Friday, June 3, 2022

एक्स-मुस्लिम: इस्लाम का रिवर्स गियर।

अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर की खबरें सुनकर हर बार दिल्ली की जामा मस्जिद से उतरते हुए अहमद को लगता है कि पीछे से किसी ने उसकी तहमद खींच दी है। वह बेचारा बाबर से अपनी बल्दियत जोड़े बैठा था। वाराणसी में ज्ञानवापी के सर्वे के समाचार औरंगाबाद के पास आलमगीर की बारादरी में मौजूद तौसीफ को ऐसे मालूम पड़ते हैं मानो कोई उसकी टोपी हिला रहा है। वह बड़ी श्रद्धा से आैरंगजेब को पहले ‘हजरत’ कहता है और बाद में ‘रहमतउल्लाअलैह’ जोड़ता है। सबसे बदनाम मुगल तौसीफ के दिलोदिमाग में एक पीर की तरह बसा बैठा है। मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि से जबरन चिपकी ईदगाह से लौटते हुए रमजान मियाँ के माथे पर बल पड़ने लगते हैं, जब उन्हें ज्ञात होता है कि कम्बख्त इधर भी कोर्ट-कचहरी शुरू हो रही है। यही सूरते-हाल जौनपुर, मुर्शिदाबाद, अहमदाबाद और धार के अनगिन अहमदों, तौसीफों और रमजानों का है।

उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ की दूसरी चुनावी फतह आग में घी का काम करती है। मंहगाई की मार के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दिनों-दिन मजबूत महामूर्ति को देखकर दाढ़ी नोचने के सिवा कोई उपाय नहीं सूझता। सिनेमा के परदे पर सेक्युलर बाजा बजाते रहे बॉलीवुड की जोरदार बैंड बजी हुई है। रही-सही कसर राजामौली जैसे कारीगर पूरी किए दे रहे हैं, जिनकी आरआरआर जैसी मूवी रिकॉर्ड तोड़ हिट रही है। सिनेमा में राम के नाम पर वीर रस का ऐसा गीत रचने की हिम्मत मुंबई के किस माई के लाल में थी और वो भी शुद्ध संस्कृत में? 

यही नहीं, बिल्कुल राम के वेश में हीरो को पेश करने का आइडिया बालीवुड के किस बहादुर रचनाकार के पास था? और राम भी अरुण गोविल जैसे पिता के आज्ञाकारी साैम्य, शांत कंद, मूल, फल खाते वनवासी, सीता के निकट प्रेमपूर्ण स्वरूप में नहीं, अंगेस्ट लाइट में हिला देने वाले संगीत की पृष्ठभूमि में पूरे परदे पर चमकते धनुर्धारी, तेजस्वी और शत्रुओं के प्रति निर्मम अवतार में। फिल्म बनाकर राजामौली हैदराबाद में ही बने रहते तो भी ठीक था, वे पूरी टीम के साथ डबल तड़का लगाते हुए वाराणसी में गंगा मैया का गुणगान करने और जा बैठे। तड़के की धाँस से मदरसों में परेशान मौलवियों, अहमदों, तौसीफों और रमजानों की हालत का अंदाजा लगाइए!

अब तक बह रही उल्टी हवा के सीधे रुख को भी देखिए। पांच साल पहले तक किसने कल्पना की थी कि ‘एक्स मुस्लिम’ नाम का कोई एलियन पृथ्वी ग्रह पर किसी ‘उड़ने वाले ऊंट’ की मदद के बगैर उतरेगा? साल-डेढ़ साल पहले कुछ उतरे भी, लेकिन वे इंटरनेट के आकाश में एक परछाई की तरह बतियाते रहे। उनके नाम और पहचान छिपे हुए थे। वे सिर्फ असलियत बयान कर रहे थे। मगर छह-आठ महीने में जब ज्ञानवापी के शिवलिंग सामने आए, राजामौली ने सिनेमा का नया अवतार पेश किया और यूपी के चुनावों में सपा के सेक्युलर अवशेष सियासत का कूड़ा बन गए तब ऐसे विकट हालात में दो किरदार अचानक अपने नाम और अपनी पहचान के साथ उभरे। इनके नाम हैं-साहिल और समीर। 

इंटरनेट पर लबालब छलक रही यह इक्कीसवीं सदी की नई और सुपरहिट जमात अब खुलकर एक्स-मुस्लिम है। एक्स-मुस्लिम जैसे एक्स-हसबैंड यानी पूर्व पति, पहले थे अब नहीं हैं। कभी तबलीग वगैरह में रहकर दूसरों को ईमान का ज्ञान देते रहे दोनों नौजवानों ने ‘आत्मज्ञान’ प्राप्त होते ही गैराज से बाहर आकर ‘रिवर्स गियर’ डाल दिया! लाखों युवा इनके यूट्यूब चैनलों पर इनकी तकरीरें सुन रहे हैं, जहां सवाल करने की मनाही नहीं है, सवालों का स्वागत है। देवबंद के देवता किताब में उपाय ढूंढ रहे हैं कि इंटरनेट को भस्म होने का शाप किस मंत्र से दिया जाए?

साहिल और समीर से भी पहले सारा खान नाम की बहादुर बंगाली विदुषी एक ऐसी ही लहर पैदा कर चुकी हैं, जिन्होंने भारत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमानों की युवा पीढ़ी के बीच अपनी गहरी वैचारिक पैठ बनाई है। मगर वह अब सारा खान नहीं हैं, काली दासी के रूप में प्रसिद्ध हैं। साहिल और समीर का रिवर्स गियर उन्हें एक्स-मुस्लिम के पड़ाव तक ले आया है, लेकिन सारा खान अपने रिवर्स गियर से सनातनी ठिकाने तक सुरक्षित जा पहुंची हैं, जहां उनके नाम की तख्ती पर लिखा है-‘काली दासी।’ वे देवी की परम उपासक हैं।

 सारा खान से काली दासी के रूपांतरण के दौरान कुछ महीनों पहले वे अपने बेहद लाेकप्रिय यूट्यूब चैनल पर अफगानिस्तान मूल की डॉ. फौजिया रऊफ से चर्चा करती नजर आईं। थोड़े ही दिन में पता चला कि डॉ. फौजिया रऊफ का रिवर्स गियर उनके नाम की तख्ती पर ‘सरस्वती दासी’ लिखकर चला गया है। फौजिया भी अब खुद को सनातनी कहकर गर्व महसूस करती हैं। परवीन नाम की एक अध्ययनशील विदुषी अब पूजा उपाध्याय के नाम से मशहूर और मुखर हैं। सुबुही खान नाम की नामी वकील खुद को सनातनी मुस्लिम मानती हैं। ये सब विभूतियां अपने जन्म के मजहब इस्लाम पर जो कुछ भी कह रहे हैं, उसे सुनने वाले, गुस्सैल और आगबबूला तकरीरों में माहिर मौलानाओं से कई गुना ज्यादा तादाद में हैं, जो लगातार बढ़ रहे हैं। 

 लखनऊ के वसीम रिजवी ने तो पहली ही बॉल स्टेडियम से बाहर कर दी। वे स्वामी नरसिंहानंदजी के पास एक दिन हवन करते हुए जितेंद्र नारायण त्यागी हो गए और इस ‘रिवर्स माइग्रेशन’ के तोहफे में जेल की कोठरी तक जा पहंुचे। डॉ. रिजवान अहमद अपने इस्लामी दायरे में रहकर और ज्यादा जोखिम लिए हुए हैं। वे बदलते दौर में मुसलमानों की बिगड़ी और पिछड़ी हुई हैसियत पर सम-सामयिक मसलों पर हर रोज आइना दिखा रहे हैं। वे कब से कह रहे हैं कि अयोध्या, मथुरा और काशी को भूलने में ही समझदारी है। इतिहास में जो हुआ है, उसे कुबूल करने में कोई हर्ज नहीं है।

भारत में मुख्य धारा का मीडिया, हमेशा से सरकारी इशारों पर नाचने वाली कठपुतली की तरह रहा है। पहले अखबार थे। अब चैनलों की भरमार भी है। आजादी के बाद गढ़े हुए नकली सेक्युलरिज्म की उम्र इतनी ही थी। वह रेतीली इमारत थी, जिसका ढहना तय ही था। अंधविश्वासों और सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ अखबार खूब लिखते रहे, लेकिन इस्लाम से बचकर। होली पर रंगों का इस्तेमाल पानी की बरबादी था, लेकिन ईद पर कटने वाले करोड़ों भैंसों और बकरों का टनों खून बहकर कहां समा जाता है, कोई कैमरा या कलम उधर झांकने नहीं गया। इंटरनेट ने इनके सारे टीन-टप्पर उड़ा दिए।

टेलीविजन को अक्ल अब आ रही है। पहली बार मुख्य समाचार चैनलों का ध्यान इस लहर पर गया है और उन्हांेने हिम्मत दिखाई है कि यह भी एक आवाज है, जिसे दूर तक सुना जा रहा है। इंडिया टीवी और इंडिया न्यूज की मीनारों पर एक्स-मुस्लिमों की आवाज सबसे पहले सुनाई दी है, जो इंटरनेट पर कब से अजान दे रही थी। यह एक नई तरह की दावत का दौर है, जो दिमाग की बंद खिड़कियां खोल रहा है ताकि सब तरफ से सब तरह के विचारों और सवालों को आने दिया जाए। इसका अंत सत्य की स्थापना से ही होना तय है। तर्कों और प्रश्नों का सामना करके ही कोई विचार टिक सकता है। ताकत के बल पर कूड़ा थोपने का समय बहुत पहले जा चुका था, सड़े हुए सेक्युलर तिरपाल भारत में आड़ देते रहे थे। उसके चिथड़े उड़े हुए हैं। 

इन ऐतिहासिक बदलावों को भारत के सीमित दायरे में मत देखिए। अयोध्या, मथुरा और काशी तो हमारे आसपास की चमकती हुई बूंदें हैं। असल में दुनिया भर में इस्लाम के भीतर एक एेसी लहर उठी है, जिसे साहिल और समीर जैसे पढ़े-लिखे नौजवान अगले पाँच-सात साल में सुनामी सी बनती देख रहे हैं। किसने सोचा था कि सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान भारत में कोरोना की आहट मात्र पर खाँसी की शिकार तबलीग को आतंक का दरवाजा डिक्लेअर कर देंगे और हदीसों की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठाकर एक बेहतर दुनिया की खातिर इस्लाम की मेगा मशीन में आवश्यक सुधार और मरम्मत का काम सबसे बड़े गैरेज में शुरू कर देंगे?

बेशक सूचना तकनीक ने समंदर की गहराई में रिक्टर स्केल पर 7.8 के कंपन्न पैदा कर दिए हैं और ये शुरुआती लहरें उसी से उपजी हैं। हर धर्म और विचार में मंथन की एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया होती ही है, जो उसे वक्त के मुताबिक ढालती रहती है। इस लचीलेपन ने ही भारत की सनातन परंपरा को इस्लामी हमलावरों और क्रूर कब्जेदारों के एक हजार साल लंबे अंधड़ों के बावजूद जीवंत बनाए रखा है। विचार की शिराओं में बहते रक्त में इसी एक अनिवार्य तत्व की कमी ‘रिलीजन और मजहब’ की गंभीर बीमारी को उजागर कर रही है। दमघोंटू दायरे जब जानलेवा हो जाते हैं तो मरता हुआ आदमी भी अपनी बची-खुची ताकत जुटाकर भागने को मजबूर हो जाता है।

आपको क्या लगता है, हैदराबाद के हजरत यूं ही बौखलाए हुए हैं? मदनियों के जमावड़े की वजहें हैं। 

‘हजरत राजीव गांधी रहमतुल्लाअलैह’ ने पूरे 38 साल पहले ही फरमा दिया था कि जब बड़े दरख्त गिरते हैं तो जमीन काँपती ही है!

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