Sunday, December 11, 2022

महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा शुद्धि का पुन: वर्णन.

 एक हिन्दू (आर्य) धर्म की रक्षा के लिए शुद्धिस्वामी दयानन्द सरस्वती की सर्वथा नवीन, मौलिक और क्रान्तिकारी देन थी। इसके प्रादुर्भाव का इतिहास अतीव रोचक है और इस बात को स्पष्ट करता है कि स्वामी जी अपने समय की परिस्थितियों को देखते हुए किस प्रकार मौलिक चिन्तन करते थे और तत्कालीन सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए नूतन हल खोजते थे । स्वामी जी के मन में शुद्धि का विचार सर्वप्रथम अपनी पंजाब यात्रा में उत्पन्न हुआ । उस समय ईसाई प्रचारक हिन्दुओं, सिक्खों और मुसलमानों को अपने धर्म का अनुयायी बनाने के लिए बड़े पैमाने पर संगठित प्रयत्न कर रहे थे। उन्हें राज्य का प्रबल संरक्षण प्राप्त था। अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि से प्रचुर आर्थिक सहायता भी उन्हें मिल रही थी। इस कारण वे हिन्दू धर्म के लिए एक बड़ा खतरा बन चुके थे। स्वामी दयानन्द ने इस संकट को पंजाब में पहली बार तीव्रता से अनुभव किया और इसके प्रतिकार के लिए शुद्धि के उपाय का प्रतिपादन किया।
          शुद्धि का विचार भारतीय समाज में अतीव प्राचीन था। किन्तु स्वामी जी ने इसका जिस अर्थ में प्रयोग किया, वह सर्वथा नवीन था। इस शब्द का मूल अर्थ मलिन- ताओं को दूर करना और सफाई करना है। मनु ने इसी अर्थ में इसका प्रयोग करते हुए लिखा है कि शरीर की सफाई जल से होती है (अद्भिर्गात्राणिशुद्ध्यन्ति) । पहले धार्मिक कार्यों को करने से पूर्व शरीर की शुद्धि आवश्यक समझी जाती थी। शनैः-शनैः शुद्धि शब्द के अर्थ का विस्तार होने लगा और विभिन्न धार्मिक कर्मकाण्डों को पूरा करने से पहले उनके लिए आवश्यक पवित्रता प्राप्त करने के विधि-विधानों को ही शुद्धि कहा जाने लगा । धीरे-धीरे मध्यकालीन हिन्दू समाज में यह विचार विकसित हुआ कि विधर्मियों के साथ सम्पर्क से और समुद्र यात्रा से मनुष्य पापी हो जाता है। इसके लिए आवश्यक शुद्धि के विधान किए जाने लगे । १६वीं शताब्दी में जो व्यक्ति इंग्लैण्ड आदि समुद्र पार के देशों की यात्रा करते थे, उन्हें म्लेच्छों के साथ सम्पर्क के कारण पतित माना जाता था। उनकी पञ्चगव्य से शुद्धि की जाती थी। स्वामी जी और उस समय के अनेक विचारक इस व्यवस्था के विरोधी थे। स्वामी जी यह मानते थे कि प्राचीन काल में भारत का विदेशों के साथ बहुत सम्पर्क था और अब इस सम्पर्क के न होने से ही आर्यावर्त की अवनति हो रही है। अतः उन्होंने शुद्धि शब्द का प्रयोग इससे सर्वथा भिन्न अर्थ में ईसाई व मुसलमान धर्म स्वीकार करने वाले व्यक्तियों को अपने धर्म में पुनः दीक्षित करने वाली विधि के लिए किया।

स्वामी जी के सामने लगभग वही परिस्थितियाँ थीं, जो सिन्ध पर अरबों के आक्रमण के समय देवल मुनि के सम्मुख थीं। यदि उस समय भारत के एक प्रदेश में मुस्लिम राज्य स्थापित हुआ था, तो अब सारे देश में ईसाइयों का राज्य था। उनके प्रचारक उस समय बड़ी तेजी से सब प्रकार के आधुनिक साधनों की सहायता से हिन्दुओं में ईसाइयत का प्रचार कर रहे थे, और शासकों का उन्हें प्रबल समर्थन प्राप्त था। ऐसे समय में स्वामी दयानन्द जब पंजाब पहुँचे तो उन्हें यह नितान्त आवश्यक प्रतीत हुआ कि वे इस संकट का प्रतिकार शुद्धि द्वारा करें।

पंजाब में शुद्धि का प्रश्न स्वामी जी के सम्मुख सबसे पहले लुधियाना में आया । यहाँ अमेरिका के प्रेस्बिटीरियन मिशन की १८३४ में स्थापना हुई थी, अगले ही वर्ष उन्होंने एक हाई स्कूल की नींव डाली और यह स्थान ईसाई प्रचारकों की गतिविधि का एक प्रमुख केन्द्र बन गया। यहाँ के मिशन स्कूल में रामशरण नामक एक ब्राह्मण पढ़ाया करता था। स्वामी जी लुधियाना पहुँचे, तो वह ईसाई धर्म की दीक्षा लेने वाला था। कुछ हिन्दुओं ने स्वामी जी का ध्यान इस ओर आकर्षित किया और उनसे रामशरण के धर्मा- न्तरण को रोकने का प्रयास करने के लिए कहा। स्वामी जी ने रामशरण को अपने पास बुलाया, उसे उपदेश दिया और कुछ बातें समझाईं। इससे प्रभावित होकर रामशरण ने ईसाई मत को स्वीकार न करने का निर्णय किया।

पंजाब में स्वामी जी के सामने इस प्रकार की कई समस्याएँ आती रहीं, अतः उन्होंने इस प्रश्न पर गम्भीर विचार किया। जालन्धर में उन्होंने शुद्धि पर एक व्याख्यान दिया और एक ईसाई की शुद्धि की। खड़कसिंह नामक एक व्यक्ति ने स्वामी जी के प्रभाव से ईसाइयत का परित्याग किया। इसे अमृतसर के रेवेरैण्ड क्लार्क ने ईसाई बनाया था। ईसाई बनने से पहले यह साधु रह चुका था और ईसाइयत के बारे में उसे कई प्रकार के संदेह थे। उसने लिखा है – “इस समय मैं पुनः स्वामी दयानन्द से मिला। मैं उनसे पहले भी मिल चुका था, जबकि हम दोनों फकीर या संन्यासी थे। उन्होंने मुझे बताया कि मैंने वेदों का अर्थ ठीक ढंग से नहीं समझा है। मोक्ष पाने के लिए उन्होंने मुझे योगा- भ्यास करने को कहा। कुछ समय तक मैंने उनका अनुसरण किया, मैं आर्य बन गया और ईसाइयों ने मुझे छोड़ दिया। ""

         स्वामी जी के अमृतसर के अन्तिम निवास में उन्हें यह पता लगा कि वहाँ के मिशन स्कूल के चालीस विद्यार्थी ईसाइयत से आकर्षित हो रहे हैं। वे विधिवत् बपतिस्मा लेकर अभी तक ईसाई नहीं बने थे और अपने को बगैर बपतिस्मे वाला ईसाई कहा करते थे। उन्होंने 'प्रार्थना परिषद्' के नाम से अपना एक संगठन भी बना रखा था। स्वामी जी के प्रचार का ईसाई बनने की आकांक्षा रखने वाले इन युवकों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उनके विचारों में परिवर्तन आने लगा। इससे वहाँ के पादरी रैवरैण्ड बेयरिंग को बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने स्वामी जी के प्रचार के प्रभाव का निराकरण करने के लिए १२ वर्ष से ईसाई बने हुए पंडित खानसिंह के साथ स्वामी दयानन्द का शास्त्रार्थं कराने का निश्चय किया। किन्तु जब खानसिंह स्वामी दयानन्द से मिला तो उनसे इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने ईसाइयत को तिलांजलि दे दी। वह पुनः हिन्दू हुआ, और स्वामी जी का अनुयायी बन गया। रैवरैण्ड बेयरिंग के लिए यह स्थिति असह्य थी। स्वामी जी के प्रचार का प्रतिकार करने के लिए उन्होंने कलकत्ता के एक सुप्रसिद्ध ईसाई प्रचारक रैवरण्ड के० एन० बैनर्जी को बुलाकर शास्त्रार्थ कराने का निश्चय किया। अपनी कन्या की बीमारी के कारण श्री बेनर्जी कलकत्ता से नहीं आ सके। इस समय कुछ अन्य ईसाइयों ने भी ईसाइयत का परित्याग किया और शुद्ध होकर पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित हुए।

पंजाब में एक अन्य घटना ने भी स्वामी जी के शुद्धि के विचार को पुष्ट एवं प्रोत्साहित किया। पंजाब की यात्रा के समय ही स्वामी दयानन्द को अमरीका से थियोसो- फिस्टों का पहला पत्र मिला, जिसमें उन्होंने लिखा था कि पश्चिमी जगत् के अनेक ईसाई ईसाइयत से संतुष्ट नहीं हैं, और वे अपनी धर्मपिपासा को शान्त करने के लिए भारतीय धर्मों की ओर उन्मुख हो रहे हैं। जोर्डन्स के मतानुसार इससे भी स्वामी जी को ईसाइयों को हिन्दू धर्म में लाने की प्रेरणा मिली होगी।'

शुद्धि के सम्बन्ध में आर्यसमाज की ब्रह्मसमाज के साथ तुलना बड़ी रोचक है। ब्रह्मसमाजी नेताओं के सामने भी हिन्दुओं के ईसाई बनने की समस्या आई, किन्तु उन्होंने इस प्रश्न पर न तो कोई मौलिक चिन्तन किया, न ही इसका कोई समाधान ढूँढ़ा। इसके प्रतिकार के जो उपाय उन्होंने किए, वे प्रभावशाली सिद्ध नहीं हुए । १८३० में सुप्रसिद्ध स्काट मिशनरी एलेक्जेण्डर डफ कलकत्ता आए। उन्होंने अपना मिशन स्कूल खोला। उन दिनों अंग्रेजी की शिक्षा की बड़ी माँग होते हुए भी ईसाई पादरियों के प्रति बंगालियों में इतना अधिक अविश्वास था कि डफ राजा राममोहन राय की सहायता से ही अपना स्कूल खोलने में समर्थ हुए, और शुरू में बड़ी मुश्किल से उन्हें छह विद्यार्थी प्राप्त हुए।

१८४५ में इस स्कूल में पढ़ने वाले एक विद्यार्थी उमेश चन्द्र सरकार ने अपनी पत्नी सहित ईसाई धर्म स्वीकार किया। इससे उस समय कलकत्ता में बड़ी सनसनी फैल गई। उस समय ब्रह्मसमाज के नेता देवेन्द्रनाथ ठाकुर थे और इन्हीं के परिवार की देख- रेख में चलने वाले यूनियन बैंक में उमेश के पिता कार्य करते थे । देवेन्द्रनाथ ने कलकत्ता के प्रमुख हिन्दुओं को ईसाइयत के संकट का मुकाबला करने के लिए संगठित किया। डा० डफ के स्कूल के विरोध में एक आन्दोलन चलाया गया। श्री देवेन्द्रनाथ ठाकुर के आह्वान पर बुलाई गई एक बैठक में कलकत्ता के प्रमुख हिन्दू एकत्र हुए। इसमें ईसाइयत के खतरे को रोकने के लिए एक स्कूल खोलने के उद्देश्य से बत्तीस हजार रुपयों का चन्दा एकत्र किया गया। इसमें दस हजार रु० की धन राशि कलकत्ता के लखपति बाबू आशुतोष देव ने दी थी। इस धनराशि से हिन्दू विद्यार्थी विद्यालय की स्थापना की गई। देवेन्द्रनाथ ठाकुर और हरिमोहन सेन इस विद्यालय का प्रबन्ध करने वाले मन्त्री बनाए गए। किन्तु कुछ वर्ष बाद ही यह स्कूल बन्द हो गया, क्योंकि इसकी धनराशि जिस व्यापारी घराने में जमा थी वह दिवालिया हो गया।"

इस घटना की तुलना जब हम लुधियाना के मिशन स्कूल में पढ़ने वाले रामशरण की घटना से करते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि देवेन्द्रनाथ ठाकुर और स्वामी दयानन्द के दृष्टिकोण में मौलिक अन्तर था। स्वामी जी ने रामशरण को उपदेश देकर समझाया था और ईसाई बनने वाले हिन्दुओं को पुनः अपने धर्म में लाने के लिए शुद्धि की नवीन विधि का आविष्कार किया था। इस तरह की कोई व्यवस्था ब्रह्मसमाज के नेता नहीं कर सके, इसीलिए वे ईसाइयत के संकट का सामना करने में असमर्थ रहे ।

शुद्धि का जो कार्य स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पंजाब में प्रारम्भ किया था, वह निरन्तर आगे बढ़ता गया। उसी के कारण देहरादून के एक प्रसिद्ध सम्पन्न परिवार के दो पुत्रों को ईसाई होने से बचाया जा सका। देहरादून आर्यसमाज की स्थापना का विवरण देते हुए इस तथ्य का उल्लेख किया जा चुका है। जब महर्षि देहरादून में धर्म- प्रचार कर रहे थे, (एप्रिल, १८७९), जन्म का एक मुसलमान भी उनके उपदेश सुनने के लिए आया करता था। इसका नाम मोहम्मद उमर था। वह सहारनपुर का निवासी था, पर ठेकेदारी के लिए देहरादून रह रहा था। महर्षि के प्रवचनों से वह इतना प्रभावित हुआ, कि उसने वैदिक धर्म में दीक्षित होने की इच्छा प्रकट की। उसे शुद्ध करके हिन्दू (आर्य) बना लिया गया, और उसका नया नाम अलखधारी रखा गया । यह कहा जाता है कि मोहम्मद उमर की शुद्धि स्वयं महर्षि ने की थी। सदियों के बाद यह पहला अवसर था, जब किसी जन्म से मुसलमान के लिए वैदिक धर्मी व आर्य बन जाने का मार्ग खोल दिया गया था। महर्षि की प्रतिभा व प्रयत्न से आर्य धर्म में उस शक्ति का संचार होना प्रारम्भ हो गया था, जिसके कारण प्राचीन समय में कितनी ही विदेशी व विधर्मी जातियों को आर्य बना लिया गया था।

महर्षि के जीवन काल में कितने ही अन्य विधर्मी स्त्री-पुरुषों को शुद्धि द्वारा आर्य समाज में सम्मिलित किया गया। ऐसी एक शुद्धि अजमेर में की गई थी, जिसके कारण एक ईसाई महिला ने अपने दो बच्चों के साथ वैदिक धर्म को स्वीकार कर लिया था। अजमेर आर्यसमाज के मन्त्री पण्डित कमलनयन शर्मा ने ३१ अगस्त १८८३ को इस शुद्धि के सम्बन्ध में महर्षि को एक पत्र लिखा था, जिसमें यह सूचित किया गया था, कि २६ अगस्त को रक्षाबन्धन के अवसर पर सरदार भगतसिंह तथा पण्डित भागराम सदृश बहुत-से प्रतिष्ठित सज्जनों की उपस्थिति में इस ईसाई महिला ने वैदिक धर्म स्वीकार किया, जिससे सब लोग बहुत प्रसन्न हुए। अपने अगले पत्र में पण्डित कमलनयन शर्मा ने महर्षि को यह भी लिखा था, कि "इस स्त्री के वेदमत स्वीकार करने से यहाँ के ईसाइयों में बड़ी हलचल मच रही है, और ईसाई मत में उन्हीं को शंका उत्पन्न होने लग गई है। आशा है कि वर्ष दिन के भीतर पीर भी कितनेक ईसाई मनुष्य और स्त्रियां वेदमत को स्वीकार करेंगे।” (मुंशीराम ऋषि दयानन्द का पत्रव्यवहार, पृ० १६६) ।

          महर्षि द्वारा विधर्मियों को आर्य धर्म में दीक्षित कर लेने की बात इतनी प्रसिद्ध हो गई थी, कि सन् १८७६ के कुम्भ के अवसर पर जब वे हरिद्वार गये, तो उमंद खाँ नाम के एक मुसलमान ने उनसे प्रश्न किया कि क्या यह सच है कि आप मुसलमानों को भी आर्य बना लेते हैं। इस पर महर्षि ने कहा-आर्य के अर्थ श्रेष्ठ और सत्य मार्ग पर चलने वाले के हैं । अतः जब आप सत्य धर्म को ग्रहण करेंगे तो आर्य ही कहे जाएँगे । वस्तुतः, महर्षि ने वैदिक धर्म का द्वार सबके लिए खोल दिया था, और बहुत-से विधर्मियों ने उसमें प्रवेश करना प्रारम्भ भी कर दिया था। पर यह स्वीकार करना होगा, कि अभी हिन्दुओं के मज्जातन्तुगत संस्कारों तथा बद्धमूल धारणाओं में इतना परिवर्तन नहीं पाया था, जिससे कि वे मुसलमानों तथा ईसाइयों को सुगमता से आत्मसात् कर सकें। इसके लिए समय तथा निरन्तर प्रयत्न की अपेक्षा थी। पर यह स्पष्ट है कि शुद्धि द्वारा महर्षि ने हिन्दुओं के हाथों में एक ऐसा साधन प्रदान कर दिया है, जिसका उपयोग कर वे अपनी शक्ति में वृद्धि कर सकते हैं ।

लेखक - डॉ सत्यकेतु विद्यालंकार
पुस्तक - आर्यसमाज का इतिहास - 1
प्रस्तुति - अमित सिवाहा

Saturday, December 10, 2022

प्रफुल्ल चाकी.

सन १८८८ में आज १० दिसम्बर के दिन जन्मे क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। प्रफुल्ल का जन्म उत्तरी बंगाल के बोगरा गाँव (अब बांग्लादेश में स्थित) में हुआ था। जब प्रफुल्ल
 दो वर्ष के थे तभी उनके पिता जी का निधन हो गया। उनकी माता ने अत्यंत कठिनाई से प्रफुल्ल का पालन पोषण किया। विद्यार्थी जीवन में ही प्रफुल्ल का परिचय स्वामी महेश्वरानंद द्वारा स्थापित गुप्त क्रांतिकारी संगठन से हुआ और उनके अन्दर देश को स्वतंत्र कराने की भावना बलवती हो गई। इतिहासकार भास्कर मजुमदार के अनुसार प्रफुल्ल चाकी राष्ट्रवादियों के दमन के लिए बंगाल सरकार के कार्लाइस सर्कुलर के विरोध में चलाए गए छात्र आंदोलन की उपज थे। पूर्वी बंगाल में छात्र आंदोलन में उनके योगदान को देखते हुए क्रांतिकारी बारीद्र घोष उन्हें कोलकाता ले आए जहाँ उनका सम्पर्क क्रांतिकारियों की युगांतर पार्टी से हुआ। उन्हें पहला महत्वपूर्ण काम अंग्रेज सेना अधिकारी सर जोसेफ बैंफलाइड फुलर को मारने का दिया गया पर यह योजना कुछ कारणों से सफल नहीं हुई।
 क्रांतिकारियों को अपमानित करने और उन्हें दण्ड देने के लिए कुख्यात कोलकाता के चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को जब क्रांतिकारियों ने जान से मार डालने का निर्णय लिया तो यह कार्य प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को सौंपा गया। दोनों क्रांतिकारी इस उद्देश्य से मुजफ्फरपुर पहुंचे जहाँ ब्रिटिश सरकार ने किंग्सफोर्ड के प्रति जनता के आक्रोश को भाँप कर उसकी सरक्षा की दृष्टि से उसे सेशन जज बनाकर भेज दिया था। दोनों ने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का बारीकी से अध्ययन किया एवं ३० अप्रैल १९०८ ई० को किंग्सफोर्ड पर उस समय बम फेंक दिया जब वह बग्घी पर सवार होकर यूरोपियन क्लब से बाहर निकल रहा था। लेकिन जिस बग्घी पर बम फेंका गया था उस पर किंग्सफोर्ड नहीं था बल्कि बग्घी पर दो यूरोपियन महिलाएँ सवार थीं। वे दोनों इस हमले में मारी गईं। 
दोनों क्रन्तिकारी घटनास्थल से भाग निकले परन्तु मोकामा स्टेशन पर चाकी को पुलिस ने घेर लिया| उन्होंने अपनी रिवाल्वर से अपने ऊपर गोली चलाकर अपनी जान दे दी। यह घटना १ मई, १९०८ की है। बिहार के मोकामा स्टेशन के पास प्रफुल्ल चाकी की मौत के बाद पुलिस उपनिरीक्षक एनएन बनर्जी ने चाकी का सिर काट कर उसे सबूत के तौर पर मुजफ्फरपुर की अदालत में पेश किया। यह अंग्रेज शासन की जघन्यतम घटनाओं में शामिल है। चाकी का बलिदान जाने कितने ही युवकों का प्रेरणाश्रोत बना और उसी राह पर चलकर अनगिनत युवाओं ने मातृभूमि की बलिवेदी पर खुद को होम कर दिया| 

महान हुतात्मा को आज उनके जन्मदिवस पर कोटिशः नमन|

पेरियार जैसों को नास्तिक समझने की भूल.

पिछले साल लॉकडाउन के समय कुछ बेहद पुरानी किताबें पढ़ने का समय मिला। उसी में एक पिछले सदी के महान दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति की बुक थी। 

बताते चलें जे कृष्णमूर्ति पिछले सदी के एक महान अज्ञेयवादी दार्शनिक थे, अज्ञेयवादी बहुत सारे विषय पर निश्चित निष्कर्ष नहीं निकालते क्योंकि उन्हें निश्चित रूप से सिद्ध करना कठिन होता होता है, ईश्वर भी उनके लिए एक ऐसा ही विषय है। 

खैर मूल विषय पर आते हैं तो उनके बुक में एक चैप्टर था – (नास्तिक और विक्षिप्त मनोरोगी में अंतर)

कृष्णमूर्ति ने अपनी किताब में बताया कि एक बार दक्षिण भारत के कुछ लोग जो एक राजनीतिक मूवमेंट से जुड़े हुए थे संभवतः वह पेरियारवादियों की ओर ही इशारा कर रहे थे।

उन्होंने कहा कि एक बार उसी पॉलीटिकल मूवमेंट से जुड़े एक व्यक्ति उनके पास आया और जे कृष्णमूर्ति से पूछा कि आप ईश्वर पर  विश्वास करते हैं तो जे कृष्णमूर्ति ने कहा नहीं।

जे कृष्णमूर्ति का जवाब सुनते ही वह व्यक्ति उग्र होकर देवी देवताओं को गाली देने लगा।

अब जे कृष्णमूर्ति ने उस व्यक्ति से कहा कि वास्तव में आप नास्तिक नहीं एक  विक्षिप्त मनोरोगी हैं, क्योंकि अगर आप ईश्वर को मान ही नहीं रहे हैं, आप राम कृष्ण के अस्तित्व को मानते ही नहीं हैं तो आप राम और कृष्ण से नफरत कैसे कर सकते हैं।

मतलब कि क्या कोई व्यक्ति काल्पनिक चरित्रों से नफरत कर सकता है। 

फिर इसके बाद जे कृष्णमूर्ति ने कहा कि एक तरफ तो आपको धर्म ग्रंथों पर विश्वास ही नहीं है... लेकिन अपनी मन की भड़ास निकालने के लिए उन्ही धर्म ग्रंथों का संदर्भ विशेष में प्रयोग भी करते हैं!

फिर इतना समझने के बाद मुझे वास्तव में नास्तिक और मनोरोगी के बीच में अंतर समझ में आने लगा कि कौन व्यक्ति वास्तव में नास्तिक है और कौन बस हिंदू विरोधी कुंठा का शिकार है!

संपूर्ण बातों का यह सार था कि पेरियार जैसे लोग वास्तव में नास्तिक नहीं –  यह विक्षिप्त मनोरोगी हैं!... क्योंकि अगर राम, कृष्ण का अस्तित्व ही नहीं मानते तो राम और कृष्ण से इन्हें नफरत कैसे हो सकती है!... क्योंकि काल्पनिक चरित्र से किसी को नफरत तो हो ही नहीं सकती!! 

किताब में आगे जे कृष्णमूर्ति ने यह भी कहा कि आप लोग जब धर्म ग्रंथों पर विश्वास ही नहीं करते तो उन्हें धर्म ग्रंथों के कुछ प्रसंगों का प्रयोग अपने मन की भड़ास निकालने के लिए कैसे कर सकते हैं!

पेरियार ने जो रामायण के नाम पर एक किताब लिखी थी उसमें भी उसने वही किया था। एक तरफ वह कहता था कि हिंदू धर्म ग्रंथ पाखंड है, मनगढ़ंत है लेकिन अपने मन की भड़ास निकालने के लिए उनके संदर्भ विशेष के प्रसंगों का प्रयोग जरूर किया!

कुल मिलाकर जे कृष्णमूर्ति की किताब पढ़ने के बाद मुझे समझ में आया कि वास्तव में हम जिन्हें कई बार नास्तिक समझते हैं वह वास्तव में मनोरोगी लोगों का समूह है!... जो अपनी कुंठा को शांत करने के लिए बस अपने को नास्तिक दिखाता है! लेकिन वह एक मनोरोगी है जिनका स्थान केवल पागलखाना है।।

क्योंकि कृष्णमूर्ति के तर्क अकाट्य थे कि कोई व्यक्ति कभी काल्पनिक चरित्रों से नफरत कर ही नहीं सकता! अगर नफरत कर रहा है तो वह कोई नास्तिक नहीं बल्कि कुंठित और मनोरोगी है!!

फोटो विक्षिप्त मनोरोगी पेरियार की जिसमें वह भगवान गणेश की प्रतिमा तोड़ रहा है....

#मानसिक_दिव्यांग_सनातन_धर्म_द्वेषी_शैतान

साभार

Sunday, December 4, 2022

BHOPAL Gas Tragedy and Rajiv Gandhi.

BHOPAL Gas Tragedy and Rajiv Gandhi every child shoul know

2 और 3 दिसंबर के बीच की वह काली रात मुझे आज भी याद है। साल था 1984. 

भोपाल में स्थित यूनियन कार्बाइड की केमिकल फैक्टरी से मिथाइल आइसोसायनेट नामक ज़हरीली गैस लीक हुई और इसने भोपाल की हवा में ज़हर घोल दिया। और उसके बाद जो हुआ वो दिल दहला देने वाला था। 25,000 लोग मारे गए और 90,000 से भी ज़्यादा इससे बुरी तरह प्रभावित हुए। नस्लें तबाह हो गईं। आज भी उन इलाकों में जन्म लेने वाले बच्चों में बड़ी संख्या में शारीरिक और मानसिक विकृति पाई जाती है।

इस चित्र में एक महिला सड़क पर अपने बच्चे के साथ मृत पड़ी हुई है। कितना मार्मिक दृश्य है यह!

हज़ारों लोगों की जानें गईं, यह अत्यंत दुःखद है। पर इससे भी दुःखद बात यह है कि उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री से मिल कर इस man-made disaster के मुख्य अभियुक्त वारेन एंडरसन को भारत से भगवा दिया। जानते हैं क्यों?

अपने पारिवारिक मित्र मोहम्मद यूनुस के बेटे और अपने घनिष्ठ मित्र आदिल शहरयार की अमेरिकी जेल से रिहाई सुनिश्चित करने के लिए। आदिल को फ्रॉड के विभिन्न मामलों में एक अमेरिकी कोर्ट ने 1981 में पैंतीस साल की जेल की सज़ा सुनाई थी और वह फ्लोरिडा जेल में अपनी सज़ा काट रहा था। 

भोपाल गैस दुर्घटना में राजीव गाँधी ने अपने मित्र को रिहा करने का एक अवसर देखा। और आदिल शहरयार की रिहाई के बदले भोपाल के हजारों लोगों की मौत के ज़िम्मेदार और भारत के गुनहगार अमेरिकी वारेन एंडरसन को रातों-रात भारत से भगवा दिया। 

7 दिसंबर 1984 को मध्यप्रदेश सरकार की निगरानी में भोपाल से एक विशेष विमान में वारेन एंडरसन को उड़ा कर दिल्ली लाया गया जहाँ से राजीव गाँधी ने उसे अमेरिका भेजने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। जिस विमान से एंडरसन को भोपाल से दिल्ली लाया गया उसके चालक सैयद हाफ़िज़ अली ने स्वयं यह बात स्वीकार की है।

ये होता है देशद्रोह। ये होती है गद्दारी। 

प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने अपने दोस्त को बचाने के लिए पूरे देश के साथ गद्दारी की। यह बात राहुल गाँधी को पता है। और इसीलिए वह कभी भी भोपाल गैस कांड के ऊपर एक शब्द नहीं बोलता। आज भी नहीं बोला क्योंकि उसे पता है कि उसके पिता ने इस दुर्घटना के जिम्मेदार वारेन एंडरसन को देश से भगवाया।

राजीव गाँधी गद्दार था। यह बात इस देश के बच्चे-बच्चे को पता होनी ही चाहिये। भारत जोड़ो यात्रा कर के राहुल गाँधी अपने पिता के कुकर्मो पर पर्दा नहीं डाल सकता।

Saturday, December 3, 2022

नंगेली - केरल.

*नंगेली का नाम केरल के बाहर शायद किसी ने न सुना हो. किसी स्कूल के इतिहास की किताब में उनका ज़िक्र या कोई तस्वीर भी नहीं मिलेगी।*

*लेकिन उनके साहस की मिसाल ऐसी है कि एक बार जानने पर कभी नहीं भूलेंगे, क्योंकि नंगेली ने स्तन ढकने के अधिकार के लिए अपने ही स्तन काट दिए थे।*

*केरल के इतिहास के पन्नों में छिपी ये लगभग सौ से डेढ़ सौ साल पुरानी कहानी उस समय की है जब केरल के बड़े भाग में ब्राह्मण त्रावणकोर के राजा का शासन था।*

*जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी थीं और निचली जातियों की महिलाओं को उनके स्तन न ढकने का आदेश था। उल्लंघन करने पर उन्हें 'ब्रेस्ट टैक्स' यानी 'स्तन कर' देना पड़ता था।*

*केरल के श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय में जेंडर इकॉलॉजी और दलित स्टडीज़ की एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. शीबा केएम बताती हैं कि ये वो समय था जब पहनावे के कायदे ऐसे थे कि एक व्यक्ति को देखते ही उसकी जाति की पहचान की जा सकती थी।*

*डॉ. शीबा कहती हैं, "ब्रेस्ट टैक्स का मक़सद जातिवाद के ढांचे को बनाए रखना था. ये एक तरह से एक औरत के निचली जाति से होने की कीमत थी. इस कर को बार-बार अदा कर पाना इन ग़रीब समुदायों के लिए मुमकिन नहीं था।"।*

*केरल के हिंदुओं में जाति के ढांचे में नायर जाति को शूद्र माना जाता था जिनसे निचले स्तर पर एड़वा और फिर दलित समुदायों को रखा जाता था।*

*"कर मांगने आए अधिकारी ने जब नंगेली की बात को नहीं माना तो नंगेली ने अपने स्तन ख़ुद काटकर उसके सामने रख दिए।"*

*लेकिन इस साहस के बाद ख़ून ज़्यादा बहने से नंगेली की मौत हो गई. बताया जाता है कि नंगेली के दाह संस्कार के दौरान उनके पति ने भी अग्नि में कूदकर अपनी जान दे दी।*

*"उन्होंने अपने लिए नहीं बल्कि सारी औरतों के लिए ये कदम उठाया था"* 

*नंगेली आपकी अमर गाथा लिखी जाएगी सुनहरे अक्षरो मे मनुवाद और ब्राह्मणवाद का यह ऐसा कर्कश दृश्य था कि एक औरत को उसकी जाती के आधार पर उसके स्तन तक को न ढकने दिया हो। सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते है।*

*नोट - ये कुप्रथा महान टीपूँ सुल्तान ने बंद करवाई थी।*

  जय भीम जय जोहार

Friday, November 25, 2022

लव जिहाद.

कणिष्क कुन्दन 💐

सुनील दत्त ने नर्गिस से,

आदित्य पंचोली ने ज़रीना
वहाब से,

सचिन पायलट ने
सारा अब्दुल्लाह से,

मनोज वाजपेयी ने
शबाना रज़ा(नेहा)से,

शिरीष कुंदर ने
फराह खान से,

क्रिकेटर अजीत आगरकर
ने फातिमा घड़ियाली से,

सुनील शेट्टी ने
माना क़ादरी से,

अतुल अग्निहोत्री ने
सलमान खान की बहन
अलवीरा खान से,

शशि रेखी ने
वहीदा रहमान से,

राज बब्बर ने
नादिरा ज़हिर से,

मयूर वाधवानी ने
एक्ट्रेस मुमताज़ से,

राजीव रॉय ने एक्टर
रज़ा मुराद की बेटी
बख्तावर से,

समीर नेरुरकर ने टीवी
एक्ट्रेस तस्नीम शेख से,

एक्टर टीनू आनन्द ने
जलाल आग़ा की बहन
एक्ट्रेस शहनाज़ से,

पंकज उधास ने
फरीदा से,

कुमुद मिश्रा ने एक्ट्रेस
आयशा रज़ा से,

क्रिकेटर मनोज प्रभाकर
ने फरहीन से,

कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी
ने नाज़नीन शिफ़ा से,

इन सभी ने मुस्लिम महिलाओं
से शादी की और ये सभी शादियां
अभी तक टिकी हुई हैं मतलब इन
सब ने रिश्ते को ईमानदारी
से निभाया भी,मतलब इन्होंने
"प्रेम" के नाम पर प्रेम ही की है
क्योंकि ये सब हिन्दू थे इसलिए। 

और
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आमिर खान ने
रीना दत्ता के साथ,

सैफ अली खान ने
अमृता सिंह के साथ,

अरबाज़ खान ने
मलाइका अरोरा के साथ,

मोहसिन खान ने
रीना रॉय के साथ,

अज़हरुद्दीन ने
संगीता बिजलानी के साथ,

फ़रहान अख्तर ने
अधुना के साथ,

ओमर अब्दुल्लाह ने
पायल नाथ के साथ,

इन सभी ने काफ़िर औरतो
से निकाह किया और उनकी
जवानी के मज़ा लेने के बाद
बुढ़ापे के क़रीब क़रीब छोड़
दिया,
मतलब इन सभी ने जो भी किया
प्रेम के नाम पर ही किया था... 
यही है "#लव_जिहाद"😢
सोचना आपको है।

(चित्र मनोज बाजपेयी और उनकी
पत्नी अभिनेत्री नेहा(शबाना रजा)

जयश्रीराम💐

Thursday, November 17, 2022

शाकाहार और मांसाहार।

1. “लोग हमेशा से मांस खाते आए हैं और खाते रहेंगे।”

माफ़ कीजिए...! यह सत्य नहीं है। मानव इतिहास में कई संस्कृतियाँ मांसाहार से परहेज करती हैं। वैदिक मान्यता के अनुसार जीने वाले प्राचीन भारतीय मांस नहीं खाते थे।   कुछ चीजें बीते समय में होती थी तो इसका मतलब यह नहीं कि हम उसे जारी रखें। कल तक TB जानलेवा थी। आज नहीं। तो क्या आज भी इसका इलाज ना करवाएँ?

2. “अकेले मेरे  मांसाहार छोड़ने से कुछ नहीं बदलेगा।”

फ़र्क पड़ता है। 1 परिवार  कम से कम 30 पशुओं को  हर साल बचा सकता  हैं। सिर्फ़ अमेरिका में लोगों ने पाँच साल पहले के मुकाबले पिछले साल कोई 400 कम जानवर खाए। और ऐसा ही भारत में भी हो रहा है। समय बदल रहा है।  

3. “हमें प्रोटीन के लिये मांस खाना चाहिये।”

नहीं, ऐसा जरूरी नहीं है। प्रोटीन वनस्पतीय भोजन में भी प्रचुरता से भरे होते हैं। बीन्स (सेमफ़ली), मेवा से टोफ़ू और गेहूँ.... आपको पर्याप्त प्रोटीन प्राप्त करने के लिये मांसाहार की जरूरत नहीं है। यह एक मिथक है। । यदि मांस और प्रोटीन से ही स्वास्थ्य होता तो -- अमेरिका मे 62% मोटे ना होते। पाकिस्तान मे दुनिया की सबसे अधिक जेनिटिक बीमारी नहीं होती।

4. “फ़ार्म में पशुओं के साथ मानवीय व्यवहार होता है।”

दूर-दूर तक नहीं। खाने के लिये पाले जाने वाले पशुओं में 95 प्रतिशत से अधिक फ़ैक्ट्री फ़ार्म में घोर कष्टमय जीवन जीते हैं। गंदे, तंग केज में खचाखच ठूँसे हुए, बिना दर्दनिबारक के अंग-भंग की पीड़ा सहने को मजबूर, और निर्दयतापूर्वक बध किये जाते हैं। यकीन नहीं होता ? तो youtyube   पर टर्की पक्षी के पंख हटाने की प्रक्रिया देखिए। इतना ही नही फार्महाउस पर पशुओं और पक्षियों को बड़ी मात्रा मे अंटीबायोटिक व कृमिनाशक दवाई दी  जाती है। यह दवाइया मांस के साथ अल्प मात्रा मे हमारे शरीर मे पहुँचती है। मानव शरीर मे जीवाणु इन दवाइयों के प्रति प्रतिरोध उत्पन्न कर लेते हैं। इससे हमारी बीमारी आदिक जटिल होती जा रही हैं। 

5. “मुझे शाकाहारी आहार पसंद नहीं है।”

तो क्या आपको फ़्रेंच-फ़्राइज और पास्ता पसंद नहीं है? डोसा,-चटनी और ढोकला के बारे में क्या ख्याल है? मिठाइयाँ सभी पसंद करते हैं। आप अक्सर शाकाहारी भोजन खाते हैं और पसंद भी करते हैं लेकिन सिर्फ़ कहते नहीं है।

6. “शाकाहारी या वीगन होना अस्वास्थ्यकर है।”
यदि मांसाहारी स्वस्थ होते तो पाकिस्तान ब्ंग्लादेश मे 100 % स्वस्थ होते  शाकाहारी प्रदेश हरियाणा के लोग मांसाहारी बंगाल से अधिक स्वस्थ हैं। 

7. “एथलीट्स को मजबूत होने के लिये मीट खाने की जरूरत होती है।”
सुशील कुमार ( ओलंपिक पदक विजेता शाकाहारी है। मांसाहारी देश जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश, सोमालिया, सऊदी अर्ब, ईरान, ईराक  आदि ओलंपिक सूची मे कहाँ हैं? पीडीके जीने के कारण अलग हैं।  

8. “मेरे शरीर को मीट की जरूरत है।”

नहीं, कोई जरूरत नहीं है। नंबर 6 फिर से पढ़िये। आपका शरीर इसके बिना कहीं ज़्यादा अच्छा रहेगा।

9. “मांसाहार छोड़ दिया तो पूरे पृथ्वी पर मुर्गी और बकरी  ही  होंगी।”

सच में? इसे कहा जाता है माँग और आपूर्ति। अगर लोग मांस खाना छोड़ देंगे तो फ़ार्मर्स पशुओं की ब्रीडिंग करना छोड़ देंगे। बात खत्म।

10. “पूरी दुनियाँ को खिलाने का एक मात्र उपाय फ़ैक्ट्री फ़ार्मिंग ही है।"

एक मिनट..! फ़ैक्ट्री फ़ार्मिंग न केवल जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण है बल्कि इससे भारी बर्बादी भी होती है। एक किलो मांस  के उत्पादन के लिये 16 किलो  अनाज लगता है। जरा सोचिये...! उन अनाज से कितने लोगों का पेट भर सकता है।

ओ३म्।

जब भी कोई  #चोटी और #जनेऊ को देखता है तो उनके मन में एक धारणा होती है कि ये #ब्राह्मण है!
और कई तो पूछ भी लेते है कि आप ब्राह्मण हो क्या?

लेकिन उन्हें जब पता चलता है कि ये #जाट #रोड़ #गुर्जर #सैनि #यदुवंशी #बनिया #छत्रिय #वाल्मीकि #वनवासी तो वो पूछते है दूसरे कास्ट होकर #चोटी क्यों रखते हो?

अब यहाँ एक सवाल खड़ा होता है!

 क्या आप कभी किसी #सरदार_जी से पूछते हो कि #पगड़ी क्यो बांधते हो?

किसी #मौलाना_जी से पूछते हो #टोपी क्यों पहनते हो?

किसी #ईसाई से पूछते हो यीशु का #लोकेट क्यों पहनते हो?

सोच विचार कर देखिए आज कितने #हिन्दू चोटी रखते है?
कितने #जनेऊ पहनते है?

कितने #वेद,#शास्त्र,#उपनिषद,#दर्शन,#रामायण,#महाभारत, #सत्यार्थ_प्रकाश #गीता आदि ग्रन्थ पढ़ते है?

हमारे #पतन का कारण हम स्वयं है!
समाज में मुश्किल से कुछ प्रतिशत लोग है जो अपनी पहचान बनाए हुए है! उन्हें भी लोग अलग ही नजरिए से देखते है!

किसी अन्य को दोष देने से बेहतर है अपने आप मे सुधार करें, अपनी आने वाली पीढ़ी को संस्कारित करें,उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाए अपने धर्म और संस्कृति को और ज्यादा गहराई से जानने के लिए अपने आस पास के मंदिरों में जाए वहां होने वाली गतिविधियों में भाग ले और अपने श्रेष्ठ ऋषियों महर्षियो की विद्या यानी #वेद_विद्या को जानकर अपनी महान सनातन संस्कृति को अपनाए।

Wednesday, November 16, 2022

ये एक ट्रेनिंग हैं।

और आप आज तक समझ नहीं पाए...! 
बकरी ईद से पहले परिवार करीब 10 दिनों तक बकरी/बकरे को रखता है। 

इस समय के दौरान, वे इसे खिलाते हैं, इसे नहलाते हैं, इसके साथ खेलते हैं  और लगभग एक बच्चे की तरह इसकी देखभाल करते हैं। 

घर के बच्चे इसके प्रति बहुत स्नेही हो जाते हैं। 
फिर एक सुबह बकरी को #हलाल किया जाता है। 
बच्चों की आंखों के ठीक सामने। 

बच्चे शुरू में क्रोधित, उन्मादी और उदास हो जाते थे लेकिन अंततः उन्हें इसकी आदत हो जाती है। 

यह प्रक्रिया 1 से 18 वर्ष की आयु के बच्चे पर हर साल दोहराई जाती है। 

जब वे 18 वर्ष के होते हैं, तब तक वे जान जाते हैं कि #Islam के लिए जीवन की सबसे प्रिय वस्तु की भी कुर्बानी दी जाती है। यहां तक ​​कि जिस बकरे को आप पाल रहे थे और जिसे प्यार से पाल-पोस कर आपने बड़ा किया वो भी मायने नहीं रखता। 

इसलिए जब वे आपसे दोस्ती करते हैं, आपके लिए मददगार होते हैं, आपको भाई-बहन कहते हैं, और आपके करीब हो जाते हैं.....

#याद_रखें ..... 
कि उन्होंने बचपन से हर साल इस कला का अभ्यास किया है। 

आप बकरी से अलग नहीं हैं। 

#तुम्हारा  .....अब्दुल अलग नहीं है, वो एक प्रशिक्षित #कसाई है....!

Sunday, November 13, 2022

पुराने जमाने का Hand Sanitizer !

भारतीय रसोई के चूल्हे की राख में ऐसा क्या था कि, वह पुराने जमाने का Hand Sanitizer थी ...?

उस समय Hand Sanitizer नहीं हुआ करते थे, तथा साबुन भी दुर्लभ वस्तुओं की श्रेणी आता था। उस समय हाथ धोने के लिए जो सर्वसुलभ वस्तु थी, वह थी चूल्हे की राख। जो बनती थी लकड़ी तथा गोबर के कण्डों के जलाये जाने से। चूल्हे की राख का रासायनिक संगठन है ही कुछ ऐसा ।
आइये चूल्हे की राख का वैज्ञानिक विश्लेषण करें। इस राख में वो सभी तत्व पाए जाते हैं, वे पौधों में भी उपलब्ध होते हैं। इसके सभी Major तथा Minor Elements पौधे या तो मिट्टी से ग्रहण करते हैं या फिर वातावरण से। इसमें सबसे अधिक मात्रा में होता है Calcium.

इसके अलावा होता है Potassium, Aluminium, Magnesium, Iron, Phosphorus, Manganese, Sodium तथा Nitrogen. कुछ मात्रा में Zinc, Boron, Copper, Lead, Chromium, Nickel, Molybdenum, Arsenic, Cadmium, Mercury तथा Selenium भी होता है ।
राख में मौजूद Calcium तथा Potassium के कारण इसकी ph क्षमता ९.० से १३.५ तक होती है। इसी ph के कारण जब कोई व्यक्ति हाथ में राख लेकर तथा उस पर थोड़ा पानी डालकर रगड़ता है तो यह बिल्कुल वही माहौल पैदा करती है जो साबुन रगड़ने पर होता है।

जिसका परिणाम होता है जीवाणुओं और विषाणुओं का विनाश । आइये, अब मनन करें सनातन धर्म के उस तथ्य पर जिसे अब सारा संसार अपनाने पर विवश है। सनातन में मृत देह को जलाने और फिर राख को बहते पानी में अर्पित करने का प्रावधान है। मृत व्यक्ति की देह की राख को पानी में मिलाने से वह पंचतत्वों में समाहित हो जाती है ।
मृत देह को अग्नि तत्व के हवाले करते समय उसके साथ लकड़ियाँ और उपले भी जलाये जाते हैं और अंततः जो राख पैदा होती है उसे जल में प्रवाहित किया जाता है । जल में प्रवाहित की गई राख जल के लिए डिसइंफैकटैण्ट का काम करती है ।

इस राख के कारण मोस्ट प्रोबेबिल नम्बर ऑफ कोलीफॉर्म (MPN) में कमी आ जाती है और साथ ही डिजोल्वड ऑक्सीजन (DO) की मात्रा में भी बढ़ोत्तरी होती है। वैज्ञानिक अध्ययनों में यह स्पष्ट हो चुका है कि गाय के गोबर से बनी राख डिसइन्फैक्शन के लिए एक एकोफ़्रेंडली विकल्प है...
जिसका उपयोग सीवेज वाटर ट्रीटमैंट (STP) के लिए भी किया जा सकता है। सनातन का हर क्रिया कलाप विशुद्ध वैज्ञानिक अवधारणा पर आधारित है। इसलिए सनातन अपनाइए स्वस्थ रहिये ।

आपने देखा होगा कि नागा साधु अपने शरीर पर धूनी की राख मलते हैं जो कि उन्हें शुद्ध रखती है साथ ही साथ भीषण ठंडक से भी बचाये रखती है ।

जय सनातन धर्म की...!🚩🚩

कल्पना कीजिए।

इस धरती पर मनुष्य जाति से भी विकसित कोई दूसरे ग्रह की जाति हमला कर दे और वो बुद्धि में, बल में, विज्ञान में, तकनीक आदि में आपसे हजार गुना शक्तिशाली हो और आप उनके सामने वैसे ही लाचार और बेबस हो जैसे पशु आपके सामने हैं।

अब वो पूरी मनुष्य जाति को अपने जीभ के स्वाद के लिए वैसे ही काटकर खाने लगे जैसे आप पशुओं को खाते हो।
आपके बच्चों का कोमल मांस उनके रेस्त्रां में ऊंचे दामों पर बिके और आपकी आंखों के सामने आपके बच्चों को काटा जाए।
उनका स्वयं लिखित संविधान हो और उसमें ये प्रावधान हो कि मनुष्य जाति को भोजन के रूप में खाना उनका मूलभूत अधिकार है क्योंकि वो आपसे अधिक विकसित सभ्यता है और उनके संविधान में आपकी जीवेष्णा के प्रति कोई सहानुभूति न हो जैसे मनुष्य निर्मित संविधान में पशुओं के लिए नही है।

वो इस धरती पर मनुष्य जाति को काटने के लिए सुनियोजित आधुनिक बूचड़खाने खोले और मनुष्य के मांस का बन्द डिब्बों में अपने ग्रह पर निर्यात करे और उनके ग्रह के अर्थशास्त्री अपने लैपटॉप पर अंगुली चलाते हुए अखबारों में ये सम्पादकीय लिखे कि इससे हमारी अर्थव्यवस्था व जी डी पी ग्रो हो रही है।
उनके अपने कोई धार्मिक त्यौहार भी हों जहां सामुहिक रूप से मनुष्यों को जंजीरों में जकड़कर उनकी हत्या की जाए और फिर मनुष्य के मांस को एक दूसरे के प्लेट में परोसते हुए गले मिला जाए व सोशल मीडिया पर मुबारक बाद भी दिया जाए।

पूरी मनुष्य जाती पिजड़ों में बंद, चुपचाप अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करें, उसके हाथ पैर बंधे हों और आपको और आपके बच्चों व महिलाओं को सिर्फ इसलिए काटकर खाया जाए की आप बल बुद्धि में उनसे कमतर हैं।

सोचकर देखिए आपकी आत्मा कांप उठेगी और पूरी मनुष्य जाति निर्लज्जता के साथ, सदियों से पशु जाति के साथ यही करती आ रही है, और इस ब्रह्मांड में अगर कोई सबसे अनैतिक, पापी, दुराचारी, बलात्कारी,निर्लज्ज, लालची, घटिया, नीच जाति कोई है तो वह मनुष्य जाति ही है। #govegan #vegan 

Sunday, November 6, 2022

लक्ष्मण रेखा !!

 लक्ष्मण रेखा आप सभी जानते हैं पर इसका असली नाम शायद नहीं पता होगा । लक्ष्मण रेखा का नाम (सोमतिती विद्या है) 

यह भारत की प्राचीन विद्याओ में से जिसका अंतिम प्रयोग महाभारत युद्ध में हुआ था  चलिए जानते हैं अपने प्राचीन भारतीय विद्या को

#सोमतिती_विद्या--#लक्ष्मण_रेखा....

महर्षि श्रृंगी कहते हैं कि एक वेदमन्त्र है--सोमंब्रही वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति,,

यह वेदमंत्र कोड है उस सोमना कृतिक यंत्र का,, पृथ्वी और बृहस्पति के मध्य कहीं अंतरिक्ष में वह केंद्र है जहां यंत्र को स्थित किया जाता है,, वह यंत्र जल,वायु और अग्नि के परमाणुओं को अपने अंदर सोखता है,, कोड को उल्टा कर देने पर एक खास प्रकार से अग्नि और विद्युत के परमाणुओं को वापस बाहर की तरफ धकेलता है,,

जब महर्षि भारद्वाज ऋषिमुनियों के साथ भृमण करते हुए वशिष्ठ आश्रम पहुंचे तो उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा--राजकुमारों की शिक्षा दीक्षा कहाँ तक पहुंची है??महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि यह जो ब्रह्मचारी राम है-इसने आग्नेयास्त्र वरुणास्त्र ब्रह्मास्त्र का संधान करना सीख लिया है,,
 यह धनुर्वेद में पारंगत हुआ है महर्षि विश्वामित्र के द्वारा,, यह जो ब्रह्मचारी लक्ष्मण है यह एक दुर्लभ सोमतिती विद्या सीख रहा है,,उस समय पृथ्वी पर चार गुरुकुलों में वह विद्या सिखाई जाती थी,,

महर्षि विश्वामित्र के गुरुकुल में,,महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल में,, महर्षि भारद्वाज के यहां,, और उदालक गोत्र के आचार्य शिकामकेतु के गुरुकुल में,,
श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि लक्ष्मण उस विद्या में पारंगत था,, एक अन्य ब्रह्मचारी वर्णित भी उस विद्या का अच्छा जानकार था,,

सोमंब्रहि वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति--इस मंत्र को सिद्ध करने से उस सोमना कृतिक यंत्र में जिसने अग्नि के वायु के जल के परमाणु सोख लिए हैं उन परमाणुओं में फोरमैन 

आकाशीय विद्युत मिलाकर उसका पात बनाया जाता है,,फिर उस यंत्र को एक्टिवेट करें और उसकी मदद से एक लेजर बीम जैसी किरणों से उस रेखा को पृथ्वी पर गोलाकार खींच दें,,

उसके अंदर जो भी रहेगा वह सुरक्षित रहेगा,, लेकिन बाहर से अंदर अगर कोई जबर्दस्ती प्रवेश करना चाहे तो उसे अग्नि और विद्युत का ऐसा झटका लगेगा कि वहीं राख बनकर उड़ जाएगा जो भी व्यक्ति या वस्तु प्रवेश कर रहा हो,,ब्रह्मचारी लक्ष्मण इस विद्या के इतने 

जानकर हो गए थे कि कालांतर में यह विद्या सोमतिती न कहकर लक्ष्मण रेखा कहलाई जाने लगी,,

महर्षि दधीचि,, महर्षि शांडिल्य भी इस विद्या को जानते थे,
श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस विद्या को जानने वाले अंतिम थे,,

उन्होंने कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में मैदान के चारों तरफ यह रेखा खींच दी थी,, ताकि युद्ध में जितने भी भयंकर अस्त्र शस्त्र चलें उनकी अग्नि उनका ताप युद्धक्षेत्र से बाहर जाकर दूसरे प्राणियों को संतप्त न करे,,

मुगलों द्वारा करोडों करोड़ो ग्रन्थों के जलाए जाने पर और अंग्रेजों द्वारा महत्वपूर्ण ग्रन्थों को लूट लूटकर ले जाने के कारण कितनी ही अद्भुत विधाएं जो हमारे यशस्वी पूर्वजों ने खोजी थी लुप्त हो गई,,जो बचा है उसे संभालने में प्रखर बुद्धि के युवाओं को जुट जाना चाहिए, परमेश्वर सद्बुद्धि दे हम सबको.....

Friday, November 4, 2022

शिखा बन्धन (#चोटी) रखने का महत्त्व

शिखा का महत्त्व विदेशी जान गए हिन्दू भूल गए।
हिन्दू धर्म का छोटे से छोटा सिध्दांत, छोटी-से-छोटी बात भी अपनी जगह पूर्ण और कल्याणकारी हैं। छोटी सी शिखा अर्थात् चोटी भी कल्याण, विकास का साधन बनकर अपनी पूर्णता व आवश्यकता को दर्शाती हैं। शिखा का त्याग करना मानो अपने कल्याणका त्याग करना हैं। जैसे घङी के छोटे पुर्जे कीजगह बडा पुर्जा काम नहीं कर सकता क्योंकि भले वह छोटा हैं परन्तु उसकी अपनी महत्ता है। 

शिखा न रखने से हम जिस लाभ से वंचित रह जाते हैं, उसकी पूर्ति अन्य किसी साधन से नहीं हो सकती।

'हरिवंश पुराण' में एक कथा आती है हैहय व तालजंघ वंश के राजाओं ने शक, यवन, काम्बोज पारद आदि राजाओं को साथ लेकर राजा बाहू का राज्य छीन लिया। राजा बाहु अपनी पत्नी के साथ वन में चला गया। वहाँ राजा की मृत्यु हो गयी। महर्षिऔर्व ने उसकी गर्भवती पत्नी की रक्षा की और उसे अपने आश्रम में ले आये। वहाँ उसने एक पुत्र को जन्म दिया, जो आगे चलकर राजा सगर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राजासगर ने महर्षि और्व से शस्त्र और शास्त्र विद्या सीखीं। समय पाकर राजा सगरने हैहयों को मार डाला और फिर शक, यवन, काम्बोज, पारद, आदि राजाओं को भी मारने का निश्चय किया। ये शक, यवन आदि राजा महर्षि वसिष्ठ की शरण में चले गये। महर्षि वसिष्ठ ने उन्हें कुछ शर्तों पर उन्हें अभयदान दे दिया। और सगर को आज्ञा दी कि वे उनको न मारे। राजा सगर अपनी प्रतिज्ञा भी नहीं छोङ सकते थे और महर्षि वसिष्ठ जी की आज्ञा भी नहीं टाल सकते थे। अत: उन्होंने उन राजाओं का सिर शिखा सहित मुँडवाकर उनकों छोङ दिया। 

प्राचीन काल में किसीकी शिखा काट देना मृत्युदण्ड के समान माना जाता था। बङे दुख की बात हैं कि आज हिन्दु लोग अपने हाथों से अपनी शिखा काट रहे है। यह गुलामी की पहचान हैं। 
    
शिखा हिन्दुत्व की पहचान हैं। यह आपके धर्म और संस्कृतिकी रक्षक हैं। शिखा के विशेष महत्व के कारण ही हिन्दुओं ने यवन शासन के दौरान अपनी शिखा की रक्षा के लिए सिर कटवा दिये पर शिखा नहीं कटवायी।

डा॰ हाय्वमन कहते है ''मैने कई वर्ष भारत में रहकर भारतीय संस्कृति का अध्ययन किया हैं, यहाँ के निवासी बहुत काल से चोटी रखते हैं , जिसका वर्णन वेदों में भी मिलता हैं। दक्षिण भारत में तो आधे सिर पर 'गोखुर' के समान चोटी रखते हैं । उनकी बुध्दि की विलक्षणता देखकर मैं अत्यंत प्रभावित हुआ हुँ। अवश्य ही बौध्दिक विकास में चोटी बड़ी सहायता देती हैं। सिर पर चोटी रखना बढा लाभदायक हैं। मेरा तो हिन्दु धर्म में अगाध विश्वास हैं और मैं चोटी रखने का कायल हो गया हूँ । 

"प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा॰ आई॰ ई क्लार्क एम॰ डी ने कहा हैं " मैंने जबसे इस विज्ञान की खोज की हैं तब से मुझे विश्वास हो गया हैं कि हिन्दुओं का हर एक नियम विज्ञान से परिपूर्ण हैं। चोटी रखना हिन्दू धर्म ही नहीं, सुषुम्ना के केद्रों की रक्षा के लिये ऋषि-मुनियों की खोज का विलक्षण चमत्कार हैं।

"इसी प्रकार पाश्चात्य विद्वान मि॰ अर्ल थामस लिखते हैं की "सुषुम्ना की रक्षा हिन्दु लोग चोटी रखकर करते हैं जबकि अन्य देशों में लोग सिर पर लम्बे बाल रखकर या हैट पहनकर करते हैं। इन सब में चोटी रखना सबसे लाभकारी हैं। किसी भी प्रकार से सुषुम्ना की रक्षा करना जरुरी हैं।

"वास्तव में मानव-शरीर को प्रकृति ने इतना सबल बनाया हैं की वह बड़े से बड़े आघात को भी सहन करके रह जाता हैं परन्तु शरीर में कुछ ऐसे भी स्थान हैं जिन पर आघात होने से मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो सकती हैं। इन्हें मर्म-स्थान कहाजाता हैं। 

शिखा के अधोभाग में भी मर्म-स्थान होता हैं, जिसके लिये सुश्रुताचार्य ने लिखा है मस्तकाभ्यन्तरोपरिष्टात् शिरासन्धि सन्निपातो।

रोमावर्तोऽधिपतिस्तत्रपि सद्यो मरणम्।
अर्थात् मस्तक के भीतर ऊपर जहाँ बालों का आवर्त(भँवर) होता हैं, वहाँ संपूर्ण नाङियों व संधियों का मेल हैं, उसे 'अधिपतिमर्म' कहा जाता हैं। यहाँ चोट लगने से तत्काल मृत्यु हो जाती हैं(सुश्रुत संहिता शारीरस्थानम् : ६.२८)

सुषुम्ना के मूल स्थान को 'मस्तुलिंग' कहते हैं। मस्तिष्क के साथ ज्ञानेन्द्रियों कान, नाक, जीभ, आँख आदि का संबंध हैं और कामेन्द्रियों - हाथ, पैर, गुदा, इन्द्रिय आदि का संबंध मस्तुलिंग से हैं मस्तिष्क व मस्तुलिंग जितने सामर्थ्यवान होते हैं उतनी ही ज्ञानेन्द्रियों और कामेन्द्रियों - की शक्ति बढती हैं। मस्तिष्क ठंडक चाहता हैं और मस्तुलिंग गर्मी मस्तिष्क को ठंडक पहुँचाने के लिये क्षौर कर्म करवाना और मस्तुलिंग को गर्मी पहुँचाने के लिये गोखुरके परिमाण के बाल रखना आवश्यक होता है।

बालकुचालक हैं, अत: चोटी के लम्बे बाल बाहर की अनावश्यक गर्मी या ठंडक से मस्तुलिंग की रक्षा करते हैं। 

#शिखा_रखने_के_अन्य_लाभ
🔸🔸🔸🔸🔸🔸🔸🔸🔸
१ शिखा रखने तथा इसके नियमों का यथावत् पालन करने से सद्‌बुद्धि , सद्‌विचारादि की प्राप्ति होती हैं।

२ आत्मशक्ति प्रबल बनती हैं।

३ मनुष्य धार्मिक , सात्विक व संयमी बना रहता हैं।

४ लौकिक - पारलौकिक कार्यों मे सफलता मिलती हैं।

५सभी देवी देवता मनुष्य की रक्षा करते हैं।

६ सुषुम्ना रक्षा से मनुष्य स्वस्थ, बलिष्ठ, तेजस्वी और दीर्घायु होता हैं।

७ नेत्र्ज्योति सुरक्षित रहती हैं।

इस प्रकार धार्मिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक सभी दृष्टियों से शिखा की महत्ता स्पष्ट होती हैं। परंतु आज हिन्दू लोग पाश्चात्योंके चक्कर में पड़कर फैशनेबल दिखने की होड़ में शिखा नहीं रखते व अपने ही हाथों अपनी संस्कृति का त्याग कर डालते हैं।

लोग हँसी उड़ाये, पागल कहे तो सब सह लो पर धर्म का त्याग मत करो। मनुष्य मात्र का कल्याण चाहने वाली अपनी हिन्दू संस्कृति नष्ट हो रही हैं। हिन्दु स्वयं ही अपनी संस्कृति का नाश करेगा तो रक्षा कौन करेगा।

वेद में भी शिखा रखने का विधान कई स्थानों पर मिलता है,देखिये।

शिखिभ्यः स्वाहा (अथर्ववेद १९-२२-१५)

अर्थ👉 चोटी धारण करने वालों का कल्याण हो।

यशसेश्रियै शिखा।-(यजु० १९-९२)
अर्थ 👉 यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए सिर पर शिखा धारण करें।

याज्ञिकैंगौर्दांणि मार्जनि गोक्षुर्वच्च शिखा। (यजुर्वेदीय कठशाखा)

अर्थात्👉  सिर पर यज्ञाधिकार प्राप्त को गौ के खुर के बराबर(गाय के जन्में बछड़े के खुर के बराबर) स्थान में चोटी रखनी चाहिये।

जय हरिहर🚩🚩

Tuesday, November 1, 2022

कश्मीर के राजा को बचाया।

पौराणिक हिन्दू पण्डित बहुल क्षेत्र होने के कारण प्रारम्भ में जम्मू कश्मीर में आर्य समाज और उसकी सभी प्रकार की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा हुआ था। जो ई. सन् १८९२ तक जारी रहा।

प्रसंग ईसवी सन् १९५६ से सम्बन्धित है, जो इस प्रकार है कि आर्य समाज के भजनोपदेशक व प्रचारक ओमप्रकाश वर्मा जी उस वर्ष आर्यसमाज हजूरी बाग, श्रीनगर जम्मू-कश्मीर में वेद प्रचार-सप्ताह के सम्बन्ध में गये हुए थे। इस कार्यक्रम में उनके साथ अन्य चार आर्य समाजी भी पधारे थे। 
  एक दिन आर्यसमाज मन्दिर में ओमप्रकाश वर्मा जी के कार्यक्रम के समय पर ब्रिग्रेडियर राजेन्द्र सिंह भी श्रोताओं में विराजमान थे। ओमप्रकाश वर्मा जी के भजन, गीत तथा उपदेशों को सुनकर बिग्रेडियर बोले कि कल कृष्ण जन्माष्टमी है। यहां के सैनिक मन्दिर में यह त्यौहार मनाया जायेगा। क्या कल वहां यही भजन, गीत व उपदेश उनके सैनिकों को भी आप सायं सात बजे सुनायेंगे?
    वर्मा जी ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। अगले दिन सैनिक मंदिर में वर्मा जी का आगमन हुआ। यह मन्दिर डा. कर्णसिंह (राजा हरिसिंह के पुत्र, जो अब प्रदेश के राज्यपाल थे) की कोठी के पास ही था। वर्मा जी ने वहां योगेश्वर श्री कृष्ण जी के विषय में गीत, भजन व विचार प्रस्तुत किये। वर्मा जी के कार्यक्रम को सुनकर सैनिकों व उनके उच्चाधिकारियों में अद्भुत उत्साह का संचार हुआ। वापसी के लिये वर्मा जी जब ब्रिगेडियर साहब की गाड़ी के भीतर बैठे ही थे कि दो व्यक्ति सामने की सड़क से उनके पास आए तथा बोले - ‘क्या पं. ओम प्रकाश वर्मा आप ही हैं?’ वर्मा जी ने "हा" में उत्तर दिया।
उन दो व्यक्तियों में से एक व्यक्ति कश्मीर के राज्यपाल डा. कर्णसिंह के मामा ओंकार सिंह थे। वर्मा जी ने उनसे पूछा - ‘मेरे योग्य सेवा बताइए’। 

    उन्होंने कहा कि यहां आपने जो उपदेश सुनाए हैं, हमने सड़क पार उस कोठी में बैठकर पूरी तरह सुने हैं। क्या आप यही विचार वहां आकर भी सुनाएंगे?
वर्मा जी ने उनका निमंत्रण स्वीकार्य करते हुए कल का दिन निश्चित किया और आर्य समाज मंदिर में लौट आए।
आर्यसमाज मन्दिर लौटकर वर्मा जी ने पूरा वृतान्त आर्यसमाज के अपने साथी विद्वानों को सुनाया जो वहां उनके साथ पधारे हुए थे। वह सभी विद्वान वर्मा जी की इन बातों को सुन कर बहुत प्रसन्न हुए। उन विद्वानों ने कहा कि ऋषि दयानन्द सरस्वती के तीन ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’, ‘संस्कारविधि’ तथा ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’  कर्णसिंह को अवश्य भेंट कीजिएगा।
   
महाराजा हरिसिंह के पुत्र कर्ण सिंह अपनी माताजी के नाम पर बने ‘तारादेवी निकेतन’ में तब सपरिवार रहते थे। उन दिनों कर्ण सिंह जम्मू व कश्मीर के राज्यपाल थे। वह शासकीय बंगले में न रहकर ‘तारादेवी निकेतन’ में ही रहते थे। 

  अगले दिन निर्धारित समय पर वर्मा जी उक्त स्थान पर पहुंच गए। वहां एक श्वेत वस्त्रधारी महानुभाव को भी उन्होंने देखा। (वह जनरल करिअप्पा थे)
उन्होंने वर्मा जी से पूछा आपका परिचय?
वर्मा जी ने कहा कि मैं आर्यसमाज का एक उपदेशक व प्रचारक ओमप्रकाश वर्मा हूं। 
उन्होंने पूछा कि आजकल आर्यसमाज क्या कर रहा है? वर्मा जी ने बताया कि आजकल आर्यसमाज हिन्दी रक्षा आन्दोलन चलाने की तैयारी में है। 
उन दोनों कि वार्ता में  कर्णसिंह ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि - आजकल आर्यसमाज की गतिविधियां तो हम पढ़ते रहते हैं, परन्तु यह बताइए कि आर्यसमाज को स्थापित हुये लगभग अस्सी वर्ष बीत गये हैं, इन अस्सी वर्षों में आर्यसमाज ने क्या किया है?....

"आप जैसे राजाओं को ईसाई बनने से बचाया है" 
(वर्मा जी ने बिना समय गवाए सहज और निडर भाव से उत्तर दिया) 

कर्णसिंह जी बोले क्यों गलत बात बोलते हो, हमें आर्यसमाज ने ईसाई होने से बचाया है? हम यह कदापि नहीं मान सकते। 
आगे पं. ओमप्रकाश वर्मा जी ने कहा कि आपको नहीं, आपके दादा महाराज प्रताप सिंह को ईसाई बनने से बचाया है। यदि वे तब ईसाई बन गये होते तो आज आप भी अवश्य ईसाई ही होते। 
कर्ण सिंह जी ने पूछा कि आप कैसे कहते हैं कि मेरे दादा जी को ईसाई बनने से आर्यसमाज ने बचाया? 

वर्मा जी ने कहा, सुनिए, डा. साहब! आपके दादा प्रताप सिंह के शासनकाल में जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं के पौराणिक पंडितों के दबाव के कारण आर्यसमाज पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा हुआ था। 
सन् 1892 में राजस्थान के आर्य समाज के विद्वान गणपति शर्मा लाहौर स्यालकोट के मार्ग से जम्मू पधारे और फिर बाद में श्रीनगर से 23 किमी. दूर स्थित नीचे एक हाऊस बोट में वह रहने लगे। 
उन्हीं दिनों में एक ईसाई पादरी जॉनसन श्रीनगर में पहुंचा। उसने महाराजा प्रताप सिंह से उनके हिंदू पण्डितों से शास्त्रार्थ कराने को कहा। पादरी जॉनसन ने कहा कि यदि मै शास्त्रार्थ में पराजित हो गया तो आपका धर्म स्वीकार करूंगा, किन्तु यदि आपके हिन्दू पण्डित हार गये तो आपको ईसाई बनना होगा।
महाराजा प्रताप सिंह ने उसका कहना स्वीकार्य कर लिया।
    निश्चित तिथि पर राज-दरबार में शास्त्रार्थ हुआ। विषय था ‘मूर्तिपूजा’। पादरी जॉनसन द्वारा मूर्तिपूजा पर किए गए अक्षेपो का हिंदुओ के पौराणिक पंडितो के पास कोई उत्तर नहीं था। कोई भी पौराणिक पण्डित इसे सिद्ध न कर सका। 
पूर्व निर्धारित शर्त अनुसार महाराजा प्रताप सिंह हिंदू पण्डितों का पक्ष कमजोर पड़ता देखकर बपतिस्मा पढ़कर ईसाई बनने को तैयार हो रहे थे। किन्तु, तभी आर्य समाज के विद्वान पं. गणपति शर्मा, (जो बहुत देर से सभा में शांत बैठे हुए थे) अब खड़े हो गये। खड़े होकर गणपति शर्मा जी ने महाराज प्रतापसिंह को सम्बोधित करते हुए कहा - महाराज! यदि आप मुझे आज्ञा दें,  तो मैं जॉनसन से शास्त्रार्थ करूंगा।
 चूंकि महाराज की पराजय हो रही थी, अतः उन्होंने  तुरन्त आज्ञा दे दी। 
 परन्तु पराजित हिन्दू पण्डितों व पादरी जॉनसन ने एक स्वर में यह कहकर गणपति शर्मा जी का शास्त्रार्थ हेतु विरोध किया कि यह तो एक 'आर्यसमाजी' है, अतः ये शास्त्रार्थ नहीं कर सकता। महाराज ने यह सोचकर कि ये आर्य समाजी कदाचित इस जॉनसन को तो ठीक कर ही देगा  इसलिए महाराज ने पण्डितों व जॉनसन की आपत्तियो को निरस्त कर दिया और गणपति शर्मा जी को जॉनसन से शास्त्रार्थ करने को स्वीकृति देते हुए उन्हें आमन्त्रित किया।  
   पं. गणपति जी बोले - पादरी जी आप प्रश्न करें, मैं उत्तर देता हूं। 
जॉनसन बोले, आप हमसे शास्त्रार्थ करिए। 

पंण्डित गणपति शर्मा ने पादरी से कहा कि पहले यह बताएं कि शास्त्रार्थ शब्द का अर्थ क्या है? क्या शास्त्र से आपका आशय छः शास्त्रों - योग, सांख्य, न्याय, वैशेषिक, वेदान्त तथा मीमांसा से है? यदि इनसे ही आपका आशय है तो बताइये कि इन दर्शन शास्त्रों में से किस का अर्थ करने आप यहां आए हैं? क्या आपको ज्ञान है कि अर्थ शब्द भी अनेकार्थक है। अर्थ का एक अर्थ 'धन' होता है। दूसरा अर्थ प्रयोजन होता है जबकि तीसरा अर्थ द्रव्य, गुण व कर्म (वैशेषिक दर्शनानुसार) भी है। आप कौन-सा अर्थ समझने-समझाने आये हैं? शास्त्र भी केवल छः नहीं हैं। धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र व नीतिशास्त्र आदि कई शास्त्र विषयों की दृष्टि से भी हैं। 
अतः अब आप ‘शास्त्रार्थ’ शब्द का अर्थ समझायेंगे तो हम अपनी बात आगे बढ़ाएंगे। 

    जॉनसन ने लड़खड़ाते हुए शब्दो में उत्तर दिया कि हम इसका उत्तर देने में असमर्थ है। तब पं. जी ने  कहा, महाराज! जॉनसन तो उत्तर नहीं दे रहा है।  इस पर प्रतापसिंह जी बोले,  यह तो आपके पहले ही प्रश्न का उत्तर नहीं दे पा रहा है व मौन खड़ा हुआ है, अत: अब ये पादरी अपने घर को चला जाएं। 
आगे महाराज ने कहा कि प. गणपति जी! आपने केवल मुझे ही नहीं, बल्कि पूरे जम्मू-कश्मीर की प्रतिष्ठा को बचाया है। हम आप पर प्रसन्न हैं। बताईये, आपको क्या भेंट दे?
 गणपति जी ने उत्तर दिया - महाराज! मुझे अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये। देना ही है तो दो काम कर दीजिए। प्रथम तो यह कि जम्मू कश्मीर में आर्यसमाज पर लगा प्रतिबन्ध हटा दीजिए तथा दूसरा काम यह करें कि यहां पर आर्यसमाज की स्थापना भी हो जाये। 

   गणपति वर्मा जी ने यह घटना राज्यपाल कर्णसिंह को पूरी सुनाई और उन्हें यह भी बताया कि श्रीनगर में हजूरी बाग का आर्यसमाज मन्दिर आपके दादा प्रतापसिंह जी द्वारा दी गई भूमि पर ही स्थापित हुआ था। इस शास्त्रार्थ के बाद प्रताप सिंह जी ने पौराणिक हिंदू पंडितो के दबाव के चलते अपने पिता महाराजा रणवीर सिंह द्वारा आर्यसमाज पर लगाए गए प्रतिबन्धों को तुरन्त हटा दिया था।  ओमप्रकाश वर्मा जी की बातें सुनकर  कर्णसिंह मौन हो गये। वर्मा जी ने उन्हें यह भी बताया कि यह घटना इतिहासकार पण्डित इन्द्र विद्यावाचस्पति जी (स्वामी श्रद्धानंद के पुत्र) की इतिहास की पुस्तक में वर्णित है। 
इसके बाद कर्णसिंह के घर पर वर्मा जी के भजन, गीत व उपदेश हुये तथा कार्यक्रम के पश्चात उनकी गाड़ी उन्हें हजूरी बाग आर्यसमाज मन्दिर, श्रीनगर में वापिस छोड़ गई। वर्मा जी ने आर्यसमाज में उनके साथ पधारे अन्य चारों उपदेशकों को उक्त पूरी घटना विस्तारपूर्वक सुनाई तो वे सभी भी बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने ओमप्रकाश वर्मा जी की खूब प्रशंसा की।     

॥ओ३म्॥

Sunday, October 30, 2022

कौन है?

अहमदाबाद :- कौन है अहमद ?
 मुरादाबाद :- मुराद कौन है ?
 औरंगाबाद :- औरंगजेब कौन है ?
 फैजाबाद :- कौन है फैज ?
 फारूकाबाद :- कौन है फारूक ?
 आदिलाबाद :- कौन है आदिल ?
 साहिबद :- कौन है साहब ?
 हैदराबाद :- हैदर कौन है ?
 सिकंदराबाद :- सिकंदर कौन है ?
 फिरोजाबाद :- फिरोज कौन है ?
 मुस्तफाबाद :- कौन है मुस्तफा ?
 अहमदनगर :- अहमद कौन है ?
 तुगलकाबाद :- तुगलक कौन है ?
 फतेहाबाद :- कौन है फतेह ?
 उस्मानाबाद :- कौन है उस्मान ?
 बख्तियारपुर :- बख्तियार कौन है ?
 महमूदाबाद :- महमूद कौन है ?
 मुजफ्फरपुर और मुजफ्फर नगर :- कौन है मुजफ्फर ?
 बुरहानपुर :- बुरहानि कौन है ?

कौन हैं ये सब?  ये वे लोग हैं जिन्होंने आपकी संस्कृति को नष्ट कर दिया, आपके मंदिरों को नष्ट कर दिया, आपकी मूर्तियों को भ्रष्ट कर दिया और हिंदुओं को इस्लाम में परिवर्तित कर दिया।  यह भारत के इतिहास में उनका योगदान है।  इसके बावजूद हम शहरों का नामकरण उन्हीं के नाम पर क्यों करते हैं?
  इन शहरों के नाम बदलने चाहिए।  
 
 इसे दूर-दूर तक फैलाएं!

Saturday, October 29, 2022

बख्त्यारपुर की ट्रेन।

कुछ साल पहले बिहार गया.
अचानक इच्छा हुई कि समय है तो क्यों ना
नालन्दा विश्वविद्यालय के जले हुए अवशेषों को देखा जाए.
पटना में नालन्दा का रास्ता पता किया.
पता चला कि नालन्दा जाने के लिए
पटना से बख्त्यारपुर की ट्रेन पकडनी पड़ेगी.
आश्चर्य हुआ कि जिस बख्त्यार खिलजी ने
2000 बौद्ध भिक्षु अध्यापकों
व 10000 विद्यार्थियों को
गाजर मूली की तरह काट दिया.
विश्व प्रसिद्ध पुस्तकालय को जला कर राख कर दिया
उसके हत्यारे के नाम पर रेलवे स्टेशन ?
इंडिया बनाम भारतवर्ष
- डॉ. शंकर शरण
अंग्रेजी कहावत है, नाम में क्या रखा है! लेकिन दक्षिण अफ्रीका में यह कहने पर लोग आपकी ओर अजीब निगाहों से देखेंगे कि कैसा अहमक है! पिछले कुछ महीनों से वहां के कुछ बड़े शहरों, प्रांतों के नाम बदलने को लेकर देशव्यापी विवाद चल रहा है। प्रीटोरिया, पॉटचेफ्स्ट्रोम, पीटर्सबर्ग, पीट रेटिफ आदि शहरों, प्रांतों के नाम बदलने का प्रस्ताव है। तर्क है कि जो नाम लोगों को चोट पहुंचाते हैं, उन्हें बदला ही जाना चाहिए।
यह विषय वहां इतना गंभीर है कि साउथ अफ्रीका ज्योग्राफीकल नेम काउंसिल (एस.ए.जी.एन.सी.) नामक एक सरकारी आयोग इस पर सार्वजनिक सुनवाई कर रहा है। प्रीटोरिया का नाम बदलने की घोषणा हो चुकी थी। किसी कारण उसे अभी स्थगित कर दिया गया है। प्रीटोरिया पहले त्सवाने कहलाता था जिसे गोरे अफ्रीकियों ने बदल कर प्रीटोरिया किया था। त्सवाने वहां के किसी पुराने प्रतिष्ठित राजा के नाम से बना था जिसके वंशज अभी तक वहां हैं।
इस प्रकार नामों को बदलने का अभियान और विवाद वहां लंबे समय से चल रहा है। पिछले दस वर्ष में वहां 916 स्थानों के नाम बदले जा चुके हैं। इनमें केवल शहर नहीं; नदियों, पहाड़ों, बांधों और हवाई अड्डों तक के नाम हैं। सैकड़ों सड़कों के बदले गए नाम अतिरिक्त हैं। वहां की एफपीपी पार्टी के नेता पीटर मुलडर ने संसद में कहा कि ऐतिहासिक स्थलों के नाम बदलने के सवाल पर अगले बीस वर्ष तक वहां झगड़ा चलता रहेगा। उनकी पार्टी और कुछ अन्य संगठन प्रीटोरिया नाम बनाए रखना चाहते हैं।
इसलिए नाम में बहुत कुछ है। यह केवल दक्षिण अफ्रीका की बात नहीं। पूरी दुनिया में स्थानों के नाम रखना या पूर्ववत करना सदैव गंभीर राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्त्व रखता है। जैसे किसी को जबरन महान बनाने या अपदस्थ करने की चाह। इन सबका महत्त्व है जिसे हल्के से नहीं लेना चाहिए। इसीलिए कम्युनिज्म के पतन के बाद रूस, यूक्रेन, मध्य एशिया और पूरे पूर्वी यूरोप में असंख्य शहरों, भवनों, सड़कों के नाम बदले गए। रूस में लेनिनग्राद को पुन: सेंट पीटर्सबर्ग, स्तालिनग्राद को वोल्गोग्राद आदि किया गया। कई बार यह सब भारी आवेग और भावनात्मक ज्वार के साथ हुआ। हमारे पड़ोस में भी सीलोन ने अपना नाम श्रीलंका और बर्मा ने म्यांमा कर लिया। खुद ग्रेट ब्रिटेन ने अपनी आधिकारिक संज्ञा बदल कर यूनाइटेड किंगडम की। इन सबके पीछे गहरी सांस्कृतिक, राजनीतिक भावनाएं होती हैं।
हमारे देश में भी शब्द और नाम गंभीर माने रखते हैं। अंग्रेजों ने यहां अपने शासकों, जनरलों के नाम पर असंख्य स्थानों के नाम रखे, कवियों-कलाकारों के नाम पर नहीं। फिर, जब 1940 में मुसलिम लीग ने मुसलमानों के अलग देश की मांग की और आखिरकार उसे लिया तो उसका नाम पाकिस्तान रखा। जैसा जर्मनी, कोरिया आदि के विभाजनों में हुआ था- पूर्वी जर्मनी, पश्चिमी जर्मनी और उत्तरी कोरिया, दक्षिणी कोरिया- वे भी नए देश का नाम ‘पश्चिमी भारत’ या ‘पश्चिमी हिंदुस्तान’ रख सकते थे। पर उन्होंने अलग मजहबी नाम रखा। इसके पीछे एक पहचान छोड़ने और दूसरी अपनाने की चाहत थी। यहां तक कि अपने को मुगलों का उत्तराधिकारी मानते हुए भी मुसलिम नेताओं ने मुगलिया शब्द ‘हिंदुस्तान’ भी नहीं अपनाया। क्यों?
इसलिए कि शब्द कोई उपयोगिता के निर्जीव उपकरण नहीं होते। वे किसी भाषा और संस्कृति की थाती होते हैं। कई शब्द तो अपने आप में संग्रहालय होते हैं, जिनमें किसी समाज की सहस्रों वर्ष पुरानी परंपरा, स्मृति, रीति और ज्ञान संघनित रहता है। इसीलिए जब कोई किसी भाषा या शब्द को छोड़ता है तो जाने-अनजाने उसके पीछे की पूरी अच्छी या बुरी परंपरा भी छोड़ता है। इसीलिए श्रीलंका ने ‘सीलोन’ को त्याग कर औपनिवेशिक दासता के अवशेष से मुक्ति पाने का प्रयास किया। हमने वह आज तक नहीं किया है।
सन 1947 में हमसे जो सबसे बड़ी भूलें हुईं उनमें से एक यह थी कि स्वतंत्र होने के बाद भी देश का नाम ‘इंडिया’ रहने दिया। लब्ध-प्रतिष्ठित विद्वान संपादक गिरिलाल जैन ने लिखा था कि स्वतंत्र भारत में इंडिया नामक इस ‘एक शब्द ने भारी तबाही की’। यह बात उन्होंने इस्लामी समस्या के संदर्भ में लिखी थी। अगर देश का नाम भारत होता, तो भारतीयता से जुड़ने के लिए यहां किसी से अनुरोध नहीं करना पड़ता! गिरिलाल जी के अनुसार, इंडिया ने पहले इंडियन और हिंदू को अलग कर दिया। उससे भी बुरा यह कि उसने ‘इंडियन’ को हिंदू से बड़ा बना दिया। अगर यह न हुआ होता तो आज सेक्युलरिज्म, डाइवर्सिटी, ह्यूमन राइट्स और मल्टी-कल्टी का शब्द-जाल और फंदा रचने वालों का काम इतना सरल न रहा होता। अगर देश का नाम भारत या हिंदुस्तान भी रहता तो इस देश के मुसलमान स्वयं को भारतीय मुसलमान कहते। इन्हें अरब में अब भी ‘हिंदवी’ या ‘हिंदू मुसलमान’ ही कहा जाता है। सदियों से विदेशी लोग भारतवासियों को ‘हिंदू’ ही कहते रहे और आज भी कहते हैं।
विदेशियों द्वारा जबरन दिए गए नामों को त्यागना अच्छा ही नहीं, आवश्यक भी है। इसमें अपनी पहचान के महत्त्व और उसमें गौरव की भावना है। इसीलिए अब तक जब भी भारत में औपनिवेशिक नामों को बदल स्वदेशी नाम अपनाए गए, हमारे देश के अंग्रेजी-प्रेमी और पश्चिमोन्मुखी वर्ग ने विरोध नहीं किया है। पर यह उन्हें पसंद भी नहीं आया। क्योंकि वे जानते हैं कि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। ऐसे में एक दिन अंग्रेजी को भी राज-सिंहासन से उतरना पड़ेगा। इसीलिए, जब देश का नाम पुनर्स्थापित करने की बात उठेगी, वे विरोध करेंगे। चाहे इंडिया को बदलकर भारतवर्ष करने में किसी भाषा, क्षेत्र, जाति या संप्रदाय को आपत्ति न हो। वैसे भी भारतवर्ष ऐसा शब्द है जो भारत की सभी भाषाओं में प्रयुक्त होता रहा है। बल्कि जिस कारण मद्रास, बोम्बे, कैलकटा, त्रिवेंद्रम आदि को बदला गया, वह कारण देश का नाम बदलने के लिए और भी उपयुक्त है। इंडिया शब्द भारत पर ब्रिटिश शासन का सीधा ध्यान दिलाता है। आधिकारिक नाम में इंडिया का पहला प्रयोग ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ में किया गया था जिसने हमें गुलाम बना कर दुर्गति की। पर जब वह इस देश में व्यापार करने आई थी तो यह देश स्वयं को भारतवर्ष या हिंदुस्तान कहता था। क्या हम अपना नाम भी अपना नहीं रखा सकते?
अगर देश का नाम पुन: भारतवर्ष कर लिया जाए तो यह हम सब को स्वत: इस भूमि की गौरवशाली सभ्यता, संस्कृति से जोड़ता रहेगा जो पूरे विश्व में अनूठी है। अन्यथा आज हमें अपनी ही थाती के बचाव के लिए उन मूढ़ रेडिकलों,वामपंथियों, मिशनरी एजेंटों, ग्लोबल सिटिजनों से बहस करनी पड़ती है जो हर विदेशी नारे को हम पर थोपने और हमें किसी न किसी बाहरी सूत्रधार का अनुचर बनाने के लिए लगे रहते हैं।
इसीलिए जब देश का नाम भारतवर्ष या हिंदुस्तान करने का प्रयास होगा- इसका सबसे कड़ा विरोध यही सेक्युलर-वामपंथी बौद्धिक करेंगे। उन्हें ‘भारतीयता’ और ‘हिंदू’ शब्द और इनके भाव से घोर शत्रुता है। यही उनकी मूल सैद्धांतिक टेक है। इसीलिए चाहे वे कैलकटा, बांबे आदि पर विरोध न कर सकें, पर इंडिया को बदलने के प्रस्ताव पर वे चुप नहीं बैठेंगे। यह इसका एक और प्रमाण होगा कि नामों के पीछे कितनी बड़ी सांस्कृतिक, राजनीतिक मनोभावनाएं रहती हैं। वस्तुत: समस्या यही है कि जिस प्रकार कोलकाता, चेन्नई और मुंबई के लिए स्थानीय जनता की सशक्त भावना थी, उस प्रकार भारतवर्ष के लिए नहीं दिखती। इसलिए नहीं कि इसकी चाह रखने वाले देश में कम हैं। बल्कि ठीक इसीलिए कि भारतवर्ष की भावना कोई स्थानीयता की नहीं, राष्ट्रीयता की भावना है। लिहाजा, देशभक्ति और राष्ट्रवाद से किसी न किसी कारण दूर रहने वाले, या किसी न किसी प्रकार के ‘अंतरराष्ट्रीयतावाद’ से अधिक जुड़ाव रखने वाले उग्र होकर इसका विरोध करेंगे। यानी चूंकि इंडिया शब्द को बदल कर भारतवर्ष करना राष्ट्रीय प्रश्न है, इसीलिए राष्ट्रीय भाव को कमतर मानने वाली विचारधाराएं, हर तरह के गुट और गिरोह एकजुट होकर इसका प्रतिकार करेंगे। वे हर तरह की ‘अल्पसंख्यक’ भावना उभारेंगे और आधुनिकता के तर्क लाएंगे।
वैसे भी, उत्तर भारत की सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना और स्वाभिमान मंद है। यहां वैचारिक दासता, आपसी कलह, विश्वास, भेद और क्षुद्र स्वार्थ अधिक है। इन्हीं पर विदेशी, हानिकारक विचारों का भी अधिक प्रभाव है। वे बाहरी हमलावरों, पराए आक्रामक विचारों आदि के सामने झुक जाने, उनके दीन अनुकरण को ही ‘समन्वय’, ‘संगम’, ‘अनेकता में एकता’ आदि बताते रहे हैं। यह दासता भरी आत्मप्रवंचना है।
डॉ राममनोहर लोहिया ने आजीवन इसी आत्मप्रवंचना की सर्वाधिक आलोचना की थी जो विदेशियों से हार जाने के बाद ‘आत्मसमर्पण को सामंजस्य’ बताती रही है। अत: इस कथित हिंदी क्षेत्र से किसी पहलकदमी की आशा नहीं। इनमें अपने वास्तविक अवलंब को पहचानने और टिकने के बदले हर तरह के विदेशी विचारों, नकलों, दुराशाओं, शत्रु शक्तियों की सदाशयता पर आस लगाने की प्रवृत्ति है। इसीलिए उनमें भारतवर्ष नाम की पुनर्स्थापना की कोई ललक या चाह भी आज तक नहीं जगी है। अच्छा हो कि देश का नाम पुनर्स्थापित करने का अभियान किसी तमिल, मराठी या कन्नड़ हस्ती की ओर से आरंभ हो। यहां काम दक्षिण अफ्रीका की तुलना में आसान है, पर हमारा आत्मबल क्षीण है।

टेफलोन कोटिंग या काला जहर ???

 कोटिंग वाले बर्तनों का इतना प्रचार या दुष्प्रचार हुआ कि आजकल हर घर में ये काली कोटिंग वाले बर्तन होना शान की बात समझी जाती है।
न जाने कितने ही ये टेफलोन कोटिंग वाले बर्तन हमारे घर में आ गये हैं, जैसे कि नॉन स्टिक तपेली (पतीली), तवा, फ्राई पेन आदि....अब इजी टू कुक, इजी टू क्लीन वाली छवि वाले ये बर्तन हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गए है। 
मुझे आज भी दादी नानी वाला ज़माना याद आ जाता है, जब चमकते हुए बर्तन किसी भी घर के स्टेंडर्ड की निशानी माने जाते थे, लेकिन आजकल उनकी जगह इन काले बर्तनों ने ले ली है।
हम सब इन बर्तनों को अपने घर में बहुतायत से उपयोग में ले रहे हैं और शायद कोई बहुत बेहतर विकल्प नहीं मिल जाने तक आगे भी उपयोग करते रहेंगे।
किन्तु इनका उपयोग करते समय हम ये बात भूल जाते हैं कि ये काले बर्तन हमारे शरीर को भी काला करके नुकसान पहुंचा रहे हैं।
हम में से कई लोग यह बात जानते भी नहीं हैं कि वास्तव में ये बर्तन हमारी बीमारियाँ बढ़ा रहे हैं और इनका प्रयोग करके हम हमारे अपनों को ही तकलीफ दे रहे हैं।
टेफलोन को 20 वी शताब्दी की सबसे बेहतरीन केमिकल खोज में से एक माना गया है, जिसका प्रयोग इंजीनियरिंग के क्षेत्र जैसे कि स्पेस सुइट और पाइप में उर्जा रोधी के रूप में किया जा रहा है, किन्तु यह भी एक बड़ा सच है की ये टेफलोन कोटिंग का काला जहर स्वास्थ्य के लिए बना ही नहीं है और अत्यंत खतरनाक है।
इसके प्रयोग से श्वास की बीमारी, कैंसर, ह्रदय रोग आदि कई गंभीर बिमारियां भी होती देखी जा रही हैं।
यह भी सच है की जब टेफलोन कोटेड बर्तन को अधिक गर्म किया जाता है, तो आसपास के क्षेत्र में रह रहे पालतू पक्षियों की जान जाने का खतरा तुरंत ही काफी बढ़ जाता है। 
एक न्यूज के अनुसार कुछ समय पहले एक घर के आसपास के 14 पालतू पक्षी तब मारे गए, जब टेफलोन के बर्तन को पहले से गरम किया गया और तेज आंच पर खाना बनाया गया ये पूरी घटना होने में सिर्फ 15 मिनिट लगे....टेफलोन कोटेड बर्तनों में सिर्फ 5 मिनिट में 700 डिग्री टेम्प्रेचर तक गर्म हो जाने की प्रवृति होती है और इसी दौरान 6 तरह की खतरनाक गैस वातावरण में फैल जाती हैं इनमे से 2 गैस ऐसी होती हैं जो केंसर को भी जन्म देती हैं।
 अध्ययन बताते हैं कि टेफलोन को अधिक गर्म करने से पक्षियों के लिए हानिकारक टेफलोन टोक्सिकोसिस बनती है और इंसानों के लिए खतरनाक पोलिमर फ्यूम फीवर की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है टेफलोन कोटिंग से उत्पन्न होने वाले केमिकल के शरीर में जाने से होने वाली बीमारियाँ इस तरह की होती हैं....
1- पुरुष इनफर्टिलिटी - हाल ही में हुए एक सर्वे में ये बात सामने आई है कि लम्बे समय तक टेफलोन केमिकल के शरीर में जाने से पुरुष इनफर्टिलिटी का खतरा बढ़ जाता है और इससे सम्बंधित कई बीमारियाँ पुरुषों में देखी जा सकती हैं।
थायराइड - हाल ही में एक अमेरिकन एजेंसी द्वारा किया गए अध्ययन में यह बात सामने आई है कि टेफलोन की मात्र लगातार शरीर में जाने से थायराइड ग्रंथि सम्बन्धी समस्याएं हो सकती है।
2- बच्चे को जन्म देने में समस्या - केलिफोर्निया में हुई एक स्टडी में ये पाया गया है कि जिन महिलाओं के शरीर में जल, भोजन या हवा के माध्यम से पी ऍफ़ ओ (टेफलोन) की मात्रा सामान्य से अधिक पाई गई थी, उन्हें बच्चो को जन्म देते समय अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ा. इसी के साथ उनमे बच्चो को जन्म देने की क्षमता भी अपेक्षाकृत कम हो गई, जिससे सीजेरियन ऑपरेशन करना पड़ा।
3- शारीरिक समस्याएं व अन्य बीमारियाँ - पी ऍफ़ ओ की अधिक मात्रा शरीर में पाई जाने वाली महिलाओं के बच्चो पर भी इसका असर जन्मजात शारीरिक विकार या समस्याओं के रूप में देखा गया है ।
4- लीवर केंसर का बढ़ा खतरा - एक अध्ययन में यह भी सामने आया है कि पी ऍफ़ ओ की अधिक मात्रा होने पर लीवर केंसर का खतरा बढ़ जाता है ।
5- केंसर या ब्रेन ट्यूमर का खतरा - एक प्रयोग के दौरान जब चूहों को पी ऍफ़ ओ के इंजेक्शन लगाए गए तो उनमे ब्रेन ट्यूमर विकसित हो गया. साथ ही केंसर के लक्षण भी दिखाई देने लगे। 
6- जहरीला पी ऍफ़ ओ 4 साल तक शरीर में बना रहता है - पी ऍफ़ ओ जब एक बार शरीर के अन्दर चला जाता है तो लगभग 4 साल तक शरीर में बना रहता है जो एक बड़ा खतरा हो जाता है।

■ टेफलोन के दुष्प्रभाव से बचने के उपाय...
1- टेफलोन कोटिंग वाले बर्तनों को कभी भी गैस पर बिना कोई सामान डाले अकेले गर्म करने के लिए न छोड़े।
2- इन बर्तनों को कभी भी 450 डिग्री से अधिक टेम्प्रेचर पर गर्म न करे सामान्यतया इन्हें 350 से 450 डिग्री तक गर्म करना बेहतर होता है।
3- लेकिन हमारे देश में महिलाओं को पता ही नहीं रहता है कि गेस के बर्नर पर रखे बर्तन का टेम्प्रेचर कितना हुआ है, तो वे कंट्रोल कैसे करेंगी???
4-  टेफलोन कोटिंग वाले बर्तनों में पक रहा खाना बनाने के लिए कभी भी मेटल की चम्मचो का इस्तेमाल ना करे इनसे कोटिंग हटने का खतरा बढ़ जाता है।
5- टेफलोन कोटिंग वाले बर्तनों को कभी भी लोहे के औजार या कूंचे ब्रश से साफ़ ना करे, हाथ या स्पंज से ही इन्हें साफ़ करे।
6- इन बर्तनों को कभी भी एक दूसरे के ऊपर जमाकर ना रखे।
7- घर में अगर पालतू पक्षी हैं, तो इन्हें अपने किचन से दूर रखें।
8- अगर गलती से घर में ऐसा कोई बर्तन ज्यादा टेम्प्रेचर पर गर्म हो गया है, तो कुछ देर के लिए घर से बाहर चले जाए और सारे खिड़की दरवाजे खोल दे।
9-  ये गलती बार-बार ना दोहराएं, क्यूंकि चारो ओर के वातावरण के लिए भी ये गैस हानिकारक होती हैं और लाखों सूक्ष्म जीवों को भी मार देती हैं।
10- टूटे या जगह-जगह से घिसे हुए टेफलोन कोटिंग वाले बर्तनों का उपयोग बंद कर दे. क्यूंकि ये धीरे धीरे आपके भोजन में ज़हर घोल सकते हैं।
11- अगर आपके बर्तन नहीं भी घिसे हैं, तो भी इन्हें हर दो साल में अवश्य ही बदल दें।
12- जहाँ तक हो सके इन बर्तनों कम ही प्रयोग करिए।
13- इन छोटी छोटी बातों का ध्यान रखकर आप अपने और अपने परिवार के स्वास्थ को बेहतर बना सकते हैं...टेफलोन कोटिंग के काले जहर से अपने परिवार को बचाएं।

Monday, October 24, 2022

काला पहाड़।

भारतीय इतिहास की भयंकर भूले #काला_पहाड़
#बांग्लादेश यह नाम स्मरण होते ही भारत के पूर्व में एक बड़े भूखंड का नाम स्मरण हो उठता है। 
जो कभी हमारे देश का ही भाग था।
 जहाँ कभी बंकिम के ओजस्वी आनंद मठ, कभी टैगोर की हृद्यम्य कवितायेँ, कभी अरविन्द का दर्शन, कभी वीर सुभाष की क्रांति ज्वलित होती थी। 

आज बंगाल प्रदेश एक मुस्लिम राष्ट्र के नाम से प्रसिद्द है। जहाँ हिन्दुओं की दशा दूसरे दर्जें के नागरिकों के समान हैं। 
क्या बंगाल के हालात पूर्व से ऐसे थे? बिलकुल नहीं। अखंड भारतवर्ष की इस धरती पर पहले हिन्दू सभ्यता विराजमान थी।
कुछ ऐतिहासिक भूलों ने इस प्रदेश को हमसे सदा के लिए दूर कर दिया। एक ऐसी ही भूल का नाम कालापहाड़ है।
 बंगाल के इतिहास में काला पहाड़ का नाम एक अत्याचारी के नाम से स्मरण किया जाता है। काला पहाड़ का असली नाम कालाचंद राय था। कालाचंद राय एक बंगाली ब्राहण युवक था।

पूर्वी बंगाल के उस वक्‍त के मुस्लिम शासक की बेटी को उससे प्‍यार हो गया। बादशाह की बेटी ने उससे शादी की इच्‍छा जाहिर की। 
वह उससे इस कदर प्‍यार करती थी। वह उसने इस्‍लाम छोड़कर हिंदू विधि से उससे शादी करने के लिए तैयार हो गई। 
ब्राहमणों को जब पता चला कि कालाचंद राय एक मुस्लिम राजकुमारी से शादी कर उसे हिंदू बनाना चाहता है तो ब्राहमण समाज ने कालाचंद का विरोध किया। 

उन्होंने उस मुस्लिम युवती के हिंदू धर्म में आने का न केवल विरोध किया, बल्कि कालाचंद राय को भी जाति बहिष्‍कार की धमकी दी। कालाचंद राय को अपमानित किया गया। अपने अपमान से क्षुब्ध होकर कालाचंद गुस्‍से से आग बबुला हो गया और उसने इस्‍लाम स्‍वीकारते हुए उस युवती से निकाह कर उसके पिता के सिंहासन का उत्‍तराधिकारी हो गया। अपने अपमान का बदला लेते हुए राजा बनने से पूर्व ही उसने तलवार के बल पर ब्राहमणाों को मुसलमान बनाना शुरू किया।

 उसका एक ही नारा था मुसलमान बनो या मरो। पूरे पूर्वी बंगाल में उसने इतना कत्‍लेआम मचाया कि लोग तलवार के डर से मुसलमान होते चले गए। इतिहास में इसका जिक्र है कि पूरे पूर्वी बंगाल को इस अकेले व्‍यक्ति ने तलवार के बल पर इस्‍लाम में धर्मांतरित कर दिया। यह केवल उन मूर्ख, जातिवादी, अहंकारी व हठधर्मी ब्राहमणों को सबक सिखाने के उददेश्‍य से किया गया था। उसकी निर्दयता के कारण इतिहास उसे काला पहाड़ के नाम से जानती है। अगर अपनी संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर कुछ हठधर्मी ब्राह्मणों ने कालाचंद राय का अपमान न किया होता तो आज बंगाल का इतिहास कुछ ओर ही होता।।

Thursday, October 13, 2022

S क्लास.

जर्मनी की मर्सिडीज़-बेंज की "S क्लास" कार इस ब्रैंड की सबसे बड़ी एवं विलासितापूर्ण वाहन है। 

कई दशकों से मर्सिडीज़ इस कार का निर्माण कर रही है।  

पिछले वर्ष मर्सिडीज़ ने इस कार का एकदम नया मॉडल मार्केट में उतारा।  

एकदम नया से तात्पर्य यह है कि S क्लास कार की पुनः डिज़ाइन की गयी। नए ढाँचे (chassis) पर कार का निर्माण किया गया और कई प्रकार की नयी सुविधाओं, सुरक्षा साधन एवं विलासिता से कार को सुसज्जित किया गया। 

और इस कार के उत्पादन के लिए जर्मनी में एक नए कारखाने का निर्माण किया गया।  

मर्सिडीज़ ने निर्णय लिया कि कार की गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए पूरे विश्व में बिकने वाली नयी S क्लास का उत्पादन केवल जर्मनी के प्लांट में किया जाएगा। जबकि मर्सिडीज़ की अन्य कारो का निर्माण कई देशो में होता है। 

अमेरिका में इस कार को 17 जुलाई 2021 में लांच किया गया जिसका पहला बैच सीधे जर्मनी से आया था। जुलाई में ही नयी S क्लास की अधिक शक्तिशाली एवं विलासितापूर्ण कार (S-580) मेरे पास थी। 

कुछ ही दिन बाद मर्सिडीज़ से पत्र आया कि कार में कुछ कमी या समस्या पायी गयी है; अतः कार को recall किया गया है और मुझसे उस कार को सर्विस सेंटर में लाने का आग्रह किया गया जिससे उस समस्या को ठीक किया जा सके। 

तब से लेकर लगभग एक वर्ष तक, कुछ माह के अंतराल पर recall के पत्र आते रहे जिसे फिक्स कराने के लिए कार को सर्विस सेंटर ले जाना पढ़ा। 

उदाहरण के लिए, कुछ कार ड्राइव करते समय एकाएक बंद हो जाती थी या फिर कार की कंप्यूटर स्क्रीन ब्लैंक हो जाती थी।  

यद्यपि मेरी कार में ऐसी कोई समस्या नहीं थी, तब भी कार को सर्विस सेंटर ले जाकर उस recall को फिक्स कराया गया। 

यह भी उस कार में जो विश्व की एक श्रेष्ठतम कार कंपनी - मर्सिडीज़ - की है और वह भी जर्मनी के प्लांट में जर्मन इंजीनियर एवं लेबर द्वारा बनाई गयी हो। 

लगभग आधे दर्जन recall के बाद भी इस कार पर मेरा विश्वास अडिग है। 

भारत के संदर्भ में देखा जाए तो वंदे भारत को लेकर यही स्थिति है। पहली बार एक नयी ट्रेन भारत में बनी है। भारत में ही इस ट्रेन का ढांचा, फ्रेमवर्क एवं डिज़ाइन बनाया गया है। प्रत्येक कार्य भारतीय इंजीनियर एवं लेबर ने किया है।
 
दो बार जानवर टकराने से इस ट्रेन के प्लास्टिक या फाइबर के ढांचे में थोड़ा सा नुकसान हुआ है जिसे बदल दिया गया है। एक बार ब्रेक जाम हो गया। अर्थात, निर्माण एवं डिज़ाइन में कुछ समस्या केवल एक बार ही सामने आयी है। 

लेकिन देश-तोड़क शक्तियां इस एक्सीडेंट एवं ब्रेक जाम होने का उपहास उड़ा रही है। 

चाहे शाहीन बाग या फर्जी किसान आंदोलन का षणयंत्र हो; या फिर चंद्रयान की अंतिम क्षणों की विफलता; या फिर सर्जिकल स्ट्राइक की सफलता; या फिर डिजिटल भुगतान को लांच करना; या फिर भारतीय उद्यमियों की सफलता; हर पड़ाव पर यह लोग राष्ट्र के विरोध में खड़े है। 

इस शक्तियों का विश्वास भारत पर है ही नहीं। 

भारत की कोई भी उपलब्धि हो, यह शक्तियां चाहती है भारत फेल हो जाए, राष्ट्र की इमेज गिर जाए। 

क्योकि भारत के फेल होने पर ही वे लोग अनुचित रूप से अरबो-खरबो रुपये कमा सकते है, राष्ट्र की सत्ता हथिया सकते है।

भूमि आंवला एक आयुर्वेदिक दवाई.

लिवर-किडनी से लेकर सर्दी-खांसी तक को खत्म कर देता है यह एक छोटा सा पौधा,बारिश में इधर-उधर अपने आप उग जाता है,इसे कहा जाता है आयुर्वेदिक दवाई।
 भूमि आंवला एक आयुर्वेदिक दवाई है। इसके फल बिल्कुल आंवले जैसे दिखते हैं और यह बहुत छोटा पौधा होता है इसलिए इसे भुई आंवला या भूमि आंवला कहते हैं। यह बरसात में अपने आप उग जाता है और छायादार नमी वाले स्थानों पर पूरे साल मिलता है। इसे उखाड़ कर व छाया में सुखा यूज किया जाता है। ये जड़ी- बूटी की दुकान पर भी आसानी से मिल जाता है।
कैसे प्रयोग करें-
> इसके चूर्ण को आधा चम्मच पानी के साथ दिन में 2-3 बार
> पौधे का ताजा रस 10 से 20ML 2 से 3 बार
> ताजा पौधे को उखाड़ कर और साफ धोकर भी खाया जा सकता है।
फायदे- लीवर बढ़ गया है या उसमे सूजन है तो यह उसके लिए बहुत असरदार दवाई है।
- पीलिया में इसकी पत्तियों के पेस्ट को छाछ के साथ मिलाकर दिया जाता है इससे पीलिया बहुत जल्दी ठीक हो जाता है।
- किडनी के इन्फेक्शन और किडनी फेलियर में यह बहुत लाभदायक है। यह किडनी के सिस्टम को ठीक करती है। यह डाइयूरेटिक है जिससे यूरिन ज्यादा बनती है जिससे बॉडी की सफाई होती है।
- एन्टीवायरल गुण होने के कारण यह हेपेटाइटिस B और C के लिए रामबाण दवाई है।
- मुंह में छाले होने पर इसके पत्तों का रस चबाकर निगल लें या थूक दें। मुंह के छाले ठीक हो जाएंगे।
- ब्रेस्ट में सूजन या गांठ हो तो इसके पत्तों का पेस्ट लगा लेने से आराम होगा।
- सर्दी- खांसी में इसके साथ तुलसी के पत्ते मिलाकर काढ़ा बनाकर पीने से आराम मिलता है।
- डायबिटीज में घाव न भरते हों तो इसका पेस्ट पीसकर लगा दें और इसे काली मिर्च के साथ लिया जाए तो शुगर कंट्रोल हो जाती है।

Friday, October 7, 2022

श्रीमान कृष्णमूर्ति अय्यर.

इस फोटो में जो सज्जन हैं 
उनका नाम श्रीमान कृष्णमूर्ति अय्यर है -जोकि किट्टू मामा के नाम से प्रसिद्ध हैं। अयंगर ब्राह्मण हैं। 

किट्टू मामा एक 68 वर्षीय वरिष्ठ नागरिक हैं 
और थेपीकुलम के पास त्रिची में दोसा और इडली बेचते हैं,
जो चतिराम बस स्टैंड के निकट है।

वह शाम 6 बजे के बाद अपनी दुकान खोलते हैं 
और स्वादिष्ट इडली-दोसा स्वादिष्ट चटनी के साथ बहुत सस्ती कीमतों पर बेचते हैं।
जोकि सड़क पर 1 ठेले में संचालित करते हैं।
इस काम में उनकी पत्नी और एक युवा कर्मी सहायता करते हैं।

उनके ज्यादातर ग्राहक मजदूर हैं,
महिला हॉस्टल में रहने वाली कामकाजी महिलाएं,
बस कंडक्टर / ड्राइवर,ऑटो रिक्शा 
और टैक्सी ड्राइवर, माल गाड़ी खींचने वाले, टेम्पो ड्राइवर / ट्रक ड्राइवर आदि।

वहां के स्थानीय लोग उनके उत्पादों की शुद्धता और स्वाद के लिए उनका बहुत सम्मान करते हैं।
बहुत ही उचित मूल्य पर लोगों को स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध करवाते हैं।

कुछ दिन पहले वह हमेशा की तरह इडली और डोसा बना और बेच रहे थे।
और एक स्थानीय निगम पार्षद पांडियन ने आकर इडली / डोसा मांगा ..
वह नशे में धुत था।
वह एक स्थानीय "भाई" है 
और विक्रेताओं से हफ्ता वसूली करता है।  उसके साथ २ चमचे भी थे।
उन सभी ने खाना खाया और पांडियन ने खाने के पैसे नहीं दिए।

जब किट्टू मामा की पत्नी ने पैसे मांगे,
तो पांडियन क्रोधित हो गया और उसने किट्टू मामा को धक्का दे दिया और 
इडली / इडली के साथ उसके घोल को फेंक दिया।
और उन्हें गाली दी - "तुम अय्यर - तुम मुझसे पैसे माँगने की हिम्मत कैसे कर रहे हो?"

 और वह किट्टू राम के जनेऊ को पकड़कर खींचने और तोड़ने का प्रयास करने लगा।

किट्टू मामा उग्र हो गए और पास में पड़ी एक बांस की छड़ी को उठाया और गुंडों को पीटा।
और बोला कि,
"हाँ मैं एक गरीब ब्राह्मण हूँ लेकिन मेरा जनेऊ "वेदस्वरुप" है।
तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इसका अपमान करने की?

मैं मार्शल आर्ट भी जानता हूं।"

फिर उन्होंने सिलम्बट्टम में अपना कौशल दिखाया और गुंडों को विधिवत तोड़ दिया।

वहाँ सभी लोग देख रहे थे लेकिन डर के कारण गुंडे को नहीं रोका।

नशे में धुत नेता पांडियन भाग गया
लेकिन किट्टू मामा को धमकी दी कि वह अगले दिन अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ आएगा और उन्हें "देख" लेगा।

किट्टू मामा ने खाना बनाने का अपना काम जारी रखा।

वहां आसपास के कुछ मजदूरों ने किट्टू अय्यर से कहा कि अगले दिन गुंडे आने पर वे उसकी रक्षा करेंगे।

अगले दिन शाम को किट्टू मामा ने हमेशा की तरह अपनी दुकान शुरू की।

पार्षद और उसके गुंडे नहीं आए।
उसके अगले दिन भी नहीं आये।

तब किट्टू मामा को पता चला कि 
उनके साथ लड़ने के बाद,
पार्षद एक दूसरी दुर्घटना में घायल हो गया है और आईसीयू में है,
और ऑपरेशन के लिए "दुर्लभ रक्त समूह" के रक्त की आवश्यकता है।
टीवी पर भी रक्तदान का अनुरोध किया गया था।

किट्टू मामा तुरंत अस्पताल गए,
रक्तदान किया क्योंकि उनके "रक्त" पार्षद के रक्त समूह का ही था,
जब तक ऑपरेशन खत्म नहीं हुआ,
किट्टू मामा अस्पताल में ही रहे

अगले दिन सुबह,पार्षद के परिवार ने उन्हें धन्यवाद दिया और किट्टू मामा ने जाकर उस पार्षद से मुलाकात की,
जो बात करने की हालत में था।
उसने किट्टू मामा से हाथ जोड़कर माफ़ी मांगी।

 और किट्टू मामा ने बताया - “मुझे अपने 'जनेऊ" की रक्षा करनी थी 
क्योंकि यह मेरा "धर्म' है।

मुझे तुम्हें भी बचाना था क्योंकि यह भी मेरा "धर्म" है।

और आपके पास एक परिवार है 
इसलिए मुझे लगा कि 
मुझे निश्चित रूप से रक्त दान करके आपकी सहायता करनी चाहिए 
इसलिए मैं पुनः अपने "धर्म" का पालन करने आ गया।

पारस सिंह शांडिल्य

Monday, September 26, 2022

वेदो की कुछ मौलिक शिक्षाये।

1. हे भगवन ! हम सत्य का पालन करे, झूठ के पास भी न जावे। (ऋ० ८।६२।१२)
2. उत्तम मति, उत्तम कृति और उत्तम उक्ति का सदा मानव में स्थान होना चाहिए। (ऋ० १०।१९१।१-४)
3. सभा और समिति राजा की पुत्री के सामान हैं। इनमे बैठने पर सत्य और उचित ही सम्मति देनी चाहिए। (अथर्व० ७।१२।१)
4. ऋत की प्रकाशरश्मियाँ पूर्ण हैं। ऋत का ज्ञान बुरे कर्मो से बचाता है। (ऋ० ४।२३।८)
5. इन्द्रियां परमेश्वर को नहीं प्राप्त कर सकती हैं। (यजु० ४०।४)
6. प्रजा के पालक परमेश्वर ने सत्य और असत्य के स्वरुप का व्याकरण कर सत्य में श्रद्धा और असत्य में अश्रद्धा धारण करने का उपदेश किया है। (यजु० १९।७७)
7. अपने ज्ञान और कर्म से मनुष्य परमेश्वर का भक्त बनता है और इन्ही से दुर्गणों से भी दूर रहता है। (ऋ० ५।४५।११)
8. कुटिल कर्म अथवा उलटे कर्म का नाम ही पाप है। (ऋ० १।१८९।१)
9. हमारा मन सदा उत्तम विचारो वाला ही हो। (यजु० ३४।१)
10. अतपस्वी मनुष्य कच्ची बुद्धि का होता है अतः वह उस परमेश्वर को नहीं प्राप्त कर सकता है। (ऋ० ९।८३।१)
11. यह शरीर अंत में भस्म हो जाने वाला है। हे जीवात्मन ! तू अपना, अपने कर्म और ओ३म का स्मरण कर। (यजु० ४०।१५)
12. सत्य, बृहत, ऋत, उग्र, तपस, दीक्षा, ब्रह्म और यज्ञ पृथ्वी का धारण करते हैं।
13. मनुष्य बनो और उत्तम संतानो को उत्पन्न करो। (ऋ० १०।११४।१०)
14. बहुत संतानो वाला दुःख को प्राप्त होता है। (ऋ० १।१६४।३२)
15. आत्मघाती अंधकारमय लोको को प्राप्त होता है। (यजु० ४०।३)
16. सब दिशाए हमारे लिए मित्रवत होवे। (अथर्व० १९।५।६)
17. ब्रह्मचर्य और तप से विद्वान लोग मृत्यु को पार करते हैं।
18. हम सदा ज्ञान के अनुसार चले कभी भी इसका विरोध न करे। (अथर्व० १।९।४)
19. अपने कानो से हम सदा अच्छी वस्तु सुने, आँखों से अच्छी ही वस्तु को देखे, सदा हष्ट पुष्ट शरीर से स्तुति करे और समस्त आयु उत्तम कर्म के लिए ही हो। (यजु० २५।२१)
20. उत्तम कर्म करने वालो का किया हुआ उत्तम कर्म हमारे लिए कल्याणकारी हो। (ऋ० ७।९५।४)

Wednesday, September 21, 2022

अपनी बेटी जहाँनारा को अपनी पत्नी बनाया।

#शाहजहाँ       ने अपनी पत्नी      #मुमताज के मरने के बाद अपनी बेटी जहाँनारा को अपनी पत्नी बनाया
 हमें        #इतिहास में ये क्यों नही पढ़ाया गया???

चलिए जानते है #वामपंथी इतिहासकारो ने कैसे #हवस के शहंशाह को प्रेम का मसीहा बताया देश के इतिहास मे वामपंथी इतिहासकारो ने हवस में डूबे मुगलों को हमेसा महान बताया जिसमे से एक शाहजहाँ को प्रेम की मिसाल के रूप पेश किया जाता रहा है और किया भी क्यों न जाए, आठ हजार औरतों को अपने हरम में रखने वाला अगर किसी एक में ज्यादा रुचि दिखाए तो वो उसका प्यार ही कहा जाएगा। 

आप यह जानकर हैरान हो जाएँगे कि मुमताज का नाम मुमताज महल था ही नहीं, बल्कि उसका असली नाम ‘अर्जुमंद-बानो-बेगम’ था और तो और जिस शाहजहाँ और मुमताज के प्यार की इतनी डींगे हाँकी जाती है वो शाहजहाँ की ना तो पहली पत्नी थी ना ही आखिरी ।

मुमताज शाहजहाँ की सात बीबियों में चौथी थी।
इसका मतलब है कि शाहजहाँ ने मुमताज से पहले 3 शादियाँ कर रखी थी और मुमताज से शादी करने के बाद भी उसका मन नहीं भरा तथा उसके बाद भी उस ने 3 शादियाँ और की, यहाँ तक कि मुमताज के मरने के एक हफ्ते के अन्दर ही उसकी बहन फरजाना से शादी कर ली थी। जिसे उसने रखैल बना कर रखा था,
अगर शाहजहाँ को मुमताज से इतना ही प्यार था तो मुमताज से शादी के बाद भी शाहजहाँ ने 3 और शादियाँ क्यों की?

शाहजहाँ की सातों बीबियों में सबसे सुन्दर मुमताज नहीं बल्कि इशरत बानो थी, जो कि उसकी पहली बीबी थी। शाहजहाँ से शादी करते समय मुमताज कोई कुँवारी लड़की नहीं थी बल्कि वो भी शादीशुदा थी और उसका शौहर शाहजहाँ की सेना में सूबेदार था जिसका नाम ‘शेर अफगान खान’ था। शाहजहाँ ने शेर अफगान खान की हत्या कर मुमताज से शादी की थी।

गौर करने लायक बात यह भी है कि 38 वर्षीय मुमताज की मौत कोई बीमारी या एक्सीडेंट से नहीं बल्कि चौदहवें बच्चे को जन्म देने के दौरान अत्यधिक कमजोरी के कारण हुई थी यानी शाहजहाँ ने उसे बच्चे पैदा करने की मशीन ही नहीं बल्कि फैक्ट्री बनाकर मार डाला शाहजहाँ कामुकता केलिए इतना कुख्यात था कि कई इतिहासकारों ने उसे उसकी अपनी सगी बेटी जहाँआरा के साथ सम्भोग करने का दोषी तक कहा है

शाहजहाँ और मुमताज की बड़ी बेटी जहाँआरा बिल्कुल अपनी माँ की तरह लगती थी इसीलिए मुमताज की मृत्यु के बाद उसकी याद में शाहजहाँ ने अपनी ही बेटी जहाँआरा को भोगना शुरू कर दिया था। जहाँआरा को शाहजहाँ इतना प्यार करता था कि उसने उसका निकाह तक होने न दिया। 

बाप-बेटी के इस प्यार को देखकर जब महल में चर्चा शुरू हुई, तो मुल्ला-मौलवियों की एक बैठक बुलाई गई और उन्होंने इस पाप को जायज ठहराने के लिए एक हदीस का उद्धरण दिया और कहा – “माली को अपने द्वारा लगाए पेड़ का फल खाने का हक है।”

इतना ही नहीं, जहाँआरा के किसी भी आशिक को वह उसके पास फटकने नहीं देता था।

कहा जाता है कि एक बार जहाँआरा जब अपने एक आशिक के साथ इश्क लड़ा रही थी तो शाहजहाँ आ गया जिससे डरकर वह हरम के तंदूर में छिप गया, शाहजहाँ ने तंदूर में आग लगवा दी और उसे जिन्दा जला दिया।

ओर देखिए ऐसे हवस के दरिंदो को वामपंथी इतिहासकारो ने प्रेम का मिसाल देश के सामने पेस किया

Tuesday, September 20, 2022

अपामार्ग।

यह पौधा पेट की लटकती चर्बी, सड़े हुए दाँत, गठिया, आस्थमा, बवासीर, मोटापा, गंजापन, किडनी आदि 20 रोगों के लिए किसी वरदान से कम नही

आज हम आपको ऐसे पौधे के बारे में बताएँगे जिसका तना, पत्ती, बीज, फूल, और जड़ पौधे का हर हिस्सा औषधि है, इस पौधे को अपामार्ग या चिरचिटा (Chaff Tree), लटजीरा कहते है। अपामार्ग या चिरचिटा (Chaff Tree) का पौधा भारत के सभी सूखे क्षेत्रों में उत्पन्न होता है यह गांवों में अधिक मिलता है खेतों के आसपास घास के साथ आमतौर पाया जाता है इसे बोलचाल की भाषा में आंधीझाड़ा या चिरचिटा (Chaff Tree) भी कहते हैं-अपामार्ग की ऊंचाई लगभग 60 से 120 सेमी होती है आमतौर पर लाल और सफेद दो प्रकार के अपामार्ग देखने को मिलते हैं-सफेद अपामार्ग के डंठल व पत्ते हरे रंग के, भूरे और सफेद रंग के दाग युक्त होते हैं इसके अलावा फल चपटे होते हैं जबकि लाल अपामार्ग (RedChaff Tree) का डंठल लाल रंग का और पत्तों पर लाल-लाल रंग के दाग होते हैं।
 
इस पर बीज नुकीले कांटे के समान लगते है इसके फल चपटे और कुछ गोल होते हैं दोनों प्रकार के अपामार्ग के गुणों में समानता होती है फिर भी सफेद अपामार्ग(White chaff tree) श्रेष्ठ माना जाता है इनके पत्ते गोलाई लिए हुए 1 से 5 इंच लंबे होते हैं चौड़ाई आधे इंच से ढाई इंच तक होती है- पुष्प मंजरी की लंबाई लगभग एक फुट होती है, जिस पर फूल लगते हैं, फल शीतकाल में लगते हैं और गर्मी में पककर सूख जाते हैं इनमें से चावल के दानों के समान बीज निकलते हैं इसका पौधा वर्षा ऋतु में पैदा होकर गर्मी में सूख जाता है।
 
अपामार्ग तीखा, कडुवा तथा प्रकृति में गर्म होता है। यह पाचनशक्तिवर्द्धक, दस्तावर (दस्त लाने वाला), रुचिकारक, दर्द-निवारक, विष, कृमि व पथरी नाशक, रक्तशोधक (खून को साफ करने वाला), बुखारनाशक, श्वास रोग नाशक, भूख को नियंत्रित करने वाला होता है तथा सुखपूर्वक प्रसव हेतु एवं गर्भधारण में उपयोगी है।
चिरचिटा या अपामार्ग (Chaff Tree) के 20 अद्भुत फ़ायदे :
1. गठिया रोग :
 
अपामार्ग (चिचड़ा) के पत्ते को पीसकर, गर्म करके गठिया में बांधने से दर्द व सूजन दूर होती है।
 
2. पित्त की पथरी :
 
पित्त की पथरी में चिरचिटा की जड़ आधा से 10 ग्राम कालीमिर्च के साथ या जड़ का काढ़ा कालीमिर्च के साथ 15 ग्राम से 50 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम खाने से पूरा लाभ होता है। काढ़ा अगर गर्म-गर्म ही खायें तो लाभ होगा।
 
3. यकृत का बढ़ना :
 
अपामार्ग का क्षार मठ्ठे के साथ एक चुटकी की मात्रा से बच्चे को देने से बच्चे की यकृत रोग के मिट जाते हैं।
 
4. लकवा :
 
एक ग्राम कालीमिर्च के साथ चिरचिटा की जड़ को दूध में पीसकर नाक में टपकाने से लकवा या पक्षाघात ठीक हो जाता है।
 
5. पेट का बढ़ा होना या लटकना :
 
चिरचिटा (अपामार्ग) की जड़ 5 ग्राम से लेकर 10 ग्राम या जड़ का काढ़ा 15 ग्राम से 50 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम कालीमिर्च के साथ खाना खाने से पहले पीने से आमाशय का ढीलापन में कमी आकर पेट का आकार कम हो जाता है।
 
6. बवासीर :
 
अपामार्ग की 6 पत्तियां, कालीमिर्च 5 पीस को जल के साथ पीस छानकर सुबह-शाम सेवन करने से बवासीर में लाभ हो जाता है और उसमें बहने वाला रक्त रुक जाता है।
खूनी बवासीर पर अपामार्ग की 10 से 20 ग्राम जड़ को चावल के पानी के साथ पीस-छानकर 2 चम्मच शहद मिलाकर पिलाना गुणकारी हैं।
 
7. मोटापा :
 
अधिक भोजन करने के कारण जिनका वजन बढ़ रहा हो, उन्हें भूख कम करने के लिए अपामार्ग के बीजों को चावलों के समान भात या खीर बनाकर नियमित सेवन करना चाहिए। इसके प्रयोग से शरीर की चर्बी धीरे-धीरे घटने भी लगेगी।
 
8. कमजोरी :
 
अपामार्ग के बीजों को भूनकर इसमें बराबर की मात्रा में मिश्री मिलाकर पीस लें। 1 कप दूध के साथ 2 चम्मच की मात्रा में सुबह-शाम नियमित सेवन करने से शरीर में पुष्टता आती है।
 
9. सिर में दर्द :
 
अपामार्ग की जड़ को पानी में घिसकर बनाए लेप को मस्तक पर लगाने से सिर दर्द दूर होता है।
 
10. संतान प्राप्ति :
 
अपामार्ग की जड़ के चूर्ण को एक चम्मच की मात्रा में दूध के साथ मासिक-स्राव के बाद नियमित रूप से 21 दिन तक सेवन करने से गर्मधारण होता है। दूसरे प्रयोग के रूप में ताजे पत्तों के 2 चम्मच रस को 1 कप दूध के साथ मासिक-स्राव के बाद नियमित सेवन से भी गर्भ स्थिति की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
 
11. मलेरिया :
 
अपामार्ग के पत्ते और कालीमिर्च बराबर की मात्रा में लेकर पीस लें, फिर इसमें थोड़ा-सा गुड़ मिलाकर मटर के दानों के बराबर की गोलियां तैयार कर लें। जब मलेरिया फैल रहा हो, उन दिनों एक-एक गोली सुबह-शाम भोजन के बाद नियमित रूप से सेवन करने से इस ज्वर का शरीर पर आक्रमण नहीं होगा। इन गोलियों का दो-चार दिन सेवन पर्याप्त होता है।
 
12. गंजापन :
 
सरसों के तेल में अपामार्ग के पत्तों को जलाकर मसल लें और मलहम बना लें। इसे गंजे स्थानों पर नियमित रूप से लेप करते रहने से पुन: बाल उगने की संभावना होगी।
 
13. दांतों का दर्द और गुहा या खाँच (cavity) :
 
इसके 2-3 पत्तों के रस में रूई का फोया बनाकर दांतों में लगाने से दांतों के दर्द में लाभ पहुंचता है तथा पुरानी से पुरानी गुहा या खाँच को भरने में मदद करता है।
 
14. खुजली :
 
अपामार्ग के पंचांग (जड़, तना, पत्ती, फूल और फल) को पानी में उबालकर काढ़ा तैयार करें और इससे स्नान करें। नियमित रूप से स्नान करते रहने से कुछ ही दिनों cavity में खुजली दूर जाएगी।
 
15. आधाशीशी या आधे सिर में दर्द :
 
इसके बीजों के चूर्ण को सूंघने मात्र से ही आधाशीशी, मस्तक की जड़ता में आराम मिलता है। इस चूर्ण को सुंघाने से मस्तक के अंदर जमा हुआ कफ पतला होकर नाक के द्वारा निकल जाता है और वहां पर पैदा हुए कीड़े भी झड़ जाते हैं।
 
16. ब्रोंकाइटिस :
 
जीर्ण कफ विकारों और वायु प्रणाली दोषों में अपामार्ग (चिरचिटा) की क्षार, पिप्पली, अतीस, कुपील, घी और शहद के साथ सुबह-शाम सेवन करने से वायु प्रणाली शोथ (ब्रोंकाइटिस) में पूर्ण लाभ मिलता है।
 
17. खांसी :
 
खांसी बार-बार परेशान करती हो, कफ निकलने में कष्ट हो, कफ गाढ़ा व लेसदार हो गया हो, इस अवस्था में या न्यूमोनिया की अवस्था में आधा ग्राम अपामार्ग क्षार व आधा ग्राम शर्करा दोनों को 30 मिलीलीटर गर्म पानी में मिलाकर सुबह-शाम सेवन करने से 7 दिन में बहुत ही लाभ होता है।
 
18. गुर्दे का दर्द :
 
अपामार्ग (चिरचिटा) की 5-10 ग्राम ताजी जड़ को पानी में घोलकर पिलाने से बड़ा लाभ होता है। यह औषधि मूत्राशय की पथरी को टुकड़े-टुकड़े करके निकाल देती है। गुर्दे के दर्द के लिए यह प्रधान औषधि है।
 
19. गुर्दे के रोग :
 
5 ग्राम से 10 ग्राम चिरचिटा की जड़ का काढ़ा 1 से 50 ग्राम सुबह-शाम मुलेठी, गोखरू और पाठा के साथ खाने से गुर्दे की पथरी खत्म हो जाती है । या 2 ग्राम अपामार्ग (चिरचिटा) की जड़ को पानी के साथ पीस लें। इसे प्रतिदिन पानी के साथ सुबह-शाम पीने से पथरी रोग ठीक होता है।
 
20. दमा या अस्थमा :
 
चिरचिटा की जड़ को किसी लकड़ी की सहायता से खोद लेना चाहिए। ध्यान रहे कि जड़ में लोहा नहीं छूना चाहिए। इसे सुखाकर पीस लेते हैं। यह चूर्ण लगभग एक ग्राम की मात्रा में लेकर शहद के साथ खाएं इससे श्वास रोग दूर हो जाता है।
अपामार्ग (चिरचिटा) का क्षार 0.24 ग्राम की मात्रा में पान में रखकर खाने अथवा 1 ग्राम शहद में मिलाकर चाटने से छाती पर जमा कफ छूटकर श्वास रोग नष्ट हो जाता है।