Tuesday, August 31, 2021

गाँधीजी के ब्रह्मचर्य प्रयोग।

जवाबों के इंतजार में कई सवाल.

जोसेफ लेलीवेल्ड की नई पुस्तक ‘ग्रेट सोलः महात्मा गाँधी एंड हिज स्ट्रगल विद इंडिया’ पर गुजरात में प्रतिबन्ध लगा दिया गया। पुस्तक में विवादास्पद प्रसंग सन 1904-13 का है, जब गाँधीजी की दोस्ती हरमन कलेनबाख (1871-1945) से हुई। गाँधी और कलेनबाख एक-दूसरे को ‘अपर हाऊस’ और ‘लोअर हाऊस’ कहते थे। इसका कोई अर्थ स्पष्ट नहीं है।

गाँधी ने अपने कमरे में मैंटलपीस पर केवल कलेनबाख की तस्वीर लगा रखी थी। उन्हें अत्यंत प्रेम-पूर्ण लिखते थे। ऐसे विविध तथ्यों के आधार पर लेलीवेल्ड ने विशिष्ट संबंध का अनुमान लगाया। यद्यपि कोई निश्चित बात नहीं कही। किन्तु यूरोपीय अखबारों में छपी चटखारे वाली समीक्षाओं के आधार पर ही पुस्तक प्रतिबंधित हो गई है। हालाँकि पुस्तक गाँधीजी के निजी जीवन पर केंद्रित नहीं। 425 पृष्ठ की पुस्तक में कलेनबाख-गाँधी संबंध पर बमुश्किल बारह पृष्ठ हैं। इसकी भूमिका से भी स्पष्ट है कि पुस्तक का कैनवास बहुत बड़ा है। फिर, 74 वर्षीय लेलीवेल्ड एक गंभीर लेखक रहे हैं जो अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के पत्रकार, न्यूयार्क टाइम्स के पूर्व संपादक, तथा भारत और दक्षिण अफ्रीका पर चार दशक से भी अधिक समय से लिखते-पढ़ते रहे हैं।

इसीलिए ब्रिटिश विद्वान मेघनाद देसाई के अनुसार इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध दिखाता है कि ‘भारत अभी राजनीतिक रूप से भीरू है जो कठिन प्रश्नों एवं आलोचनाओं का सामना करते की ताब नहीं रखता’। यह टिप्पणी लेलीवेल्ड की बजाए भारतीयों को ही कठघरे में ला देती है। हमें देसाई की चुनौती स्वीकार करनी चाहिए, और गाँधी-नेहरू की महानता के खुले मूल्यांकन के लिए तैयार होना चाहिए। उस से यदि कोई गढ़ी गई मूर्ति टूटती है, तो टूटे। पर कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि एक व्यक्ति किसी क्षेत्र में महान हो सकता है, तो निजी जीवन में मोहग्रस्त और गलत भी हो सकता है। गाँधीजी के बारे में असुविधाजनक सच कहना उनका निरादर नहीं है।

ऐसे सच की संख्या छोटी नहीं। यह केवल सेक्स संबंधी दुर्बलताओं तक सीमित नहीं है। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष रखने से लेकर राजनीतिक निर्णयों का ऐसे राग-द्वेष से प्रभावित होने; सत्य-अहिंसा पर दोहरे-तिहरे तथा अंतर्विरोधी मानदंड अपनाने; जब चाहे हजारों-लाखों दूसरे लोगों को मर जाने की सलाह दे डालने (जरा इस पर सोचिए!); विभिन्न व्यक्तियों के प्रति कटु भाषा का प्रयोग करने; अपने आश्रितों, अनुयायियों पर रोजमर्रा बातों में भी तरह-तरह की जबर्दस्ती करने; अपनी भूल स्वीकारने में भी कई बार अहंकार की गंध होने; भिन्न मत रखने वाले शक्तिशाली व्यक्तियों के प्रति नकली सम्मान दिखाने, जो शिष्टाचार से भिन्न चीज है; आदि कई विषय में सच गाँधी की छवि पर धब्बा लगाता है। ऐसी कई बातें गाँधी के सहयोगियों और दूसरे समकालीन महापुरुषों ने कही हैं। यह सब छिपाकर ही गाँधी की महात्मा छवि बनाई गई, जो सही नहीं। वह एक महान मानवतावादी थे, पर महात्मा नहीं।

काम-भावना की दुर्दम्य शक्ति ही लें। सत्तर वर्ष का कोई महापुरुष किसी कमसिन लड़की के साथ एकांत में ब्रह्मचर्य प्रयोग की इच्छा रखे, और ताउम्र रखे रहे, यह कैसी बात है? ऐसा प्रस्ताव पाकर कौन लड़की नहीं सहमेगी? (उन सभी तस्वीरों को ध्यान से देखें जिनमें गाँधी दो युवतियों के कंधों पर एक-एक हाथ रखे हुए चले आ रहे हैं। मुख-मुद्राएं हमेशा कुछ कहती हैं।) फिर, कौन अपनी लड़की के साथ ऐसे प्रयोग करने की अनुमति स्वेच्छा से देगा? क्या गाँधी के बेटों ने भी दिया था? ऐसे प्रश्नों का उत्तर अप्राप्य नहीं है। वास्तव में इन उत्तरों को दबा दिया गया है। कई तथ्य स्वयं गाँधी के लेखन में हैं, किन्तु उन्हें विचार के लिए रखने मात्र से आपत्ति की जाती है।

गाँधीजी ने किसी भारतीय गुरु से कोई धर्म-चिंतन, योग या दर्शन की शिक्षा नहीं ली। (गोखले को उन्होंने अपना गुरु कहा, मगर किस बात में, यह स्पष्ट नहीं। क्योंकि गोखले ने ही हिन्द स्वराज को हल्की, फूहड़ रचना कहा था। यदि गोखले वास्तव में गुरु होते, तो फिर उस पुस्तिका को फेंक देना या आमूल सुधारना जरूरी था। वह गाँधी ने नहीं किया।) गीता या रामायण पर भी गाँधी ने अपने ही मत को सर्वोपरि माना। कुल मिला कर गाँधी के जाने-माने गुरु रस्किन या लेव टॉल्सटॉय ही रहे हैं। किन्तु क्या गाँधी टॉल्सटॉय की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं? न केवल अहिंसा, बल्कि सेक्स पर भी।

टॉल्सटॉय के दो उपन्यास ‘अन्ना कारेनिना’ तथा ‘पुनरुत्थान’ स्त्री-पुरुष संबंधों में असंयम, भटकाव तथा संबंधित सामाजिक समस्या से सीधे जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्त तीन महत्वपूर्ण लघु-उपन्यास हैं – ‘क्रूजर सोनाटा’ (1889), ‘द डेविल’ (1889), और ‘फादर सेर्जियस’ (1898)। तीनों ही स्त्री-पुरुष संबंधों में काम-ग्रस्तता और कामदेव की दुर्दम्य शक्ति पर लिखी गई है। टॉल्सटॉय की महानतम रचना ‘युद्ध और शांति’ में भी उसका प्रमुख नायक पियरे काम-भाव की शक्ति से डरता है। टॉल्सटॉय ने इस समस्या की जटिल, किन्तु यथार्थपरक प्रस्तुति की है। किन्तु ‘ब्रह्मचर्य’ पर गाँधी जितनी चिंता दिखाते रहे हैं, उसमें टॉल्सटॉय की झलक कम ही है।

ब्रह्मचर्य का गाँधी ने जैसा अर्थ किया, वह भारतीय ज्ञान-परंपरा से भी पूर्णतः भिन्न है। जैसा अहिंसा मामले में, गाँधी प्रत्येक व्यक्ति को गुण-भाव-प्रवृत्ति में समान मान कर चलते हैं। मानो सबको एक जैसा अस्त्र-शस्त्र वितृष्ण या समरूप ब्रह्मचारी बनाया जा सकता हो। यह समझ हिन्दू ज्ञान से एकदम दूर है। योग-चिंतन और भारतीय शिक्षा परंपरा किसी में उसके गुणों, प्रवृत्तियों को देख-पहचान कर ही उसके लिए उपयुक्त शिक्षा की अनुशंसा करती है। ब्रह्मचर्य के लिए भी योग-चिंतन भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न प्रावधान करता है। कुछ व्यक्तियों में काम-भावना निष्क्रिय होती है, दूसरों में सक्रिय। सच्चे योगी पहले को सीधे ब्रह्मचर्य में दीक्षित कर उचित चर्या में लेंगे, जबकि दूसरे को विवाह कर उनकी सक्रिय काम-प्रवृत्ति को पहले सामान्य, संतुष्ट अवस्था तक पहुँचने की सलाह देंगे। सक्रिय काम-प्रवृत्ति वाले को उसी अवस्था में ब्रह्मचर्य में दीक्षित करने से वह दमित काम-भाव से ग्रस्त एक प्रकार के रोगी में बदलेगा। गाँधी के पूरे ब्रह्मचर्य चिंतन में इसे नजरअंदाज किया गया है। सेमेटिक अंदाज में वह सभी मनुष्यों को एक सा मानकर एक सी दवा करते हैं। उनका ब्रह्मचर्य संबंधी विविध लेखन पढ़कर तो संदेह होता है कि 1906 में गाँधी द्वारा ‘ब्रह्मचर्य व्रत’ लिया जाना उनकी ही प्रवृत्ति के लिए अनुपयुक्त था। ब्रह्मचर्य लेने के बाद भी वर्षों, दशकों, बल्कि जीवन-पर्यंत ब्रह्मचर्य की ‘जाँच’ करते रहने के प्रयोग की कैफियत क्या है? ऐसे प्रश्न उठाना गाँधी का निरादर नहीं।

यदि निरादर के नाम पर तथ्यों, विश्लेषणों को प्रतिबंधित करना पड़े तब गाँधीजी के पौत्र राजमोहन गाँधी द्वारा लिखित मोहनदास (2007) पर भी प्रतिबन्ध लग जाना चाहिए। इसमें सरलादेवी चौधरानी और गाँधीजी के प्रेम-संबंध बनने से लेकर टूटने तक वर्षों की कहानी है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी सरलादेवी विवाहिता थीं, जब गाँधीजी उन पर लट्टू हो गए। यह 1919-20 की बात है, जब गाँधी लाहौर में सरलादेवी के घर पर टिके। उस समय उनके पति कांग्रेस नेता रामभज दत्त जेल में थे। गाँधी और सरलादेवी अनेक जगह साथ-साथ गए। बाद में गाँधी ने उन्हें रस में पगे पत्र लिखे। राजमोहन के अनुसार वह दो वर्ष गाँधीजी की पत्नी कस्तूरबा के लिए अत्यंत यंत्रणा भरे थे। जब गाँधी-सरलादेवी सम्बन्ध पर चारो तरफ से ऊँगलियाँ उठीं, तो गाँधीजी ने इसे सरलादेवी के साथ अपना ‘आध्यात्मिक विवाह’ बताया जिसमें ‘दो स्त्री पुरूष के बीच ऐसी सहभागिता है जहाँ शरीरी तत्व का कोई स्थान न था’। हालाँकि ‘विवाह’ शब्द ही चुगली कर देता है कि गाँधीजी स्त्री-पुरुष के विशिष्ट संबंध में ही आसक्त हुए थे। स्वयं राजमोहन गाँधी ने भी ‘आध्यात्मिक विवाह’ जैसे मुहावरे का अर्थ देने से छुट्टी ले ली है, यह कह कर कि ‘इसका जो भी अर्थ हो’।

अंततः, गाँधीजी पर दबाव डालकर सरलादेवी से संबंध तोड़ने में उनके बेटों, कस्तूरबा तथा राजगोपालाचारी जैसे कई निकट सहयोगियों, आदि द्वारा किए गए समवेत प्रयास का ही योगदान था। बाद में स्वयं गाँधी ने इसे स्वीकार किया, और इसके लिए बेटों को धन्यवाद भी दिया। गाँधीजी के पूरे जीवन पर दृष्टि डालें तो सन 1906 से लेकर जीवन के लगभग अंत तक, निरंतर ‘ब्रह्मचर्य’ व्रत धारण किए रखने और साथ ही साथ स्त्रियों, लड़कियों के साथ विविध प्रयोग करते रहने के प्रति उन की आसक्ति की कोई आसान व्याख्या नहीं हो सकती। यह गाँधीजी की भावनात्मक दुर्बलता का ही संकेत अधिक करती है। अप्रैल-जून 1938 के बीच प्यारेलाल, सुशीला नायर, मीरा बेन, और अनेक लोगों को लिखे अपने दर्जनों पत्रों और नोट में गाँधी ने इसे स्वयं स्वीकार किया है। बल्कि कई बार ऐसे शब्दों में स्वीकार किया है कि भक्त गाँधीवादियों को धक्का लग सकता है।

राजमोहन गाँधी की पुस्तक उन्हीं कारणों से चर्चित हुई थी। उसमें गाँधी एक क्रूर, तानाशाह पति, लापरवाह पिता, मनमानी करने वाले आश्रम-प्रमुख, और विवाहेतर प्रेम-संबंधों में पड़ने वाले व्यक्ति के रूप में भी दिखाए गए हैं। गाँधी कभी भरपूर कामुकता से पत्नी के साथ व्यवहार करते थे, तो कभी एकतरफा रूप से शारीरिक-संबंध विहीन दांपत्य रखते थे। कभी दूसरी स्त्रियों के प्रति गहन राग प्रदर्शित करते थे। अथवा कुँवारी लड़कियों के साथ अपने कथित ब्रह्मचर्य संबंधी प्रयोग करने लगते थे। यह सब जीवन-पर्यंत चला। गाँधीजी के निकट सहयोगी और विद्वान सी. राजगोपालाचारी ने कहा भी था कि, ‘अब कहा जाता है कि गाँधी ऐसे जन्मजात पवित्र थे कि उनमें ब्रह्मचर्य के प्रति सहज झुकाव था। पर वास्तव में वह काम-भाव से बहुत उलझे हुए थे।’

इसीलिए, राजमोहन ने भी यही कहा था कि वह गाँधीजी को मनुष्य के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, किसी महात्मा जैसा नहीं। अर्थात् ‘मोहनदास’ में भी मानवोचित कमजोरियाँ थीं। वस्तुतः मीरा बेन ने तो इतने कठोर शब्दों में गाँधीजी की लड़कियों को निकट रखने, उनसे शरीर की मालिश करवाने जैसी विविध अंतरंग सेवाएं लेने, और अन्य आसक्ति की भर्त्सना की, बार-बार की, उन्हें बरजा, कि गाँधीजी को सफाई देनी पड़ी। मगर गाँधी ने मीरा बेन, आश्रमवासियों और अन्य की सलाह नहीं मानी। यह कहकर कि जो काम वे पिछले चालीस वर्ष से कर रहे हैं, वह करते रहेंगे, क्योंकि ‘जरूर यही ईश्वर की इच्छा होगी, तभी तो वह इतने सालों से यह कर रहे हैं!’

निस्संदेह, सैद्धांतिक विश्लेषण के लिए यह रोचक विषय है। इसीलिए गाँधी जी की सेक्स संबंधी दिलचस्पी, प्रयोग पर अनेक विद्वानों ने लिखा है। जैसे, निर्मल कुमार बोस (माइ डेज विद गाँधी, 1953, अब ओरिएंट लॉगमैन द्वारा प्रकाशित), एरिक एरिकसन (गाँधीज ट्रुथ, डब्ल्यू डब्ल्यू नॉर्टन, 1969), लैपियर और कॉलिन्स (फ्रीडम एट मिडनाइट, साइमन एंड शूस्टर, 1975), वेद मेहता (महात्मा गाँधी एंड हिज एपोस्टल्स, वाइकिंग, 1976), सुधीर कक्कड़ (मीरा एंड द महात्मा, पेंग्विन, 2004), जैड एडम्स (गाँधीः नेकेड एम्बीशन, क्वेरकस, 2010) आदि। इन लेखकों में एरिकसन, लैपियर-कॉलिन्स, बोस, मेहता तथा कक्कड़ अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान रहे हैं। इनमें से किसी को दूर से भी सनसनी-खेज, बाजारू या क्षुद्र लेखक नहीं कहा जा सकता। उन्होंने कोई बात निराधार नहीं लिखी है।

गाँधीजी के उन प्रयोगों के सिलसिले में सरलादेवी ही नहीं, सरोजिनी नायडू, सुशीला नायर, मीरा बेन, सुचेता कृपलानी, प्रभावती, मनु, आभा, वीणा आदि कई नाम आते हैं। लड़कियों और स्त्रियों के समक्ष गाँधी आकर्षक रूप में आते थे। उन्हें तरह-तरह के प्रयोग करने के लिए तैयार करते थे। जैसे, बिना एक-दूसरे को छुए निर्वस्त्र होकर साथ सोना या नहाना। घोषित रूप से कभी इस का उद्देश्य होता था ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ तो कभी ‘ब्रह्मचर्य-शक्ति बढ़ाने’ का प्रयास। सुशीला नायर के अनुसार पहले ऐसे सभी कार्यों को प्राकृतिक चिकित्सा ही कहा जाता था। जब आश्रम में आवाजें उठने लगीं तो ब्रह्मचर्य प्रयोग कहकर आलोचनाओं को शांत किया गया। हालाँकि, नायर ने उन प्रयोगों में कुछ गलत नहीं कहा है। इन्ही रूपों में 77 वर्ष के गाँधीजी अपनी 17 वर्षीया पौत्री को अपने साथ सोने के लिए तैयार करते थे। इन बातों पर उनकी दलीलें कई बार विचित्र और अंतर्विरोधी भी होती थीं। इसीलिए इन बातों का संपूर्ण विवरण रखकर उनकी कोई ऐसी व्याख्या देना संभव नहीं, जिससे महात्मा की छवि यथावत रह सके।

अपनी आत्मकथा (1925) में भी गाँधीजी ने ‘ब्रह्मचर्य’ पर दो अध्याय लिखे हैं। अन्य अध्यायो में भी इस विषय को जहाँ-तहाँ बहुत स्थान दिया। इसी में यह सूचना है कि 1906 ई. में ही गाँधी ने जी ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया था, और बहुत विचार-विमर्श के बाद लिया गया था। विचित्र यह कि इस विमर्श में पत्नी को शामिल नहीं किया गया! फिर, वहीं यह भी लिखा है कि ‘जननेन्द्रिय’ पर संपूर्ण नियंत्रण करने में ‘आज भी’ कठिनाई होती है। यह ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने के बीस वर्ष बाद, और 56 वर्ष की आयु में लिखा गया था।

फिर जून 1938 में भी गाँधीजी ने ‘ब्रह्मचर्य’ पर एक लेख लिखा था। इसे उनके अनुयायियों ने दबाव डाल कर छपने नहीं दिया। उसमें 7 अप्रैल को देखा गया ‘खराब स्वप्न’ तथा ’14 अप्रैल की घटना’, जब गाँधी का अनचाहे वीर्य-स्खलन हो गया था, तथा 9 जून की भी किसी ऐसी ही घटना पर गाँधी बहुत हाय-तौबा मचाते हैं। अनेक पत्रों में उसकी चर्चा करते हैं। यह शंका भी व्यक्त करते हैं कि स्त्रियों के संसर्ग में रहने से ही तो ऐसा नहीं हुआ? यहाँ तक कि कांग्रेस में बढ़ते भ्रष्टाचार को न रोक पाने में भी अपनी यह ब्रह्मचर्य वाली कमी जोड़ते हैं, आदि आदि।

ऐसा चिंतन निस्संदेह विचित्र है, और गाँधी के सहयोगियों ने ऐसे लेखन को छपने से रोका, तो कहना चाहिए कि उनका विवेक गाँधी से अधिक जाग्रत था। जैड एडम्स के अनुसार गाँधी के देहांत के बाद उनके द्वारा लिखे ऐसे कई पत्रों को नष्ट कर दिया गया, जिस में ब्रह्यचर्य संबंधी उनके अपने तथा संबंधित व्यक्तियों के कार्यों, निर्देशों की चर्चा थी। प्रख्यात विद्वान धर्मपाल ने भी अपनी पुस्तक ‘गाँधी को समझें’ में लिखा है कि वह 1938 वाला लेख अब नष्ट हो चुका है। धर्मपाल ने वर्धा आश्रम में किसी आश्रमवासी की पुस्तिका से उसकी नकल उतार ली थी, जिसका लंबा उद्धरण अपनी पुस्तक में दिया है। दिलचस्प यह कि ब्रह्मचर्य पर गाँधी का बचाव करते हुए, उसकी ‘सही और विस्तृत व्याख्या’ की जरूरत बताकर भी, स्वयं धर्मपाल ने उसकी कोई व्याख्या नहीं दी है।

गाँधीजी के जीवन के अनेकानेक प्रसंगों से स्पष्ट है कि सेक्स संबंधी विचारों से वे आजीवन ऑब्सेस्ड रहे। इस का सबसे दारुण प्रमाण यह है कि सन 1938 में अपनी दुर्बलता पर क्षोभ, टिप्पणी या शंका करने के बाद भी वह वही प्रयोग करते रहे। यानी ब्रह्मचर्य लेने के चालीस वर्ष बाद भी सेक्स-संबंधी विषय उनके मानस से ही नहीं, बल्कि सक्रिय प्रयोगों से बाहर नहीं हो सके थे। अजीब यह भी है कि ब्रह्मचर्य जैसे प्रयोग गाँधीजी ने सबसे प्रियतम व्रत अहिंसा के संबंध में कभी नहीं किए! हिंसक व्यक्तियों, विचारधाराओं, संगठनों पर अहिंसा की शक्ति आजमाने की कोई व्यवस्थित जाँच गाँधी ने की हो, ऐसा कुछ नहीं मिलता। अहिंसा पर गाँधी प्रायः घोषणाएं करते, फतवे देते ही पाए जाते हैं। जैसा लड़कियों के साथ ब्रह्मचर्य का करते थे, किसी हिंसक व्यक्ति के साथ अहिंसा का नाजुक प्रयोग करते गाँधी का उदाहरण नहीं मिलता। इन सभी बिन्दुओं को रफा-दफा करना, या कोई मासूम-सी व्याख्या देकर असुविधाजनक सवालों को किनारे कर देना उचित नहीं है।

क्या महापुरुषों द्वारा किए जाने वाले प्रयोगों, विचारों, व्यवहारों, आदि की केवल एक ही व्याख्या होनी चाहिए? गाँधीजी द्वारा किन्हीं 17 वर्षीया अल्पवयस्क लड़कियों को अपने ब्रह्मचर्य प्रयोगों का साधन बनाना कहाँ तक उचित था? क्या उसके लिए वह लड़कियाँ और उनके परिवार के लोग प्रसन्नता पूर्वक तैयार होते थे? क्या ऐसी बातों पर टिप्पणियों, प्रश्नों और तथ्यों तक को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए? यदि वही करना हो, तब स्वयं गाँधीजी के लेखन के कई अंश हटाने-छिपाने होंगे। जैसा जैड एडम्स कहते हैं, ‘यदि ‘गाँधी और सेक्स’ जैसे विषय पर लिखी बातों को प्रतिबंधित करना हो तब तो बड़ी मात्रा में गाँधी के अपने लेखन को, जो भारत सरकार द्वारा ही छापी गई है, भी जाना होगा।’

उस अंदाज में तो पामेला एंडरसन की पुस्तक ‘इंडिया रिमेम्बर्ड : ए पर्सनल एकाऊंट ऑफ द माऊंटबेटंस डयूरिंग द ट्रांसफर ऑफ पावर’ (2007) पर भी प्रतिबन्ध लगना था। जिस में लेखिका ने अपनी माता एडविना माऊंटबेटन के जवाहरलाल नेहरू के साथ प्रेम संबंधों के संदर्भ में लिखा है कि उस प्रभाव में नेहरू द्वारा कई राजनीतिक निर्णय लिए गए। इस कार्य में लॉर्ड माऊंटबेटन द्वारा जान-बूझ कर एडविना का उपयोग किए जाने की भी चर्चा है। पामेला के शब्दों में, “If things were particularly tricky my father would say to my mother, ‘Do try to get Jawaharlal to see that this is terribly important…'”। कुछ यही बात मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में भी लिखी थी कि नेहरू द्वारा देश का विभाजन स्वीकार करने में एडविना का प्रभाव उत्तरदायी था।

पामेला लिखती हैं कि नेहरू और एडविना एक-दूसरे पर बेतरह अनुरक्त थे। यहाँ तक कि दोनों के बीच एकांत में वे पामेला की उपस्थिति को भी पसंद नहीं करते थे। यद्यपि पामेला ने दोनों के बीच शारीरिक संबंध नहीं बताया, किन्तु रेखांकित किया है कि इससे उन दोनों के बीच संबंधों की शक्ति को कम करके नहीं देखना चाहिए। यह जीवन पर्यंत चला। नेहरू 1957 में एडविना को एक पत्र में लिखते हैं, ‘मैंने यकायक महसूस किया और संभवतः तुमने भी किया हो कि हम दोनों के बीच कोई अदम्य शक्ति है, जिससे मैं पहले कम ही अवगत था, जिसने हमें एक-दूसरे के करीब लाया।’ एडविना के देहांत (1960) के बाद उनके सिरहाने नेहरू के पत्रों का बंडल मिला था। उनकी अंत्येष्टि में नेहरूजी ने भारतीय नौसेना का एक फ्रिगेट जहाज सम्मान स्वरूप भेजा था।

वस्तुतः स्वतंत्र भारत में गाँधी-नेहरू के बारे में एकदम आरंभ से ही एक देवतुल्य छवि देने की गलत परंपरा बनाई गई है। गाँधीजी की हत्या के कारण देश को लगे धक्के से ऐसा करना बड़ा आसान हो गया। उससे पहले तक गाँधीजी, और उनके विविध राजनीतिक, गैर-राजनीतिक, निजी कार्यों के प्रति आलोचना के तीखे स्वर प्रायः खुलकर सुने जाते थे। यह स्वर उनके निकट सहयोगियों से लेकर बड़े-बड़े मनीषियों के थे। गाँधीजी की हत्या से उपजी सहानुभूति में इन स्वरों का अनायास लोप हो गया। उस वातावरण का लाभ उठाकर व्यवस्थित प्रचार और बौद्धिक कारसाजी ने आने वाली पीढियों के लिए गाँधी-नेहरू की एक रेडीमेड छवि बनाई। (कुछ-कुछ पूर्वार्द्ध सोवियत दौर के ‘लेनिन-स्तालिन’ जैसी)। सत्ताधारी दल और उसके नेतृत्व ने इसका अपने हित में कई तरह से राजनीतिक उपयोग भी किया।

यह प्रमुख कारण है कि कि स्वतंत्र भारत में गाँधी-नेहरू के बारे में तथ्यों, विवरणों, प्रसंगों की अघोषित सेंसरशिप चलती रही है। जो भी बात उनकी छवि पर बट्टा लगा सकती हो, उसे प्रतिबंधित या वैसा लिखने-बोलने वाले को लांछित किया जाता है। इस के पीछे सीधे-सीधे राजनीतिक उद्देश्य रहे हैं, जो देश की नई पीढियों के शैक्षिक, बौद्धिक विकास के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध हुआ है।
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गांधीजी के अनोखे ब्रह्मचर्य "प्रयोगों" पर डॉ.शंकर शरण की शोधपूर्ण पुस्तक "गांधी के ब्रह्मचर्य प्रयोग" बेहद रोचक व पठनीय है।

Sunday, August 29, 2021

इस्लाम के दीपक।

इस्लाम को समझने के लिए उच्च कोटि की पुस्तक है। इसके लेखक स्वर्गीय गंगा प्रसाद उपाध्याय की आज पुण्यतिथि है। यह पुस्तक बिना किसी कठोर भाषा के कुरान और हदीस के आधार पर इस्लाम को बताया गया है।
मूल्य 225₹(डाक खर्च सहित)
प्राप्ति के लिए  7015591564 पर व्हाट्सएप्प करें।
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ईद का हिन्दी पर्याय त्यौहार । ईद अथवा त्यौहार वह विशेष दिन है जो किसी महत्त्वपूर्ण कार्य अथवा धार्मिक आस्थाओं के कारण वर्ष के शेष दिनों से विशिष्टता रखता है । इस दिन कुछ विशेष रीतिरिवाज किये जाते हैं ।
मुसलमान लोग वर्ष में दो ईद मनाते हैं ।
एक ईद है ईद-उल फ़ितर जो रमज़ान के महीना के पश्चात आती है । मुसलमान रमज़ान के महिना को पवित्र मास मानते हैं । इस मास प्रतिदिन रोज़ा ( उपवास ) रखा जाता है । जल का एक बिन्दु भी मुंह में नहीं डालते । सायंकाल नमाज़ से पूर्व रोज़ा खोला जाता है । रात्रि खाना खाते हैं । यह क्रम पूरा मास चलता है । खाना पीना जो जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक वस्तुएं हैं उनको धार्मिक भावनाओं के आधार पर कुछ समय के लिए तज देना आत्मोन्नति के लिए बहुत लाभप्रद है । इससे प्रकट होता है कि हमारे आत्मा ने हमारे शरीर पर कुछ समय के लिए विजय प्राप्त कर ली है । इस प्रकार ये रोज़े संयम का एक विशेष साधन है । अन्य मतों में भी ऐसे व्रत , त्यौहार , उपवास पाए जाते हैं । हिन्दुओं में वर्ष भर में कई त्यौहार हैं जो केवल एक दिन के लिए हैं और जिन में से किसी में एक समय भोजन करते हैं , किसी में कतई नहीं करते । हिन्दुओं में एक और त्यौहार था -- चांद्रायण व्रत -- यह चालीस दिन का व्रत है और व्रत रखने वाला दोपहर को मात्र एक ग्रास ग्रहण करता है परन्तु यह व्रत कभी कभार ही रखा जाता है । रमज़ान के रोज़ों की विशेषता यह है कि मुसलमानों की बहुत बड़ी संख्या इनको रखती है । मुस्लिम देशों में रोज़ा के दिनों में बाज़ारों में भोजन नहीं मिल सकता ।
दूसरी ईद -- ईद उज़हा , यह दस ज़ी उलहजा ( अरबी महीना ) को होती है । इस दिन ईद उल फ़ितर की भांति मुसलमान नहा धोकर अच्छे कपड़े पहनकर बहुत शान से सोत्साह ईदगाह को जाते हैं और नमाज़ के पश्चात लौटकर बकरे की कुर्बानी देते हैं । ईद उल फ़ितर के दिन मुसलमान लोग कुछ मीठी वस्तु खाकर नमाज़ के लिए ईदगाह जाते हैं परन्तु बकरीद में ईदगाह से लौटकर कुर्बानी ( बलि ) के मांस से इफ़तार करते हैं । यही कारण है कि ईद उज़हा की नमाज़ ईद उल फ़ितर की नमाज़ से सवेरे पढ़ी जाती है । बलि बकरे की भी होती है और गाय , भेड़ , दुम्बे , भैंसे तथा ऊंट की भी । मुसलमान लोग इस कुर्बानी के मांस को तीन भागों में बांटते हैं । एक भाग निर्धनों , अकिञ्चन लोगों व् दीन असहाय जनों में वितरित कर देते हैं । दूसरा भाग अपने सगे सम्बन्धियों में तथा तीसरा भाग अपने परिवार , अपने बाल-बच्चों के लिए रख लेते हैं ।
ईद उज़हा का आरम्भ कैसे हुआ ? उसके लिए इस्लाम में एक पुरानी गाथा है कि हज़रात इब्राहीम को जिनकी गिनती नबियों में की जाती है , आज्ञा दी गयी कि ऐसी वस्तु खुदा की राह में कुर्बान करो जो तुम्हारे निकट सबसे प्यारी हो । इस प्रकार उन्होंने अपने पुत्र इस्माईल को कुर्बान करना चाहा । उस समय एक चमत्कार घटित हुआ । इस्माईल तो बच गए परन्तु उनके स्थान पर एक दुम्बा कट गया । इस रीति की स्मृति में बकर ईद का त्यौहार मनाया जाता है । इन दोनों ईदों में नफ़स कुशी ( वासना पर नियन्त्रण ) की भावना है परन्तु एक अन्तर के साथ । रोज़ा ( उपवास ) रखने वाला अपने मन को ( नफ़स ) मार कर स्वयं कष्ट उठाता है , ईद उज़हा में दूसरे का वध किया जाता है भले ही वह प्रिय ही हो । अपने प्रिय को मारने की बजाय स्वयं को मारना अधिक कठिन है । प्यारा होता तो प्यारा है तथापि अपने से तो पृथक होता है अतः ईद उज़हा से वह नफ़स कुशी ( स्वयं को मरना - कष्ट देना ) प्रकट नहीं होता । आजकल के रिवाज में तो यह अन्तर और भी स्पष्ट है । रमज़ान में तो आप दिन भर भूखे रहते हैं कष्ट सहते हैं । बकर ईद में केवल रूपये का व्यय करते हैं अतः केवल मात्र रुपया कर देना कोई नफ़सकुशी ( तप - कष्ट सहन ) नहीं ।
क्या इससे पूर्व पशु-बलि थी ?
हजरत इब्राहीम की गाथा से यह प्रकट होता है कि बकर ईद की रीति हज़रत इब्राहीम से पहले नहीं थी । उनसे पूर्व पशुओं की बलि दी जाती थी अथवा नहीं यह दूसरी बात है । प्रश्न यह भी है कि क्या हज़रत इब्राहीम ने इस पहली घटना के पश्चात जब वह इस्माईल का वध करना चाहते थे और वह चमत्कार से बच गए वह रीति चला दी थी कि ईद उज़हा को मनाया जाए । हज़रत इब्राहीम से पहले अधिकाँश लोग मूर्तिपूजक थे । हज़रत इब्राहीम के पिता आज़र स्वयं मूर्तिपूजक थे । ये मूर्तिपूजक विभिन्न देवी देवताओं पर विश्वास रखते थे जैसे कि भारतीय मूर्तिपूजक रखते हैं । ये देवी देवता मनुष्य के समान खाते , पीते , विवाह रचाते तथा मनुष्यों से भेंट चढ़ावा चाहते हैं । कोई कोई देवी देवता रक्त पिपासु भी होते हैं जिन पर बकरे आदि काटे जाते हैं और मांस , मांसाहारियों को दे दिया जाता है अथवा कुछ भाग स्वयं भी प्रयोग में लाया जाता है ।
कलकत्ता की काली माई , विन्ध्याचल की देवी और भारत के अन्य स्थानों पर कई प्रकार की देवियाँ इस प्रकार की बलि चाहती हैं । नेपाल में भैंसे की बलि दी जाती है । मुझे आश्चर्य होता है कि हज़रत इब्राहीम ने मूर्तिपूजा तो छोड़ दी और एक ईश्वर पर विश्वास लाये तो वहाँ बलि की क्या आवश्यकता रहती है ? परमात्मा तो खाता पीता नहीं । न उसकी दूसरे देवी देवताओं जैसी रूचि ( taste ) है । फिर कुर्बानी क्यों की जाती है ? यह ठीक है कि प्राचीन यहूदी लोग और अन्य जातियां बलि दिया करती थीं परन्तु मुसलमानों को तो सोचना चाहिए कि इस्लाम का आगमन बातिल परस्ती ( झूठ के निराकरण ) के लिए हुआ न कि असत्य के प्रचलित रहने के लिए । मुसलमानों का दावा है कि हम एकेश्वरवादी हैं । " आया सच और भागा झूठ " , परन्तु बकर ईद तो झूठ के भागने की उक्ति को पूरा नहीं करती प्रत्युत बातिल परस्ती ( असत्य-पूजा ) को बल प्रदान करती है । प्रथम तो हज़रत इब्राहीम की गाथा यह प्रकट करती है कि हज़रत इब्राहीम को मात्र स्वप्न आया था और उन्हें प्रियतम वस्तु खुदा की राह में निछावर करने की प्रेरणा दी गयी थी । परमात्मा के पथ पर किसी प्रिय वस्तु को अर्पित करने का क्या अर्थ है ? खुदा की राह में वध करना तो नहीं है । । यह तो किसी देवता की राह है जो अपने लिए मांस चाहता है । खुदा की राह तो यह है कि जन जन को लाभ पहुंचाया जाए । प्रजा को सुख पहुंचाया जाए । ऐसे कार्य में यदि अपनी हानि भी होती हो तो उसको कुर्बानी कहेंगे ।
कुर्ब जिससे हो खुदा का वही कुर्बानी है ।
कुशतने नफ़स हो खूं 'रेज़ी - ए' हैवां न हो ॥
( जिससे प्रभु के समीप हों , वही समर्पण है । वासना को मारिये , पशुओं की हत्या न करो ॥ )
मुसलमान लोगों को विचारना चाहिये । यही सच्ची शरीयते इब्राहीमी ( इब्राहीमी मर्यादा-पथ ) होगी । यदि कोई मुसलमान परमेश्वर के पथ पर अपने प्रियतम पुत्र की बलि दे और खुदा उस पुत्र के स्थान पर कोई मेंढा रख दे तो इब्राहीमी गाथा का उदाहरण होगा परन्तु ऐसा तो नहीं होता । कोई अपने नफ़स ( वासना ) को कुर्बान नहीं करता । कोई जन-कल्याण की बात नहीं सोचता । केवल लकीर के फ़क़ीर बनकर ( अन्धानुकरण ) बकरों , गायों , मेढ़ों की बलि दी जाती है । यह न तो कुर्बानी है और न इब्राहीमी सन्मार्ग-मर्यादा है । यह तो रक्तपात है ।
फिर नमाज़ , हज , दान किस लिये ?
कहा जाता है कि बलि चढ़ाये गए प्राणी के लहू की एक-एक बूँद लोगों को बहिश्त ( heaven ) में पहुंचा देती है । यदि बहिश्त इतनी सस्ती है कि वध की गई गाय के लहू के एक कण से कोई स्वर्ग पा सके तो इस्लामी मत के इतने कर्तव्य कर्म सुनन ( पैग़म्बर की परम्परा - आचरण ) रोज़ा , नमाज़ , ज़कात ( दान ) हज , हदीस व् कुरान पर आचरण ये सब निरर्थक हो जायेंगे । पशुओं के रक्तपात से मनुष्य की कितनी हानि होती है इसका लेखा जोखा करने से ही पता चल सकता है । जो गौएँ व् बकरियाँ दूध की नदियाँ बहाती हैं और वही व्यवहार करती हैं जो हमारी माताएं हमारे साथ करती हैं उनकी इस प्रकार हत्या करना परमेश्वर की समीपता पाने का साधन नहीं बन सकता । और न ही इसको कुर्बानी कह सकते हैं । यदि ईद मनानी है तो मनाने वालों को चाहिये कि आज के दिन यह व्रत लें कि जन-कल्याण के लिये वे क्या-क्या कुर्बानी करने को उद्यत हैं । निर्धनों को दान दें परन्तु पशुओं को मारकर नहीं , अपने खाने में से बचाकर ।
पहले लहू बनता है फिर मांस बनता है --

इस्लाम में रक्त निषिद्ध ( हराम ) है , मैं तो इसका यह अर्थ समझता हूँ कि रक्तपात-हिंसा वर्जित ( हराम ) है । दूसरों को अकारण कष्ट देना वर्जित है , पाप है । कुछ मुसलमान लोगों ने समझ रखा है कि लहू का प्रयोग वर्जित है , रक्तपात वर्जित ( हराम ) नहीं है । वे मांस को लहू से स्वच्छ करके पकाते हैं और प्राणी का वध करते हुए अल्लाह का नाम लेते हैं । ये दोनों बातें स्वयं को धोखा देने जैसी हैं । पहले रक्त बनता है फिर मांस । इसलिए मांस के हर टुकड़े में रक्त तो सम्मिलित है ही । वास्तव में जब लहू को वर्जित घोषित किया गया होगा तो उसका यही भाव रहा होगा कि कोई किसी को दुःख न दे । इसका यह अर्थ नहीं है कि पीड़ा तो दो परन्तु रक्त न निकले ।
इसी प्रकार किसी हराम ( वर्जित ) कर्म के साथ भगवान् का नाम लेना पाप को घटाता नहीं । चोरी करने वाला यदि चोरी करते समय परमेश्वर का नाम लेकर चोरी करे तो उसकी बुराई घट नहीं जायेगी ! परमेश्वर के नाम का निरादर अवश्य होगा । एक सच्चे उपासक को चाहिये कि सर्व प्रकार के खोटे कर्मों से बचे तथा दुष्कर्मों के लिए परमात्मा के नाम की आड़ न ले । परमात्मा तो पवित्र है । उसका नाम भी पवित्र है । प्रभु का नाम शुभ कर्मों के साथ ही लेना चाहिये । ईद पर जो रक्तपात होता है वह परमेश्वर की आज्ञा का पालन नहीं प्रत्युत उल्लंघन है ।
इस्लाम में बहुत सी मिथ्या बातें ( बातिल परस्तियाँ ) सम्मिलित हो गयी हैं । इस्लामी विद्वानों का कर्तव्य है कि वे विचार करें और सामान्य मुसलमानों को अज्ञान के गढ़े से निकाले ।

(यह लेख पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी का है जो उर्दू में सन १९६७ में छपा था)

Friday, August 27, 2021

अफगानिस्तान संकट।

अमेरिका उस मतवाद पर प्रहार नहीं कर पाया, जिसमें बसे हैं तालिबान आतंकी धड़े के प्राण...*
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नेपोलियन ने कहा था कि किसी भी युद्ध में योद्धाओं के मनोबल और उनकी भौतिक ताकत में वही संबंध है जो दस और एक में होता है। इसे अफगानिस्तान के हालिया इतिहास में कई बार देखा जा चुका है। फिर भी यह बात बड़े-बड़े रणनीतिकार नहीं समझ पाए। शायद वे इसे देखकर भी अनदेखा करते हैं। इसका सबसे सटीक उदाहरण तालिबान है। यह वह नाम है जो पिछले तीस साल से आतंक का पर्याय बन कुख्यात हो चला है। तालिबान का पूरा परिचय छिपाया जाता है। हालांकि, उनकी करतूतें खूब दिखाई जाती हैं। जैसे तालिबान द्वारा किसी को मारकर खंभे पर लटका देना, स्त्रियों को प्रताड़ित करना या ऐतिहासिक-सांस्कृतिक प्रतीकों को ध्वस्त करना आदि। गैर-मुस्लिमों के साथ उनके अपमानजनक व्यवहार को भी दिखाया जाता है, लेकिन इस पर चुप्पी साध ली जाती है कि तालिबान असल में ऐसा करते क्यों हैं? यह तब है जब खुद तालिबान बड़ी ठसक के साथ इन कृत्यों के पीछे कारणों की जोरशोर से मुनादी करता है। वहीं उससे प्रताड़ित पक्ष इस पर खामोश रहते हैं। इससे तालिबान का मनोबल बढ़ता है। अफगानिस्तान के संदर्भ में हालिया विमर्श अभी भी ट्रंप-बाइडन प्रतिद्वंद्विता, लचर अफगान सैन्य बल, भ्रष्टाचार, पाकिस्तानी छल और भौगोलिक स्थिति इत्यादि पर तो हो रहा है, मगर तालिबान के विचार और उसके स्नोत पर चर्चा शून्य है।

भारत में तो संघ परिवार को ‘हिंदू तालिबान’ कहकर लांछित किया जा रहा है, जबकि मूल तालिबान के प्रति सम्मान का भाव है। खुद संघ-भाजपा भी तालिबान पर कुछ कहने में संकोच करते हैं। यह सब भी तुलनात्मक मनोबल ही दर्शाता है। वस्तुत: तालिबान के कारनामों का कारण उनके नाम में मौजूद है। तालिबान यानी छात्र। किसके छात्र? देवबंदी मदरसों के छात्र। यह कोई छिपी बात नहीं। वर्ष 1995-2001 के बीच जब अफगानिस्तान के शासक के रूप में तालिबान कुख्यात हुए तो असंख्य विदेशी पत्रकारों ने भारत स्थित देवबंद आकर उस संस्था को जानने-समझने की कोशिश की थी, जिसकी सीख तालिबान लागू करते रहे। उन्होंने वही किया था जो दुनिया में अनेक इस्लामी शासकों ने गत चौदह सौ सालों में किया, परंतु यह सब जानकर भी अनजान बना जाता है। यहां टैगोर की पंक्ति सत्य लगती है कि सत्य को अस्वीकार करने वाले की पराजय होती है।

जिहादी संगठनों और इस्लामी सत्ताओं से लड़ने में यही हो रहा है। तालिबान के विचार, उनके मदरसों के पाठ्यक्रम और किताबों आदि को श्रद्धास्पद मानकर तालिबान से महज भौतिक, शारीरिक लड़ाई लड़ी जा रही है। ऐसे में परिणाम तय है। आप मुल्ला उमर, बगदादी या ओसामा से निपटेंगे तो उनके बाद दूसरे आ जाएंगे, क्योंकि अपने मतवाद पर उनका भरोसा यथावत है। दूसरी ओर अमेरिकी, यूरोपीय नेता, नीति नियंता और सेनानायक भ्रमित हैं। उन्हें समझ नहीं आता कि वे किससे और किसलिए लड़ रहे हैं?

एक पुरानी कहानी है। एक राक्षस अजेय था, क्योंकि उसके प्राण उसकी देह में नहीं, बल्कि किसी पर्वत पर रहने वाले तोते में बसे थे। आज जिहादी आतंक कुछ वैसा ही राक्षस है, जिसे खत्म करने में बेहतरीन हथियारों से सुसज्जित सेनाएं भी असमर्थ हैं। अमेरिका-यूरोप की आतंक के विरुद्ध युद्ध में नाकामी का यही कारण रहा वे उस मतवाद पर प्रहार नहीं कर पाए हैं, जिसमें इस आतंक के प्राण बसे हैं। मात्र आतंकी सरगनाओं को मारने से काम नहीं बनेगा।

विचित्र यह है कि अमेरिका, यूरोप या भारत की आम जनता भी धीरे-धीरे असलियत समझ चुकी है, मगर नेता नजरें चुराते हैं। जिहादी इतिहास के अध्ययन और अनुभवों से अब तमाम लोग झूठे प्रचार को खारिज करने लगे हैं। इस्लामी संगठनों, नेताओं और मौलानाओं के बयानों व क्रियाकलापों का संबंध समझ रहे हैं। सभी किसी न किसी बहाने जिहादी हिंसा का प्रत्यक्ष/परोक्ष समर्थन करते हैं। ऐसा करते हुए सदैव इस्लाम का ही हवाला देते हैं।

स्पष्ट है कि तालिबान को हराने में विफलता उद्देश्य की पहचान में गलती के कारण मिली है। तालिबान के पीड़ितों को यह बताना था कि उन्हें तालिबान के वैचारिक स्नेत और आधार को नकारना होगा। अन्यथा जीत नहीं सकते। क्या वाम विचारधारा को आदर देकर साम्यवाद को पराजित किया जा सकता था? वैसे ही शरीयत, देवबंदी मदरसों और मौलानाओं को पुरस्कृत-प्रोत्साहित कर जिहाद को हराना असंभव है। यही अफगानिस्तान का सबक है, जिसे सीखकर ही सही लड़ाई होगी। किसी मतवाद की बुराइयां दिखाना सहज शैक्षिक काम है। उस मतवाद को मानने वालों का मनोबल तभी टूटेगा, जब वे विचारों का बचाव विचार से करने में विफल होंगे। यह किया जा सकता है। केवल डटने भर की जरूरत है।

दुर्भाग्यवश अभी तक दुनिया के दिग्गज नेता और बुद्धिजीवी तालिबानी आतंक को उनके मजहबी विश्वास से अलग कर निपटने की कोशिशों में लगे हैं। किसी मजहब के प्रति आस्था भाव में उन्होंने उसके हिंसक राजनीतिक स्वरूप से भी आंखें मूंद ली हैं। इसी कारण तालिबान के खिलाफ लंबी और महंगी लड़ाई लड़ने के बावजूद अमेरिका को उसके साथ समझौते पर मजबूर होना पड़ा। अमेरिका द्वारा इसे केवल एक सामरिक संघर्ष मान लेना उसके लिए बड़ी भूल साबित हुई। वास्तव में यह एक वैचारिक लड़ाई भी थी।

तालिबान विशुद्ध जिहादी हैं। वे अमेरिका का सहयोग करने वाले अफगान लोगों को इस्लाम विरोधी समझ कर मारते हैं। इस्लामी सिद्धांत गैर-मुसलमानों, जिन्हें काफिर कहा जाता है, से दोस्ती की मनाही करता है। इसी कारण आम अफगान देश छोड़कर भाग रहे हैं, क्योंकि उन्हें तालिबान से जीतना असंभव लगता है। तालिबान ने तो इस्लामिक कानून लागू करने की दिशा में कदम भी बढ़ा दिए हैं। इसके बावजूद वैश्विक विमर्श में इस केंद्रीय तत्व का उल्लेख लुप्त है। इसी भूल के कारण जिहाद के विविध रूपों, संगठनों और संस्थानों के विरुद्ध लड़ाई बिल्कुल लचर रही है। जिहादियों से लड़ने वालों का दुर्बल आत्मविश्वास वैचारिक भ्रम का परिणाम है। इसे सुधारे बिना कोई अन्य मार्ग नहीं।

- डॉ. शंकर शरण (२७ अगस्त २०२१)

Thursday, August 26, 2021

मदर टेरेसामदर टेरेसा: क्या वो संत थी?

मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को स्कोप्जे, मेसेडोनिया[i] में हुआ था और बारह वर्ष की आयु में उन्हें अहसास हुआ कि “उन्हें ईश्वर बुला रहा है”। 24 मई 1931 को वे कलकत्ता आई और यही की होकर रह गई। कोलकाता आने पर धन की उगाही करने के लिए मदर टेरेसा ने अपनी मार्केटिंग आरम्भ करी। उन्होंने कोलकाता को गरीबों का शहर के रूप में चर्चित कर और खुद को उनकी सेवा करने वाली के रूप में चर्चित कर अंतराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करी। वे कुछ ही वर्षों में "दया की मूर्ति", "मानवता की सेविका", "बेसहारा और गरीबों की मसीहा", “लार्जर दैन लाईफ़” वाली छवि से प्रसिद्द हो गई। हालाँकि उन पर हमेशा वेटिकन की मदद और मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी की मदद से “धर्म परिवर्तन” का आरोप तो लगता रहा । गौरतलब तथ्य यह है कि इनमें से अधिकतर आरोप पश्चिम की प्रेस[ii] या ईसाई पत्रकारों आदि ने ही किये थे[iii][iv]। ना कि किसी हिन्दू संगठन ने, जिससे संदेह और भी गहरा हो जाता है[v]। अपने देश के गरीब ईसाईयों की सेवा करने के स्थान पर मदर टेरेसा को भारत के गरीब गैर ईसाईयों के उत्थान में अधिक रूचि होना क्या ईशारा करता है? पाठक स्वयं निर्णय कर सकते है।

मदर टेरेसा को समूचे विश्व से, कई ज्ञात और अज्ञात स्रोतों से बड़ी-बड़ी धनराशियाँ दान के तौर पर मिलती थी। सबसे बड़ी बात यह थी की मदर ने कभी इस विषय में सोचने का कष्ट नहीं किया की उनके धनदाता की आय का स्रोत्र एवं प्रतिष्ठा कैसी थी। उदहारण के लिए अमेरिका के एक बड़े प्रकाशक रॉबर्ट मैक्सवैल, जिन्होंने कर्मचारियों की भविष्यनिधि फ़ण्ड्स में 450 मिलियन पाउंड का घोटाला किया[vi]। उसने मदर टेरेसा को 1.25 मिलियन डालर का चन्दा दिया। मदर टेरेसा मैक्सवैल की पृष्ठभूमि को जानती थी। हैती के तानाशाह जीन क्लाऊड डुवालिये ने मदर टेरेसा को सम्मानित करने बुलाया। मदर टेरेसा कोलकाता से हैती सम्मान लेने गई। जिस व्यक्ति ने हैती का भविष्य बिगाड़ कर रख दिया। गरीबों पर जमकर अत्याचार किये और देश को लूटा। टेरेसा ने उसकी “गरीबों को प्यार करने वाला” कहकर तारीफ़ों के पुल बांधे थे। मदर टेरेसा को चार्ल्स कीटिंग से 1.25 मिलियन डालर का चन्दा मिला था। ये कीटिंग महाशय वही हैं जिन्होंने “कीटिंग सेविंग्स एन्ड लोन्स” नामक कम्पनी 1980 में बनाई थी और आम जनता और मध्यमवर्ग को लाखों डालर का चूना लगाने के बाद उसे जेल हुई थी[vii]। अदालत में सुनवाई के दौरान मदर टेरेसा ने जज से कीटिंग को माफ़ करने की अपील की थी। उस वक्त जज ने उनसे कहा कि जो पैसा कीटिंग ने गबन किया है क्या वे उसे जनता को लौटा सकती हैं? ताकि निम्न-मध्यमवर्ग के हजारों लोगों को कुछ राहत मिल सके, लेकिन तब वे चुप्पी साध गई।

यह दान किस स्तर तक था इसे जानने के लिए यह पढ़िए। मदर टेरेसा की मृत्यु के समय सुसान शील्ड्स को न्यूयॉर्क बैंक में पचास मिलियन डालर की रकम जमा मिली। सुसान शील्ड्स वही हैं जिन्होंने मदर टेरेसा के साथ सहायक के रूप में नौ साल तक काम किया। सुसान ही चैरिटी में आये हुए दान और चेकों का हिसाब-किताब रखती थी। जो लाखों रुपया गरीबों और दीन-हीनों की सेवा में लगाया जाना था। वह न्यूयॉर्क के बैंक में यूँ ही फ़ालतू पड़ा था[viii]?

दान से मिलने वाले पैसे का प्रयोग सेवा कार्य में शायद ही होता होगा इसे कोलकाता में रहने वाले अरूप चटर्जी ने अपनी पुस्तक "द फाइनल वर्डिक्ट" पढ़िए[ix]। लेखक लिखते हैं ब्रिटेन की प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका Lancet के सम्पादक डॉ.रॉबिन फ़ॉक्स ने 1991 में एक बार मदर के कलकत्ता स्थित चैरिटी अस्पतालों का दौरा किया था। उन्होंने पाया कि बच्चों के लिये साधारण “अनल्जेसिक दवाईयाँ” तक वहाँ उपलब्ध नहीं थी और न ही “स्टर्लाइज्ड सिरिंज” का उपयोग हो रहा था। जब इस बारे में मदर से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “ये बच्चे सिर्फ़ मेरी प्रार्थना से ही ठीक हो जायेंगे"। मिशनरी में भर्ती हुए आश्रितों की हालत भी इतने धन मिलने के उपरांत भी उनकी स्थिति कोई बेहतर नहीं थी। मिशनरी की नन दूसरो के लिए दवा से अधिक प्रार्थना में विश्वास रखती थी। जबकि खुद कोलकाता के महंगे से महंगे अस्पताल में कराती थी। मिशनरी की एम्बुलेंस मरीजों से अधिक नन आदि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने का कार्य करती थी। यही कारण था की मदर टेरेसा की मृत्यु के समय कोलकाता निवासी उनकी शवयात्रा में न के बराबर शामिल हुए थे।

मदर टेरेसा अपने रूढ़िवादी विचारों के लिए सदा चर्चित रही। बांग्लादेश युद्ध के दौरान लगभग साढ़े चार लाख महिलायें बेघर हुई और भागकर कोलकाता आईं। उनमें से अधिकतर के साथ बलात्कार हुआ था जिसके कारण वह गर्भवती थी। मदर टेरेसा ने उन महिलाओं के गर्भपात का विरोध किया और कहा था कि “गर्भपात कैथोलिक परम्पराओं के विरुद्ध है और इन औरतों की प्रेग्नेन्सी एक “पवित्र आशीर्वाद” है। मदर टेरेसा की इस कारण जमकर आलोचना हुई थी[x]।

मदर टेरेसा ने इन्दिरा गाँधी की आपातकाल लगाने के लिये तारीफ़ की थी और कहा कि “आपातकाल लगाने से लोग खुश हो गये हैं और बेरोजगारी की समस्या हल हो गई है”[xi]। गाँधी परिवार ने उन्हें इस बड़ाई के लिए “भारत रत्न” का सम्मान देकर उनका “ऋण” उतारा। भोपाल गैस त्रासदी भारत की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना है, जिसमें सरकारी तौर पर 4000 से अधिक लोग मारे गये और लाखों लोग अन्य बीमारियों से प्रभावित हुए। उस वक्त मदर टेरेसा ताबड़तोड़ कलकत्ता से भोपाल आईं, किसलिये? क्या प्रभावितों की मदद करने? जी नहीं, बल्कि यह अनुरोध करने कि यूनियन कार्बाईड के मैनेजमेंट को माफ़ कर दिया जाना चाहिये[xii]। और अन्ततः वही हुआ भी, वारेन एंडरसन ने अपनी बाकी की जिन्दगी अमेरिका में आराम से बिताई। भारत सरकार हमेशा की तरह किसी को सजा दिलवा पाना तो दूर, ठीक से मुकदमा तक नहीं कायम कर पाई।

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रकार क्रिस्टोफ़र हिचेन्स ने 1994 में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, जिसमें मदर टेरेसा के सभी क्रियाकलापों पर विस्तार से रोशनी डाली गई थी। बाद में यह फ़िल्म ब्रिटेन के चैनल-फ़ोर पर प्रदर्शित हुई और इसने काफ़ी लोकप्रियता अर्जित की। बाद में अपने कोलकाता प्रवास के अनुभव पर उन्होंने एक किताब भी लिखी “हैल्स एन्जेल” (नर्क की परी)। इसमें उन्होंने कहा है कि “कैथोलिक समुदाय विश्व का सबसे ताकतवर समुदाय है। जिन्हें पोप नियंत्रित करते हैं, चैरिटी चलाना, मिशनरियाँ चलाना, धर्म परिवर्तन आदि इनके मुख्य काम है। जाहिर है कि मदर टेरेसा को टेम्पलटन सम्मान, नोबल सम्मान, मानद अमेरिकी नागरिकता जैसे कई सम्मान इसी कारण से मिले[xiii]।

ईसाईयों के लिए यही मदर टेरेसा दिल्ली में 1994 में दलित ईसाईयों के आरक्षण की हिमायत करने के लिए धरने पर बैठी थी। तब तत्कालीन मंत्री सुषमा स्वराज ने उनसें पूछा था की क्या मदर दलित ईसाई जैसे उद्बोधनों के रूप में चर्च में जातिवाद का प्रवेश करवाना चाहती है[xiv]। महाराष्ट्र में 1947 में देश आज़ाद होते समय अनेक मिशन के चर्चों को आर्यसमाज ने खरीद लिया क्यूंकि उनका सञ्चालन करने वाले ईसाई इंग्लैंड लौट गए थे। कुछ दशकों के पश्चात ईसाईयों ने उस संपत्ति को दोबारा से आर्यसमाज से ख़रीदने का दबाव बनाया। आर्यसमाज के अधिकारीयों द्वारा मना करने पर मदर टेरेसा द्वारा आर्यसमाज के पदाधिकारियों को देख लेने की धमकी दी गई थी। कमाल की संत? थी[xv]।

मदर टेरेसा जब कभी बीमार हुईं तो उन्हें बेहतरीन से बेहतरीन कार्पोरेट अस्पताल में भर्ती किया गया। उन्हें हमेशा महंगा से महंगा इलाज उपलब्ध करवाया गया। यही उपचार यदि वे अनाथ और गरीब बच्चों (जिनके नाम पर उन्हें लाखों डालर का चन्दा मिलता रहा) को भी दिलवाती तो कोई बात होती, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। एक बार कैंसर से कराहते एक मरीज से उन्होंने कहा कि “तुम्हारा दर्द ठीक वैसा ही है जैसा ईसा मसीह को सूली पर हुआ था, शायद महान मसीह तुम्हें चूम रहे हैं। तब मरीज ने कहा कि “प्रार्थना कीजिये कि जल्दी से ईसा मुझे चूमना बन्द करे”।

मदर टेरेसा की मृत्यु के पश्चात भी चंदा उगाही का कार्य चलता रहे और धर्मान्तरण करने में सहायता मिले इसके लिए एक नया ड्रामा रचा गया। पोप जॉन पॉल को मदर को “सन्त” घोषित करने में जल्दबाजी की गई। सामान्य रूप से संत घोषित करने के लिये जो पाँच वर्ष का समय (चमत्कार और पवित्र असर के लिये) दरकार होता है, पोप ने उसमें भी ढील दे दी। पश्चिम बंगाल की एक क्रिश्चियन आदिवासी महिला जिसका नाम मोनिका बेसरा था।उसे टीबी और पेट में ट्यूमर हो गया था। बेलूरघाट के सरकारी अस्पताल के डॉ. रंजन मुस्ताफ़ उसका इलाज कर रहे थे। उनके इलाज से मोनिका को काफ़ी फ़ायदा हो रहा था और एक बीमारी लगभग ठीक हो गई थी। अचानक एक दिन मोनिका बेसरा ने अपने लॉकेट में मदर टेरेसा की तस्वीर देखी और उसका ट्यूमर पूरी तरह से ठीक हो गया। मिशनरी द्वारा मोनिका बेसरा के ठीक होने को चमत्कार एवं मदर टेरेसा को संत के रूप में प्रचारित करने का बहाना मिल गया। यह चमत्कार का दावा हमारी समझ से परे है। जिन मदर टेरेसा को जीवन में अनेक बार चिकित्सकों की आवश्यकता पड़ी थी। उन्हीं मदर टेरेसा की कृपा से ईसाई समाज उनके नाम से प्रार्थना करने वालो को बिना दवा केवल दुआ से, चमत्कार से ठीक होने का दावा करता होना मानता है। अगर कोई हिन्दू बाबा चमत्कार द्वारा किसी रोगी के ठीक होने का दावा करता है तो सेक्युलर लेखक उस पर खूब चुस्कियां लेते है। मगर जब पढ़ा लिखा ईसाई समाज ईसा मसीह से लेकर अन्य ईसाई मिशनरियों द्वारा चमत्कार होने एवं उससे सम्बंधित मिशनरी को संत घोषित करने का महिमा मंडन करता है तो उसे कोई भी सेक्युलर लेखक दबी जुबान में भी इस तमाशे को अन्धविश्वास नहीं कहता[xvi]।

जब मोरारजी देसाई की सरकार में सांसद ओमप्रकाश त्यागी द्वारा धर्म स्वातंत्रय विधेयक के रूप में धर्मान्तरण के विरुद्ध बिल पेश हुआ[xvii]। तो इन्ही मदर टेरेसा ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इस विधेयक का विरोध किया और कहाँ था की ईसाई समाज सभी समाज सेवा की गतिविधिया जैसे की शिक्षा, रोजगार, अनाथालय आदि को बंद कर देगा। अगर उन्हें अपने ईसाई मत का प्रचार करने से रोका जायेगा। तब प्रधान मंत्री देसाई ने कहाँ था इसका अर्थ क्या यह समझा जाये की ईसाईयों द्वारा की जा रही समाज सेवा एक दिखावा मात्र है। उनका असली प्रयोजन तो धर्मान्तरण हैं। देश के तत्कालीन प्रधान मंत्री का उत्तर ईसाई समाज की सेवा के आड़ में किये जा रहे धर्मान्तरण को उजागर करता है[xviii]।

इस लेख को पढ़कर हिन्दुओं का धर्मान्तरण करने वाली मदर टेरेसा को कितने लोग संत मानना चाहेंगे?

डॉ विवेक आर्य

[i] Skopje is the capital of the Republic of Macedonia.

[ii] Interview by Hemley Gonzalez, founder of: STOP The Missionaries of Charity

[iii] The Missionary Position: Mother Teresa in Theory and Practice by Christopher Hitchens

[iv] Ref.-The interview with Sally Warner

[v] क्योंकि हिन्दू संगठन जो भी बोलते या लिखते हैं, उसे तत्काल सांप्रदायिक ठहरा दिये जाने का “फैशन” है

[vi] Chap 2,The Missionary Position: Mother Teresa in Theory and Practice by Christopher Hitchens

[vii] Ibid

[viii] Mother Teresa: Where Are Her Millions? By Walter Wuellenweber

[ix] Mother Teresa: The Final Verdict By Aroup Chatterjee

[x] Picking Up the Pieces: 1971 War Babies’ Odyssey from Bangladesh to Canada

By Mustafa Chowdhury

[xi] Mother Teresa (The Centenary Edition) By Chawla, Navin

[xii] The Saint & The Sceptic Is ‘research’ enough to bust the Mother Teresa ‘myth’? By Dola Mitra, Article in Outlook Magazine March, 2013 Edition.

[xiii] Christopher Hitchens and his book The Missionary Position remain the original blasters of the Mother Teresa ‘myth’, asserting hers was an image created assiduously in the eyes of the media.

[xiv] Mother Teresa: The Final Verdict By Aroup Chatterjee

[xv] बागी दयानंद: स्वामी विद्यानंद

[xvi] Mother Teresa: The Final Verdict By Aroup Chatterjee

[xvii] The freedom of Religion Bill 1978 by Om Prakash Tyagi

[xviii] Vindicated by Time: The Niyogi Committee Report on Christian Missionary Activities, Chap 2

मदर टेरेसा का मायाजाल।

26 अगस्त जन्मदिन पर 

भारत में गरीबों और बीमारों की सेवा के नाम पर धर्मांतरण कराने वाली ईसाई एजेंट एग्नेस गोंक्सा बोयाजियू उर्फ मदर टेरेसा के नाम के आगे ‘संत’ जोड़ा जा रहा है। पिछले आधी से ज्यादा सदी से भारत और दुनिया भर में मदर टेरेसा का महिमामंडन होता रहा है। जबकि यह बात लगातार सामने आती रही है कि मदर टेरेसा सेवा जरूर करती थीं, लेकिन इसके बदले में वो गरीबों को बहला-फुसलाकर उनको ईसाई बनाया करती थीं। यही वजह थी कि मशहूर लेखक क्रिस्टोफर हिचेंस ने 2003 में ही मदर टेरेसा को ‘फ्रॉड’ की उपाधि दे दी थी। हम आपको वे बातें बताते हैं जिन्हें जानकर आपको मदर टेरेसा से नफरत हो जाएगी। पहले 3 कारण क्रमशः है -
1. नॉर्थ-ईस्ट की ‘आजादी’ चाहती थीं टेरेसा
नॉर्थ-ईस्ट में अलगाववादी आंदोलनों में मदर टेरेसा की संस्था का बड़ा हाथ माना जाता है। इस इलाके में बरसों से सक्रिय ईसाई संगठनों ने स्थानीय आदिवासियों का धर्म परिवर्तन करवाया। जिसके कारण यहां बसे तमाम समुदायों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई। आरोप तो यहां तक लगते हैं मदर टेरेसा ने यहां के लोगों में यह भावना भरी कि भारतीय सरकार उन पर अत्याचार कर रही है। आदिवासी के तौर पर इन लोगों को आरक्षण मिला करता था, लेकिन ईसाई बनने के बाद आरक्षण बंद हो गया। मदर टेरेसा ने लोगों को बताया कि जीसस के करीब जाने के कारण भारतीय सरकार उनकी दुश्मन बन गई है।
2. जादू-टोने से गरीबों का इलाज करती थीं
मदर टेरेसा कहा करती थीं कि पीड़ा आपको जीसस के करीब लाती है। वो गरीब-बीमार लोगों के इलाज के लिए चमत्कार और दुआओं का सहारा लिया करती थीं। लेकिन जब खुद बीमार होती थीं तो दुनिया के सबसे महंगे अस्पतालों में इलाज कराने चली जाती थीं। 1991 में बीमार पड़ने पर वो अमेरिका के कैलीफोर्निया में इलाज कराने चली गई थीं, जबकि भारत में भी अच्छी मेडिकल सर्विस उपलब्ध थी। मदर टेरेसा के पास दुनिया भर से करोड़ों रुपये का फंड आता था, लेकिन उन्होंने कोलकाता में कभी एक ढंग का अस्पताल तक नहीं बनवाया। जबकि इतने पैसे में कई अस्पताल बनवाए जा सकते थे।
3. 3. बीमारों की सेवा कम, प्रोपोगेंडा ज्यादा
मदर टेरेसा कहा करती थीं कि वो कलकत्ता की सड़कों और गलियों से बीमार पड़े लोगों को उठाकर अपने सेंटर में लाती हैं। जबकि यह बात पूरी तरह झूठ पाई गई थी। मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी में काम कर चुके डॉक्टर अरूप चटर्जी ने अपनी किताब ‘मदर टेरेसा: द फाइनल वरडिक्ट’ में बताया है कि यह दावा गलत था। जब कोई फोन करके बताता था कि फलां जगह कोई बीमार पड़ा है तो ऑफिस से जवाब दिया जाता था कि 102 नंबर पर फोन कर लो।
चटर्जी के मुताबिक संस्था के पास कई एंबुलेंस थीं, लेकिन इनमें ननों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता था। मदर टेरेसा हमेशा दावा करती रहीं कि उनकी संस्था कलकत्ता में रोज हजारों गरीबों को खाना खिलाती है। लेकिन यह बात भी समय के साथ फर्जी साबित हो गई थी। दरअसल संस्था के किचन में एक दिन में सिर्फ 300 लोगों का ही खाना बनता था। इतने के लिए ही राशन भी मंगाया जाता था। यह खाना सिर्फ उन लोगों को मिलता था जिन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया हो।

हिन्दू समाज की मूर्खता

यह सभी जानते है कि मदर टेरेसा सेवा के नाम पर धर्मांतरण का कार्य करती थी और बड़े शातिर तरीके से उन्होंने अपनी मार्केटिंग करी कि जिससे यह लगे की गरीबों की वह सबसे बड़ी हमदर्द है। इसका परिणाम यह निकला की विश्व स्तर पर उनकी बढ़िया छवि बन गई जिससे न केवल अकूत धन की उन पर वर्षा हुई बल्कि नोबेल शांति पुरस्कार से भी मिला। इसका दूरगामी प्रभाव यह हुआ कि हिन्दू समाज उनके धर्मान्तरण के असली उद्देश्य की अनदेखी कर उन्हें संत मानने लग गया।इसी कड़ी में कुछ हिन्दुओं की मूर्खता देखिये उन्होंने इंग्लैंड के वेम्ब्ली में 16 मिलियन पौंड खर्च करके आलीशान मंदिर का निर्माण किया उसमें हिन्दू देवी देवताओं के अतिरिक्त वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप या बन्दा बैरागी नहीं अपितु मदर टेरेसा की मूर्ति लगा डाली।

Wednesday, August 25, 2021

एक ऐसी घटना।

जिसे सुनकर स्वंभू महात्मा और जबरदस्ती थोपे गये चाचा से घिन हो जाएगी...

क्योंकि #सुभाष #चंद्र बॉस अंग्रेजों की आंखों में चुभते थे, और उनके गायब होने से
 यही दोनों खूब फले फूले हैं ..!!

एक बेसहारा , लावारिस और अनजान 
के रूप में हुई एक मृत्यु का दर्दनाक सच ..!

         एक थी श्रीमती नीरा आर्य ( ०५-०३-१९०२ / २६-०७-१९९८ ) - नेताजी सुभाष चंद्र #बोस की रक्षा के लिए 
इसी बहादुर महिला का  "स्तन" तक 
काट दिया गया ! 
( मैं स्पष्ट लिखने के लिए सभी से क्षमा चाहूँगा ) नीरा आर्य ने श्री कांत जोइरोंजोन दास से शादी की , जो ब्रिटिश पुलिस में एक सीआईडी ​​इंस्पेक्टर थे। 

     जब कि नीरा आर्य एक सच्ची राष्ट्रवादी थी , उनके पति एक सच्चे ब्रिटिश नौकर थे। 
देशभक्त होने के नाते नीरा सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय सेना की झांसी रेजिमेंट में शामिल हुईं। 

   नीरा आर्य के पति इंस्पेक्टर श्रीकांत जोइरोंजोन दास सुभाष चंद्र बोस की जासूसी कर रहे थे और जोइरोंजोन दास ने एक बार सुभाष चंद बॉस पर गोलियां चला दीं लेकिन सौभाग्य से सुभाष चंद बोस बाल-बाल बच गए। 
सुभाष चंद बोस को बचाने के लिए नीरा आर्य ने अपने पति की चाकू मार कर हत्या कर दी थी ।

हालाँकि , I.N.A के आत्म समर्पण के बाद लाल किले में एक मुकदमा ( नवंबर-1945 और मई-1946 ) तक चला , नीरा आर्य को छोड़कर सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया । 
वहीं उसे सेलूर जेल , अंडमान ले जाया गया जहाँ उसे हर दिन प्रताड़ित किया जाता था। 
    
एक लोहार लोहे की जंजीरें और बेड़ियाँ हटाने आया और उसने जान बूझकर बेड़ियाँ हटाने के बहाने उसकी त्वचा का 
थोड़ा सा हिस्सा भी काट दिया और उसके पैरों पर हथौड़े से 2-3 बार जान बूझ कर मारा...

नीरा आर्य ने असहनीय दर्द को सहा। 
जेलर , जो इस पर पीडा के खेल का 
आनंद ले  रहा था , 
जेलर ने नीरा को रिहा करने की पेशकश  
इस शर्त के साथ कि अगर वह 
सुभाष चंद बॉस के ठिकाने का 
खुलासा करती है। 

नीरा आर्य  ने जवाब दिया कि बोस की मृत्यु 
एक विमान दुर्घटना में हुई थी,
और पूरी दुनिया इसके बारे में जानती है...

जेलर ने विश्वास करने से इनकार कर दिया 
और जवाब दिया , तुम झूठ बोल रही हो , 
और सुभाष चंद बॉस अभी भी जीवित हैं , 
तब नीरा आर्य ने कहा-
 "हाँ, वो ज़िंदा है , वो मेरे दिल में रहता है !"

जेलर ने गुस्से में आकर कहा- 
"फिर हम सुभाष चंद बॉस को 
तुम्हारे दिल से निकाल देंगे..." 
जेलर ने उसे गलत तरीके से छुआ 
और कपड़ों को फाड़ दिया। 

कपड़े अलग किए और लोहार को 
उसकी छाती काटने का आदेश दिया। 
लोहार ने तुरंत ब्रेस्ट रिपर लिया 
और उसके दाहिने शरीर को कुचलने लगा। बर्बरता यहीं नहीं रुकी, 
जेलर ने उसकी गर्दन पकड़ ली 
और कहा कि मैं आपके दोनों 'हिस्सों" को 
उनके स्थान से अलग कर दूँगा। 

उसने आगे बर्बर मुस्कान के साथ कहा- 
"गनीमत है "ये ब्रेस्ट रिपर गर्म नहीं हुआ है 
वरना आपका ब्रेस्ट पहले ही कट चुके होते"।

नीरा आर्य ने अपने जीवन के अंतिम दिन 
फूल बेचने में बिताए 
और वह फलकनुमा , 
भाग्य नगरम में एक छोटी सी 
झोपड़ी में रहती थी। 

'स्वतंत्र कही जाने वाली' सरकार (?)  
ने उनकी झोपड़ी को सरकारी जमीन पर 
बनाने का आरोप लगाते हुए गिरा दिया। 

#नीरा #आर्य की मृत्यु २६-०७-१९९८ को 
एक बेसहारा , लावारिस , अनजानी  
के रूप में हुई , 
जिसके लिए पूरी पृथ्वी पर कोई 
रोने वाला तक नहीं था। 

मुझे यकीन है , 

हमारे अधिकांश लोग इस सब से अनजान हैं ....
और हमारा राष्ट्र #गांधी और 
लेहरू की महान महिमा गा रहा है। 

आइए उनकी चार दिन पहले गुज़री 
पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित करें...

कुछ बूंद आँसू से ....!!!

🇮🇳🇮🇳🇮🇳️ #वंदॆमातरम् 🇮🇳🇮🇳🇮🇳️ 
🚩🚩#भारत माता की जय 🚩🚩

🚩 देश , समाज , हर #भारतवासी को इनकी सच्चाई से अवगत कराए। 

कम्युनिस्ट नरसंहार की स्मृतियाँ।

पोस्ट मे दिया चित्र आपको बहुत वीभत्स और अप्रिय लग रहा होगा। परन्तु सच कड़वा होता है। चित्र कम्बोडिया के एक संग्रहालय (म्यूजियम) का है।

चीन के माओ के ग्रेट लीप के नाम पर 2 करोड़ से अधिक चीनियों का नरसंहार हो या स्टालिन का रूसी नर संहार। क्म्युनिस्टो का इतिहास ही नरसंहारों से भरा पड़ा है।

दुनिया के इतिहास में बेइंतहा 'जुल्म की दास्तानों' में से एक कंबोडिया की धरती पर लिखी गई थी। सिर्फ पाँच साल में 30 लाख से ज्यादा लोगों को मौत के घाट किस तरह उतारा गया, इसकी कहानी जेनोसाइड म्यूजियम (नरसंहार संग्रहालय) में आज भी दर्ज है।कंबोडिया के तत्कालीन राजा नॉरोडोम सिहानुक को अपदस्थ कर खमेर रूज के माओवादी नेता पोल पोट ने सन्‌ 1975 में सत्ता हथियाई थी। अगले पाँच साल तक पोल पोट ने इतने जुल्म ढाए कि इंसानियत काँप उठी। विरोधियों का दमन करने के लिए यातना शिविर और जेलें बनाई गईं। एक जेल हाईस्कूल में बनाई गई, जहाँ अब जेनोसाइड म्यूजियम बना दिया गया है।

मानव खोपड़ीओं का मीनार ... लगभग 5000 से अधिक मानव खोपड़ी ... शीशे की एक टावर में रखी हुई हैं ... . यह उन अभागे कंबोडियनस का सर है ... जिन्हे पोल पोट की कम्युनिस्ट सरकार ने 1975 से 1979 के बीच यहां लाकर हत्या कर दी। इस कट्टर माओवादी समूह ने 1975 मे कंबोडिया का नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया था. . इस शासनकाल के दौरान अत्यधिक काम, भुखमरी और बड़े पैमाने पर लोगों को फांसी देने के चलते करीब 20 लाख लोगों की मौत हो गई थी.
उन्होंने अपने नागरिकों को दुनिया से अलग-थलग कर दिया और शहर खाली कराने शुरू कर दिए. ख़ुद को बुद्धिजीवी मानने वालों को मार दिया गया. उनके शासन काल में चश्मा पहनने या विदेशी भाषा जानने वालों को अक्सर प्रताड़ित किया जाता था. मध्यवर्ग के लाखों पढ़े-लिखे लोगों को विशेष केंद्रों पर प्रताड़ित किया गया और मौत की सज़ा दी गई. इनमें सबसे कुख़्यात थी नाम पेन्ह की एस-21 जेल, जहाँ ख़मेर रूज के चार साल के शासन के दौरान 17 हज़ार महिलाओं, पुरुषों और बच्चों को क़ैद रखा गया था.

.कम्युनिस्ट सरकार कंबोडिया को वापस एक एग्रीकल्चरल कंट्री बनाना चाहते थे ... इसलिए शाहरो को समाप्त करके आबादी को गांव में शिफ्ट करने का निर्देश जारी किया गया. जिन्होंने भी आज्ञा का उल्लंघन किया उन्हें किलिंग फिल्डस में ले जाकर समाप्त कर दिया गया।
जिस स्थान पर यह म्यूजियम है वहाँ 30,000 से अधिक लोगों की हत्या हुई ... जिसमें अधिकतर लोगों की हत्या गोली मारकर नहीं की गई बल्कि कुदाल से उनकी सर के पीछे चोट मार कर अधमरा कर दिया गया। फिर उन्हें जीते जी गड्ढों में दफना दिया गया। सैनिक उन लाशों से जो भी कीमती चीज होती थी। उसे निकाल लेते थे तीन सौ से अधिक किलिंग फील्ड्स पूरे कंबोडिया में मौजूद है। जिसमें 15 लाख से ज्यादा लोगों की हत्या हुई। यहां पर कुछ ऐसी हड्डियां मिली ... जिससे पता चलता है कि मरने वाले की उम्र 6 महीने से भी कम थी। मतलब 6 महीने से कम उम्र के बच्चों की भी हत्या कर दी गई थी।

यह है कम्युनिस्टों का चरित्र। भारत के कम्युनिस्टों का चरित्र भी इससे अलग नहीं है। 1979 मे भारत के पश्चिमी बंगाल के मरिचझापी मे कम्युनिस्टों ने कई हजार (एक अनुमान से 40 हजार) नामशूद्रों की वीभत्स ह्त्या की थी। ये नामशूद्र दलित हिन्दू थे जो बांग्लादेश से जान बचा कर आए थे। ये कभी जोगेन्द्र मण्डल के बहकावे मे आकर पाकिस्तान (बांग्लादेश) मे रूक गए थे।

Sunday, August 22, 2021

ईश्वर कैसा है, कहाँ रहता है।

ईश्वर कैसा है, कहाँ रहता है, उसका रंग कैसा है, कोई उसका रूप या हुलिया तो बताइये?

जब तक इन बातों का ज्ञान न हो जाय, तब तक अपने प्रियतम को कैसे पहचाने? कैसे समझे कि हम किसके दर्शन कर रहे हैं या हमें दर्शन हो गए?

याज्ञवल्क्य ने एक बार गार्गी से कहा था-
"ब्रह्म के जाननेवाले उसे अक्षर, अविनाशी, कूटस्थ कहते हैं। वह न मोटा है, न पतला। न छोटा है, न लम्बा। न अग्नि की तरह लाल है। यह बिन स्नेह के है, बिना छाया के और बिना अंधेरे के है। न वायु है, न आकाश है। वह अप्रसंग है। रस से रहित, गन्ध से रहित है। उसके नेत्र नहीं, कान नहीं, वाणी नहीं, मुख नहीं, मात्रा नहीं।" -बृह० ३।७।७

"वह महान् है। दिव्य है। अचिन्त्य रूप है। सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर प्रतीत होता है। वह दूर से अधिक दूर है। तथापि यहां ही हमारे निकट है। देखनेवालों के लिए वह यहीं (हृदय की गुफा में) छिपा हुआ है।"
फिर इसी उपनिषद् (२।२।१) में लिखा है-

"वह हर जगह प्रकट है, निकट है। गुहाचर (हृदय की गुफा में विचरनेवाला) प्रसिद्ध है। वह एक बड़ा आधार है, जिसमें यह सब पिरोया हुआ है, जो चलता है, सांस लेता है और आंख झपकता है। यह सारा स्थूल और सूक्ष्म, जो तुम जानते हो, यह सब उसी में पिरोया हुआ है। वह पूजा के योग्य है। सबसे श्रेष्ठ है। प्रजाओं की समझ से परे है।"

वेदों में उसका वर्णन इस प्रकार है-

१.
एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुष:।
पादोअस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।। -ऋ० १०।९०।३; यजु० ३१।३।।

'इतनी बड़ी (भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल से सम्बद्ध जितना जगत् है, यह सारी) इस प्रभु की महिमा है और प्रभु स्वयं इससे बड़ा है। (तीनों कालों में होने वाले) सारे भूत इसका एक पाद है और इसका (शेष) विपाद जो अमृत एवं अविनाशी-स्वरूप है, वह अपने प्रकाश में है।"

प्रयोजन यह है कि उसकी तो कोई सीमा है नहीं। हां, कुछ दिग्दर्शन कराने के लिए कह दिया कि यह सारी दुनिया, ये सारे लोक, ये सारी पृथिवियाँ, ये सारे नक्षत्र इत्यादि, ये सब उसके एक पैर में आते हैं। बाकी तीन पैर अभी और हैं।

२.
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:।। -ऋ० १।१६४।४६।।

"उस एक शक्ति को अनेक रूपों में वर्णन करते
हैं; इन्द्र, मित्र, वरुण और अग्नि कहते हैं। वही दिव्य सौन्दर्य का
भण्डार है। उसी प्रकाशस्वरूप प्रभु को यम और मातरिश्वा कहते हैं।"

३.
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा:।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आप: स प्रजापति:।। -यजु० ३२।१।।

"वही अग्नि, वही आदित्य, वही वायु, वही चन्द्रमा, वही शुक्र, वही ब्रह्म, वही जल और वही प्रजापति है।"

४.
य: पृथिवीं व्यथमानामदृंहद्य: पर्वतान् प्रकुपितां अरम्णात्।
यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तभ्नात् स जनास इन्द्र:।। -ऋ० २।१२।२।।

"जिसने (आदि में पिघली हुई होने के कारण) लहराती हुई पृथिवी को दृढ़ जमा दिया और जिसने प्रकुपित हुए (आदि में अग्नि-वर्षण करते हुए) पर्वतों को शान्त किया, जिसने अन्तरिक्ष को बड़ा विशाल बनाया, जिसने द्यौ को धारण किया, हे मनुष्यों! वही शक्तिशाली प्रभु है।"

५.
यं स्मा पृच्छन्ति कुह सेति घोरमुतेमाहुर्नैषो अस्तीत्येनम्।
सो अयं पुष्टीर्विज इवा मिनाती श्रदस्मै धत्त स जनास इन्द्र:।। -ऋ० २।१२।५।।

"जिसके विषय में पूछते हैं वह कहाँ है और कई यहां तक कह देते हैं कि वह नहीं है, वही है जो कि भयंकर बनकर ऐसे शत्रुओं (घमण्ड में उनकी प्रजा की पीड़ित करनेवालों) की पुष्टियों को शक्तियों की तरह मरोड़ डालता है, उसके लिए श्रद्धा रखो। हे मनुष्यों, वही शक्तिशाली प्रभु है।"

६.
यो रघ्रस्य चोदिता य: कृशस्य यो ब्रह्मणो नाधमानस्य कीरे:।
युक्तग्राव्णो योअविता सुशिप्र: सुतसोमस्य स जनास इन्द्र:।। -ऋ० २।१२।६।।

"जो दीन-दुःखियों को हिम्मत बंधाता है, जो विपद्ग्रस्त भक्त की पुकार सुनता है, जो यज्ञमय जीवन-धारियों का प्रतिपालक है, लोगों!वही सुन्दर और छबीला देव इन्द्र है।"

७.
यस्य भूमि: प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्।
विवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।। -अ० १०।७।३२।।

"भूमि उसकी पाद-प्रतिष्ठा है। अन्तरिक्ष उसका उदर है। द्युलोक उसका माथा है। उस परम ब्रह्म को प्रणाम हो!"

८.
यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णव:।
अग्निं यश्चक्र आस्य तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।। -अ० १०।७।३३।।

"सूर्य और नित्य नया चन्द्रमा उसकी आंखें हैं, आग उसका मुख है। उस परम ब्रह्म को नमस्कार हो!"

९.
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरदृश्यमानो बहुधा वि जायते।
अर्धेन विश्वं भुवनं जजान यदस्यार्ध कतम: स केतु:।। -अ० १०।८।१३।।

"वह प्रजापति (सबके) अन्दर विराजमान है। वह दिखाई नहीं देता (पर) नाना प्रकार से प्रकट हो रहा है। सकल संसार उस (की शक्ति) के एक भाग का फल है। शेष भाग की क्या कहें? और कैसे कहें?"

१०.
यत: सूर्य उदेत्यस्तं यत्र च गच्छति।
तदेव मन्येअहं ज्येष्ठं तदु नात्येति किं चन।। -अ० १०।८।१६।।

"सूर्य उसी से उदय होता और उसी में लीन हो जाता है। सचमुच वही सबसे बड़ा है। उसके बराबर और कोई नहीं हो सकता।"

ऐसा ईश्वर रहता कहाँ है? कोई भी तो ऐसा स्थान नहीं, जहां वह न रहता हो। परन्तु उसके दर्शन हृदय ही में होते हैं। उपनिषद् ने उसका पूरा पता भी बता दिया है-

सर्वाननशिरोग्रीव: सर्वभूतगुहाशय:।
सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात्सर्वगत: शिव:।। -श्वेताश्वतर ३।११।।

"वह भगवान् सब ओर मुख, सिर और ग्रीवावाला है। सर्वव्यापी है और समस्त प्राणियों की हृदयरूपी गुफा में निवास करता है। इसलिए वह (शिव) कल्याण-स्वरूप प्रभु सब जगह पहुंचा हुआ है।"

अंगुष्ठमात्र: पुरुषोअन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्ट:।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।। -श्वेताश्वतर ३।१३।।

"अंगुष्ठ-मात्र परिणामवाला अन्तर्यामी परम पुरुष (परमेश्वर) सदा ही मनुष्यों के हृदय में सम्यक् प्रकार से स्थित है। मन का स्वामी है तथा निर्मल हृदय और शुद्ध मन से ध्यान में लाया जाता है (प्रत्यक्ष होता है)। जो इस परब्रह्म परमेश्वर को जान लेते हैं; वे अमर हो जाते हैं।"

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोअस्य जन्तो:।
तमक्रतुं पश्यति वीतशोको धातु: प्रसादान्महिमानमीशम्।। -श्वेता० ३।२०।।

"वह सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म और बड़े से भी बहुत बड़ा परमात्मा, जीव-हृदयरूपी गुफा में छिपा हुआ है। उस सबकी रचना करने वाले, प्रभु की कृपा से (जो भक्त) इस संकल्प-रहित प्रभु को और उसकी महिमा को देख लेता है, वह सब प्रकार के दुःखों से रहित हो जाता है।"

एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नात: परं वेदितव्यं हि किञ्चित्। -श्वेता० १।१२।।

"इसको जानो, जो सदा तुम्हारे आत्मा में वर्तमान है। इससे परे कुछ जानने योग्य नहीं है।"

शंकर भगवान् ने 'शिवधर्मोत्तर' से जो श्लोक आत्मदर्शन के सम्बन्ध में प्रमाण दिए हैं, उनमें से पहले श्लोक में यह लिखा है-
शिवमात्मनि पश्यन्ति प्रतिमासु न योगिन:।
"योगीजन शिव को अपने आत्मा में देखते हैं, न कि प्रतिमाओं में।"

यहां निम्न उदाहरणों द्वारा प्रश्नों का उत्तर देकर सरलतापूर्वक समझाने का प्रयत्न किया है।

Saturday, August 21, 2021

तस्लीमा नसरीन (एक निष्पक्ष लेखिका)।

कोई भी भारतीय सरकार इतनी हिम्मत नहीं रखती कि तस्लीमा जी को भारत मे स्थायी नागरिकता व सुरक्षा दे । यह उनका एक पुराना लेख है। 
मैंने दिसंबर 1992 में 'लज्जा' लिखी थी। सोचा था कि धीरे-धीरे बांग्लादेश की परिस्थिति अच्छी होगी। पंथनिरपेक्षता का माहौल लौटेगा। हिंदू, मुसलमान, बौद्ध, ईसाई फिर से एक साथ सुख-शांति से रहेंगे। फिर से गाया जा सकेगा-'हम सब बंगाली'। प्रतिबंधित किए जाने से पहले मेरी इस किताब की 50 हजार प्रतियां बिकी थीं। प्रतिबंध के बाद किताब की नकली प्रतियां पड़ोसी देशों में भी फैल गई थीं। यूरोप, अमेरिका के प्रकाशक 'लज्जा' के प्रकाशन की अनुमति चाह रहे थे। करीब 30 भाषाओं में उसका अनुवाद हुआ, पर 'लज्जा' लिखने, प्रकाशित करने और बेचने का क्या लाभ हुआ? जिस 'लज्जा' को लिखने पर सांप्रदायिक तत्वों की घृणा मिली, सरकार ने आंखें तरेरी, प्रतिबंधित लेखिका के रूप में निर्वासित हुई, पुस्तक मेले में मुस्लिम कट्टरपंथियों के हमले का शिकार हुई और हिंदू कट्टरपंथियों की स्वार्थ रक्षा के झूठे आरोप लगे उसी 'लज्जा' को पढ़कर सांप्रदायिक लोगों का विवेक नहीं जगा। 'लज्जा' पढऩे के बाद भी हिंदू विरोधी मुसलमानों को लज्जा नहीं आई। उलटे वे और आक्रामक हो गए। सत्य बोलने के अपराध में 22 वर्षों से निर्वासन की सजा काट रही हूं। इसके बावजूद बांग्लादेश में कहीं भी सांप्रदायिकता के खिलाफ आंदोलन होता है तो उसका समर्थन करती हूं।

इस समय बांग्लादेश से जो खबरें मिल रही हैं उससे मैं बेहद चिंतित हूं। उम्मीद की जो किरण दिखाई दे रही थी वह बुझ चुकी है। देश में मुक्त विचारधारा वाले ब्लॉगरों, लेखकों की हत्या हो रही है। धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी मारा जा रहा है। कुछ दिन पहले ही झिनाइदह में तीन आतंकियों ने 70 वर्षीय हिंदू पुरोहित अनंत कुमार गांगुली की हत्या कर दी। गांगुली साइकिल से नलडांगा बाजार के मंदिर जा रहे थे। बाइक सवार हत्यारों ने धारदार हथियारों से उनकी हत्या कर दी। गांगुली नास्तिक नहीं थे। इस्लाम की आलोचना करते हुए ब्लॉग या किताब भी नहीं लिखते थे। उनकी हत्या की एक मात्र वजह यह थी कि वह हिंदू थे। इसके बाद पाबना के हिमायतपुर में अनुकूल ठाकुर के सत्संग आश्रम के नित्यरंजन पांडे की हत्या कर दी गई। नित्यरंजन ने इस्लाम की निंदा नहीं की थी। उनका एक ही अपराध था कि वह हिंदू थे। इसके पहले हिंदू दर्जी निखिल चंद्र की हत्या कर दी गई थी। इस हत्याकांड को अंजाम देने वाले हत्यारे भी बाइक पर आए थे। सिर्फ हिंदू नहीं, कुछ दिन पहले सुनील गोमेज नामक एक ईसाई किराना दुकानदार की भी धारदार हथियार से हत्या की गई। एक बौद्ध भिक्षु को भी मार डाला गया। कुछ विदेशियों की भी हत्या हुई, जिनमें एक जापानी तो दूसरा इतालवी था। सुन्नी आतंकी उस मुस्लिम को भी मार दे रहे हैं जिन्हें वह मुसलमान नहीं मानते। सूफी, शिया, अहमदिया किसी को भी बख्शा नहीं जा रहा। पंचगढ़ में एक हिंदू पुरोहित को ग्रेनेड व गोली मारने के बाद उसका गला भी काटा गया। हिंदू सुरक्षा के अभाव में पैतृक घर-बार छोड़कर जान बचाने के लिए गुप्त रूप से देश छोड़ रहे हैं। हिंदू को जमीन और घर से बेदखल करने का लाभ कई मुसलमानों को मिल रहा है। जमीन व घर पर कब्जे के लिए हिंदू पर तब तक अत्याचार किया जा रहा जब तक कि वह घर-बार छोड़कर भाग न जाए।

'लज्जाÓ उपन्यास की अच्छाई ठीक उसी तरह चली गई जिस तरह आज हिंदू देश छोड़ रहे हैं। भारत के विभाजन के वक्त से ही हिंदू देश छोड़ रहे हैं। जनगणना के अनुसार 1941 में हिंदुओं की आबादी 28 फीसद थी। 1951 में 22.05, 1961 में 18.5, 1974 में 13.5, 1981 में 12.13,1991 में 11.62, 2001 में 9.2 और 2011 में 8.5 प्रतिशत रह गई। 2016 में तो और भी कम हो गई होगी। बांग्लादेश में जिस तरह जेहादियों का आतंक बढ़ रहा है, अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़ रहे हैं और सरकार मूकदर्शक है उससे ऐसा लगता है कि यहां अल्पसंख्यक और खासकर हिंदू नहीं बचेंगे। सिर्फ जेहादी और उनके समर्थक ही रहेंगे। वे शरिया या अल्लाह का कानून ले आएंगे। नारी की गिनती मानव के रूप में नहीं होगी। उन्हें यौन इच्छापूर्ति की नजर से देखा जाएगा। वाक् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अस्तित्व नहीं रहेगा।

आज जो पार्टी सत्ता में है उसे लोग पंथनिरपेक्ष मानते हैं, पर अब उसके ही शासन में हिंदुओं के घर जलाए जा रहे, मंदिर तोड़े जा रहे और हिंदू लड़कियों से दुष्कर्म हो रहे हैं। प्रधानमंत्री शेख हसीना ने हाल में घोषणा की कि काबा शरीफ की सुरक्षा के लिए वह सऊदी अरब में बांग्लादेशी सेना भेजेंगी। हसीना को सबसे पहले देश की रक्षा के बारे में सोचना चाहिए। जेहादियों के हाथों से देश की रक्षा नहीं होने पर मुल्क की मौत हो जाएगी। जेहादी सरेराह और यहां तक कि घर में घुसकर मुक्त विचारधारा वाले लेखक-ब्लॉगरों, संस्कूति की रक्षा को आवाज उठाने वाले छात्र-शिक्षकों, प्रगतिशील मुसलमानों, अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्या कर रहे हैं। इस खून-खराबे को रोकने और मुल्क को बचाने के लिए प्रतिज्ञा न कर शेख हसीना अल्लाह के घर को बचाने के लिए उस सऊदी अरब के बादशाह को आश्वासन दे आईं जहां से आए पैसे से बांग्लादेश में बड़ी संख्या में कट्टरपंथियों की संस्थाएं खुल गई हैं। उनमेंं जेहादी तैयार किए जा रहे हैं। कट्टरपंथियों के पास प्ले स्कूल, अस्पताल, बैंक, विश्वविद्यालय से लेकर क्या नहीं है। अब तो माइंड वॉश के लिए मदरसे की भी जरूरत नहीं है। कट्टरपंथियों के पैसे से स्थापित प्री प्राइमरी स्कूलों में अच्छे से माइंड वॉश का कार्य हो रहा है। बांग्लादेश में धारदार हथियारों से लोगों को मारने के बाद इस्लामिक स्टेट की ओर से गर्व के साथ घोषणा की जाती है कि उन्होंने हत्या कराई है। उन्हें कोई भय नहीं है। वे निश्चिंत हैं कि उन्हें सजा नहीं मिलेगी। इस्लाम के नाम पर शरिया कानून लागू कराने के लिए जो हत्याएं हो रही हैं उनके बारे में यही लगता है कि सरकार मानती है कि वे अन्य कारणों से हुई हैं। इन हत्याओं के खिलाफ सरकार किसी तरह की चेतावनी नहीं दे रही है। जो भी चेतावनी दी गई है वह लेखकों को दी गई है कि वे इस्लाम की आलोचना न करें। यदि कोई करता है तो उसे जेल में ठूंस दिया जाएगा। मुक्त विचारधारा वालों को सजा देने के लिए 57 आइसीटी एक्ट तैयार किया गया है, लेकिन जेहादियों को सजा देने के लिए किसी तरह का नया कानून नहीं बनाया गया है।
बांग्लादेश में आम तौर पर हिंदू अवामी लीग को वोट देते हैं। चुनाव के समय आवामी लीग विरोधी दल हिंदुओं को घर-घर जाकर धमकी देते हैं। चूंकि उन्हें सुरक्षा देने वाला कोई नहीं होता इसलिए अधिकांश हिंदू मतदान के दिन घर से बाहर नहीं निकलते। यदि हिंदू की हत्या होती है तो किसी का कुछ नहीं आता-जाता। न खालिदा जिया का, न शेख हसीना का और न ही अन्य किसी दल का। हम लोगों को अब और लज्जा नहीं आ रही है, देश की करुण हालत देखकर हम भयभीत हैं। 

https://www.jagran.com/editorial/apnibaat-we-are-afraid-not-ashamed-14162427.html?fbclid=IwAR1hVW1ZGb6DOxw3UfbTZLegy6meVnH7xqK4oW3EuPH3v_k4W4E2IughWBg

अच्छे कंटेंट की वैल्यू नहीं रही।

" बसपन का प्यार " वायरल होने के बाद ऐसी धारणा बन गई है कि अब अच्छे कंटेंट की वैल्यू नहीं रही। अब घटिया कंटेंट ही वायरल हो रहा है। यह धारणा पूर्ण रूप से गलत नहीं कही जा सकती। आज सोशल मीडिया पर हर दूसरी वीडियो गालियों से भरी हुई है। हर दूसरी वीडियो पोर्न वीडियो की श्रेणी में रखी जा सकती है। इन विडियोज पर करोड़ों व्यू हैं। ज़ाहिर है सेक्स और गालियां बिक रही हैं। बिक रहा है घटिया कंटेंट। 

लेकिन क्या अचानक से घटिया कंटेंट बनना अधिक हो गया है। नहीं, ऐसा नहीं है। मंटो, फ़ैज़, फ़िराक़, फ़राज़, मीर, ग़ालिब, रफ़ी,मुकेश,किशोर, मन्ना डे, मेहंदी हसन पहले भी कई सौ करोड़ में गिने चुने थे। आज भी गिने चुने हैं। अंतर बस इतना ही है कि पहले घटिया कंटेंट को कला का दर्जा नहीं दिया जाता था। इसलिए वह घटिया कंटेंट टीवी, अख़बार, रेडियो पर प्रसारित नहीं होता था। आज सोशल मीडिया और बाजारू टीआरपी मीडिया के सा जाने से इस घटिया विकृत कंटेंट को मंच मिल गया है। इसलिए लग रहा है कि घटिया कंटेंट ज़्यादा बन रहा है। 

एक बार और ध्यान देने की है। चूंकि उस्ताद बनने में उम्र निकल जाती है और नंगानाच जल्दी शोहरत देता है, इसलिए सभी नंगे होने के लिए बेताब हैं। आज " बसपन। का प्यार " हिट होने के बाद लाखों लोगों में इसी तरह का कुछ करने की होड़ होगी। मगर वे भूल जाते हैं कि वे सफल हो भी गए तो यह कामयाबी स्थाई नहीं होगी। कल को तय है कि लेबरी करनी पड़े या कहीं बर्तन मांजने पड़ें। क्यूंकि इस कामयाबी से जिदंगी भर न काम मिलेगा और न रोटी। 

सोशल मीडिया और इंटरनेट ने आज पूरी पीढ़ी को तबाह कर दिया है। भारत जैसे देश में जहां इच्छाओं का दमन हुआ है, वहां सोशल मीडिया और इंटरनेट का विनाशकारी प्रभाव ही पड़ना था। सोशल मीडिया लड़कीबाजी, लड़के बाज़ी का अड्डा है युवाओं के लिए। इंटरनेट पर पोर्न देखी जा रही है। रील्स और मीम्स बनाकर लोग खुद को कलाकार समझ रहे हैं।" बसपन का प्यार " नया क्लासिक है। जहां चीन अमेरिका अपनी युवा पीढ़ी को एक ऐसी दिशा दे रही है कि जहां से ऑस्कर, नोबल विजेता, ओलंपिक चैंपियन निकलेंगे, वहीं भारत में लोफर, टपोरी, खलिहर, बेरोज़गार बनने की कोशिश तेज़ी से की जा रही है।

Friday, August 20, 2021

मोपला द्वारा हिन्दू नरसंहार की स्मृतियाँ।

1981 में डॉ मैरी विठ्ठिल Dr. Mary Vithithil केरल की मलयालम पत्रिका शब्दधाम नामक पत्रिका की सम्पादिका मालाबार गई और 1921 के हिंदू नरसंहार में भाग लेने वाले कई लोगों का साक्षात्कार लिया। उन्होंने श्रृंखला का शीर्षक दिया, "मोपला लाहला का एक उदासीन स्मरण। "... (“A nostalgic remembrance of the Mopallah Lahala”).

उन्ही दंगाइयों में से एक साक्षात्कार उन्होंने 81 साल के अब्दुल्ला कुट्टी के साथ किया था। ये उसके शब्द हैं ...।

“जब दंगे शुरू हुए तो हमारे बीच बहुत उत्साह था। रोज हम सड़कों पर खड़े होकर दंगाइयों के आने और उनके साथ आने का इंतजार करते। हम उनके साथ गए लेकिन हमने किसी को नहीं मारा

दंगाइयों ने करिपथ इलम (ब्राह्मण घर) Karipath Illam( Brahmin House) पर हमला किया और सभी निवासियों को मार डाला। उन्होंने सारी दौलत ले ली और फिर उस इल्म को एक ऐसी जगह में बदल दिया, जहां असहाय हिंदुओं को लाया जाता था और जबरदस्ती धर्मांतरण या हत्या कर दी जाती थी।

हमने मांस पकाया और उन्हें बलपूर्वक खिलाया .. इस की गंध के कारण उनको कई दिन तक उल्टी हुई । इस तरह के लोगों को हमने लात मारकर गिरा दिया गया। कईयों ने कई दिन तक कुछ भी खाने से मना कर दिया।

जब हमने 25 हिंदुओं को इकट्ठा किया ... उन्हें कुएं के किनारे ले जाया गया। तब दीनवालों ने उनसे पूछा ... स्लाम कबूल करेंगे या आप इंग्लैंड जाना चाहते हैं (मतलब मौत)।

अधिकांश ने मौत चुनी और इसलिए उनकी गर्दन काटकर उन्हे कुएं में फेंक दिया । कई लोग तुरंत नहीं मरे, लेकिन घंटों और कभी-कभी दिनों तक तड़पते रहे।

हर रोज हम पालतू पशुओं को लाते और चावल के साथ पकाते ... हम अच्छी तरह से खाते थे और इसने हमें और अधिक और दंगों में सक्रिय कर दिया।

पकड़े गए इन हिंदुओं में से हमें एक आदिवासी लड़का मिला जिसने तीर और धनुष बनाया। वह परिवर्तित हो गया और जल्द ही दंगों में शामिल हो गया। उनके दीन का नाम अली रख दिया। ...

एक और शख्स जो हमसे जुड़ गया वो था बिरन कुट्टी। वह ब्रिटिश सेना से सेवानिवृत्त हुए थे और इसलिए उनके पास एक बंदूक थी। उन्होंने दंगों में इस बंदूक का इस्तेमाल किया।

जैसे-जैसे दंगे अधिक से अधिक हिंसक होते गए ... क्षेत्र के कुएं शवों से भर गए ... "

अब्दुल्ला कुट्टी ने इन सभी गंभीर घटनाओं को बहुत याद किया और उन्होंने कहा कि यह गोरखा रेजिमेंट के अंदर आने के बाद ही रुका है।

अधिकतम संख्या में हिंदुओं को टुकड़े टुकड़े करके या उनकी गर्दन काट कर कुएं मे फेंक दिया गया। ऐसा कहा जाता है कि इस तरह मारे गए हिंदुओं के कंकाल गर्मियों में आने पर कुएं में देखे जा सकते हैं और कुएं सूख जाते हैं।

यह याद रखना अच्छा होगा कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट सरकारों ने बाद में इन दंगाइयों को 1980 के दशक में इन नरसंहार करने वाले मोपला मुस्लिमो को स्वतंत्रता सेनानी पेंशन दी। दूसरी तरफ जो हिंदू सब कुछ खो चुके थे जीवन, सम्मान, परिवार, स्थिति, घर, संपत्ति और धन ऐसी किसी भी पेंशन से इनकार कर दिया गया था।
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यह पोस्ट का एक अंश  मूलतः मलयालम पत्रिका के विवरण के आधार पर इंग्लिश मे था। मैंने अनुवाद किया है। इंग्लिश से हिन्दी मे अनुवादित।

नवबुद्ध बनना: नौटंकी या फैशन।

बुद्ध मत स्वीकार करने वाला 99.9 %दलित वर्ग बुद्ध मत को एक फैशन के रूप में स्वीकार करता हैं। उसे महात्मा बुद्ध कि शिक्षाओं और मान्यताओं से कुछ भी लेना देना नहीं होता। उलटे उसका आचरण उससे विपरीत ही रहता हैं। उदहारण के लिए-

1. 
मान्यता- महात्मा बुद्ध प्राणी हिंसा के विरुद्ध थे एवं मांसाहार को वर्जित मानते थे।

समीक्षा- रोहित वेमुला हैदराबाद यूनिवर्सिटी में बीफ फेस्टिवल बनाने वालों में शामिल था। 99.9% नवबौद्ध मांसाहारी है। बुद्ध मत के दो देश के देश दुनिया के सबसे बड़े मांसाहारी हैं। इसे कहते है "नाम बड़े दर्शन छोटे"

2. मान्यता- महात्मा बुद्ध अहिंसा के पूजारी थे। वो किसी भी प्रकार कि वैचारिक हिंसा के विरुद्ध थे।

समीक्षा- किसी भी नवबुद्ध से मिलो। वह झल्लाता हुआ अवसाद से पीड़ित व्यक्ति जैसा दिखेगा। जो सारा दिन ब्राह्मणवाद और मनुवाद के नाम पर सभी का विरोध करता दिखेगा। वह उनका भी विरोध करता दिखेगा जो जातिवाद को नहीं मानते। हर अच्छी बात का विरोध करना उसकी दैनिक दिनचर्या का भाग होगा। महात्मा बुद्ध शारीरिक, मानसिक, वैचारिक सभी प्रकार की हिंसा के विरोधी थे। नवबुद्ध ठीक विपरीत व्यवहार करते हैं।

3. मान्यता- महात्मा बुद्ध संघ अर्थात संगठन की बात करते थे। समाज को संगठित करना उनका उद्देश्य था।

समीक्षा- नवबुद्ध अलगावावादी कश्मीरी नेताओं का समर्थन कर देश और समाज को तोड़ने की नौटंकी करते दीखते हैं।

4. मान्यता- महात्मा बुद्ध धर्म में विश्वास रखते थे।

समीक्षा- नवबुद्ध देश के विरुद्ध षड़यंत्र करने वाले याकूब मेनन जैसे अधर्मी के समर्थन में खड़े होकर अपने आपको ढोंगी सिद्ध करते हैं।

5. मान्यता- महात्मा बुद्ध छल- कपट करने वाले को छल-कपट छोड़ने की शिक्षा देते थे।

समीक्षा- भारत में ईसाई मिशनरी छल-कपट कर निर्धन हिन्दुओं का धर्मान्तरण करती हैं। नवबुद्ध उनका विरोध करने के स्थान पर उनका साथ देते दीखते हैं।

6. मान्यता- महात्मा बुद्ध अत्याचारी व्यक्ति को अत्याचार छोड़ने की प्रेरणा देते थे।

समीक्षा- 1200 वर्षों से भारत भूमि इस्लामिक आक्रमणकारियों के अत्याचार सहती रही। हज़ारों बुद्ध विहार से लेकर नालंदा विश्वविद्यालय इस्लामिक आक्रमणक्रियों ने तहस-नहस कर दिए। नवबौद्ध उसी मानसिकता की पीठ थपथपाते दीखते हैं।

सन्देश- बनना भी है तो महात्मा बुद्ध कि मान्यताओं को जीवन में , व्यवहार में और आचरण में उतारों।

अन्यथा नवबुद्ध बनना तो केवल नौटंकी या फैशन जैसा दीखता हैं।

हिन्दू अपना रास्ता खुद चुने।

बांग्लादेश में 2001 से 2011 के बीच तेज गिरावट दर्ज की गई है. 2001 में बांग्लादेश की जनगणना के अनुसार वहां 1.68 करोड़ हिन्दू थे जो 2011 में घटकर 1.23 करोड़ रह गये हैं. बांग्लादेश में अब कम से कम 15 जिले ऐसे हैं जहां हिन्दू आबादी नदारद हो गई है.

2011 की गई जगनणना की जो रिपोर्ट सामने आई है उसके मुताबिक 2001 की जगनणना में बांग्लादेश में कुल आबादी के 9.2 प्रतिशत हिन्दू थे लेकिन 2011 में उनकी संख्या बढ़ने की बजाय घटकर बांग्लादेश की कुल आबादी के 8.5 प्रतिशत रह गई है. 2001 में बांग्लादेश की हिन्दू आबादी 1.68 करोड़ थी. हिन्दू जन्मदर के आधार पर जो आंकलन किया गया था उसके मुताबिक 2011 में बांग्लादेश में हिन्दू आबादी 1.82 करोड़ होनी चाहिए थी लेकिन जो नतीजे निकले हैं वे चौंकानेवाले हैं. बांग्लादेश में हिन्दू आबादी बढ़ने की बजाय तेजी से घटी है और अब बांग्लादेश में हिन्दू आबादी घटकर 1.23 करोड़ रह गई है. यानी एक दशक के भीतर करीब साठ लाख हिन्दू कम हो गये. हालांकि इसी अवधि के दौरान ईसाई, बौद्ध और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के वृद्धिदर में कोई कमी नहीं दर्ज की गई है. बांग्लादेश में 90.4 प्रतिशत मुस्लिम हैं बाकी नौ प्रतिशत में अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक हैं.
बांग्लादेश में हिन्दूओं की इस घटती संख्या के पीछे बांग्लादेश में चरमपंथी मुस्लिम संगठन हैं जो इस्लाम के नाम पर मुस्लिमों के बीच काम करते हैं और बड़े पैमाने पर हिन्दुओं के खिलाफ अभियानों को मदद करते हैं. बांग्लादेश में इससे संबंधित जो रपटें प्रकाशित हुई हैं वे बताती हैं कि बांग्लादेश में हिन्दुओं का जबर्दस्त उत्पीड़न हो रहा है. केवल हिंसक वारदातों के जरिए ही उनकी जर जमीन उनसे हासिल नहीं की जा रही है बल्कि इस्लामिक देशों से आर्थिक मदद हासिल करके काम करनेवाले गैर सरकारी मुस्लिम संगठन बड़े पैमाने पर धर्मांतरण को भी अंजाम दे रहे हैं. एक अनुमान है कि बांग्लादेश में ऐसे करीब तीन सौ गैर सरकारी संगठन सक्रिय हैं जो हिन्दुओं को धर्मांतरित कर रहे हैं जिसके कारण हिन्दू आबादी में तेजी से गिरावट दर्ज की गई है.
लेकिन बांग्लादेश में हिन्दुओं का ध्रर्मांतरण ही उनके लिए एकमात्र समस्या नहीं है. बांग्लादेश के नेशनल हिन्दू ग्रैण्ड एलायंस के महासचिव गोविन्द चन्द्र प्रमाणिक के हवाले से बांग्लादेश के अखबार वीकली ब्लिट्ज कहता है कि बांग्लादेश में बड़े पैमाने पर हिन्दू लड़कियों का अपहरण करके उनका जबरन मुस्लिमों के साथ विवाह कर दिया जाता है. विरोध करने पर उनके साथ गैंगरेप तक की घटनाएं अंजाम दी जाती हैं. एनेमी प्रापर्टी एक्ट के प्रावधानों के तहत वहां हिन्दुओं की जर जमीन बड़े पैमाने पर मुस्लिम आबादी ने कब्जा कर लिया है जिसके कारण हिन्दू पलायन पर मजबूर हो रहे हैं. इसके अलावा मुस्लिम बहुल इलाकों में हिन्दुओं का उत्पीड़न के कारण भी वहां हिन्दू आबादी में तेजी से गिरावट दर्ज की जा रही है.

Thursday, August 19, 2021

नफरत।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर अपनी बहु चर्चित पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखते हैं कि इस्लाम में बुतपरस्ती ( मूर्तिपूजा) का विरोध है और ‘बुत’ शब्द ‘बुद्ध’ से ही बना है। महमूद गजनवी ने सोमनाथ मन्दिर तोड़ा, बाबर ने अयोध्या का श्रीराम मन्दिर तोड़ा। औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ और मथुरा का जन्म स्थान मन्दिर तोड़ा। बख्तयर खिलजी ने नालन्दा और विक्रमशिला के पुस्तकालय जलाए। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान एसबी जगह एक ही विचार काम करता है। 

सेक्युलर यह कह कर निकल लेंगे कि यह पुरानी बात है। 2 साल पहले दिल्ली के हौज काजी (चावडी बाजार) मे दुर्गा मन्दिर तोड़ा गया। 2 दिन पहले पाकिस्तान मे महाराजा रणजीत सिंह की मूर्ति तोड़ कर गिरा दी  गई। 

बामियान अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबूल से 130 किलोमीटर दूर एक ऐतिहासिक स्थान है। बामियान इसलिए प्रसिद्ध है क्योंकि यहां भगवान बुद्ध की दो विशाल प्रतिमाएं हुआ करती थी। इन में से बड़ी प्रतिमां की ऊँचाई लगभग 58 मीटर और छोटी की ऊँचाई 37 मीटर थी।
1999 में अफ़गानिस्तान में तालिबान की सरकार थी और उसका प्रमुख मुल्ला मुहम्मद ओमार था। पहले तो मुल्ला मुहम्मद ओमार ने कहा था कि तालिबान इन मूर्तियों की रक्षा करेंगे क्योंकि इन्हें देखने आने वाले पर्यटकों से अफ़गानिस्तान को आय होती है। पर बाद में अफ़गानिस्तान में मुस्लिम धर्मगुरूओं ने इन मूर्तियों को इस्लाम के ख़िलाफ करार दे दिया। इसके बाद मुल्ला मुहम्मद ओमार के नेतृत्व वाली तालिबान सरकार ने इन मूर्तियों को नष्ट करने का आदेश जारी कर दिया।

उस समय भारत सरकार ने तालिबान को यह प्रस्ताव दिया कि भारत सरकार अपने खर्च पर इन प्रतिमाओं को भारत ला सकती है जहां पूरी मानवता के लिए इन्हें सुरक्षित रखा जाएगा। पर तालिबान ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।

मुल्ला मुहम्मद ओमार ने एक इंटरव्यु में कहा – “मुसलमानों को इन प्रतिमाओं के नष्ट होने पर गर्व करना चाहिए, इन्हें नष्ट करके हमनें अल्लाह की इबादत की है।”
2 मार्च 2001 को तालिबान ने इन मूर्तियों को नष्ट करना शूरू किया। पहले तो रॉकेट लांचर से इन मूर्तियों पर लगातार प्रहार किए गए, पर मूर्तियां इतनी मज़बूत थी कि नष्ट नही हुई। इसके बाद मूर्तियों में बने सुराखों में बारूद लगाया गया। मूर्तियों में बारूद लगाने में तीन दिन लग गए। इसके बाद पास की मस्जिद से ‘अल्लाह हू अक्बर’ का नारा लगाया गया और बारूद में विस्फोट कर दिया। विस्फोट से बुद्ध की छोटी मूर्ति तो काफी हद तक नष्ट हो गई पर बड़े बुद्ध की सिर्फ टांगे ही उड़ाई जा सकी। इसके बाद हर रोज़ मूर्ति के बाकी बचे हिस्सों में बारूद लगाकर विस्फोट किए जाते ताकि उन्हें पूरी तरह से नष्ट किया जा सके। बुद्ध की दोनो मूर्तियों को नष्ट करने में 25 दिन लग गए। दोनो मूर्तियों को नष्ट करने के पश्चात तालिबानी जश्न मनाने लगे और 9 गायों की कूर्बानी दी गई।

तालिबान से पहले भी इतिहास में कई कट्टर मुसलमान राजाओं ने बामियान में बुद्ध की मूर्तियों को नष्ट करने की कोशिश की है। 1221 ईसवी में चंगेज़ ख़ान ने इन मूर्तियों को नष्ट करने की कोशिश की पर असफल रहा, औरंगज़ेब ने भारी तोपखाने से इन मूर्तियों पर हमले करावाए पर पूरी तरह नष्ट नही कर सका। इसके बाद 18वीं सदी में नादिर शाह और अहमद शाह अबदाली ने भी इन मूर्तियों को काफी नुकसान पहुँचाया। यह सभी तथाकथित बादशाह मूर्तियों के निचले हिस्सों को ही नुकसान पहुँचा सके, पूरी तरह नष्ट कोई भी नही कर सका।
तालिबान इस्लाम का वास्तविक स्वरूप है। गुड तालिबान (सॉफ्ट इस्लाम) और बैड तालिबान  (हार्ड इस्लाम) जैसी कोई चीज नहीं है।

Wednesday, August 18, 2021

सबसे क्रूर सजा।

सबसे क्रूर सजा दिए जाने का जो मामला दुनिया के सामने आया था, वो ईरान की 16 वर्षीय मासूम लड़की अतीफेह रजबी सहलीह (Atefeh Rajabi Sahaaleh) का मामला है.

जब वह पांच साल की थी, तब एक कार दुर्घटना में अतेफे की मां की मृत्यु हो गई। बताया जाता है कि कुछ देर बाद उसका छोटा भाई नदी में डूब गया था। वह अपने वृद्ध दादा-दादी के साथ  रहती थी।

इस मासूम लड़की की गलती सिर्फ इतनी थी कि उसने सरिया कानून वाले एक देश में कुछ हद से ज्यादा गिरे हुए लोगो के बीच में जन्म लिया था.

अपने इलाके की अधिकतर लड़कियों की तरह रजबी को भी बचपन से ही कई बंदिशों में रहने की आदत हो गई थी। लेकिन उसकी जिंदगी का असली बुरा दौर तो तब शुरू हुआ जब एक 51 वर्ष के रीटायर्ड गॉर्ड अली दराबी (Ali Darabi) की उस पर बुरी नजर पड़ी। गार्ड के पद से रिटायर होकर टैक्सी ड्राइवर बने 51 वर्ष के अली ने 15-16 साल की इस मासुम लड़की के साथ बलात्कार किया! एक या दो बार नहीं, बल्कि सैकड़ो बार!!

दरअसल रजबी के परिवार को मजदूरी जैसे कामो की वजह से सारा दिन घर से बहार रहना पड़ता था। उसी दौरान अली दराबी उसे अपनी हैवानियत का शिकार बनता था। उसने रजबी को बुरी तरह धमका दिया था कि अगर उसने किसी से कुछ भी कहा तो उसे और उसके परिवार को मार डालेगा।

डरी सहमी रजबी घुट-घुट कर जीती रही और ये दरिंदा उस मासूम बच्ची को अपनी हैवानियत का शिकार बनता रहा। यह सिलसिला पुरे तीन साल तक चलता रहा!!! कहा जाता है कि रजबी ने फिर भी अपने घर वालो को इस बारे में बताने की कोशिश की थी लेकिन उनने उसे ही फटकार के चुप करा दिया।

लेकिन जब धीरे-धीरे इस दरिंदे की हैवानियत हद से ज्यादा बढ़ने लगी तब रजबी के पिता ने परिवार के लाख आग्रह के बाद पुलिस को इस बात की सुचना दी।

अब एक पल के लिए थोड़ा रुक कर सोचिये कि ये मामला अगर भारत जैसे किसी देश में हुआ होता तो क्या होता? पुलिस में रिपोर्ट होते ही मामला मीडिया और सोशल मीडिया के जरिये आग की तरह देश भर में फ़ैल जाता। हमारे युवा पुरे जोर-शोर से इसका विरोध करते, पुलिस गुनहगार को पकड़ती और न्यायलय उसे कड़ी से कड़ी सजा सुनाता।

लेकिन जरा देखिये कि हमारे कुछ बुद्धिजीवी जिस खाड़ी देश की सम्पनता का गुणगान करते नहीं थकते वहां का कानून कैसा है/था।

पुलिस ने इस बात की खबर लगते ही आरोपी के बजाये पीड़िता (रजबी) को ही थाने बुला कर उससे कड़ी पूछताछ की, और उसे वहीँ Crimes against chastity के आरोप में गिरफ्तार कर लिया।

दरअसल इस्लामिक शरिया कानून के अनुसार, Crimes against chastity, सतित्वता (virginity) के उल्लंघन और यौन व्यवहार से संबंधित अपराध होता है, जिसमे गैर मर्द से किसी भी तरह के सम्बन्ध बनने पर महिला को ही सजा दी जाती है जब तक वो यह साबित न कर सके की उसने आरोपी को सम्बन्ध बनाने के लिए लालहित नहीं किया था!!

इस वजह से रजबी को सलाखों के पीछे डाल दिया गया. यहाँ उसे अली से तो छुटकारा मिला, लेकिन दरिंदगी से नहीं। जी हाँ, मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार रजबी को थाने में भी बेहद प्रताड़ित (टॉर्चर) किया जाता था और कई पुलिस वाले बारी-बारी से उसका दुष्कर्म भी करते थे।

काफी मशक्कत के बाद जब रजबी की दादी को उससे मिलने की इजाजत दी गई (वो भी कुछ महीनो बाद) तो रिज्बी ने बताया कभी कभी तो उसके साथ इतनी दरिंदगी की जाती है कि वो अपने पैरो पर खड़ी भी नहीं हो पाती। उस दर्द कि वजह से उसे चलने के लिए भी अपने चारो हाथ-पैर के सहारे ही चलना पड़ता था।

अब अगर आपमें जरा भी मानवता होगी तो मै दावे के साथ कह सकता हु कि ये सब सुन के आपके भी रोंगटे खड़े हो गए होंगे… लेकिन अभी थोड़ी और हिम्मत रखिये, क्योकि इस सिस्टम का अभी एक और कांड उजागर होना बाकी है।

रिज्बी का यह दर्द-ऐ-हाल देख कर उसके परिवार ने काफी भागदौड़ कर जैसे-तैसे इस मामले को कोर्ट तक पहुंचाया, जिससे उन्हें और रिज्बी को न्याय मिलने और इस दर्द से छुटकारा मिलने की थोड़ी उम्मीद जागी।

लेकिन कोर्ट में आरोपी और पुलिस ने मिलकर ऐसी-ऐसी दलीले दी की मामला रजबी के ही खिलाफ जाने लगा। फिर ऊपर से सरिया कानून!! जज हाजी रेजाई (Haji Rezai) उल्टा रजबी पर ही सजाये सुनाने लगा।

जब अतीफा रजबी को एहसास हुआ कि वह अपना केस हार रही है, तो उसने अपनी सफाई देने के लिए जल्दबाजी में अपने चेहरे से हिजाब (बुर्का) को उठा लिया और कहा कि अदालत को उसे नहीं बल्कि अली दरबी को दंडित करना चाहिए। लेकिन उस अक्ल के अंधे जज ने हिजाब हटाने को अदालत का घोर अपमान बताते हुए रजबी को उम्र कैद की सजा सुना दी।

यह सुन रिज्बी गुस्से में लाल हो गई, और होती भी क्यों न, इतना अन्याय झेलने के बाद भी उसे इन्साफ देने के बजाये वापस उस नर्क में जाने का जो कहा जा रहा था। उसे सिर्फ वो दर्दनाक पल याद आ रहे होंगे इसलिए उसने विरोध में अपनी जूती निकाल कर जज की ओर फेक दी। इससे जज हाजी रेजाई इतना बौखला गया की उसने तुरंत रिज्बी को फांसी की सजा सुना दी।

15 अगस्त 2004 को ईरान के नेका में उसे एक क्रेन से लटका कर सरेआम फांसी दी गई।

बीबीसी के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ऑफ अपील में पेश किए गए दस्तावेजों में उनकी उम्र 22 साल बताई गई है, लेकिन उनके जन्म प्रमाण पत्र और मृत्यु प्रमाण पत्र में कहा गया है कि वह 16 साल की थीं। 

ये कैसा न्याय है? ये कैसा कानून है? क्या यही है मुस्लिम बहुयाद वाले देशों में मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी की असली तस्वीर?

और ये तो सिर्फ एक ऐसा मामला है जो ईरान से बाहर की दुनिया तक पहुंच पाया। ईरान, ईराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान और न जाने ऐसे कितने इस्तान है जहाँ ऐसे क्रूर कानून की वजह से कितनी निर्दोष बालिकाएं मौत के घाट उतार दी जाती होगी।। यह सब सोच कर ही मेरे होश उड़ जाते है।

आयुर्वेद और हमारा जीवन।

विभिन्न धातुओं का शरीर पर पड़ने वाला प्रभाव। 

सोना
सोना एक गर्म धातु है। सोने से बने पात्र में भोजन बनाने और भोजन करने से शरीर के आन्तरिक और बाहरी दोनो हिस्से कठोर, बलवान, ताकतवर और मजबूत बनते है और साथ साथ सोना आँखों की रौशनी बढ़ती है।
आयुर्वेद और हमारा जीवन 

चाँदी
चाँदी एक ठंडी धातु है, जो शरीर को आंतरिक ठंडक पहुंचाती है। शरीर को शांत रखती है । इसके पात्र में भोजन बनाने और करने से दिमाग तेज होता है । आँखों स्वस्थ रहती है, आँखों की रोशनी बढती है और इसके अलावा पित्त, कफ और वायुदोष को नियंत्रित रखता है।
योग साधना और चिकित्सा 

  कांसा
काँसे के बर्तन में खाना खाने से बुद्धि तेज होती है, रक्त में  शुद्धता आती है । रक्तपित शांत रहता है और भूख बढ़ाती है। लेकिन काँसे के बर्तन में खट्टी चीजे नहीं परोसनी चाहिए खट्टी चीजे इससे धातु से क्रिया करके  विषैली हो जाती है, जो नुकसान देती है। कांसे के बर्तन में खाना बनाने से केवल ३ प्रतिशत ही पोषक तत्व नष्ट होते हैं।
तन स्वदेशी मन स्वदेशी 

तांबा
तांबे के बर्तन में रखा पानी पीने से व्यक्ति रोग मुक्त बनता है, रक्त शुद्ध होता है, स्मरण-शक्ति अच्छी होती है, लीवर संबंधी समस्या दूर होती है, तांबे का रखा पानी शरीर के विषैले तत्वों को खत्म कर देता है इसलिए इस पात्र में रखा पानी स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है. तांबे के बर्तन में दूध नहीं पीना चाहिए । इससे शरीर को नुकसान hota है । तन स्वदेशी मन स्वदेशी 

पीतल
पीतल ke बर्तन में भोजन पकाने aur karne से कृमि रोग, कफ aur वायुदोष ki बीमारी नहीं होती। पीतल ke बर्तन में khaana बनाने से केवल ७ प्रतिशत पोषक तत्व नष्ट hote हैं। भाई राजीव दीक्षित जी के लिए भारत रत्न 

लोहा
लोहे ke  बर्तन में बने भोजन khaane se शरीर  की  शक्ति badti hai, लोहतत्व शरीर में जरूरी पोषक तत्वों ko बढ़ता है। लोहा kai रोग को खत्म karta hai, पांडू रोग मिटाता है, शरीर में सूजन aur  पीलापन नहीं aane deta, कामला रोग ko खत्म करता है, aur पीलिया रोग ko दूर रखता है. Lekin लोहे के बर्तन में khaana नहीं खाना चाहिए kyuki isme खाना खाने से बुद्धि कम hoti hai और दिमाग का नाश hota है। लोहे के पात्र में दूध पीना achha होता है। भारत रत्न राजीव दीक्षित जी 

  स्टील
स्टील के बर्तन नुक्सान दायक nahin hote क्योंकि ये naa ही गर्म से क्रिया करते hai aur ना ही अम्ल से. Iss liye नुक्सान नहीं होता है. Iss mei खाना बनाने aur खाने से शरीर ko कोई फायदा nahin पहुँचता तो नुक्सान bhi  nahin पहुँचता। ज्ञान की बातें - आयुर्वेद के स्वस्थ सूत्र 

एलुमिनियम
एल्युमिनिय बोक्साईट का बना होता है। इसमें बने खाने से शरीर को सिर्फ नुक्सान ही होता है। यह आयरन और कैल्शियम को सोखता है । इसलिए इससे बने पात्र का किसी भी  रूप में उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे हड्डियां कमजोर होती है. मानसिक बीमारियाँ होती है, लीवर और नर्वस सिस्टम को क्षति पहुंचती है। इसके साथ साथ किडनी फेल होना,  टी बी, अस्थमा, दमा, वात रोग, शुगर जैसी गंभीर बीमारियाँ होती है. एलुमिनियम के प्रेशर कूकर में  खाना बनाने से 87 प्रतिशत पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं। योगदर्शन 

NATURAL HEALTH 

   मिट्टी
मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने से ऐसे पोषक तत्व मिलते हैं, जो हर बीमारी को शरीर से दूर रखते हैं । इस बात को अब आधुनिक विज्ञान भी साबित कर चुका है कि मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने से शरीर के कई प्रकार के रोग ठीक होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, अगर भोजन को पौष्टिक और स्वादिष्ट बनाना है तो उसे धीरे-धीरे ही पकाना चाहिए। भले ही मिट्टी के बर्तनों में खाना बनने में वक़्त थोड़ा अधिक लगता है, लेकिन इससे सेहत को पूरा लाभ मिलता है। योग दर्शनम् ( Yoga Darshanam ) 

Tuesday, August 17, 2021

औरतें सारी काफ़िर हैं।

अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के साथ ही कट्टरपंथी इस्लामिक विचारधारा से समूचा विश्व भयाक्रांत है। विशेषकर दक्षिण एशिया में अनिष्ट की आशंकाएं बढ़ गयी हैं। अफगानिस्तान के मदद की गुहार पर मूक दर्शक बनी दुनिया को लगा कि पराए पचड़े पड़कर कहीं वह खुद संकट में न पड़ जाए। दूसरी तरफ तालिबान ने जिस सहजता से अफगानिस्तान पर विजय प्राप्त की है, उससे यह भी स्पष्ट है कि वहां इस कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन को स्थानीय लोगों और सेना का समर्थन भी प्राप्त था और इस समर्थन का आधार भी धार्मिक कट्टरता ही रही।

 आज अवसर है कि इस एक शताब्दी में इस्लामिक कट्टरपंथियों की जीत से किसी देश या स्थान विशेष पर पड़ने वाले प्रभावों पर फिर से गौर किया जाए। भारत के परिपेक्ष्य में समझने के लिए पांच घटनाओं पर दृष्टि डालना भी अत्यंत अवाश्यक हो गया है।

 भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय जिस प्रकार पाकिस्तान के इस्लामिक कट्टरपंथियों ने 10 लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया, उसे भुला दिया जाना एक बहुत बड़ी चूक है। बटवारे के दंगों में सिख और हिन्दू परिवारों की महिलाएं प्रमुख रूप से निशाने पर थीं। कभी पड़ोसी रहे मुस्लिमों ने ही अगणित हिन्दू और सिख महिलाओं के साथ बलात्कार किया। निर्बल महिलाओं के समक्ष ही उनके परिवार की बर्बरता से हत्या की गई।

19 जनवरी 1990 को कश्मीर घाटी में मस्जिदों से रालिव-गलिव-चालिव का की घोषणा हुई। एक लोकतांत्रिक देश में अधिनायकवादी निजामे-मुस्तफा के तहत घाटी में रहने वाले सभी हिन्दुओं और सिखों की खुलेआम निर्मम हत्याएं होने लगीं। इस्लामिक कट्टरपंथियों ने घोषणा कर दी कि सभी गैर मुस्लिम पुरुष अपने घर की महिलाओं को वहीं छोड़ दें और खुद तुरंत घाटी छोड़कर भाग जाएं। जिन कश्मीरी पंडितों ने इस धमकी की अनदेखी की, उन्हें सरे चौराहे काट दिया गया। उनकी महिलाएं जबरिया भीड़ की संपत्ति घोषित कर दी गईं।

1990 के दशक में ही तालिबान सक्रिय हुआ। पाकिस्तान में बने इस आतंकी संगठन ने बहुत जल्द अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया। मुस्लिम बहुसंख्यक इस देश पर कब्जा जमाने के बाद तालिबान ने महिलाओं को आतंकियों के उपभोग की वस्तु बना दिया। घरों से जबरिया औरतें उठाई जाने लगीं। बहुत ही आश्चर्यजनक था कि एक तरफ महिलाओं पर अनगिनत पाबंदियां लगाई गईं और साथ ही उनका अंधाधुंध शारीरिक शोषण भी किया गया। गौरतलब है कि इस बार महिलाएं काफ़िर न होकर मुस्लिम ही थीं।

2014 में विश्व के लिए वीभत्स आतंकवाद का पर्याय बने इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया(आईएसआईएस) में शामिल होने के लिए पूरी दुनिया के मुसलमान इराक और सीरिया पहुँचने लगे। कट्टरपंथी इस्लामिक विचारधारा के इस संगठन ने असंख्य निर्दोषों की निर्ममता से हत्या की, महिलाओं का जघन्य शोषण किता और बाकायदा उसके वीडियो जारी किए। वीडियो जारी होने के बाद आईएसआईएस में शामिल होने के लिए दुनिया भर से कट्टरपंथी मुसलमानों की और बड़ी संख्या इराक और सीरिया में जमा होने लगी। हर कट्टरपंथी इस्लाममिक संगठन की तरह ही आईएस ने भी महिलाओं को उपभोग की वस्तु बनाया। चौराहों पर कूर्द बच्चियों और महिलाओं की नीलामी होने लगी। यहां तक कि आईएस में शामिल होने आईं अवयस्क बच्चियों और महिलाओं का समूहिक बलात्कार इस समूह का शगल था।

आज तालिबान ने दुबारा अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है। उत्तर के प्रान्तों-शहरों पर जीत मिलने के साथ ही तालिबान लड़ाके निहत्थे लोगों की जघन्य हत्या करने लगे। अफगानिस्तान के सरकारी कर्मचारियों को साफ संदेश दे दिया गया कि वह अपने घर की सभी महिलाएं और बच्चियां तालिबान को चुपचाप सौंप दें। इतिहास में दर्ज चार घटनाओं और वर्तमान अफगान संघर्ष में दो बातों की पुनरावृत्ति हर बार हुई है। एक, निर्दोष-निहत्थे लोगों की बर्बरता से हत्या और दूसरा महिलाओं व बच्चियों के दानवीय शोषण। 

लेख के द्वितीय भाग में कट्टरपंथी इस्लाम की पैशाचिक प्रवृत्ति और इस षड्यंत्र के कारक मनोविज्ञान पर चर्चा होगी।