संख्या का पशुबल। यह शब्द मेरे नहीं हैं। दैनिक भास्कर के दिवंगत ग्रुप एडिटर कल्पेश याज्ञनिक अक्सर बोलचाल में इसका उपयोग किया करते थे। मुझे नहीं पता ये उनके अपने शब्द थे या उन्हाेंने कहीं से लिए थे-"संख्या का पशुबल।'
शुक्रवार की परम प्रार्थना के पश्चात समुदाय विशेष के शांतिप्रिय, सभ्य और सुसंस्कृत नागरिकों ने राजधानी दिल्ली समेत अनेक शहरों में जो दिखाया है, वह सिर्फ भीड़ नहीं है। वह संख्या का पशुबल है।
मेरी दृष्टि में किसी भी विचार के लिए इस बल को उत्पन्न करना एक बड़ी उपलब्धि है। इसमें सब कुछ क्रम से होता है। पहले संख्या पर तीव्र गति से काम, फिर उसका सुनियोजित पशुवत निर्माण और जब यह हो चुकता है तो उसका सामूहिक एकत्रीकरण और अंतत: बल के रूप में सार्वजनिक प्रदर्शन। एक दिवस विशेष पर यह अथाह बल सड़कों पर बहता हुआ सैलाब बन जाता है। यह दिन विशेष रूप से चार्ज करता है। एक्सट्रा एनर्जी का ओवरडोज देता है। दिमाग को खुराक मिलती है और वह नतीजे देने को बेचैन हो उठता है। तत्काल रिजल्ट।
बल प्रदर्शन के लिए केवल एक बहाना चाहिए। इतनी बड़ी दुनिया में हर समय कुछ न कुछ कहीं न कहीं घटित हो ही रहा होता है। बहाने कहां कम हैं। वह देश के भीतर से भी ढूंढा जा सकता है। कोई कार्टून भी हो सकता है, जो सात समंदर पार किसी ने बनाए हों। किसी का बयान, जिसे पशुबल बनकर सड़कों पर उतरे इंसानोंे में से ज्यादातर ने सुना ही नहीं होगा। और तो और जिसके प्रति उनकी दीवानगी सिर चढ़कर बोलती है, उसके बारे में भी उन्हें कुछ पता नहीं होगा। उनके दिमाग उन खिलौनों की तरह हैं, जिसकी चाबी कोई और भरता है।
अंतत: यह विचार की ही शक्ति है। एक विचार, जो इस समूची प्रक्रिया के मूल में संसार भर में एक जैसे ढंग से काम करता है। तर्क से खोखले और प्रश्नों से भयभीत विचारों को अपने अस्तित्व को भारी बनाए रखने के लिए कम से कम यह तो पता होता ही है कि वे किस आधार पर कहां टिकेंगे?
खासकर जब उनका संघर्ष एक ऐसी सभ्यता से हो, जिसके मूल में ही तर्क और प्रश्नों की अपार स्वतंत्रता है। वे यह जानते हैं कि ऐसी स्वतंत्रता उनके लिए आत्मघातक सिद्ध हो सकती है। रेत की इमारत है। प्रश्न का एक मामूली प्रहार ही उसे रेत का ढेर बना देगा। एक बयान उनके किले को ध्वस्त कर देगा, जो वहम के ऊपर वहम की परतों से बना है। एक चित्र उनके चरित्र का लोकार्पण कर देगा। यह सब सोच और सहन सीमा के बाहर की बातें हैं। एक सिरे से अस्वीकार।
हर सभ्यता में परमात्मा के स्वरूप की कल्पना बहुत हद तक उनके अनुयायियों के अाचरण में झलकती है। यह कृष्ण के देश में ही संभव था कि नृत्य के लगभग ढाई सौ रूपरंग रचे गए। भारत का भगवान भारतीयों का मित्र है। मार्गदर्शक है। वह पिता है। परमपिता है। पिता का आश्रय सुखी जीवन की गारंटी है। जब परमात्मा मनुष्य का मित्र बना दिया जाए तो वह सबसे बड़ा संबल है। मित्र या पिता से कैसा भय? वे निश्चिंत करते हैं। आशा से भरते हैं। ऐसा विश्वास किसी भी समाज के सुखी और समृद्ध जीवन की आधारभूत आवश्यकता है।
जिन सभ्यताओं में परमात्मा की कल्पना एक ऐसे बिग बॉस की तरह है, जिससे डरना चाहिए। जो खौफ पैदा करता है। जो जीवन के प्रति उत्सुक नहीं है। मनुष्यमात्र के जीवन में सुख, समृद्धि, समानता, सद्भाव और समरसता के रंग भरना जिसकी प्राथमिकता नहीं है। बल्कि मृत्यु पश्चात की योजनाओं के लालची ऑफर लिए बैठा है और मनुष्य-मनुष्य में ही भेद डाल दिया है, उसके प्रभाव की कल्पना कीजिए। प्रभाव नहीं, दुष्प्रभाव।
चौबीस घंटे खौफ खाने वाला दिमाग जीवन की संवेदनाओं से कट ही जाएगा। फिर उसका चित्त चित्रों में नहीं लगेगा, गीत गुनाह बन जाएंगे और संगीत हराम हो जाएगा। सिगमंड फ्रायड की मनोवैज्ञानिक अवधारणाएं इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं कि आपके भीतर के मनोभाव ही निद्रा या जागरण में आपको गढ़ते रहते हैं। हर समय डर से भरा हुआ एक आदमी, हर समय डर से भरे हुए हजार आदमियों के बीच जब होता है तो उनके भीतर के डर भी हजार गुने हो जाते हैं।
दिन में पांच बार एक आदमी कहानियों के जरिए इन हजारों डरे हुए लोगों के दिमाग हजारों जगहों पर एक साथ नियंत्रित करता है। इन कहानियों में वीरता के अपने गुणगान हैं, संघर्ष की स्वयंभू परिभाषाएं हैं और तर्कहीन संघर्ष के अपने सुफल हैं। बुद्धि और विवेकहीन भीड़ आका के इशारे का इंतजार करती है। वे अपने मनुष्य होने की अनुभूति भी खो देते हैं, जिसके पास विचार की अपनी शक्ति है और उसका उपयोग भी करना चाहिए। वे कभी यह नहीं समझ पाते कि कब उन्हें ऐसे रोबोट में बदल दिया गया है, जिनके सीने पर बम बांधकर भेजा सकता है और जिनके हाथों में पत्थर और पेट्रोल बम थमाकर सड़कों पर उतारा जा सकता है।
अगर वे अपने परम पवित्र प्रार्थनागृहों से निकलकर ऐसा व्यवहार कर रहे हैं तो तय मानिए कि प्रार्थनागृहों के नाम पर भीड़ जुटाने और उसे नियंत्रण करने के अड्डे संचालित हैं, जहां से यदाकदा अस्त्रशस्त्रों के अवैध जखीरे भी मिलते रहे हैं। आपात स्थिति में भयभीत करने वाली संगठित सूचनाएं प्रसारित करने के लिए ध्वनि विस्तारक यंत्रों का सदुपयोग 1990 में कश्मीर में हुआ, इसका मतलब यह नहीं है कि वह मुरादाबाद या दिल्ली में नहीं होगा।
डर आखिरकार असुरक्षा का भाव पैदा करता है, दहशत से भरता है और ऐसे आदमी को अपने चारों तरफ साजिशें ही नजर आती हैं। उसे लगता है कि वह अलग है और बाकी अलग हैं, जो हर समय उसके विरुद्ध षड़यंत्र कर रहे हैं। सारी सृष्टि के प्रति वह एक किस्म के दुराभाव से सदा के लिए भर जाता है। अगर उसका शास्त्रीय दर्शन भी उसे निरंतर इसी ओर धकेलने वाला हो तब यह धरती के समस्त सभ्य समाजों के लिए चिंता की स्थिति है, क्योंकि ऐसे दर्शन से अनभिज्ञ बाकी लोगों को यह ज्ञात भी नहीं होता कि उनके आसपास घुलामिला एक मानव समाज किस प्रकार के मनोविज्ञान में विकसित हो रहा है।
फ्रांस इस मनोविज्ञान को समझकर अपने ढंग से प्रतिकार कर रहा है, म्यांमार के शांतिप्रिय बौद्धों ने अपने उपचार ढूंढे, सिक्चियांग प्रांत में चीन ने अपनी पैथी ईजाद की हुई है और तो और श्रीलंका जैसे बरबाद देश ने भी कुछ सबक ग्रहण किए थे। विश्व की महाशक्ति बनने को आतुर भारत की तरफ अब पूरे विश्व की निगाहें हैं कि वह शाकाहार, आयुर्वेदिक उपचार, योग और ध्यान के गांधीवादी तरीकों पर चलते हुए दूसरा गाल आगे करता है या सामने वाले के दोनों गालों पर पंजाब का नक्शा उभारने की शक्ति जुटाता है।
सबके साथ और सबके विकास की बातें अब तत्काल बंद करने का समय है, क्योंकि विकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जो देवेगौड़ा, गुजराल और चंद्रशेखर के समय भी थमती नहीं है। एक डरपोक और दमित विश्वगुरू भारत के दर्शन कोई नहीं करना चाहेगा। इसलिए सरकारों को अपनी समूची शक्ति इस तरफ लगानी चाहिए कि हम 2047 में स्वाधीनता के सौ साल होने पर कैसा भारत देखना चाहेंगे?
दिल्ली के जोशीले जमावड़े को देखकर मुझे कल्पेश याज्ञनिक के ये ही शब्द याद आए। यह केवल एक भीड़ नहीं है, यह पशुबल में बदल दी गई एक अनियंत्रित संख्या है, जिसने अपना दिमाग दूसरे खतरनाक हाथों में थमा दिया है।
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