Sunday, July 29, 2018

ईसाईयत की वास्तविकता।

एक मुस्लिम शायर ने केवल इस्लाम को मानवीय विध्वंस के लिए जिम्मेदार ठहराए जाने और ईसाइयत की विनाश-लीला पर चुप्पी साध लेने की प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए कहा था-

"लोग कहते हैं तलवार से फैला इस्लाम,
यह नहीं कहते कि तोप से  क्या फैला?"

इस बात में काफी दम है। आज जिस ईसाइयत को प्रेम और सेवा की प्रतिमूर्ति के रूप में दुनिया के सामने प्रस्तुत किया जाता है उस ईसाइयत की वास्तविकता कुछ और ही है। इतिहास साक्षी है कि ईसाईयत उस साम्राज्यवाद का एक साधन था जिसने दुनिया भर में जिस तरह नरसंहार और संस्कृतिनाश किया उसकी मिसाल इतिहास में नहीं मिल सकती। हम भारतीयों के बीच अक्सर इस्लाम के जुल्मों और अत्याचारों की चर्चा होती है, लेकिन ईसाइयत का इतिहास भी उतना ही काला, क्रूर और विकराल है।

इतिहास पर सरसरी नजर डालें तो यह देखना दिलचस्प होगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने कैसा बर्ताव किया|. ईसा को मसीहा मानने वाले ईसाइयों ने यहूदियों से प्रचंड घृणा पाल ली और उनका नरसंहार किया। ईसा ने यहूदियों का मुक्तिदूत होने का दावा किया, पर वे मृत्युदूत और यातनादूत बनकर रह गए। सारे यूरोप में ईसाइयत के फैलने के साथ यहूदी विरोध भी फैला। ज्यादातर इतिहासकारों का मानना है कि ईसाइयत के शुरूआती दिनों से ही उसमें यहूदी विरोधी भावना थी, जो आनेवाली शताब्दियों में और बलवती हो गई। ईसाइयों द्वारा की गई यहुदियों के खिलाफ हिंसा और हत्याओं ने आखिरकार "नरसंहार" (genocide) का रूप लिया।

Jesus Christ: An Artifice for Aggression  के लेखक स्व.सीताराम गोयल यहूदियों के नरसंहार को सीधे ईसा से प्रेरित बताते हैं। वे लिखते हैं- "गोसेपेल (बाईबल) के ईसा ने यहूदियों की सांप, सांपों के बिल, शैतान की औलाद, मसीहाओं के हत्यारे कह कर निंदा की, क्योंकि उन्होंने ईसा को मसीहा मानने से इंकार कर दिया था। बाद के ईसाई धर्मशास्त्र ने उनको ईसा के हत्यारे के तौर पर स्थायी अपराध-भाव से भर दिया। यहूदियों को सारे यूरोप में और सदियों तक गैर-नागरिक बना दिया गया, उनको लगातार हत्याकांड का शिकार बनाया गया।... आश्चर्य नहीं कि पश्चिमी देशों के गंभीर चिंतक गोस्पेल को पहला "यहूदी विरोधी मेनीफैस्टो" मानते हैं।"

फ्रांसिसी लेखक और दार्शनिक वोल्तेयर ने ईसाइयत के इतिहास और चरित्र का अध्ययन करने के बाद टिप्पणी की थी, "ईसाइयत दुनिया पर थोपा गया सबसे हास्यास्पद, एब्सर्ड और रक्तरंजित धर्म है। हर सम्माननीय व संवेदनशील व्यक्ति को ईसाई पंथ से डरना चाहिए।" उनकी यह बात सोलह आने खरी है। ईसाइयत का सारा इतिहास रक्तरंजित दास्तान रहा है। सबसे पहला देश, जहां ईसाइयत राजधर्म बना, वह था रोम। कट्टर ईसाइयों का स्वभाव रहा है कि जैसे ही पर्याप्त शक्ति संग्रहित की कि भयंकर उत्पीडनों को तेज कर देते हैं। रोम में उन्होंने बहुदेववादियों का उत्पीड़न शुरू किया। उन यहुदियों का उत्पीडन किया जिनसे ईसाइयत पैदा हुई। रोम में उन्होंने बहुदेववादियों के सारे मंदिर नष्ट कर दिए। बाद में ईसाइयत यूनान (Greece) भी पहुंच गई। किसी जमाने में यूनान पश्चिमी सभ्यता का सिरमौर हुआ करता था; लेकिन वहां ईसाइयों का वर्चस्व बढने के साथ उसका यह सम्मान जाता रहा। प्राचीन यूनान ईसाईयत के जन्म से बहुत पहले पश्चिमी सभ्यता का पहला शिक्षक था। मगर जबसे वह ईसाई बना, उसकी सारी मनीषा और संस्कृति नष्ट हो गई। यूनानियों के पास ईसाइयों से ज्यादा प्रकाश था। ईसाई तो प्रकाश के बजाय अंधेरा लाए। भारत में जिस प्रकार मंदिरों में अनेक देव मूर्तियां साथ-साथ रहती हैं उसी तरह ग्रीक देवी-देवताओं की मूर्तियां भी वहां के मंदिरों में साथ साथ रहती थी। न तो देवताओं में ईर्ष्या और नफरत भरी प्रतिस्पर्धा थी, न पुजारियों के मध्य। लेकिन नए पंथ ईसाईयत की सोच में ही कुछ गड़बड़ी थी। इसलिए यूरोप में ईसाइयत का इतिहास विध्वंस लीलाओं से भरा रहा। ईसाइयत ने किस तरह यूरोप पर कब्जा किया, अनेक समाजों, संस्कृतियों के मठ-मंदिरों को नष्ट किया, विचार स्वातंत्र्य को खत्म किया इसका इतिहास रक्तरंजित और रोंगटे खड़ा करनेवाला है। ईसाई संतों (?) ने इसमें सबसे दुष्टतापूर्ण भूमिका निभाई। ऐसे क्रूरकर्मा लोगों को वहां संत कहा गया।

ईसाइयों में शुरू से ही यह प्रवृत्ति रही है कि एक ईसाई संप्रदाय वाला दूसरे ईसाई संप्रदाय वाले को मार डाले। दरअसल एक ईसाई संप्रदाय किसी और संप्रदाय का ईसाई होना पाप ही मानता था। उसे राज्य के विरूद्ध अपराध भी घोषित कर दिया जाता था। एक संप्रदाय के राजा कानून बनाकर भिन्न ईसाई संप्रदायों पर पाबंदी तक लगाते। असल में यूरोप में पहले पैगन (गैर-ईसाई) लोगों का वंशनाश किया गया। फिर अन्य ईसाई संप्रदायों के ईसाइयों को ढूंढ कर जलाया गया। लाखों अन्य संप्रदायों के ईसाई सार्वजनिक उत्सव के साथ जलाए गए। उन्मत्त ईसाइयों ने समाजों और कौमों का उत्पीड़न किया। इस तरह ईसाइयत ने यूरोप को अपने अधीन किया। पोप ग्रेगरी ने इंग्लैंड के बिशप आगस्तीन को सलाह दी कि जहाँ भव्य मंदिर हों उनको नष्ट न कर उन पर कब्जा करे। वहां की मूर्तियां हटा दी जाएं और वहां सच्चे ईश्वर यीशु की पूजा की जाए।

फिर यूरोप के ईसाइयों ने बाकी महाद्वीपों में जाकर यही इतिहास दोहराया। उन्होंने अमेरिका और आस्ट्रेलिया जाकर वहां के स्थानीय निवासियों (aborigins) को असभ्य करार देकर उनका नरसंहार किया और उनकी जमीन आदि पर कब्जा कर लिया। बेनेडिक्ट चर्च के पादरी कोलंबस के पीछे अमेरिका पहुंचे। उन्होंने केवल हैती में ही पौने दो लाख उन मूर्तियों को नष्ट कर दिया जिनकी वहां के स्थानीय लोग पूजा करते थे। मैक्सिको के पहले पादरी जुआन द जुमरगा ने १५३१ में दावा किया था कि उसने ५० से ज्यादा मंदिर नष्ट किए और २०० से ज्यादा मूर्तियां तोड-फोड़ कर मिट्टी में मिला दीं। एक मिशनरी ने बहुत गर्व से लिखा है, "उसका रात का खाना चार फीट उंची लकड़ी की मूर्ति का जलाऊ लकड़ी तरह प्रयोग कर तैयार किया गया था और वहां स्थानीय लोग खड़े खड़े देखते रह गए थे।"

इतिहासकार धर्मपाल के शब्दों में कहा जाए- "उनकी नजर में विजित को आखिरकार खत्म होना था। भौतिक रूप से न सही मगर संस्कृति और सभ्यता के रूप में।" आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के स्थानीय निवासी जल्दी ही नेस्तनाबूद हो गए थे। उत्तरी अमेरिका में उनके पूर्ण उन्मूलन में  ३००-४०० साल लगे।

अफ्रीका महाद्वीप इस्लाम और ईसाइयत जैसे दोनों विस्तारवादी और घोर असहिष्णु धर्मों के हमलों को झेल रहा है। इससे उनकी प्राचीन संस्कृति लगभग खत्म होती जा रही है। दोनों के बीच स्थानीय लोगों को धर्मांतरित करने की होड़ चल रही है। आज अफ्रीकी अपने युगों पुराने मूल धर्मों को खोने की कगार पर हैं।

ईसाइयत के प्रसार ने न केवल कई संस्कृतियों का विनाश किया, वरन् यूरोप, अमेरिका, एशिया और आस्ट्रेलिया के लाखों लोगों की हत्या हुई। महान दार्शनिक वोल्तेयर के शब्दों में कहें तो "ईसाइयत ने काल्पनिक सत्य के लिए धरती को रक्त से नहला दिया।" 

पश्चिमी देश "सेकुलर" होने के बावजूद अपने को ईसाई मानते हैं, इसलिए सार्वजनिक जीवन और शिक्षा व्यवस्था के जरिये सदियों तक ईसा के नाम पर मानवता के खिलाफ हुए अपराधों को छिपाते रहे। भारत में तो ईसाईयत के इस काले अध्याय को पूरी तरह से पोंछ दिया गया है। उस पर कभी चर्चा नहीं की जाती। ईसाइयत को प्रेम और सेवा के धर्म के रूप में प्रचारित किया जाता है, लेकिन उसमें इस बात की चर्चा नहीं की जाती कि इसके लिए कितने लोगों की बलि चढ़ाई गई। भारत भी ईसाइयों की विनाश लीला का शिकार हुआ है। पुर्तगालियों की हिंसा जगजाहिर थी तो अंग्रेजों की हिंसा सूक्ष्म थी, चुपचाप जड़ें खोदने वाली थी। एक ईसाई इतिहासकार ने लिखा है कि पुर्तगालियों नें अपने कब्जे के भारत में क्या किया। एडां टीआर डिसूजा के अनुसार, १५४० के बाद गोवा में सभी हिन्दू मूर्तियों को तोड़ दिया गया था या गायब कर दिया गया था। सभी मंदिर ध्वस्त कर दिए गए थे और उनकी जगहों को और निर्माण सामग्रीयों को नए क्रिश्चियन चर्च बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया था। कई शासकीय और चर्च के आदेशों में हिन्दू पुरोहितों के पुर्तगाली क्षेत्र में आने पर रोक लगा दी गई थी। विवाह सहित सभी हिन्दू कर्मकांडों पर पाबंदी थी। मिशनरी गोवा में सामूहिक धर्मांतरण करते थे। इसके लिए सेंट पाल के कन्वर्जन भोज का आयोजन किया जाता था। उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाने के लिए जेसुइट लोग हिन्दू बस्तियों में अपने नीग्रो गुलामों के साथ जाते थे। इन नीग्रो का इस्तेमाल हिन्दुओं को पकड़ने के लिए किया जाता था। जब ये नीग्रों भागते हुए हिन्दुओं को पकड़ लेते थे तो वे हिन्दुओं के होठों पर गांय का मांस लगा देते थे। इससे वह हिन्दू लोगों के बीच अछूत बन जाता था। तब उसके पास ईसाई पंथ में घर्मांतरित होने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता था। इतिहासकार ईश्वर शरण ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है - "संत झेवियर के सामने औरंगजेब का मंदिर विध्वंस और रक्तपात कुछ भी नहीं है।" अंग्रेज शासन के बारे में नोबल पुरस्कार विजेता वी.एस. नायपाल की यह टिप्पणी ही काफी है कि "इस देश में इस्लामी शासन उतना ही विनाशकारी था जितना उसके बाद आया ईसाई शासन। ईसाइयों ने एक सबसे समृद्ध देश में बड़े पैमाने पर गरीबी पैदा की।"

कुछ वर्ष पूर्व एक पोप ने ईसाईयत के इन काले कारनामो के लिए अमेरिका से माफी मांगी थी। केवल अमेरिका और लैटिन अमेरिका से माफी मांग कर काम नहीं चलेगा। उन्हें कई देशों से, कई समाजों से, कई धर्मों और स्वयं ईसाइयत के विभिन्न संप्रदायों से माफी मांगनी चाहिए थी। उन्हें यहूदियों, अन्य संप्रदाय के ईसाइयों और हिन्दुओं से माफी मांगनी होगी। उन्हें माफी मांगनी पड़ेगी उन लाखों महिलाओं से जिन्हें यूरोप में चुडैल (witch) कह कर जला दिया गया। उन्हें माफी मांगनी होगी उन लाखों ईसाइयों से जिन्हें धर्म से विरत (heretic / apostate) होने के कारण यातनाघरों में यातनाएं दी गईं। गैलीलियों जैसे वैज्ञानिकों से प्रताड़ित किए जाने के लिए माफी मांगनी होगी। रोम के पोप माफी मांग भी लेंगे, लेकिन क्या ये प्रताडित लोग उनकी माफी कबूल करेंगे? आखिर माफी मांगने से इतिहास तो नहीं बदलता। समय के चक्र को पीछे नहीं चलाया जा सकता। फिर माफी मांगना नाटक और ईसाइयत की छवि सुधारने की कोशिश के अलावा क्या है? असली माफी तो तब होगी जब ईसाइयत अपना धूर्त, पाखण्डी, असहिष्णु और विस्तारवादी चरित्र बदले। शायद यह कर पाना किसी भी पोप के बस की बात नहीं। ईसाइयत के मूल चरित्र को वो कैसे बदल पाएंगे?
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✝ ईसाईयत के इतिहास पर कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकें...
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* ईसाई मत दर्पण (लेखक: पंडित लेखराम)

https://drive.google.com/file/d/17uxmkBiP1mZv2XI8JRZvo-AvBY7FyKEE/view?usp=drivesdk
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* Christianity: An Imperialist Ideology (Sitaram Goel and others)

https://drive.google.com/file/d/14MNzp1Sktd35NEzLfcfprSDq_hGz0ZKW/view?usp=drivesdk
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* Crimes of Christianity (G.W. Foote)

https://www.scribd.com/document/118950496/Crimes-of-Christianity-G-W-Foote
http://www.ftarchives.net/foote/crimes/contents.htm

Wednesday, July 4, 2018

ज़ाकिर नाईक की आर्यसमाज द्वारा पोल-खोल।

डॉ विवेक आर्य

विषय-वेद और क़ुरान में से ईश्वरीय ज्ञान कौन सा हैं?

डॉ ज़ाकिर नाईक ने अपने वीडियो में केवल क़ुरान को सभी के मानने के लायक धार्मिक पुस्तक बताता है। उसके अनुसार प्रत्येक काल में अल्लाह की ओर से धार्मिक पुस्तकें तौरेत, जबूर, इंजील एवं अंत में क़ुरान अवतरित करी गई। क़ुरान अंतिम एवं निर्णायक पुस्तक है। क्यूंकि वेदों का कोई भी वर्णन क़ुरान में नहीं मिलता। इसलिए वेदों को ईश्वरीय पुस्तक मानने या न मानने पर शंका है।  हालाँकि जो बात क़ुरान कि वेदों में मिलती है, वह मान्य है।  जो जो बात क़ुरान की वेदों में नहीं मिलती वह अमान्य है।

समीक्षा-

क़ुरान करीब 1400 वर्षों पहले इस धरती पर अवतरित हुई। इस्लामिक मान्यता अनुसार हज़रत मुहम्मद के पास खुदा के भेजे हुए खुदा का पैगाम लेकर फरिश्ते आते थे। रसूल उन्हें लिखवा देते। इस तरीके से समय समय पर क़ुरान की आयतें नाज़िल हुई। इस प्रकार से क़ुरान की उत्पत्ति हुई।

1. ईश्वरीय ज्ञान सृष्टी के आरंभ में आना चाहिये न की मानव की उत्पत्ति के करोड़ो वर्षों के बाद।

ज़ाकिर नाईक के अनुसार सबसे पहली आसमानी पुस्तक तौरेत थी। तौरेत मूसा नामक पैगम्बर पर नाजिल हुई थी। सैमेटिक मत अनुसार सबसे पहले आदम की उत्पत्ति हुई थी। आदम से लेकर मूसा तक करोड़ो लोगों का इस धरती पर जन्म हुआ।  क्या क़ुरान का अल्लाह इतना अपरिपक्व है जो उन करोड़ो लोगों को अपने ज्ञान से वंचित रखता? उस काल में जन्में करोड़ों लोगों को कोई ज्ञान नहीं था और मनुष्य बिना कुछ सिखाये कुछ भी सीख नहीं सकता था। इसलिए मनुष्य की उत्पत्ति के तुरंत बाद उसे ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता थी। सत्य के परिज्ञान न होने के कारण यदि सृष्टी के आदि काल में मनुष्य कोई अधर्म आचरण करता तो उसका फल उसे क्यूँ मिलता क्यूंकि इस अधर्माचरण में उसका कोई दोष नहीं होता, क्यूंकि अगर किसी का दोष होता भी हैं तो वह परमेश्वर का होता क्यूंकि उन्होंने मानव को आरंभ में ही सत्य का ज्ञान नहीं करवाया।

यह क़ुरान के अल्लाह की कमी दर्शाता है।  ईश्वरीय ज्ञान या ईश्वर में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।

परमेश्वर सकल मानव जाति के परम पिता है और सभी मनुष्यों का कल्याण चाहते हैं। वह मनुष्यों में कोई भेदभाव नहीं करता। केवल एक वेद ही हैं जो सृष्टी के आरंभ में ईश्वर द्वारा मानव जाति को प्रदान किया गया था।

2. क़ुरान का अल्लाह बार बार अपना ज्ञान क्यों परिवर्तन करता रहा? यह महत्वपूर्ण प्रश्न है।

पहले तौरेत, फिर जबूर, फिर इंजील और अंत में क़ुरान नाजिल हुई। प्रश्न उठता है कि ऐसी क्या कमी क़ुरान के अल्लाह से रह जाती थी जो वह उसे बार बार दुरुस्त करता था। मुसलमान लोग क़ुरान को अंतिम एवं निर्णायक ज्ञान मानते है? अल्लाह ने क़ुरान के ज्ञान को पहले ही क्यों नहीं दे दिया। उसे न बार बार परिवर्तन की आवश्यकता होती। ज़ाकिर नाईक कहता है जो ज्ञान जिस काल में उपयोगी था उस उस ज्ञान को अल्लाह ने उपलब्ध करवाया। शंका उठती है कि फिर आप क़ुरान को अंतिम एवं निर्णायक किस आधार पर मानते है? क़ुरान के पश्चात क्या देश, काल और परिस्थिति नहीं बदलेगी। क़ुरान काल में तलवार, खंजर आदि चलते थे। आज बन्दुक, मिसाइल आदि युद्ध में प्रयोग होते है।  इससे तो यही सिद्ध हुआ कि क़ुरान का ज्ञान तो आज भी अप्रासंगिक हो गया है।  आगे यही पर समाप्त नहीं हो जाती। अंतिम पुस्तक क़ुरान की आयतों को भीअनेक बार गलत समझ कर मंसूख़ अर्थात रद्द भी किया गया। यह रद्द करना ठीक वैसे था जैसे पहले की आसमानी किताबों को रद्द किया गया था। क्या क़ुरान का अल्लाह एक नर्सरी के बालक के समान नासमझ है?  एक नर्सरी का बालक क्या करता है? पहले स्लेट पर अक्षर बनाता है फिर उसे वह नहीं जचता तो उसे फिर मिटाता है। फिर दोबारा से बनाता है।  वह कर्म तब तक चलता रहता है जब तक ठीक अक्षर नहीं बनता। क़ुरान का अल्लाह भी अपनी ही बताई आयतों को एक बालक के समान गलत-ठीक करता रहता है। ज़ाकिर  नाईक अगर इस तर्क के उत्तर में यह शंका करें कि जैसे आप चिकित्सा विज्ञान कि पुस्तक का पुराना संस्करण क्यों नहीं पढ़ते आप नया क्यों पढ़ते हो। वैसे ही आप आज तौरेत, जबूर और इंजील के स्थान पर अंतिम क़ुरान को पढ़ते है। ज़ाकिर नाईक की बात सुनकर आप मुस्कुरा देंगे। ज़ाकिर भाई मेडिकल की पुस्तक का अगला संस्करण भी आएगा। आप तब क़ुरान को किस आधार पर अंतिम एवं निर्णायक कहेंगे?

इसके विपरीत वेदों का ज्ञान सृष्टि के आदि में आया और सृष्टि के अंत तक उसमें न कोई परिवर्तन होता है। वह श्रुति परम्परा से पूर्ण रूप से सुरक्षित है।  कोई चाहे भी तो उसमें बदलाव नहीं कर सकता। वैदिक ईश्वर सर्वज्ञ अर्थात सब ज्ञान को जानने वाला है। इसलिए उन्हें किसी भी वेद मंत्र को कभी भी बदलने की कोई आवश्यकता नहीं होती।

3.  क़ुरान के ज्ञान को देने के लिए पैगम्बर और फरिश्तों की आवश्यकता क्यों हुई?

इस्लाम मान्यता के अनुसार हजरत पैगम्बर को पैगाम लेकर अल्लाह के फरिशते आते थे। कोई भी पैगाम किसी फासले अर्थात दूरी से आता है। ज़ाकिर नाईक से यह पहला प्रश्न है कि अल्लाह और पैगम्बर (मनुष्य) के मध्य का फासला बताये? दूसरा  प्रश्न यह है कि क्या क़ुरान का अल्लाह असक्षम और असमर्थ है जो उसे अपना पैगाम देने के लिए फरिश्तों या संदेशवाहकों की आवश्यकता हुई? अधिकतर मुस्लिम विद्वान् इस प्रश्न पर मौन धारण कर लेते है।

इस विषय में वैदिक सिद्धांत है कि ईश्वर और मनुष्य में कोई दूरी नहीं है क्यूंकि परमात्मा आत्मा में विराजमान है एवं हमें सदा देख, सुन रहा हैं और प्रेरणा दे रहा है। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा ऋषियों के ह्रदय में ही वेदों का ज्ञान बिना किसी संदेशवाहक के सहज भाव से स्वयं प्रकाशित किया गया।  इससे न केवल वैदिक ईश्वर सर्वशक्तिमान सिद्ध होता है अपितु पूर्ण भी सिद्ध होता है।

4. क्या क़ुरान का अल्लाह कमजोर है?

इस्लाम मानने वाले शैतान की कहानी को मानते है।  इस कहानी के अनुसार अल्लाह ने इबलीस को आदम को सजदा करने को कहा। इबलीस ने अल्लाह के हुकुम की अवमानना करते हुए आदम को सजदा करने से मना कर दिया। इससे क्रोधित होकर अल्लाह ने इबलीस को सजा दे दी। तब से इबलीस शैतान बनकर बहकाता फिरता है। क़ुरान के अल्लाह के हुकुम की अवमानना से यह सिद्ध हुआ कि क़ुरान का अल्लाह न केवल कमजोर है अपितु मनुष्यों एक समान क्रोधित होने वाला भी है।

सर्वप्रथम तो कोई ईश्वर की आज्ञा को कैसे नकार सकता है? इससे क़ुरान का अल्लाह अशक्त सिद्ध हुआ।

दूसरा क्या क़ुरान का अल्लाह अल्पज्ञ अर्थात कम ज्ञान वाला है, जो उसे यह भी नहीं मालूम कि जिस इबलीस को उसने बनाया है वह उसकी आज्ञा नहीं मानेगा?

तीसरा शाप देकर अल्लाह ने इबलीस को शैतान बना दिया जो मनुष्यों को बहकाकर काफ़िर बनाता है। काफ़िर बनने पर अल्लाह को काफ़िरों को मारने के लिए आयत उतारनी पड़ी। इसका परिणाम यह निकला कि यह धरती मुसलमानों और गैर मुसलमानों में विभाजित हो गई। मुसलमानों को अपने आपको सच्चा मुसलमान सिद्ध करने के काफिरों को मारना नैतिक कर्त्तव्य बन गया। इसका अंतिम परिणाम यह निकला की 1400 वर्षों में इतनी मारकाट हुई कि यह स्वर्ग सी धरती दोज़ख अर्थात नरक बन गई। न क़ुरान का अल्लाह इबलीस को ऊटपटांग हुकुम देता, न वह अवमानना करता, न शैतान बनने का शाप दिया जाता, न काफ़िर बनते, न खून खराबा होता।

ऐसे अल्लाह को मुसलमान लोग खुदा मानते है।  यह उनकी अज्ञानता है।

वेदों में वैदिक ईश्वर के गुण-कर्म- स्वभाव के विपरीत कोई भी बात नहीं है। ईश्वर सत्यस्वरूप, न्यायकारी, दयालु, पवित्र, शुद्ध-बुद्ध मुक्त स्वभाव, नियंता, सर्वज्ञ आदि गुणों वाला है। ईश्वरीय ज्ञान में ईश्वर के इन गुणों के विपरीत बातें नहीं लिखी है।  कुरान  में कई ऐसी बातें हैं जो की ईश्वर के गुणों के विपरीत है।

एक अन्य उदहारण लीजिए।  इस्लाम मानने वालों की मान्यता है कि ईद के दिन निरीह पशु की क़ुरबानी देने से पुण्य की प्राप्ति होती है। यह कर्म ईश्वर के दयालु गुण के विपरीत कर्म है। इसलिए केवल वेद ही ईश्वरीय गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल होने के कारण एक मात्र मान्य धर्म ग्रन्थ है।

इस प्रकार इस लेख में दिया गए तर्कों से यह सिद्ध होता हैं वेद ही ईश्वरीय ज्ञान मानने लायक है।

वेदों को लेकर ज़ाकिर नाईक केवल अपने जैसों को बरगला रहा है। ज़ाकिर नाईक के कुतर्क कि परीक्षा एक अन्य उदहारण से होती है। ज़ाकिर नाईक कहता है कि जो बात क़ुरान कि वेदों में मिलती है, वह मान्य है। जो जो बात क़ुरान की वेदों में नहीं मिलती वह अमान्य है।

मतलब बाप का होना तभी माना जायेगा जब बेटे के दर्शन होंगे। अगर बेटा नहीं है तो बाप पैदा ही नहीं हुआ। ज़ाकिर भाई आप इस धरती पर हो इससे यह केवल यह सिद्ध नहीं होता की आपके पूर्वज भी इस धरती पर थे। परन्तु अगर आपके पूर्वज ही नहीं होते तो आप आज होते ही नहीं।

वेदों का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में आया तभी उसमें से कुछ बातें क़ुरान वालों ने उधारी ली। अब उन उधार ली गई बातों से वेद के सही या गलत होने की कसौटी स्थापित नहीं होती अपितु यह कसौटी क़ुरान के लिए सिद्ध होती है।  जो जो बातें वेदों की क़ुरान में मिलती है वह ईश्वरकृत होने के कारण मान्य है और जो जो बातें क़ुरान में वेदों से भिन्न मिलती है वह मनुष्यकृत होने के कारण अमान्य एवं कपोलकल्पित है।

वेदों के ईश्वरीय ज्ञान होने की वेद स्वयं ही अंत साक्षी देते हैं। अनेक मन्त्रों से हम इस बात को सिद्ध करते हैं जैसे

1. सबके पूज्य,सृष्टीकाल में सब कुछ देने वाले और प्रलयकाल में सब कुछ नष्ट कर देने वाले उस परमात्मा से ऋग्वेद उत्पन्न हुआ, सामवेद उत्पन्न हुआ, उसी से अथर्ववेद उत्पन्न हुआ और उसी से यजुर्वेद उत्पन्न हुआ हैं- ऋग्वेद 10/90/9, यजुर्वेद 31/7, अथर्ववेद 19/6/13

2. सृष्टी के आरंभ में वेदवाणी के पति परमात्मा ने पवित्र ऋषियों की आत्मा में अपनी प्रेरणा से विभिन्न पदार्थों का नाम बताने वाली वेदवाणी को प्रकाशित किया- ऋग्वेद 10/71/1

3. वेदवाणी का पद और अर्थ के सम्बन्ध से प्राप्त होने वाला ज्ञान यज्ञ अर्थात सबके पूजनीय परमात्मा द्वारा प्राप्त होता हैं- ऋग्वेद 10/71/3

4. मैंने (ईश्वर) ने इस कल्याणकारी वेदवाणी को सब लोगों के कल्याण के लिए दिया हैं- यजुर्वेद 26/2

5. ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद स्कंभ अर्थात सर्वाधार परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं- अथर्ववेद 10/7/20

6. यथार्थ ज्ञान बताने वाली वेदवाणियों को अपूर्व गुणों वाले स्कंभ नामक परमात्मा ने ही अपनी प्रेरणा से दिया हैं- अथर्ववेद 10/8/33

7. हे मनुष्यों! तुम्हे सब प्रकार के वर देने वाली यह वेदरूपी माता मैंने प्रस्तुत कर दी हैं- अथर्ववेद 19/71/1

8. परमात्मा का नाम ही जातवेदा इसलिए हैं की उससे उसका वेदरूपी काव्य उत्पन्न हुआ हैं- अथर्ववेद- 5/11/2

आइये ईश्वरीय के सत्य सन्देश वेद को जाने

वेद के पवित्र संदेशों को अपने जीवन में ग्रहण कर अपने जीवन का उद्धार करे।