Thursday, June 30, 2022

क्या मिडिया आपका ब्रेनवाश कर रहा है?

मिडिया ( विशेषकर प्रिंट मीडिया ) में 2 विशेष जनभावनाए निर्माण करने की होड़ लगी है. सभी धर्म एक जैसे हैं तथा धर्म सभी बुराइयों की जड़ है.
एक स्वघोषित विद्वान सेक्युलर कम्युनिष्ट ने कहा की धर्म से पेट नहीं भरता। इसलिए धर्म की कोई जरूरत नहीं है। शायद उसे कार्ल मार्क्स की वह बात याद आई होगी जिसमे धर्म को अफीम का नशा बताया गया है।
आगे उसने कहा - धर्म निकम्मेपन और निट्ठलेपन को बढ़ावा देता है? कुछ उदाहरण -
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अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम .
दास मलूखा कह गए सब के दाता राम
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होही है सोई जे राम रची रखा, को करी तर्क बढावही शाषा.
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राम भरोसे बैठ कर लम्बी तान के सोए,
अनहोनी होनी नहीं होनी है तो होए.
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समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को कुछ नहीं मिलाता
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उत्तर ...
धर्म निक्कमेपन की शिक्षा नहीं देता-
यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 2 में उपदेश है -
1-कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः---
कर्म करते हुए 100 वर्ष जीने की इच्छा करो.
2 आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः ।.
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ॥
(ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय 3, खण्ड 3)
अर्थ – जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है । जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है । और जो विचरण में लगता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है ।
3 -कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपाद्यते चरंश्चरैवेति ॥
(ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय 3, खण्ड 3)
अर्थ – शयन की अवस्था कलियुग के समान है, जगकर सचेत होना द्वापर के समान है, उठ खड़ा होना त्रेता सदृश है और उद्यम में संलग्न एवं चलनशील होना कृतयुग (सत्ययुग) के समान है ।
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आगे उस सेक्युलर ने कहा- धर्म गरीबी की प्रेरणा देता है. देखिए क्या कहा है संतों ने-
1-रूखी सुखी खाय कर ठण्डा पानी पी, देख पराई चोपड़ी क्यों ललचाए जी.
2 - साईं इतना दीजिए जा में कुटुम्ब समाय, मैं भी भूखा ना रहूँ साधू भूखा ना जाए.
उत्तर- धर्म गरीबी की प्रेरणा नहीं देता.
प्रातः कालीन वैदिक प्रार्थना में कहा गया है- वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥ (यजुर्वेदः 19/44) अर्थात हम धन ऐश्वर्य के स्वामी बनें. वेद में गरीब बनने या जल्दी मरने की कामना करने जैसी कोई प्रार्थना नहीं है.
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तभी बीच मे उस सेक्युलर का तिलकधारी दोस्त बोल उठा जो इस्कॉन से जुड़ा हुआ था --
धर्म के मामले मे तर्क नहीं करना चाहिए। जो मानता है इसके लिए भूत, पीर, पितर, देवलोक, जन्मकुंडली व भविष्य आदि सब हैं और जो नहीं मानता उसके लिए कुछ नहीं। अपनी अपनी श्रद्धा है। यह तो श्रद्धा का मामला है। धर्म कर्तव्य और ईश्वर को स्पष्ट रूप से नहीं बताता
उदाहरण --
जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूर्त देखिए तिन तैसी।
मानो तो शंकर ना मानो तो कंकर
मानो तो मैं गंगा माँ हूँ ना मानो तो बहता पानी
उत्तर-
महर्षि मनु कहते हैं कि यस्तर्केण अनुसन्धत्ते स धर्मो वेद नेतरः ।' अर्थात तर्क से जाना जाए वह धर्म है। निरुक्त मे महर्षि यास्क तर्क को ऋषि का दर्जा देते हैं। मेरे या आपके मानने से किसी वस्तु का गुण धर्म स्वभाव नहीं बदलता। मानने से नमक मीठा नहीं हो जाता और कागज का फूल सुगंध नहीं दे सकता। पत्थर की गाय दूध नहीं देती और खिलौने की बिल्ली से चूहे नहीं डरते।
वेद और उपनिषद मे ईश्वर स्पष्ट है-
यजुर्वेद 40/8 मे उसे सर्वव्यापक, कायारहित, विकार रहित, शरीर के अंग उपांग रहित, पाप से सर्वथा दूर और शुद्ध बताया है।
आगे उस सेक्यूलर ने कहा - सभी धर्म नारी को दबा कर रखना चाहते हैं. जैसे घुंघट प्रथा, देवदासी प्रथा, खाप पंचायतों का महिलाओं के विरूद्ध निर्णय आदि..
उत्तर- सेक्युलर जी शायद तीन तलाक, हलाला और मुत्ताह आदि को भूल गए. क्योंकि मिडिया उन्हें इन सब पर विचार करने की अनुमति ही नहीं देता. सेक्युलरों के हीरो आमिर खान आदि भी सत्यमेव जयते पर इन के बारे में कुछ नहीं बोलते इसलिए सेक्युलरों को लगता है कि इस तरह की कोई समस्या होती ही नहीं. वैसे भी सेक्युलर को ये नहीं पता होता कि धर्म अनेक नहीं होते. धर्म एक ही होता है जिसे सनातन धर्म कहते हैं. सनातन धर्म का आधार है वेद.. हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई और यहूदी आदि धर्म नहीं हैं. ये तो मत पंथ सम्प्रदाय हैं. देवदासी आदि प्रथा धर्म नहीं है.
देखिए महर्षि मनु क्या आदेश देते हैं नारी के विषय में.--
सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्र भार्या तथैव च।यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्।।१।।
जिस कुल में भार्य्या से भर्त्ता और पति से पत्नी अच्छे प्रकार प्रसन्न रहती है उसी कुल में सब सौभाग्य और ऐश्वर्य निवास करते हैं। जहां कलह होता है वहां दौर्भाग्य और दारिद्र्य स्थिर होता है।।१।।
यत्र नार्य्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रऽफलाः क्रियाः।।२।।
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।न शोचन्ति तु यत्रैता वर्द्धते तद्धि सर्वदा।।३।।
जिस घर में स्त्रियों का सत्कार होता है उस में विद्यायुक्त पुरुष आनन्द से रहते हैं और जिस घर में स्त्रियों का सत्कार नहीं होता वहां सब क्रिया निष्फल हो जाती हैं।।२।।
जिस घर वा कुल में स्त्री शोकातुर होकर दुःख पाती हैं वह कुल शीघ्र नष्ट भ्रष्ट हो जाता है और जिस घर वा कुल में स्त्री लोग आनन्द से उत्साह और प्रसन्नता से भरी हुई रहती हैं वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है।।३।।
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धर्म क्या है?
- महर्षि कणाद अपने वैशेषिक दर्शन मे धर्म की परिभाषा लिखते हैं
- यतो अभ्युदय निश्रेयस सिद्धि स एव धर्म –
- जिससे सामाजिक उन्नति हो व मोक्ष की प्राप्ति हो वह धर्म है।
व्याख्या- केवल उन्नति तो चोरी, ठगी, लूट व धोखा देकर भी की जा सकती है परंतु वह सम्पूर्ण समाज को नष्ट कर देती है इसलिए केवल धन, शक्ति आदि की उन्नति को धर्म नहीं कहा जा सकता। सनातन धर्म के शास्त्रों मे विवाह के समय एक यज्ञ का विधान मिलता है । इस यज्ञ का नाम है राष्ट्रभृत यज्ञ। इसका मुख्य उद्देश्य यह था कि व्यक्ति वह रोजगार ना करे जिससे राष्ट्र को हानी हो जैसे शराब, सिगरेट, नशा बेचना, जुआ घर या वेश्याघर खोलना। केवल वन मे रहकर योगसाधना करने से मुक्ति का मार्ग तो सरल हो जाता है परंतु संसार का उपकार नहीं होता।
वेदों के महान विद्वान महर्षि दयानन्द पक्षपात रहित आचरण को धर्म व पक्षपात पूर्ण आचरण को अधर्म कहते हैं। वह शिक्षा का उद्देश्य केवल आजीविका नहीं बल्कि सभ्यता, सदाचार व धार्मिक होना मानते हैं।
धर्म का हमारे जीवन मे क्या स्थान है इसके लिए यह प्रसंग पढे
1-सुश्रुत संहिता सूत्र स्थान अध्याय 2 मे महर्षि धन्वन्तरी अपने शिष्य को जनेऊ देते समय उपदेश देते है-
ब्राह्मण, गुरु, दरिद्र, मित्र, सन्यासी, पास मे नम्रता पूर्वक आए, सज्जन, अनाथ, दूर से आए सज्जनों की चिकित्सा स्वजनों (अपने परिवार के सदस्य) की भांति अपनी औषधियों से करनी चाहिए। यह करना साधु (श्रेष्ठ ) है।
व्याध (शिकारी), चिड़िमार, पतित (नीच आचरण वाला) पाप करने वालो की चिकित्सा धन का लाभ होने पर भी नहीं करनी चाहिए।
ऐसा करने से विद्या सफल होती है, मित्र, यश, धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति होती है। ऐसा ही विवरण चरक संहिता मे मिलता है। (क्या आज का चिकित्सक यह कर्त्तव्य निभाता है)
.जहां केवल अपने मत, मजहब, रिलीजन या पंथ के मानने वालों के लिए प्रार्थना की गई है वहाँ पक्षपात है। वह धर्म नहीं अधर्म है। जहां पर बेकसूर(काफिर) को मार कर जन्नत मे 72 हूर (सुन्दर स्त्रियाँ) मिलने की बात कही हो वह पक्षपात होने के कारण अधर्म है। जहां केवल गंगा नहाने से पाप दूर होने की बात हो वह अधर्म है क्योंकि इस तरह की बातें पाप को बढ़ावा देती हैं।------------
धर्म का सम्बन्ध मनुष्य है. ईंट पत्थर से धर्म नहीं बनता . कुत्ते बिल्ली से धर्म का सम्बन्ध नहीं है .
धर्म का सम्बन्ध आचार विचार व्यवहार से है.

Wednesday, June 29, 2022

बकरी को शेर कैसे बनाए?

मोहन गुप्ता पौराणिक हिन्दू परिवार से थे। आप पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर थे। आपका मूर्ति पूजा एवं पौराणिक देवी देवताओं की कथाओं में अटूट विश्वास था। आप बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत थे। आपको अनेक बार कंपनी की ओर से विदेश में कई महीनों के लिए कार्य के लिए जाना पड़ता था। एक बार आपको अफ्रीका में केन्या कुछ महीनों के लिए जाना पड़ा। केन्या की राजधानी नैरोबी में आपको कंपनी की ओर से मकान मिला। आपकी कंपनी द्वारा हैदराबाद से एक अन्य इंजीनियर भी आया था जिसके साथ आपको मकान साँझा करना था। हैदराबाद से आया हुआ इंजीनियर कट्टर मुसलमान, पाँच वक्त का नमाज़ी और बकरे जैसे दाढ़ी रखता था। उसने आते ही मोहन गुप्ता से धार्मिक चर्चा आरम्भ कर दी। मोहन गुप्ता से कभी वह पूछता आपके श्री कृष्ण जी ने नहाती हुई गोपियों के कपड़े चुराये थे। क्या आप उसे सही मानते है। कभी कहता आपके इंद्र ने वेश बदलकर अहिल्या के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाया था। क्या आप ऐसे इंद्र को देवता मानेंगे? मोहन गुप्ता के लिए यह अनुभव बिलकुल नवीन था। उन्होंने अपने जीवन में धर्म का अर्थ मंदिर जाना, मूर्ति पूजा करना, भोग लगाना, ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देना, तीर्थ यात्रा करना ही समझा था। धर्म ग्रंथों में क्या लिखा है। यह तो पंडित लोगों का विषय है। यह संस्कार उन्हें अपने घर में मिला था। उनका मज़हबी साथी आते-जाते इस्लाम का बखान और पुराणों पर आक्षेप करने में कोई कसर नहीं छोड़ता था। तंग आकर उन्होंने अपने ऑफिस में एक भारतीय जो हिन्दू था से अपनी समस्या बताई। उस भारतीय ने कहा यहाँ नैरोबी में हिन्दू मंदिर है। उसमें जाकर पंडितों से अपनी समस्या का समाधान पूछिए। मोहन गुप्ता अत्यन्त श्रद्धा और विश्वास के साथ स्थानीय हिन्दू मंदिर गए। मंदिर के पुजारी को अपनी समस्या बताई। पुजारी पहले तो अचरज में आया फिर हरि ओम कह चुप हो गया। मोहन निराश होकर भारी क़दमों से वापिस लौट आये। हताशा और भारी क़दमों के साथ वह लौट रहे थे कि उन्हें नैरोबी का आर्यसमाज मंदिर दिखा। उन्होंने मंदिर में प्रवेश किया तो अग्निहोत्र चल रहा था। उन्होंने अग्निहोत्र के पश्चात प्रवचन सुना और उससे स्वामी दयानन्द, वेद और सत्यार्थ प्रकाश के विषय में उन्हें जानकारी मिली। प्रवचन के पश्चात उन्होंने अपनी समस्या से समाज के अधिकारियों को अवगत करवाया। समाज के प्रधान ने उन्हें स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश देते हुए कहा- आपकी समस्या का समाधान इस पुस्तक में है। 14 वें समुल्लास में आपको आपकी सभी शंकाओं का समाधान मिल जायेगा। मोहन गुप्ता धन्यवाद देते हुए लौट गए। अगले एक सप्ताह तक उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय किया। 14 वें समुल्लास को पढ़ते ही उनके निराश चेहरे पर चमक आ गई। बकरी अब शेर बन चुकी थी। शाम को उनके साथ कार्य करने वाले मुस्लिम इंजीनियर वापिस आये। मुस्लिम इंजीनियर ने आते ही मोहन गुप्ता से पूछा आपको मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला तो इस्लाम स्वीकार कर लो। अब मोहन गुप्ता की बारी थी। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास के आधार पर क़ुरान के विषय पर प्रश्न पूछने आरम्भ कर दिए। मजहबी मुसलमान के होश उड़ गए। उसने पूछा तुम्हें यह सब किसने बताया। मोहन ने उसे सत्यार्थ प्रकाश के दर्शन करवाए। देखते ही मजहबी मुसलमान के मुंह से निकला। इस किताब ने तो हमारे सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया। नहीं तो अभी तक हम सारे हिन्दुओं को मुसलमान बना चुके होते। मोहन ने अपने ह्रदय से स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का धन्यवाद किया। भारत वापिस आकर वह सदा के लिए आर्यसमाज से जुड़ गए एवं आर्यसमाज के समर्पित कार्यकर्ता बन गए।

(सत्य इतिहास पर आधारित)

वीर सावरकर के शब्दों में स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश ने हिन्दू जाति की ठंडी पड़ी रगों में उष्णता का संचार कर दिया।

अगर समस्त हिन्दू समाज स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश के उपदेश को मानने लग जाये तो हिन्दू (आर्य) जाति संसार में फिर से विश्व गुरु बन जाये।

#डॉ_विवेक_आर्य

Tuesday, June 28, 2022

तैमूर को किसने हराया?

हिन्दू समाज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे जातिवाद से ऊपर उठ कर सोच ही नहीं सकते। यही पिछले 1200 वर्षों से हो रही उनकी हार का मुख्य कारण है।  इतिहास में कुछ प्रेरणादायक घटनाएं मिलती है।  जब जातिवाद से ऊपर उठकर हिन्दू समाज ने एकजुट होकर अक्रान्तायों का न केवल सामना किया अपितु अपने प्राणों की बाजी लगाकर उन्हें यमलोक भेज दिया। तैमूर लंग के नाम से सभी भारतीय परिचित है। तैमूर के अत्याचारों से हमारे देश की भूमि रक्तरंजित हो गई। उसके अत्याचारों की कोई सीमा नहीं थी। 
तैमूर लंग ने मार्च सन् 1398 ई० में भारत पर 92000 घुड़सवारों की सेना से तूफानी आक्रमण कर दिया। तैमूर के सार्वजनिक कत्लेआम, लूट खसोट और सर्वनाशी अत्याचारों की सूचना मिलने पर संवत् 1455 (सन् 1398 ई०) कार्तिक बदी 5 को देवपाल राजा (जिसका जन्म निरपड़ा गांव जि० मेरठ में एक जाट घराने में हुआ था) की अध्यक्षता में हरयाणा सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन जि० मेरठ के गाँव टीकरी, निरपड़ा, दोगट और दाहा के मध्य जंगलों में हुआ।

सर्वसम्मति से निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये - (1) सब गांवों को खाली कर दो। (2) बूढे पुरुष-स्त्रियों तथा बालकों को सुरक्षित स्थान पर रखो। (3) प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति सर्वखाप पंचायत की सेना में भर्ती हो जाये। (4) युवतियाँ भी पुरुषों की भांति शस्त्र उठायें। (5) दिल्ली से हरद्वार की ओर बढ़ती हुई तैमूर की सेना का छापामार युद्ध शैली से मुकाबला किया जाये तथा उनके पानी में विष मिला दो। (6) 500 घुड़सवार युवक तैमूर की सेना की गतिविधियों को देखें और पता लगाकर पंचायती सेना को सूचना देते रहें।
पंचायती सेना - पंचायती झण्डे के नीचे 80,000 मल्ल योद्धा सैनिक और 40,000 युवा महिलायें शस्त्र लेकर एकत्र हो गये। इन वीरांगनाओं ने युद्ध के अतिरिक्त खाद्य सामग्री का प्रबन्ध भी सम्भाला। दिल्ली के सौ-सौ कोस चारों ओर के क्षेत्र के वीर योद्धा देश रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने रणभूमि में आ गये। सारे क्षेत्र में युवा तथा युवतियां सशस्त्र हो गये। इस सेना को एकत्र करने में धर्मपालदेव जाट योद्धा जिसकी आयु 95 वर्ष की थी, ने बड़ा सहयोग दिया था। उसने घोड़े पर चढ़कर दिन रात दूर-दूर तक जाकर नर-नारियों को उत्साहित करके इस सेना को एकत्र किया। उसने तथा उसके भाई करणपाल ने इस सेना के लिए अन्न, धन तथा वस्त्र आदि का प्रबन्ध किया।
प्रधान सेनापति, उप-प्रधान सेनापति तथा सेनापतियों की नियुक्ति
सर्वखाप पंचायत के इस अधिवेशन में सर्वसम्मति से वीर योद्धा जोगराजसिंह गुर्जर को प्रधान सेनापति बनाया गया। यह खूबड़ परमार वंश का योद्धा था जो हरद्वार के पास एक गाँव कुंजा सुन्हटी का निवासी था। बाद में यह गाँव मुगलों ने उजाड़ दिया था। वीर जोगराजसिंह के वंशज उस गांव से भागकर लंढोरा (जिला सहारनपुर) में आकर आबाद हो गये जिन्होंने लंढोरा गुर्जर राज्य की स्थापना की। जोगराजसिंह बालब्रह्मचारी एवं विख्यात पहलवान था। उसका कद 7 फुट 9 इंच और वजन 8 मन था। उसकी दैनिक खुराक चार सेर अन्न, 5 सेर सब्जी-फल, एक सेर गऊ का घी और 20 सेर गऊ का दूध।
महिलाएं वीरांगनाओं की सेनापति चुनी गईं उनके नाम इस प्रकार हैं - (1) रामप्यारी गुर्जर युवति (2) हरदेई जाट युवति (3) देवीकौर राजपूत युवति (4) चन्द्रो ब्राह्मण युवति (5) रामदेई त्यागी युवति। इन सब ने देशरक्षा के लिए शत्रु से लड़कर प्राण देने की प्रतिज्ञा की।
उपप्रधान सेनापति - (1) धूला भंगी (बालमीकी) (2) हरबीर गुलिया जाट चुने गये। धूला भंगी जि० हिसार के हांसी गांव (हिसार के निकट) का निवासी था। यह महाबलवान्, निर्भय योद्धा, गोरीला (छापामार) युद्ध का महान् विजयी धाड़ी (बड़ा महान् डाकू) था जिसका वजन 53 धड़ी था। उपप्रधान सेनापति चुना जाने पर इसने भाषण दिया कि - “मैंने अपनी सारी आयु में अनेक धाड़े मारे हैं। आपके सम्मान देने से मेरा खूब उबल उठा है। मैं वीरों के सम्मुख प्रण करता हूं कि देश की रक्षा के लिए अपना खून बहा दूंगा तथा सर्वखाप के पवित्र झण्डे को नीचे नहीं होने दूंगा। मैंने अनेक युद्धों में भाग लिया है तथा इस युद्ध में अपने प्राणों का बलिदान दे दूंगा।” यह कहकर उसने अपनी जांघ से खून निकालकर प्रधान सेनापति के चरणों में उसने खून के छींटे दिये। उसने म्यान से बाहर अपनी तलवार निकालकर कहा “यह शत्रु का खून पीयेगी और म्यान में नहीं जायेगी।” इस वीर योद्धा धूला के भाषण से पंचायती सेना दल में जोश एवं साहस की लहर दौड़ गई और सबने जोर-जोर से मातृभूमि के नारे लगाये।

दूसरा उपप्रधान सेनापति हरबीरसिंह जाट था जिसका गोत्र गुलिया था। यह हरयाणा के जि० रोहतक गांव बादली का रहने वाला था। इसकी आयु 22 वर्ष की थी और इसका वजन 
56 धड़ी (7 मन) था। यह निडर एवं शक्तिशाली वीर योद्धा था।

सेनापतियों का निर्वाचन - उनके नाम इस प्रकार हैं - (1) गजेसिंह जाट गठवाला (2) तुहीराम राजपूत (3) मेदा रवा (4) सरजू ब्राह्मण (5) उमरा तगा (त्यागी) (6) दुर्जनपाल अहीर।
जो उपसेनापति चुने गये - (1) कुन्दन जाट (2) धारी गडरिया जो धाड़ी था (3) भौन्दू सैनी 
(4) हुल्ला नाई (5) भाना जुलाहा (हरिजन) (6) अमनसिंह पुंडीर राजपुत्र (7) नत्थू पार्डर राजपुत्र (😎 दुल्ला (धाड़ी) जाट जो हिसार, दादरी से मुलतान तक धाड़े मारता था। (9) मामचन्द गुर्जर (10) फलवा कहार।
सहायक सेनापति - भिन्न-भिन्न जातियों के 20 सहायक सेनापति चुने गये।
वीर कवि - प्रचण्ड विद्वान् चन्द्रदत्त भट्ट (भाट) को वीर कवि नियुक्त किया गया जिसने तैमूर के साथ युद्धों की घटनाओं का आंखों देखा इतिहास लिखा था।
प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर के ओजस्वी भाषण के कुछ अंश -
“वीरो! भगवान् कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जो उपदेश दिया था उस पर अमल करो। हमारे लिए स्वर्ग (मोक्ष) का द्वार खुला है। ऋषि मुनि योग साधना से जो मोक्ष पद प्राप्त करते हैं, उसी पद को वीर योद्धा रणभूमि में बलिदान देकर प्राप्त कर लेता है। भारत माता की रक्षा हेतु तैयार हो जाओ। देश को बचाओ अथवा बलिदान हो जाओ, संसार तुम्हारा यशोगान करेगा। आपने मुझे नेता चुना है, प्राण रहते-रहते पग पीछे नहीं हटाऊंगा। पंचायत को प्रणाम करता हूँ तथा प्रतिज्ञा करता हूँ कि अन्तिम श्वास तक भारत भूमि की रक्षा करूंगा। हमारा देश तैमूर के आक्रमणों तथा अत्याचारों से तिलमिला उठा है। वीरो! उठो, अब देर मत करो। शत्रु सेना से युद्ध करके देश से बाहर निकाल दो।”

यह भाषण सुनकर वीरता की लहर दौड़ गई। 80,000 वीरों तथा 40,000 वीरांगनाओं ने अपनी तलवारों को चूमकर प्रण किया कि हे सेनापति! हम प्राण रहते-रहते आपकी आज्ञाओं का पालन करके देश रक्षा हेतु बलिदान हो जायेंगे।

मेरठ युद्ध - तैमूर ने अपनी बड़ी संख्यक एवं शक्तिशाली सेना, जिसके पास आधुनिक शस्त्र थे, के साथ दिल्ली से मेरठ की ओर कूच किया। इस क्षेत्र में तैमूरी सेना को पंचायती सेना ने दम नहीं लेने दिया। दिन भर युद्ध होते रहते थे। रात्रि को जहां तैमूरी सेना ठहरती थी वहीं पर पंचायती सेना धावा बोलकर उनको उखाड़ देती थी। वीर देवियां अपने सैनिकों को खाद्य सामग्री एवं युद्ध सामग्री बड़े उत्साह से स्थान-स्थान पर पहुंचाती थीं। शत्रु की रसद को ये वीरांगनाएं छापा मारकर लूटतीं थीं। आपसी मिलाप रखवाने तथा सूचना पहुंचाने के लिए 500 घुड़सवार अपने कर्तव्य का पालन करते थे। रसद न पहुंचने से तैमूरी सेना भूखी मरने लगी। उसके मार्ग में जो गांव आता उसी को नष्ट करती जाती थी। तंग आकर तैमूर हरद्वार की ओर बढ़ा।
हरद्वार युद्ध - मेरठ से आगे मुजफ्फरनगर तथा सहारनपुर तक पंचायती सेनाओं ने तैमूरी सेना से भयंकर युद्ध किए तथा इस क्षेत्र में तैमूरी सेना के पांव न जमने दिये। प्रधान एवं उपप्रधान और प्रत्येक सेनापति अपनी सेना का सुचारू रूप से संचालन करते रहे। हरद्वार से 5 कोस दक्षिण में तुगलुकपुर-पथरीगढ़ में तैमूरी सेना पहुंच गई। इस क्षेत्र में पंचायती सेना ने तैमूरी सेना के साथ तीन घमासान युद्ध किए।
उप-प्रधानसेनापति हरबीरसिंह गुलिया ने अपने पंचायती सेना के 25,000 वीर योद्धा सैनिकों के साथ तैमूर के घुड़सवारों के बड़े दल पर भयंकर धावा बोल दिया जहां पर तीरों* तथा भालों से घमासान युद्ध हुआ। इसी घुड़सवार सेना में तैमूर भी था। हरबीरसिंह गुलिया ने आगे बढ़कर शेर की तरह दहाड़ कर तैमूर की छाती में भाला मारा जिससे वह घोड़े से नीचे गिरने ही वाला था कि उसके एक सरदार खिज़र ने उसे सम्भालकर घोड़े से अलग कर लिया। (तैमूर इसी भाले के घाव से ही अपने देश समरकन्द में पहुंचकर मर गया)। वीर योद्धा हरबीरसिंह गुलिया पर शत्रु के 60 भाले तथा तलवारें एकदम टूट पड़ीं जिनकी मार से यह योद्धा अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ा।

(1) उसी समय प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर ने अपने 22000 मल्ल योद्धाओं के साथ शत्रु की सेना पर धावा बोलकर उनके 5000 घुड़सवारों को काट डाला। जोगराजसिंह ने स्वयं अपने हाथों से अचेत हरबीरसिंह को उठाकर यथास्थान पहुंचाया। परन्तु कुछ घण्टे बाद यह वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गया। जोगराजसिंह को इस योद्धा की वीरगति से बड़ा धक्का लगा।
(2) हरद्वार के जंगलों में तैमूरी सेना के 2805 सैनिकों के रक्षादल पर भंगी कुल के उपप्रधान सेनापति धूला धाड़ी वीर योद्धा ने अपने 190 सैनिकों के साथ धावा बोल दिया। शत्रु के काफी सैनिकों को मारकर ये सभी 190 सैनिक एवं धूला धाड़ी अपने देश की रक्षा हेतु वीरगती को प्राप्त हो गये।
(3) तीसरे युद्ध में प्रधान सेनापति जोगराजसिंह ने अपने वीर योद्धाओं के साथ तैमूरी सेना पर भयंकर धावा करके उसे अम्बाला की ओर भागने पर मजबूर कर दिया। इस युद्ध में वीर योद्धा जोगराजसिंह को 45 घाव आये परन्तु वह वीर होश में रहा। पंचायती सेना के वीर सैनिकों ने तैमूर एवं उसके सैनिकों को हरद्वार के पवित्र गंगा घाट (हर की पौड़ी) तक नहीं जाने दिया। तैमूर हरद्वार से पहाड़ी क्षेत्र के रास्ते अम्बाला की ओर भागा। उस भागती हुई तैमूरी सेना का पंचायती वीर सैनिकों ने अम्बाला तक पीछा करके उसे अपने देश हरयाणा से बाहर खदेड़ दिया।
वीर सेनापति दुर्जनपाल अहीर मेरठ युद्ध में अपने 200 वीर सैनिकों के साथ दिल्ली दरवाज़े के निकट स्वर्ग लोक को प्राप्त हुये।
इन युद्धों में बीच-बीच में घायल होने एवं मरने वाले सेनापति बदलते रहे थे। कच्छवाहे गोत्र के एक वीर राजपूत ने उपप्रधान सेनापति का पद सम्भाला था। तंवर गोत्र के एक जाट योद्धा ने प्रधान सेनापति के पद को सम्भाला था। एक रवा तथा सैनी वीर ने सेनापति पद सम्भाले थे। इस युद्ध में केवल 5 सेनापति बचे थे तथा अन्य सब देशरक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुये।
इन युद्धों में तैमूर के ढ़ाई लाख सैनिकों में से हमारे वीर योद्धाओं ने 1,60,000 को मौत के घाट उतार दिया था और तैमूर की आशाओं पर पानी फेर दिया।
हमारी पंचायती सेना के वीर एवं वीरांगनाएं 35,000, देश के लिये वीरगति को प्राप्त हुए थे।
प्रधान सेनापति की वीरगति - वीर योद्धा प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर युद्ध के पश्चात् ऋषिकेश के जंगल में स्वर्गवासी हुये थे।
(सन्दर्भ-जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-३७९-३८३ )

ध्यान दीजिये। एक सवर्ण सेना का उप-सेनापति वाल्मीकि था। अहीर, गुर्जर से लेकर  36 बिरादरी उसके महत्वपूर्ण अंग थे। तैमूर को हराने वाली सेना को हराने वाली कौन थे? क्या वो जाट थे? क्या वो राजपूत थे? क्या वो अहीर थे? क्या वो गुर्जर थे? क्या वो बनिए थे? क्या वो भंगी या वाल्मीकि थे? क्या वो जातिवादी थे?

नहीं वो सबसे पहले देशभक्त थे। धर्मरक्षक थे। श्री राम और श्री कृष्ण की संतान थे? गौ, वेद , जनेऊ और यज्ञ के रक्षक थे।

आज भी हमारा देश उसी संकट में आ खड़ा हुआ है। आज भी विधर्मी हमारी जड़ों को काट रहे है। आज भी हमें फिर से जातिवाद से ऊपर उठ कर एकजुट होकर अपने धर्म, अपनी संस्कृति और अपनी मातृभूमि की रक्षा का व्रत लेना हैं। यह तभी सम्भव है जब हम अपनी संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर सोचना आरम्भ करेंगे। आप में से कौन कौन मेरे साथ है?

#डॉ_विवेक_आर्य

कठोपनिषद से यम नचिकेता संवाद।

विषय- जीवात्मा की चार अवस्थाएं
जीवात्मा के विकास की चार अवस्थाएं हैं।
जीवात्मा 'हंस' है, 'वसु' है, 'होता' है, 'अतिथि' है। जब जीवात्मा उत्तरोत्तर विकास करता जाता है तव ये अवस्थाएं प्राप्त होती जाती हैं। जीवात्मा जब हंस की तरह जीवन व्यतीत करता है, जैसे हंस पानी में रहकर पानी में नहीं भीगता है उसी प्रकार से जीवात्मा संसार में रहकर संसार में लिप्त न हो यह पहली विकसित अवस्था है। इस तरह का अभ्यास करने वाले को कहा जाता है कि वह नर देह में वास कर रहा है, इससे नीचा तो पशु समान है, यह ब्रह्मचर्य की अवस्था है।
इसके बाद दूसरी अवस्था आती है 'वसु' की अवस्था।
यह वो अवस्था है जब मनुष्य वसु की तरह अपना जीवन व्यतीत करता है, अर्थात् स्वयं भी वसता है तथा दूसरों को भी बसाता है, दूसरों की हर संभव मदद करता है वह मानो नर देह से उत्तम शरीर में वास कर रहा है, इसे वर देह भी कहते हैं। यह गृहस्थ की अवस्था है।
तीसरी विकसित अवस्था 'होता' की आती है।
जिस प्रकार से हवन करते समय सामग्री को हवन में अर्पित किया जाता है, इसी प्रकार से जब मनुष्य अपने आप को समाज के लिए अर्पित कर दे। अब उसका अपना कुछ नहीं है, अपना सर्वस्व दूसरों के उपकार के लिए समर्पित करने लगे। वह प्रत्येक वस्तु को अपना न समझ कर परमात्मा की समझता है और त्याग भावना अपनाकर जीवन जीता है।। यह ऋत देह अवस्था भी कहलाती है। ऋत अर्थात निरपेक्ष सत्य। इस अवस्था में वह समझ जाता है कि संसार के विषय ऋत नहीं हैं, सिर्फ परमात्मा ही ऋत है, निरपेक्ष सत्य वही परमात्मा है। इस अवस्था को वानप्रस्थ की अवस्था भी कहते हैं।
इससे और अधिक विकसित चौथी अवस्था 'अथिति' है।
जब मनुष्य इस देह के वास को अथिति की तरह समझने लग जाता है। अब मनुष्य अपने ज्ञानरूपी धन से समाज का घूम-घूम कर उपकार करता है कहीं भी स्थायी रूप से नहीं रहता और पूर्ण रूप से परमात्मा को समर्पित हो जाता है, वह अत्यंत ऊँचा उठ जाता है, इसे व्योमदेह भी कहते हैं। वास्तव में यह अवस्था संन्यास की अवस्था है।
इस प्रकार से जो अपनी आत्मा को रथी और देह को रथ समझकर तथा जीवन को आश्रमों की यात्रा मानकर इस यात्रा को निभाता है, वह 'ज्ञानात्मा' से 'महानात्मा' और फिर 'महानात्मा' से -- 'शान्तात्मा' हो जाता है। उसी में तीनों नचिकेत अग्नियां प्रदीप्त होती हैं, और वही 'ब्रह्मयज्ञ' के वास्तविक अर्थ को समझता है।

गौतम बुद्ध यज्ञ समर्थक थे।

अपनी आदत के मुताबिक कुछ अंबेडकरवादी अग्निहोत्र आदि यज्ञों को पाखंड कह कर उपहास कर रहे हैं। परंतु इन्हें यह तक नहीं मालूम कि गौतम बुद्ध पूर्ण रूप से अग्निहोत्र के समर्थक थे।
हम बुद्धों के ग्रन्थ सुत्तनिपात से कुछ प्रमाण रखते हैं, जिससे हमारा दावा सिद्ध होगा।
सुंदरिकभारद्वाज सुत्त, सुत्तनिपात (३,४) में सुंदरिक नामक ब्राह्मण गौतम बुद्ध को श्रेष्ठ ब्राह्मण समझकर उनको यज्ञशेष भेंट करता है। बुद्ध जी बड़े प्रेम से उसे ग्रहण करते हैं।
उनके संवाद के कुछ अंश संक्षेप में लिखते हैं। हमने डॉ भिक्षु धर्मरक्षित की सुत्तनिपात हिंदी टीका का अनुसरण किया है।
(क):- यज्ञ में किसको दक्षिणा दें, इस विषय पर बुद्ध का उपदेश:-
ब्राह्मण:- इस संसार मे  ऋषियों,मनुष्यों, क्षत्रियों और ब्राह्मणों ने किस कारण यज्ञ किये थे?
भगवान बुद्ध:- यज्ञ में पारंगत किसी ज्ञानी को आहुति मिल जाये तो वो यज्ञ सफल होता है, ऐसा मैं कहता हूं।
ब्राह्मण:- मेरा यज्ञ अवश्य सफल होगा क्योंकि मैंने आप जैसे ज्ञानी के दर्शन पाये। कृपया बतायें, मैं यज्ञ करना चाहता हूं। मेरा यज्ञ कैसे सफल होगा?
भगवान बुद्ध:- जो ब्राह्मण पुण्य की कामना से यज्ञ की कामना करता है, उसे चाहिए कि सत्य , इंद्रिय दमन, ज्ञान पारंगत व ब्रह्मचर्य वास समाप्त मुनि को समयानुसार हव्य प्रदान करे। जो कामभोगों को छोड़कर बेघर होकर रह रहा है, ऐसे मुनि को समयानुसार हव्य प्रदान करे। जो राग रहित संयमी मुनि है, उसे हवि प्रदान करे। जो सदा स्मृतिमान् हो, ममत्व को छोड़कर संसार में अनासक्त होकर विचरण करता है, उसे हवि प्रदान करें। जिसने जन्म मृत्यु का अंतर जान लिया, जो गंभीर जलाशय की तरह तथागत है, उसे पूड़ी और चिउरा के योग्य जानें। जिसने क्रोध को शांत कर दिया, लोक परलोक का ज्ञान रखने वाला हो,जो मोहरहित हो, जो अंतिम शरीर धारण करने वाला हो, वो यज्ञ की पूड़ी व चिउरा खाने का अधिकारी है। इत्यादि।
ब्राह्मण:- हे पूज्य! आप साक्षात् ब्रह्म ही हैं। आप मेरा पूड़ी व चिउरा ग्रहण करें।
बुद्ध जी:- धर्मोपदेश से प्राप्त भोजन मुझे त्याज्य है।
ब्राह्मण:- तो फिर मेरी दक्षिणा कौन ग्रहण करेगा?
बुद्ध जी:- जो अहिंसक, परिशुद्ध , कामभोगों व वासनाओं से मुक्त हो, जो मौनेय व्रत धारी मुनि हो, उसके यज्ञ में आने पर आंखे नीची करके अन्न व पेय से उसकी पूजा करो। इस प्रकार दक्षिणा सफल होगी।
ब्राह्मण;- आप बुद्ध पूड़ी और चिउरा के योग्य हैं  आप उत्तम पुण्य क्षेत्र हैं। सारे संसार में पूज्य हैं। आपही को देना महाफलदायी है। आपने अनेक प्रकार से धर्म प्रकाशित किया है। इसलिये मैं आपकी शरण में आ रहा हूं।
(ख):-  गौतम बुद्ध केवल हिंसामय यज्ञों का खंडन करते थे:-
बुद्ध जी सुत्तनिपात, ब्राह्मणधम्मिक सुत्त (२,७) में प्राचीन ब्राह्मणों, ऋषि मुनियों के प्रति बहुत ऊंचे विचार प्रकट करचे हैं। वे कहते हैं:-
ब्राह्मणों ने प्राचीन ब्रह्मचर्य, शील व क्षमा की प्रशंसा की।।१०।। उन्होंने धार्मिक रीति से चावल,शयन, वस्त्र, घी और तेल की याचना करके यज्ञ का संविधान किया।।१२।। गौएं माता पिता के समान हैं, इनसे औषधियां उत्पन्न होती हैं। ये अन्न,बल,वर्ण, तथा सुख देने वाली है। उन ब्राह्मणों ने कभी गौओं की हत्या नहीं की।।१३,१४।।
गौतम बुद्ध यह भी कहते हैं कि कुछ स्वार्थी ब्राह्मणों ने यज्ञ में पशुबलि आरंभ कर दी, पर पहले के ब्राह्मण अहिंसक यज्ञ करते थे। निर्दोष पशुओं को कटता देख देव,असुर,नाग,मानव आदि सब अधर्म मानकर आश्चर्यचकित हो गये। ये पशुबलि का पाप तब से अब तक चलता आ रहा है। इसे बंद होना चाहिए, ऐसा बुद्ध का मत है।
यहां जान लेना चाहिए कि बुद्ध जी ने स्पष्ट रूप से चावल,घी,तेल आदि से यज्ञ का समर्थन किया है, और हिंसक यज्ञ का खंडन। बुद्ध को अहिंसक= अध्वर यज्ञ से कोई दिक्कत नहीं थी।
(ग):- अग्निहोत्र यज्ञों का मुख है:-
सेल सुत्त (३,७) में आया है कि बिंबसार राजा नेे एक महायज्ञ का आयोजन किया था। उसमें बुद्ध जी साढ़े बारह सौ शिष्यों को लेकर आमंत्रित होते। ( सुत्तनिपात पेज १४७)
इससे पता चलता है कि बुद्ध जी को यज्ञ में आने जाने में कोई दिक्कत न थी।
इसी सेल सुत्त में आगे कहते हैं:-
"अग्गिहुत्तमुखा यञ्ञा , सावित्ती छंदसो मुखं।"
अर्थात छंदो मे सावित्री छंद(गायत्री मंत्र ) मुख्य है ओर यज्ञों में अग्निहोत्र मुख्य है।।२१ वीं गाथा।।
अत: निम्न बातो से निष्कर्ष निकलता है कि बुध्द वास्तव मे यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ मे जीव हत्या करने वाले के विरोधी थे। इसलिये गौतम बुद्ध को अपना आदर्श करने वाले अंबेडकरवादियों को अहिंसक यज्ञ का विरोध नहीं करना चाहिए, अपितु यज्ञ का समर्थन व स्वयं अग्निहोत्र करना चाहिए। ।
 ।।धन्यवाद।। कार्तिक अय्यर। 

गांधी को सेक्स की बुरी लत थी।

मोहनदास करमचंद गांधी की कथित सेक्स लाइफ़ पर एक बार फिर से बहस छिड़ गई है. लंदन के प्रतिष्ठित अख़बार “द टाइम्स” के मुताबिक गांधी को कभी भगवान की तरह पूजने वाली 82 वर्षीया गांधीवादी इतिहासकार कुसुम वदगामा ने कहा है कि गांधी को सेक्स की बुरी लत थी, वह आश्रम की कई महिलाओं
के साथ निर्वस्त्र सोते थे, वह इतने ज़्यादा कामुक थे कि ब्रम्हचर्य के प्रयोग और संयम परखने के बहाने चाचा अमृतलाल तुलसीदास गांधी की पोती और जयसुखलाल की बेटी मनुबेन गांधी के साथ सोने लगे थे. ये आरोप बेहद सनसनीख़ेज़ हैं क्योंकि किशोरावस्था में कुसुम भी गांधी की अनुयायी रही हैं.

कुसुम, दरअसल, लंदन में पार्लियामेंट स्क्वॉयर पर गांधी की प्रतिमा लगाने का विरोध कर रही हैं. बहरहाल, दुनिया भर में कुसुम के इंटरव्यू छप रहे हैं.

वैसे तो महात्मा गांधी की सेक्स लाइफ़ पर अब तक अनेक किताबें लिखी जा चुकी हैं. जो ख़ासी चर्चित भी हुई हैं. मशहूर ब्रिटिश इतिहासकार जेड ऐडम्स ने पंद्रह साल के गहन अध्ययन और शोध के बाद 2010 में “गांधी नैकेड ऐंबिशन” लिखकर सनसनी फैला दी थी. किताब में गांधी को असामान्य सेक्स बीहैवियर वाला अर्द्ध-दमित सेक्स-मैनियॉक कहा गया है. किताब राष्ट्रपिता के जीवन में आई लड़कियों के साथ उनके आत्मीय और मधुर रिश्तों पर ख़ास प्रकाश डालती है. मसलन, गांधी नग्न होकर लड़कियों और महिलाओं के साथ सोते थे और नग्न स्नान भी करते थे.

देश के सबसे प्रतिष्ठित लाइब्रेरियन गिरिजा कुमार ने गहन अध्ययन और गांधी से जुड़े दस्तावेज़ों के रिसर्च के बाद 2006 में “ब्रम्हचर्य गांधी ऐंड हिज़ वीमेन असोसिएट्स” में डेढ़ दर्जन महिलाओं का ब्यौरा दिया है जो ब्रम्हचर्य में सहयोगी थीं और गांधी के साथ निर्वस्त्र सोती-नहाती और उन्हें मसाज़ करती थीं. इनमें मनु, आभा गांधी, आभा की बहन बीना पटेल, सुशीला नायर, प्रभावती (जयप्रकाश नारायण की पत्नी), राजकुमारी अमृतकौर, बीवी अमुतुसलाम, लीलावती आसर, प्रेमाबहन मिली ग्राहम पोलक, कंचन शाह, रेहाना तैयबजी शामिल हैं. प्रभावती ने तो आश्रम में रहने के लिए पति जेपी को ही छोड़ दिया था. इससे जेपी का गांधी से ख़ासा विवाद हो गया था.

तक़रीबन दो दशक तक महात्मा गांधी के व्यक्तिगत सहयोगी रहे निर्मल कुमार बोस ने अपनी बेहद चर्चित किताब “माई डेज़ विद गांधी” में राष्ट्रपिता का अपना संयम परखने के लिए आश्रम की महिलाओं के साथ निर्वस्त्र होकर सोने और मसाज़ करवाने का ज़िक्र किया है. निर्मल बोस ने नोआखली की एक ख़ास घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है, “एक दिन सुबह-सुबह जब मैं गांधी के शयन कक्ष में पहुंचा तो देख रहा हूं, सुशीला नायर रो रही हैं और महात्मा दीवार में अपना सिर पटक रहे हैं.” उसके बाद बोस गांधी के ब्रम्हचर्य के प्रयोग का खुला विरोध करने लगे. जब गांधी ने उनकी बात नहीं मानी तो बोस ने अपने आप को उनसे अलग कर लिया.

ऐडम्स का दावा है कि लंदन में क़ानून पढ़े गांधी की इमैज ऐसा नेता की थी जो सहजता से महिला अनुयायियों को वशीभूत कर लेता था. आमतौर पर लोगों के लिए ऐसा आचरण असहज हो सकता है पर गांधी के लिए सामान्य था. आश्रमों में इतना कठोर अनुशासन था कि गांधी की इमैज 20 वीं सदी के धर्मवादी नेता जैम्स वॉरेन जोन्स और डेविड कोरेश जैसी बन गई जो अपनी सम्मोहक सेक्स-अपील से अनुयायियों को वश में कर लेते थे. ब्रिटिश हिस्टोरियन के मुताबिक गांधी सेक्स के बारे लिखना या बातें करना बेहद पसंद करते थे. इतिहास के तमाम अन्य उच्चाकाक्षी पुरुषों की तरह गांधी कामुक भी थे और अपनी इच्छा दमित करने के लिए ही कठोर परिश्रम का अनोखा तरीक़ा अपनाया. ऐडम्स के मुताबिक जब बंगाल के नोआखली में दंगे हो रहे थे तक गांधी ने मनु को बुलाया और कहा “अगर तुम मेरे साथ नहीं होती तो मुस्लिम चरमपंथी हमारा क़त्ल कर देते. आओ आज से हम दोनों निर्वस्त्र होकर एक दूसरे के साथ सोएं और अपने शुद्ध होने और ब्रह्मचर्य का परीक्षण करें.”

किताब में महाराष्ट्र के पंचगनी में ब्रह्मचर्य के प्रयोग
का भी वर्णन है, जहां गांधी के साथ सुशीला नायर नहाती और सोती थीं. ऐडम्स के मुताबिक गांधी ने ख़ुद लिखा है, “नहाते समय जब सुशीला मेरे सामने निर्वस्त्र होती है तो मेरी आंखें कसकर बंद हो जाती हैं. मुझे कुछ भी नज़र नहीं आता. मुझे बस केवल साबुन लगाने की आहट सुनाई देती है. मुझे कतई पता नहीं चलता कि कब वह पूरी तरह से नग्न हो गई है और कब वह सिर्फ़ अंतःवस्त्र पहनी होती है.” दरअसल, जब पंचगनी में गांधी के महिलाओं के साथ नंगे सोने की बात फैलने लगी तो नथुराम गोड्से के नेतृत्व में वहां विरोध प्रदर्शन होने लगा. इससे गांधी को प्रयोग बंद कर वहां से बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ा. बाद में गांधी हत्याकांड की सुनवाई के दौरान गोड्से के विरोध प्रदर्शन को गांधी की हत्या की कई कोशिशों में से एक माना गया.

ऐडम्स का दावा है कि गांधी के साथ सोने वाली सुशीला, मनु, आभा और अन्य महिलाएं गांधी के साथ शारीरिक संबंधों के बारे हमेशा गोल-मटोल और अस्पष्ट बाते करती रहीं . उनसे जब भी पूछा गया तब केवल यही कहा कि वह सब ब्रम्हचर्य के प्रयोग के सिद्धांतों का अभिन्न अंग था. गांधी की हत्या के बाद लंबे समय तक सेक्स को लेकर उनके प्रयोगों पर भी लीपापोती की जाती रही. उन्हें महिमामंडित करने और राष्ट्रपिता बनाने के लिए उन दस्तावेजों, तथ्यों और सबूतों को नष् कर दिया गया, जिनसे साबित किया जा सकता था कि संत गांधी, दरअसल, सेक्स-मैनियॉक थे. कांग्रेस भी स्वार्थों के लिए अब तक गांधी के सेक्स-एक्सपेरिमेंट से जुड़े सच छुपाती रही है. गांधी की हत्या के बाद मनु को मुंह बंद रखने की सख़्त हिदायत दी गई. उसे गुजरात में एक बेहद रिमोट इलाक़े में भेज दिया गया. सुशीला भी इस मसले पर हमेशा चुप्पी साधे रही. सबसे दुखद बात यह है कि गांधी के ब्रम्हचर्य के प्रयोग में शामिल क़रीब-क़रीब सभी महिलाओं का वैवाहिक जीवन नष्ट हो गया..।

शत्-शत् नमन 28 जून/जन्म-दिवस अनुपम दानी: भामाशाह।

दान की चर्चा होते ही भामाशाह का नाम स्वयं ही मुँह पर आ जाता है। देश रक्षा के लिए महाराणा प्रताप के चरणों में अपनी सब जमा पूँजी अर्पित करने वाले दानवीर भामाशाह का जन्म अलवर (राजस्थान) में 28 जून, 1547 को हुआ था। उनके पिता श्री भारमल्ल तथा माता श्रीमती कर्पूरदेवी थीं। श्री भारमल्ल राणा साँगा के समय रणथम्भौर के किलेदार थे। अपने पिता की तरह भामाशाह भी राणा परिवार के लिए समर्पित थे।
एक समय ऐसा आया जब अकबर से लड़ते हुए राणा प्रताप को अपनी प्राणप्रिय मातृभूमि का त्याग करना पड़ा। वे अपने परिवार सहित जंगलों में रह रहे थे। महलों में रहने और सोने चाँदी के बरतनों में स्वादिष्ट भोजन करने वाले महाराणा के परिवार को अपार कष्ट उठाने पड़ रहे थे। राणा को बस एक ही चिन्ता थी कि किस प्रकार फिर से सेना जुटाएँ, जिससे अपने देश को मुगल आक्रमणकारियों से चंगुल से मुक्त करा सकें।
इस समय राणा के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या धन की थी। उनके साथ जो विश्वस्त सैनिक थे, उन्हें भी काफी समय से वेतन नहीं मिला था। कुछ लोगों ने राणा को आत्मसमर्पण करने की सलाह दी; पर राणा जैसे देशभक्त एवं स्वाभिमानी को यह स्वीकार नहीं था। भामाशाह को जब राणा प्रताप के इन कष्टों का पता लगा, तो उनका मन भर आया। उनके पास स्वयं का तथा पुरखों का कमाया हुआ अपार धन था। उन्होंने यह सब राणा के चरणों में अर्पित कर दिया। इतिहासकारों के अनुसार उन्होंने 25 लाख रु. तथा 20,000 अशर्फी राणा को दीं। राणा ने आँखों में आँसू भरकर भामाशाह को गले से लगा लिया।
राणा की पत्नी महारानी अजवान्दे ने भामाशाह को पत्र लिखकर इस सहयोग के लिए कृतज्ञता व्यक्त की। इस पर भामाशाह रानी जी के सम्मुख उपस्थित हो गये और नम्रता से कहा कि मैंने तो अपना कर्त्तव्य निभाया है। यह सब धन मैंने देश से ही कमाया है। यदि यह देश की रक्षा में लग जाये, तो यह मेरा और मेरे परिवार का अहोभाग्य ही होगा। महारानी यह सुनकर क्या कहतीं, उन्होंने भामाशाह के त्याग के सम्मुख सिर झुका दिया।
उधर जब अकबर को यह घटना पता लगी, तो वह भड़क गया। वह सोच रहा था कि सेना के अभाव में राणा प्रताप उसके सामने झुक जायेंगे, पर इस धन से राणा को नयी शक्ति मिल गयी। अकबर ने क्रोधित होकर भामाशाह को पकड़ लाने को कहा। अकबर को उसके कई साथियों ने समझाया कि एक व्यापारी पर हमला करना उसे शोभा नहीं देता। इस पर उसने भामाशाह को कहलवाया कि वह उसके दरबार में मनचाहा पद ले ले और राणा प्रताप को छोड़ दे, पर दानवीर भामाशाह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। इतना ही नहीं उन्होंने अकबर से युद्ध की तैयारी भी कर ली। यह समाचार मिलने पर अकबर ने अपना विचार बदल दिया।

भामाशाह से प्राप्त धन के सहयोग से राणा प्रताप ने नयी सेना बनाकर अपने क्षेत्र को मुक्त करा लिया। भामाशाह जीवन भर राणा की सेवा में लगे रहे। महाराणा के देहान्त के बाद उन्होंने उनके पुत्र अमरसिंह के राजतिलक में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इतना ही नहीं, जब उनका अन्त समय निकट आया, तो उन्होंने अपने पुत्र को आदेश दिया कि वह अमरसिंह के साथ सदा वैसा ही व्यवहार करे, जैसा उन्होंने राणा प्रताप के साथ किया है।
आज के हिन्दू समाज को अपने बच्चों को लोरियों में राणा प्रताप और भामाशाह के त्याग और तपस्या की कहानियाँ अवश्य सुनानी चाहिए। ताकि उन्हें यह मालूम हो सके कि उनके पूर्वजों ने कितने त्याग कर अपने वैदिक धर्म की रक्षा की थी।

#डॉ_विवेक_आर्य

Monday, June 27, 2022

बंकिम चंद्र चटर्जी- वन्दे मातरम्।

(बंकिम चंद्र चटर्जी के जन्मदिवस 27/6/1838 पर विशेष रूप से प्रकाशित)

आज बंकिम चंद्र चटर्जी का जन्मदिवस है। आप प्रसिद्द गीत वन्दे मातरम के रचियता थे। हमारे देश के कुछ मुस्लिम भाई बहकावे में आकर वन्दे मातरम गान का बहिष्कार कर देते हैं। उनका कहना है कि वन्दे मातरम का गान करना इस्लाम की मान्यताओं के खिलाफ है। दुनिया में शायद भारत ही ऐसा पहला देश होगा जिसमें राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रीय गान अलग अलग हैं। हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि अल्पसंख्यकों को प्रोत्साहन देने के नाम पर, तुष्टिकरण के नाम पर राष्ट्रगीत के अपमान को कुछ लोग आंख बंदकर स्वीकार कर लेते है।
भारत जैसे विशाल देश को हजारों वर्षों की गुलामी के बाद आजादी के दर्शन हुए थे। वन्दे मातरम वह गीत है, जिससे सदियों से सुप्त भारत देश जग उठा और अर्ध शताब्दी तक भारत के स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरक बना रहा। इस गीत के कारण बंग-भंग के विरोध की लहर बंगाल की खाड़ी से उठ कर इंग्लिश चैनल को पार करती हुई ब्रिटिश संसद तक गूंजा आई थी। जो गीत गंगा की तरह पवित्र , स्फटिक की तरह निर्मल और देवी की तरह प्रणम्य है। उस गीत का तुष्टिकरण की भेंट चढ़ाना, राष्ट्रीयता का परिहास ही तो है। जबकि इतिहास इस बात का गवाह है कि भारत का विभाजन इसी तुष्टिकरण के कारण हुआ था। इस लेख के माध्यम से हम वन्दे मातरम के इतिहास को समझने का प्रयास करेगे।
1. वन्दे मातरम के रचियता बंकिम चन्द्र
बहुत कम लोग यह जानते हैं की वन्दे मातरम के रचियता बंकिम बाबु का परिवार अंग्रेज भगत था। यहाँ तक की उनके पैतृक गृह के आगे एक सिंह की मूर्ति बनी हुई थी। जिसकी पूँछ को दो बन्दर खिंच रहे थे, पर कुछ भी नहीं कर पा रहे थे। यह सिंह ब्रिटिश साम्राज्य का प्रतीक था। जबकि बन्दर भारतवासी थे। ऐसी मानसिकता वाले घर में बंकिम जैसे राष्ट्रभक्त का पैदा होना। निश्चित रूप से उस समय की क्रांतिकारी विचारधारा का प्रभाव कहा जायेगा। आनंद मठ में बंकिम बाबु ने वन्देमातरम गीत को प्रकाशित किया। आनंद मठ बंगाल में नई क्रांति के सूत्रपात के रूप में उभरा था।
2. वन्दे मातरम और कांग्रेस
कांग्रेस की स्थापना के द्वितीय वर्ष 1886 में ही कोलकाता अधिवेशन के मंच से कविवर हेमचन्द्र द्वारा वन्दे मातरम के कुछ अंश मंच से गाये गए थे। 1896 में कांग्रेस के 12वें अधिवेशन में रविन्द्र नाथ टैगोर द्वारा गाया गया था। लोकमान्य तिलक को वन्दे मातरम में इतनी श्रद्धा थी कि शिवाजी की समाधी के तोरण पर उन्होंने इसे उत्कीर्ण करवाया था। 1901 के बाद से कांग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन में वन्दे मातरम गाया जाने लगा।
6 अगस्त 1905 को बंग भंग के विरोध में टाउन हॉल में सभा हुई। सभा में वन्दे मातरम को विरोध के रूप में करीब तीस हज़ार भारतीयों द्वारा गाया गया था। स्थान स्थान पर विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया और स्वदेशी कपड़ा और अन्य वस्तुओं का उपयोग भारतीय जनमानस द्वारा किया जाने लगा।यहाँ तक की बंग भंग के बाद वन्दे मातरम संप्रदाय की स्थापना भी हो गई थी। वन्दे मातरम की स्वरलिपि रविन्द्र नाथ टैगोर जी ने दी थी।
3. राष्ट्र कवि/लेखक और वन्दे मातरम
राष्ट्रीय कवियों और लेखकों द्वारा अनेक रचनाएँ वन्दे मातरम को प्रसिद्द करने के लिए रची गई जो उसके महत्व की सिद्ध करती हैं।
स्वदेशी आन्दोलन चाई आत्मदान
वन्दे मातरम गाओ रे भाई – श्री सतीश चन्द्र
मागो जाय जेन जीवन चले
शुधु जगत माझे तोमार काजे
वन्दे मातरम बले- श्री कालि प्रसन्न काव्य विशारद
भइया देश का यह क्या हाल
खाक मिटटी जौहर होती सब
जौहर हैं जंजाल बोलो वन्दे मातरम-श्री कालि प्रसन्न काव्य विशारद
अक्टूबर 1905 में ‘वसुधा’ में जितेंदर मोहम बनर्जी ने वन्दे मातरम पर लेख लिखा था।
1906 के चैत्र मास के बम्बई के ‘बिहारी अखबार’ में वीर सावरकर ने वन्दे मातरम पर लेख लिखा था।
22 अप्रैल को मराठा में ‘तिलक महोदय’ ने वन्दे मातरम पर ‘शोउटिंग ऑफ़ वन्दे मातरम’ के नाम से लेख लिखा था।
कुछ ईसाई लेखक वन्दे मातरम की प्रसिद्धि से जलभून कर उसके विरुद्ध अपनी लेखनी चलाते हैं जैसे
पिअरसन महोदय ने तो यहाँ तक लिख दिया कि मातृभूमि की कल्पना ही हिन्दू विचारधारा के प्रतिकूल है। बंकिम महोदय ने इसे यूरोपियन संस्कृति से प्राप्त किया है।
अपनी जन्म भूमि को माता या जननी कहने की गरिमा तो भारत वर्ष में उस काल से स्थापित है। जब धरती पर ईसाइयत या इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था।
वेदों में इस तथ्य को इस प्रकार ग्रहण किया गया हैं –
वह माता भूमि मुझ पुत्र के लिए पय यानि दूध आदि पुष्टि प्रद पदार्थ प्रदान करे। – अथर्ववेद १२/१/२०
भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ। – अथर्ववेद १२-१-१५
वाल्मीकि रामायण में “जननी जन्मभूमि ” को स्वर्ग के समान तुल्य कहा गया है।
ईसाई मिशनरियों ने तो यहाँ तक कह डाला कि वन्दे मातरम राजनैतिक डकैतों का गीत हैं।
4. वन्दे मातरम और बंगाल में कहर
बंगाल की अंग्रेजी सरकार ने कुख्यात सर्कुलर जारी किया कि अगर कोई छात्र स्वदेशी सभा में भाग लेगा अथवा वन्दे मातरम का नारा लगाएगा। तो उसे स्कूल से निकाल दिया जायेगा।
बंगाल के रंगपुर के एक स्कूल के सभी 200 छात्रों पर वन्दे मातरम का नारा लगाने के लिए 5-5 रुपये का दंड किया गया था।
पूरे बंगाल में वन्दे मातरम के नाम की क्रांति स्थापित हो गई थी। इस संस्था से जुड़े लोग हर रविवार को वन्दे मातरम गाते हुए चन्दा एकत्र करते थे। उनके साथ रविन्द्र नाथ टैगोर भी होते थे। यह जुलुस इतना बड़ा हो गया कि इसकी संख्या हजारों तक पहुँच गई थी। 16 अक्टूबर 1906 को बंग भंग विरोध दिवस बनाने का फैसला किया गया था। उस दिन कोई भी बंगाली अन्न-जल ग्रहण नहीं करेगा। ऐसा निश्चय किया गया। बंग भंग के विरोध में सभा हुई और यह निश्चय किया गया की जब तक चूँकि सरकार बंगाल की एकता को तोड़ने का प्रयास कर रही है। इसके विरोध में हर बंगाली विदेशी सामान का बहिष्कार करेगा। हर किसी की जबान पर वन्दे मातरम का नारा था। चाहे वह हिन्दू हो, चाहे मुस्लिम हो, चाहे ईसाई हो।
वन्दे मातरम से आम जनता को कितना प्रेम हो गया था। इसका उदहारण हम इस प्रसंग से समझ सकते है। किसी गाँव में, जो ढाका जिले के अंतर्गत था, एक आदमी गया और कहने लगा कि मैं नवाब सलीमुल्लाह का आदमी हूँ। इसके बाद वन्दे मातरम गाने वाले और नारे लगाने वालो की निंदा करने लगा। इतना सुनते ही पास की एक झोपड़ी से एक बुढ़िया झाड़ू लेकर बाहर आई और बोली वन्दे मातरम गाने वाले लड़को ने मुझे बचाया हैं। वे सब राजा बेटा है। उस वक्त तेरा नवाब कहाँ था?
5. फूलर के असफल प्रयास
फूलर उस समय बंगाल का गवर्नर बना। वह अत्यन्त छोटी सोच वाला व्यक्ति था। उसने कहा कि मेरी दो बीवी हैं। एक हिन्दू और दूसरी मुस्लिम। मुझे दूसरी ज्यादा प्रिय है। फुलर का उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ना था। फुलर के इस घटिया बयान के विपक्ष में क्रान्तिकारी और कवि अश्वनी कुमार दत ने अपनी कविता में लिखा-
“आओ हे भारतवासी! आओ, हम सब मिलकर भारत माता के चरणों में प्रणाम करें। आओ! मुसलमान भाइयों, आज जाती-पाती का झगड़ा नहीं है। इस कार्य में हम सब भाई भाई है।इस धुल में तुम्हारे अकबर है और हमारे राम है।”
फूलर ने बंगाल के मुस्लिम जमींदारों को भड़का कर दंगा करवाने का प्रयास किया पर उसके प्रयास सफल न हुए।
अंग्रेज सरकार के मन में वन्दे मातरम को लेकर कितना असंतोष था कि उन्होंने सभी विद्यालाओं को सरकारी आदेश जारी किया। सभी छात्र अपनी अपनी नोटबुक में 500 बार यह लिखे कि “वन्दे मातरम चिल्लाने में अपना समय नष्ट करना मुर्खता और अभद्रता हैं। ”
6. वारिसाल में कांग्रेस का अधिवेशन और वन्दे मातरम
14 अप्रैल 1906 के दिन वारिसाल में कांग्रेस के जुलुस में वन्दे मातरम का नारा लगाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। शांतिपूर्वक निकल रहे जुलुस पर पुलिस ने निर्दयता से लाठीचार्ज किया। निर्दयता की हालत यह थी कि एक मकान की खूंटी पर वन्दे मातरम लिखा था। तो उस मकान को गिरा दिया गया। 10-11 वर्ष का एक बालक रसोई में वन्देमातरम गा रहा था। तो उसे घर से निकलकर कोर्ट के सामने चाबुक से पिता गया। दो हलवाइयों की दुकान पर यह नारा लिखा था तो उनके सर फोड़ दिए गए। सुरेंदर नाथ बनर्जी की गिरफ्तार कर 200 रुपये जुर्माने और अलग से कोर्ट की अवमानना पर 200 रुपये का दंड लेकर छोड़ दिया गया। इतनी निर्दयता के बावजूद भीड़ वन्दे मातरम का गान करते हुए अपने सभापति महोदय रसूल साहिब को लेकर सभास्थल पर पहुँच गई।
मंच पर हिन्दू नेताओं के साथ मुस्लमान नेताओं में सर्वश्री इस्माइल चौधरी, मौलवी अब्दुल हुसैन, मौलवी हिदायत बक्श, मौलवी हमिजुद्दीन अहमद, मौलवी दीन मुहम्मद, मौलवी मोथार हुसैन, मौलवी मोला चौधरी उपस्थित थे। वन्दे मातरम के गान से सभा का आरम्भ हुआ था। सभापति महोदय ने देश की आज़ादी के लिए सभी हिन्दू-मुसलमान को आपस में मिलकर लड़ने का आवाहन किया।
इतने में सुरेंदर नाथ बनर्जी अपने साथियों के साथ सभा स्थल पर जा पहुँचे। जिससे वन्दे मातरम के गगन भेदी नारों के साथ सम्पूर्ण सभा स्थल गूँज उठा। सभा में ब्रिटिश सरकार के द्वारा वन्दे मातरम को लेकर किये जा रहे अत्याचार को घोर निंदा की गई। जिस स्थान पर सुरेंदरनाथ बनर्जी को वन्दे मातरम गाने के लिए गिरफ्तार किया गया था। उस स्थान पर वन्दे मातरम स्तंभ बनाने के प्रस्ताव को सभा में पारित किया गया। अगले दिन के सभी समाचार पत्र वरिसाल के वन्दे मातरम संघर्ष की प्रशंसा और अंग्रेज सरकार की निंदा से भरे पड़े थे। वारिसाल की घटना के कारण लार्ड कर्जन को भारत के वाइसराय के पद से त्याग देना पड़ा।
7. वन्दे मातरम और योगी अरविन्द
वन्दे मातरम के नाम से पत्र आरंभ हुआ जिसे पहले विपिन चन्द्र पाल ने सम्पादित किया बाद में श्री अरविन्द ने। श्री अरविन्द ने इस पत्र से यह भली भांति सिद्ध कर दिया की तलवार से ज्यादा तीखी लेखनी होती है। और उसकी ज्वाला से क्रूर शासन भी भस्मीभूत हो सकता है। अरविन्द के पत्र के बारे में स्टेट्समैन अखबार लिखता है कि “अखबार की हर लाइन के बीच भरपूर राजद्रोह दीखता है। पर वह इतनी दक्षता से लिखा होता है कि उस पर क़ानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती।”
श्री अरविन्द ने वन्दे मातरम गीत के बारे में कहा है कि बंकिम ने ही स्वदेश को माता की संज्ञा दी है। वन्दे मातरम संजीवनी मंत्र है। हमारी स्वाधीनता का हथियार वन्दे मातरम है। उन्होंने कहा कि वन्दे मातरम साधारण गीत नहीं है। बल्कि एक ऐसा मंत्र है जो हमें मातृभूमि की वंदना करने की सीख देता है। उनकें इस व्यक्तव्य के कारण ही बंग-भंग के क्रांतिकारियों के लिए वन्दे मातरम का यह नारा वह गीत मंत्र बन गया।
अपनी पत्नी को 30 अगस्त 1908 को एक पत्र में श्री अरविन्द लिखते है- “मेरा तीसरा पागलपन यह है कि जहाँ दुसरे लोग स्वदेश को जड़ पदार्थ, खेत, मैदान, पहाड़, जंगल और नदी समझते हैं। वहां मैं अपनी मातृभूमि को अपनी माँ समझता हूँ। उसे अपनी भक्ति अर्पित करता हूँ और उसकी पूजा करता हूँ।माँ की छाती पर बैठ कर अगर कोई उसका खून चूसने लगे तो बेटा क्या करता है? क्या वह चुपचाप बैठा हुआ भोजन करता है? या स्त्री पुरुष के साथ रंगरलिया बनता है? या माँ को बचाने के लिए दौड़ जाता है?”
श्री अरविन्द को गिरफ्तार कर लिया गया। उससे देश में वन्दे मातरम की लहर चल पड़ी।
1906 को धुलिया, महाराष्ट्र में वन्दे मातरम के नारे से सभा ही रूक गयी। नासिक में वन्दे मातरम पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जिस जिस ने प्रतिबन्ध को तोड़ा, तो उसे पीटा गया गया। कई गिरफ्तारियाँ हुई। इस कांड का तो नाम ही वन्दे मातरम कांड बन गया।
फरवरी 1907 को तमिलनाडू में मजदूरों ने हड़ताल कर दी और ब्रिटिश नागरिकों को घेर कर उन्हें भी वन्दे मातरम के नारे लगाने को बाध्य किया।
मई 1907 को रावलपिंडी में भी स्वदेशी के नेताओं की गिरफ़्तारी के विरोध में युवकों ने वन्दे मातरम के नारे को लगाते हुए लाठियाँ खाई।
26 अगस्त,1907 को वन्दे मातरम के एक लेख के कारण बिपिन चन्द्र पाल को अदालत में सजा हुई। तो उनका स्वागत हजारों की भीड़ ने वन्दे मातरम से किया। यह देखकर पुलिस अँधाधुंध लाठीचार्ज करने लगी। यह देखकर एक 15 वर्षीय बालक सुशील चन्द्र सेन ने एक पुलिस वाले मुँह पर मुक्का मार दिया। उस वीर बालक को 15 बेतों की सजा सुनाई गई थी। सुशील की इस सजा की प्रशंसा करते हुए संध्या में एक लेख छपा “सुशील की कुदान भरी, फिरंगी की नानी मरी”
सुशील युगांतर पार्टी के सदस्य थे। उनकी चर्चा सुरेंदर नाथ बनर्जी तक पहुँची तो उन्होंने उसे सोने का तमगा देकर सम्मानित किया।
अब युगांतर पार्टी के सदस्यों ने सुशील को सजा देने वाले अत्याचारी किंग्स्फोर्ड को यमालय भेजने की ठानी। यह कार्य प्रफुल्ल चन्द्र चाकी और खुदी राम बोस को सोंपा गया। षड़यंत्र असफल हो जाने पर चाकी ने आत्महत्या कर ली और खुदीराम ने फाँसी का फन्दा चूम कर सबसे कम उम्र में शहीद होने का सम्मान प्राप्त किया। इसी केस में श्री अरविन्द को भी सजा हुई थी।
8. वन्दे मातरम और राष्ट्रीय झंडा
कांग्रेस का लम्बे समय तक कोई निजी झंडा नहीं था।कांग्रेस के अधिवेशन में यूनियन जैक को फहराकर भारत के अंग्रेज भगत प्रसन्न हो जाते थे। 1906 में कोलकता में कांग्रेस के अधिवेशन में भगिनी निवेदिता ने सबसे पहले वज्र अंकित झंडे का निर्माण किया जिस पर वन्दे मातरम लिखा हुआ था। उसके बाद 18 अक्टूबर, 1907 को जर्मनी के स्टुअर्ट नगर में मैडम बीकाजी कामा ने वन्दे मातरम गीत के बाद राष्ट्रीय झंडा फहराया जिस पर वन्दे मातरम अंकित था। अपने भाषण में मैडम कामा ने पहले अंग्रेजों द्वारा भारत में किये जा रहे अत्याचारों का विवरण दिया जिससे की सुनने वालो के रोंगटे खड़े हो गए। उसके बाद भारत का झंडा निकालती हुई वह बोली " यह है भारतीय राष्ट्र का स्वतंत्र झंडा। यह देखिये फहरा रहा है। भारतीय देश भक्तों के रक्त से यह पवित्र हो चूका है। सदस्यगन, मैं आपसे अनुरोध करती हूँ कि आप खड़े होकर भारत की इस स्वतंत्र पताका का अभिवादन करे।”
सर्व प्रथम झंडे पर वन्दे मातरम को अंकित करने से पाठक उस काल में वन्दे मातरम के भारतीय जन समुदाय पर प्रभाव को समझ सकते है।
9. वन्दे मातरम का भारत व्यापी प्रभाव
मोतीलाल नेहरु ने जवाहरलाल नेहरु को 1905 में एक पत्र में लिखा था कि हम ब्रिटिश भारत के इतिहास की सबसे संकट पूर्ण अवधि से गुजर रहे है। इलाहाबाद में भी वन्दे मातरम आम अभिनन्दन बन गया हैं। यदि अभियान चलता रहा तो यहाँ लौटने पर भारत को, जब तुम गये, उससे बिलकुल बदला पाओगे।
25 नवम्बर 1905 को ट्रिब्यून अखबार लिखता है कि “बंगाल में लोगो ने वन्दे मातरम का जयघोष शुरू किया हैं। इन शब्दों का अर्थ है माता की वन्दना। इसमें कुछ भी भयंकर नहीं है। फिर दमनशाही द्वारा वन्दे मातरम की मनाही क्यूँ है? अब तो पंजाब में सुशिक्षित लोग एक दुसरे से भेंट होने पर वन्दे मातरम कहकर अभिनन्दन करते है। इस प्रकार सारे हिंदुस्तान में असंख्य मुखों से निरन्तर निकलते वन्दे मातरम को बंद करने में सरकार को कितने सिपाहियों और अधिकारीयों की आवश्यकता होगी? पूर्वी बंगाल की जनता के साथ सारे हिंदुस्तान की सहानभूति हैं।
जब हैदराबाद के निज़ाम के धर्मान्ध अत्याचारों के विरुद्ध आर्य समाज ने 1939 में हैदराबाद सत्याग्रह किया था तब जेल में रामचन्द्र के नाम से एक आर्यवीर को बंद कर दिया गया था। अपनी क्रूरता की धाक जमाने के लिए जेल में आर्य सत्याग्रहियों पर अत्याचार किया जाता था। जेल में दरोगा जब भी वीर रामचंद्र को बेंत मारते तो उनके मुख से वन्दे मातरम का नारा निकलता था। दरोगा जब तक मारते रहते जब तक की रामचंद्र बेहोश न हो गए पर उनके मुख से बेहोशी में भी नारा निकलता रहा। उनका जेल से छूटने के बाद आजीवन नाम ही रामचंद्र वन्देमातरम हो गया।
ऐसा अनुराग था देश और धर्म प्रेमियों को वन्दे मातरम के साथ।
10. वन्दे मातरम विदेश में
जुलाई 1909 को मदन लाल धींगरा को लन्दन में जब फाँसी दी गई तो उनके अंतिम शब्द थे “वन्दे मातरम”।
1909 को जिनेवा से एक पत्रिका वन्दे मातरम का का प्रकाशन आरंभ हुआ। अपने प्रथम अंक में पत्रिका ने कहा ‘विदेशी अत्याचार के विरुद्ध हमारे बहादुर और बुद्धिमान नेताओं ने बंगाल में जो यशस्वी अभियान शुरू किया है। वन्दे मातरम के माध्यम से हम उसे पूर्ण शक्ति और दृढ़ता के साथ में चलायेगे।
कनाडा से आ रहे जहाज कमागातामारू के झंडे पर वन्दे मातरम, सत श्री अकाल और अल्लाह हो अकबर के नारे लिखे थे।
साउथ अफ्रीका से जब महात्मा गाँधी भारत लौटे तो उन्होंने भारत आकार वन्दे मातरम गीत की प्रशंसा करी थी।(हरिजन 1 जुलाई 1938)
1922 में जब गोखले अफ्रीका गए तो हजारों भारत वासियों ने उनका स्वागत वन्दे मातरम से किया था।
1937 में तुर्की के अदान नगर में भारतीय मस्जिद पर वन्दे मातरम लिखा था। मस्जिद पर भारतीय तिरंगा लगा था और हर नमाज के साथ वन्दे मातरम का घोष किया जाता था।
11. भारतीय क्रांतिकारी और वन्दे मातरम
सन 1920 में लाला लाजपत राय ने दिल्ली से दैनिक वन्दे मातरम का प्रकाशन शुरू किया था।
सन 1930 में चन्द्र शेखर आजाद अपने पिता को पत्र लिखने समय वन्दे मातरम सबसे ऊपर लिखते हैं।
सन 1920 का असहयोग आन्दोलन, नमक सत्याग्रह में भी वन्दे मातरम का बोलबाला था।
रामचंद्र बिस्मिल ने काकोरी कांड में फाँसी पर लटकने से पहले वन्दे मातरम कहा था।
चटगांव सशस्त्र संघर्ष में वीर सूर्यसेन को फाँसी देने से पहले जब भी मार पड़ती तो वे वन्दे मातरम का जय घोष करते थे। उन्हें इतना मार गया था कि वे बेहोश हो गए और अचेत अवस्था में ही उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया गया था।
इसके अतिरिक्त अनेक सन्दर्भ हमें भारत की आज़ादी की लड़ाई में वन्दे मातरम को प्रेरणा के स्रोत्र के रूप में पाते हैं।

डॉ_विवेक_आर्य। 

Sunday, June 26, 2022

धर्म और मत/ मज़हब में अंतर क्या हैं?

नास्तिकों के एक समूह में दर्शया गया कि इस्लाम, ईसाई,बुद्ध, जैन आदि धर्मों के जन्मदाता तो ज्ञात हैं। मगर हिन्दू धर्म के जन्मदाता का नाम बताये। इस पोस्ट का मुख्य उद्देश्य हिन्दू समाज का उपहास करना था। क्यूंकि साधारण हिन्दू युवक इस पोस्ट से भ्रमित अवश्य हो जायेगा और द्रोही नास्तिक ताली बजाएंगे। मगर इस प्रश्न का उत्तर पढ़ने के पश्चात पाठकों को संसार में धर्म के नाम पर जितने भी विवाद, संघर्ष, विरोध क्यों हो रहे हैं। उसका कारण भी पता चल जायेगा। इस लेख में हम तीन महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करेंगे।
1. वैदिक धर्म का संस्थापक कौन है?
2. धर्म की परिभाषा क्या है?
3. धर्म और मत में अंतर क्या हैं?

सर्वप्रथम तो इस्लाम, ईसाई,बुद्ध, जैन आदि धर्म नहीं अपितु मत हैं। संसार में सभी मत-मतान्तर को चलाने वाले सब मनुष्य है। जबकि धर्म केवल एक है। वैदिक धर्म। जिसे किसी मनुष्य ने नहीं चलाया। सृष्ठि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा वेदों का ज्ञान समस्त मनुष्य जाति को मार्गदर्शन हेतु प्रदान किया गया। तभी से वैदिक धर्म चलता आया है। कालांतर में धर्म के स्थान पर बहुत सारे मत प्रचलित हो गए। समाज इन मतों को ही धर्म समझने लगा। यही मत-मतान्तर आपसी झगडे का कारण है। वैदिक धर्म का ज्ञान देने वाले कोई मनुष्य विशेष नहीं अपितु ईश्वर ही है। दूसरा धर्म की परिभाषा को जानना आवश्यक है।
धर्म का परिभाषा क्या हैं?
1. धर्म संस्कृत भाषा का शब्द हैं जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना हैं। "धार्यते इति धर्म:" अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म हैं। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म हैं। दूसरे शब्दों में यहभी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं वह धर्म हैं।
2. जैमिनी मुनि के मीमांसा दर्शन के दूसरे सूत्र में धर्म का लक्षण हैं लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता हैं।
3. वैदिक साहित्य में धर्म वस्तु के स्वाभाविक गुण तथा कर्तव्यों के अर्थों में भी आया हैं। जैसे जलाना और प्रकाश करना अग्नि का धर्म हैं और प्रजा का पालन और रक्षण राजा का धर्म हैं।
4. मनु स्मृति में धर्म की परिभाषा
धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं ६/९
अर्थात धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं।
दूसरे स्थान पर कहा हैं आचार:परमो धर्म १/१०८
अर्थात सदाचार परम धर्म है
5. महाभारत में भी लिखा हैं
धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते प्रजा:
अर्थात जो धारण किया जाये और जिससे प्रजाएँ धारण की हुई है वह धर्म है।
6. वैशेषिक दर्शन के कर्ता महा मुनि कणाद ने धर्म का लक्षण यह किया है
यतोअभयुद्य निश्रेयस सिद्धि: स धर्म:
अर्थात जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति) और निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती हैं, वह धर्म है।
7. स्वामी दयानंद के अनुसार धर्म की परिभाषा
जो पक्ष पात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है, उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म हैं।-सत्यार्थ प्रकाश ३ सम्मुलास
पक्षपात रहित न्याय आचरण सत्य भाषण आदि युक्त जो ईश्वर आज्ञा वेदों से अविरुद्ध हैं, उसको धर्म मानता हूँ - सत्यार्थ प्रकाश मंतव्य
इस काम में चाहे कितना भी दारुण दुःख प्राप्त हो , चाहे प्राण भी चले ही जावें, परन्तु इस मनुष्य धर्म से पृथक कभी भी न होवें।- सत्यार्थ प्रकाश
धर्म और मत/मजहब में क्या अंतर हैं?
धर्म मनुष्य की उन्नति के लिए आवश्यक है अथवा बाधक है इसको जानने के लिए हमें सबसे पहले धर्म और मजहब में अंतर को समझना पड़ेगा। कार्ल मार्क्स ने जिसे धर्म के नाम पर अफीम कहकर निष्कासित कर दिया था वह धर्म नहीं अपितु मज़हब था। कार्ल मार्क्स ने धर्म ने नाम पर किये जाने वाले रक्तपात, अन्धविश्वास, बुद्धि के विपरीत किये जाने वाले पाखंडों आदि को धर्म की संज्ञा दी थी। जबकि यह धर्म नहीं अपितु मज़हब का स्वरुप था। प्राय:अपने आपको प्रगतिशील कहने वाले लोग धर्म और मज़हब को एक ही समझते हैं।
मज़हब अथवा मत-मतान्तर अथवा पंथ के अनेक अर्थ है जैसे वह रास्ता जी स्वर्ग और ईश्वर प्राप्ति का है और जोकि मज़हब के प्रवर्तक ने बताया है। अनेक जगहों पर ईमान अर्थात विश्वास के अर्थों में भी आता है।
1. धर्म और मज़हब समान अर्थ नहीं हैं और न ही धर्म ईमान या विश्वास का प्राय: हैं।
2. धर्म क्रियात्मक वस्तु हैं मज़हब विश्वासात्मक वस्तु हैं।
3. धर्म मनुष्य के स्वाभाव के अनुकूल अथवा मानवी प्रकृति का होने के कारण स्वाभाविक हैं और उसका आधार ईश्वरीय अथवा सृष्टि नियम हैं। परन्तु मज़हब मनुष्य कृत होने से अप्राकृतिक अथवा अस्वाभाविक हैं। मज़हबों का अनेक व भिन्न भिन्न होना तथा परस्पर विरोधी होना उनके मनुष्य कृत अथवा बनावती होने का प्रमाण हैं।
4. धर्म के जो लक्षण मनु महाराज ने बतलाये हैं वह सभी मानव जाति के लिए एक समान है और कोई भी सभ्य मनुष्य उसका विरोधी नहीं हो सकता। मज़हब अनेक हैं और केवल उसी मज़हब को मानने वालों द्वारा ही स्वीकार होते हैं। इसलिए वह सार्वजानिक और सार्वभौमिक नहीं हैं। कुछ बातें सभी मजहबों में धर्म के अंश के रूप में हैं इसलिए उन मजहबों का कुछ मान बना हुआ हैं।
5. धर्म सदाचार रूप हैं अत: धर्मात्मा होने के लिये सदाचारी होना अनिवार्य हैं। परन्तु मज़हबी अथवा पंथी होने के लिए सदाचारी होना अनिवार्य नहीं हैं। अर्थात जिस तरह तरह धर्म के साथ सदाचार का नित्य सम्बन्ध हैं उस तरह मजहब के साथ सदाचार का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। क्यूंकि किसी भी मज़हब का अनुनायी न होने पर भी कोई भी व्यक्ति धर्मात्मा (सदाचारी) बन सकता हैं।
परन्तु आचार सम्पन्न होने पर भी कोई भी मनुष्य उस वक्त तक मज़हबी अथवा पन्थाई नहीं बन सकता जब तक उस मज़हब के मंतव्यों पर ईमान अथवा विश्वास नहीं लाता। जैसे की कोई कितना ही सच्चा ईश्वर उपासक और उच्च कोटि का सदाचारी क्यूँ न हो वह जब तक हज़रात ईसा और बाइबिल अथवा हजरत मोहम्मद और कुरान शरीफ पर ईमान नहीं लाता तब तक ईसाई अथवा मुस्लमान नहीं बन सकता।
6. धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता हैं अथवा धर्म अर्थात धार्मिक गुणों और कर्मों के धारण करने से ही मनुष्य मनुष्यत्व को प्राप्त करके मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता हैं। दूसरे शब्दों में धर्म और मनुष्यत्व पर्याय हैं। क्यूंकि धर्म को धारण करना ही मनुष्यत्व हैं। कहा भी गया हैं-
खाना,पीना,सोना,संतान उत्पन्न करना जैसे कर्म मनुष्यों और पशुयों के एक समान हैं। केवल धर्म ही मनुष्यों में विशेष हैं जोकि मनुष्य को मनुष्य बनाता हैं। धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान हैं। परन्तु मज़हब मनुष्य को केवल पन्थाई या मज़हबी और अन्धविश्वासी बनाता हैं। दूसरे शब्दों में मज़हब अथवा पंथ पर ईमान लेन से मनुष्य उस मज़हब का अनुनायी अथवा ईसाई अथवा मुस्लमान बनता हैं नाकि सदाचारी या धर्मात्मा बनता हैं।
7. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़ता हैं और मोक्ष प्राप्ति निमित धर्मात्मा अथवा सदाचारी बनना अनिवार्य बतलाता हैं परन्तु मज़हब मुक्ति के लिए व्यक्ति को पन्थाई अथवा मज़हबी बनना अनिवार्य बतलाता हैं। और मुक्ति के लिए सदाचार से ज्यादा आवश्यक उस मज़हब की मान्यताओं का पालन बतलाता हैं।
जैसे अल्लाह और मुहम्मद साहिब को उनके अंतिम पैगम्बर मानने वाले जन्नत जायेगे चाहे वे कितने भी व्यभिचारी अथवा पापी हो जबकि गैर मुसलमान चाहे कितना भी धर्मात्मा अथवा सदाचारी क्यूँ न हो वह दोज़ख अर्थात नर्क की आग में अवश्य जलेगा क्यूंकि वह कुरान के ईश्वर अल्लाह और रसूल पर अपना विश्वास नहीं लाया हैं।
8. धर्म में बाहर के चिन्हों का कोई स्थान नहीं हैं क्यूंकि धर्म लिंगात्मक नहीं हैं -न लिंगम धर्मकारणं अर्थात लिंग (बाहरी चिन्ह) धर्म का कारण नहीं है। परन्तु मज़हब के लिए बाहरी चिन्हों का रखना अनिवार्य हैं जैसे एक मुस्लमान के लिए जालीदार टोपी और दाड़ी रखना अनिवार्य हैं।
9. धर्म मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता हैं क्यूंकि वह ज्ञानपूर्वक सत्य आचरण से ही अभ्युदय और मोक्ष प्राप्ति की शिक्षा देता हैं परन्तु मज़हब मनुष्य को आलस्य का पाठ सिखाता हैं क्यूंकि मज़हब के मंतव्यों मात्र को मानने भर से ही मुक्ति का होना उसमें सिखाया जाता है।
10. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़कर मनुष्य को स्वतंत्र और आत्म स्वालंबी बनाता हैं क्यूंकि वह ईश्वर और मनुष्य के बीच में किसी भी मध्यस्थ या एजेंट की आवश्यकता नहीं बताता। परन्तु मज़हब मनुष्य को परतंत्र और दूसरों पर आश्रित बनाता हैं क्यूंकि वह मज़हब के प्रवर्तक की सिफारिश के बिना मुक्ति का मिलना नहीं मानता।
11. धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देना सिखाता है जबकि मज़हब अपने हित के लिए अन्य मनुष्यों और पशुयों की प्राण हरने के लिए हिंसा रुपी क़ुरबानी का सन्देश देता है।
12. धर्म मनुष्य को सभी प्राणी मात्र से प्रेम करना सिखाता हैं जबकि मज़हब मनुष्य को प्राणियों का माँसाहार और दूसरे मज़हब वालों से द्वेष सिखाता हैं।
13. धर्म मनुष्य जाति को मनुष्यत्व के नाते से एक प्रकार के सार्वजानिक आचारों और विचारों द्वारा एक केंद्र पर केन्द्रित करके भेदभाव और विरोध को मिटाता हैं तथा एकता का पाठ पढ़ाता हैं। परन्तु मज़हब अपने भिन्न भिन्न मंतव्यों और कर्तव्यों के कारण अपने पृथक पृथक जत्थे बनाकर भेदभाव और विरोध को बढ़ाते और एकता को मिटाते हैं।
14. धर्म एक मात्र ईश्वर की पूजा बतलाता हैं जबकि मज़हब ईश्वर से भिन्न मत प्रवर्तक/गुरु/मनुष्य आदि की पूजा बतलाकर अन्धविश्वास फैलाते हैं।
धर्म और मज़हब के अंतर को ठीक प्रकार से समझ लेने पर मनुष्य अपने चिंतन मनन से आसानी से यह स्वीकार करके के श्रेष्ठ कल्याणकारी कार्यों को करने में पुरुषार्थ करना धर्म कहलाता हैं इसलिए उसके पालन में सभी का कल्याण है।

#डॉ_विवेक_आर्य। 

वर्षा ऋतु और वेद।

वर्षा ऋतु का आगमन हो गया है। भीष्म गर्मी के पश्चात वर्षा का जल जब तपती धरती पर गिरता है। तो गर्मी से न केवल राहत मिलती है। अपितु चारों ओर जीवन में नवीनता एवं वृद्धि का समागम होता हैं। वेदों में वर्षा ऋतु से सम्बंधित अनेक सूक्त हैं। जैसे पर्जन्य सूक्त ( ऋग्वेद 7/101,102 सूक्त), वृष्टि सूक्त (अथर्ववेद 4/12) एवं प्राणसूक्त (अथर्ववेद 11/4 ) मंडूक सूक्त (ऋग्वेद 7/103 सूक्त)आदि। पर्जन्य सूक्त मेघ के गरजने, सुखदायक वर्षा होने एवं सृष्टि के फलने-फूलने का सन्देश देता हैं। जबकि मंडूक सूक्त वर्षा ऋतु में मनुष्यों के कर्तव्यों का प्रतिपादन करता हैं। इस लेख में हम मंडूक सूक्त के 10 मन्त्रों में बताये गए आध्यात्मिक, सामाजिक और शारीरिक लाभों पर प्रकाश डालेंगे। मंडूक शब्द को लेकर कुछ विदेशी विद्वानों ने परिहास किया हैं। (Brahma und die Brahmanen von Martin Haug,1871) उनका कहना था कि जब सूखा पड़ता है। तब कुछ ब्राह्मण तालाब के निकट एकत्र होकर मेंढक के समान टर्र टर्र कर वेदों के इस सूक्त को पढ़ते हैं। जबकि अनेक विदेशी लेखकों जैसे ब्लूमफील्ड और विंटरनित्ज़ ने इसके व्यवहार अनुकूल व्याख्या करते हैं।
विंटरनित्ज़ लिखते है-
"ग्रीष्म ऋतू में मेंढक ऐसे निष्क्रिय पड़े रहते हैं जैसे मौन का व्रत किये हुए ब्राह्मण। इसके अनन्तर वर्षा आती है मंडूक प्रसन्नतापूर्वक टर्र टर्र के साथ एक दूसरे का स्वागत करते हैं। जैसे कि पिता पुत्र का। एक मंडूक दूसरे मंडूक की ध्वनि को इस प्रकार दोहराता है, जैसे शिष्य वेदपाठी ब्राह्मण गुरु के मन्त्रों को। मंडूकों के स्वरों के आरोह व अवरोह अनेक प्रकार के होते हैं। जिस जिस सोमयाग में पुरोहित पूर्ण पात्र के साथ ओर बैठकर गाते हैं, ऐसे ही मंडूक अपने गीतों से वर्षा ऋतु के प्रारम्भ मनाते हैं। "
(सन्दर्भ-प्राचीन भारतीय साहित्य का इतिहास, हिंदी संस्करण, पृष्ठ 80, (A History Of Indian Literature) विदेशी लेखक ऍम विंटरनिटज M Winternitz)
विदेशी लेखक मंडूक से केवल मेंढक का ग्रहण करते है। जबकि आर्य विद्वान् पंडित आर्य मुनि जी मंडूक से वेदानां मण्डयितार: अर्थात वेदों को मंडन करने वाले ग्रहण करते हैं। वर्षा ऋतु के साथ श्रावणी पर्व का आगमन होता है। इस पर्व में मनुष्यों को वेद का पाठ करने का विधान हैं। इस पर्व में वेदाध्ययन को वर्षा आरम्भ होने पर मौन पड़े मेंढक जैसे प्रसन्न होकर ध्वनि करते है। वेद कहते है कि हे वेदपाठी ब्राह्मण वर्षा आरम्भ होने पर वैसे ही अपना मौन व्रत तोड़कर वेदों का सम्भाषण आरम्भ करे। मंडूक सूक्त के प्रथम मन्त्र का सन्देश ईश्वर के महत्त्व गायन से वर्षा का स्वागत करने का सन्देश हैं। इस सूक्त के अगले चार मन्त्रों में सन्देश दिया गया है कि गर्मी के मारे सुखें हुए मंडूक वर्षा होने पर तेज ध्वनि निकालते हुए एक दूसरे के समीप जैसे जाते हैं , वैसे ही हे मनुष्यों तुम भी अपने परिवार के सभी सदस्यों, सम्बन्धियों, मित्रों, अनुचरों आदि के साथ संग होकर वेदों का पाठ करों। जब सभी समान मन्त्रों से एक ही पाठ करेंगे तो सभी की ध्वनि एक से होगी। सभी के विचार एक से होंगे। सभी के आचरण भी श्रेष्ठ बनेंगे। गुरुकुल में विद्यार्थी गुरु के पीछे एक समान मन्त्रों को दोहराये। गृहस्थी पुरोहित के पीछे दोहराये। वानप्रस्थी और सन्यासी भी अपने वेदपाठ द्वारा समाज को दिशानिर्देश दे। इन मन्त्रों का सामाजिक सन्देश समाज का संगतिकरण करना हैं। यह सामाजिक सन्देश आज के समय में टूटते परिवारों के लिए भी अत्यंत आवश्यक हैं। जहाँ पर संवादहीनता एवं स्वार्थ मनुष्यों में दूरियां उत्पन्न कर रहा हैं। वही संगतिकरण का वेदों का सन्देश अत्यंत व्यावहारिक एवं स्वीकार करने योग्य हैं। मंडूक सूक्त का छठा मंत्र वृहद् महत्व रखता है। इस मन्त्र में कहा गया है की मेंढ़कों में कोई गौ के समान ध्वनि करता है। कोई बकरे के समान करता है। कोई मेंढक चितकबरे रंगा का तो कोई हरे रंग का होता है। अनेक रूपों वाला होने के बाद भी सभी मेंढक का नाम एक ही है। सभी मिलकर एक ही वेद वाणी बोलते है। सामाजिक अर्थ चिंतन करने योग्य है। समाज में कोई मनुष्य धनी हैं, तो कोई निर्धन है। सभी के वर्ण भी अलग अलग है। भिन्न भिन्न पृष्ठ्भूमि , भिन्न भिन्न योग्यता ,भिन्न भिन्न व्यवसाय , भिन्न भिन्न वर्ण होने के बाद भी सभी मनुष्य बिना किसी भेदभाव के एकसाथ मिलकर वेदों का पाठ करे। यह सामाजिक सन्देश जातिवाद के विरुद्ध वेदों का अनुपम सन्देश हैं। मंडूक सूक्त के अगले तीन मन्त्रों में मनुष्यों को ईश्वरीय वरदान वर्षा ऋतु का आरम्भ तप करते हुए सोमयाग आदि अग्निहोत्र करने का सन्देश देते हैं। यज्ञ में संगतिकरण के अतिरिक्त इन मन्त्रों के पाठ करते हुए बड़े बड़े होम किये जाये। यह होम एवं आचरण रूपी व्रत एक दिन, चातुर्मास अथवा वर्ष भर भी चल सकते हैं। वेद पाठ के आरम्भ को उपाकर्म कहा जाता है। और व्रत समाप्ति पर किये जाने वाले संस्कार को उपार्जन कहते है। यह वैदिक संस्कार मनुष्य को व्रतों के पालन का सन्देश देते हैं। वर्षा ऋतु में अग्निहोत्र करने का विधान पर विशेष बल इसलिए भी दिया गया है क्यूंकि इस ऋतु में अनेक बीमारियां भी फैलती हैं। इनबीमारियों से बचाव में यज्ञ अत्यंत लाभकारी हैं। पंडित भवानी प्रसाद जी अपनी पुस्तक आर्य पर्व पद्यति में वर्षाकाल में हवन सामग्री में काला अगर, इंद्र जौ, धूपसरल, देवदारु, गूगल, जायफल, गोला, तेजपत्र, कपूर, बेल, जटामांसी, छोटी इलायची, गिलोय बच, तुलसी के बीज, छुहारे, नीम आदि के साथ गौ घृत से हवन करने का विधान लिखते हैं। यह वैदिक विज्ञान आदि काल से ऋषियों को ज्ञात था। इन जड़ी बूटियों के होम में प्रयोग से वे वर्षा ऋतु में फैलनी वाली बिमारियों से अपनी रक्षा करते थे। यह शारीरिक विज्ञान मंडूक सूक्त के सन्देश में समाहित हैं। इस सूक्त का अंतिम मन्त्र एक प्रकार से फलश्रुति है। इस मन्त्र में वेदों के व्रत का पालन करने वाले के लाभ जैसे अनंत शिक्षा का लाभ, ऐश्वर्या और आयु वृद्धि की प्राप्ति का हृदय में प्रभाव, परमात्मा की उपासना का सन्देश आदि बताया गया हैं। वेदव्रती ब्राह्मणों अर्थात मंडूकों से हमें सैकड़ों गौ की प्राप्ति हो अर्थात हमारा कल्याण हो।
तुलसीदास रामायण में एक चौपाई मंडूक सूक्त से सम्बन्ध में आती है।
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥
-किष्किन्धा काण्ड
अर्थात वर्षा का वर्णन में श्रीराम जी लक्ष्मण को कहते हैं- वर्षा में मेंढको की ध्वनी इस तरह सुनाई देती है जैसे बटुकसमुदाय ( ब्रह्मचारीगण) वेद पढ़ रहे हों। पेड़ों पर नए पत्ते निकल आये है। एक साधक योगी के मन को यह विवेक देने वाला हैं।
आईये मंडूक सूक्त से वेदव्रती होने का व्रत वर्षाऋतु में ले और संसार का कल्याण करें।
सन्दर्भ ग्रन्थ-
ऋग्वेद भाष्य पंडित आर्यमुनि जी 
ऋग्वेद भाष्य पंडित श्री पाद दामोदर सातवलेकर 
ऋग्वेद भाष्य- पंडित हरिशरण सिद्धान्तालंकार 
आर्यपर्व पद्यति- पंडित भवानीप्रसाद 
वैदिक विनय- आचार्य अभयदेव 
प्राचीन भारतीय साहित्य का इतिहास- ऍम विंटरनिटज
रामचरितमानस -तुलसीदास

डॉ विवेक आर्य

ओम।

*वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रंथ, महाभारत गीता, योगदर्शन, मनुस्मृति में एक "ओंकार का ही स्मरण और जप" करने का उपदेश दिया गया है।*
 वेदाध्ययन में मन्त्रों के आदि तथा अन्त में ओ३म् शब्द का प्रयोग किया जाता है।
यजुर्वेद में कहा है-
*ओ३म् क्रतो स्मर ।।-(यजु० ४०/१५)*
"हे कर्मशील ! 'ओ३म् का स्मरण कर।"
यजुर्वेद के दूसरे ही अध्याय में यह आज्ञा है-
*ओ३म् प्रतिष्ठ ।।-(यजु० २/१३)*
" 'ओ३म्' में विश्वास-आस्था रख !"
*ओ३म् खं ब्रह्म*-(यजु० ४०/१७)
अर्थात् "मैं आकाश की तरह सर्वत्र व्यापक और महान् हूं मेरा नाम ओम् है।"
आत्मा में विराजमान इस परमात्मा को धीर पुरुष परा विद्या से साक्षात्कार किया करते हैं;क्योंकि यह ओ३म् इन्द्रियातीत है।
वह नित्य,विभु,सर्वव्यापक,सूक्ष्म,अव्य तथा सब प्राणियों का कारण है।
वह गोत्र,वंश,आंख,कान,हाथ,पांव से रहित है।
वह संसार की बीज शक्ति है।वह अशरीर है।वह नाड़ी आदि बन्धनों से जकड़ा नहीं है।वह मलरहित है।
पाप उसको बांध नहीं सकते।कोई स्थान उससे रिक्त नहीं।
उसका कोई उत्पादक नहीं है।
वह सवयं अपना स्वामी है।उसने अपनी सनातन प्रजाओं के लिए पदार्थों का ठीक ठीक रीति से विधान बनाया है। यजु: ४०/८
इन सभी मन्त्रों में ओ३म् नाम के स्मरण करने की ही स्पष्ट आज्ञा है।
***
*प्रश्नोपनिषद् में*:-पिप्पलाद ऋषि सत्यकाम को कहते हैं-
हे सत्यकाम ! ओंकार जो सचमुच पर और अपर ब्रह्म है (अर्थात्) उसकी प्राप्ति का साधन है जो उपासक उस सर्वव्यापक परमेश्वर का ओ३म् शब्द द्वारा ध्यान करता है,वह ब्रह्म को प्राप्त होता है।जो कृपासिन्धु,परमात्मा,अजर अमर अविनाशी सर्वश्रेष्ठ है,उस सर्वज्ञ अन्तर्यामी परमात्मा को सर्वसाधारण ओंकार के द्वारा प्राप्त होते हैं।
*कठोपनिषद -* सभी वेद जिस परमपद का बारंबार प्रतिपादन करते हैं सभी तप जिस पद का लक्ष्य करते हैं , जिसकी इच्छा से ब्रह्मचर्य का पालन होता है - उस परमपद को संक्षेप में "ओ३म्" कहा जा रहा है । 
अर्थात् यह अक्षर ही ब्रह्म तथा परब्रह्म है ।
(क्षर अर्थात् नाशवान तथा अक्षर या शाश्वत सनातन ) ओंकार ही परब्रह्म प्राप्ति का श्रेष्ठ आलंबन है। इसके अवलंबन से महान ब्रह्म लोक की प्राप्ति होती है ।
*माण्डूक्योपनिषद्*:-ओंकार धनुष है,आत्मा तीर है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहलाता है।इसको अप्रमत्त(पूरा सावधान) पुरुष ही बींध सकता है,जब वह तीर के समान तन्मय हो जाता है।
*श्वेताश्वतर उपनिषद्*:-
अपने देह को अरनी(नीचे की लकड़ी) बनाकर ओ३म् को ऊपर की अरनी बनाओ और ध्यान रुपी रगड़ के अभ्यास से अपने इष्टदेव परमात्मा के दर्शन कर लो।जैसे छिपी हुई अग्नि के रगड़ से दर्शन होते हैं वैसे ही "ओ३म्" द्वारा इस देह में आत्मा का दर्शन किया जा सकता है।
*छान्दोग्योपनिषद्*:-छान्दोग्योपनिषद् का भी जो सामवेद के महाब्राह्मण का एक भाग है,यही कथन है कि-
"वह साधक जब उसे ब्रह्मलोक को जाना होता है,जिसे उसने उपासना द्वारा जाना है, ओ३म् पर ध्यान जमाता हुआ वहां जाता है" अतः प्रत्येक व्यक्ति को उचित है कि उस अविनाशी स्तुत्य "ओ३म्" नामक ब्रह्म की उपासना करे।
*तैत्तिरीयोपनिषद्*:-ओ३म् ब्रह्म का नाम है। ओ३म् ही सार वस्तु है।यज्ञ में इसी को सुनते सुनाते हैं। सामवेदी ओ३म् को ही पाते हैं। ऋग्वेदी भी इसी ओ३म् की ही स्तुति करते हैं। यजुर्वेदी अध्वर्यु भी अपने प्रत्येक वचन में ओंकार का ही बखान करते हैं।ब्रह्मा नामक ऋत्विक् ओंकार द्वारा ही आज्ञा देता है।अग्निहोत्र के लिए ओंकार के द्वारा ही आज्ञा दी जाती है।ब्रह्मवादी ओ३म् के द्वारा ही ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
***
*महर्षि पतञ्जलि योगदर्शन-* 1/27 में कहते हैं - तस्य वाचकःप्रणवः । ध्यान दीजिए, तस्य नाम प्रणवः नहीं कह रहे हैं । "ओ३म्" को ही प्रणव कहा गया है ।इसके विधि पूर्वक जप से सभी अभीष्ट सिद्धिया प्राप्त होती हैं तथा चारों पुरुषार्थ संपन्न किया जाता है ।
 *योगी याज्ञवल्क्य*:-
जो ब्रह्म दिखाई नहीं देता और जो मन के द्वारा अनुभव नहीं होता,जिसका अस्तित्व सिद्ध है,केवल मनन द्वारा ही पहचाना जाता है।उसी का ओंकार नाम है।उसी के नाम पर आहुति देने से वह प्रसन्न होता है।
***
*महाभारत में -* महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि 
जिज्ञासु वेद पढ़ते हुए और ओ३म् का जप करते हुए योग में मग्न और योग समाधि में भी ओ३म् का ध्यान करें। इस जप और योग के द्वारा ही परमात्मा का ज्ञान होता है।
***
 *गीता*:-
हे अर्जुन ! जो मनुष्य इस एकाक्षर ब्रह्म 'ओ३म्' को कहते हुए और उसके द्वारा अन्त समय ब्रह्म को याद करते हुए इस शरीर को त्याग देते हैं,वह परमगति को प्राप्त होते हैं। -(८/१३)
यह ओंकार जानने के योग्य और परम पवित्र है इसी प्रकार इस ब्रह्मज्ञान के लिए ऋग्वेद,यजुर्वेद और सामवेद जानने के योग्य हैं।-(९/१७)
ओ३म् तत् सत् इन तीनों पदों से ब्रह्म का निरुपण होता है,अतः ब्रह्मवादियों के यज्ञ,दान,तप आदि समस्त शुभ कर्मों का आरम्भ ओ३म् से होता है।-(१७/२३/२४)
***
 *यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण*:-
सर्वव्यापक सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी सर्वरक्षक 'ओ३म्' ब्रह्म सबसे महान् है।यह सबसे बड़ा है।सबसे प्राचीन तथा सनातन है.वही सबका प्राणदाता है।ओंकार शब्द ही वेदस्वरुप है।इसी ओ३म् के द्वारा समस्त ज्ञेय (जानने योग्य) पदार्थ जाने जा सकते हैं।
*सामवेद का ताण्डय् महाब्राह्मण*:-जो कोई यथार्थ रुप से ओंकार को नहीं जानता वह वेद के आश्रित नहीं रहता अर्थात् धर्म के अधीन न रहकर संसार में अधर्म तथा उपद्रव फैलाने वाला हो जाता है,परन्तु जो ओंकार को इस प्रकार से जानता है वह वेद के आश्रित रहकर संसार का उपकार करता है।
इसी ब्राह्मण में अलंकार रुप से ओ३म् की महिमा का वर्णन करते हुए यह दर्शाया है कि किस प्रकार ओ३म् के आश्रय में आने और उसके द्वारा ब्रह्म को जानने से दैनिक देवासुर संग्राम में मनुष्य को विजय तथा सफलता प्राप्त होती है।
 *अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण* :- गोपथ ब्राह्मण में ओ३म् की महिमा विशेष ध्यान देने योग्य है। यथा श्लोक (गो० 1/22) जिसके अर्थ इस प्रकार हैं- 
जो ब्रह्मोपासक इस अक्षर 'ओम्' की जिस किसी कामना पूर्ति की इच्छा से तीन रात्रि उपवास रखकर तेज-प्रधान पूर्व दिशा की ओर मुख करके, कुशासन पर बैठकर सहस्र बार जाप करता है उसके सब मनोरथ (शुभ कामनाएं) सिद्ध होते हैं।
इस कथन में जप करने के विधान का उपदेश भी किया गया है।
आजकल प्रायः सभी जिज्ञासु जप करने की विधि जानना चाहते हैं,उनके लिए यह सुगम विधि है।
***
*मनुस्मृति (अध्याय १२, श्लोक- १२२,१२३)-* जो सबको शिक्षा देने हारा, सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्वप्रकाशस्वरूप, समाधिस्थ, वृध्दि से जानने योग्य है, उसको परम पुरूष अर्थात परमात्मा जानना चाहिए। और स्वप्रकाश होने से "अग्नि" , विज्ञानस्वरूप होने से "मनु", और सबका पालन करने से "प्रजापति", और परमैश्वर्यवान होने से "इंद्र", सबका जीवनमूल होने से "प्राण" और निरंतर व्यापक होने से परमेश्वर का नाम "ब्रह्मा" है।
***
*अन्य मत मतान्तरों में ओ३म्*
अन्य मत मतान्तरों में भी ओ३म् की महिमा और ओ३म् का परिवर्तित नाम विद्यमान हैं।मुसलमानो़ में आमीन, यहूदियों का एमन, सिक्खों का एक ओंकार, अंग्रेजों का Omnipresent,Omnipotent,Omniscient ।
*सम्पूर्ण विश्व में ही नहीं,सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ओ३म् शब्द की महिमा है।विपत्ति में,मृत्यु में,ध्यान के अन्तिम क्षणों में बस ओ३म् ही शेष रह जाता है,शेष सब मन्त्र, ज्ञान-विज्ञान धूमिल हो जाता है।पौराणिकों की मूर्तियों व मन्दिरों के ऊपर ओ३म्, आरती में ओ३म्, नवजात शिशु के मुख में ओ३म्, सब स्थानों में ओ३म् ही ओ३म् है।*

Saturday, June 25, 2022

सिंध पर अरब आक्रमण की असफलताएं।

#भारत_विजयगान
इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद की 632 ई में मृत्यु के उपरांत अरब की संगठित इस्लामिक सेना ने तत्कालीन समय मे सबसे ताकतवर मानी जाने वाली Byzantine एम्पायर के फिलिस्तीन और सीरिया को महज 6 माह के भीतर 636-637 A.D. तक फतह हासिल कर लिया था । उसके बाद पर्सिया के Sassanid Empire जिसकी ताकत के किस्से दुनिया भर मशहूर है , जो साइरस और डेरियस जैसे बेहद ताकतवर राजाओ के शासन कe कारण प्रसिद्ध हुआ करते था , परन्तु अरब की इस्लामिक सेना ने Sassanid Empire ( आज का इराक , ईरान और खुरासान) को भी 637 ई में परास्त कर दिया था ।
इस प्रकार कुछ ही वर्षो में पूरा पर्सियन एम्पायर नेस्तनाबूद हो गया । उसके बाद 643 ई में दुनिया की सबसे ताकतवर माने जा रही अरब खलीफा के अंडर में अरबी सेना ने भारतीय उपमहाद्वीप को जीतने का लक्ष्य रखा । यहाँ एक महत्वपूर्ण तथ्य जोड़ना चाहूंगा अति महत्वपूर्ण है ,  कि उस समय तुर्किश भाषा बोलने वाले मंगोलिया ,बुखारा , ताशकन्द और समरकन्द को भी अरबी सेना ने 650 ई में फतह कर लिया था । 
बाइजेंटाइन एम्पायर के पश्चिम में इजिप्ट (मिश्र) भी 640 ई में मुस्लिम अरब द्वारा परास्त किया जा चुका था । अरब की सेना उत्तरी अफ्रीका से होते हुए इंदुलुसिया (स्पेन) में 709 ई में उसे भी फतह कर लिया था ।
 एक इस्लामिक सेना की यह विजय कोई साधारण या आसान नही थी । एक बार पराजय के बाद ही विभिन्न पहचान , संस्कृति और भाषा वाली इन तुर्क , पारसी , सीरियन , बर्बर्स (अफ्रीकी जाती) कौम के लोग इस्लाम मे बहुत ही कम समय मे तलवार के दम पर मतांतरित कर दिए गए और उनकी परम्परा , संस्कृति और भाषा का अरबीकरण कर दिया गया ।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इसी इस्लामिक सेना ने भारत पर 69 वर्षो तक हमला किया और वे सीमा पार करने में भी असफल रहे । उसके बाद लगभग 300 सालो तक उन्हें भारत के उत्तर और पश्चिम के विभिन्न क्षेत्रों से जोरदार प्रतिरोध सहना पड़ा ।
सर्वप्रथम खलीफा उमर बिन खत्ताब के समय मे अरबो की समुद्री सेना ने महाराष्ट्र के समुद्र तट थाने और गुजरात के तट भरूच पर 634 - 644 ई तक हमला किया जिसका भारतीय सेना ने जबरदस्त प्रतिकार किया , अरबो को सिंध के देवल में भी इसी प्रतिकार का सामना करना पड़ा , जब अरब सेनापति Mughirah परास्त होकर युद्ध में मारा गया । इसके बाद खलीफा उमर बिन खत्ताब ने हिंदुस्तान के सिंध प्रांत के मकरान पर चढ़ाई करने के लिए दूसरी सेना भेजने का निर्णय लिया । लेकिन उसे इराक के गवर्नर का सुझाव दिया कि , 
'उन्हें अब हिन्द पर चढ़ाई के विषय मे  नही सोचना चाहिए' ।
इसके उपरांत अरब के भीतर इस्लाम के अगले खलीफा हजरत उस्मान ने भी 646-656 ई तक इस सुझाव का पालन किया , और अपनी सेना को सिंध पर किसी भी तरह की जमीनी या समुद्री हमला करने की जहमत नहीं उठाई ।
इसके बाद अरबो के चौथे खलीफा और शियाओ के पहले इमाम हजरत अली ने भारत को फतह करने के लिए 660 ई में सेनाये भेजी परन्तु उनके सिंध पर भेजी गई सेना का भी भारतीय सेना ने किकान की जमीन पर वध किया , अंतत्वोगत्वा इस्लाम के चौथे खलीफा हजरत अली भी हिन्द और सिंध की फतह की खबर सुने बिना ही मर गए ।
उसके बाद 661 - 680 ई तक अरब के अगले खलीफा हजरत माविया ने भी 6 बार सिंध पर जमीनी सेना भेजी । इन 6 युद्धों में भी अरबो को पराजय मिली , सिवाय 6 वे युद्ध के जिसमे भारत के सिंध प्रांत का मकरान का हिस्सा 680 ई में फतह कर लिया गया था ।
इसके बाद 28 वर्ष तक अरबो ने भारत पर हमला करने की कोई भी जहमत न उठा पाई ।
अब अरब अक्रांताओ ने भारत पर अगला हमला 708 ई में देबल में किया । परन्तु इसमें भी अरब कमांडर इन चीफ उबैदुल्लाह और बुदैल मारे गए और अरब सेना भाग खड़ी हुई ।
अगली बार जब हज्जाज बिन यूसुफ इराक का गवर्नर बना तो उसने खलीफा से हिंदुस्तान पर हमला करने की अनुमति मांगी , लेकिन खलीफा ने उसे लिखकर भेजा कि हमे हिन्द फतह करने की योजना छोड़ देनी चाहिए क्योंकि हमारी सेना कई बार उन पर चढ़ाई करती है , और प्रत्येक बार हमारी हार होती है जिसमे भारी संख्या में मुसलमान मारे जाते है , तो कृपया इस प्रकार के किसी भी योजना को अपने मन निकाल दो , 
लेकिन हज्जाज बड़ा ही अक्रामक साम्राज्यवादी मानसिकता का था । उसने 4 वर्षो तक एक मजबूत आर्मी को बनाने में लगाया , जो अब तक सिंध में भेजी गई सेनाओ से कहि ज्यादा ताकतवर थी ।
उसके बाद उसने अपने दामाद एव भतीजे मुहम्मद बिन कासिम को 712 ई में सिंध को फतह करने के लिए भेजा ।
हज्जाज ने कासिम से कहा कि,  'मैं अल्लाह की कसम खा कर कह रहा हु की मैं मेरे इराकी साम्राज्य का सम्पूर्ण धन इस आक्रमण में लगाने को तैयार हूं ।"
इस प्रकार मुहम्मद बिन कासिम ने हिंदुस्तानी सेना के जोरदार प्रतिरोध के बाद भी सिंध को फतह कर लिया उसके बाद 713 ई तक उसने संपूर्ण सिंध सहित मुल्तान पर भी कब्जा कर लिया , लेकिन भारतीय सेना के प्रतिरोध के बाद 714 ई में वह भाग खड़ा हुआ , जिसके बाद खलीफा के पास देबल से Salt Sea तक का ही हिस्सा हाथ आया , जो कि महज सँकरी
समुद्री सीमा मात्र थी ।
इसके बाद अरबो ने पुनः सिंध पर हमला किया और पूर्व में राजपूताने से उज्जैन और दक्षिण में भरूच की ओर बढ़े । लेकिन उनकी सफलता अल्प सामयिक ही रही । उनके आक्रमण पर दक्षिणी गुजरात (Lat) के चालुक्य राजकुमार पुलकेशिन अवनीश जनस्राय ने प्रतिरोध किया ।
738 ई नवसारी शिलालेख के अनुसार पुलकेशिन ने उस अरब सेना को पराजित किया जिसने सिंध , कच्छ , सौराष्ट्र , कावाटोका , मौर्य और गुर्जर राजवंश को परास्त किया था ।
इसके बाद राजकुमार पुलकेशिन अपने गृह नगर नवसारी वापस लौटे , जहाँ उनका भव्य तरीके से स्वागत किया गया और उन्हें दक्षिणापथ साधिता (Solid Piller Of Dakshinapath) और अनिवर्तका निवार्त्तयी (the Repeller of the Unrepellable) की उपाधि से विभूषित किया गया ।
ग्वालियर शिलालेख के अनुसार , गुर्जर-प्रतिहार राजा भोज प्रथम को अरब इतिहासकार कीng of Jurg कहकर बुलाते है । अरब इतिहासकार लिखते है कि भारत के किसी भी राजा में कोई भी उतना बड़ा प्रतिद्वंदी नही था सिवाय भोज प्रथम के ।
इसके बाद अरब सेना उत्तर पश्चिम में पंजाब और कश्मीर की ओर भी बढ़े , लेकिन उन्हें वहां भी ललितादित्य मुक्तपीड़ा (724-760 ई ) द्वारा उन्हे परास्त होना पड़ा ।
 इस युद्ध मे ललितादित्य का गठबंधन मध्य भारत के शासक यशोवर्मन के साथ था ।
10वी शताब्दी के अरब इतिहासकार , लिखते है कि खलीफा के पास भारत में केवल दो स्थान है एक मुल्तान और दूसरा उनकी राजधानी मनसुरा , जिसके कारण प्रतिहार राजाओ ने अरब के मुल्तानी राजकुमार पर जोरदार हमला किया । इस प्रकार मुल्तान भी अरबो के हाथ से निकल गया , सिवाय एक मंदिर के । 
अरब इतिहासकार अल इसतिखारी ने 951 ई में लिखा , कि मुल्तान में एक मंदिर था जो हिन्दुओ के द्वारा अत्यंत सम्मानित और पूजित था जहां पर हर वर्ष भारत के विभिन्न हिस्सों से तीर्थयात्री पूजा उपासना के लिए आते थे । जब भारतीयों ने मुल्तान में अरबो पर हमला कर मूर्ति को मुक्त करा ना चाहा तो अरब आक्रमण करियो ने मूर्ति को तोड़ने व जलाने की धमकी दी । जिसके बाद हिन्दुस्तानियो ने उन्हें छोड़ दिया नही तो वे मुल्तान को तबाह कर देते ।
इस प्रकार 300 सालो के अनवरत आक्रमणों के बाद भी अरबो को केवल 2 स्थान ही प्राप्त हुए एक मुल्तान दूसरा मनसेरा , वह भी अरबो के मजहबी बुतशिकन राजनीति के कारण न कि युद्ध के ।
यहाँ सभी को एक बात को अपने मन मे अवश्य रखना चाहिए कि यह वो समय था जब अरब खिलाफत एम्पायर दुनिया की सबसे ताकतवर और विशाल थी , जिसने दुनिया की कई बड़ी ताकतवर साम्राज्यों को धूल में मिलाकर विश्व भूगोल से समूल नेस्तनाबूद कर दिया था, अर्थात् उसके बाद दुबारा उन स्थानों पर रहने वाले लोग अपने पुराने मजहब एव संस्कृति को नही लौट पाए , आज की भाषा मे कहु तो वहां सदा के लिए Complete Arab Hagemenoy स्थापित हो गई ।
वही दूसरी ओर विशाल ताकतवर अरब खिलाफ़ती सेना भारत के जिन सिंध और कोस्टल (समुद्र तटीय) राजाओ से लड़ रहे थे वे तो अरबो की विशालता के सामने बेहद बौने थे ।
इस तरह सिंध , पंजाब जैसे छोटे राज्यो के जिन भारतीय हिन्दू राजाओ ने जिस अलेक्जेंडर को धूल में मिलाकर वापस यूनान भेजा था , वह कथा भी अब पुरानी हो गई ।
और यह गाथा आज एक बार फिर इस आर्यावर्त के इतिहास में अमर हो गई ।
Ref -
(1) Heroic Hindu Resistance
to Muslim Invaders
(636 AD to 1206 AD) by Sitaram Goel
(2) Ram Gopal Misra, Indian Resistance to Early Muslim Invaders up to 1206 A.D.
हिंदी अनुवादक एवं प्रस्तोता - हिमांशु शुक्ला

किस वेद में स्त्रियों और शूद्रों के वेदाधिकार का निषेध है?

हम बड़ी नम्रतापूर्वक इन धर्माचार्यों से पूछना चाहते हैं कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद इन चारों संहिताओं में कहीं एक भी मन्त्र या मन्त्रांश ऐसा दिखा दीजिए जो महिलाओं और शूद्रों के वेदाध्ययन का निषेध करता हो??
महिला या पुरुष नहीं अपितु मानवमात्र को वेदाध्ययन का अधिकार है।  मध्यकाल में जब बहुत प्रकार के अनार्ष मिथ्या और साम्प्रदायिक मतवाद प्रचलित होने लगे तो कर्मकाण्ड के अनार्ष ग्रन्थों में 'स्त्री शूद्रौ न वेदमधीयाताम ' और 'स्त्री शूद्रद्विजबन्धूनाम् त्रयी न श्रुतिगोचरा' जैसी उक्तियाँ और विधान प्रचलित हुये । यह भारतीय संस्कृति और वैदिक परम्परा का अन्धकारपूर्ण युग था । वेद मनुष्य मात्र के लिये है । वेद परमेश्वर की वाणी हैं । जैसे पृथ्वी, जल, वायु, सूर्य, आकाश परमेश्वर निर्मित है और मनुष्यमात्र के लिये है, उसी प्रकार वेद भी परमेश्वर की वाणी होने के कारण मनुष्यमात्र के लिये है। 
प्रसिद्ध वेदोद्धारक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद के २६वें अध्याय के दूसरे मन्त्र का प्रमाण देकर कहा -
“यथेमां वाचं कल्याणीमवदानि जनेभ्यः। 
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्रायचार्याय च स्वाय चारणाय॥"
अर्थात् – परमेश्वर उपदेश करते हैं कि जैसे मैं सब मनुष्यों के लिये इस कल्याणी वेदवाणी का उपदेश करता हूँ वैसे सब मनुष्य किया करें । इसमें प्रजनेभ्यः शब्द तो है ही वैश्य, शूद्र और अति शूद्र आदि की गणना भी आ गई है । यह बड़ा सुस्पष्ट प्रमाण है । वेद के विद्वानों ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के इस अद्भुत प्रमाण का हृदय खोल कर देश और विदेश में स्वागत किया । उस अन्धकार युग में यह वेद का सूर्यवत् प्रकाश था।
कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध वेद विद्वान् श्री सत्यव्रत सामश्रमी ने अपने अति सम्मानित ग्रन्थ "ऐतरेयालोचन'' में लिखा है कि स्वामी दयानन्द ने मनुष्य मात्र के वेदाधिकार में साक्षात् वेदमन्त्र का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया है ।
विश्व विख्यात विचारक और समालोचक रोमा रोलाँ ने स्वामी दयानन्द को यह कहकर श्रद्धांजलि दी है कि सचमुच वह दिन भारत के लिये एक नव युग के निर्माण का दिन था जब स्वामी दयानन्द ने एक ब्राह्मण संन्यासी होकर भी सैकड़ों वर्षों से ताला में बन्द वेदों को मनुष्य मात्र के पढ़ने के अधिकार का प्रतिपादन किया।
स्वामी दयानन्द जी ने तो आर्य समाज के नियमों में एक नियम ही बना दिया कि वेद का पढ़ना पढ़ाना परम धर्म है। आज के दिन दर्जनों कन्या गुरुकुलों में हजारों छात्रायें वेद पढ़ रही हैं और सैकड़ों वेद विद्या की गम्भीर विदुषियाँ, आचार्याएँ वेद पढ़ा रही हैं।
प्राचीन काल में वेद विदुषी महिलाएँ - ऋषि मन्त्रद्रष्टा होते हैं, ऋषिकायें भी मन्त्रद्रष्टा होती हैं । लोपामुद्रा, गार्गी, मैत्रेयी इत्यादि कई इतिहास प्रसिद्ध ऋषिकायें हैं।सोलह ऋषिकाएँ ऋग्वेद में हैं। 
संस्कारों में स्त्रियाँ मन्त्र पाठ करती थीं “इमं मन्त्रं पत्नी पठेत्” ऐसा कर्मकाण्ड के ग्रन्थों में निर्देश है अतः स्त्री का मन्त्रपाठ स्वतः सिद्ध है।
कन्याओं का उपनयन - कन्याओं का भी उपनयन होता था और आज भी बहुत सारे वैदिक परिवारों में कन्याओं का उपनयन होता है और स्त्रियाँ यज्ञोपवीत पहनती हैं । सन्ध्या, अग्निहोत्र करती हैं वेदपाठ भी करती हैं । 
निर्णय सिन्धु तृतीय परिच्छेद में लिखा है -
"पुराकल्पेतु नारीणा नौञ्जीबन्धनमिष्यते। अध्ययनंच वेदानां भिक्षाचर्यं तथैव च॥" 
इसमें यज्ञोपवीत और वेदों का अध्ययन दोनों का विधान है।
हारीत संहिता में दो प्रकार की स्त्रियों का उल्लेख हैं - 
(१) ब्रह्मवादिनी 
(२) सद्योवधू ।
ब्रह्मवादिनी - तत्र ब्रह्मवादिनीनाम् उपनयनं अग्निबधनं वेदाध्ययनं स्वगृहे भिक्षा इति।
पराशर संहिता के अनुसार ब्रह्मवादिनी स्त्रियों का उपनयन होता है, वे अग्नि होत्र करती हैं, वेदाध्ययन करती हैं और अपने परिवार में भिक्षावृत्ति करती हैं।
सद्योबधू- ‘सद्योबधूनां तू उपस्थिते विवाहे कथंचित् उपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः।' - सद्योवधू वे स्त्रियाँ हैं जिनका विवाह के समय उपनयन करके विवाह कर दिया जाता है। जैसा आजकल पुरुषों के विवाह में कई जगह होता है।
वेद में उपनीता स्त्री - ऋग्वेद के मण्डल १० सूक्त १०९ मन्त्र ४ में लिखा है - “भीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता” यहाँ उपनीता जाया बहुत सुस्पष्ट है।
आचार्या और उपाध्याया वे स्त्रियाँ है, जो स्वयं पढ़ाती हैं नहीं तो आचार्य की स्त्री आचार्यानी और उपाध्याय की स्त्री उपाध्यायानी कहलाती हैं।
शंकर दिग्विजय में मण्डन मिश्र की पत्नी भारती देवी के विषय में लिखा है - 
'शास्त्रणि सर्वाणि षडवेदान् काव्यादिकान्वेत्ति यदत्र सर्वम्।' 
इसमें भारती देवी के षडङ्गवेदाध्ययन की बात सुस्पष्ट है।
माता कौशल्या का अग्निहोत्र- अग्निहोत्र में वेदमन्त्र बोले जाते हैं और कौशल्या अग्निहोत्र करती थी बाल्मीकि रामायण में अयोध्या काण्ड अः २०-१५ श्लोक में द्रष्टव्य है -
साक्षौमवसना हृष्टा नित्यं व्रतपरायणा। 
अग्नि जहोतिस्म तदा मन्त्रवत्कृतमज्जला।। 
कौशल्या रेशमी वस्त्र पहने हुए व्रत पारायण होकर प्रसन्न मुद्रा में मन्त्र पूर्वक अग्निहोत्र कर रही थी। इसी प्रकार अयोध्या काण्ड आ० २५ श्लोक ४६ में कौशल्या के यथाविधि स्वतिवाचन का भी वर्णन है।
माता सीता की सन्ध्या - लंका में महाबली हनुमान माता सीता को खोजते हुए अशोक वाटिका में गये किन्तु उन्हें माता सीता न मिली । हनुमान ने वहाँ एक पवित्र जल वाली नदी को देखा । हनुमान जी को निश्चय था कि यदि माता सीता यहाँ होगी तो सन्ध्या का समय आ गया है और व यहाँ सन्ध्या करने के लिये अवश्य आयेंगी। सुन्दरकाण्ड अ० १४, श्लोक ४९ में लिखा है -
सन्ध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी।
नदींचेमांशुभजला सध्यार्थ वरवर्णिनी॥ 
अर्थात् वर वर्णिनी सीता इस शुभ जल वाली नदी पर सन्ध्या करने के निमित्ति अवश्य आयेंगी।
इस छोटे से प्रयास में हमने साक्षात् वेद वचन उद्धृत करके यह प्रमाण दे दिया है कि वेद मनुष्य मात्र के लिये हैं और 'धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः' धर्म के लिये वेद परम प्रमाण हैं । 
किसी वेद संहिता में या वैदिक ऋषि कृत ग्रन्थ में स्त्रियों के वेद पढ़ने का निषेध नहीं है । वेदों की लोपामुद्रा, गार्गी, भारती आदि स्त्रियाँ विदुषी थीं और वेद पढ़ी थीं। आज भी वेद पढ़ती हैं ।
- प्रो० उमाकान्त उपाध्याय

Friday, June 24, 2022

लोमड़ी और कौआ।

आप सब ने बचपन में एक प्रसिद्ध कहानी सुनी होगी. एक जंगल में  पेड़ पर एक कौआ बैठा हुआ था. उसके मुंह में रोटी का टुकड़ा था. कौवे के मुंह में रोटी देखकर लोमड़ी के मुंह में पानी भर आया. वह कौवे से रोटी छीनने का उपाय सोचने लगी. उसे अचानक एक उपाय सूझा और तभी उसने कौवे को कहा, ”कौआ भैया! तुम बहुत ही सुन्दर हो. मैंने तुम्हारी बहुत प्रशंसा सुनी है, सुना है तुम गीत बहुत अच्छे गाते हो. तुम्हारी सुरीली मधुर आवाज़ के सभी दीवाने हैं. क्या मुझे गीत नहीं सुनाओगे ? कौआ अपनी प्रशंसा को सुनकर बहुत खुश हुआ. वह लोमड़ी की मीठी मीठी बातों में आ गया और बिना सोचे-समझे उसने गाना गाने के लिए मुंह खोल दिया. उसने जैसे ही अपना मुंह खोला, रोटी का टुकड़ा नीचे गिर गया. भूखी लोमड़ी ने झट से वह टुकड़ा उठाया और वहां से भाग गई. 

सेक्युलरिज़्म वह लोमड़ी की गीत की प्रार्थना है। वह कौआ भारत का टैक्स प्रदाता है। टैक्स वह बोटी है जो कौए से लोमड़ी को लेना है। 

यह कैसा लोकतंत्र है?

अफ्रीका महाद्वीप में नाटे कद के पिग्मी जनजाति के लोग रहते हैं. यह केवल चाकू से हाथी को मार देते हैं. इस विधा को कहते हैं “हजार घाव की लड़ाई ”. एक पिग्मी जाकर हाथी के पीछे चाक़ू से वार करता है और तेजी से वापस लौट आता है. जब तक हाथी सम्भल कर वार करता है तब तक दूसरा पिग्मी चाक़ू से दूसरी जगह वार करता है. इस तरह लगातार वार करने हाथी मर जाता है. हाथी की मृत्यु अति रक्तस्राव के कारण हो जाती है. भारत रूपी हाथी को किस तरह घाव दिए जा रहे हैं।

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। 

एक बड़ा बरगद का पेड़. जिसकी उम्र 400 साल. इस ने 4 बड़े भूकम्प भूकम्प, 10 बाढ़ और 20 आंधियां झेली. परन्तु यह पेड़ उस दीमक से हार गया जो चुटकियों से मसली जा सकती है. आज सनातन धर्म रूपी वटवृक्ष को जेहादी रूपी दीमक लग गई है. यदि इस आक्रमण का युक्तियुक्त प्रतिकार नहीं किया गया तो यह आक्रमण अंतिम सिद्ध होगा. केवल विशाल आकार किसी के अस्तित्व को नहीं बचा सकता.

क्या आप जानते हैं कि केरल में कुल 21,683 मदरसे हैं ...?
चूँकि केरल में 14 जिले हैं अर्थात प्रति जिला 1,549 मदरसे हैं।
प्रति जिले में 70 पंचायतें हैं ... इसलिए यह 22 मदरसों को प्रति पंचायत बनाती है।
इसका मतलब है कि केरल में प्रति किलोमीटर एक मदरसा ।
यह वह मदरसे हैं जो राज्य सरकार से अनुमोदित है। घरेलू उद्योग की तरह मस्जिदों मे चलने वाले मदरसों का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। 
इन 21,683 मदरसों में 2,04,683 धार्मिक शिक्षक एक साथ काम करते हैं ... यानी प्रति मदरसे में 9 धार्मिक शिक्षक हैं।

केरल के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के टी जलील उच्च शिक्षा मंत्री भी हैं। वह कुछ समय पहले भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित  संगठन सिमी का सदस्य था। फिर वह सीपीएम में शामिल हो गया और अब एक धर्मनिरपेक्ष होने का दिखावा करता है।

केरल विधानसभा द्वारा केरल मदरसा शिक्षक कल्याण निधि विधेयक, 2019 पारित करने के साथ, राज्य भर के मदरसा शिक्षक 1500-7500 रुपये में पेंशन पाने के हकदार हैं।
 
बिल 18 नवंबर 2019 को केरल विधानसभा में पारित किया गया था। वक्फ और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री केटी जलील ने बिल पेश किया और कहा कि इसका उद्देश्य मदरसा शिक्षकों की सेवा शर्तों में सुधार करना और उनके परिवारों का समर्थन करना है।
 
कानून ने 2010 में इस योजना में शामिल होने वालों को पेंशन का भुगतान करने के लिए कल्याण कोष बनाने की मांग की। लगभग 22,500 मदरसा शिक्षक योजना में शामिल हुए। कोई भी मदरसा शिक्षक, जिसने 20 वर्ष की आयु पूरी कर ली है, लेकिन 55 वर्ष की आयु पूरी नहीं की है, सदस्यता के लिए पात्र है।
 
फंड के एक सदस्य को फंड में योगदान के रूप में प्रति माह 50 रुपये और समिति के तहत प्रत्येक मदरसा शिक्षक के लिए प्रत्येक समिति को 50 रुपये प्रति माह का भुगतान करना होगा। (इसमे सरकार क्या देगी यह चालाकी से छुपा दिया गया है। )
 
मदरसा शिक्षक कल्याण योजना का गठन पहली बार 2010 में पालोली मोहम्मद कुट्टी ( Paloli Mohammed Kutty) समिति के सुझावों के अनुसार किया गया था जब वीएस अच्युतानंदन मुख्यमंत्री थे। 31 अगस्त 2018 को, पहले अध्यादेश को राज्यपाल द्वारा प्रख्यापित (अस्वीकृत) किया गया  और तीन बार (2019 जनवरी 7, 1 मार्च, 6 जुलाई) से इसे फिर से पेश किया गया था।
 
पेंशन योजना के अलावा, निधि के सदस्य शादी के लिए वित्तीय सहायता, आवास ऋण, चिकित्सा सहायता और महिला सदस्यों के लिए मातृत्व लाभ सहित कई अन्य लाभों के हकदार हैं। राज्य में 2 लाख से अधिक मदरसा शिक्षक हैं।
 
विधेयक के अनुसार, इस्लाम के सिद्धांत को प्रचारित करने या सिखाने वाले किसी भी संस्थान को मदरसा (KNPP.1391 / 2019) (भाग 2 I) माना जा सकता है और इन संस्थानों के सदस्य बोर्ड की सदस्यता के लिए आवेदन कर सकते हैं।
 
सरकार द्वारा पहले से ही एक कोष स्थापित किया गया था, जिसे 2010 के 31 मई को मदरसा शिक्षकों के कल्याण के लिए आवंटित किया गया था। 2019 के बिल में निधि को प्रशासित करने के लिए केरल मदरसा शिक्षक कल्याण कोष बोर्ड बनाने का प्रयास किया गया है।
 
विधेयक में प्रावधानों के अनुसार, नया बोर्ड कोष का अधिग्रहण करेगा। एक सदस्य के लिए या सदस्य की दो बेटियों के लिए 10000 रुपये की शादी सहायता होगी।
 
अन्य लाभों में 2.5 लाख का ब्याज मुक्त आवास ऋण और उपचार के लिए वित्तीय सहायता (5000 रुपये से 25000 रुपये) हैं। महिला शिक्षकों को जीवन भर के लिए मातृत्व-संबंधी खर्च के लिए 15000 रुपये मिलेंगे। मदरसा शिक्षकों के आश्रित जो पेशेवर पाठ्यक्रमों में पढ़ रहे हैं, उन्हें संबंधित पाठ्यक्रमों में सरकारी शुल्क के बराबर फीस मिलेगी। 10000 से 50000 रुपये की मरणोपरांत वित्तीय सहायता, अंतिम संस्कार का खर्च, पारिवारिक पेंशन, चिकित्सा के लिए वित्तीय सहायता आदि भी योजना का हिस्सा हैं। केरल में 21683 मदरसे हैं, और उन मदरसों में 204683 शिक्षक काम कर रहे हैं।

 ये मदरसे केवल मौलवी या निम्न वर्गीय श्रमिक उत्पन्न करते हैं जो सारा जीवन सब्सिडी और मुफ्त सेवाओं पर आश्रित रहते हैं। मदरसे से पढ़ने वाले बड़े होकर 5% भी टैक्स प्रदाता नहीं बनते।

मंत्री के अनुसार, वाम सरकार की पहल न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर समिति की रिपोर्ट के सुझावों पर आधारित थी।