Monday, October 26, 2015

जौ(Barley)......

जौ(Barley)

प्राचीन काल से जौ का उपयोग होता चला आ रहा है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों का आहार मुख्यतः जौ थे। वेदों ने भी यज्ञ की आहुति के रूप में जौ को स्वीकार किया है। गुणवत्ता की दृष्टि से गेहूँ की अपेक्षा जौ हलका धान्य है। उत्तर प्रदेश में गर्मी की ऋतु में भूख-प्यास शांत करने के लिए सत्तू का उपयोग अधिक होता है। जौ को भूनकर, पीसकर, उसके आटे में थोड़ा सेंधा नमक और पानी मिलाकर सत्तू बनाया जाता है। कई लोग नमक की जगह गुड़ भी डालते हैं। सत्तू में घी और चीनी मिलाकर भी खाया जाता है।
जौ का सत्तू ठंडा, अग्निप्रदीपक, हलका, कब्ज दूर करने वाला, कफ एवं पित्त को हरने वाला, रूक्षता और मल को दूर करने वाला है। गर्मी से तपे हुए एवं कसरत से थके हुए लोगों के लिए सत्तू पीना हितकर है। मधुमेह के रोगी को जौ का आटा अधिक अनुकूल रहता है। इसके सेवन से शरीर में शक्कर की मात्रा बढ़ती नहीं है। जिसकी चरबी बढ़ गयी हो वह अगर गेहूँ और चावल छोड़कर जौ की रोटी एवं बथुए की या मेथी की भाजी तथा साथ में छाछ का सेवन करे तो धीरे-धीरे चरबी की मात्रा कम हो जाती है। जौ मूत्रल (मूत्र लाने वाला पदार्थ) हैं अतः इन्हें खाने से मूत्र खुलकर आता है।

जौ को कूटकर, ऊपर के मोटे छिलके निकालकर उसको चार गुने पानी में उबालकर तीन चार उफान आने के बाद उतार लो। एक घंटे तक ढककर रख दो। फिर पानी छानकर अलग करो। इसको बार्ली वाटर कहते हैं। बार्ली वाटर पीने से प्यास, उलटी, अतिसार, मूत्रकृच्छ, पेशाब का न आना या रुक-रुककर आना, मूत्रदाह, वृक्कशूल, मूत्राशयशूल आदि में लाभ होता है
औषधि-प्रयोगः
धातुपुष्टिः एक सेर जौ का आटा, एक सेर ताजा घी और एक सेर मिश्री को कूटकर कलईयुक्त बर्तन में गर्म करके, उसमें 10-12 ग्राम काली मिर्च एवं 25 ग्राम इलायची के दानों का चूर्ण मिलाकर पूर्णिमा की रात्रि में छत पर ओस में रख दो। उसमें से हररोज सुबह 60-60 ग्राम लेकर खाने से धातुपुष्टि होती है।
गर्भपातः जौ के आटे को एवं मिश्री को समान मात्रा में मिलाकर खाने से बार-बार होने वाला गर्भपात रुकता है
@ जौ का पानी :-
जौ में विटामिन बी-कॉम्प्लेक्स - आयरन - कैल्शियम - मैग्नीशियम - मैगनीज - सेलेनियम - जिंक - कॉपर - प्रोटीन - अमीनो एसिड - डायट्री फाइबर्स और कई तरह के एंटी - ऑक्सीडेंट पाए जाते हैं !
रोज जौ का पानी पीने से कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं का अंत हो जाता है !
कई बीमारियों के होने का खतरा भी बहुत कम हो जाता है !
@ ऐसे तैयार करें जौ का पानी :-
जौ को अच्छी तरह से धोकर पानी में भिगो दें !
कम से कम 5 घंटे बाद भीगे हुए जौ मध्यम आंच पर 1 घंटे तक उबलने दें !
ठंडा होने पर छान कांच के जार में भर लें - दिन में एक से दो गिलास पीएं !
* वजन घटाना हो तो जौ का पानी पीएं !
* किडनी या यूरीन से जुड़ी कोई समस्या हो तो जौ का पानी बेहद फायदेमंद है !
* शुगर लेवल को सही रखता है जौ का पानी - डायबिटीज की समस्या है तो जौ काम में लें !
* ब्लड कोलेस्ट्रॉल लेवल को कम करने में जौ का पानी असरदार है - इससे हार्ट भी सेहतमंद रहता है !
* जौ का पानी पीने से शरीर के भीतर मौजूद विषाक्त पदार्थ बाहर निकल जाते हैं - इम्यून सिस्टम को भी बेहतर बनाए रखता है !
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* per 1 लीटर पानी में 1 table spoon ( बड़े चम्मच ) जौ डालकर उबालें !
उबालने के वक्त ढक्कन को अच्छी तरह से लगा दें ताकि जौ के दाने अच्छी तरह से पक जायें !
जब यह मिश्रण पानी के साथ घुलकर हल्के गुलाबी रंग का पारदर्शी मिश्रण बन जायें तो समझ जाना चाहिए कि यह पीने के लिए तैयार है - इसको छानकर रोज इसका सेवन करें !
aap din bhar ke liye 2 se 3 ltr paani Isi Anupat me Barley mila taiyar Kre !
Rozana Taza Bnaye !
** इसमें नींबू, शहद और नमक भी डाल सकते हैं !
*** छिलके वाले में ज्यादा फाइबर होता है और पकाने में ज्यादा समय लगता है इसलिए बिना छिलके वाले पकाने में आसान हैं !

Friday, October 2, 2015

वेद में सरस्वती.

सरस्वती नदी की खोज एक ऐतिहासिक घटना है। प्राचीन संस्कृत वाङ्मय में सरस्वती का अनेकशः उल्लेख है। यह मात्र एक नदी नहीं है, अपितु हमारी संस्कृति का एक अमूल्य स्रोत है। सरस्वती हमारे इतिहास का स्रोत भी है। अधिकतर नगरों का विकास नदियों के किनारे हुआ। इस दृष्टि से सरस्वती के मूल मार्ग की खोज से आर्यावत्र्त के अज्ञात इतिहास पर भी प्रभूत प्रकाश डाला जा सकता है। जिन विनष्ट सभ्यताओं को वैदिक संस्कृति से भिन्न कहा जाता रहा है, वे भी वैदिक सभ्यता ही हैं, इस तथ्य को और अधिक दृढ़ता से प्रमाणित किया जा सकता है। सरस्वती  शोध संस्थान के माध्यम से श्री दर्शनलाल जैन के परम पुरुषार्थ और वर्तमान सरकार द्वारा इस राष्ट्रीय महत्त्व के कार्य में रूचि लेने के कारण ऐसी संभावनाएँ दिखाई देने लगी हैं कि सरस्वती के मार्ग को खोज लिया गया है। नासा द्वारा लिए गए चित्रों के माध्यम से भी इसकी पुष्टि होती है।

दो धाराएँः-

सरस्वती नदी के संबंध में दो प्रकार की विचारद्दाराएँ हैं। एक तो वह विचारधारा है जो भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास की प्रत्येक गौरवशाली वस्तु को मिथक मानती है। उन्होंने अपनी इतिहास दृष्टि की कुछ सीमाएँ निर्धारित की हुई हैं। वे उससे बाहर कुछ प्रमाणित होता हुआ नहीं देख सकते। वे सरस्वती नदी को भी मिथक मानते हैं। यमुनानगर के गांव में मिली जलधारा सरस्वती ही प्रमाणित हो जाए तो यह आवश्यक नहीं है कि वे अपनी भूल का सुधार कर लेंगे। इस विषय में कुछ वर्ष पहले हमारी प्रो0 सूरजभान जी से दैनिक भास्कर के ‘पाठकों के पत्र’ कालम के माध्यम से बहस हुई थी। जब हमने वैदिक साहित्य के संदर्भों का उल्लेख किया तो वे वैश्विक समुदाय की मान्यताओं का आश्रय लेने लगे। यानि हमारे साहित्य में क्या है- इसका निर्णय करने के लिए हम दूसरे देशों के लोगों के मुंह की ओर देखेंगे! हमारे साहित्य में क्या है, यह हमें वे लोग बताएँगे जिनमें संस्कृत में पत्र लिखने की योग्यता भी नहीं थी। जो हमारे देश के इतिहास को हीन बताकर, वेदों को गडरियों के गीत बताकर हमारी वेदों के प्रति श्रद्धा को समाप्त करना चाहते थे और हमें ईसाई मत की ओर आकर्षित करना चाहते थे, उनसे सत्य की आशा रखना केवल भोलापन ही है। सरस्वती, रामायण, महाभारत, आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य होना-- ऐसे ही कुछ विषय हैं जिनको मिथक बताने के लिए वे पीढि़यों से तुले हुए हैं। जिस प्रकार रामसेतु के पुरातात्त्विक साक्ष्य मिलने पर भी उनकी धारणा नहीं बदली, उसी प्रकार सरस्वती नदी मिल जाने पर भी वे सरस्वती को मिथक कहना छोड़ देंगे, इस बात की उनसे आशा नहीं की जा सकती। 
सरस्वती के संबंध में दूसरी विचारधारा इस देश के गौरवमय अतीत में विश्वास रखने वालों की है। इस देश की संस्कृति कृषि प्रधान रही है। ऐसे में नदियों का संबंध जीवन में समृद्धि से रहना स्वाभाविक ही है। वैदिक ज्ञान के अभाव में जैसे अन्य जड़ वस्तुओं की पूजा होने लगी, वैसे ही नदियों की भी होने लगी होगी, इसमें भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस प्रकार सरस्वती आस्था और श्रद्धा का केन्द्र बन गई। लेकिन आस्था कोई अकादमिक प्रमाण नहीं है। लोगों की आस्थाएँ भिन्न-भिन्न हो सकती हैं। जब हमारे प्राचीन साहित्य में सरस्वती नदी के प्रभूत उल्लेख हैं तो हमें आस्था की आड़ लेने की क्या आवश्यकता है। अब पुरातात्त्विक साक्ष्य मिलने के बाद तो इसकी प्रामाणिकता में संदेह का कोई स्थान ही नहीं है।

वेदों में सरस्वती

जब दूसरी विचारधारा के लोग वेदों में सरस्वती नदी का वर्णन होने की बात करते हैं तो लगता है कि एक झूठ हजार बार बोलने के कारण सच हो गया है। जो षड्यंत्र वेद के पाश्चात्य भाष्यकारों ने रचा था, वह सफल हो गया है। ब्रिटिश शासन के दौरान और स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में संस्कृत और वेद विद्या का इतना हªास हुआ है कि इस भ्रम के विरुद्ध उठने वाले स्वर भी बहुत कम हो गए हैं। वेदों में सरस्वती नदी को वे लोग ढूंढ रहे हैं जो वेद को अपौरुषेय मानते हैं। अभी आर एस एस से जुड़े एक पूर्व सांसद का लेख आया। वे लिखते हैं कि ऋग्वेद के एक राजा सुदास का राज्य सरस्वती नदी के तट पर था। तो क्या वेदों की रचना राजा सुदास के बाद हुई है? वे एक मंत्र को गृत्समद् का रचा बताते हैं। तो क्या वेद मंत्रों की रचना ऋषियों ने की है? यह एक उदाहरण मात्र है। वेद के अनुयायी कहे जाने वाले लोग वेद के संबंध में कितने भ्रम में हैं, यह बात पीड़ादायक है।
वेद क्या है?
वेद ईश्वरीय ज्ञान है। ईश्वर नित्य है। उसका ज्ञान भी नित्य है। उसके ज्ञान में कमी या बढ़ोतरी नहीं हो सकती। सृष्टि प्रवाह से अनादि है। हर सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर मनुष्यों के कल्याण के लिए यह ज्ञान देता है। यह ईश्वर का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है, मनुष्यों के लिए सम्पूर्ण है। वेद ऋषियों के हृदय में प्रकाशित होता है। ऋषि मंत्रों को बनाने वाले नहीं हैं, वे मंत्रों के द्रष्टा हैं। उन्होंने उनके अर्थ जाने हैं। वेद सार्वकालिक और सार्वभौमिक है। इसमें सांसारिक वस्तुओं पहाड़ों, नदियों, देशों, मनुष्यों का नाम नहीं हो सकता है। वेद सांसारिक इतिहास और भूगोल के पुस्तक नहीं हैं। इतिहास और भूगोल बदलते रहते हैं, वेद बदलते नहीं हैं। वेद में अनित्य इतिहास नहीं हो सकता है। भारतीय परम्परा में यह सर्वतंत्र सिद्धान्त है। यदि वेद में सांसारिक वस्तुओं के या व्यक्तियों के नाम या इतिहास होंगे तो वेद शाश्वत नहीं हो सकता।

वेद में नाम

वेद में सरस्वती, गंगा, यमुना, कृष्ण आदि ऐतिहासिक शब्द आते हैं। पर ये ऐतिहासिक वस्तुओं या व्यक्तियों के नाम नहीं हैं। वेद में इनके अर्थ कुछ और हैं। इस बात को समझने के लिये तीन बातों का जान लेना आवश्यक है।
1- वेद शाश्वत हैं। ये वस्तु या व्यक्ति अनित्य हैं। 
2- सांसारिक वस्तुओं के नाम वेद से लेकर रखे गए हैं, न कि इन नाम वाले व्यक्तियों या वस्तुओं के बाद वेदों की रचना हुई है। जैसे किसी पुस्तक में यदि इन पंक्तियों के लेखक का नाम आता है तो वह इस लेखक के बाद की पुस्तक होगी। इस विषय में मनु की साक्षी भी है।
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।
वेद शब्देभ्यः एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे।। 
3- वेद के शब्द यौगिक हैं, रूढ़ नहीं हैं। हम किसी वस्तु को नदी क्यों कहते हैं? क्योंकि हम ऐसी रचना को जिसमें प्रभूत जल बहता है, नदी कहते सुनते आए हैं। यह रूढि़ है। वेद में ऐसा नहीं है। वेद के शब्दों के अर्थ उन शब्दों में निहित होते हैं। जैसे जो वस्तु नद=नाद करती है, वह नदी है। यह निर्वचन पद्धति है। ऋषि दयानन्द और अन्य सभी प्राचीन यास्क आदि ऋषि मुनि इसी पद्धति को स्वीकार करते हैं। इस बात को समझकर आईये हम प्रकरणवश वेद में सरस्वती नदी की बात पर विचार करते हैं-
वेद में सरस्वती नाम है, अनेकशः है। मुख्य रूप से ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के 95-96 सूक्तों में सरस्वती का उल्लेख है। इनके अलावा भी वेद में अनेक मंत्र हैं जिनमें सरस्वती का उल्लेख है। लेकिन यह सरस्वती किसी देश में बहने वाली नदी नहीं है।

सरस्वती का अर्थ

वेद के अर्थ समझने के लिए हमारे पास प्राचीन ऋषियों के प्रमाण हैं। निघण्टु में वाणी के 57 नाम हैं, उनमें से एक सरस्वती भी है। अर्थात् सरस्वती का अर्थ वेदवाणी है। ब्राह्मण ग्रंथ वेद व्याख्या के प्राचीनतम ग्रंथ है। वहाँ सरस्वती के अनेक अर्थ बताए गए हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

1- वाक् सरस्वती।। वाणी सरस्वती है। (शतपथ 7/5/1/31)
2- वाग् वै सरस्वती पावीरवी।। ( 7/3/39) पावीरवी वाग् सरस्वती है।
3- जिह्वा सरस्वती।। (शतपथ 12/9/1/14) जिह्ना को सरस्वती कहते हैं।
4- सरस्वती हि गौः।। वृषा पूषा। (2/5/1/11) गौ सरस्वती है अर्थात् वाणी, रश्मि, पृथिवी, इन्द्रिय आदि। अमावस्या सरस्वती है। स्त्री, आदित्य आदि का नाम सरस्वती है।
5- अथ यत् अक्ष्योः कृष्णं तत् सारस्वतम्।। (12/9/1/12) आंखों का काला अंश सरस्वती का रूप है।
6- अथ यत् स्फूर्जयन् वाचमिव वदन् दहति। ऐतरेय 3/4, अग्नि जब जलता हुआ आवाज करता है, वह अग्नि का सारस्वत रूप है।
7- सरस्वती पुष्टिः, पुष्टिपत्नी। (तै0 2/5/7/4) सरस्वती पुष्टि है और पुष्टि को बढ़ाने वाली है। 
8-एषां वै अपां पृष्ठं यत् सरस्वती। (तै0 1/7/5/5) जल का पृष्ठ सरस्वती है।
9-ऋक्सामे वै सारस्वतौ उत्सौ। ऋक् और साम सरस्वती के स्रोत हैं।
10-सरस्वतीति तद् द्वितीयं वज्ररूपम्। (कौ0 12/2) सरस्वती वज्र का दूसरा रूप है।

ऋग्वेद के 6/61 का देवता सरस्वती है। स्वामी दयानन्द ने यहाँ सरस्वती के अर्थ विदुषी, वेगवती नदी, विद्यायुक्त स्त्री, विज्ञानयुक्त वाणी, विज्ञानयुक्ता भार्या आदि किये हैं।

सात बहनेंः-

इसी सूक्त के मंत्र 9 में ‘विश्वा स्वसृ’, मंत्र 10 में ‘सप्त स्वसृ’ मंत्र 12 में ‘सप्त धातुः’ पाठ हैं। वेदार्थ प्रक्रिया से अनभिज्ञ भक्तों ने पहले तो सरस्वती का अर्थ कोई विशेष नदी समझा, फिर उसकी सात बहनों का वर्णन भी वेद में दिखा दिया। जबकि यहाँ गंगा आदि अन्य नदियों का नाम भी नहीं है। सायणाचार्य भी अनेक स्थानों पर सात बहनों में गंगा आदि की कल्पना करते हैं लेकिन 12 मंत्र में वे भी स्वीकार करते हैं - ‘सप्त धातवो अवयवाः गायत्र्याद्याः यस्याः।’ जिसके गायत्री आदि सात अवयव हैं। 10 वे मंत्र में भी ‘सप्त स्वसा गायत्र्यादीनि सप्त छंदांसि स्वसारो यस्यास्तादृशी।’ यहाँ भी सात छंदों वाली वेद वाणी का ही ग्रहण है। 11 वें मंत्र में उसको पृथिवी और अंतरिक्ष को सर्वत्र अपने तेज से पूर्ण करने वाली कहा गया है। स्पष्ट है कि यह आदिबद्री से बहने वाली नदी का वर्णन नहीं है।
नहुष को घी दूध दिया?

सरस्वती शब्द को एक विशेष नदी मानकर भाष्यकार किस प्रकार भ्रम में पड़े हैं, जैसे एक झूठ को सिद्ध करने के लिए हजार झूठ बोले जा रहे हों, इसका एक उदाहरण ऋग्वेद के इस मंत्र से समझा जा सकता है- (7/95/2)

एका चेतत् सरस्वती नदीनां शुचिर्यती गिरिभ्यः आ समुद्रात्।
रायश्चेतन्ती भुवनस्य भूरेर्घृतं पयो दुदुहे नाहुषाय।।

सायणाचार्य ने यहाँ सरस्वती को एक विशेष नदी माना और कल्पना के घोड़े पर सवार हो गए। वे इसका अर्थ करते हैं- (नदीनां शुचिः) नदियों में शुद्ध (गिरिभ्यः आसमुद्रात् यती) पर्वतों से समुद्र तक जाती हुई (एका सरस्वती) एक सरस्वती नदी ने (अचेतत्) नाहुष की प्रार्थना जान ली और (भुवनस्य भूरेः रायः चेतन्ती) प्राणियों को बहुत से धर्म सिखाती हुई (नाहुषाय घृतं पयो दुदुहे) नाहुष राजा के एक हजार वर्ष के यज्ञ के लिए पर्याप्त घी दूध दिया।

यहाँ नहुष के अर्थ पर विचार न करने के कारण इस इतिहास की कल्पना करनी पड़ी। निघण्टु के अनुसार मनुष्य के 25 पर्याय हैं उनमें एक नहुष भी है। (नि0 2/3) घृतं, पयः भी वेद विद्या है। (शतपथ ब्राह्मण 11/5/7/5) 

आर्ष वेदार्थ शैली के अनुसार इस मंत्र का अर्थ इस प्रकार है- (श्री पं0 जयदेव शर्मा विद्यालंकार)

(एका नदी शुचिः गिरिभ्यः आसमुद्रात् यती) जैसे एक नदी गिरियों से शुद्ध पवित्र जल वाली समुद्र तक जाती हुई जानी जाती है। उसी प्रकार (सरस्वती एका) एक अद्वितीय सर्वश्रेष्ठ उत्तम ज्ञानवाली प्रभु वाणी (गिरिभ्यः ) ज्ञानोपदेष्टा गुरुओं से (आ समुद्रात्) जनसमूहरूप सागर तक प्राप्त होती हुई जानी जाती है। अर्थात् उससे लोग ज्ञान प्राप्त करें। वह (भुवनस्य भूरे चेतन्ती) संसार और जन्तु जगत् को प्रभूत ऐश्वर्य का ज्ञान कराती हुई (नाहुषाय) मनुष्य मात्र को (घृतं पयः दुदुहे) प्रकाशमय, पान करने योग्य रस के तुल्य ज्ञान रस को बढ़ाती है।

दस नदियाँ

प्रकरणवश एक मंत्र पर और विचार करना उचित होगा, जिसमें गंगा आदि दस नदियों के नाम बताए गए हैं।
इमं मेे ग›े यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या।
असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकीये शृणुह्या सुषोमया।।
(ऋ0 10/75/5)
सायण ने इस मंत्र में इन नामों वाली दस नदियों का वर्णन माना है और उनको कहा गया है कि आप हमारी स्तुतियों को सुनो। सौभाग्य से इस मंत्र पर निरुक्त के निर्वचन उपलब्ध हैं। (निरुक्त 5/26) उदाहरणतः ‘ग›ा गमनात्’ किसी वस्तु की ग›ा संज्ञा उसके गमन करने के कारण से है। जब किसी वस्तु की नदी से उपमा दी गई है तो उसके कुछ गुण तो नदी से मिलते ही हैं। लेकिन वेद का तात्पर्य भौगोलिक स्थितियों का वर्णन करने से नहीं है। ‘नदी’ वह है जो ‘नाद’ करती है। (नदति) ये शरीर की नाडि़याँ हैं। जिनमें से एक के ही गुणों के कारण कई नाम हैं। स्वामी दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में इस पर बहुत सुन्दर प्रकाश डाला है। ग्रंथप्रामाण्याप्रामाण्य विषय में प्रश्न हुआ- गंगा, यमुना, सरस्वती आदि का वर्णन वेदों में भी है, फिर आप उनको तीर्थ के रूप में क्यों नहीं मानते।

             स्वामी दयानन्द लिखते हैं- हम मानते हैं कि उनकी नदी संज्ञा है, परन्तु वे ग›ादि तो नदियाँ हैं। उनसे जल, शुद्धि आदि से जो उपकार होता है उतना मानता हूँ। वे पापनाशक और दुःखों से तारने वाली नहीं हैं, क्योंकि जल, स्थल आदि में वह सामथ्र्य नहीं है।
स्वामी दयानन्द के अनुसार इडा, पि›ला, सुषुम्णा और कूर्मनाड़ी आदि की ग›ा आदि संज्ञा है। योग में धारणा आदि की सिद्धि के लिए और चित्त को स्थिर करने के लिए इनकी उपयोगिता स्वीकार की गई है। इन नामों से परमेश्वर का भी ग्रहण होता है। उसका ध्यान दुःखों का नाशक और मुक्ति को देने वाला होता है। इस मंत्र के प्रकरण में पूर्व से भी ईश्वर की अनुवृत्ति है।

इसी प्रकार ‘सितासिते यत्र संगमे तत्राप्लुतासो दिवमुत्पतन्ति।’ इस परिशिष्ट वचन से भी कुछ लोग ग›ा और यमुना का ग्रहण करते हैं और ‘स›मे’ इस पद से ग›ा-यमुना का स›म प्रयाग तीर्थ यह ग्रहण करते हैं। वेद के अनुसार यह ठीक नहीं है। यहाँ पर दयानन्द एक मौलिक तर्क देते हैं कि ग›ा और यमुना के सं›म अर्थात् प्रयाग में स्नान करके देवलोक को नहीं जाते किन्तु अपने अपने घरों को आते हैंे। इससे स्पष्ट होता है कि वह तीर्थ कोई और ही है जहाँ स्नान करने से देवलोक अर्थात् मोक्ष प्राप्त किया जाता है। 

स्वामी दयानन्द के अनुसार यहाँ भी सित शब्द से इडा का और असित शब्द से पि›ला का ग्रहण है। इन दोनों नाडि़यों का सुषुम्णा में जिस स्थान में मेल होता है, वह स›म है। वहाँ स्नान करके परमयोगी लोग ‘दिवम्’ अर्थात् प्रकाशमय परमेश्वर, मोक्ष नाम सत्य विज्ञान को प्राप्त करते हैं। यहाँ भी इन दोनों नाडि़यों का ही ग्रहण है। यहाँ ऋषि ने निरुक्त का प्रमाण भी दिया है। विस्तार के लिए ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका देखिये।

इस संक्षिप्त विवेचन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि-

1- वेद में सरस्वती नाम अनेक स्थानों पर आया है।
2- वेद में सरस्वती का उल्लेख नदी के रूप में भी आया है।
3- वेद में सरस्वती का उल्लेख धरती के किसी स्थान विशेष पर बहने वाली नदी के रूप में नहीं आया है। न ही वेद में सरस्वती से संबंधित किन्हीं व्यक्तियों का इतिहास है।
4- सरस्वती नदी की ऐतिहासिकता को वेद से प्रमाणित करने का प्रयास वेद का अवमूल्यन करना है।
सरस्वती का इतिहास

अब प्रश्न उठता है कि क्या सरस्वती नदी के पुरातन काल में अस्तित्त्व को प्राचीन संस्कृत साहित्य द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सकता? इसका उत्तर है कि किया जा सकता है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि इस धरती पर सरस्वती नाम की नदी बहती थी। सर्वप्रथम मनुस्मृति का प्रसिद्ध प्रमाण है-

सरस्वतीदृष्द्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्।
तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावत्र्तं प्रचक्षते।।
सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच जो देश है उसको ब्रह्मावत्र्त कहते हैं।

बाल्मीकि रामायण में भरत के ननिहाल से अयोध्या आने के प्रकरण में अन्य नदियों के साथ सरस्वती का उल्लेख है-
सरस्वतीं च ग›ां च उग्मेन प्रतिपद्य च। तथा
सरस्वती पुण्यवहा हृदिनी वनमालिनी।
समुद्रगा महावेगा यमुना यत्र पाण्डवः।। (महाभारत 3/88/2)

कहा जाता है कि महाभारत में सरस्वती नदी का 235 बार उल्लेख है और इसमें इसकी स्थिति को भी प्रदर्शित किया गया है। 3/83 के अनुसार कुरुक्षेत्र सरस्वती के दक्षिण में है और दृषद्वती के उत्तर में है। प्राचीन पुराणों, नवीन पुराणों, भारत, रामायण आदि ग्रंथों में सरस्वती के अनुसंधान करने चाहिएँ,  वेद में नहीं। भारतीय इतिहास ग्रंथों में यह स्पष्ट रूप से नदी है।

स्वतंत्र भारत के परतंत्र इतिहास का एक विलुप्त अध्याय

भारत देश के महान इतिहास में लाखों ऐसे वीर हुए हैं जिन्होंने देश,धर्म और जाति की सेवा में अपने प्राण न्योछावर कर दिए। खेद है कि स्वतंत्र भारत का इतिहास आज भी परतंत्र हैं कि उसमें गौरी और गजनी के आक्रमण के विषय में तो बताया जाता हैं मगर उसका प्रतिरोध करने वाले महान वीरों पर मौन धारण कर लिया जाता हैं। ऐसे ही महान वीरों में देश धर्म की रक्षार्थ बलिदान हुए वीर गोगा बापा एवं उनका परिवार। अरब देश से उठी मुहम्मद गजनी नामक इस्लामीक आंधी एक हाथ में तलवार तो दूसरे हाथ में कुरान लेकर सोने की चिड़िया भारत कि विस्तृत धन-सम्पदा को लूटने के लिए भारत पर चढ़ आई। ईसा की दसवीं सदी तक गांधार और बलूचिस्तान को हड़प कर सिन्ध और पंजाब को पद दलित कर यह आँधी राजपूताने के रेगिस्तान पर घुमड़ने लगी थी। गजनी का सुल्तान महमूद गजनवी भारत के सीमावर्ती छोटे-छोटे राज्यों को लूट कर करोड़ो के हीरे, जवाहरात, सोना चांदी गजनी ले जा चुका था। अब उसकी कुदृष्टि सोमनाथ मंदिर पर पड़ी। उस समय गुजरात के प्रभास पाटण में स्थित सोमनाथ महादेव मन्दिर के ऐष्वर्य और वैभव का डंका भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बज रहा था। सोमनाथ की अकूत धन संपदा को लूटने और भव्य देव मन्दिर को धराशायी  करने के लिए यह विधर्मी आक्रान्ता पंजाब से होते हुए राजपूताने के उत्तर पश्चिमी रेगिस्तान में पहुंचा। 

                                  रेगिस्तान के प्रवेश द्वार पर भटनेर (गोगागढ़) का दुर्ग चौहान वंशीय धर्मवीर गोगा बापा द्वारा बनाया गया था। यहाँ नब्बे वर्षीय वृद्ध वीर गोगा बापा अपने 21 पुत्र 64 पौत्र और 125 प्रपौत्र के साथ धर्म की रक्षा के लिए रात दिन तत्पर और कटिबद्ध रहते थे। महमूद गजनवी ने छल-बल से गोगा बापा को वश में करने के लिए सिपहसालार मसूद को तिलक हज्जाम के साथ भटनेर भेजा। दूत मसूद और तिलक हज्जाम ने गोगा बापा को प्रणाम कर हीरों से भरा थाल रख कर सिर झुका कर अर्ज किया- ‘‘सुल्तान आपकी वीरता और बहादुरी के कायल हैं, इसलिए आपकी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा कर आप से मदद मांग रहे हैं। उनकी दोस्ती का यह नजराना कबूल कर आप उन्हें सही सलामत गुजरात के मंदिर तक जाने का रास्ता दे।

यह सुनते ही गोगा बापा की बिजली की कड़क तलवार म्यान से निकली और अपने आसन से उठते नब्बे वर्षीय वृद्धवीर बोले – ‘‘ तो तुम्हारा अमीर इन पत्थर के टुकडों से मुझे खरीदकर मंदिर तोड़ने के लिए मार्ग मांगता है। जा कह दे उस लुटेरे से कि जब तक गोगा बापा की काया में रक्त की एक बूँद भी बाकी है तब तक उसकी फौज तो क्या परिंदा भी पर नहीं मार सकता।" इसके साथ ही उन्हौंने हीरों से भरे थाल को ठोकर मार कर फेंक दिया। मसूद और तिलक हज्जाम ने जान बचाकर भागने में ही भलाई समझी।

बात बनती न देख सुल्तान ने समंदर सी सेना को कूच करने का आदेश दिया। बवंडर की तरह उमड़ती फौज में एक लाख पैदल, और तीस हजार घुडसवार थे। हजारों लोग सेवक के रूप में साथ थे तो रेगिस्तान में पानी की कमी को देखते हुए तीस हजार ऊँट-ऊँटनियों पर पानी भरकर रखा गया था। इधर आठ सौ वीर राजपूत और तीन सौ अन्य लोग ऊँट के मुँह में जीरे के बराबर थे। इसके बावजूद गोगा बापा के अद्भुत साहस और बलिदानी तेवरों को देखते हुए सुल्तान ने उन्हे बहलाने-फुसलाने को दो बार दूत भेजा पर गोगा बापा टस से मस नहीं हुए। अंत में हार मान कर सुल्तान ने बिना युद्ध किये ही बगल से खिसकने में ही भलाई समझी।

सुलतान को बिना भिड़े ही भागता देख गोगा बापा भड़क उठे। एक भी राजपूत के जीवित रहते देश का दुश्मन अंदर आ जाये तो उसके जीवन को धिक्कार है। वीरों दुर्ग के द्वार खोलकर दुश्मन पर टूट पडो। किसी ने कहा "बापा शत्रु असंख्य है हम तो गिने चुने ही हैं।" गोगा बापा गरज उठे – "देश धर्म की रक्षा का दायित्व संख्या के हिसाब से तय होगा क्या? गोगा बापा धर्म के लिए जिया है धर्म के लिए ही मरेगा।"

केसरिया बाना सजाकर हर-हर महादेव का घोष करते राजपूत वीर यवन सैन्य पर वज्र की तरह टूट पड़े। एक-एक राजपूत वीर दस-दस दुश्मनों को यमलोक भेजकर वीरगति को प्राप्त हुआ। गोपा बापा बन्धु बांधवों सहित देश धर्म की बलिवेदी पर बलिदान हो गए। बच गए तो बापा के मात्र एक पुत्र सज्जन और एक पौत्र सामन्त जिन्हें बापा ने सुल्तान के आक्रमण की पूर्व सूचना के लिए गुजरात भेजा था। धर्म रक्षा के लिए गढ़ के वीरों के बलिदान होते ही दुर्ग पर वीर राजपूत वीरांगनाऐं सुहागिन वेष सजाकर और मंगल गान करते हुए जलती चिता पर चढ़कर बलिदान हो गई।

सामंत सिंह और सज्जन सिंह रास्ता बताने वाले दूत बनकर गजनी की सेना में शामिल हो गए। उन्होंने मुसलमानी सेना को ऐसा घुमाया कि राजस्थान की तपती रेत, गर्मी,पानी की कमी के चलते, रात में सांपों के काटने से गजनी के हज़ारों सैनिक और पशु काल के ग्रास बन गए। ये दोनों वीर राजपूत युवक भी मरुभूमि में वीरगति को प्राप्त हो गए मगर तब तक गजनी की आधी सेना यमलोक पहुंच चुकी थी। 

धर्म रक्षक गोगा बापा का बंधु-बांधवों सहित वह बलिदान और सतीत्व की रक्षा के लिए सतियों का वह जौहर ‘यावच्चन्द्र दिवाकरौ‘ (जब तक सूरज चाँद रहेगा) इतिहास में अमर हो गया। अनेक शताब्दियाँ बीतने पर भी गोगा बापा की कीर्ति पताका गगन में उनकी यषोगाथा गा रही है। धन्य है गोगा वीर चैहान, धन्य है धर्मवीर गोगा बापा का बलिदान।

Thursday, October 1, 2015

संस्कृत सीखने वाले सभी मित्र के लिए उत्तम लिंक.......

ॐ ...... संस्कृत सीखने वाले सभी मित्र के लिए 

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उत्तम लिंक ....... 
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अद्भुत ....... तरीके से समझाया है ........ बहुत ही सरल विधि से ..... 
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अपने बच्चों को अवश्य सिखाये ......