Sunday, August 28, 2022

ब्रिटेन में एक कानून था।

ब्रिटेन में एक कानून था लिव इन रिलेशनशिप* बिना किसी वैवाहिक संबंध के एक लड़का और एक लड़की का साथ में रहना। जब साथ में रहते थे तो शारीरिक संबंध भी बन जाते थे, तो इस प्रक्रिया के अनुसार संतान भी पैदा हो जाती थी तो उन संतानों को किसी चर्च में छोड़ दिया जाता था।

अब ब्रिटेन की सरकार के सामने यह गम्भीर समस्या हुई कि इन बच्चों का क्या किया जाए तब वहाँ की सरकार ने काँन्वेंट खोले अर्थात् जो बच्चे अनाथ होने के साथ-साथ नाजायज हैं उनके लिए काँन्वेंट बने।
उन अनाथ और नाजायज बच्चों को रिश्तों का एहसास कराने के लिए उन्होंने अनाथालयों  में एक फादर एक मदर एक सिस्टर की नियुक्ति कर दी क्योंकि ना तो उन बच्चों का कोई जायज बाप है ना ही माँ है। तो काँन्वेन्ट बना नाजायज बच्चों के लिए जायज। 

इंग्लैंड में पहला काँन्वेंट स्कूल सन्  1609 के आसपास एक चर्च में खोला गया था जिसके ऐतिहासिक तथ्य भी मौजूद हैं और भारत में पहला  काँन्वेंट स्कूल कलकत्ता में सन् 1842 में खोला गया था। परंतु तब हम गुलाम थे और आज तो लाखों की संख्या में काँन्वेंट स्कूल चल रहे हैं।
जब कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया, उस समय इसे ‘फ्री स्कूल’ कहा जाता था,
मैकाले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी बहुत मशहूर चिट्ठी है।उसमें वो लिखता है कि:

“इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे। इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा। इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा। इनको अपनी परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा।इनको अपने मुहावरे नहीं मालुम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी।” उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है
साभार.

Wednesday, August 24, 2022

इतिहास के पन्नों में कहाँ हैं ये नाम??

सेठ रामदास जी गुड़वाले - 
1857 के महान क्रांतिकारी, दानवीर जिन्हें फांसी पर चढ़ाने से पहले अंग्रेजों ने उन पर शिकारी कुत्ते छोड़े जिन्होंने जीवित ही उनके शरीर को नोच खाया । सेठ रामदास जी गुडवाला दिल्ली के अरबपति सेठ और बेंकर थे. और अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के गहरे दोस्त थे. इनका जन्म दिल्ली में एक अग्रवाल परिवार में हुआ था. इनके परिवार ने दिल्ली में पहली कपड़े की मिल की स्थापना की थी. 
उनकी अमीरी की एक कहावत थी “रामदास जी गुड़वाले के पास इतना सोना चांदी जवाहरात है की उनकी दीवारो से वो गंगा जी का पानी भी रोक सकते है”

जब 1857 में मेरठ से आरम्भ होकर क्रांति की चिंगारी जब दिल्ली पहुँची तो मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को 1857 की सैनिक क्रांति का नायक घोषित कर दिया गया । दिल्ली से अंग्रेजों की हार के बाद अनेक रियासतों की भारतीय सेनाओं ने दिल्ली में डेरा डाल दिया। उनके भोजन और वेतन की समस्या पैदा हो गई । बादशाह का खजाना खाली था । एक दिन उन्होंने अपनी रानियों के गहने मंत्रियों के सामने रख दिये। रामजीदास गुड़वाले बादशाह के गहरे मित्र थे । रामदास जी को बादशाह की यह अवस्था देखी नहीं गई। उन्होंने अपनी करोड़ों की सम्पत्ति बादशाह के हवाले कर दी और कह दिया 

"मातृभूमि की रक्षा होगी तो धन फिर कमा लिया जायेगा "

रामजीदास ने केवल धन ही नहीं दिया, सैनिकों को सत्तू, आटा, अनाज बैलों, ऊँटों व घोड़ों के लिए चारे की व्यवस्था तक की।

सेठ जी जिन्होंने अभी तक केवल व्यापार ही किया था, सेना व खुफिया विभाग के संगठन का कार्य भी प्रारंभ कर दिया उनकी संगठन की शक्ति को देखकर अंग्रेज़ सेनापति भी हैरान हो गए ।
सारे उत्तर भारत में उन्होंने जासूसों का जाल बिछा दिया, अनेक सैनिक छावनियों से गुप्त संपर्क किया उन्होंने भीतर ही भीतर एक शक्तिशाली सेना व गुप्तचर संगठन का निर्माण किया। देश के कोने कोने में गुप्तचर भेजे व छोटे से छोटे मनसबदार और राजाओं से प्रार्थना की इस संकट काल में बहादुर शाह जफर की मदद कर देश को स्वतंत्र करवाएं।

रामदास जी की इस प्रकार की क्रांतिकारी गतिविधियों से 
अंग्रेज़ शासन व अधिकारी बहुत परेशान होने लगे। 

कुछ कारणों से दिल्ली पर अंग्रेजों का पुनः कब्जा होने लगा । एक दिन उन्होंने चाँदनी चौक की दुकानों के आगे जगह-जगह जहर मिश्रित शराब की बोतलों की पेटियाँ रखवा दीं, अंग्रेज सेना उनसे प्यास बुझाती और वही लेट जाती । अंग्रेजों को समझ आ गया की भारत पे शासन करना है तो रामदास जी का अंत बहुत ज़रूरी है 

सेठ रामदास जी गुड़वाले को धोखे से पकड़ा गया और जिस तरह से मारा गया वो क्रूरता की मिसाल है।

पहले उन्हें रस्सियों से खम्बे में बाँधा गया फिर उन पर  शिकारी कुत्ते छुड़वाए गए उसके बाद उन्हें उसी अधमरी अवस्था में दिल्ली के चांदनी चौक की कोतवाली के सामने फांसी पर लटका दिया गया। 

सुप्रसिद्ध इतिहासकार ताराचंद ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट' में लिखा है - 

"सेठ रामदास गुड़वाला उत्तर भारत के सबसे धनी सेठ थे।अंग्रेजों के विचार से उनके पास असंख्य मोती, हीरे व जवाहरात व अकूत संपत्ति थी। 
वह मुग़ल बादशाहों से भी अधिक धनी थे। यूरोप के बाजारों में भी उसकी अमीरी की चर्चा होती थी"

लेकिन भारत के इतिहास में उनका जो नाम है वो उनकी अतुलनीय संपत्ति की वजह से नहीं बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व न्योछावर करने की वजह से है। 

जिसे आज बहुत ही कम लोग जानते!

Tuesday, August 23, 2022

गाय मांस प्रोटीन का अच्छा स्रोत।

हिन्दुस्तान में बहुत से लोग गाय मांस को प्रोटीन का अच्छा स्रोत कह रहे हैं, उनके लिये ये जवाब है।

एक बहुत ही ताकतवर सम्राट थे, उनकी बेटी इतनी सुंदर थी, कि देवता भी सोचते थे कि यदि इससे विवाह हो जाये तो उनका जीवन धन्य हो जाये। इस कन्या की सुंदरता की चर्चा सारी त्रिलोकी में थी। सम्राट इस बात को जानते थे। एक पूरी रात वो अपने कमरे में घूमते रहे। सुबह जब महारानी जागी तो देखा सम्राट अपने कमरे में घुम रहे हैं। महारानी ने पूछा लगता है, आप पूरी रात सोये नहीं हैं, कोई कष्ट है क्या? उन्होंने कहा कि अपनी बेटी को लेकर चिंता है, लेकिन निर्णय मैंने कर लिया। समरथ को नहीं कोई दोष गुसाईं। महारानी ने पूछा क्या? उन्होंने कहा कि मैं अपनी बेटी से खुद विवाह करूंगा। समर्थ पुरुष को तो कोई दोष लगता ही नहीं। महारानी ने बहुत समझाया, लेकिन जिसकी समझ पर पत्थर पड़ जाये तो क्या किया जाये।

सम्राट राज सभा गये, वहां उन्होंने ऐलान कर दिया मैं इस धरती का समर्थ पुरुष हूं, अपनी बेटी से स्वयं ही विवाह करूंगा। समरथ को नहीं दोष गुसाईं। किसी में विरोध की ताकत नहीं थी। मुहुर्त निकाला गया।

महारानी चुपचाप से एक महात्मा से मिलने के लिये गई, सारी बात रो रो कर बताई। महात्मा ने कहा कि विवाह से एक दिन पहले मैं आपके यहां भोजन करने आऊंगा। नियत समय पर महात्मा पहुंचे। उन्होंने तीन थालियां लगवाईं। सम्राट को राज सभा से भोजन के लिये बुलाया गया। सम्राट ने कहा कल मेरा विवाह है, आज महात्मा भोजन के लिये पधारे हैं सब शुभ ही शुभ है।

सम्राट भोजन के लिये आये, महात्मा को प्रणाम किया। महात्मा ने कहा राजन मेरे कई जन्म गुजर गये समर्थ पुरुष की तलाश में, सुना है आप समर्थ पुरुष हैं। आपके साथ भोजन करके मैं धन्य हो जाऊंगा। महात्मा ने थाली लगवाई, एक थाली में ५६ भोग दूसरी में विष्टा (Toilet) था। महात्मा ने दूसरी थाली सम्राट के सामने लगाकर कहा भोजन करिये। सम्राट बहुत क्रोधित हुए। महात्मा ने कहा आप तो समर्थ पुरुष हैं, आप को कोई दोष नहीं लगेगा। और मेरी भी आज कई जन्म की तपस्या पूरी हो जायेगी।

सम्राट ने हताश होकर कहा मुझसे नहीं होगा। महात्मा ने योग बल से सुअर का वेष धारण किया और विष्टा सेवन कर लिया। और पुन: अपने वेष में आ गये। सम्राट वहीं घुटने के बल बैठ गये।

लोगों को अपनी परिभाषायें ठीक करनी चाहिए। गाय मे भी प्रोटीन है, पेड़, मनुष्य सभी जीव में प्रोटीन हैं। लेकिन सब खाये नहीं जाते हैं। माता, बहन और पत्नी तीनों ही तो स्त्रियां हैं, फिर तीनों के प्रति नजरिया अलग क्यों होता है। ध्यान रहे हिन्दुओं में कुछ भी अवैज्ञानिक नहीं है। हिन्दू एक मात्र ऐसा है धरती पर जिसने मन खोजा, आत्मा परमात्मा भी खोजा। अदृश्य को शाश्वत बनाने का दम सिर्फ हिन्दुओं में ही है। इसलिये हिन्दू जब गाय को माता कहता है तो उसके ठोस और वैज्ञानिक कारण हैं।

साई चाँद मिया के कुछ चमत्कारिक कार्य उसके पुस्तक साई सत्चरित्र से।

@ अध्याय 4, 5, 7 - साईं बाबा के होंठो पर सदैव "अल्लाह मालिक" रहता था,

@ साईं मस्जिद मैं रहता था अध्याय- 1, 3, 4, 7, 8, 9, 11, 13

@ साईं बकरे हलाल करता था ... अध्याय- 5, 11, 14, 23, 28, 50

@ अध्याय 5 - साईं बाबा ने दियो में थूक कर दिए जलाए,

@ अध्याय 7 - साईं बाबा फकीरों के साथ आमिष और मछली का भी सेवन कर लेते थे,

@अध्याय 11 - साईं बाबा ने पूछा की हाजी से पूछो की उसे बकरे का गोश्त पसंद है या नाध या अंडकोष

@ अध्याय 11, 28 - साईं बाबा खाने के समय फातिहा कुरान पढ़ते थे

@ अध्याय 5, 14, 50 - साईं बाबा बीडी चिलम पीते थे और अपने भक्तो को भी पीने के लिए देते थे, जिस कारण उन्हें दमा था,

@ अध्याय 18, 19 - इस मस्जिद में बैठ कर मैं सत्य ही बोलुगा की किन्ही साधनाओ या शास्त्रों के अध्ययन की आवश्यकता नहीं है,

@ अध्याय 10- न्याय या दर्शन शास्त्र या मीमांसा पढने की आवश्यकता नहीं है,

@ अध्याय 23 - प्राणायाम, श्वासोंचछवासम हठयोग या अन्य कठिन साधनाओ की आवश्यकता नहीं है,

@ अध्याय 28 - चावडी का जुलुस देखने के दिन साईं बाबा कफ से अधिक पीड़ित थे,

@अध्याय 43, 44 - 1886 मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन साईं बाबा को दमा से अधिक पीड़ा हुई,

@ अध्याय 43, 44 - साईं बाबा ने खुद को पास वाले मंदिर में इस्लामिक रीती रिवाज से पूजने की बात कही थी, जिसके बाद मंदिर में ही गड्ढा खोद कर उन्हें वहां दफना दिया गया था,

@ एक एकादशी के दिन उन्होने केलकर को कुछ रूपये देकर कुछ मास खरीद कर लाने को कहा (अध्याय38)

@ एसे ही एक अवसर पर उन्होने दादा से कहा,देखो तो नमकीन बिरयानी पुलाव कैसा पका है?दादा ने यो ही कह दिया कि अच्छा है।तव वे कहने लगे तुमने न अपनी आखो देखा न जीव से स्वाद लिया,फिर तुमने कैसे कह दिया अच्छा बना है?

@ अध्याय 38 - मस्जिद से बर्तन मंगवाकर वे "मौलवी से फातिहा" पढने के लिए कहते थे,

मित्रो, आज तक मैंने जितने भी साईं मंदिर देखे है उन सभी में साईं की मुर्तिया बहुत ही सुन्दर और मनमोहक होती है,

असल में एक पूरी योजना के साथ झूठ का प्रचार करके साईं को मंदिरों में बिठाने का षड्यंत्र 1992 में श्री रामजन्मभूमि के बाद शुरू हुआ, जिसका उद्देश्य था राम के नाम पर उग्र हो चुके हिन्दुओ के जोश को ठंडा करके एक ऐसा विकल्प देना जिसके पीछे भाग कर हिन्दू राम को भूल जाए,

आज जितने देश में राम मंदिर है उतने ही साईं के मस्जिद रूपी मंदिर बन चुके है, हर राम मंदिर में राम जी के साथ साईं नाम का अधर्म बैठा हुआ है,

अधिकतर साईं के मंदिर 1998 के बाद ही बने है तब इस्लामिक संगठनो द्वारा साईं के प्रचार के लिए बहुत अधिक धन लगाया गया,

साईं के सुन्दर सुन्दर भजन, गाने, मूर्तियाँ, झूठी कहानियां बनाई गयी, कुछ कहानियां साईं सत्चरित्र से मेल खाती है जैसे की दिवाली पर दिए जलाने की घटना जो असल में साईं ने दियो में थूक कर जलाये थे,

ऐसी ही बहुत सी घटनाओं को तोड़ मरोड़ कर पेश किया और हिन्दुओ में सेकुलरिज्म का बीज साईं के रूप में अंकुरित किया गया,

यदि किसी को ये झूठ लगे तो स्वयं ही वो शोध कर ले
पर साईं को सनातन धर्म में बिठाने वालो ने साईं का भगवाकरण किया और मुर्ख हिन्दुओ ने उसमें पैसे कमाने के लिए मार्केटिंग की,

आज भी साईं के मुर्ख भक्त ये नहीं सोचते की साईं की असली कट्टर मुस्लिम छवि वाली बदसूरत मूर्ति की जगह उसकी सुन्दर मूर्तियाँ बनाने का क्या प्रायोजन था?

जिस दिन साईं के भक्त ये समझ जायेंगे उस दिन उनका सनातन धर्म में वापिस शुद्धिकरण हो जाएगा

Tuesday, August 16, 2022

आप भी इन प्रश्नों पर गौर करना कि।

मैं बहुत सोचता हूं पर #उत्तर नहीं मिलता,

१. जिस #सम्राट के नाम के साथ संसार भर के इतिहासकार “महान” शब्द लगाते हैं...

२. जिस सम्राट का राज चिन्ह अशोक #चक्र भारत देश अपने झंडे में लगता है.....

३.जिस सम्राट का राज चिन्ह चारमुखी शेर को भारत देश राष्ट्रीय प्रतीक मानकर सरकार चलाती है और #सत्यमेव जयते को अपनाया गया।

४. जिस देश में #सेना का सबसे बड़ा युद्ध सम्मान सम्राट अशोक के नाम पर #अशोक चक्र दिया जाता है ...

५. जिस सम्राट से पहले या बाद में कभी कोई ऐसा राजा या सम्राट नहीं हुआ, जिसने #अखंड भारत (आज का नेपाल, बांग्लादेश, पूरा भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान) जितने बड़े भूभाग पर एक छत्री #राज किया हो ...

६. जिस सम्राट के शासन काल को विश्व के बुद्धिजीवी और इतिहासकार भारतीय इतिहासका सबसे #स्वर्णिम काल मानते हैं ...

७. जिस सम्राट के शासन काल में भारत #विश्व गुरु था, सोने की चिड़िया था, जनता खुशहाल और भेदभाव रहित थी ... 

८. जिस सम्राट के शासन काल #जी टी रोड जैसे कई हाईवे रोड बने, पूरे रोड पर पेड़ लगाये गए, सराये बनायीं गईं इंसान तो इंसान जानवरों के लिए भी प्रथम बार हॉस्पिटल खोले गए, जानवरों को मारना बंद कर दिया गया ...

ऐसे महान सम्राट #अशोक कि #जयंती उनके अपने देश भारत में #क्यों नहीं मनायी जाती, न कि कोई #छुट्टी घोषित कि गई है अफ़सोस जिन लोगों को ये जयंती मनानी चाहिए, वो लोग अपना #इतिहास ही नहीं जानते और जो जानते हैं.. वो मानना नहीं #चाहते ।

1. जो जीता वही चंद्रगुप्त ना होकर जो जीता वही सिकन्दर “कैसे” हो गया… ? (जबकि ये बात सभी जानते हैं कि…
सिकंदर की सेना ने चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रभाव को देखते हुये ही लड़ने से मना कर दिया था.. बहुत ही बुरी तरह मनोबल टूट गया था… जिस कारण , सिकंदर ने मित्रता के तौर पर अपने सेनापति सेल्युकश कि बेटी की शादी चन्द्रगुप्त से की थी)

2. #महाराणा प्रताप ”महान”
ना होकर ... अकबर ”महान” कैसे हो गया…? जबकि, अकबर अपने हरम में हजारों लड़कियों को रखैल के तौर पर रखता था ... यहाँ तक कि उसने अपनी बेटियो और बहनोँ की शादी तक पर प्रतिबँध लगा दिया था जबकि.. महाराणा प्रताप ने अकेले दम पर उस अकबर के #लाखों की सेना को घुटनों पर ला दिया था) 

3. #सवाई जय सिंह को “महान वास्तुप्रिय” राजा ना कहकर शाहजहाँ को यह उपाधि किस आधार मिली.. ? जबकि… साक्ष्य बताते हैं कि…. जयपुर के #हवा महल से लेकर तेजोमहालय {ताजमहल} तक …. महाराजा जय सिंह ने ही बनवाया था.!

4. जो स्थान महान #मराठा क्षत्रिय वीर शिवाजी को मिलना चाहिये वो … क्रूर और आतंकी औरंगजेब को क्यों और कैसे मिल गया ..? 

5. #स्वामी विवेकानंद और आचार्य
चाणक्य की जगह… गांधी को महात्मा बोलकर … हिंदुस्तान पर क्यों #थोप दिया गया…? 

6. तेजोमहालय- ताजमहल  ..लालकोट- लाल किला .. फतेहपुर सीकरी का देव महल- बुलन्द दरवाजा ... एवं सुप्रसिद्ध गणितज्ञ वराह मिहिर की मिहिरावली(महरौली) स्थित वेधशाला- कुतुबमीनार .. क्यों और #कैसे हो गया ...?

7. यहाँ तक कि….. राष्ट्रीय गान भी… संस्कृत के #वन्दे मातरम की जगह गुलामी का #प्रतीक जन-गण-मन हो गया है कैसे और क्यों हो गया ..?

8. और तो और…. हमारे आराध्य भगवान् राम.. कृष्ण तो इतिहास से कहाँ और कब गायब हो गये पता ही नहीं चला … #आखिर कैसे ? 

9. यहाँ तक कि…. हमारे आराध्य भगवान राम की जन्मभूमि पावन अयोध्या … भी कब और कैसे #विवादित बना दी गयी… हमें पता तक नहीं चला…
कहने का मतलब ये है कि… हमारे दुश्मन सिर्फ….बाबर, गजनवी, लंगड़ा तैमूरलंग ...ही नहीं हैं … बल्कि आज के सफेदपोश #सेक्यूलर भी हमारे उतने ही बड़े #दूश्मन हैं…. जिन्होंने हम हिन्दुओं के अन्दर हीन भाबना का उदय कर सेकुलरता का बीज #उत्पन्न किया ..🙄🙄🤔🤔

Monday, August 15, 2022

अंग्रेजी में एक शब्द है "एक्सपेंसिव-पावर्टी".

इसका मतलब होता है.... "महंगी- गरीबी" अर्थात...
गरीब दिखने के लिए आपको बहुत खर्चा करना पड़ता है। गांधीजी की गरीबी ऐसी ही थी।

एक बार सरोजनी नायडू ने उनको मज़ाक में कहा भी था कि “आप को गरीब रखना हमें बहुत महंगा पड़ता है !!”

ऐसा क्यों ?......

गांधी जी जब भी तीसरे दर्जे में रेल सफर करते थे तो वह सामान्य तीसरा दर्जा नहीं होता था। 

अंग्रेज नहीं चाहते थे की गांधी जी की खराब हालातों में, भीड़ में यात्रा करती हुई तस्वीरें अखबारों में छपे उनको पीड़ित (विक्टिम) कार्ड का लाभ मिले। 

इसलिए जब भी वह रेल यात्रा करते थे तो उनको विशेष ट्रेन दी जाती थी जिसमें कुल 3 डिब्बे होते थे.....
जो केवल गांधी जी और उनके साथियों के लिए होते थे, क्योंकि हर स्टेशन पर लोग उनसे मिलने आते थे।

इस सब का खर्चा बाद में गांधीजी के ट्रस्ट की ओर से अंग्रेज सरकार को दे दिया जाता था।

इसीलिए एक बार मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था की .....
“जितने पैसो में मैं प्रथम श्रेणी यात्रा करता हूँ उस से कई गुना में गांधीजी तृतीय श्रेणी की यात्रा करते हैं।”

गांधीजी ने प्रण लिया था कि वे केवल बकरी का दूध पिएंगे। बकरी का दूध आज भी महंगा मिलता है, तब भी महंगा ही था... अपने आश्रम में तो बकरी पाल सकते थे, पर गांधी जी तो बहुत घूमते थे।ज़रूरी नही की हर जगह बकरी का दूध आसानी से मिलता ही हो। इस बात का वर्णन स्वयं गांधीजी की पुस्तकों में है, कैसे लंदन में बकरी का दूध ढूंढा जाता था, महंगे दामों में खरीदा जाता था क्योंकि गांधी जी गरीब थे, वो सिर्फ बकरी का दूध ही पीते थे...

ये बात अलग है कि खुशवंत सिंह ने अपनी किताब में लिखा है कि...

गांधी जी ने दूध के लिए जो बकरियां पाली थी, उनको नित्य साबुन से नहलाया जाता था, उनको प्रोटीन खिलाया जाता था। उनपर 20 रुपये प्रतिदिन का खर्च होता था।

90 साल पहले 20 रुपये मतलब आज हज़ारों रुपये...

बाकी खर्च का तो ऐसा है कि गांधीजी अपने साथ एक दानपात्र रखते थे जिसमें वह सभी से कुछ न कुछ धनराशि डालने का अनुरोध करते थे। 

इसके अलावा कई उद्योगपति उनके मित्र उनको चंदा देते थे। 

उनका एक न्यास (ट्रस्ट) था जो गांधी के नाम पर चंदा एकत्र करता था।

उनके 75 वें जन्मदिन पर 75 लाख रुपए का चंदा जमा करने का लक्ष्य था, पर एक करोड़ से ज्यादा जमा हुए।

सोने के भाव के हिसाब से तुलना करें तो आज के 650 करोड़ रुपये हुए।

गांधी उतने गरीब भी नहीं थे, जितना हमको घुट्टी पिला पिलाकर रटाया गया है।

मनुष्य जाति के अस्तित्व का आधार है- राष्ट्र

वैदिक संस्कृति राष्ट्र-रक्षा को मनुष्य जाति के अस्तित्व का आधार घोषित करती है। हमारे पवित्र ग्रन्थ वेद में राष्ट्र की रक्षा के प्रति आदर्श कर्तव्यों की उद्घोषणा इस प्रकार से की गई है-
• मा व स्तेनऽईशत। -यजु० १/१
भ्रष्ट व चोर लोग हम पर शासन न करें।
• वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम। -अथर्व० १२/१/६२
हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों।
• यतेमहि स्वराज्ये। -ऋ० ५/६६/६
हम स्वराज्य के लिए सदा यत्न करें।
• धन्वना सर्वाः प्रदिशो जयेम। - यजु० २९/३९
हम धनुष अर्थात् युद्ध-सामग्री से सब दिशाओं पर विजय प्राप्त करें।
• सासह्याम पृतन्यतः। - ऋ० १/८/४
हमला करने वाले शत्रु को हम पीछे हटा देवें।
• माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः। -अथर्व० १२/१/१२
भूमि मेरी माता है और मैं उस मातृभूमि का पुत्र हूं।
• उप सर्प मातरं भूमिमेताम्। -ऋ० १०/१८/१०
हे मनुष्य! तू इस मातृभूमि की सेवा कर।
• नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्या। -यजुर्वेद ९/२२
मातृभूमि को हमारा नमस्कार हो! हमारा बार-बार नमस्कार हो।
अथर्ववेद के १२वें काण्ड के पहले सूक्त में मनुष्य समाज को राष्ट्र के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरणा दी गई है, जो मनुष्य के राष्ट्रीय कर्तव्यों का द्योतक है। देखिए-
• ये ग्रामा यदरण्यं या: सभा अधि भूम्याम्।
ये संग्रामा: समितयस्तेषु चारु वदेम ते।। -अथर्व० १२/१/५६
अर्थात् हे मातृभूमि! जो तेरे ग्राम हैं, जो जंगल हैं, जो सभा-समिति (कॉउंसिल, पार्लियामेन्ट आदि) अथवा संग्राम-स्थल हैं, हम उनमें से किसी भी स्थान पर क्यों न हो सदा तेरे विषय में उत्तम ही विचार तथा भाषण आदि करें। तेरे हित का विचार हमारे मन में सदा बना रहे।
• उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं सन्तु पृथिवि प्रसूता:।
दीर्घं न आयु: प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्यं बलिहृत: स्याम।। -अथर्व० १२/१/६२
अर्थात् हे मातृभूमि! हम सर्व रोगरहित और स्वस्थ होकर तेरी सेवा में सदा उपस्थित रहें। तेरे अन्दर उत्पन्न और तैयार किए हुए स्वदेशी पदार्थ ही हमारे उपयोग में सदा आते रहें। हमारी आयु दीर्घ हो। हम ज्ञान-सम्पन्न होकर, आवश्यकता पड़ने पर तेरे लिए प्राणों तक की बलि को लाने वाले हों।
कितना मार्मिक उपदेश है! इससे उत्तम राष्ट्रीय धर्म का उपदेश क्या हो सकता है! राष्ट्र के ऐश्वर्य को खूब बढ़ाने का यत्न करना चाहिए, इस बात का उपदेश वेदों में मिलता है।
वेदों में जहां ईश्वर से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक कल्याण के लिए प्रार्थना की जाती है, वहां प्रत्येक देशभक्त को यह भी प्रार्थना प्रतिदिन करनी चाहिए और इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए कि-
• स नो रास्व राष्ट्रमिन्द्रजूतं तस्य ते रातौ यशस: स्याम। -अथर्व० ६/३९/२
हे ईश्वर! आप हमें परम ऐश्वर्य सम्पन्न राष्ट्र को प्रदान करें। हम आपके शुभ-दान में सदा यशस्वी होकर रहें।
राष्ट्रोन्नति किन गुणों के धारण करने से हो सकती है, इस बात को वेद निम्नलिखित शब्दों में प्रकट करते हैं-
• सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञ: पृथिवीं धारयन्ति। -अथर्व० १२/१/१
अर्थात् सत्य, विस्तृत अथवा विशाल ज्ञान, क्षात्र-बल, ब्रह्मचर्य आदि व्रत, सुख-दु:ख, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को सहन करना, धन और अन्न, स्वार्थ-त्याग, सेवा और परोपकार की भावना ये गुण हैं जो पृथ्वी को धारण करने वाले हैं। इन सब भावनाओं को एक शब्द 'धर्म' के द्वारा धारित की जाती है।
आइए, वेद में निर्दिष्ट राष्ट्रहित आज्ञाओं का पालन कर राष्ट्रसेवा रूपी यज्ञ में आहुति दें और इस देश को स्वर्ग-तुल्य बनावें। इसी सन्देश के साथ आप सभी को ७५वें स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!
#स्वतंत्रता_दिवस #IndependenceDay #IndependenceDayIndia #IndependenceDay2021 #आत्मनिर्भर_भारत #जय_हिंद #भारत_माता_की_जय

Friday, August 12, 2022

महात्मा गांधी का एक कारनामा।

हुतात्मा महाशय राजपाल की बलिदान-गाथा एवं रंगीला रसूल

सन १९२३ में मुसलमानों की ओर से दो पुस्तकें "१९ वीं सदी का महर्षि" और “कृष्ण,तेरी गीता जलानी पड़ेगी ” प्रकाशित हुई थी। पहली पुस्तक में आर्यसमाज का संस्थापक स्वामी दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश के १४ सम्मुलास में कुरान की समीक्षा से खीज कर उनके विरुद्ध आपतिजनक एवं घिनोना चित्रण प्रकाशित किया था।  जबकि दूसरी पुस्तक में श्री कृष्ण जी महाराज के पवित्र चरित्र पर कीचड़ उछाला गया था। उस दौर में विधर्मियों की ऐसी शरारतें चलती ही रहती थी पर धर्म प्रेमी सज्जन उनका प्रतिकार उन्ही के तरीके से करते थे। 
महाशय राजपाल ने स्वामी दयानंद और श्री कृष्ण जी महाराज के अपमान का प्रति उत्तर १९२४ में "रंगीला रसूल" के नाम से पुस्तक छाप कर दिया, जिसमे मुहम्मद साहिब की जीवनी व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत की गयी थी। यह पुस्तक उर्दू में थी और इसमें सभी घटनाएँ इतिहास सम्मत और प्रमाणिक थी। पुस्तक में लेखक के नाम के स्थान पर “दूध का दूध और पानी का पानी "छपा था। वास्तव में इस पुस्तक के लेखक पंडित चमूपति जी थे जो की आर्यसमाज के श्रेष्ठ विद्वान् थे। वे महाशय राजपाल के अभिन्न मित्र थे। मुसलमानों के ओर से संभावित प्रतिक्रिया के कारण चमूपति जी इस पुस्तक में अपना नाम नहीं देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने महाशय राजपाल से वचन ले लिया की चाहे कुछ भी हो जाये,कितनी भी विकट स्थिति क्यूँ न आ जाये वे किसी को भी पुस्तक के लेखक का नाम नहीं बतायेगे। महाशय राजपाल ने अपने वचन की रक्षा अपने प्राणों की बलि देकर की पर पंडित चमूपति सरीखे विद्वान् पर आंच तक न आने दी। १९२४ में छपी रंगीला रसूल बिकती रही पर किसी ने उसके विरुद्ध शोर न मचाया
 फिर महात्मा गाँधी ने अपनी मुस्लिम परस्त निति में इस पुस्तक के विरुद्ध एक लेख लिखा। इस पर कट्टरवादी मुसलमानों ने महाशय राजपाल के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया। सरकार ने उनके विरुद्ध १५३ए धारा के अधीन अभियोग चला दिया। अभियोग चार वर्ष तक चला। राजपाल जी को छोटे न्यायालय ने डेढ़ वर्ष का कारावास तथा १००० रूपये का दंड सुनाया गया। इस फैसले के विरुद्ध अपील करने पर सजा एक वर्ष तक कम कर दी गई। इसके बाद मामला हाई कोर्ट में गया। कँवर दिलीप सिंह की अदालत ने महाशय राजपाल को दोषमुक्त करार दे दिया। 
मुसलमान इस निर्णय से भड़क उठे। खुदाबख्स नामक एक पहलवान मुसलमान ने महाशय जी पर हमला कर दिया जब वे अपनी दुकान पर बैठे थे पर संयोग से आर्य सन्यासी स्वतंत्रानंद जी महाराज एवं स्वामी वेदानन्द जी महाराज वह उपस्थित थे। उन्होंने घातक को ऐसा कसकर दबोचा की वह छुट न सका। उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया, उसे सात साल की सजा हुई। रविवार ८ अक्टूबर १९२७ को स्वामी सत्यानन्द जी महाराज को महाशय राजपाल समझ कर अब्दुल अज़ीज़ नमक एक मतान्ध मुसलमान ने एक हाथ में चाकू ,एक हाथ में उस्तरा लेकर हमला कर दिया। स्वामी जी घायल कर वह भागना ही चाह रहा था की पड़ोस के दूकानदार महाशय नानकचंद जी कपूर ने उसे पकड़ने का प्रयास किया। इस प्रयास में वे भी घायल हो गए तो उनके छोटे भाई लाला चूनीलाल जी जी उसकी ओर लपके। 
उन्हें भी घायल करते हुए हत्यारा भाग निकला पर उसे चौक अनारकली पर पकड़ लिया गया। उसे चोदह वर्ष की सजा हुई ओर तदन्तर तीन वर्ष के लिए शांति की गारंटी का दंड सुनाया गया। स्वामी सत्यानन्द जी के घाव ठीक होने में करीब डेढ़ महीना लगा। ६ अप्रैल १९२९ को महाशय राजपाल अपनी दुकान पर आराम कर रहे थे। तभी इल्मदीन नामक एक मतान्ध मुसलमान ने महाशय जी की छाती में छुरा घोप दिया जिससे महाशय जी का तत्काल प्राणांत हो गया।
इलमदीन को फांसी से बचाने के लिए पूरा मुस्लिम समाज लग गया मगर आर्य्यों के पुरुषार्थ के आगे विफल हो गए। धर्म रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान देकर महाशय राजपाल जी अमर हो गए।  
सलंग्न चित्र- हुतात्मा महाशय राजपाल

जावेद अख्तर।

जावेद अख्तर ने 1970 से 1982 तक लेखक सलीम के साथ मिलकर 24 बॉलीवुड फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी। इनमें से ज्यादातर फिल्में अंडरवर्ल्ड पर अपराध आधारित कहानियां थीं।
इस अवधि के दौरान, बॉम्बे में पांच खूंखार अपराधी थे - हाजी मस्तान, यूसुफ पटेल, करीम लाला वरदराजन मुदलियार और दाऊद इब्राहिम। इनमें से चार मुसलमान थे। पुलिस रिकॉर्ड से पता चलता है कि मुंबई में 80 प्रतिशत अपराधी मुसलमान थे।
लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि उसी दौरान बॉम्बे में जावेद अख्तर और सलीम जावेद ने 24 फिल्मों की कहानी लिखी, उनकी स्क्रिप्ट के खलनायक कभी मुसलमान नहीं थे।  यह जावेद अख्तर को लोकप्रिय फिल्मों के शक्तिशाली माध्यम से जनता की सोच को प्रभावित करने के लिए अचूक पूर्वाग्रह दिखाता है।
जावेद अख्तर द्वारा लिखी गई फिल्म दीवार से जुड़ी कहानी जानी-पहचानी है। फिल्म का नायक एक हिंदू है, एक नास्तिक है जो हिंदू धर्म से इतनी नफरत करता है कि वह मंदिर की सीढ़ियों पर भी पैर नहीं रखता है। वह भगवान के प्रसाद को छूता तक नहीं है लेकिन वही नास्तिक हिंदू नायक, एक इस्लामी धार्मिक प्रतीक है, उसकी बांह पर संख्या 786 बिल्ला है जिस पर वह गहरा विश्वास करता है। यही बिल्ला उसकी जान बचाता है जब एक गोली उसे लगती है।
1983 से 2006 तक जावेद अख्तर ने 14 और फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी लेकिन उन 14 फिल्मों में भी एक भी मुस्लिम किरदार को नेगेटिव नहीं दिखाया, यानी 1970 से 2006 तक कुल 38 फिल्मों में जावेद अख्तर के किस्सों में एक भी मुस्लिम किरदार को विलेन के तौर पर नहीं दिखाया गया।  ध्यान रहे  उनमें से लगभग 60% फिल्में शुद्ध अपराध की कहानियों पर आधारित थीं।
उन दिनों मुंबई में मुस्लिम गुंडों, तस्करों, हत्यारों, आतंकवादियों का अपराध कहर ढा रहा था।  जिसके बारे में पूरा देश जानता है  लेकिन जावेद अख्तर की लिखी हर कहानी का खलनायक हमेशा हिंदू था, यह संयोग नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में, यह संयोग नहीं बल्कि एक प्रयोग था....
गौरतलब है कि यह जावेद अख्तर पाकिस्तानी मुशायरे के सेमिनारों और सम्मेलनों के बहाने दशकों से पाकिस्तान की कई यात्राएं कर रहा है लेकिन उन्होंने पाकिस्तान में हिंदू, सिख, ईसाई, पारसी या बौद्ध परिवारों पर पाकिस्तानी मुस्लिम गुंडों द्वारा की जा रही हत्या, लूट और बलात्कार के राक्षसी कहर के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला।  
पाकिस्तान में गैर-मुसलमानों की ऐसी दर्दनाक स्थिति उनकी किसी कहानी या ग़ज़ल पर कभी नहीं पड़ी थी लेकिन ये वही जावेद अख्तर हैं जिन्होंने सीएए का विरोध किया था और पाकिस्तानी मुस्लिम गुंडों को भारत की नागरिकता देने की जिद कर रहे थे।
तीन-चार दशक पहले फिल्म जिहाद की कमान वामपंथियों के मुखौटे में वैचारिक रूप से चालाक ठगों और धोखेबाजों के गिरोह को सौंप दी गई थी। 7-8 साल पहले तक देश के वैचारिक धरातल पर वामपंथ का मुखौटा लगाकर वैचारिक रूप से चालाक ठगों और धोखेबाजों के गैंग ने तानाशाह की तरह देश पर राज किया। सत्ताधारी लालची कांग्रेस इस वामपंथी वैचारिक कचरे की गठरी को शो पीस की तरह अपनी पीठ और खोपड़ी पर ढोती रही।
लेकिन 7-8 साल पहले इस देश के आम आदमी को सोशल मीडिया का मंच मिला और उस मंच से आम आदमी ने सच बोला। सच्चाई की इस गर्जना के कारण, वामपंथी विचारधारा बुरी तरह से ढहने लगी, देवताओं के स्थान पर कब्जा करने वाले देवता। वामपंथी शैतानों की जो मूर्तियाँ सीधी खड़ी थीं, उन्हें जनता ने उखाड़ना शुरू कर दिया है।
यह पोस्ट एक ही आम आदमी द्वारा ठोस सबूत और तथ्यों के साथ बताई जा रही सच्चाइयों की एक श्रृंखला की कड़ी है।  बॉलीवुड जिहाद का ये सिलसिला अभी भी जारी है जैसे आम आदमी की इसके खिलाफ लड़ाई...
#GemsOfBollywood #BoycottBollywood
#BoycottLalSinghChadda

नारी का स्थान : मनु स्मृति।

दिल्ली हाई कोर्ट की जज प्रतिभा सिंह ने कहा, मनुस्मृति जैसे वैदिक ग्रंथ महिलाओं को देते हैं सम्मान।  उनके इस बयान का कुछ आन्दोलनजीवी विरोध कर रहे हैं. इन स्वघोषित दलित विचारको में से 99% ने वेद व मनस्मृति आदि को कभी पढ़ा ही नहीं है. जिन 1% ने पढ़ा है उसने भी अर्थ के नाम पर अनर्थ ही पढ़ा है.
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अब एक नमूना मनुस्मृति में नारी सम्बन्धी श्लोकों का भी देख ले.
( सभी रेफरेंस महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ सम्मुलास से है )
मनु : मनुस्मृति : नारी की विशेष हितैषी
जिस कुल में भार्य्या से भर्त्ता और पति से पत्नी अच्छे प्रकार प्रसन्न रहती है उसी कुल में सब सौभाग्य और ऐश्वर्य निवास करते हैं। जहां कलह होता है वहां दौर्भाग्य और दारिद्र्य स्थिर होता है।।1।। जो स्त्री पति से प्रीति और पति को प्रसन्न नहीं करती तो पति के अप्रसन्न होने से काम उत्पन्न नहीं होता।।2।। जिस स्त्री की प्रसन्नता में सब कुल प्रसन्न होता उसकी अप्रसन्नता में सब अप्रसन्न अर्थात् दुःखदायक हो जाता है।।3।।
पिता, भाई, पति और देवर इन को सत्कारपूर्वक भूषणादि से प्रसन्न रक्खें, जिन को बहुत कल्याण की इच्छा हो वे ऐसे करें।।4।।
जिस घर में स्त्रियों का सत्कार होता है उस में विद्यायुक्त पुरुष होके देव संज्ञा धरा के आनन्द से क्रीड़ा करते हैं और जिस घर में स्त्रियों का सत्कार नहीं होता वहां सब क्रिया निष्फल हो जाती हैं।।5।। ( देव = परोपकारी, सदाचारी, विद्वान)
जिस घर वा कुल में स्त्री लोग शोकातुर होकर दुःख पाती हैं वह कुल शीघ्र नष्ट भ्रष्ट हो जाता है और जिस घर वा कुल में स्त्री लोग आनन्द से उत्साह और प्रसन्नता से भरी हुई रहती हैं वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है।।6।।
इसलिए ऐश्वर्य की कामना करनेहारे मनुष्यों को योग्य है कि सत्कार और उत्सव के समयों में भूषण वस्त्र और भोजनादि से स्त्रियों का नित्यप्रति सत्कार करें।।7।।
यह बात सदा ध्यान में रखनी चाहिये कि ‘पूजा’ शब्द का अर्थ सत्कार है और दिन रात में जब-जब प्रथम मिलें वा पृथक् हों तब-तब प्रीतिपूर्वक ‘नमस्ते’ एक दूसरे से करें। (महर्षि दयानन्द)
स्त्री को योग्य है कि अतिप्रसन्नता से घर के कामों में चतुराईयुक्त सब पदार्थों के उत्तम संस्कार, घर की शुद्धि और व्यय में अत्यन्त उदार न रहैं अर्थात् सब चीजें पवित्र और पाक इस प्रकार बनावें जो औषधरूप होकर शरीर वा आत्मा में रोग को न आने देवे। जो-जो व्यय हो उस का हिसाब यथावत् रखके पति आदि को सुना दिया करे। घर के नौकर चाकरों से यथायोग्य काम लेवे। घर के किसी काम को बिगड़ने न देवे।8.
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चाहे लड़का लड़की मरणपर्यन्त कुमार रहैं परन्तु असदृश अर्थात् परस्पर विरुद्ध गुण, कर्म, स्वभाव वालों का विवाह कभी न होना चाहिये। इस से सिद्ध हुआ कि न पूर्वोक्त समय से प्रथम वा असदृशों का विवाह होना योग्य है।9
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शेष निम्नलिखित अंश " मनु का विरोध क्यों " पुस्तक से है.====
मनुस्मृति में नारियों की स्थिति मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्य कहते हैं कि मनु की जो स्त्री-विरोधी छवि प्रस्तुत की जा रही है, वह निराधार एवं तथ्यों के विपरीत है| मनु ने मनुस्मृति में स्त्रियों से सम्बन्धित जो व्यवस्थाएं दी हैं वे उनके सम्मान, सुरक्षा, समानता, सद्भाव और न्याय की भावना से प्रेरित हैं|
पुत्र-पुत्री एक समान-मनुमत से अनभिज्ञ पाठकों को यह जानकर सुखद आश्‍चर्य होगा कि मनु ही सबसे पहले वह संविधान निर्माता हैं| जिन्होंने पु-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है- ‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनु० ९.१३०) अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है| वह आत्मारुप है, अतः वह पैतृकसम्पत्ति की अधिकारिणी है|
पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार-मनु ने पैतृक सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री को समान अधिकारी माना है| उनका यह मत मनुस्मृति के ९.१३०, १९२ में वर्णित है|
मातृधन में केवल कन्याओं का अधिकार विहित करके मनु ने परिवार में कन्याओं के महत्त्व में अभिवृध्दि की है (९.१३१)|
स्त्रियों के धन की सुरक्षा के विशेष निर्देश-स्त्रियों को अबला समझकर कोई भी, चाहे वह बन्धु-बान्धव ही क्यों न हों, यदि स्त्रियों के धन पर कब्जा कर लें, तो उन्हें चोर सदृश दण्ड से दण्डित करने का आदेश मनु ने दिया है (९.२१२;३.५२;८.२;८.२९)|
नारियों के प्रति किये अपराधों में कठोर दण्ड-स्त्रियों की सुरक्षा के दृष्टिगत नारियों की हत्या और उनका अपहरण करनेवालों के लिए मृत्युदण्ड का विधान करके तथा बलात्कारियों के लिए यातनापूर्ण दण्ड देने के बाद देश निकाला का आदेश देकर मनु ने नारियों की सुरक्षा को सुनिश्‍चित बनाने का यत्न किया है(८.३२३;९.२३२;८.३५२)| नारियों के जीवन में आनेवाली प्रत्येक छोटी-बडी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये हैं| पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें (४.१८०), इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है(८.२७५,३८९;९.४)|
मनु की एक विशेषता और है, वह यह कि वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं हैं और न उन बातों का समर्थन करते हैं जो परिणाम में अहितकर हैं| इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को चेतावनी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है(५.१४९;९.५-६)| इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी हैं| इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथमं सामाजिक आवश्यकता है-सुरक्षा की| वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य|
भोगवादी आपराधिक प्रवृत्तियां उसके स्वयं के सामर्थ्य को सफल नहीं होने देती| उदाहरणों से पता चलता है कि शस्त्रधारिणी डाकू स्त्रियों तक को भी पुरुष-सुरक्षा की आवश्यकता रही है| मनु के उक्त कथन को आज की राजनीतिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखना सही नहीं है| आज देश में एक शासन है और कानून उसका रक्षक है| फिर भी हजारों नारियां अपराधों की शिकार होकर जीवन की बर्बादी की राह पर चलने को विवश हैं| प्रतिदिन बलात्कार, नारी-हत्या जैसे जधन्य अपराधों की हजारों घटनाएं होती रहती हैं| जब राजतन्त्र में उथल-पुथल होती रहती है, कानून शिथिल पड जाते हैं, जब क्या परिणाम होगा, उस स्थितिमें मनु के वचनों के महत्त्व को आंककर देखना चाहिये| तब यह मानना पडेगा कि वे शतप्रतिशत सही हैं|
उपर्युक्त विश्‍लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री विरोधी नहीं हैं, वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं| मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो|
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Thursday, August 11, 2022

नेहरू का अनजान सच।

कब तक नेहरू-गांधी की अंध पूजा?

( लेखक : डॉ शंकर शरण )

हमारे देश की पाठ्य-पुस्तकों में जवाहरलाल नेहरू का गुण-गान होते रहना कम्युनिस्ट देशों वाली परंपरा की नकल है। अन्य देशों में किसी की ऐसी पूजा नहीं होती जैसी यहाँ गाँधी-नेहरू की होती है। अतः जैसे रूसियों, चीनियों ने वह बंद किया, हमें भी कर लेना चाहिए। वस्तुतः खुद नेहरू ने जीवन-भर जिन बातों को सब से अधिक दुहराया था, उसमें यह भी एक था – ‘हमें रूस से सीखना चाहिए’। और सचमुच नेहरू और पीछे-पीछे पूरे भारत ने कम्युनिस्ट रूस से अनेकों नारे और हानिकारक चीजें सीखीं।
तब क्या अब कुछ अच्छा नहीं सीखना चाहिए?

जिस तरह रूसियों ने लेनिन-पूजा बंद कर दी, हमें भी नेहरू और गाँधी-पूजा खत्म करनी चाहिए। यह तुलना अनोखी नहीं है। यहाँ पैंतीस-चालीस साल पहले नेहरू की लेनिन से तुलना बड़ी ठसक से होती थी। नेता और प्रोफेसर इस पर लेख, पुस्तकें लिखते थे, और सरकार से ईनाम पाते थे। तब रूस में लेनिन और यहाँ नेहरू की महानता एक स्वयं-सिद्धि थी। दोनों को अपने-अपने देश का प्रथम मार्गदर्शक, महामानव, दार्शनिक, आदि बताने का चलन था। फिर समय आया कि रूसियों ने लेनिन-पूजा बंद कर दी। वही स्थिति चीन में माओ की हुई। आज उन देशों में अपने उन कथित मार्गदर्शकों की जयंती तक मनना बंद हो चुका है।

रूस और चीन में इस अंध-पूजा के पटाक्षेप के लिए कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं हुई। जनता ने सर्वसम्मति से उस कथित महानता का अध्याय बंद किया। क्योंकि वह पूजा उन पर दशकों तक जबरन थोपी हुई थी। लेनिन, माओ की महानता की गाथाएं सत्ता की ताकत के बल पर गढ़ी और प्रचारित की गई थी। उन के जीवन के हर काले अध्याय पर पर्दा डाल कर रूसी-चीनी जनगण के दिमाग को लेनिन-माओमय बना डाला गया था। इसीलिए, जैसे ही वह जबरदस्ती हटी, लोगों ने वह लज्जास्पद पूजा बंद कर दी। इस पर रूस या चीन में मामूली विवाद तक न हुआ। सहमति इतनी साफ थी। आज रूस और चीन में टॉल्सटॉय और कन्फ्यूशियस ही सर्वोच्च चिंतक माने जाते हैं, लेनिन और माओ नहीं।
अतः इस बिन्दु पर भी नेहरू को लेनिन से तुलनीय बनाने का समय आ गया है। जैसे कम्युनिस्ट पार्टी ने रूस पर लेनिन-पूजा थोपी थी, उसी तरह नेहरू परिवार ने यहाँ नेहरू-गाँधी पूजा थोपी। आखिर किस आधार पर नेहरू की जन्म-शताब्दी मनाने के लिए असंख्य मँहगे सरकारी उपक्रम हुए, जबकि डॉ. राजेंद्र प्रसाद के लिए कुछ न हुआ? यदि नेहरू प्रथम प्रधान मंत्री थे, तो राजेंद्र बाबू भी प्रथम राष्ट्रपति थे।

उसी तरह, किस तर्क से गाँधी को राष्ट्र-पिता घोषित किया गया? गाँधी-जयंती स्थाई राष्ट्रीय अवकाश घोषित हो गया, जबकि ‘राष्ट्र-पितामह’ स्वामी दयानन्द सरस्वती को वैसा मान नहीं मिला? ऐसी अनगिनत बातें गाँधी-नेहरू को भारतीय मानस पर जबरन थोपे जाने की पुष्टि करती हैं।

किसी देश में किसी की जयंती मनाने, न मनाने के कारण समान होते हैं। जिस ने देश की सच्ची सेवा की, उसे याद करते हैं। जिस ने ऐसा कुछ विशेष न किया अथवा हानि की, उसे भूला जाता है। इसी तर्क से लेनिन और माओ अपने-अपने देशों में भुलाए जा चुके। इसलिए भी नेहरू का राजनीतिक, वैचारिक रिकॉर्ड लेनिन से तुलनीय है। अर्थ-नीति, विदेश-नीति, गृह-नीति, शिक्षा-नीति, आदि बुनियादी बिन्दुओं पर नेहरू की हानिकारक विरासत देखनी चाहिए।

राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश-नीति में नेहरू के कार्यों, विचारों में एक से एक शर्मनाक अध्याय हैं। नेहरू ने तिब्बत पर पारंपरिक भारतीय संरक्षण को खुद छोड़ कर उस महत्वपूर्ण देश को अपने ‘मित्र’ चीन के हवाले कर दिया। इस तरह, भारत को अरक्षित कर डाला! अरुणाचल प्रदेश पर चीन का दावा तिब्बत के माध्यम से है, और किसी तरह नहीं। फिर, नेहरू ने प्रधान मंत्री पद से अपनी प्रथम अमेरिका यात्रा (1956) में अमेरिकियों को साम्राज्यवाद पर कम्युनिस्ट लेक्चर पिलाकर स्तब्ध कर दिया। इस प्रकार, दुनिया के सब से महत्वपूर्ण देश से अकारण संबंध बिगाड़ने की ठोस शुरुआत की! फिर, जब ‘मित्र’ चीन ने घुस-पैठ कर लद्दाख का एक भाग चुपचाप दखल कर लिया, तब नेहरू ने संसद में बयान दिया कि ‘उस हिस्से में तो घास भी नहीं उगती’! ऐसी बचकानी समझ और योग्यता वाले व्यक्ति को प्रथम प्रधानमंत्री बनाने का दोष गाँधीजी का था। लेकिन दशकों के झूठे, सरकारी प्रचार के कारण आज लोग जानते भी नहीं कि 1947 में कांग्रेस में प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू पहली क्या, दूसरी पसंद भी नहीं थे! पहले सरदार पटेल, फिर कृपलानी को देश भर के कांग्रेसियों ने अपनी चाह बताया था। उसे ठुकरा कर गाँधीजी ने नेहरू को थोपा, जिस ने राष्ट्रीय सुरक्षा का कचरा तो किया ही; स्वतंत्र भारत के नव-निर्माण की पूरी मिट्टी पलीद की।

यहाँ तक कि नेहरू का व्यक्तिगत जीवन भी अनुकरणीय नहीं था। यह नेहरू के वरिष्ठतम सहयोगियों समेत अनगिनत समकालीनों ने लिखा है। एक विदेशी स्त्री, लेडी माउंटबेटन, के अंतरंग प्रभाव में नेहरू ने देश-विभाजन, कश्मीर की ऐसी-तैसी तथा कम्युनिस्ट षडयंत्रकारियों की मदद की। कश्मीर को विवादित और पाकिस्तान को स्थाई लोलुप बनाने में नेहरू का सब से बड़ा हाथ है। और यह सब उन्होंने अपने गृह मंत्री सरदार पटेल को अँधेरे में रख कर किया था! यह सब कोई आरोप नहीं, जग-जाहिर तथ्य हैं जिन के प्रमाण सर्व-सुलभ हैं।

तब ऐसे ‘प्रथम’ मार्गदर्शक के बारे में हम पाठ्य-पुस्तकों में क्या बताएं? क्या वही झूठ दुहराते रहें जो नेहरूवंशी सत्ता ने जोर-जबरदस्ती और छल-प्रपंच से स्थापित की है? क्या रूसी और चीनी जनता से इस मामले में कुछ न सीखें? किसी भ्रम में न रहें। नेहरू की विरुदावली और ‘योगदान’ के जितने भी किस्से और तर्क दिए जाते थे, वे ठीक वैसे ही हैं जैसे सोवियत सत्ता के दिनों में लेनिन के पक्ष में मिलते थे। अतः बिना उन गंभीर दोषों के, जो नेहरू में थे, बावजूद हमारी पाठ्य-पुस्तकों में यदि प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद की कोई चर्चा नहीं रहती – तो कोई कारण नहीं कि अनगिन लज्जास्पद कार्यों के बावजूद हम नेहरू पर देश के बच्चों को अनुचित गर्व करना सिखाते रहें।

स्वतंत्र भारत में पहला प्रधान मंत्री निवास तीन-मूर्ति भवन था। नेहरू की मृत्यु के बाद उसे ‘नेहरू स्मारक’ बना दिया गया। फिर तो, ल्युटन की दिल्ली में विविध नेताओं को आवंटित बंगलों को उन की मृत्यु बाद कथित ‘स्मारक’ बनाकर उन के वंशजों द्वारा कब्जाने की प्रक्रिया चल पड़ी। देश की जमीन और संपत्ति पर ऐसा बेशर्म व्यक्तिगत, पारिवारिक कब्जा और किसी देश में भी क्या होता है? हमारे बच्चों को तो इस पर सोचना सिखाना चाहिए।

जयंती, स्मारक, संस्थाओं, योजनाओं के नामकरण, आदि प्रक्रियाओं में गाँधी-नेहरू की अंध-पूजा किस सिद्धांत के तहत होती रही है? दूसरी ओर, पतंजलि, पाणिनि, चाणक्य, कालिदास, तुलसीदास, जैसे शाश्वत मूल्य के अनगिन मनीषी ही नहीं; स्वामी दयानन्द, बंकिमचन्द्र, श्रद्धानंद, श्रीअरविन्द, जगदीशचंद्र बोस, जदुनाथ सरकार, मेजर ध्यानचंद, आदि भारत के समकालीन सच्चे महापुरुषों को कितना सरकारी-राष्ट्रीय आदर मिला है? यहाँ लगभग अशिक्षित नेताओं के नाम पर बीसियों विश्वविद्यालय खोले गए हैं, और महान इतिहासकार जदुनाथ सरकार या महाकवि निराला के नाम पर एक भी नहीं! इस का लज्जास्पद तर्क केवल सोवियत व्यवस्था से मिलता है। जहाँ पूरी शिक्षा को लेनिन-स्तालिनमय कर दी गई थी, जबकि दॉस्ताएवस्की, सोल्झेनित्सिन जैसे मनीषी पुस्तकालयों तक से बहिष्कृत थे।

हमें अपने देश के मनीषियों, महापुरुषों की पहचान, सम्मान और सीखने का सच्चा मानदंड बनाना होगा। नहीं तो विश्व-मंच पर हमारी वही निस्तेज, बुद्धि-हीन छवि बनी रहेगी जो नेहरू ने बनाई थी।
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स्वतंत्रत भारत के शुरुआत के क्रिटिकल दौर में नेहरूवाद के उदय और उसके दूरगामी भयंकर परिणामो के सटीक विश्लेषण के लिए पढ़ें : "नेहरूवाद की विरासत" (ले० डॉ. शंकर शरण)

Monday, August 8, 2022

मदर टेरेसा : चमत्कार।

यीशु और बाइबिल में दृढ विश्वास रखने वाली मदर टेरेसा खुद कई बार अपने आँखों एवं दिल का आपरेशन करवाया. हार्ट अटैक के कारण ही 5 सितंबर 1997 के दिन मदर टैरेसा की मृत्यु हुई थी.

रोमन कैथोलिक में किसी को सन्त घोषित करना हो तो उसकी पहली शर्तें होती है, उपरोक्त व्यक्ति के नाम के साथ कोई चमत्कार घटित होता दिखाया जाये। अगर चमत्कार का 'प्रमाण' पेश किया गया तो उपरोक्त व्यक्ति का 'बीटिफिकेशन' होता है अर्थात उसे ईसा के प्रिय पात्रों में शुमार किया जाता है, जिसका ऐलान वैटिकन में आयोजित एक बड़े धार्मिक जलसे में लाखों लोगों के किया जाता है तथा दूसरे चरण में उसे सन्त घोषित किया जाता है जिसे 'कननायजेशन' कहते हैं। टेरेसा का कननायाजेशन सितम्बर 2016 में हुआ था.

अभी कुछ साल पहले (2003 में ) मदर टेरेसा के बीटिफिकेशन हुआ था , जिसके लिए राईगंज के पास की रहनेवाली किन्हीं मोनिका बेसरा से जुड़े 'चमत्कार' का विवरण पेश किया गया था। गौरतलब है कि 'चमत्कार' की घटना की प्रामाणिकता को लेकर सिस्टर्स आफ चैरिटी के लोगाें ने लम्बा चौड़ा 450 पेज का विवरण वैटिकन को भेजा था। यह प्रचारित किया गया था कि मोनिका के टयूमर पर जैसे ही मदर टेरेसा के लॉकेट का स्पर्श हुआ, वह फोड़ा छूमन्तर हुआ। दूसरी तरफ खुद मोनिका बेसरा के पति सैकिया मूर्म ने खुद 'चमत्कार' की घटना पर यकीन नहीं किया था और मीडियाकर्मियों को बताया था कि किस तरह मोनिका का लम्बा इलाज चला था। दूसरे राईगंज के सिविल अस्पताल के डाक्टरों ने भी बताया था कि किस तरह मोनिका बेसरा का लम्बा इलाज उन्होंने उसके टयूमर ठीक होने के लिए किया। बाद में डरा कर उसके पति का ब्यान भी बदलवा दिया.

दूसरा चमत्कार -
2008 में, ब्राजील के मार्सिलियो हदद एंड्रिनो मौत के करीब थे। एक संक्रमण ने उनके मस्तिष्क को फोड़े और जमा होने वाले तरल पदार्थ के साथ छोड़ दिया था, और उनकी बिगड़ती स्थिति ने उन्हें कोमा में डाल दिया था। उनकी पत्नी फर्नांडा ने मदर टेरेसा से मदद की गुहार लगाई। एक पादरी ने फर्नांडा को मदर टेरेसा का एक अवशेष दिया और उसने " अवशेष को मार्सिलियो के सिर पर रख दिया , जहां उसके फोड़े थे। उनके मस्तिष्क के चारों ओर तरल पदार्थ निकालने के लिए उन्हें सर्जरी के लिए भेजा गया था। लेकिन इससे पहले कि ऑपरेशन शुरू हो पाता, एंड्रीनो चमत्कारिक ढंग से उठा और पूछा, "मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ?" उसके मस्तिष्क के चारों ओर के फोड़े और तरल पदार्थ सर्जरी की आवश्यकता के बिना गायब हो गए। इन पति पत्नी को सन्त घोषित करते समय वेटिकन में बुलाया.
दूसरा चमत्कार इसलिए घोषित किया गया कहीं मोनिका बसेरा का पति या कोई डाक्टर सच बोलकर भंडाफोड़ न कर दे

आधिकारिक जीवनी में अन्य चमत्कार
एक फिलिस्तीनी लड़की सपने में मदर टेरेसा को देखने के बाद हड्डी के कैंसर से उबर गई.
एक फ्रांसीसी लड़की जिसने कहा था कि मदर टेरेसा के एक पदक को छूने से पसलियां ठीक हो गईं, वह एक कार दुर्घटना में टूट गई थी - लेकिन यह उपचार इतनी जल्दी नहीं हुआ कि चमत्कारी के रूप में देखा जा सके।

यह दोनों चमत्कार इसलिए नहीं माने गए क्योंकि इनसे मिशनरी को कोई लाभ नहीं होना था. फिलिस्तीन में कोई मुस्लिम इसाई नहीं बनता. फ्रांस (पुरे यूरोप में भी) में कैथोलिक चर्च तेजी से बंद हो रहे हैं. कैथोलिक लोग नास्तिक बन रहे हैं. भारत में हिन्दुओं को इसाई बनाने का अच्छा मौक़ा है.
वेटिकन में 4 सितम्बर 2016 को मदर टेरेसा को "संत" की उपाधि से नवाज़ा गया. इस समारोह में भाग लेने के सुषमा स्वराज के साथ इस कार्यक्रम में ममता बनर्जी, अरविन्द केजरीवाल, नीतीश कुमार और केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन के जाने की भी सूचना थी. कौन कौन गया इसकी जानकारी नहीं मिली. वेटिकन के अनुसार 15 देशों के राष्ट्राध्यक्ष आए थे.

दिवंगत पोप जॉन पॉल द्वितीय ने अपना पूरा जीवन ईसाई मत को समर्पित कर दिया था. उनके बारे में मैंने पढ़ा है कि वो सन 2001 में पार्किन्सन रोग से पीड़ित थे और चलने फिरने में बिलकुल असमर्थ थे. 2005 में उनका निधन हुआ था. पता नहीं मदर टेरेसा ने उन पर अपना चमत्कार क्यों नहीं दिखाया
उन्होंने मदर टेरेसा की मदद क्यों नहीं की? जिस तरह का वो चमत्कारी ढंग से ‘चंगाई’ इलाज करने का दावा करते हैं, उसका प्रयोग उन्होंने ईसाई समाज के मशहूर आध्यात्मिक लोंगो पर क्यों नहीं किया?
पॉल दिनाकरन 1983 से चंगाई प्रार्थना कर रहे हैं. उन्होंने अपनी चंगाई प्रार्थना से पोप जॉन पॉल द्वितीय को स्वस्थ क्यों नहीं कर दिया?

कौन है पॉल दिनाकरण ?
आपने मोबाइल के प्रीपेड प्लान देखे होंगे. इन्स्योरैंस के पैकेज देखे होंगे. ये सब आम बाते हैं. ख़ास क्या है? पाल बाबा का प्रार्थना पॅकेज. आपको स्थाई बिमारी है- 5000 रूपए की प्रार्थना आपकी नौकरी नहीं लग रही – 2000 का प्रीपेड प्रार्थना पैक खरीदें.
क्यों चौंक गए?
इसाई चमत्कारिक प्रेरक/ प्रचारक – पाल दिनाकरन – प्रार्थना के पैक बेचते हैं.
पॉल दिनाकरण प्रार्थना की ताकत से भक्तों को शारीरिक तकलीफों व दूसरी समस्याओं से छुटकारा दिलाने का दावा करते हैं। पॉल बाबा अपने भक्तो को इश्योरेंस या प्रीपेड कार्ड की तरह प्रेयर पैकेज बेचते हैं। यानी, वे जिसके लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं, उससे मोटी रकम भी वसूलते हैं। मसलन 3000 रुपये में आप अपने बच्चों व परिवार के लिए प्रार्थना करवा सकते हैं। वे कोयंबटूर में एक इंजीनियरिंग व मैनेजमेंट यूनिवर्सिटी के मालिक हैं। उनका 24 घंटे का चैनल रेनबो भी है। दुनिया भर में उनके 30 प्रेयर टॉवर हैं। कहा जाता है कि उनकी किसी भी सभा में एक लाख से अधिक भक्त मौजूद होते हैं.
पॉल दिनाकरन जो कि एक इसाई प्रेरक हैं उनकी संपत्ति 5000 करोड़ से ज्यादा है,बिशप के.पी.योहन्नान की संपत्ति 7000 करोड़ है, ब्रदर थान्कू (कोट्टायम , करेला ) की संपत्ति 6000 हज़ार करोड़ से अधिक है

Sunday, August 7, 2022

आप भी इन प्रश्नों पर गौर करना कि।

#मैं बहुत सोचता हूं पर #उत्तर नहीं मिलता, आप भी इन प्रश्नों पर गौर करना कि...

१. जिस #सम्राट के नाम के साथ संसार भर के इतिहासकार “महान” शब्द लगाते हैं...

२. जिस सम्राट का राज चिन्ह अशोक #चक्र भारत देश अपने झंडे में लगता है.....

३.जिस सम्राट का राज चिन्ह चारमुखी शेर को भारत देश राष्ट्रीय प्रतीक मानकर सरकार चलाती है और #सत्यमेव जयते को अपनाया गया।

४. जिस देश में #सेना का सबसे बड़ा युद्ध सम्मान सम्राट अशोक के नाम पर #अशोक चक्र दिया जाता है ...

५. जिस सम्राट से पहले या बाद में कभी कोई ऐसा राजा या सम्राट नहीं हुआ, जिसने #अखंड भारत (आज का नेपाल, बांग्लादेश, पूरा भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान) जितने बड़े भूभाग पर एक छत्री #राज किया हो ...

६. जिस सम्राट के शासन काल को विश्व के बुद्धिजीवी और इतिहासकार भारतीय इतिहासका सबसे #स्वर्णिम काल मानते हैं ...

७. जिस सम्राट के शासन काल में भारत #विश्व गुरु था, सोने की चिड़िया था, जनता खुशहाल और भेदभाव रहित थी ... 

८. जिस सम्राट के शासन काल #जी टी रोड जैसे कई हाईवे रोड बने, पूरे रोड पर पेड़ लगाये गए, सराये बनायीं गईं इंसान तो इंसान जानवरों के लिए भी प्रथम बार हॉस्पिटल खोले गए, जानवरों को मारना बंद कर दिया गया ...

ऐसे महान सम्राट #अशोक कि #जयंती उनके अपने देश भारत में #क्यों नहीं मनायी जाती, न कि कोई #छुट्टी घोषित कि गई है अफ़सोस जिन लोगों को ये जयंती मनानी चाहिए, वो लोग अपना #इतिहास ही नहीं जानते और जो जानते हैं.. वो मानना नहीं #चाहते ।

1. जो जीता वही चंद्रगुप्त ना होकर जो जीता वही सिकन्दर “कैसे” हो गया… ? (जबकि ये बात सभी जानते हैं कि…
सिकंदर की सेना ने चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रभाव को देखते हुये ही लड़ने से मना कर दिया था.. बहुत ही बुरी तरह मनोबल टूट गया था… जिस कारण , सिकंदर ने मित्रता के तौर पर अपने सेनापति सेल्युकश कि बेटी की शादी चन्द्रगुप्त से की थी)

2. #महाराणा प्रताप ”महान”
ना होकर ... अकबर ”महान” कैसे हो गया…? जबकि, अकबर अपने हरम में हजारों लड़कियों को रखैल के तौर पर रखता था ... यहाँ तक कि उसने अपनी बेटियो और बहनोँ की शादी तक पर प्रतिबँध लगा दिया था जबकि.. महाराणा प्रताप ने अकेले दम पर उस अकबर के #लाखों की सेना को घुटनों पर ला दिया था) 

3. #सवाई जय सिंह को “महान वास्तुप्रिय” राजा ना कहकर शाहजहाँ को यह उपाधि किस आधार मिली.. ? जबकि… साक्ष्य बताते हैं कि…. जयपुर के #हवा महल से लेकर तेजोमहालय {ताजमहल} तक …. महाराजा जय सिंह ने ही बनवाया था.!

4. जो स्थान महान #मराठा क्षत्रिय वीर शिवाजी को मिलना चाहिये वो … क्रूर और आतंकी औरंगजेब को क्यों और कैसे मिल गया ..? 

5. #स्वामी विवेकानंद और आचार्य
चाणक्य की जगह… गांधी को महात्मा बोलकर … हिंदुस्तान पर क्यों #थोप दिया गया…? 

6. तेजोमहालय- ताजमहल  ..लालकोट- लाल किला .. फतेहपुर सीकरी का देव महल- बुलन्द दरवाजा ... एवं सुप्रसिद्ध गणितज्ञ वराह मिहिर की मिहिरावली(महरौली) स्थित वेधशाला- कुतुबमीनार .. क्यों और #कैसे हो गया ...?

7. यहाँ तक कि….. राष्ट्रीय गान भी… संस्कृत के #वन्दे मातरम की जगह गुलामी का #प्रतीक जन-गण-मन हो गया है कैसे और क्यों हो गया ..?

8. और तो और…. हमारे आराध्य भगवान् राम.. कृष्ण तो इतिहास से कहाँ और कब गायब हो गये पता ही नहीं चला … #आखिर कैसे ? 

9. यहाँ तक कि…. हमारे आराध्य भगवान राम की जन्मभूमि पावन अयोध्या … भी कब और कैसे #विवादित बना दी गयी… हमें पता तक नहीं चला…
कहने का मतलब ये है कि… हमारे दुश्मन सिर्फ….बाबर, गजनवी, लंगड़ा तैमूरलंग ...ही नहीं हैं … बल्कि आज के सफेदपोश #सेक्यूलर भी हमारे उतने ही बड़े #दूश्मन हैं…. जिन्होंने हम हिन्दुओं के अन्दर हीन भाबना का उदय कर सेकुलरता का बीज #उत्पन्न किया ..🙄🙄🤔🤔

Saturday, August 6, 2022

दुरुस्त हुई एक ऐतिहासिक गलती.

दिव्य कुमार सोती
(दो वर्ष पहले प्रकाशित  पुन: प्रकाशित किया जा रहा है। )

आखिरकार दशकों के इंतजार के बाद जम्मू-कश्मीर के भारत में पुन: एकीकरण की दिशा में एक बड़ा कदम उठा लिया गया। इससे एक ऐतिहासिक गलती को ठीक किया गया। गत दिवस गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में अनुच्छेद 370 को हटाने का संकल्प पत्र पेश किया। इस हेतु केंद्रीय कैबिनेट की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी कर भारतीय संविधान के सभी प्रावधानों को जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू कर दिया। चूंकि अनुच्छेद 370 के तहत ऐसा करने के लिए जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की सिफारिश की आवश्यकता होती इसलिए राष्ट्रपति ने संविधान के निर्वाचन के लिए प्रदत्त अनुच्छेद 367 में एक धारा जोड़ते हुए कहा कि जम्मू-कश्मीर संविधान सभा से आशय राज्य विधानसभा समझा जाए। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर में संविधान सभा दोबारा बुलाने की संभावना और जरूरत समाप्त हो गई। चूंकि फिलहाल राज्य में विधानसभा भंग है और वहां राज्यपाल शासन लागू है इसलिए विधायी शक्तियां राज्यपाल में निहित हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि राज्यपाल के केंद्र का प्रतिनिधि होने के कारण उसकी शक्तियां संसद में निहित हैं। यहां यह समझना जरूरी है कि अनुच्छेद 370 को संवैधानिक पेचीदगियों के चलते संवैधानिक संशोधन करके खत्म नहीं किया गया और न ही उसमें संशोधन किया गया, बल्कि सरकार ने इसी अनुच्छेद का इस्तेमाल कर इसके प्रावधानों का अर्थ बदल दिया।
एक तरह से अनुच्छेद 370 का संवैधानिक शुद्धिकरण करने की कोशिश की गई ताकि यह जम्मू कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण में बाधा न रह जाए। भविष्य में इस संबंध में कुछ और कानूनी कदम उठाए जा सकते हैं, क्योंकि बीते सात दशकों में विसंगतियों की सूची काफी लंबी हो चुकी है। इसके साथ ही अनुच्छेद 35ए जैसे प्रावधान जिसके तहत जम्मू-कश्मीर राज्य को मूल निवासी की परिभाषा तय करने की शक्ति प्राप्त थी, के भी समाप्त होने का रास्ता खुल गया। अनुच्छेद 35ए के निष्प्रभावी होने बाद अब कोई भी भारतीय नागरिक जम्मू कश्मीर में बस सकेगा और संपत्ति भी खरीद पाएगा। यह देखने वाली बात होगी कि इन संवैधानिक बदलावों का सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 35ए को लेकर लंबित याचिकाओं पर क्या असर होगा, लेकिन यह उल्लेखनीय है कि गृहमंत्री ने जम्मू-कश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक भी पेश कर दिया है। इसके पारित होने पर सामरिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण लद्दाख एक केंद्र शासित राज्य बन जाएगा, जिसमें कोई विधानसभा नहीं होगी। लद्दाख में पहले ही हिल काउंसिल को काफी अधिकार प्राप्त हैं और संभावना है कि उन्हें जारी रखा जाए। लद्दाख क्षेत्र के लोगों की लंबे समय से यह मांग थी कि लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया जाए। लद्दाख के भूभाग पर चीन भी दावा जताता रहा है। फिलहाल सामरिक रूप से अति संवेदनशील इस क्षेत्र का प्रशासन एक आइएएस अधिकारी के हाथ में होता है। अब इस क्षेत्र को उप-राज्यपाल और मुख्य सचिव चलाएंगे।
जब से कश्मीर में अलगाववाद की समस्या शुरू हुई तब से जम्मू आधारित पार्टियों और सामाजिक संगठनों की यह मांग रही कि उन्हें कश्मीर से अलगकर पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जाए। इसके लिए प्रजा परिषद जैसी जम्मू की पार्टियां बड़े आंदोलन भी कर चुकी हैं। इसके अलावा विस्थापित कश्मीरी पंडित भी अपने लिए एक छोटे केंद्र शासित प्रदेश की मांग करते रहे हैं। इसके विरोधी इसे सांप्रदायिक आधार पर राज्य को बांटने की योजना बताकर इसकी आलोचना करते रहे। इस मांग को मानने में एक जोखिम यह था कि मुस्लिम बहुल कश्मीर के पूरी तरह अलग राज्य होने पर अन्य समुदायों का वहां के शासन में दखल बिल्कुल ही समाप्त हो जाए। शायद इसीलिए मोदी सरकार ने जम्मू और कश्मीर को साथ ही रखते हुए उसे केंद्र शासित राज्य का दर्जा देने की व्यवस्था की। इसी के साथ प्रदेश में परिसीमन का रास्ता भी साफ हो गया, जिसे कश्मीर की पार्टियों ने विधानसभा में प्रस्ताव लाकर 2026 तक टाल दिया था जबकि पूरे देश में 2006 में परिसीमन हुआ था। मोदी सरकार के ताजा फैसले के बाद जम्मू कश्मीर में चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार तो होगी, पर दिल्ली सरकार की तरह कई महत्वपूर्ण अधिकार उसके पास नहीं होंगे। इससे केंद्र सरकार को आतंकवाद को कुचलने में मदद मिलेगी।
अनुच्छेद 370, 35-ए और परिसीमन के जरिये घाटी के नेताओं ने कश्मीर में जेहाद को संरक्षण देकर कई गंभीर समस्याएं पैदा कीं। इन समस्याओं ने कश्मीर को हर प्रकार की देश विरोधी गतिविधि का गढ़ बना डाला और पाकिस्तान को भारत के अंदर युद्ध छेड़ने का मैदान मुहैया कराया। इसके चलते पिछले सात दशकों में हमें हजारों सैनिकों और नागरिकों को गंवाना पड़ा। अनुच्छेद 370 और 35-ए जैसे संवैधानिक प्रावधानों का लाभ उठाकर ही ऐसी स्थिति पैदा की गई कि लाखों कश्मीरी पंडितों और सिखों को रातोंरात अपना घरबार छोड़कर भागना पड़ा। 1947 में पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए शरणार्थियों को पूरे देश में नागरिकता मिल गई, लेकिन जम्मू-कश्मीर पर सात दशक से राज करते रहे घाटी के नेताओं ने वहां यह भी नहीं होने दिया। अन्याय की हद तब हुई जब कश्मीरी नेताओं ने विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए कुछ कालोनियां तक नहीं बनने दीं। यही नहीं घोर सांप्रदायिक माहौल ने घाटी में कट्टरपंथ को इतनी हवा दी कि बात अलगाववाद से आगे बढ़ती-बढ़ती बुरहान वानी और जाकिर मूसा के जरिये कश्मीरी युवाओं को बगदादी के इस्लामिक स्टेट जैसे शासन के सपने दिखाने तक आ गई। कश्मीर की मस्जिदें राजनीति का केंद्र बना दी गईं और कश्मीरी युवाओं का शेष भारत से संवाद तकरीबन खत्म कर दिया गया। इसका असर यह हुआ कि घाटी के युवाओं का जेहादी विचारों के अलावा किसी और प्रकार के विचारों के संपर्क ही खत्म हो गया। उम्मीद की जाती है कि ताजा संवैधानिक बदलावों के बाद शेष भारत के लोगों का वहां आना-जाना, बसना और व्यापार करना बढ़ेगा जिससे घाटी में ताजा हवा के झोंके आएंगे।
#Article370
#Article370Revoked
#KashmirIntegrated
#JammuAndKashmir

सत्य बनाम हिंसा का संघर्ष।

देश में एक समुदाय के लोगों की चुन-चुन कर हत्याएं पुरानी चुनौती का ही नया रूप हैं। इसे नई प्रेरणा सत्ताधारी दल के एक विवेकहीन फैसले से मिली। वास्तव में यह दशकों से जारी अन्याय है कि राज्यतंत्र विभिन्न मतों के शिक्षण, प्रचार-प्रसार या मान-अपमान पर भी एक मानदंड नहीं रखता। फलत: संविधान के अनुच्छेद 25 (1) में दी गई धार्मिक एवं धर्म प्रचार स्वतंत्रता का लाभ केवल मतांतरणकारी और विस्तारवादी मतवाद उठा रहे हैं। उन्हें अधिक राजकीय तवज्जो से देश के मूल धर्म के लोगों के लिए संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 19 भी व्यवहार में अनुपलब्ध से हो गए हैं।

एक तरह से यह लगता है कि नागरिक समानता का अधिकार, पंथ के आधार पर भेदभाव न झेलने का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार उन्हें रह ही नहीं गया है। गत दो महीने का परिदृश्य इसका जीवंत प्रमाण है। न केवल सत्ताधारी दल की प्रवक्ता को बिना किसी जांच के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से वंचित किया गया, बल्कि उसके प्रति समर्थन व्यक्त करने वाले निरीह नागरिकों की हत्याएं तक हुईं। इस पर न राज्यतंत्र, न बौद्धिक वर्ग, न मीडिया के बड़े अंग ने कोई संवेदना दिखाई।

इसी कारण उस उग्रता को और बल मिला, जिसने समझ लिया कि उसकी मनमानी और जिद के सामने राज्यतंत्र झुक गया है। एक न्यायाधीश ने तो उलटे पीड़ि‍ता को ही जली-कटी सुनाकर हिंसक प्रवृत्ति को उचित ठहराने जैसा काम कर दिया। तो क्या हिंसा का यह दौर अपनी मनमानी थोपने में सफल हो जाएगा? क्या मामूली सत्य कहना, जो सदियों से प्रतिष्ठित किताबों में ही लिखा है, असंभव हो जाएगा, क्योंकि एक उग्र समूह ऐसा नहीं चाहता? यह होना अब असंभव है।

आज का दृश्य तीन दशक पहले सलमान रुश्दी की किताब 'सेटेनिक वर्सेज' पर प्रतिबंध और लेखक पर मौत के फतवे के बाद के हालात की पुनरावृत्ति सी है। तब लंबे समय तक रुश्दी को सुरक्षा में रहना पड़ा और उनकी निंदा न करने वालों पर भी हमले हुए। पिछले तीन दशक का घटनाक्रम साफ दिखाता है कि उस फतवे और हिंसक अभियान ने दुनिया में नई जागृति पैदा की। लाखों लोगों ने पहली बार इस्लामी सिद्धांत और इतिहास जानने का प्रयत्न आरंभ किया। फिर तालिबानी राज, अमेरिका-यूरोप में आतंकी हमले, अलकायदा और इस्लामी स्टेट के कारनामों ने भी यह प्रक्रिया तेज की। रुश्दी ने पूछा था कि 'उस मतवाद में ऐसी कौन सी चीज है, जो हर कहीं इतनी हिंसक प्रवृत्तियां पैदा कर रही है?' उनका यही प्रश्न सत्य बनाम हिंसा के संघर्ष को निरूपित करता है।

मानवीयता की सहज भावना को उपेक्षित करके मनमानी हिंसा किसी मतवाद के लिए सम्मान हासिल नहीं कर सकती। इसीलिए रुश्दी मामले के बाद दुनिया में राजनीतिक इस्लाम के प्रति नकारात्मक भाव ही फैला। यहां तक कि विचारशील मुस्लिम युवाओं में भी प्रश्नाकुलता पैदा हुई। इस प्रकार बहुतेरी छिपी बातें भी व्यापक रूप से फैलीं, जो चार दशक पहले लोग न के बराबर जानते थे-आम मुसलमान भी नहीं। नि:संदेह रुश्दी प्रसंग या अलकायदा और इस्लामी स्टेट के कारनामों से दुनिया में भय भी फैला, पर कोई नहीं कह सकता कि इससे इस्लाम की प्रतिष्ठा बढ़ी। उलटे मुस्लिम देशों में भी संदेह बढ़ा।

सऊदी अरब में स्वयं शासक इसे महसूस कर रहे हैं कि शरीयत को हू-ब-हू लागू करना अब संभव नहीं। वे उसकी जकड़ से निकल, मानवता के साथ मिलकर चलने की जुगत कर रहे हैं। सऊदी अरब में लगभग पांच प्रतिशत लोगों ने अपने को नास्तिक बताया यानी वे इस्लाम नहीं मानते। ईरान में यह संख्या और अधिक है। तभी वहां कठोर इस्लामी कायदों के विरुद्ध आंदोलन, विशेषत: स्त्रियों का आंदोलन तेज हुआ है, जिसे पुरुषों का समर्थन भी हासिल है।

लोकतांत्रिक देशों में भी मुसलमानों द्वारा इस्लाम से दूर हटने के मामले तेज हो रहे हैं। मौलाना बिलाल फिलिप्स के अनुसार, इस्लाम छोड़ने की सुनामी आ सकती है। यह सब क्यों हो रहा है? निश्चय ही लोगों के अनुभव, अवलोकन, मनन ही इसके कारण हैं। भारत और पाकिस्तान में ही अनेक मुस्लिम खुद को एक्स-मुस्लिम (Ex Muslim) कहने लगे हैं।

नुपुर शर्मा (Nupur Sharma) की अभिव्यक्ति के पक्ष में भारत और पाक के एक्स मुस्लिम बोल रहे हैं। एक एक्स मुस्लिम के यूट्यूब चैनल पर छह घंटे का कार्यक्रम लगातार चला, जिसका विषय था-क्या मुसलमान शर्मिंदा हैं? कई मुसलमानों ने अपने नाम और तस्वीर के साथ इंटरनेट मीडिया पर लिखा कि नुपुर पर नाराज होने वाले उन किताबों का बुरा क्यों नहीं मानते, जिनमें वही बातें सगर्व लिखी हैं? ऐसे प्रश्नों का मुस्लिम नेता या मौलाना कोई सुसंगत उत्तर नहीं देते। इससे विवेकशील मुस्लिमों में भी संदेह बढ़ता है।

इस्लामी नेता तथ्यों पर निरुत्तर हैं। इसीलिए केवल धमकी और हिंसा की भाषा बोलते हैं, किंतु हिंसा सच्चाई को दबा नहीं सकती। आज इस्लाम को लेकर वाद-विवाद होना बदलते समय का बैरोमीटर है। तीन दशक पहले सलमान रुश्दी ने जो संकेतों में कहा था, वह आज असंख्य मुसलमान खुल कर लिख-बोल रहे हैं। बिना किसी राजकीय या सांस्थानिक समर्थन के। ऐसे में गैर मुसलमानों को धमकी से चुप रखना असंभव ही है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत समेत अधिकांश लोकतांत्रिक दुनिया में राजनीतिक दल ही गफलत में हैं। भारत में कोई दल नुपुर के बचाव में नहीं आया, जबकि उन्होंने कोई गैर-कानूनी काम नहीं किया था। इस तरह सभी दलों ने किसी विवाद के कानूनी समाधान के बदले मनमानी हिंसा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बदले हिंसक तानाशाही को बल देने का काम किया। वर्तमान में जिहादी मतवाद के विरुद्ध संघर्ष में यही सबसे कमजोर कड़ी है। घोर विडंबना है कि पीड़ि‍तों के प्रतिनिधि ही उत्पीड़क मानसिकता को राजनीतिक मदद दे रहे हैं।

यदि दुनिया भर के नेताओं ने आलोचक मुसलमानों-रुश्दी, तसलीमा, अयान हिरसी, वफा सुलतान आदि को सहयोग-सम्मान दिया होता तो मुस्लिम समाज में आत्मावलोकन गतिवान होता। इसके बजाय कट्टरपंथियों को ही बढ़ावा दिया गया है। यह कुछ ऐसा है, मानो सरकारी वकील अभियुक्त की पैरवी कर रहा हो, परंतु जैसे भारत समेत सारी दुनिया में लोकतांत्रिक नेताओं द्वारा समाजवाद का झंडा उठा लेने के बावजूद उसका झूठ, कपट, हिंसा और नकारापन अंतत: बेपर्दा हुआ, वैसा ही राजनीतिक इस्लाम के साथ भी होने वाला है। कालगति 'सत्यमेव जयते' ही स्थापित करने की दिशा में है। हिंसा या सत्ता का बल इसे अधिक समय तक नहीं रोक सकेगा।

- डॉ. शंकर शरण (५ अगस्त २०२२)

Wednesday, August 3, 2022

काले द्रविड़.... गौरे आर्य।

वर्षो से यह झूठ फैलाया जा रहा है कि आर्य विदेशी गौरे रंग के थे जबकि द्रविड़ (अनार्य) काले रंग के थे।

भारत में पहला उपग्रह बना. महान भारतीय गणितज्ञ के नाम पर इसका नामकरण किया गया आर्यभट्ट। तमिलनाडू के राजनेताओं ने यह कह कर विरोध किया कि आर्य भट्ट तो विदेशी ब्राह्मण था. उसके नाम को प्रयोग ना किया जाए।

लेख में दिए 2 चित्र 1725 AD के हैं जो जम्मू के संग्रहालय में हैं। बाएं चित्र में राजा बलि उनके गुरु शुक्राचार्य गौरे रंग के हैं।  परन्तु भगवान वामन (पुराणों के अनुसार माता अदिति और ऋषि कश्यप के पुत्र) काले रंग के हैं। 
वामपंथी इतिहासकार बलि को द्रविड़ बताते हैं इसलिए चित्रकार को उन्हें काला दिखाना चाहिए था। परन्तु सच यह है कि आर्य द्रविड़ का झूठ उत्तर और दक्षिण में मतभेद पैदा करने के लिए फैलाया गया।
दूसरे चित्र में हिरण्याक्ष और वाराह युद्ध का दृश्य है। पुराणों के अनुसार हिरण्याक्ष बलि का पूर्वज है अतः द्रविड़ है। परन्तु चित्र में हिरण्याक्ष को भी गौरा दिखाया गया है।
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कुछ दिन पहले MA की इतिहास की पुस्तक पढ़ रहा था। उसमे लिखा था प्राचीन भारत में जाति को वर्ण कहा जाता था। संस्कृत भाषा में वर्ण का अर्थ है रंग. अतः रंग के आधार पर उत्तर भारतीयों ने गौरे रंग वालों को ब्राह्मण/आर्य कहा। उत्तर भारत के काले रंग वाले व दक्षिण भारत के काले रंग वालों को भी शूद्र/दस्यु/द्रविड़ आदि नाम से कहा। यही बात UGC के इतिहास चैनल पर एक प्राध्यापिका बोल रही थी|
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रोमिला थापर ने भी अपनी पुस्तक 'भारत का इतिहास' में लिखा कि वर्ण व्यवस्था का मूल रंगभेद था। जाति के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द वर्ण का अर्थ ही रंग होता है।

सच्चाई इसके बिलकुल विपरीत है। सभी भाषाओं में अनेकार्थी शब्द होते हैं. वर्ण शब्द भी अनेकार्थी है. यहाँ वर्ण शब्द का अर्थ है चुनाव. गुण, कर्म और स्वभाव से वर्ण निश्चित होता था. जन्म से नहीं.
 
इस विषय में हमारे भ्रमित करने या संबंधित इतिहास का विकृतीकरण करने का कार्य मैकडानल ने विशेष रूप से किया। उन्होंने अपनी पुस्तक 'वैदिक रीडर' में लिखा-ऋग्वेद की ऋचाओं से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री से पता चलता है कि 'इण्डो आर्यन' लोग सिंधु पार करके भी आदिवासियों के साथ युद्घ में संलग्न रहे। ऋग्वेद में उनकी इन विजयों का वर्णन है। वे अपनी तुलना में आदिवासियों को यज्ञविहीन, आस्थाहीन, काली चमड़ी वाले व दास रंग वाले और अपने आपको आर्य-गोरे रंग वाले कहते थे। मैकडानल का यही झूठ आज तक हमारे विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है। 
ग्रिफिथ ने ऋग्वेद (1/10/1) का अंग्रेजी में अनुवाद करते हुए की टिप्पणी में लिखा है-कालेरंग के आदिवासी, जिन्हेांने आर्यों का विरोध किया। 'उन्होंने कृष्णवर्णों के दुर्गों को नष्ट किया। उन्होंने दस्युओं को आर्यों के सम्मुख झुकाया तथा आर्यों को उन्होंने भूमि दी। सप्तसिन्धु में वे दस्युओं के शस्त्रों को आर्यों के सम्मुख पराभूत करते हैं।''
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वैदिक वांग्मय और इतिहास के विशेषज्ञ स्वामी दयानंद सरस्वती जी का कथन इस विषय में मार्ग दर्शक है। 
स्वामीजी के अनुसार किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहाँ के जंगलियों से लड़कर, जय पाकर, निकालकर इस देश के राजा हुए
(सन्दर्भ-सत्यार्थप्रकाश 8 सम्मुलास)
जो आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही मैं भी मानता हूँ, आर्यावर्त देश इस भूमि का नाम इसलिए है कि इसमें आदि सृष्टि से आर्य लोग निवास करते हैं इसकी अवधि उत्तर में हिमालय दक्षिण में विन्ध्याचल पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रहमपुत्र नदी है इन चारों के बीच में जितना प्रदेश है उसको आर्यावर्त कहते और जो इसमें सदा रहते हैं उनको आर्य कहते हैं। (सन्दर्भ-स्वमंतव्यामंतव्यप्रकाश-स्वामी दयानंद)।
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 सर्वप्रथम तो हमें कुछ तथ्यों को समझने की आवश्यकता हैं:-
प्रथम तो 'आर्य' शब्द जातिसूचक नहीं अपितु गुणवाचक हैं अर्थात आर्य शब्द किसी विशेष जाति, समूह अथवा कबीले आदि का नाम नहीं हैं अपितु अपने आचरण, वाणी और कर्म में वैदिक सिद्धांतों का पालन करने वाले, शिष्ट, स्नेही, कभी पाप कार्य न करनेवाले, सत्य की उन्नति और प्रचार करनेवाले, आतंरिक और बाह्य शुचिता इत्यादि गुणों को सदैव धारण करनेवाले आर्य कहलाते हैं।
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आर्य का प्रयोग वेदों में श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए (ऋक १/१०३/३, ऋक १/१३०/८ ,ऋक १०/४९/३) विशेषण रूप में प्रयोग हुआ हैं।
अनार्य अथवा दस्यु किसे कहा गया हैं
अनार्य अथवा दस्यु के लिए 'अयज्व’ विशेषण वेदों में (ऋग्वेद १|३३|४) आया है अर्थात् जो शुभ कर्मों और संकल्पों से रहित हो और ऐसा व्यक्ति पाप कर्म करने वाला अपराधी ही होता है। अतः यहां राजा को प्रजा की रक्षा के लिए ऐसे लोगों का वध करने के लिए कहा गया है। सायण ने इस में दस्यु का अर्थ चोर किया है।
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यजुर्वेद ३०/ ५ में कहा हैं- तपसे शुद्रम अर्थात शुद्र वह हैं जो परिश्रमी, साहसी तथा तपस्वी हैं।
वेदों में अनेक मन्त्रों में शूद्रों के प्रति भी सदा ही प्रेम-प्रीति का व्यवहार करने और उन्हें अपना ही अंग समझने की बात कही गयी हैं और वेदों का ज्ञान ईश्वर द्वारा ब्राह्मण से लेकर शुद्र तक सभी के लिए बताया गया हैं।
यजुर्वेद २६.२ के अनुसार हे मनुष्यों! जैसे मैं परमात्मा सबका कल्याण करने वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो , उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिसे ‘अरण’ अर्थात पराया समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ, वैसे ही तुम भी आगे आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलते रहो।
अथर्ववेद १९.६२.१ में प्रार्थना हैं की हे परमात्मा ! आप मुझे ब्राह्मण का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्यारा बना दें।
यजुर्वेद १८.४८ में प्रार्थना हैं की हे परमात्मन आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिये, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिये, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिये और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये।
अथर्ववेद १९.३२.८ हे शत्रु विदारक परमेश्वर मुझको ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए, और वैश्य के लिए और शुद्र के लिए और जिसके लिए हम चाह सकते हैं और प्रत्येक विविध प्रकार देखने वाले पुरुष के लिए प्रिय कर।
इन सब तथ्यों को याद रखें और वामपंथी झूठ से बचें।

Tuesday, August 2, 2022

हिपेशिया: ईसाई उन्माद की शिकार।

लेखक श्री राजेश जी आर्य। 

एक स्वतन्त्र विचारों वाली महिला...
बहुत तर्क करने वाली, स्वतन्त्र विचार रखने वाली या बुद्धिमती स्त्रियाँ प्रायः हमेशा समाज को अखरती रही हैं। उनसे कभी अपेक्षा नहीं रक्खी गई कि वो उन विषयों पर भी अपनी राय रखेंगी जिन पर राय रखने का अधिकार सिर्फ पुरुष ही समझता है।

ऐसा ही कुछ प्राचीन अलेक्जेंड्रिया शहर की प्रसिद्ध महिला हिपेशिया के साथ भी हुआ था, जो गणित, खगोल शास्त्र, दर्शन शास्त्र सहित कई विषयों की विद्वान् थी। वह प्रकांड विद्वान् थीओन की बेटी थी। वो अपने पिता की विरासत को और आगे ले जा रही थी। विभिन्न विषयों की नए तरीके से (पारंपरिक से भिन्न) व्याख्या करने वाली हिपेशिया रूढ़िवादी अवैज्ञानिक विचार रखने वाले कुछ कट्टर ईसाईयों की आँख की जल्द ही किरकिरी बन गई। उससे नफरत करने वाले लोगों ने उसके बारे में तमाम तरह के भ्रम फैला दिए। एक दिन मौका हाथ लगने पर उससे चिढने वाले लोगों ने उसे घेर कर मार डाला। यह हत्या उन मजहबी तत्वों ने बहुत ही वीभत्स तरह से की। इससे उनकी स्वतन्त्र चिंतक हिपेशिया के प्रति बेहिसाब नफरत का पता चलता है। उसके कपडे फाड़ कर शरीर की खाल खीच ली और जला दिया गया। ज्ञान की उपासक एक नारी जिसके पास केवल तर्क, ज्ञान और बुद्धि का अस्त्र था सबको इतना खटकने लगी कि उसकी हत्या करके ही उन कट्टरपंथियों को चैन मिला। हिपेशिया की गलती यह थी कि वह स्त्री होकर भी तमाम शास्त्रों की विवेचना कर रही थी। उनकी अलग तरह से व्याख्या कर रही थी। स्वतन्त्र विचारक थी। ज्ञान व प्रकाश की उपासक थी। तर्क व बुद्धि से कार्य करती थी। वो उन तमाम क्षेत्रों में दखल दे रही थी जिन पर तत्कालीन समाज में केवल पुरुष का वर्चस्व था।

शायद दुनिया में अधिकतर जगह ऐसा है कि ज्यादा तर्क-वितर्क करती स्त्री को उस तरह से सम्मान नहीं मिल पाता है जिस तरह पुरुष को मिलता है। ऐसा करने वाला पुरुष जहाँ सबकी नज़रों में महान बन जाता है, बुद्धिमान समझा जाता है, वहीं ऐसी स्त्री हठी और कुतर्की का दर्जा पाती है। कोई भी धर्म, मजहब, सम्प्रदाय, संस्था, राज्य और समाज कितना उदार है, इसे इस पैमाने पर मापा जा सकता है कि वहाँ महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार होता है। नारी को शक्ति के रूप में देखने वाली धरती और स्त्री-पुरुष में समानता का सन्देश देने वाले वैदिक-हिन्दू धर्म पर यह आरोप लगता रहा है कि यहाँ महिलाओं के साथ सही व्यवहार नहीं होता है। पश्चिमी सभ्यता के उदारवाद की दुहाई देते नहीं थकने वाले भारतीय समाज के कुछ तबके, हिन्दू जीवन-दर्शन और पुरातन भारतीय संस्कृति को इसी आधार पर हीन दृष्टि से देखते रहे हैं, लेकिन क्या ये सच है? क्या सच में ईसाईयत, इस्लाम आदि मजहबों में महिलाओं को वो जगह मिली है, जिससे हिन्दू समाज ने आपने आपको वंचित रखा है? इसके लिए कुछ घटनाओं को देखना जरूरी है, तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है।

ईसाई पंथ में महिलाओं के उभरने के बाद उनका क्या हश्र किया जाता है, उसका एक उदाहरण हमें हिपेशिया के रूप में देखने को मिलता है। हिपेशिया एक ऐसा नाम है जिसकी कहानी सुन कर आज अनेकों चर्च में ननों के साथ हो रहे निर्मम व्यवहार भी फ़िके लगने लगेंगे। गणित, दर्शन सहित कई विषयों में विद्वान रही हिपेशिया चौथी-पाँचवी सदी में पूर्वी रोमन साम्राज्य के मिस्र में एक जाना-पहचाना नाम था। उनके आधुनिक विचार और उनका ज्ञान ईसाईयत के स्वयंभू पंडितों को काटने दौड़ता था। फिर एक दिन ऐसा आया, जब ईसाई मजहबी क्रूरता अपनी सारी हदें पार कर गई। कुछ कट्टर ईसाइयों ने उसका अपहरण कर लिया। उसके बाद उसे अलेक्जेंड्रिया नगर के एक धार्मिक स्थल में ले जा कर वहाँ उन्होंने उसकी हत्या कर दी, ज्ञान का दीपक बुझा दिया। निर्ममता अपनी सारी हदें तब पार कर गई जब उसके शरीर को इतने टुकड़ों में काटा गया कि शायद उनका कोई रिश्तेदार भी उन्हें पहचान नहीं पाया होगा।

ये मॉब-लिंचिंग का सबसे भयावह दृश्य था। उसके क्षत-विक्षत शव को पूरे शहर में घुमाया गया और फिर एक ख़ास जगह पर ले जा कर उसमें आग लगा दी। वह दृश्य व घटनाक्रम इतना डरावना था, इतना भयावह था कि इसने बिना सोशल मीडिया वाले उस युग में भी मिस्र सहित पूरे रोमन साम्राज्य को हिला दिया था। कट्टर मजहबी भीड़ द्वारा हत्या का यह एक ऐसा जीवंत उदाहरण है जो आज-कल की लाशों पर आग जलाकर प्रोपेगंडा से अपना हाथ सेंकने वाले कथित एक्टिविस्ट्स की सारी पोल खोल देगा।

हिपेशिया के बलिदान की करुण कथा को विस्तार से जानने के लिए पढ़ें पूर्व ईसाई पादरी एम. एम. मेंगसरिअन की रचना...

◆ The Martyrdom of Hypatia

1. “Hypatia” by John Toland (1720)

2. “Heroes and Martyrs of Freethought” by G.W. Foote (1874)

मानसिक गुलामी के 164 साल।

2 अगस्त 1858 को हम भारतीय इंग्लैंड की रानी के गुलाम हुए। 15 अगस्त की ट्रांसफर ऑफ पावर को हम धूमधाम से मनाते हैं परन्तु 2 अगस्त की ट्रांसफर ऑफ पावर को हम भुला देना चाहते हैं। कही इस का कोई जिक्र ही नहीं होता। बस अंतर इतना है कि पहली में सत्ता भारतीयों से गोरे अंग्रेजों के हाथ में आई तो दूसरी में काले अंग्रेजों के हाथ में।
आज 164 साल बाद भी हम मानसिक गुलाम हैं। जो आज भी ब्रिटिश के गुण गाते हैं उन्हें शायद मेरी बात से कोई अन्तर न पड़े परन्तु जो स्वाभिमान रखते हैं वे जरूर सोचेंगे।
गुलामी की निशानियां

1 भारतीय पुलिस

भारतीय पुलिस आज भी 1861 के कानून से चलती है। जहाँ तक मुझे पता है कि तब संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर तो पैदा भी नहीं हुए थे। जब भी संविधान सुधार की बात करो तो कुछ लोग चिल्लाने लगते हैं कि बाबा साहब का संविधान बदल रहे हैं।

भारतीय पुलिस का चाल, चरित्र और अधिनायकवाद आज भी 150 साल पुराना ही है। हाथ में डंडा लेकर जनता को पशु की तरह हांकना आज भी जारी है। पुलिस और उसके रोजनामचे की भाषा देखिए गुलामी स्पष्ट नजर आएगी। जांच के अधिकांश कार्य वही पुराने ढर्रे पर होते हैं। पुलिसकर्मियों को सर्वाधिक भ्रष्ट माना जाता है। अपराध रोकने का एकमात्र तरीका शिकायत को न लिखना है।

भारत में औसत 1 लाख पर 136 पुलिस कर्मी हैं। परन्तु सच्चाई अलग है। इसमें 136 में से 36 तो राजनेताओं की सुरक्षा में ही लगे हैं। कुछ बड़े अधिकारियों के घर में पानी भरते हैं तो कुछ अधिकारियों के बॉडी गार्ड। बाकी की ड्यूटी के घण्टों का कुछ पता नहीं। कभी कभी तो 24 घण्टे की ड्यूटी। तमाशा देखिए। दिल्ली दंगों में हथियार बन्द गुंडों के आगे निहत्थे पुलिस वालों को भेज दिया। इस तरह देखें तो जांच और शांति व्यवस्था के लिए पुलिस बेहद कम है।

2 न्याय व्यवस्था

भारतीय उच्च न्यायालय व्यवस्था भी मूलतः 1861 के कानून पर आधारित है। यद्यपि कुछ सुधार हुए हैं परन्तु वह बेहद कम हैं। उच्च न्यायालय में बहस इंग्लिश में होती है जिसे न वादी समझता है और न ही प्रतिवादी। DTC के एक बस कंडक्टर को40 साल केस लड़ना पड़ा 5 पैसे (सही पढा 5 पैसे ) के गबन के लिए। राजस्थान के 1 भूतपूर्व राजा के हत्या के केस को 35 साल बाद न्याय मिला परन्तु आतंकी याकूब मेनन के लिए रात को 2 बजे सुप्रीम कोर्ट खुलता है और अर्बन नक्सली के लिए रात को 2 बजे हाईकोर्ट के जज के घर में कोर्ट लगती है। भारतीय जेलों में 33%कैदी सजा प्राप्त हैं तो 66% विचाराधीन। क्योंकि ये व्यवस्था हमें गुलाम बनाने के लिए बनाई गई थी।

3
भारतीय शिक्षा कानून 1858

प्रारंभिक शिक्षा में भी पिछले 150 साल में बहुत कम सुधार हुआ है। उसका कारण मानसिक गुलामी है। आज भी जब कुछ आधार भूत शिक्षा ढांचे में बदलाव की बात होती है तो शिक्षा के भगवाकरण का नाम देकर इसका विरोध किया जाता है।
 गुलाम तन्त्र
आज भगत सिंह को आतंकवादी बोला जाता है और हम देखते रह जाते हैं।
हम आज भी कितने मानसिक गुलाम है इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि मीडिया आतंकी अफजल गुरु के बेटे का इंटरव्यू लेती है परन्तु तुकाराम अम्बोले की बेटी का नहीं दिखाती। कोई आतंकी गरीब हेडमास्टर का बेटा बताया जाता है तो दूसरा गणित का अध्यापक और तीसरा सेना से पीड़ित। 

अब सिस्टम के निकम्मेपन का उदाहरण देखिए और मानसिक गुलामी तोड़िए।
देविका रोटवांन वही लड़की है जिसकी गवाही पे कसाब को फांसी हुई थी .....आपको बता दें की देविका मुंबई हमलों के दौरान महज 9 साल की थी ..उसने अपनी आँखों से कसाब को गोली चलाते देखा था ..लेकिन जब उसे सरकारी गवाह बनाया गया तो उसे पाकिस्तान से धमकी भरे फोन कॉल आने लगे .....देविका की जगह अगर कोई और होता तो वो गवाही नहीं देता ..लेकिन इस बहादुर लड़की ने ना सिर्फ कसाब के खिलाफ गवाही दी बल्कि सीना तान के बिना किसी सुरक्षा के मुंबई हमले के बाद भी 5 साल तक अपनी उसी झुग्गी झोपडी में रही ...लेकिन इस देश भक्ति के बदले उसे क्या मिला ??....आपको बता दें की देविका रोटवान जब सरकारी गवाह बनने को राजी हो गयी तो उसके बाद उसे उसके स्कुल से निकाल दिया गया ..क्यों की स्कुल प्रशाशन का कहना था की आपकी लड़की को आतंकियों से धमकी मिलती है ..जिससे हमारे दूसरे स्टूडेंट्स को भी जान का खतरा पैदा हो सकता है ....देविका के रिश्तेदारों ने उससे दूरी बना ली ..क्यों की उन्हें पाकिस्तानी आतंकियों से डर लगता था जो लगातर देविका को धमकी देते थे ....देविका को सरकारी सम्मान जरूर मिला ..उसे हर उस समारोह में बुलाया जाता था जहाँ मुंबई हमले के वीरों और शहीदों को सम्मानित किया जाता था ..लेकिन देविका बताती है की सम्मान से पेट नहीं भरता ...मकान मालिक उन्हें तंग करता है उसे लगता है की सरकार ने देविका के परिवार को सम्मान के तौर पे करोडो रूपये दिए हैं ..जबकि असलियत ये हैं की देविका को अपनी देशभक्ति की बहुत भरी कीमत चुकानी पड़ी है ...देविका का परिवार देविका का नाम अपने घर में होने वाली किसी शादी के कार्ड पे नहीं लिखवाता ..क्यों की उन्हें डर है की इससे वर पक्ष शादी उनके घर में नहीं करेगा ..क्यों की देविका आतंकियों के निशाने पे है ......देविका के परिबार ने अपनी आर्थिक तंगी की बात कई बार राज्य सरकार और पीएमओ तक भी पहुचाई लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात निकला ...देविका की माँ 2006 में ही गुजर गयी है ...देविका के घर में आप जायेंगे तो उसके साथ कई नेताओं ने फोटो खिचवाई है ..कई मैडल रखे हैं ..लेकिन इन सब से पेट नहीं चलता ...देविका बताती है की उसके रिश्तेदारों को लगता है की हमें सरकार से करोडो रूपये इनाम मिले है ..लेकिन असल स्थिति ये हैं की दो रोटी के लिए भी उनका परिवार महंगा है .....आतंकियों से दुश्मनी के नाम पर देविका के परिवार से उसके आस पास के लोग और उसकी कई दोस्तों ने उससे दूरी बना ली ..की कहीं आतंकी देविका के साथ साथ उन्हें भी ना मार डाले 
........महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और डीएम ऑफिस के कई चक्कर लगाने के बाद उधर से जवाब मिला की हमारे जिम्मे एक ही काम नहीं है .......देविका के पिता बताते हैं की उन्होंने अधिकारीयों से कहा की cm साहब ने मदद करने की बात कही थी .....सरकारी बाबू का कहना है की रिटेन में लिखवा के लाइए ........तब आगे कार्यवाही के लिए भेजा जाएगा ..........
अब आप बताइये की क्या ऐसे देश ..ऐसे समाज ..और ऐसी ही भ्रष्ट सरकारी मशनिरी के लिए देविका ने पैर में गोली खायी थी ...??उसे क्या जरूरत थी सरकारी गवाह बनने की ??उसे स्कुल से निकाल दिया गया ??क्यों की उसने एक आतंकी के खिलाफ गवाही दी थी .....आप बताइये अगर देशभक्ति कीमत ऐसे ही चुकाई जाती है तो मै यही कहूँगा की कोई जरूरत नहीं है देशभक्त बनने की .....ऐसे खुद गरज समाज ..सरकार ....और नेताओं के लिए अपनी जान दाव पे लगाने की कोई जरूरत नहीं है ...देविका तुमने बिना मतलब ही अपनी जिन्दगी नरक बना ली . एक वेश्या सन्नी लियोन के ऊपर बायोपिक बनाने वाला बॉलीवुड के पास पैसे हैं तो देविका के मामले में खाली हाथ। देविका को मिलने के लिए बॉलीवुड निर्देशक राम गोपाल वर्मा ने देविका को अपने घर बुलाया लेकिन उसे आर्थिक मदद देना तो दूर उसे ऑटो के किराए के पैसे तक नहीं दिए ....ऐसा संवेदन हीन है अपना समाज।

Monday, August 1, 2022

श्रीमद्भगवद्गीता में आतंकवाद नहीं है।

लेखक श्री विष्णु शर्मा 
प्रायः अनेक प्रकार के विभिन्न विचारधारा वाले लोग गीता पर यह आक्षेप लगाते रहते हैं कि गीता में जिहाद है और भीषण नरसंहार का आदेश दिया गया है किंतु आश्चर्य की बात तो ये है कि ऐसे लोगों ने कभी गीता को उठाकर तक भी देखा नहीं होता.. केवल सुनी सुनाई बातों पर ही मुहर लगाकर ये असत्य प्रचारित करने लगते हैं जबकि सच इसके बिल्कुल ही विपरीत होता है। आइए देखें सत्य क्या है : - 
जब भगवान श्रीकृष्ण पांडवों का अधिकार मांगने हस्तिनापुर जाते हैं तो दुर्योधन साफ इनकार कर देता है और कहता है - 
' सूच्यग्रं नैव दास्यामि विना युद्धेन केशव! ' 
अर्थात ' मैं बिना युद्ध किए सुईं की नोंक जितनी भूमि नहीं दूंगा ' 
इस वाक्यांश से दुर्योधन की नीयत साफ पता चलती है कि यदि उस से ज़रा सी भी जमीन चाहिए तो उस से युद्ध करना होगा.. इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है 
इस प्रकार युद्ध की नींव दुर्योधन शांति प्रस्ताव को ठोकर मारकर ही रख देता है
और भीष्म द्रोण कृप आदि भी विवश होकर उसका ही साथ देते हैं और अपनी विवशता इन 
शब्दों में व्यक्त करते हुए लगभग सभी एक ही बात कहते हैं - 
 अर्थस्य पुरुषो दासो दासत्वर्थो न कस्यचित्।
 इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥ 
अतस्त्वां क्लीववद् वाक्यं ब्रवीमि कुरुनन्दन ।
भृतोऽस्म्यर्थेन कौरव्य युद्धादन्यत् किमिच्छसि॥
महाराज ! पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है। यह सच्ची बात है। मैं कौरवों के द्वारा अर्थ से बँधा हुआ हूँ ॥ 
कुरुनन्दन ! इसीलिये आज मैं तुम्हारे सामने नपुंसक के समान वचन बोलता हूँ। धृतराष्ट्र के पुत्रों ने धन के द्वारा मेरा भरण-पोषण किया है। इसलिये ( तुम्हारे पक्ष होकर ) उनके साथ युद्ध करनेके अतिरिक्त तुम क्या चाहते हो,यह बताओ।। 
( यह कथन भीष्म, द्रोण , कृप और शल्य का है, पुनरुक्ति दोष न हो इसलिए एक ही बार दिया जा रहा है , विस्तृत जानकारी के लिए महाभारत के भीष्म पर्व का भीष्म वध पर्वाध्याय पढ़ें जोकि महाभारत में गीता के तुरंत बाद ही है )
इस से इन सब विवशता पता चलती है साथ ही ये भी ज्ञात होता है कि ये सभी जानते थे कि ये सभी गलत पक्ष का साथ दे रहे हैं और गलत पक्ष का साथ देने वाला भी उतना ही गलत होता है जितना कि गलत करने वाला।
अब आते श्रीमदभगवत गीता पर - 
यद्यपि ( हालांकि) अर्जुन विषाद में डूबकर शोकाकुल हो जाते हैं फिर भी वे कौरवों को आततायी और दुष्ट मानते हैं : - 
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याजनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः॥
" हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के इन पुत्रों का हनन करने से हमें क्या सुख प्राप्त हो सकता है। यद्यपि ये आततायी हैं, दुष्ट हैं तो भी इहें मारने से हमें पाप ही लगेगा। "  ( गीता - 1/36 ) 
यहां आततायी शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। वसिष्ठ स्मृति में आततायी के लक्षण इस प्रकार दिए गए हैं - 
अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिः धनापहः । क्षेत्रदारहरश्चैव षडेत आततायिनः ॥' 
 अर्थात - 
1. घर में आग लगाने वाला 
2. विष देने या खिलाने वाला 
3. शस्त्र हाथ में लेकर मारने के लिए आने वाला 
4. धन लूटने वाला 
5. खेत या भूमि लूटने वाला 
6. स्त्री हरण करने वाला 
ये सभी छह प्रकार का काम करने वाले लोग आततायी हैं और कौरवों में आततायियों के छह के छह लक्षण घट रहे थे -
1. लाक्षागृह में आग लगवाना 
2. भीमसेन को धोखे से विष देना 
3. हमेशा युद्ध में शस्त्र लेकर मारने को तैयार रहना 
4. द्यूत ( जुए) में पांडवों का धन , राजपाट हथिया लेना 
5. जयद्रथ द्वारा  द्रौपदी का हरण करना एवं दुर्योधन तथा दुशासन द्वारा भरी सभा में द्रौपदी का अपमान करना तथा उसे निर्वस्त्र करने की कोशिश करना 
6. जीविका के लिए पांच गांवों तक का न देना 
इस प्रकार समस्त कौरव मारे जाने योग्य थे क्योंकि वे सभी आततायी थे। मनु स्मृति में भी आततायी को देखते ही मारने का आदेश है - 
‘आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।' 
इसलिए भगवान श्री कृष्ण इन सबको वध्य मानते थे क्योंकि जिस देश के गणमान्य लोग ही पापी हों वहां की प्रजा भी धीरे धीरे वैसी ही हो जाती है।