Tuesday, October 26, 2021

ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी में अंतर.

भारत में प्राचीन काल से ही ऋषि मुनियों का बहुत महत्त्व रहा है। ऋषि मुनि समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते थे और वे अपने ज्ञान और साधना से हमेशा ही लोगों और समाज का कल्याण करते आये हैं। आज भी वनों में या किसी तीर्थ स्थल पर हमें कई साधु देखने को मिल जाते हैं। धर्म कर्म में हमेशा लीन रहने वाले इस समाज के लोगों को ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी आदि नामों से पुकारते हैं। ये हमेशा तपस्या, साधना, मनन के द्वारा अपने ज्ञान को परिमार्जित करते हैं। ये प्रायः भौतिक सुखों का त्याग करते हैं हालाँकि कुछ ऋषियों ने गृहस्थ जीवन भी बिताया है। आईये आज के इस पोस्ट में देखते हैं ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी में कौन होते हैं और इनमे क्या अंतर है ?

ऋषि कौन होते हैं

भारत हमेशा से ही ऋषियों का देश रहा है। हमारे समाज में ऋषि परंपरा का विशेष महत्त्व रहा है। आज भी हमारे समाज और परिवार किसी न किसी ऋषि के वंशज माने जाते हैं। 

ऋषि वैदिक परंपरा से लिया गया शब्द है जिसे श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने वाले लोगों के लिए प्रयोग किया गया है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है वैसे व्यक्ति जो अपने विशिष्ट और विलक्षण एकाग्रता के बल पर वैदिक परंपरा का अध्ययन किये और विलक्षण शब्दों के दर्शन किये और उनके गूढ़ अर्थों को जाना और प्राणी मात्र के कल्याण हेतु उस ज्ञान को लिखकर प्रकट किये ऋषि कहलाये। ऋषियों के लिए इसी लिए कहा गया है "ऋषि: तु मन्त्र द्रष्टारा : न तु कर्तार : अर्थात ऋषि मंत्र को देखने वाले हैं न कि उस मन्त्र की रचना करने वाले। हालाँकि कुछ स्थानों पर ऋषियों को वैदिक ऋचाओं की रचना करने वाले के रूप में भी व्यक्त किया गया है। 

ऋषि शब्द का अर्थ

ऋषि शब्द "ऋष" मूल से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ देखना होता है। इसके अतिरिक्त ऋषियों के प्रकाशित कृत्य को आर्ष कहा जाता है जो इसी मूल शब्द की उत्पत्ति है। दृष्टि यानि नज़र भी ऋष से ही उत्पन्न हुआ है। प्राचीन ऋषियों को युग द्रष्टा माना जाता था और माना जाता था कि वे अपने आत्मज्ञान का दर्शन कर लिए हैं। ऋषियों के सम्बन्ध में मान्यता थी कि वे अपने योग से परमात्मा को उपलब्ध हो जाते थे और जड़ के साथ साथ चैतन्य को भी देखने में समर्थ होते थे। वे भौतिक पदार्थ के साथ साथ उसके पीछे छिपी ऊर्जा को भी देखने में सक्षम होते थे। 

ऋषियों के प्रकार

ऋषि वैदिक संस्कृत भाषा से उत्पन्न शब्द माना जाता है। अतः यह शब्द वैदिक परंपरा का बोध कराता है जिसमे एक ऋषि को सर्वोच्च माना जाता है अर्थात ऋषि का स्थान तपस्वी और योगी से श्रेष्ठ होता है। अमरसिंहा द्वारा संकलित प्रसिद्ध संस्कृत समानार्थी शब्दकोष के अनुसार ऋषि सात प्रकार के होते हैं ब्रह्मऋषि, देवर्षि, महर्षि, परमऋषि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि और राजर्षि। 

सप्त ऋषि

पुराणों में सप्त ऋषियों का केतु, पुलह, पुलत्स्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ और भृगु का वर्णन है। इसी तरह अन्य स्थान पर सप्त ऋषियों की एक अन्य सूचि मिलती है जिसमे अत्रि, भृगु, कौत्स, वशिष्ठ, गौतम, कश्यप और अंगिरस तथा दूसरी में कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, भरद्वाज को सप्त ऋषि कहा गया है। 

मुनि किसे कहते हैं

मुनि भी एक तरह के ऋषि ही होते थे किन्तु उनमें राग द्वेष का आभाव होता था। भगवत गीता में मुनियों के बारे में कहा गया है जिनका चित्त दुःख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निस्चल बुद्धि वाले संत मुनि कहलाते हैं। 

मुनि शब्द मौनी यानि शांत या न बोलने वाले से निकला है। ऐसे ऋषि जो एक विशेष अवधि के लिए मौन या बहुत कम बोलने का शपथ लेते थे उन्हीं मुनि कहा जाता था। प्राचीन काल में मौन को एक साधना या तपस्या के रूप में माना गया है। बहुत से ऋषि इस साधना को करते थे और मौन रहते थे। ऐसे ऋषियों के लिए ही मुनि शब्द का प्रयोग होता है। कई बार बहुत कम बोलने वाले ऋषियों के लिए भी मुनि शब्द का प्रयोग होता था। कुछ ऐसे ऋषियों के लिए भी मुनि शब्द का प्रयोग हुआ है जो हमेशा ईश्वर का जाप करते थे और नारायण का ध्यान करते थे जैसे नारद मुनि। 

मुनि शब्द का चित्र,मन और तन से गहरा नाता है। ये तीनों ही शब्द मंत्र और तंत्र से सम्बन्ध रखते हैं। ऋग्वेद में चित्र शब्द आश्चर्य से देखने के लिए प्रयोग में लाया गया है। वे सभी चीज़ें जो उज्जवल है, आकर्षक है और आश्चर्यजनक है वे चित्र हैं। अर्थात संसार की लगभग सभी चीज़ें चित्र शब्द के अंतर्गत आती हैं। मन कई अर्थों के साथ साथ बौद्धिक चिंतन और मनन से भी सम्बन्ध रखता है। अर्थात मनन करने वाले ही मुनि हैं। मन्त्र शब्द मन से ही निकला माना जाता है और इसलिए मन्त्रों के रचयिता और मनन करने वाले मनीषी या मुनि कहलाये। इसी तरह तंत्र शब्द तन से सम्बंधित है। तन को सक्रीय या जागृत रखने वाले योगियों को मुनि कहा जाता था।

जैन ग्रंथों में भी मुनियों की चर्चा की गयी है। वैसे व्यक्ति जिनकी आत्मा संयम से स्थिर है, सांसारिक वासनाओं से रहित है, जीवों के प्रति रक्षा का भाव रखते हैं, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ईर्या (यात्रा में सावधानी ), भाषा, एषणा(आहार शुद्धि ) आदणिक्षेप(धार्मिक उपकरणव्यवहार में शुद्धि ) प्रतिष्ठापना(मल मूत्र त्याग में सावधानी )का पालन करने वाले, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायतसर्ग करने वाले तथा केशलोच करने वाले, नग्न रहने वाले, स्नान और दातुन नहीं करने वाले, पृथ्वी पर सोने वाले, त्रिशुद्ध आहार ग्रहण करने वाले और दिन में केवल एक बार भोजन करने वाले आदि 28 गुणों से युक्त महर्षि ही मुनि कहलाते हैं। 

मुनि ऋषि परंपरा से सम्बन्ध रखते हैं किन्तु वे मन्त्रों का मनन करने वाले और अपने चिंतन से ज्ञान के व्यापक भंडार की उत्पति करने वाले होते हैं। मुनि शास्त्रों का लेखन भी करने वाले होते हैं 

साधु कौन होते हैं 

किसी विषय की साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहा जाता है। प्राचीन काल में कई व्यक्ति समाज से हट कर या कई बार समाज में ही रहकर किसी विषय की साधना करते थे और उस विषय में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे। विषय को साधने या उसकी साधना करने के कारण ही उन्हें साधु कहा गया। 

कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका कारण है कि सकारात्मक साधना करने वाला व्यक्ति हमेशा सरल, सीधा और लोगों की भलाई करने वाला होता है। आम बोलचाल में साध का अर्थ सीधा और दुष्टता से हीन होता है। संस्कृत में साधु शब्द से तात्पर्य है सज्जन व्यक्ति। लघुसिद्धांत कौमुदी में साधु का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि "साध्नोति परकार्यमिति साधु : अर्थात जो दूसरे का कार्य करे वह साधु है। साधु का एक अर्थ उत्तम भी होता है ऐसे व्यक्ति जिसने अपने छह विकार काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर का त्याग कर दिया हो, साधु कहलाता है। 

साधु के लिए यह भी कहा गया है "आत्मदशा साधे " अर्थात संसार दशा से मुक्त होकर आत्मदशा को साधने वाले साधु कहलाते हैं। वर्तमान में वैसे व्यक्ति जो संन्यास दीक्षा लेकर गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं और जिनका मूल उद्द्येश्य समाज का पथ प्रदर्शन करते हुए धर्म के मार्ग पर चलते हुए मोक्ष को प्राप्त करते हैं, साधु कहलाते हैं। 

संन्यासी किसे कहते हैं

सन्न्यासी धर्म की परम्परा प्राचीन हिन्दू धर्म से जुडी नहीं है। वैदिक काल में किसी संन्यासी का कोई उल्लेख नहीं मिलता। सन्न्यासी या सन्न्यास की अवधारणा संभवतः जैन और बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद की है जिसमे सन्न्यास की अपनी मान्यता है। हिन्दू धर्म में आदि शंकराचार्य को महान सन्न्यासी माना गया है। 

सन्न्यासी शब्द सन्न्यास से निकला हुआ है जिसका अर्थ त्याग करना होता है। अतः त्याग करने वाले को ही सन्न्यासी कहा जाता है। सन्न्यासी संपत्ति का त्याग करता है, गृहस्थ जीवन का त्याग करता है या अविवाहित रहता है, समाज और सांसारिक जीवन का त्याग करता है और योग ध्यान का अभ्यास करते हुए अपने आराध्य की भक्ति में लीन हो जाता है। 

हिन्दू धर्म में तीन तरह के सन्न्यासियों का वर्णन है

परिव्राजकः सन्न्यासी : भ्रमण करने वाले सन्न्यासियों को परिव्राजकः की श्रेणी में रखा जाता है। आदि शंकराचार्य और रामनुजनाचार्य परिव्राजकः सन्यासी ही थे। 

परमहंस सन्न्यासी : यह सन्न्यासियों की उच्चत्तम श्रेणी है। 

यति : सन्यासी : उद्द्येश्य की सहजता के साथ प्रयास करने वाले सन्यासी इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। 

वास्तव में संन्यासी वैसे व्यक्ति को कह सकते हैं जिसका आतंरिक स्थिति स्थिर है और जो किसी भी परिस्थिति या व्यक्ति से प्रभावित नहीं होता है और हर हाल में स्थिर रहता है। उसे न तो ख़ुशी से प्रसन्नता मिलती है और न ही दुःख से अवसाद। इस प्रकार निरपेक्ष व्यक्ति जो सांसारिक मोह माया से विरक्त अलौकिक और आत्मज्ञान की तलाश करता हो संन्यासी कहलाता है। 

उपसंहार

ऋषि, मुनि, साधु या फिर संन्यासी सभी धर्म के प्रति समर्पित जन होते हैं जो सांसारिक मोह के बंधन से दूर समाज कल्याण हेतु निरंतर अपने ज्ञान को परिमार्जित करते हैं और ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हेतु तपस्या, साधना, मनन आदि करते हैं।

Sunday, October 17, 2021

पाकिस्तान के विचार का जनक सर सैयद अहमद खान था।

सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ रमेशचंद्र मजूमदार कहते हैं- “सर सैय्यद अहमद खान ने दो राष्ट्रों के सिद्धांतों का प्रचार किया जो बाद में अलीगढ़ आंदोलन की नींव बना।

सर सैय्यद भले ही मुस्लिमों में अंग्रेज़ी शिक्षा के पक्षधर थे , पर मुस्लिम धर्म, इतिहास परंपरा, राज्य और उसके प्रतीकों और भाषा पर उन्हें बहुत अभिमान था। 1867 में अंग्रेज़ सरकार ने हिंदी और देवनागरी के प्रयोग का आदेश जारी किया। सर सैयद इस बात से बहुत बैचेन थे कि अब भारत में इस्लामी राज्य खोने के पश्चात हमारी भाषा भी गई। तब उन्होंने डिफेन्स ऑफ उर्दू सोसायटी की स्थापना की। डॉ इकराम ने कहा है कि आधुनिक मुस्लिम अलगाव का शुभारंभ सर सैय्यद के हिंदी बनाम उर्दू का मुद्दा हाथ में लेने से हुआ।
14 मार्च 1888 को मेरठ में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि हिंदू-मुस्लिम मिलकर इस देश पर शासन नहीं कर सकते । अपने भाषण में उन्होंने कहा- “सबसे पहला प्रश्न यह है कि इस देश की सत्ता किसके हाथ में आनेवाली है ? मान लीजिए, अंग्रेज़ अपनी सेना, तोपें, हथियार और बाकी सब लेकर देश छोड़कर चले गए तो इस देश का शासक कौन होगा ? क्या उस स्थिति में यह संभव है कि हिंदू और मुस्लिम कौमें एक ही सिंहासन पर बैठें ? निश्चित ही नहीं। उसके लिए आवश्यक होगा कि दोनों एक दूसरे को जीतें, एक दूसरे को हराएँ । दोनों सत्ता में समान भागीदार बनेंगे, यह सिद्धांत व्यवहार में नहीं लाया जा सकेगा।”
उन्होंने आगे कहा- “इसी समय आपको इस बात पर ध्यान में देना चाहिए कि मुसलमान हिंदुओं से कम भले हों मगर वे दुर्बल हैं, ऐसा मत समझिए। उनमें अपने स्थान को टिकाए रखने का सामर्थ्य है। लेकिन समझिए कि नहीं है तो हमारे पठान बंधु पर्वतों और पहाड़ों से निकलकर सरहद से लेकर बंगाल तक खून की नदियाँ बहा देंगे। अंग्रेज़ों के जाने के बाद यहाँ कौन विजयी होगा, यह अल्लाह की इच्छा पर निर्भर है। लेकिन जब तक एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को जीतकर आज्ञाकारी नहीं बनाएगा तब तक इस देश में शांति स्थापित नहीं हो सकती।”
उन्होंने कहा कि भारत में प्रतिनिधिक सरकार नहीं आ सकती , क्योंकि प्रतिनिधिक शासन के लिए शासक और शासित लोग एक ही समाज के होने चाहिए।”
मुसलमानों को उत्तेजित करते हुए उन्होंने कहा- “जैसे अंग्रेज़ों ने यह देश जीता वैसे ही हमने भी इसे अपने आधीन रखकर गुलाम बनाया हुआ था। …अल्लाह ने अंग्रेज़ों को हमारे शासक के रूप में नियुक्त किया हुआ है। …उनके राज्य को मज़बूत बनाने के लिए जो करना आवश्यक है , उसे ईमानदारी से कीजिए ( अर्थात ऐसे काम करिए कि जिससे अंग्रेज भारत को छोड़ने सकें क्योंकि उनका यहां बने रहना ही मुसलमानों के हित में है ) । …आप यह समझ सकते हैं मगर जिन्होंने इस देश पर कभी शासन किया ही नहीं, जिन्होंने कोई विजय हासिल की ही नहीं, उन्हें (हिंदुओं को) यह बात समझ में नहीं आएगी। मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि आपने बहुत से देशों पर राज्य किया है । आपने 700 साल भारत पर राज किया है। अनेक सदियाँ कई देशों को अपने आधीन रखा है। मैं आगे कहना चाहता हूँ कि भविष्य में भी हमें किताबी लोगों की शासित प्रजा बनने के बजाय (अनेकेश्वरवादी) हिंदुओं की प्रजा नहीं बनना है।”
2 दिसंबर 1887 को वह लखनऊ में मुस्लिम समाज के सामने यह बताते हुए स्पष्ट करते हैं कि किस तरह लोकतंत्र निरर्थक है ? वे कहते हैं- “कांग्रेस की दूसरी माँग वाइसरॉय की कार्यकारिणी के सदस्यों को चुनने की है। समझो ऐसा हुआ कि सारे मुस्लिमों ने मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट दिए तो हर एक को कितने वोट पड़ेंगे। यह तो तय है कि हिंदुओं की संख्या चार गुना ज़्यादा होने के कारण उनके चार गुना ज़्यादा सदस्य आएँगे, मगर तब मुस्लिमों के हित कैसे सुरक्षित रहेंगे। …अब यह सोचिए कि कुल सदस्यों में आधे सदस्य हिंदू और आधे मुसलमान होंगे और वे स्वतंत्र रूप से अपने अपने सदस्य चुनेंगे। मगर आज हिंदुओं से बराबरी करनेवाला एक भी मुस्लिम नहीं है।”
उन्होंने आगे कहा- “पल भर सोचें कि आप कौन हैं? आपका राष्ट्र कौन सा है? हम वे लोग हैं जिन्होंने भारत पर छः-सात सदियों तक राज किया है। हमारे हाथ से ही सत्ता अंग्रेज़ों के पास गई। हमारा (मुस्लिम) राष्ट्र उनके खून का बना है जिन्होंने सऊदी अरब ही नहीं, एशिया और यूरोप को अपने पाँवों तले रौंदा है। हमारा राष्ट्र वह है जिसने तलवार से एकधर्मीय भारत को जीता है। मुसलमान अगर सरकार के खिलाफ आंदोलन करें तो वह हिंदुओं के आंदोलन की तरह नरम नहीं होगा। तब आंदोलन के खिलाफ सरकार को सेना बुलानी पड़ेगी, बंदूकें इस्तेमाल करनी पड़ेंगी।जेल भरने के लिए नए कानून बनाने होंगे।”
हमीद दलवई ने उनके बारे में कहा था- “1887 बद्रुदीन तैयबजी कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे। उनसे कुछ मुद्धों पर सर सैयद के मतभेद थे। तब तैयबजी को लिखे पत्र में सर सैयद ने कहा था- “असल में कांग्रेस निशस्त्र गृहयुद्ध खेल रही है। इस गृहयुद्ध का मकसद यह है कि देश का राज्य किसके (हिंदुओंं या मुसलमानों) हाथों में आएगा। हम भी गृहयुद्ध चाहते हैं मगर वह निशस्त्र नहीं होगा। यदि अंग्रेज़ सरकार इस देश के आंतरिक शासन को इस देश के लोगों के हाथों में सौंपना चाहती है तो राज्य सौंपने से पहले एक स्पर्धा परीक्षा होनी चाहिए। जो इस स्पर्धा में विजयी होगा , उसी के हाथों में सत्ता सौंपी जानी चाहिए। लेकिन इस परीक्षा में हमें हमारे पूर्वजों की कलम इस्तेमाल करने देनी चाहिए। यह कलम सार्वभौमत्व की सनदें लिखने वाली असली कलम है (यानी तलवार)। इस परीक्षा में जो विजयी हो, उसे देश का राज दिया जाए।”
सावरकर जैसे महान विचारक और इतिहास की गहरी समझ रखने वाले नेता ने सर सैयद अहमद खान की इस विचारधारा का पहले दिन से विरोध करना आरंभ किया । जबकि कांग्रेस अपनी तुष्टिकरण की नीति के अंतर्गत सर सैयद अहमद खान को शिक्षा क्षेत्र के महारथी और एक उदारवादी महान नेता के रूप में स्थापित करती रही।
अलीगढ़ संस्थान के 1 अप्रैल 1890 के राज-पत्र में सर सैय्यद ने भविष्ययवाणी की थी- “यदि सरकार ने इस देश में जनतांत्रिक सरकार स्थापित की तो इस देश के विभिन्न धर्मों के अनुयायियों में गृहयुद्ध हुए बिना नहीं रहेगा।” 1893 में एक लेख में उन्होंने धमकी दी थी- “इस राष्ट्र में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं लेकिन इसके बावजूद परंपरा यह है कि जब बहुसंख्यक उन्हें दबाने की कोशिश करते हैं तो वे हाथों में तलवारे ले लेते हैं। यदि ऐसा हुआ तो 1857 से भी भयानक आपत्ति आए बिना नहीं रहेगी।”
सर सैयद अहमद खान की इसी अलगाववादी और द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की जनक विचारधारा ने आगे चलकर जिन्नाह का निर्माण किया। जिसने धर्म के आधार पर इस देश का विभाजन करवाया और कांग्रेस ने उसे अपनी सहमति व स्वीकृति प्रदान कर देश के साथ अपघात किया।
सावरकर जी ने सर सैयद अहमद खान और इन जैसे अलगाववादी नेताओं की चालों को बहुत पहले समझ लिया था । वह नहीं चाहते थे कि देश का किसी भी आधार पर बंटवारा हो। द्विराष्ट्रवाद की बात करने वाले सर सैयद अहमद खान जब 1887 में अपने भड़काऊ भाषण दे रहे थे , उस समय सावरकर जी मात्र 4 वर्ष के थे।