहीं गिर पड़ा। 
जिहादियों ने फिर 'अल्लाहो अकबर!' की सदा लगायी और आगे बढ़े। 
तीसरी गोली आयी। एक पठान लोट गया; पर इसके पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान खजानचंद के सिर पर पहुंच गये और बंदूक उसके हाथ से छीन ली। एक सवार ने खजानचंद की ओर बंदूक तानकर कहा-उड़ा दूं सिर मरदूद का, इससे खून का बदला लेना है।
दूसरे सवार ने, जो इनका सरदार मालूम होता था, कहा-नहीं-नहीं, यह दिलेर आदमी है। खजानचंद, तुम्हारे ऊपर दगा, खून और कुफ्र, ये तीन इल्जाम हैं, और तुम्हें कत्ल कर देना ऐन सवाब है, लेकिन हम तुम्हें एक मौका और देते हैं। अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ, तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं। इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफारा (प्रायश्चित्त) नहीं है। यह हमारा आखिरी फैसला है। बोलो, क्या मंजूर है?
चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल लीं, और उन्हें खजानचंद के सिर पर तान दिया मानो 'नहीं' का शब्द मुंह से निकलते ही चारों तलवारें उसकी गर्दन पर
चल जाएंगी !

खजानचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आंखें स्वर्गिक ज्योति से चमकने लगीं। दृढ़ता से बोला-तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ से वह अपना ईमान बेच डालेगा? हिंदू को अपने ईश्वर तक पहुंचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की जरूरत नहीं! चारों पठानों ने कहा-काफिर! काफिर! खजानचंद-अगर तुम मुझे काफिर समझते हो तो समझो। मैं अपने को तुमसे ज्यादा खुदापरस्त समझता हूं। मैं उस धर्म को मानता हूं, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है। आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर (प्रकाश) है और हमारा ईमान हमारी अक्ल...
चारों पठानों के मुंह से निकला 'काफिर! काफिर!' और चारों तलवारें एक साथ खजानचंद की गर्दन पर गिर पड़ीं। लाश जमीन पर फड़कने लगी। धर्मदास सिर झुकाये खड़ा रहा। वह दिल में खुश था कि अब खजानचंद की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा; पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। श्यामा अब तक मर्माहत-सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी। ज्यों ही खजानचंद की लाश जमीन पर गिरी, वह झपटकर लाश के पास आयी और उसे गोद में लेकर आंचल से रक्त-प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी। उसके सारे कपड़े खून से तर हो गये। उसने बड़ी सुंदर बेल -बूटोंवाली साडि़यां पहनी होंगी, पर इस रक्त-रंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेल-बूटों वाली साडि़यां रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्त-रंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी।
ऐसा जान पड़ा मानो खजानचंद की बुझती आंखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान हो गयी हैं। उन नेत्रों में कितना संतोष, कितनी तृप्ति, कितनी उत्कंठा भरी हुई थी। जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पायी, वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था।

धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़कर कहा-श्यामा, होश में आओ, तुम्हारे सारे कपड़े खून से तर हो गये हैं। अब रोने से क्या हासिल होगा? ये लोग हमारे मित्र हैं, हमें कोई कष्ट न देंगे। हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन के सुख भोगेंगे?

श्यामा ने तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा-तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा है, तो जाओ। मेरी चिंता मत करो, मैं अब न जाऊंगी। हां, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो तो इन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरा भी अंत करा दो।

धर्मदास करुण-कातर स्वर से बोला-श्यामा, यह तुम क्या कहती हो, तुम भूल गयीं कि हमारी-तुम्हारी क्या बातें हुई थीं? मुझे खुद खजानचंद के मारे जाने का शोक है; पर भावी को कौन टाल सकता है?

श्यामा-अगर यह भावी था, तो यह भी भावी है कि मैं अपना अधम जीवन उस पवित्र आत्मा के शोक में काटूं, जिसका मैंने सदैव निरादर किया। यह कहते-कहते श्यामा का शोकोद्गार, जो अब तक क्रोध और घृणा के नीचे दबा हुआ था, उबल पड़ा और वह खजानचंद के निस्पंद हाथों को अपने गले में डाल कर रोने लगी।

चारों पठान यह अलौकिक अनुराग और आत्म-समर्पण देख कर करुणार्द्र हो गये। सरदार ने धर्मदास से कहा-तुम इस पाकीजा खातून से कहो, हमारे साथ चले। हमारी जाति से इसे कोई तकलीफ न होगी। हम इसकी दिल से इज्जत करेंगे।

धर्मदास के हृदय में ईर्ष्या की आग धधक रही थी। वह रमणी, जिसे वह अपनी समझे बैठा था, इस वक्त उसका मुंह भी नहीं देखना चाहती थी। बोला-श्यामा, तुम चाहो इस लाश पर आंसुओं की नदी बहा दो, पर यह जिंदा न होगी। यहां से चलने की तैयारी करो। मैं साथ के और लोगों को भी जाकर समझाता हूं। खान लोेग हमारी रक्षा करने का जिम्मा ले रहे हैं। हमारी जायदाद, जमीन, दौलत सब हमको मिल जायगी। खजानचंद की दौलत के भी हमीं मालिक होंगे। अब देर न करो। रोने-धोने से अब कुछ हासिल नहीं।

श्यामा ने धर्मदास को आग्नेय नेत्रों से देख कर कहा-और इस वापसी की कीमत क्या देनी होगी? वही जो तुमने दी है?
धर्मदास यह व्यंग्य न समझ सका। बोला-मैंने तो कोई कीमत नहीं दी। मेरे पास था ही क्या?

श्यामा-ऐसा न कहो। तुम्हारे पास वह खजाना था, जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था। जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण, बुद्ध और शंकर, शिवाजी और गोविंद सिंह ने की थी। उस अमूल्य भंडार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया। इन पांवों पर लोटना तुम्हें मुबारक हो! तुम शौक से जाओ। जिन तलवारों ने वीर खजानचंद के जीवन का अंत किया, उन्होंने मेरे प्रेम का भी फैसला कर दिया। जीवन में इस वीरात्मा का मैंने जो निरादर और अपमान किया, इसके साथ जो उदासीनता दिखायी, उसका अब मरने के बाद प्रायश्चित्त करूंगी। यह धर्म पर मरने वाला वीर था, धर्म को बेचने वाला कायर नहीं! अगर तुममें अब भी कुछ शर्म और हया है, तो इसका क्रिया-कर्म करने में मेरी मदद करो और यदि तुम्हारे स्वामियों को यह भी पसंद न हो, तो रहने दो, मैं सब कुछ कर लूंगी।

पठानों के हृदय दर्द से तड़प उठे। धर्मान्धता का प्रकोप शांत हो गया। देखते-देखते वहां लकडि़यों का ढेर लग गया। धर्मदास ग्लानि से सिर झुकाये बैठा था और चारों पठान लकडि़यां काट रहे थे। चिता तैयार हुई और जिन निर्दय हाथों ने खजानचंद की जान ली थी उन्हीं ने उसके शव को चिता पर रखा। ज्वाला प्रचंड हुई। अग्निदेव अपने अग्निमुख से उस धर्मवीर का यश गा रहे थे।

पठानों ने खजांचंद की सारी जंगम सम्पत्ति ला कर श्यामा को दे दी। श्यामा ने वहीं पर एक छोटा-सा मकान बनवाया और वीर खजानचंद की उपासना में जीवन के दिन काटने लगी। उसकी वृद्धा बुआ तो उसके साथ रह गयी, और सब लोग पठानों के साथ लौट गये, क्योंकि अब मुसलमान होने की शर्त न थी। खजानचंद के बलिदान ने धर्म के भूत को परास्त कर दिया। मगर धर्मदास को पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया। एक दिन नियत किया गया। मस्जिद में मुल्लाओं का मेला लगा और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आये; पर उसका वहां पता न था। चारों तरफ तलाश हुई। कहीं निशान न मिला।
साल-भर गुजर गया। संध्या का समय था। श्यामा अपने झोंपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थी। अतीत उसके लिए दु:ख से भरा हुआ था। वर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था। सारी अभिलाषाएं भविष्य पर अवलम्बित थीं। और भविष्य भी वह, जिसका इस जीवन से कोई संबंध न था! आकाश पर लालिमा छायी हुई थी। सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शांति के आवरण से ढकी हुई थी। वृक्षों की कांपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज निकल रही थी, मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियां भर रही हो।

उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोंपड़ी के सामने खड़ा हो गया। कुत्ता जोर से भूंक उठा। श्यामा ने चौंक कर देखा और चिल्ला उठी-धर्मदास !
धर्मदास ने वहीं जमीन पर बैठते हुए कहा-हां श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूं। साल-भर से मारा-मारा फिर रहा हूं। मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है। सारा प्रांत मेरे पीछे पड़ा हुआ है। इस जीवन से अब ऊब उठा हूं; पर मौत भी नहीं आती। धर्मदास एक क्षण के लिए चुप हो गया। फिर बोला-क्यों श्यामा, क्या अभी तुम्हारा हृदय मेरी तरफ से साफ नहीं हुआ! तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया!
श्यामा ने उदासीन भाव से कहा-मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी।
'मैं अब भी हिंदू हूं। मैंने इस्लाम नहीं कबूल किया है।'
'जानती हूं!'

'यह जानकर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती!'

श्यामा ने कठोर नेत्रों से देखा और उत्तेजित होकर बोली-'तुम्हें अपने मुंह से ऐसी बातें निकालते शर्म नहीं आती! मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूं, जिसने हिंदू-जाति का मुख उज्ज्वल किया है। तुम समझते हो कि वह मर गया! यह तुम्हारा भ्रम है। वह अमर है। मैं इस समय भी उसे स्वर्ग में बैठा देख रही हूं। तुमने हिंदू-जाति को कलंकित किया है। मेरे सामने से दूर हो जाओ।'

धर्मदास ने कुछ जवाब न दिया! चुपके से उठा, एक लम्बी सांस ली और एक तरफ चल दिया। प्रात:काल श्यामा पानी भरने जा रही थी, तब उसने रास्ते में एक लाश पड़ी हुई देखी। दो-चार गिद्ध उस पर मंडरा रहे थे। उसका हृदय धड़कने लगा। समीप जाकर देखा और पहचान गयी। यह धर्मदास की लाश थी।

(प्रेमचंद के कहानी संकलन 'मानसरोवर' से साभार)