Sunday, July 31, 2022

हिन्दू घृणा।

अभी एक फ़िल्म आई जिसमे खलनायक त्रिपुण्ड (तिलक) लगाए हुए है। यह फ़िल्म सुपर फ्लॉप हो गई है। यह जागृति का शुभ संकेत है।

अधिकाँश लोग मानते हैं कि परदे पर दिखाई देने वाला अभिनेता सच में भी इतना अधिक शक्तिशाली होगा जैसा वह फिल्म में दिखाया जाता है.उनका मानना है कि फिल्म के हीरो हिरोइन सच में उतने ही इमानदार/ दयालु/ बुद्धिमान व चरित्रवान होते हैं जितने कि उन्हें परदे पर दिखाया गया है.  

परन्तु सत्य इससे अलग है। फिल्मो के सितारे निजी जिन्दगी में हीरो नहीं होते. अमरीशपुरी, प्रेम चोपड़ा या शक्ति कपूर वास्तविक जीवन मे अपराधी नहीं होते। परन्तु सामान्य व्यक्ति यही मानता है। इसलिए कभी किसी खलनायक को विज्ञापन में नहीं लिया जाता। 

पद्म श्री से सम्मानित फिल्मी हीरो यह बताने के 5 10-करोड़  रूपए लेता है कि आपके 10 रूपए के विमल पान मसाला मे 3 लाख रूपए किलो का केसर है। मैगी का सैम्पल फेल होने पर एक हीरोइन ने कहा कि हमारे घर में कोई लैब नही लगी है।  सच यह है कि आपको उल्लू बना हैं।  फेयर एंड लवली से कोई गोरा नहीं हुआ। गोरेपन की क्रीम में कभी काली हीरोइन नहीं ली जाती। होर्लिक्स और कोम्प्लान आदि से कोई लम्बा नहीं होता। थम्सअप (Thums UP) में कोई तूफ़ान नहीं होता जैसा सलमान खान बताता है. ड्यू पीने से डर नहीं भागता. स्प्राईट पीने से कोई स्मार्ट नहीं होता. मेन्टोस से दिमाग की बत्ती नहीं जलती.

सलीम जावेद लिखित फिल्म में शोले फिल्म में वृद्ध मुसलमान (ए के हंगल) को बेटे की मौत पर नमाज के लिए जाते दिखाते हैं तो नायक वीरू (धर्मेन्द्र) को शिव मन्दिर में लडकी छेड़ते हुए दिखाना. 
बालीवुड‬ और टीवी सीरियल के नजरिए से ‪हिन्दू‬ को कैसे देखा जाता है एक झलक:----
ब्राह्मण - ढोंगी पंडित, लुटेरा,
‪राजपूत - अक्खड़, मुच्छड़, क्रूर, बलात्कारी
वैश्य या साहूकार - लोभी, कंजूस,
गरीब हिन्दू - कुछ पैसो या शराब की लालच में बेटी को बेच देने वाला चाचा या झूठी गवाही देने वाला

जबकि दूसरी तरफ मुस्लिम- अल्लाह का नेक बन्दा, नमाजी, साहसी, वचनबद्ध, हीरो-हीरोइन की मदद करने वाला टिपिकल रहीम चाचा या पठान।
ईसाई - जीसस जैसा प्रेम, अपनत्व, हर बात पर क्रॉस बना कर प्रार्थना करते रहना।

ये बॉलीवुड इंडस्ट्री, सिर्फ हमारे धर्म, समाज और संस्कृति पर घात करने का सुनियोजित षड्यंत्र है और वह भी हमारे ही धन से ।
सलीम - जावेद की जोड़ी की लिखी हुई फिल्मो को देखे, तो उसमे आपको अक्सर बहुत ही चालाकी से हिन्दू धर्म का मजाक तथा मुस्लिम / इसाई / साईं बाबा को महान दिखाया जाता मिलेगा.
इनकी लगभग हर फिल्म में एक महान मुस्लिम चरित्र अवश्य होता है और हिन्दू मंदिर का मजाक तथा संत के रूप में पाखंडी ठग देखने को मिलते है.
"दीवार"* का अमिताभ बच्चन नास्तिक है और वो भगवान् का प्रसाद तक नहीं खाना चाहता है, लेकिन 786 लिखे हुए बिल्ले को हमेशा अपनी जेब में रखता है और वो बिल्ला भी बार बार अमिताभ बच्चन की जान बचाता है.
जंजीर"* में भी अमिताभ नास्तिक है और जया भगवान से नाराज होकर गाना गाती है लेकिन शेरखान एक सच्चा इंसान है.
फिल्म *"शान"* में अमिताभ बच्चन और शशिकपूर साधू के वेश में जनता को ठगते है लेकिन इसी फिल्म में "अब्दुल" जैसा सच्चा इंसान है जो सच्चाई के लिए जान दे देता है.
क्या आपको बालीवुड की वे फिल्मे याद हैं जिनमे फादर को दया और प्रेम का मूर्तिमान स्वरूप दिखाया जाता था तो हिन्दू सन्यासियों को अपराधी. जो मिडिया आशाराम पर पागल हो गया था वह आज चुप है. बॉलीवुड प्राय: सदा फिल्मों में हिन्दू पात्रों के नाम वाले कलाकारों को किसी इस्लामिक मज़ार या चर्च में प्रार्थना करते दिखाता हैं।
किसी मुसलिम या ईसाई पात्र को कभी किसी हिन्दू मंदिर में जाकर प्रार्थना करता दिखाना तो बहुत दूर की बात हैं। इसके विपरीत वह सदा हिन्दू मान्यताओं का परिहास जैसे पंडित को या भगवान की मूर्ति को रिश्वत देना, शादी के फेरे जल्दी जल्दी करवाना, मंदिर में लड़कियाँ छेड़ना, हनुमान जी अथवा श्री कृष्णा जैसे महान पात्रों के नाम पर चुटकुले छोड़ना आदि आदि दिखाता हैं। परिणाम यह निकलता है कि हिन्दुओं के लड़के लड़कियां हिन्दू धर्म को ही कभी गंभीरता से लेना बंद कर देते है। 

यहाँ मैं सिनेमा विज्ञापन के इतिहास की एक रोचक जानकारी देता हूँ. सिनेमा हाल के शुरूआती दिनों में योरूप के सिनेमा में सिगरेट का विज्ञापन दिखाया जाता. उस विज्ञापन में एक घुड़सवार घोड़े पर पर बैठा है. घोड़ा भी बहुत मन्द मन्द चल रहा है और सवार भी सुस्त दिखाई देता है. तभी घुड़सवार सिगरेट जलाता है. सिगरेट का कश लगाते ही घुड़सवार तन कर बैठ जाता है और घोड़ा तेजी से दौड़ने लगता है. इस विज्ञापन ने रातों रात सिगरेट की बिक्री कई गुना बढ़ गई.

25 साल पहले गुलशन कुमार सरे आम गोलियों से मार दिया गया क्योंकि इन्होंने दाऊद जैसे गुण्डो के आगे झुकने से मना कर दिया था। ये बॉलीवुड के इस्लामी करण में बहुत बड़ी बाधा थे। यह वह हिन्दू व्यापारी था जो अपना आयकर भरता था। कुछ वर्ष तक भारत का सबसे बड़ा आयकर देने वाला व्यक्ति रहा । क्योकि इसने दाऊद के आगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया था इसलिए इसे जान से मार दिया गया। परंतु न तो भारत सरकार इसके कत्ल के आरोपी नदीम को भारत ला पाई और न ही इसके परिवार को न्याय मिला।
गुलशन कुमार की हत्या के ठीक 6 महीने बाद 1998 में साईं नाम के एक नए भगवान् का अवतरण हुआ, इसके कुछ समय बाद 1999 में बीवी नंबर 1 फिल्म आई जिसमे साईं के साथ पहली बार राम को जोड़कर ॐ साईं राम गाना बनाया था, न किसी हिन्दू संगठन का इस पर ध्यान गया और न किसी ने इस पर आपत्ति की, पहला षड्यंत्र कामयाब
इस नए भगवान् की एक खासियत थी, इसे लोग धर्मनिरपेक्ष अवतार कहते थे, जिसने हिन्दू मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया था, वो अलग बात है की उसी चिलम बाबा उर्फ़ साईं बाबा के समय में कई दंगे हुए, बंगाल विभाजन हुआ, मोपला दंगे हुए, मालाबार में हजारो हिन्दुओ को काटा और साईं के अल्लाह का भक्त बना दिया गया, अब इस नए भगवान् की एक और खासियत थी, नाम हिन्दुओ का प्रयोग हो रहा था और जागरण में अल्लाह अल्लाह गाया जा रहा था
हिन्दुओं की संतानों की स्थिति अर्ध नास्तिक जैसी हो जाती है। जो केवल नाममात्र का हिन्दू बचता है। परन्तु उसका हिन्दू समाज की मान्यताओं एवं धर्मग्रंथों में कोई श्रद्धा नहीं रहती। ऐसी ही संतानें लव जिहाद और ईसाई धर्मान्तरण का शिकार बनती हैं।
क्या इसे हम बॉलीवुड जिहाद कहे तो कैसा रहेगा?

Monday, July 25, 2022

अर्मेनियाई नरसंहार की ह्रदय विदारक कथा।

कैसे मुस्लिम तुर्की ने सिर्फ दो वर्षों में एक सम्पूर्ण प्राचीन ईसाई सभ्यता को नष्ट कर दिया

इस्लाम के अधूरे एजेंडे - केस 

-पंकज सक्सेना 

यह एक भयावह कहानी है कि मुसलमान बहुल देश अल्पसंख्यकों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं ।

२०वी सदी का पहला नरसंहार यूरोप में नाजियों द्वारा यहूदियों का नरसंहार नहीं था। पहला नरसंहार इस्लामी तुर्क साम्राज्य ने १९१५-१७ से प्राचीन ईसाई राष्ट्र अर्मेनिआ के विरुद्ध किया गया था।

आज जो पूर्वी तुर्की है वह पहले अर्मेनियाई ईसाइयों की मातृभूमि हुआ करता था| इस्लाम अथवा तुर्क यहाँ पर बाद में आये| अर्मेनिया एक प्राचीन ईसाई साम्राज्य है और ईसाईयत को राज्य के मज़हब के रूप में स्वीकार करने वाला पहला महान साम्राज्य है।

यह अर्मेनियाई ऑर्थोडॉक्स चर्च का अनुसरण करता है और प्रारंभिक ईसाई चर्चों और समुदायों के सबसे प्राचीन और विशिष्ट समूह में से एक है। उनकी त्रासदी यह थी कि फर्टाइल क्रीसेंट के शीर्ष पर वे पूर्व से पश्चिम को पार करने वाले महान साम्राज्यों के चौराहे पर थे।

येरेवन, अर्मेनियाई राजधानी, विश्व के सबसे पुराने बसे हुए नगरों में से एक है। अर्मेनियाई पहले मूर्तिपूजक हुआ करते थे। और ईसाई धर्म में उनके धर्मांतरण के बाद भी उन्होंने कई पेगन रीतियों को बनाए रखा जैसे कि माउंट अरारत के प्रति उनकी श्रद्धा।

मुस्लिम तुर्कों के अनातोलिया (जो कि अब तुर्की है) में फैलने के बाद अर्मेनिया को अपने लंबे इतिहास में नियमित रूप से मुसलमान देशों हाथों नरसंहार का सामना करना पड़ा। पड़ोसी देशों के इस्लामीकरण के बाद यह पूर्व में शिया इस्लाम और पश्चिम में सुन्नी तुर्की के बीच घिर गया।

१९वी शताब्दी में पूर्वी अर्मेनिया रूसी कब्जे में आ गया, जिन्होंने उन पर अत्याचार तो किया लेकिन रूस के अधीन अर्मेनियाई ईसाईयत सुरक्षित थी। पश्चिमी अर्मेनिया जो कि सुन्नी तुर्क साम्राज्य के द्वारा शासित था, अत्याचार, नरसंहार, अर्मेनियाई महिलाओं का बलात्कार आदि चलता रहा।

 १८९६ में तुर्क सुल्तान हामिद द्वितीय ने अर्मेनियाई ईसाइयों के सामूहिक नरसंहार का आदेश दिया, और ३ लाख र्मीनियाई मारे गए। यह आने वाले अर्मेनियाई नरसंहार का अग्रदूत था। १९०९ में अदाना नरसंहार हुआ जिसमें ३०,००० अर्मेनियाई ईसाइयों को तुर्की के मुसलमानों ने मार डाला।

१९०८ में तुर्की में राजनीतिक क्रांति हुई जिसमें तुर्की नेताओं की एक नई फसल - यंग तुर्क -देश पर शासन करने के लिए आई। 'आधुनिक' नाम के चलते वे वास्तव में एक 'शुद्ध आधुनिक राष्ट्र' बनाने के लिए अल्पसंख्यकों से 'तुर्की को शुद्ध' करने के लिए उत्सुक थे, भले ही नरसंहार द्वारा|

१९१४ में प्रथम विश्व युद्ध के प्रारम्भ में अर्मेनियाई ईसाइयों के छिटपुट नरसंहार एक व्यवस्थित नरसंहार में बदलने वाले थे। अर्मेनियाई लोगों पर रूसी सेना के साथ गुप्त रूप से षडयंत्र रचने का आरोप लगाया गया था, जो स्पष्ट रूप से एक झूठा आरोप था।

ऐसे समाज में तथ्य का अर्थ नहीं जो गैर-मुसलमानों को दोष देने के लिए तैयार हैं। तुर्की मुस्लिम सेना रूस के विरुद्ध हारी, लेकिन पीछे हटते हुए, उन्होंने अर्मेनियाई ईसाइयों का नरसंहार किया जो तुर्की के नागरिक थे। इसमें सेना को आम तुर्की के मुसलमानों का पूरा समर्थन था।

अर्मेनियाई ईसाइयों का सामूहिक नरसंहार दिसंबर १९१४ तक प्रारम्भ हो गया था। तुर्की मुस्लिम राज्य अर्मेनियाई लोगों को पूर्णतः समाप्त करना चाहता था। अर्मेनियाई लोगों को 'सभी हथियार सौंपने' के लिए कहा गया। ‘विरोध’ पर उन्हें मार दिया जाना था।

अगर उन्होंने हथियार नहीं सौंपे, तो उन पर 'तुर्की के आदेशों की अवहेलना' करने का आरोप लगाया गया और उन्हें सामूहिक रूप से मार दिया जाएगा। वान, पूर्वी तुर्की का प्राचीन नगर १९१५ के ईसाईयों के नरसंहार का सबसे पहले केन्द्रों में से एक बना|

मई १९१५ में जब रूसी वहां पहुंचे तो उन्हें अर्मेनियाई ईसाइयों की ५५,००० शव मिले, जो नरसंहार से पहले वैन जनसँख्या के आधे से अधिक थी। १५ जून तक अर्मेनियाई ईसाइयों के इस प्राचीन गढ़ में कुल मिलाकर केवल १० ईसाई बचे थे।

जब तुर्क सेनाएं ईसाइयों का नरसंहार करने के लिए अर्मेनियाई गांवों में प्रवेश करती थीं, तो पुरुषों को तुरंत मार दिया जाता था और महिलाओं का बलात्कार और अपहरण कर लिया जाता था। फिर आस-पास के नागरिक और कुर्द मुसलमान ईसाई बच्चों को दासता के लिए ले जाते थे।

नरसंहार का आयोजन करने वाले तुर्की मुस्लिम संगठन को संघ और प्रगति समिति (सीयूपी) कहा जाता था। (क्या क्रूर विडंबना है!) सीयूपी बिलकुल भी नहीं चाहती थी कि आधुनिक तुर्की में अर्मेनियन ईसाईयों को कोई भी स्थान मिले, चाहे इसके लिए उनका नरसंहार ही क्यों न करना पड़े।

ओटोमन मुस्लिम रिकॉर्ड के अनुसार समाधान यह था: अर्मेनियाई ईसाई जनसँख्या को ५% से कम करना था उन स्थानों पर भी जहां पर अर्मेनियाई ५०% से अधिक थे| तुर्की राज्य ने सहमति व्यक्त की कि नरसंहार के बिना यह लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

युद्ध क्षेत्र में अर्मेनियाई ईसाई जहां कहीं भी थे, उनका नरसंहार किया गया। शांति क्षेत्र में रणनीति अलग थी। शांति क्षेत्र अर्मेनियाई लोगों को ' सीरियाई रेगिस्तान की ओर मार्च ' करने का आदेश दिया गया था , क्योंकि युद्ध के दौरान उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता था।

उन्हें कहाँ ले जाया जा रहा था? सीरियाई रेगिस्तान की ओर! तुर्क मुस्लिम राज्य विश्व में अब तक का सबसे बर्बर राज्य था। सहिष्णुता का कोई दिखावा भी वहाँ नहीं था। अर्मीनियाई लोगों को मरुस्थल में भेजना उनका नरसंहार था और तुर्कों ने गर्व से स्वीकारा।

अर्मेनियाई ईसाइयों द्वारा खाली किए गए घरों, गांवों और पूरे कस्बों पर अधिकार करने के लिए, तुर्की राज्य रचनात्मक समाधान लेकर आया। उन्होंने पूरे मध्य पूर्व और काकेशस से मुस्लिम जनजातियों को तुर्की में बसने के लिए अर्मेनियाई ईसाई घरों को घेरने के लिए आमंत्रित किया।

काकेशस की मुस्लिम जनजातियों जैसे चेचेन और सिरकासियन और सीरिया के कुर्दों ने तुर्की के आह्वान का उतार भी दिया। गैर-मुसलमानों के प्रति इस्लामी घृणा ने इन नागरिकों को अकल्पनीय बर्बरता से भर दिया और उन्होंने अर्मेनियाई लोगों के नरसंहार में ओटोमन राज्य की सहर्ष सहायता की।

तुर्क मुस्लिम अधिकारियों ने मुस्लिम इमामों को अर्मेनियाई ईसाइयों को मारने के लिए प्रवासी मुस्लिम जनजातियों को प्रोत्साहित करने के लिए नियुक्त किया। उन मुसलमानों को वित्तीय पुरस्कार दिए गए जिन्होंने राज्य के आह्वान का उत्तर दिया और अर्मेनियाई ईसाइयों को मारा।

१९१५ में नरसंहार प्रारम्भ हुआ। इस बार तुर्क मुसलमानों के लिए अर्मेनियाई संपत्तियों को हड़पना चाहते थे| उन्हें अपने घरों से निकाल कर उन्हें रेगिस्तान में ले जाया गया। पुरुषों को महिलाओं और बच्चों से अलग किया गया और उन्हें पहले गोली मारी गई।

अर्मेनियाई ईसाइयों के निष्पादन स्थलों को राजमार्गों के पास, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी इलाकों में और झीलों, कुओं, कुंडों और नदियों के पास चुना गया था ताकि शवों को छुपाया जा सके और उन्हें आसानी से निपटाया जा सके। अर्मेनियाई ईसाइयों को को इस प्रकार डेथ मार्च पर ले जाया गया|

इन कारवाँ के साथ तुर्क मुस्लिम सिपाही रहते । वे अर्मेनियाई ईसाइयों को बचाने के लिए फिरौती मांगते थे यह जानते हुए कि कोई भी अर्मीनियाई वास्तव में उन्हें भुगतान करने में सक्षम नहीं था। जो भुगतान नहीं कर सके वे मारे गए, जिसका अर्थ अधिकांश अर्मेनियाई थे।

 एर्ज़िंदजान के पास हत्याओं के प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए शिविर स्थापित किए गए थे । नरसंहार किए गए अर्मेनियाई लोगों के शवों को पास के केमाह वादी में फेंक दिया जाएगा। कभी-कभी उन्हें पहाड़ की चट्टानों से धकेल दिया जाता था। झील के पास इस तरह हज़ारों लोग मारे गए।

अर्मेनियाई ईसाइयों को बिना भोजन और पानी के मार्च करने के लिए मजबूर किया गया। और जो कोई भी अत्यधिक थकावट के कारण गिरता, उसे तुरंत गोली मार दी जाती, चाहे वह बच्चा हो या महिला। इतना नरसंहार हुआ कि तुर्की के राजमार्ग अर्मेनियाई ईसाइयों के शवों से मीलों तक पटे रहते।

अर्मेनियाई ईसाइयों को झीलों और नदियों में डुबाना तुर्की मुस्लिम राज्य का रुचिकर ढंग था। तैरने से रोकने के लिए और रस्सी बचाने के लिए दो लोगों को एक साथ बांधा के नदी में डुबाया जाता था।

लाखों अर्मेनियन लोगों को मार के नदियों में फेंक दिया गया। ये सभी नदियाँ टाइग्रिस और यूफ्रेट्स की मेगा नदियों में मिलती थीं। इतने सारे अर्मेनियाई शव इन नदियों में बहाए गए कि उन्होंने नदियों को अवरुद्ध कर दिया और उन्हें साफ़ करने के लिए की आवश्यकता पड़ती थी।

अर्मेनियाई ईसाइयों के शव नदियों के किनारों में फंस जाते थी। और फिर भी तुर्की मुसलमानों द्वारा इतने लोगों का नरसंहार किया गया कि कुछ अर्मेनियाई शव पूरे इराक में २००० किलोमीटर से अधिक की यात्रा करके फारस की खाड़ी में पहुँच जाते थे।

और हमेशा की तरह कुछ अर्मेनियाई इस्लाम में धर्मान्तरित हो गए थे। जिन्होंने विरोध किया वे मारे गए। जहां वे ५% से अधिक थे, ओटोमन्स ने उनका नरसंहार किया। एरज़ेरम के 99% अर्मेनियाई ईसाई लोगों की हत्या कर दी गई थी।

अर्मेनियाई महिलाओं का भी अपहरण किया गया और उन्हें सेक्स स्लेव के रूप में प्रयोग किया गया। विश्व युद्ध के दौरान, मुस्लिम नगर दमिश्क के बाजारों में बहुत सारी अर्मेनियाई महिलाओं को बेचा गया - नग्न - पशुओं की तरह। कई अरब के बाजारों में बेचे गए और हज यात्रियों द्वारा खरीदे गए।

१९१५-१७ के दो वर्षों के दौरान तुर्की मुसलमानों द्वारा १५ लाख अर्मेनियाई ईसाइयों का नरसंहार किया गया, जो पूरे अर्मेनियाई जनसँख्या का लगभग आधा हिस्सा था। केवल पूर्वी अर्मेनिया जो रूसी नियंत्रण में था, इस तरह के भाग्य से बच गया।

लेकिन मानव जाति के इतिहास में सबसे बर्बर और भयानक नरसंहारों में से एक में लगभग पूरे पश्चिमी अर्मेनिया का नरसंहार किया गया था। और यह 'शुद्ध तुर्की मुस्लिम राष्ट्र राज्य' बनाने के लिए एक 'आवश्यक' कार्य था, आधुनिक तुर्की के लिए।

इस तरह एक मुस्लिम शक्ति अपने गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों का पूर्ण नरसंहार करती है। किसी भी मुस्लिम देश में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक इस भाग्य का कभी भी सामना कर सकता है। बांग्लादेश में उसके हिंदू अल्पसंख्यकों के सामने जो घटनाएं हो रही हैं, वे इसी दिशा में आगे बढ़ रही हैं।

Saturday, July 23, 2022

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के त्याग और देशभक्ति का पुनर्मूल्यांकन।

आज(23 जुलाई) लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी का जन्म दिन है. मुझे यह जानकार दुःख हुआ कि कुछ लोग अपने लेखों में तिलक जी के लिए अत्यन्त अपमानजनक भाषा का प्रयोग कर रहे हैं।  उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं कि माँ भारती के इस सपूत ने कितना बड़ा कार्य किया था। आज अपनी ओर से कुछ भी ना लिखकर अन्य महापुरुषों के उदगार दे रहा हूँ. भारत के महानायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अपने मित्र केलकर को एक पत्र लिखा था. उस पात्र में तिलक जी के बारे में नेता जी के विचार पढ़े.---

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का पत्र

प्रिय श्री केलकर,

मैं पिछले कई महीनों से आपको पत्र लिखने की सोच रहा था. जिसका कारण केवल यह रहा हैं, कि आप तक ऐसी जानकारी पहुंचा दूँ, जिसमें आपको रुचि होगी. मैं नहीं जानता आपको मालूम हैं या नहीं कि मैं यहाँ गत जनवरी से कारावास में हूँ, जब बरहमपुर जेल से मुझे मांडले जेल के लिए स्थानांतरित करने का आदेश मिला , तब मुझे यह स्मरण नहीं आया कि लोकमान्य तिलक ने अपने कारावास का अधिकतर समय मांडले जेल में ही गुजारा था. इस चार- दीवारी में, यहाँ के बहुत हतोत्साहित कर देने वाले परिवेश में, स्वर्गीय लोकमान्य तिलक ने अपने सुप्रसिद्ध ‘गीता भाष्य ग्रन्थ’ लिखा था. जिसने मेरी नम्र राय में उन्हें शंकर और रामानुजन जैसे प्रकांड भाष्यकारों की श्रेणी में स्थापित कर दिया हैं। 

जेल के जिस वार्ड में लोकमान्य तिलक रहते थे वह आज तक सुरक्षित हैं, यद्यपि उसमें फेरबदल किया गया है और उसे बड़ा बनाया गया है। हमारे अपने जेल वार्ड की तरह, वह लकड़ी के तख्तों से बना हुआ है।  जिससे गर्मी में लूँ और धुप से, वर्षा में पानी से, शीत में सर्दी तथा सभी मौसम में धूल-भरी आंधियों से बचाव नहीं हो पाता था। मेरे यहाँ पहुँचने के कुछ ही क्षण बाद मुझे वार्ड का परिचय दिया गया।  मुझे यह बात बहुत अच्छी नहीं लग रही थी कि मुझे भारत से निष्कासित किया था, लेकिन मैंने भगवान को धन्यवाद दिया कि मांडले में अपनी मातृभूमि और स्वदेश से बलात अनुपस्थिति के बावजूद मुझे पवित्र स्मृतियाँ राहत व प्रेरणा देगी। अन्य जेलों की तरह यह भी एक ऐसा तीर्थ स्थल हैं, जहाँ भारत का एक महानतम सपूत छ: वर्षों तक रहा था। 

हम जानते है कि लोकमान्य ने कारावास में छ वर्ष बिताए हैं।  मुझे विश्वास है कि बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि उस अवधि में उन्हें किस हद तक शारीरिक और मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ा था।  वे वहां एकदम अकेले रहे उन्हें उनके बौद्धिक स्तर का कोई साथी नहीं मिला था।  मुझे विश्वास हैं, कि उनको किसी अन्य बंदी से भी मिलने-जुलने नहीं दिया था।  उनको सांत्वना देने वाली एकमात्र वस्तु किताबें थी।  और वे एक कमरे में बिलकुल एकांकी रहते थे।  यहाँ रहते हुए उन्हें दो या तीन से अधिक मुलाकात का भी अवसर नहीं दिया गया था।  ये भेट भी जेल और पुलिस अधिकारियों के साथ हुआ करती थी। 
जिससे वे कभी खुलकर हार्दिकता से बात नहीं कर पाए होंगे।  उन तक कोई भी अख़बार नहीं पहुँचने दिया जाता था। उनकी जैसी प्रतिष्ठित स्थापित नेता को बाहरी दुनिया के घटनाचक्र से एकदम अलग कर देना ,एक तरह की यंत्रणा ही है और इस यंत्रणा को जिसमें भुगता है।  वहीं जान सकता है इसके अलावा उनके कारावास की अधिकांश अवधि में देश का राजनीतिक जीवन मंद गति से खिसक रहा था और इस विचार ने उन्हें कोई संतोष नहीं दिया होगा कि जिस उद्देश्य को उन्होंने अपनाया था ,वह उनकी अनुपस्थिति में किस गति से आगे बढ़ रहा है। उनकी शारीरिक यंत्रणा के बारे में जितना ही कम कहा जाए, बेहतर होगा। 

वे दंड संहिता के अंतर्गत बंदी थे और इस प्रकार आज के राजबंदियो की अपेक्षा कुछ मायनों में उनकी दिनचर्या कही अधिक कठोर रही होगी| इसके अलावा उन्हें मधुमेह की बीमारी थी | जब लोकमान्य यहाँ थे ,मांडले का मौसम तब भी प्रायः ऐसा रहा होगा जैसा वह आजकल है और अगर आज नौजवानों को शिकायत है कि वहां की जलवायु शिथिल कर देने वाली और मन्दाग्नि तथा गठिया को जन्म देने वाली है और धीरे -धीरे वह व्यक्ति की जीवन शक्ति को सोख लेती है ,लोकमान्य ने ,जो वयोवृद्ध थे ,कितना कष्ट झोला होगा |लेकिन इस कारागार की चहारदीवारियों में उन्होंने क्या यातनाएँ सही ,इसके विषय में लोगों को बहुत कम जानकारी है |

कितने लोगों को पता होता है, उन अनेक छोटी -छोटी बातों का ,जो किसी बंदी के जीवन में सुइयों की-सी चुभन बन जाती है और जीवन को दुर्भर बना देती है| वे गीता की भावना में मग्न रहते थे और शायद इसलिए दुःख और यंत्रणाओं से ऊपर रहते थे | यहीं कारण है कि उन्होंने उन यंत्रणाओं के बारे में किसी से कभी एक शब्द भी नहीं कहा | समय -समय पर मैं इस सोच में डूबता रहा हूँ कि कैसे लोकमान्य को अपने बहुमूल्य जीवन के छह लंबे वर्ष इन परिस्थितियों में बिताने के लिए विवश होना पड़ा था |

हर बार मैंने अपने आपसे पूछा ‘अगर नौजवानों को इतना कष्ट महसूस होता है, तो महान लोकमान्य को अपने समय में कितनी पीड़ा सहनी पड़ी होगी ,जिसके विषय में उनके देशवासियों को कुछ भी पता नहीं रहा होगा। यह विश्व भगवान की कृति है , लेकिन जेलें मानव के कृतित्व की निशानी हैं। उनकी अपनी एक अलग दुनिया है और सभ्य समाज ने जिन विचारो और संस्कारों को प्रतिबद्ध होकर स्वीकार किया है।  वे जेलों पर लागू नहीं होते है।  अपनी आत्मा के हास्य के बिना, बंदी जीवन के प्रति अपने आपको अनुकूल बना पाना आसान नहीं हैं, इसके लिए हमें पिछली आदतें छोड़नी होती हैं और फिर भी स्वास्थ्य और स्फूर्ति बनाएं रखनी है।  सभी नियमों के आगे नत होना होता है और फिर भी आंतरिक प्रफुल्लता अक्षुण्ण रखनी होती हैं।  केवल लोकमान्य जैसा दार्शनिक ही, उस यन्त्रणा और दासता के बीच मानसिक संतुलन बनाए रख सकता था और भाष्य जैसे विशाल एवं युग निर्माणकारी ग्रन्थ का प्रणयन कर सकता था।  मैं जितना ही इस विषय पर चिन्तन करता हूँ। उतना ही उनके प्रति आस्था और श्रद्धा में डूब जाता हूँ। आशा करता हूँ, कि मेरे देशवासी लोकमान्य की महत्ता को आंकते हुए इन सभी तथ्यों को भी दृष्टि पथ में रखेंगे। 

जो महापुरुष मधुमेह से पीड़ित होने के बावजूद इतने सुदीर्घ कारावास को झेलता गया और जिसने उन अन्धकारमय दिनों में अपनी मातृभूमि के लिए ऐसी अमूल्य भेंट तैयार की, उसे विश्व के महापुरुषों की श्रेणी में प्रथम पंक्ति में स्थान मिलना चाहिए।  लेकिन लोकमान्य ने प्रकृति के जिन अटल नियमों से अपने बंदी जीवन के दौरान टक्कर ली थी।  उनको अपना बदला लेना ही था।  अगर मैं कहूँ तो मेरा विश्वास हैं कि लोकमान्य ने जब मांडले को अंतिम नमस्कार किया था। 

तो उनके जीवन के दिन गिने चुने ही रह गये थे।  निःसंदेह यह एक गंभीर दुःख का विषय है कि हम अपने महानतम पुरुषों को इस प्रकार खोते रहे, लेकिन मैं यह भी सोचता हूँ कि क्या वह दुखद दुर्भाग्य किसी न किसी प्रकार टाला नहीं जा सकता था।

Thursday, July 21, 2022

रामायण में अहिल्या के पत्थर बनना.

शंका-- रामायण में अहिल्या के पत्थर बनने और श्री राम जी के स्पर्श मात्र से सजीव होने की कहानी रामायण में पायी जाती है। क्या वह सत्य है?
समाधान
अहिल्या का रूपक वेद में है। रामायण में उसके आधार पर कहानी लिखी है जो मिलावट है। स्वामी दयानन्द ने इस शंका का समाधान किया है।
इन्द्रा गच्छेति । .. गौरावस्कन्दिन्नहल्यायै जारेति । तधान्येवास्य चरणानि तैरेवैनमेंत्प्रमोदयिषति ।।
शत ० का ० ३ । अ ० ३ । ब्रा ० ४ । कं ० १ ८
रेतः सोम ।।  शत ० का ० ३ । अ ० ३ । ब्रा ० २  । कं ० १
रात्रिरादित्यस्यादित्योददयेर्धीयते  निरू ० अ ० १२ । खं० १ १
सुर्य्यरश्पिचन्द्रमा गन्धर्वः।। इत्यपि निगमो भवति । सोअपि गौरुच्यते।। निरू ० अ ० २ । खं० ६
जार आ भगः जार इव भगम्।। आदित्योअत्र जार उच्यते, रात्रेर्जरयिता।। निरू ० अ ० ३  । खं० १ ६
(इन्द्रागच्छेती०) अर्थात उनमें इस रीति से है कि सूर्य का नाम इन्द्र ,रात्रि का नाम अहल्या तथा चन्द्रमा का गोतम है। यहाँ रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री-पुरुष के समान रूपकालंकार है। चन्द्रमा अपनी स्त्री रात्रि के साथ सब प्राणियों को आनन्द कराता है और उस रात्रि का जार आदित्य है। अर्थात जिसके उदय होने से रात्रि अन्तर्धान हो जाती है। और जार अर्थात यह सूर्य ही रात्रि के वर्तमान रूप श्रंगार को बिगाड़ने वाला है। इसीलिए यह स्त्रीपुरुष का रूपकालंकार बांधा है, कि जिस प्रकार स्त्रीपुरुष मिलकर रहते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ-२ रहते हैं।
चन्द्रमा का नाम गोतम इसलिए है कि वह अत्यन्त वेग से चलता है। और रात्रि को अहल्या इसलिये कहते हैं कि उसमें दिन लय हो जाता है । तथा सूर्य रात्रि को निवृत्त कर देता है, इसलिये वह उसका जार कहाता है।
इस उत्तम रूपकालंकार को अल्पबुद्धि पुरुषों ने बिगाड़ के सब मनुष्य में हानिकारक मिथ्या सन्देश फैलाया है। इसलिये सब सज्जन लोग पुराणोक्त मिथ्या कथाओं का मूल से ही त्याग कर दें।
–: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका , महर्षि दयानंद सरस्वती
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ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के ‘ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्यविषयः’ अध्याय में महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि इन्द्र और अहल्या की कथा मूढ लोगों ने अनेक प्रकार से बिगाड़ कर लिखी है। उन्होंने ऐसा मान रखा है कि ‘देवों का राजा इन्द्र देवलोक में देहधारी देव था। वह गौतम ऋषि की स्त्री अहल्या के साथ जारकर्म किया करता था। एक दिन जब उन दोनों को गौतम ने देख लिया, तब इस प्रकार शाप दिया कि —हे इन्द्र ! तू हजार भगवाला हो जा। अहल्या को शाप दिया कि तू पाषाणरूप हो जा। परन्तु जब उन्होंने गौतम की प्रार्थना की कि हमारे शाप का मोक्षण कैसे वा कब होगा, तब इन्द्र से तो कहा कि तुम्हारे हजार भग के स्थान में हजार नेत्र हो जायं, और अहल्या को वचन दिया कि जिस समय रामचन्द्र अवतार लेकर तुझ पर अपना चरण लगावेंगे, उस समय तू फिर अपने स्वरूप में आजावेगी।’ महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि इस प्रकार से पुराणों में यह कथा बिगाड़ कर लिखी गई है। सत्य ग्रन्थों में ऐसा नहीं है। सत्यग्रन्थों में इस कथा का स्वरूप निम्न प्रकार है।
सूर्य का नाम इन्द्र है, रात्रि का नाम अहल्या है तथा चन्द्र का नाम गौतम है। यहां रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री-पुरूष के समान रूपक अलंकार है। चन्द्रमा अपनी स्त्री रात्रि से सब प्राणियों को आनन्द कराता है और उस रात्रि का जार आदित्य है। अर्थात् जिस (सूर्य) के उदय होने से (वह) रात्रि के वत्र्तमान रूप श्रृंगार को बिगाड़ने वाला है। इसलिये यह स्त्री पुरूष का रूपकालंकार बांधा है। जैसे स्त्ऱी-पुरूष मिल कर रहते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ-साथ रहते हैं। चन्द्रमा का नाम ‘गौतम’ इसलिये है कि वह अत्यन्त वेग से चलता है और रात्रि को ‘अहल्या’ इसलिये कहते हैं कि उसमें दिन का लय हो जाता है। सूर्य (इन्द्र) रात्रि को निवृत्त कर देता है, इसलिए वह उसका ‘जार’ कहलाता है। इस उत्तम रूपकालंकार विद्या को अल्प बुद्धि पुरूषों ने बिगाड़ के सब मनुष्यों में हानिकारक फल धर दिया है। इसलिये सब सज्जन लोग पुराणों की मिथ्या कथाओं का मूल से ही त्याग कर दें। ऐसी अनेक मिथ्या कथायें पुराणों में दी गई हैं जिन्हें विवेकशील मनुष्यों को स्वीकार नहीं करना चाहिये। रामायण में यह कथा वैदिक ग्रन्थों से आयातित है।
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 वाल्मीकि रामायण में अहिल्या का वन में गौतम ऋषि के साथ तप करने का वर्णन हैं
वाल्मीकि रामायण 49/19 में लिखा हैं की राम और लक्ष्मण ने अहिल्या के पैर छुए। यही नहीं राम और लक्ष्मण को अहिल्या ने अतिथि रूप में स्वीकार किया और पाद्य तथा अधर्य से उनका स्वागत किया। यदि अहिल्या का चरित्र सदिग्ध होता तो क्या राम और लक्ष्मण उनका आतिथ्य स्वीकार करते?
विश्वामित्र ऋषि से तपोनिष्ठ अहिल्या का वर्णन सुनकर जब राम और लक्ष्मण ने गौतम मुनि के आश्रम में प्रवेश किया तब उन्होंने अहिल्या को जिस रूप में वर्णन किया हैं उसका वर्णन वाल्मीकि ऋषि ने बाल कांड 49/15-17 में इस प्रकार किया हैं
स तुषार आवृताम् स अभ्राम् पूर्ण चन्द्र प्रभाम् इव |
मध्ये अंभसो दुराधर्षाम् दीप्ताम् सूर्य प्रभाम् इव || ४९-१५
सस् हि गौतम वाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह |
त्रयाणाम् अपि लोकानाम् यावत् रामस्य दर्शनम् |४९-१६
तप से देदिप्तमान रूप वाली, बादलों से मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान तथा प्रदीप्त अग्नि शिखा और सूर्य से तेज के समान अहिल्या तपस्या में लीन थी।
सत्य यह हैं की देवी अहिल्या महान तपस्वी थी जिनके तप की महिमा को सुनकर राम और लक्ष्मण उनके दर्शन करने गए थे। विश्वामित्र जैसे ऋषि राम और लक्ष्मण को शिक्षा देने के लिए और शत्रुयों का संहार करने के लिए वन जैसे कठिन प्रदेश में लाये थे।
किसी सामान्य महिला के दर्शन कराने हेतु नहीं लाये थे।
--संजय कुमार

Monday, July 18, 2022

भारतीय वैदिक सनातनी गुरुकुल विद्या।

भारतवर्ष के गुरुकुलों में क्या पढ़ाई होती थी, ये जान लेना आवश्यक है। इस शिक्षा को लेकर अपने विचारों में परिवर्तन लाएं और भ्रांतियां दूर करें!!! वामपंथी लंपट इसे जरूर पढें!

१. अग्नि विद्या ( Metallergy )
२. वायु विद्या ( Aviation ) 
३. जल विद्या ( Navigation ) 
४. अंतरिक्ष विद्या ( Space Science) 
५. पृथ्वी विद्या ( Environment & Ecology)
६. सूर्य विद्या ( Solar System Studies ) 
७. चन्द्र व लोक विद्या ( Lunar Studies ) 
८. मेघ विद्या ( Weather Forecast ) 
९. पदार्थ विद्युत विद्या ( Battery )
१०. सौर ऊर्जा विद्या ( Solar Energy ) 
११. दिन रात्रि विद्या 
१२. सृष्टि विद्या ( Space Research ) 
१३. खगोल विद्या ( Astronomy) 
१४. भूगोल विद्या (Geography ) 
१५. काल विद्या ( Time ) 
१६. भूगर्भ विद्या (Geology and Mining ) 
१७. रत्न व धातु विद्या ( Gemology and Metals ) 
१८. आकर्षण विद्या ( Gravity ) 
१९. प्रकाश विद्या ( Optics) 
२०. तार संचार विद्या ( Communication ) 
२१. विमान विद्या ( Aviation ) 
२२. जलयान विद्या ( Water , Hydraulics Vessels ) 
२३. अग्नेय अस्त्र विद्या ( Arms and Amunition )
२४. जीव जंतु विज्ञान विद्या ( Zoology Botany ) 
२५. यज्ञ विद्या ( Material Sc)

वैज्ञानिक विद्याओं की अब बात करते है व्यावसायिक और तकनीकी विद्या की

वाणिज्य ( Commerce )
भेषज (Pharmacy)
शल्यकर्म व चिकित्सा (Diagnosis and Surgery) 
कृषि (Agriculture ) 
पशुपालन ( Animal Husbandry ) 
पक्षिपलन ( Bird Keeping ) 
पशु प्रशिक्षण ( Animal Training ) 
यान यन्त्रकार ( Mechanics) 
रथकार ( Vehicle Designing ) 
रतन्कार ( Gems ) 
सुवर्णकार ( Jewellery Designing ) 
वस्त्रकार ( Textile) 
कुम्भकार ( Pottery) 
लोहकार (Metallergy)
तक्षक (Toxicology)
रंगसाज (Dying) 
रज्जुकर (Logistics)
वास्तुकार ( Architect)
पाकविद्या (Cooking)
सारथ्य (Driving)
नदी जल प्रबन्धक (Dater Management)
सुचिकार (Data Entry)
गोशाला प्रबन्धक (Animal Husbandry)
उद्यान पाल (Horticulture)
वन पाल (Forestry)
नापित (Paramedical)
अर्थशास्त्र (Economics)
तर्कशास्त्र (Logic)
न्यायशास्त्र (Law)
नौका शास्त्र (Ship Building)
रसायनशास्त्र (Chemical Science)
ब्रह्मविद्या (Cosmology)
न्यायवैद्यकशास्त्र (Medical Jurisprudence) - अथर्ववेद
क्रव्याद (Postmortem) --अथर्ववेद 

आदि विद्याओ क़े तंत्रशिक्षा क़े वर्णन हमें वेद और उपनिषद में मिलते है ॥

यह सब विद्या गुरुकुल में सिखाई जाती थी पर समय के साथ गुरुकुल लुप्त हुए तो यह विद्या भी लुप्त होती गयी।

आज अंग्रेज मैकाले पद्धति से हमारे देश के युवाओं का भविष्य नष्ट हो रहा तब ऐसे समय में गुरुकुल के पुनः उद्धार की आवश्यकता है।

कुछ_प्रसिद्ध_भारतीय_प्राचीन_ऋषि_मुनि_वैज्ञानिक_एवं_संशोधक

पुरातन ग्रंथों के अनुसार, प्राचीन ऋषि-मुनि एवं दार्शनिक हमारे आदि वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अनेक आविष्कार किए और विज्ञान को भी ऊंचाइयों पर पहुंचाया।

अश्विनीकुमार: मान्यता है कि ये देवताओं के चिकित्सक थे। कहा जाता है कि इन्होंने उड़ने वाले रथ एवं नौकाओं का आविष्कार किया था।

धन्वंतरि: इन्हें आयुर्वेद का प्रथम आचार्य व प्रवर्तक माना जाता है। इनके ग्रंथ का नाम धन्वंतरि संहिता है। शल्य चिकित्सा शास्त्र के आदि प्रवर्तक सुश्रुत और नागार्जुन इन्हीं की परंपरा में हुए थे।

महर्षि_भारद्वाज: आधुनिक विज्ञान के मुताबिक राइट बंधुओं ने वायुयान का आविष्कार किया। वहीं हिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक कई सदियों पहले ही ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र के जरिए वायुयान को गायब करने के असाधारण विचार से लेकर, एक ग्रह से दूसरे ग्रह व एक दुनिया से दूसरी दुनिया में ले जाने के रहस्य उजागर किए। इस तरह ऋषि भारद्वाज को वायुयान का आविष्कारक भी माना जाता है।

महर्षि_विश्वामित्र: ऋषि बनने से पहले विश्वामित्र क्षत्रिय थे। ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को पाने के लिए हुए युद्ध में मिली हार के बाद तपस्वी हो गए। विश्वामित्र ने भगवान शिव से अस्त्र विद्या पाई। इसी कड़ी में माना जाता है कि आज के युग में प्रचलित प्रक्षेपास्त्र या मिसाइल प्रणाली हजारों साल पहले विश्वामित्र ने ही खोजी थी। 
ऋषि विश्वामित्र ही ब्रह्म गायत्री मंत्र के दृष्टा माने जाते हैं। विश्वामित्र का अप्सरा मेनका पर मोहित होकर तपस्या भंग होना भी प्रसिद्ध है। शरीर सहित त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने का चमत्कार भी विश्वामित्र ने तपोबल से कर दिखाया।

महर्षि_गर्गमुनि: गर्ग मुनि नक्षत्रों के खोजकर्ता माने जाते हैं। यानी सितारों की दुनिया के जानकार।ये गर्गमुनि ही थे, जिन्होंने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के बारे में नक्षत्र विज्ञान के आधार पर जो कुछ भी बताया, वह पूरी तरह सही साबित हुआ।  कौरव-पांडवों के बीच महाभारत युद्ध विनाशक रहा। इसके पीछे वजह यह थी कि युद्ध के पहले पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी। इसके दूसरे पक्ष में भी तिथि क्षय थी। पूर्णिमा चौदहवें दिन आ गई और उसी दिन चंद्रग्रहण था। तिथि-नक्षत्रों की यही स्थिति व नतीजे गर्ग मुनिजी ने पहले बता दिए थे।

महर्षि_पतंजलि: आधुनिक दौर में जानलेवा बीमारियों में एक कैंसर या कर्करोग का आज उपचार संभव है। किंतु कई सदियों पहले ही ऋषि पतंजलि ने कैंसर को भी रोकने वाला योगशास्त्र रचकर बताया कि योग से कैंसर का भी उपचार संभव है।

महर्षि_कपिल_मुनि: सांख्य दर्शन के प्रवर्तक व सूत्रों के रचयिता थे महर्षि कपिल, जिन्होंने चेतना की शक्ति एवं त्रिगुणात्मक प्रकृति के विषय में महत्वपूर्ण सूत्र दिए थे।

महर्षि_कणाद: ये वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक हैं। ये अणु विज्ञान के प्रणेता रहे हैं। इनके समय अणु विज्ञान दर्शन का विषय था, जो बाद में भौतिक विज्ञान में आया।

महर्षि_सुश्रुत: ये शल्य चिकित्सा पद्धति के प्रख्यात आयुर्वेदाचार्य थे। इन्होंने सुश्रुत संहिता नामक ग्रंथ में शल्य क्रिया का वर्णन किया है। सुश्रुत ने ही त्वचारोपण (प्लास्टिक सर्जरी) और मोतियाबिंद की शल्य क्रिया का विकास किया था। पार्क डेविस ने सुश्रुत को विश्व का प्रथम शल्यचिकित्सक कहा है।

जीवक: सम्राट बिंबसार के एकमात्र वैद्य। उज्जयिनी सम्राट चंडप्रद्योत की शल्य चिकित्सा इन्होंने ही की थी। कुछ लोग मानते हैं कि गौतम बुद्ध की चिकित्सा भी इन्होंने की थी।

महर्षि_बौधायन: बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुलयशास्त्र के रचयिता थे। आज दुनिया भर में यूनानी उकेलेडियन ज्योमेट्री पढाई जाती है मगर इस ज्योमेट्री से पहले भारत के कई गणितज्ञ ज्योमेट्री के नियमों की खोज कर चुके थे। उन गणितज्ञ में बौधायन का नाम सबसे ऊपर है, उस समय ज्योमेट्री या एलजेब्रा को भारत में शुल्वशास्त्र कहा जाता था।

महर्षि_भास्कराचार्य: आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्यजी ने उजागर किया। भास्कराचार्यजी ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस वजह से आसमानी पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’।

महर्षि_चरक: चरक औषधि के प्राचीन भारतीय विज्ञान के पिता के रूप में माने जातें हैं। वे कनिष्क के दरबार में राज वैद्य (शाही चिकित्सक) थे, उनकी चरक संहिता चिकित्सा पर एक उल्लेखनीय पुस्तक है। इसमें रोगों की एक बड़ी संख्या का विवरण दिया गया है और उनके कारणों की पहचान करने के तरीकों और उनके उपचार की पद्धति भी प्रदान करती है। वे स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण पाचन, चयापचय और प्रतिरक्षा के बारे में बताते थे और इसलिए चिकित्सा विज्ञान चरक संहिता में, बीमारी का इलाज करने के बजाय रोग के कारण को हटाने के लिए अधिक ध्यान रखा गया है। चरक आनुवांशिकी (अपंगता) के मूल सिद्धांतों को भी जानते थे।

ब्रह्मगुप्त: 7 वीं शताब्दी में, ब्रह्मगुप्त ने गणित को दूसरों से परे ऊंचाइयों तक ले गये। गुणन के अपने तरीकों में, उन्होंने लगभग उसी तरह स्थान मूल्य का उपयोग किया था, जैसा कि आज भी प्रयोग किया जाता है। उन्होंने गणित में शून्य पर नकारात्मक संख्याएं और संचालन शुरू किया। उन्होंने ब्रह्म मुक्त सिध्दांतिका को लिखा, जिसके माध्यम से अरब देश के लोगों ने हमारे गणितीय प्रणाली को जाना।

महर्षि_अग्निवेश: ये शरीर विज्ञान के रचयिता थे।

महर्षि_शालिहोत्र: इन्होंने पशु चिकित्सा पर आयुर्वेद ग्रंथ की रचना की।

व्याडि: ये रसायनशास्त्री थे। इन्होंने भैषज (औषधि) रसायन का प्रणयन किया। अलबरूनी के अनुसार, व्याडि ने एक ऐसा लेप बनाया था, जिसे शरीर पर मलकर वायु में उड़ा जा सकता था।

आर्यभट्ट: इनका जन्म 476 ई. में कुसुमपुर ( पाटलिपुत्र ) पटना में हुआ था | ये महान खगोलशास्त्र और व गणितज्ञ थे | इन्होने ही सबसे पहले सूर्ये और चन्द्र ग्रहण की वियाख्या की थी | और सबसे पहले इन्होने ही बताया था की धरती अपनी ही धुरी पर धूमती है| और इसे सिद्ध भी किया था | और यही नही इन्होने हे सबसे पहले पाई के मान को निरुपित किया।

महर्षि_वराहमिहिर: इनका जन्म 499 ई . में कपित्थ (उज्जेन ) में हुआ था | ये महान गणितज्ञ और खगोलशास्त्र थे | इन्होने पंचसिद्धान्तका नाम की किताब लिखी थी जिसमे इन्होने बताया था की , अयनांश , का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर होता होता है | और इन्होने शून्य और ऋणात्मक संख्याओ के बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया |

हलायुध: इनका जन्म 1000 ई . में काशी में हुआ था | ये ज्योतिषविद , और गणितज्ञ व महान वैज्ञानिक भी थे | इन्होने अभिधानरत्नमाला या मृतसंजीवनी नमक ग्रन्थ की रचना की | इसमें इन्होने या की पास्कल त्रिभुज ( मेरु प्रस्तार ) का स्पष्ट वर्णन किया है।पुरातन ग्रंथों के अनुसार, प्राचीन ऋषि-मुनि एवं दार्शनिक हमारे आदि वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अनेक आविष्कार किए और विज्ञान को भी ऊंचाइयों पर पहुंचाया।

5000 साल पहले ब्राह्मणों_ने_हमारा_बहुत_शोषण किया ब्राह्मणों ने हमें पढ़ने से रोका,यह बात बताने वाले महान इतिहासकार यह नहीं बताते कि 500 साल पहले मुगलों ने हमारे साथ क्या किया 100 साल पहले अंग्रेजो ने हमारे साथ क्या किया?

हमारे देश में शिक्षा नहीं थी लेकिन 1897 में शिवकर_बापूजी_तलपडे_ने_हवाई_जहाज बनाकर उड़ाया था मुंबई में जिसको देखने के लिए उस टाइम के हाई कोर्ट के जज महा गोविंद रानाडे और मुंबई के एक राजा महाराज गायकवाड के साथ-साथ हजारों लोग मौजूद थे जहाज देखने के लिए
 उसके बाद एक डेली_ब्रदर_नाम_की_इंग्लैंड की कंपनी ने शिवकर_बापूजी_तलपडे के साथ समझौता किया और बाद में बापू जी की मृत्यु हो गई यह मृत्यु भी एक षड्यंत्र है हत्या कर दी गई और फिर बाद में 1903 में राइट बंधु ने जहाज बनाया।

आप लोगों को बताते चलें कि आज से हजारों साल पहले की किताब है महर्षि_भारद्वाज_की_विमान_शास्त्र जिसमें 500 जहाज 500 प्रकार से बनाने की विधि है उसी को पढ़कर शिवकर बापूजी तलपडे ने जहाज बनाई थी।

लेकिन यह तथाकथित नास्तिक_लंपट_ईसाइयों के दलाल जो है तो हम सबके ही बीच से लेकिन हमें बताते हैं कि भारत में तो कोई शिक्षा ही नहीं था कोई रोजगार नहीं था।

अमेरिका_के_प्रथम_राष्ट्रपति_जॉर्ज_वाशिंगटन 14 दिसंबर 1799 को मरे थे सर्दी और बुखार की वजह से उनके पास बुखार की दवा  नहीं थी उस टाइम भारत_में_प्लास्टिक_सर्जरी_होती_थी और अंग्रेज प्लास्टिक सर्जरी सीख रहे थे हमारे गुरुकुल में अब कुछ वामपंथी लंपट बोलेंगे यह सरासर झूठ है।

तो वामपंथी लंपट गिरोह कर सकते है 
ऑस्ट्रेलियन_कॉलेज_ऑफ_सर्जन_मेलबर्न में ऋषि_सुश्रुत_ऋषि की  प्रतिमा "फादर ऑफ सर्जरी" टाइटल के साथ स्थापित है।

15 साल साल पहले का 2000 साल पहले का मंदिर मिलते हैं जिसको आज के वैज्ञानिक_और_इंजीनियर देखकर हैरान में हो जाते हैं कि मंदिर बना कैसे होगा अब हमें_इन_वामपंथी_लंपट लोगो  से हमें पूछना चाहिए कि  मंदिर बनाया किसने 

ब्राह्मणों_ने_हमें पढ़ने नहीं दिया यह बात बताने वाले महान इतिहासकार हमें यह नहीं बताते कि सन 1835 तक भारत में 700000 गुरुकुल थे इसका पूरा डॉक्यूमेंट Indian house  में मिलेगा ।

भारत गरीब देश था चाहे है तो फिर दुनिया के तमाम आक्रमणकारी भारत ही क्यों आए हमें अमीर बनाने के लिए!

भारत में कोई रोजगार नहीं था।
भारत में पिछड़े दलितों को गुलाम बनाकर रखा जाता था लेकिन वामपंथी लंपट आपसे यह नहीं बताएंगे कि हम 1750 में पूरे दुनिया के व्यापार में भारत का हिस्सा 24 परसेंट था
और सन उन्नीस सौ में एक परसेंट पर आ गया आखिर कारण क्या था?

अगर हमारे देश में उतना ही छुआछूत थे हमारे देश में रोजगार नहीं था तो फिर पूरे दुनिया के व्यापार में हमारा 24 परसेंट का व्यापार कैसे था?

यह वामपंथी लंपट यह नहीं बताएंगे कि कैसे अंग्रेजों के नीतियों के कारण भारत में लोग एक ही साथ 3000000 लोग भूख से मर गए कुछ दिन के अंतराल में ।

एक बेहद खास बात वामपंथी लंपट  या अंग्रेज दलाल कहते हैं इतना ही भारत समप्रीत था इतना ही सनातन संस्कृति समृद्ध थी तो सभी अविष्कार अंग्रेजों ने ही क्यों किए हैं भारत के लोगों ने कोई भी अविष्कार क्यों नहीं किया?

उन वामपंथी लंपट लोगों को बताते चलें कि किया तो सब आविष्कार भारत में ही लेकिन उन लोगों ने चुरा करके अपने नाम से पेटेंट कराया नहीं तो एक बात बताओ भारत आने से पहले अंग्रेजों ने कोई एक अविष्कार किया हो तो उसका नाम बताओ एवर थोड़ा अपना दिमाग लगाओ कि भारत आने के बाद ही यह लोग आविष्कार कैसे करने लगे, उससे पहले क्यों नहीं करते थे।

हरे कृष्णा🙏🙏🙏

बंगलादेश में हिन्दू-संहार और रिचर्ड बेंकिन।

कुछ पुस्तकें पढ़ना कष्टकर होता है। डॉ. रिचर्ड बेंकिन की ‘ए क्वाइट केस ऑफ एथनिक क्लीन्सिन्ग: द मर्डर ऑफ बंगलादेश’ज हिन्दूज’ (अक्षय प्रकाशन, नई दिल्ली) इतनी पीड़ादायक है कि इसे पढ़ने में कई बार प्रयास करना पड़ा। हर बार दो-चार पृष्ठ पढ़ते ही मन त्रस्त हो जाता। पुस्तक रख दी जाती। यह त्रास बाँट लेना ठीक है। संभवतः विवेकी वीर कुछ विचार/कर सकें!
इस पुस्तक के लेखक एक सामान्य अमेरिकी हैं, जो इस पर दुनिया का ध्यान आकृष्ट करने के लिए बीस वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं। अपनी जान भी खतरे में डाली। वे बंगलादेश सरकार, अमेरिकी प्रशासन, सीनेट, आदि में भी इस पर सुनवाई कराने, आदि प्रयत्न करते रहे हैं। उन की पुस्तक प्रमाणिक शोध, विवरण और प्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित है। इसी क्रम में भारतीय बंगाल में भी हिन्दुओं की हालत बताती है।
बहुतों को जानकर हैरत होगी कि गत सौ सालों में पाकिस्तान-बंगलादेश में हिन्दू-विनाश दुनिया में सब से बड़ा है। यह अंतर्राष्ट्रीय जिहाद का अंग है, पर निःशब्द हो रहा है। हिन्दू आबादी में नाटकीय गिरावट इस का प्रत्यक्ष प्रमाण है। 1951 में पूर्वी बंगाल की आबादी में लगभग 33 % हिन्दू थे। जो 1971 तक 20 % रह गए। 2001 में वे 10 % बचे। आज उन की संख्या 8 % रह गई मानी जाती है। इस लुप्त आबादी का एक-दो प्रतिशत ही बाहर गया। शेष मारे गए या जबरन मुसलमान बनाए गए। बंगलादेश में हिन्दू-विनाश इस्लामी संगठनों, मुस्लिम पड़ोसियों, राजनीतिक दलों, और सरकारी नीतियों द्वारा भी हो रहा है।
वैश्विक स्तर पर इतनी बड़ी आबादी कहीं और साफ नहीं हुई! हिटलरी नाजीवाद ने लगभग 60 लाख यहूदियों का सफाया किया, जबकि पूर्वी बंगाल/ बंगलादेश में 1951-2008 के बीच लगभग 4.9 करोड़ हिन्दू ‘लुप्त हो गए’। न्यूयॉर्क स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रो. सची दस्तीदार ने यह संख्या दी है। पर दुनिया इस पर संवेदनहीन-सी रही। इस का मुख्य कारण भारत की चुप्पी है, जो सब से निकट प्रभावित देश है। वरना बोस्निया, रवांडा, या डारफूर में इस से सैकड़ों गुना कम लोगों के संहार पर पूरी दुनिया के मीडिया, संयुक्त राष्ट्र, और बड़ी-बड़ी हस्तियों की चिन्ता वर्षों तक व्यापक बनी रही।
कितना लज्जानक कि भारतीय नेता, दल, मीडिया, अकादमिक जगत, सभी इस पर चुप रहते हैं! बंगलादेश में निरंतर और बीच-बीच में हिन्दू-संहार के बड़े दौर (1971, 1989, 1993) चलने पर भी यहाँ राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग ठस बना रहा। न्यूयॉर्क टाइम्स के प्रसिद्ध पत्रकार सिडनी शॉनबर्ग की प्रत्यक्ष रिपोर्टिंग के अनुसार केवल 1971 में 20 लाख से अधिक हिन्दुओं के मारे जाने का अनुमान है। पाकिस्तानी दमन से मुक्त होकर बंगलादेश बनने के बाद भी हिन्दुओं की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए कुछ नहीं किया गया। नये शासकों ने भी इस्लामी एकाधिकार बनाकर हिन्दुओं को पीड़ित, वंचित किया।
वहाँ 1974 में ‘भेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ बना। इस के अनुसार, जो हिन्दू बंगलादेश से चले गए या जिन्हें सरकार ने शत्रु घोषित कर दिया, उन की जमीन सरकार लेकर मुसलमानों को दे देगी। इस का व्यवहार यह भी हुआ कि किसी हिन्दू को मार-भगा, या शत्रुवत कहकर, उस के परिवार की संपत्ति छीन कर किसी मुसलमान को दे दी गई। (पृ. 66-68)। ढाका विश्वविद्यालय के प्रो. अब्दुल बरकत की पुस्तक इन्क्वायरी इन्टू कॉजेज एंड कन्सीक्वेन्सेज ऑफ डिप्राइवेशन ऑफ हिन्दू माइनॉरिटीज इन बंगलादेश थ्रू द भेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट में भी इस के विवरण हैं। इस कानून से तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं ने हिन्दुओं की संपत्ति हड़पी। गत चार दशकों में यह हड़पी गई संपत्ति लाखों एकड़ में है!
1988 में संविधान संशोधन द्वारा इस्लाम बंगलादेश का ‘राजकीय मजहब’ बन गया। तब से हिन्दुओं की स्थिति कानूनन भी नीची हो गई। उन के विरुद्ध हिंसा, बलात्कार, जबरन धर्मांतरण, संपत्ति छीनने, आदि घटनाएं और तेज हुई। हिन्दू लड़कियों, स्त्रियों को निशाना बना कर, आतंक द्वारा हिन्दुओं की संपत्ति पर कब्जा या धर्मांतरित कराना एक विशेष टेकनीक की तरह जम कर इस्तेमाल हुआ। तसलीमा नसरीन ने अपनी पुस्तक ‘लज्जा’ में इसी का प्रमाणिक चित्रण किया, जिस से उन पर मौत का फतवा भी आया।
निःशब्द और क्रमशः होने के कारण भी यह हिन्दू-विनाश दुनिया के लिए अनजान सा रहा है। जबकि वह बंगलादेश से छिलक कर भारत में घुस चुका। वहाँ से जो हिन्दू भाग आए, वे पश्चिम बंगाल में भी 1977 ई. से ही उत्पीड़न का शिकार होते रहे हैं। डॉ. बेंकिन ने कई जगह जाकर यह देखा। इस्लामियों-कम्युनिस्टों की साँठ-गाँठ से हिन्दू शरणार्थियों की पुरानी बस्ती पर कब्जा कर, उन्हें पुनः भगा दिया जाता। मनचाही चीज छीनने के लिए बच्चों, लड़कियों के अपहरण की तकनीक यहाँ भी चालू है। सम्मिलित हिन्दू-मुस्लिम आबादी वाले कई गाँव धीरे-धीरे पूरी तरह मुस्लिम में बदल गए। वहाँ के लावारिस मंदिर इस का संकेत करते हैं। डॉ. बेंकिन के हिन्दू शरणार्थियों से कहीं मिलने जाने पर (2008 ई.) माकपा कार्यकर्ता वहाँ पहुँच कर लोगों को धमकाते कि कुछ न कहें। फिर भी यदि कोई बोलता तो वे बाधा देते या विवाद करने लगते।
डॉ, बेंकिन ने इस की कल्पना भी नहीं की थी! उन्होंने समझा था कि बंगलादेशी हिन्दू शरणार्थियों की दुर्दशा जानने, उसे दुनिया तक पहुँचाने में उन्हें भारत से सहयोग मिलेगा। आखिर भारत दुनिया का अकेला प्रमुख हिन्दू देश है। अतः पड़ोस में हिन्दू-संहार रोकने और शरणार्थियों का आना बंद करने की उसे चिन्ता होगी। किन्तु उन्हें उलटा अनुभव हुआ। पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट सत्ताधारियों से कार्यकर्ताओं को निर्देश मिला हुआ था कि वे डॉ. बेंकिन को शरणार्थियों की आप-बीतियाँ न जानने दें। वे क्या छिपाना चाहते थे?
भारत के गैर-कम्युनिस्ट दल और प्रभावशाली लोग भी बंगलादेशी हिन्दुओं के प्रति उदासीन हैं। जबकि उन्हें मालूम है कि वहाँ हिन्दुओं का अस्तित्व खतरे में है। भारत की उदासीनता से ही यूरोपीय, अमेरिकी सरकारें, अंतरर्राष्ट्रीय एजेंसियाँ भी इसे महत्व नहीं देतीं।
हालाँकि, यह भी ऐतिहासिक अनुभव है कि अत्यंत भयावह नरसंहारों की खबरों पर शुरू में विश्वास ही नहीं किया जाता! रूस में स्तालिन और जर्मनी में हिटलर द्वारा नरसंहारों पर वर्षों यही स्थिति रही थी। तब तक समूह-हत्यारे काफी कुछ कर गुजरते हैं। इस बीच, वामपंथी, सेक्यूलर, मल्टीकल्चरल बुद्धिजीवी भ्रामक प्रचार भी करते हैं। बंगलादेश में हिन्दू-संहार पर यह दोनों बातें दशकों बाद भी जारी हैं, जो एक विश्व-रिकॉर्ड है! ऐसी स्थिति में डॉ. बेंकिन का संघर्ष अत्यंत मूल्यवान है।
कुछ लोग नाजीवाद के हाथों यहूदियों और जिहाद के हाथों हिन्दुओं के संहार की तुलना को बढ़ाना-चढ़ाना मानते हैं। पर डॉ. बेंकिन के शब्दों में, “1930 के दशक के यहूदियों और 1950 के दशक से बंगलादेश [और कश्मीर भी] के हिन्दुओं की तुलना करने पर सारे संकेत, प्रमाण पहचानना सत्यनिष्ठा की माँग करता है। साहस की भी, क्योंकि सचाई समझ लेने पर कुछ करने का कर्तव्य बनता है। चाहे वह नेता हों, या बौद्धिक, या मीडिया।”
वस्तुतः बंगाल के दोनों भाग में हिन्दू क्रमशः मरते, घटते जा रहे हैं। इस का कारण बहुमुखी जिहाद है। बंगलादेश में हिन्दुओं की समाप्ति के बाद यहाँ बंगाल में वही होगा, जो कश्मीर में हो चुका। उसी प्रकिया से, जिसे नेता, मीडिया और बुद्धिजीवी देखना नहीं चाहते या अनदेखा करते हैं। बंगलादेशी हिन्दुओं पर उन की चुप्पी ने ही इस संहार को जारी रखा। किन्तु वहाँ पूरा हो जाने पर सब की बारी आएगी। स्तालिन, हिटलर, और जिहाद – तीनों की खुली घोषणाएं और वैश्विक लक्ष्य तुलनीय हैं।
डॉ. बेंकिन के अनुसार, बंगलादेश में इस्लामी और सरकारी लोग इस विश्वास से चलाते हैं कि उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं। क्योंकि किसी भी हस्तक्षेप से वे रक्षात्मक हो जाते हैं। अर्थात् यदि दुनिया चिन्ता करती, या अभी भी करे, तो स्थिति सुधर सकती है। बंगलादेश कई मामलों में बाहरी सहायता पर निर्भर है। अतः वह एक न्यायोचित मुद्दे पर वैश्विक दबाव झेलने की स्थिति में नहीं है। इस के बावजूद बंगलादेश के हिन्दुओं का क्रमशः संहार जारी रहना अत्यंत शोचनीय है।
- डॉ. शंकर शरण (११ मई २०२१)

Sunday, July 17, 2022

क्या थे भगतसिंह।

सिमरनजीत सिंह मान ने भगतसिंह को सार्वजनिक गाली दी है। सरकार चुपचाप सुन रही है।

भगतसिंह के प्रेरणास्रोत: सरदार अर्जुन सिंह

इस लेख को पढ़ने वाले ज्यादातर वे पाठक हैं जिन्होंने आजाद भारत में जन्म लिया। यह हमारा सौभाग्य है कि हम जिस देश में जन्मे हैं, उसे आज कोई गुलाम भारत नहीं कहता, उपनिवेश नहीं कहता- बल्कि संसार के एक मजबूत स्वतंत्र राष्ट्र के नाम से हमें जाना जाता है। इस महान भारत देश को आजाद करवाने के लिये हजारों क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति आजादी के पवित्र यज्ञ में डाली। तब कहीं जाकर हम आजाद हुए।
भगतसिंह के बलिदान का महत्त्व
 भगतसिंह का नाम भारत की आजादी के आन्दोलन में एक विशेष महत्त्व रखता है। प्रथम तो भगतसिंह उन नौजवानों के लिये प्रेरणास्रोत बने जिन्हें आजादी भीख के रूप में मांगने में कोई रूचि नहीं थी। दूसरे 1857 के प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन के असफल हो जाने के बाद अंग्रेजी सरकार द्वारा बड़ी निर्दयता से आजादी के दीवानों पर अत्याचार किये गये। उस क्रूरता का उद्देश्य था- भारत की प्रजा के मन में अंग्रेज जाति की श्रेष्ठता और अपराजेय होने के भाव को बल प्रदान करना, जिससे वे दोबारा आज़ादी प्राप्त करने का प्रयास न करें, इस भय को मिटाने में भी भगतसिंह की कुरबानी सदा याद रखी जाएगी।
प्रेरणास्रोत
 किसी भी व्यक्ति को महान बनने के लिए महान कर्म यानि तप करना पड़ता है, और उस तप की प्रेरणा उसके संस्कार और विचार होते हैं। किसी भी व्यक्ति के विचार उसे ऊपर उठा भी सकते हैं और उसे नीचे गिरा भी सकते हैं। भगतसिंह के वे संस्कार क्या थे जिनसे उनके व्यक्तित्त्व का निर्माण हुआ। भगतसिंह कई महान आत्माओं से प्रेरित हुए, जैसे- करतार सिंह सराभा, भाई परमानन्द, सरदार अर्जुनसिंह, सरदार किशनसिंह आदि। भगतसिंह के आद्य प्रेरणास्रोत सरदार अर्जुनसिंह उनके दादा थे और स्वामी दयानंद के उपदेश सुनने के बाद वैदिक विचारधारा से प्रभावित हुए थे।
जिनका जीवन बदल गया
 सरदार अर्जुनसिंह उन विरल व्यक्तियों में से थे, जिन्हें न केवल स्वामी दयानंद के उपदेश सुनने का साक्षात् अवसर मिला अपितु वे आगे चलकर स्वामीजी की वैचारिक क्रांति के क्रियात्मक रूप से भागीदार भी बने। स्वामी दयानंद के हाथों से उन्हें यज्ञोपवीत प्राप्त हुआ और उन्होंने आजीवन वैदिक आदर्शों का पालन करने का व्रत लिया। उन्होंने तत्काल मांस खाना छोड़ दिया और शराब को भी जीवन भर मुंह नहीं लगाया। अब नित्य हवन उनका साथी और वैदिक संध्या उनके प्रहरी बन गए। समाज में फैले अन्धविश्वास जैसे- मृतक श्राद्ध, पाखंड आदि के खिलाफ उन्होंने न केवल प्रचार किया अपितु अनेक शास्त्रार्थ भी किये।
राष्ट्रीय एकता के पक्षधर
 1897 में कुछ सिखों में अलगाववाद की एक लहर चल पड़ी। काहन सिंह नाम से एक सिख लेखक ने ‘हम हिन्दू नहीं’ के नाम से पुस्तक लिखकर सिख पंथ को हिन्दू समाज से अलग दिखाने का प्रयास किया तो सरदार अर्जुन सिंह ने ‘हमारे गुरु वेदों के पैरोकार (अनुयायी) थे’ शीर्षक से पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब में दिए गए श्लोकों को प्रस्तुत किया जो वेदों की शिक्षाओं से मेल खाते थे और इससे यह सिद्ध किया कि गुरु ग्रन्थ साहिब की शिक्षाएँ वेदों पर आधारित हैं।
सरदार अर्जुनसिंह का धार्मिक दृष्टिकोण
 सरदार अर्जुनसिंह ने अपने ग्राम बंगा, जिला लायलपुर  में गुरुद्वारे को बनाने में तो सहयोग किया ही, और वे गुरुद्वारा में तो जाते थे पर कभी गुरु ग्रन्थ साहिब के आगे माथा नहीं टेकते थे। वे कहते थे कि गुरु साहिबान की शिक्षा पर चलना ही सही है, वे कहते थे कि मूर्तिपूजा की भांति ही यह पुस्तक पूजा हैं। वे ग्राम के बड़े जमींदार थे, ग्राम के विकास के लिए उन्होंने कुएँ और धर्मशाला भी बनवाई। हर वर्ष अपने ग्राम में आर्यसमाज के प्रचारकों को बुलाकर हवन और उपदेशकों के प्रवचन आदि करवाते थे जिससे ग्राम से छुआछूत, अंधविश्वास और नशे आदि का कलंक सदा के लिए मिट जाये।
 सन 1909 में पटियाला रियासत में आर्यसमाज पर राजद्रोह का अभियोग अंग्रेज सरकार ने चलाया। निर्दाेष आर्यसमाज के अधिकारियों और सदस्यों को बिना कारण जेल में बंद कर दिया गया। इसका उद्देश्य सिखों और आर्यों में आपसी वैमनस्य पैदा करना व देसी रियासतों से आर्यसमाज की जागरण-क्रांति की मशाल को मिटा देना था। इस संकट की घड़ी में जब कोई भी वकील आर्यसमाज का केस लड़ने को तैयार न हुआ तो खुद स्वामी श्रद्धानंद ने आर्यसमाज के वकील के रूप में केस की पैरवी की और कोर्ट में सिद्ध किया कि आर्यसमाज का उद्देश्य समाज का कल्याण करना है न कि राजद्रोह करना। इस मामले में  सरदार अर्जुनसिंह भी सक्रिय हुए। अन्य आर्यों के साथ मिलकर उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब के 700 ऐसे श्लोक प्रस्तुत किये जो कि वेदों की शिक्षा से मेल खाते थे। इस प्रकार सिख समाज और आर्यसमाज में आपसी मधुर सम्बन्ध बनाने में आप के प्रयास मील के पत्थर सिद्ध हुए।
सत्य-मार्ग के तपस्वी पथिक
 एक बार वे एक विवाह उत्सव में शामिल हुए, जहाँ एक सिख पुरोहित स्वामी दयानंद रचित सत्यार्थप्रकाश की आलोचना कर रहा था। आपने उसे चुनौती दी कि वह जिस कथन के आधार पर आलोचना कर रहा है, वह कथन ही सत्यार्थप्रकाश में नहीं है। उसने कहा कि यदि सत्यार्थप्रकाश लाओगे तो मैं प्रमाण दिखा दूंगा। अर्जुनसिंह जी को उस पूरे गाँव में सत्यार्थप्रकाश न मिला। आप तत्काल अपने गाँव वापस गए और अगले दिन सत्यार्थप्रकाश लेकर वापिस आ गए। आलोचक उन्हें सत्यार्थप्रकाश में वह बात न दिखा सका और माफी मांगकर पिण्ड छुड़ाया। ध्यान दीजिये- अर्जुनसिंह जी का गाँव वहाँ से लगभग 60 मील दूर था। सत्य मार्ग पर चलते हुए जो कष्ट होता है, उसे ही असली तप कहते हैं।
पूरा कुटुंब क्रांति के मार्ग पर
 स्वामी दयानंद 1857 के पश्चात् पहले गुरु थे जिन्होंने स्वदेशी राज्य का समर्थन किया और विदेशी शासन का बहिष्कार करने का आह्वान किया। उनके इस जन चेतना के आह्वान का सरदार अर्जुनसिंह पर इतना प्रभाव पड़ा कि न केवल वे स्वयं स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल हुए बल्कि उनका समस्त कुटुंब भी इसी रास्ते पर चल पड़ा था। जब भगतसिंह और जगतसिंह आठ वर्ष के हुए तो अर्जुनसिंह जी ने अपने दोनों पोतों का यज्ञोपवीत पंडित लोकनाथ तर्कवाचस्पति (भारत के पहले अन्तरिक्ष यात्री राकेश शर्मा के दादा) के हाथों से करवाया और एक पोते को दायीं और दूसरे को बायीं भुजा में भरकर यह संकल्प लिया- मैं इन दोनों पोतों को राष्ट्र की बलिवेदी के लिए दान करता हूँ। अर्जुनसिंह जी के तीनों लड़के पहले से ही देश के लिए समर्पित थे.। उनके सबसे बड़े पुत्र और भगतसिंह के पिता किशनसिंह सदा हथकड़ियों की चौसर और बेड़ियों की शतरंज से खेलते रहे, उनके मंझले पुत्र अजीत सिंह को तो देश निकाला देकर मांडले भेज दिया गया, बाद में वे विदेश जाकर गदर पार्टी के साथ जुड़कर कार्य करते रहे। छोटे पुत्र स्वर्णसिंह का जेल में तपेदिक से युवावस्था में ही देहांत हो गया था। अपने दादा द्वारा देशहित में लिए गए संकल्प को पूरा करने के लिए, अपने पिता और चाचा द्वारा अपनाये गए कंटक भरे मार्ग पर चलते हुए भगत सिंह भी वीरों की भांति देश के लिए 23 मार्च 1931 को 23 वर्ष की अल्पायु में फाँसी पर चढ़ कर अमर हो गए। भगतसिंह के मन में उनके दादा सरदार अर्जुनसिंह जी द्वारा बोए गए क्रांति बीज आर्य क्रांतिकारियों भाई परमानन्द, करतार सिंह सराभा, सूफी अम्बा प्रसाद और लाला लाजपत राय जैसे क्रांतिकारियों द्वारा दी गयी खाद से पल्लवित होकर जवान होते-होते देश को आजाद करवाने की विशाल बरगद रुपी प्रतिज्ञा बन गए। यह पूरा परिवार आर्यसमाज की प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित था जिसका श्रेय सरदार अर्जुनसिंह को जाता है।

डॉ0 विवेक आर्य। 

आर्यसमाज और हैदराबाद सत्याग्रह।

आज से 74 वर्ष पूर्व 17 सितंबर 1948 हैदराबाद राज्य (वर्तमान का हैदराबाद शहर और कर्नाटक राज्य) का विलय भारतीय संघ मे हुआ था।
तत्कालीन हैदराबाद राज्य में बहुमत जनता हिन्दू थी पर राज्य मुसलमान था। निजाम अपनी रियासत को पाकिस्तान मे मिलाने चाहता था और 1930 से ही हिन्दूओ को इस्लाम कबुलने के लिए तरह तरह दबाव बनाया करता था।
हैदराबाद शहर मे प्रथम आर्य समाज की स्थापना 1892 मे स्थापना हुई। 1938 तक तत्कालीन हैदराबाद राज्य मे 250 से ज्यादा आर्य समाज के केंद्र खुल गए थे। इसी के साथ आर्य समाज ने बहुसंख्यक हिन्दूओ हित मे आर्य समाज मे अपनी आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी थी। जिन्हें दबाव से मुसलमान बनाया गया था उनके लिए शुद्धि आंदोलन चलाया गया।
*घर वापसी मे प्रख्यात विद्वान पंडित रामचंद्र देहलवी जी के भाषणो का महत्वपूर्ण योगदान रहता था।
आर्य समाज को हैदराबाद को इस्लामिक राज्य बनाने मे सबसे बङा रोङा मानते हुए, निजाम ने संगठन पर कङे प्रतिबंध लगाने के आदेश दिए। इसमे सम्मेलन करने, किसी नई जगह पर हवन करने पर भी प्रतिबंध था। यहां तक ओ३म् का भगवा झंडा लहराने पर भी जेल भेज दिया जाता था।
9 अक्टूबर 1938 को आर्य समाज ने महात्मा नारायण स्वामी के नेतृत्व मे निजाम के विरूद्ध पहला सत्याग्रह किया। इसके बाद करीब 6 और सत्याग्रह हुए।12000 सत्याग्रहियो मे से 7000 हैदराबाद राज्य के बाहर से थे। इसमे बङी संख्या गुरुकुल कांगङी हरिद्वार के ब्रह्मचारीयो की थी।सैकड़ों कार्यकर्ताओ जेल में डाला गया जिसमे से कुछ ने अनशन के दौरान अपने प्राण त्याग दिए।
आज देश का दुर्भाग्य है कि जीन लोगों ने कभी इतिहास पढा नही वह इतिहास बदलने की बात करते हैं......संसार के सम्मानित राष्ट्रों का इतिहास उन व्यक्तियों के चरित्रों से सदा भरपूर रहा है, जिन्होंने उच्च एवं पवित्र उद्देष्यों की पूर्ति के लिए महान् से महान् त्याग किया और समय पड़ने पर इस संघर्ष में अपने जीवन को न्योछावर कर दिया और पीछे बलिदानों के अवषेश रख गए, जो अनुगामियों का पथ प्रदर्शन कर सकते हैं
शहीदों को मृत्यु कभी स्पर्श नहीं करती अपितु वे स्वयं मर कर अमर हो जाते हैं। इतिहास साक्षी है। ऐसी महान् आत्माओं का रक्त कदापि व्यर्थ नहीं गया अपितु समय आने पर एक ऐसे प्रखर प्रचंड रूप में प्रवाहित हो निकला जिसमें हिंसा, अत्याचार और पाशविकता के दल स्वतः निमग्न हो गए। ये व्यक्ति धर्म-प्रचार, सदुपदेश, प्रजावाद की प्रस्थापना, शांति और प्रेम एवं सत्य को साधारण व्यक्तियों तक पहुंचाने के लिये अपने जीवन-लक्ष्य की कठिनाईयों को पार कर आगे बढ़ते ही रहे। इन्होंने सदा पराक्रान्तों का साथ दिया और मानवता के उच्च आदर्शो के रक्षक हुए और इन हेतुओं से निज तन-मन-धन की बलि देकर स्पष्ट कर दिया कि इनका सेवा कार्य में कितना उत्साह था तथा बलिवेदी से कितना ऊंचा प्रेम था।
आर्य समाज के शहीद मरने के बाद अमर हो गये और इन हुतात्माओं के रक्त से हैदराबाद में वैदिक धर्म का जो चमन सींचा गया, वह अब एक विस्तृत उद्यान बन गया है और रियासत में वैदिक धर्म का नव सन्देश दे रहा है। यहां हम कुछ आर्य समाजी शहीदों का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं जो वर्तमान में संसार में उपस्थित तो नहीं हैं पर वे सबके ह्रदयों में स्मरण रहेंगे और ऐसा प्रतीत होता है कि हम इन्हें कभी भूल नहीं सकेंगे।
1. वेद प्रकाश जी
वेद प्रकाष जी का पूर्व नाम दासप्पा था। दासप्पा संवत् 1827 में गुजोटी में पैदा हुए। इनकी माता का नाम रेवती बाई और पिताश्री का नाम रामप्पा था। गरीब माता-पिता को इसकी क्या सूचना थी कि उनका बेटा बड़ा होकर हुतात्मा बनेगा और वैदिक धर्म के मार्गं में शहीद होकर अमर हो जाएगा। दासप्पा ने मराठी माध्यम से आठवीं श्रेणी तक षिक्षा ग्रहण की। जैसे-जैसे ये बढ़ते गये वैसे-वैसे वे धर्म की ओर आकर्षित होते गये। वे आर्य समाज के सत्संगों में बराबर सम्मिलित होते थे। वैदिक धर्म के आकर्षण ने इन्हें महर्शि दयानन्द का पक्का भक्त बना दिया। आर्य समाजी बनने के बाद यह वेद प्रकाश कहलाने लगे थे। इनका आर्य समाज में असाधारण प्रेम एवं निश्ठा के ही कारण गुंजोटी में आर्य समाज की नींव डाली गयी पर स्थानीय इर्स्यालू यवन इन्हें देखकर जलने लगे थे। वेद प्रकाश जी सुगठित शरीर एवं सद्गुण रखते थे और लाठी-तलवार चलाने की विद्या में पर्याप्त दक्ष थे। इनकी यह दक्षता कई भयंकर संकटों के समय इनकी सहायक सि( हुई। कई बार विरोधी दल ने इन पर आक्रमण किये और ये अपने आपको सुरक्षित रखने में सफल हुए।
गुंजोटी का छोटे खां नाम का एक पठान स्त्रियों को गलत निगाहों से देखता था। एक दिन वेद प्रकाश जी ने इसे ऐसा करने से रोका और सावधान किया कि भविष्य में इस प्रकार कुद्रष्टि मातसमाज पर न डालें। यह बात गुण्डों को हृदयग्राही न थी और सब इनके शत्रु हो गए। वेद प्रकाश जी ने गुंजोटी में हिन्दुओं के लिये पान की एक दुकान खोल दी और चांद खान पान का एक व्यापारीद्ध इनका शत्रु हो गया और भीतर ही भीतर इनके विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगा। एक दिन यवनों ने स्थानीय आर्य समाज के मन्त्री के मकान पर अकस्मात् धावा बोल दिया, इसकी सूचना वेद प्रकाश जी को मिली, वे इन आक्रमणकारियों को रोकने के लिए निःशस्त्र ही चले गये। मन्त्री के मकान के समीप दो-तीन मुसलमानों ने इन्हें पकड़ लिया और आठ-नौ व्यक्तियों ने इन्हें नीचे गिरा कर हत्या कर दी। विषेश उल्लेखनीय बात यह है कि उस दिन पुलिस ने वहां के प्रतिष्ठित हिन्दुओं को थाने में बुलाकर बैठा रखा था। आक्रमकत्र्ताओं और हत्यारों को पहचान लिया गया और न्यायालय में गवाह भी उपस्थित किये, पर फिर भी हत्यारों को निर्दोश घोषित कर दिया गया। वेद प्रकाश जी का रक्त हैदराबाद में पहला रक्त था जो बड़ी निर्दयता के साथ बहाया गया था और इसके बाद वीर आर्यों के बलिदानों का एक सिलसिला सा चल पड़ा।
2. धर्म प्रकाश जी
धर्म प्रकाश जी का पूर्व नाम नागप्पा था। नागप्पा जी का जन्म कल्याणी में संवत् 1909 में हुआ था। इनके पिताश्री का नाम सायन्ना था। इनका पदार्पण जब आर्य समाज में हुआ तब से ये धर्म प्रकाश कहलाने लगे। कल्याणी एक मुस्लिम नवाब की जागीर थी। वहां मुसलमानों का अत्याचार नंग-नाच कर रहा था। मुसलमानो के अत्याचारों को देखकर धर्म प्रकाश इसकी रोक-थाम की तैयारी में लग गये। हिन्दुओं को शस्त्र विद्या सिखाने लगे। कल्याणी के मुसलमान हिन्दुओं के शारीरिक अभ्यास से रुस्ठ हो गये और उन्होंने इनकी हत्या करने की कमर कस ली। कल्याणी के इस धर्मवीर पर कई बार आक्रमण किये गये पर आक्रमकारियों को सफलता नहीं मिली। कल्याणी के खाकसार इनकी हत्या की ताक में रहने लगे। 27 जून 1937 ई. की रात को धर्म प्रकाश आर्य समाज कल्याणी के सत्संग से अपने घर वापस जा रहे थे कि खाकसारों ने इन्हें एक गली में घेर कर बरछों और भालों की सहायता से मार डाला। वेद प्रकाश की हत्या से आर्य समाज में शोक व दुःख की लहर दौड़ गयी। इस हत्याकाण्ड के हत्यारे भी न्यायालय से निर्दोष छोड़ दिये गये।
3. महादेव जी
महादेव जी अकोलगा के रहने वाले थे। साकोल आर्य समाज के सत्संगों में जब इन्हें कई बार सम्मिलित होने का अवसर मिला, तब वैदिक धर्म का जादू इन पर चढ़ गया। इनके मन और मस्तिक्ष पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि आर्य समाजी बन जाने के बाद वैदिक धर्म के प्रचार की धुन लग गयी। तरुणोत्साह और साहस इन्हें इस मार्ग पर आगे बढ़ाता ही रहा। महादेव जी की मुखाकष्ति पर तेज था। भाषण देते समय इनके मुख से जो वाक्य निकलते, उन्हें लोग बड़ी तन्मयता और रुचि से सुनते और एक तरुण आर्य युवक को प्रचार के काम में इस प्रकार तल्लीन देखकर लोगों को भी इच्छा होती थी कि वे भी इसी प्रकार बनें। महादेव जी के प्रचार का काम जब प्रगति पर था उस समय मुसलमान इनके अकारण शत्रु बन गये। कई बार इन पर इस द्रष्टि से आक्रमण हुए कि वे सदा के लिए मौन हो जाए पर वे बचते ही रहे।
एक दिन की घटना है कि महादेव जी अपने प्रिय धर्म प्रचारार्थ कहीं जा रहे थे कि रास्ते में किसी अज्ञात व्यक्ति ने पीछे से आकर छुरा घोंप दिया और 14 जुलाई 1938 के दिन यह आर्य युवक 25 वर्ष की आयु में सदा के लिए इस संसार से बिदा हो गया।
4. श्याम लाल जी
धर्मवीर श्याम लाल जी का जन्म 1903 ई. भालकी में हुआ था। इनके पिताश्री का नाम भोला प्रसाद और माता का छोटूबाई था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा मराठी में हुई। ये एक पौराणिक परिवार से थे। इनके एक मामा आर्य समाजी थे, जिनके प्रभाव से श्याम लाल जी के ज्येश्ठ भ्राता बंसीलाल जी वैदिक धर्म के अनुयायी और स्वामी दयानन्द के अन्तःकरण के भक्त बन गये और आर्य समाज के सर्वप्रिय नेता भी कहलाने लगे। गुलबर्गा में आपके ही प्रयासों से आर्य समाज की स्थापना हुई। वे स्वयं इस समाज के मन्त्री बनकर कार्य संचालन करते रहे। 1925 ई. में वकील बने और उदगीर में वकालत करने लगे। निजी जीविकोपयोगी कार्य करते हुए आर्य समाज का प्रचार भी करते थे। 1926 ई. में इन्हें चर्म रोग लग गया और वह इतना बढ़ा कि पूरा शरीर फूल गया। रोग निवारणार्थ आप लाहौर गये। अभी आप लाहौर में ही थे कि 1926 ई. में स्वामी श्रद्धानन्द जी शहीद हो गये। स्वामी जी के इस बलिदान का प्रभाव इन पर अत्यधिक पड़ा। लाहौर से वापस आकर उदगीर में आर्य समाज की स्थापना की और प्रतिज्ञा की कि आजीवन वैदिक धर्म का प्रचार करेंगे। उदगीर के तात्कालीन मुसलमान तहसीलदार ने स्थानीय मुसलमानों को प्रेरित कर इनके मकान पर आक्रमण करवा दिया, परन्तु यह आक्रमण विफल रहा। आर्य समाज उदगीर की स्थापना के बाद आपके अथक प्रयासों से विजय दशमी के अवसर पर प्रथम बार जुलूस निकाला गया। होली के जुलूस के अवसर पर आप पर पुनः आक्रमण हुआ पर इस बार भी आप बच गये। श्याम लाल जी ने अछूतों के लिए एक पाठशाला, एक व्यायाम शाला तथा एक निःशुल्क चिकित्सालय भी स्थापित किया। 1928 ई. में उदगीर आर्य समाज का वार्षिकोत्सव हुआ और इसी के बाद पुलिस आपका पीछा करने लगी। इसी वर्ष धारा 104 के अधीन आप पर झूठा मुकद्दमा चलाया गया और आपसे दो हजार की जमानत और मुचलका लिया गया। श्याम लाल जी उदगीर से बाहर निकलकर भालकी, कल्याणी, औराद, शाहजहानी, लातूर तथा औसा आदि स्थानों पर प्रचार करने लगे। कई बार मुसलमानों ने आप पर आक्रमण किया और कई ऐसे अवसर आये जब कि हिन्दुओं ने आपको अपने पास आश्रय देना अस्वीकार किया। आपने कई रातें मार्ग पर चलते हुए बितायीं और दिन में फिर प्रचार कार्य किया। 1935 ई. में माणिक नगर की यात्रा के अवसर पर मुसलमानों ने आप पर छुरा घोंप देने का प्रयत्न किया पर एक नवयुवक बीच में आया, स्वयं जख्मी हुआ और इन्हें बचा लिया। 1938 ई. में इन पर पुलिस ने एक झूठा मुकद्दमा चलाया और न्यायालय ने इन्हें दीर्घकालिक दण्ड दिया। अभी आप कारावास में दंड भोग रहे थे कि आपका देहांत हो गया। पं. श्याम लाल जी का नाम हैदराबाद आर्य समाज के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा रहेगा क्योंकि ये अपने अथक प्रयत्नों, संघर्ष और श्रद्धा से आर्य समाज को शक्तिषाली और विस्तृत करने की चिन्ता अन्तिम श्वास तक करते रहे।
5. व्यंकटराव जी
व्यंकटराव जी कंधार जिला नांदेड़ के रहने वाले थे। इन्होंने स्टेट कांग्रेस द्वारा संचालित सत्याग्रह में भाग लिया और दण्ड भोगते रहे। कारावास के अधिकारियों द्वारा मार-पीट के कारण 18 अप्रैल 1938 ई. में आप परलोक सिधार गये।
6. विष्णु भगवान् जी
विष्णु भगवान् जी ताण्डूर ;गुलबर्गाद्ध के रहने वाले थे। इन्होंने गुलबर्गा में ही सत्याग्रह किया और वहीं इन्हें कारावास का दण्ड दिया गया। आपको गुलबर्गा से औरंगाबाद और फिर हैदराबाद जेल में रखा गया और यहां दूसरे सत्याग्रहियों के साथ इन्हें इतना पीटा गया कि ये सहन न कर सके और 2 मई 1939 ई. में आपने 30 वर्ष की आयु में अपना शरीरान्त किया।
7. माधवराव सदाशिवराव जी
आप लातूर के रहने वाले थे। आपने 30 वर्ष की आयु में आर्य सत्याग्रह में भाग लिया और गुलबर्गा जेल में बन्द कर दिये गए। 26 मई 1939 ई. के दिन कड़कती धूप में नंगे पैर जेल में कठिन परिश्रम करने से रोगग्रस्त हो गए। चिकित्सा का कोई प्रबन्ध नहीं किया गया और आप इस प्रकार निजाम सरकार की क्रूरता के कारण देहावसान कर गये। माधव राव सदाशिवराव के देहान्त की सूचना पाकर असंख्य नर-नारी इनके अन्तिम दर्शन करने गए पर पुलिस ने रोक दिया और जेल में ही इनका शव अग्नि की भेंट कर दिया गया।
8. पाण्डुरंग जी
उस्मानाबाद के रहने वाले युवा आर्य सत्याग्रही को सत्याग्रह के कारण ही कारावास का दंड दिया गया था। गुलबर्गा जेल में इन पर इन्फुएंजा का आक्रमण हुआ पर चिकित्सा का कोई प्रबन्ध न किया गया। हालत चिन्ताजनक होती गई। 25 मई 1939 के दिन इन्हें नागरिक औषधालय में भेजा गया और वहीं 27 मई को इनका देहान्त हो गया। असंख्य नर-नारी इनके अन्तिम दर्शन को आए पर पुलिस ने इन्हें वापस जाने पर विवश कर दिया और पुलिस द्वारा ही इनका अन्तिम संस्कार किया गया।
9. राधाकृष्ण जी
राधाकृष्ण जी निजामाबाद के एक राजस्थानी थे। 1903 ई. में आपका जन्म हुआ था। आपके पिता का नाम जीतमल था। 1934 ई. में आप आर्य समाजी बने और तभी से इसके प्रचार की धुन लग गई। इन्होंने ही निजामाबाद में आर्य समाज की स्थापना की थी। इसी कारण आप पुलिस की वक्रद्रष्टि में खटने लगे। मुहर्रम के दिनों में आप पर मुकद्दमा चलाया गया और इनसे एक साल के लिए दो हजार रुपये का मुचलका लेकर छोड़ा गया। आर्य सत्याग्रह के समय आप बड़े उत्साह के साथ चन्दा एकत्रित करने में जुटे थे। 2 सितम्बर 1931 ई. के दिन एक अरबी ने छुरा घोंप कर मार डाला और यह बात सर्व विदित हो गई कि इनकी हत्या के षड्यंत्र में पुलिस का हाथ था।
10. लक्ष्मण राव जी
आपने धार्मिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह किया। जेल के कठोर व्यवहार को सहन न कर सकने के कारण 3 अगस्त 1939 ई. को हैदराबाद जेल में आपका देहान्त हो गया।
11. शिवचन्द्र जी
आपका जन्म 3 मार्च 1916 ई. में दुबलगुण्डी में हुआ था। आपके पिताश्री का नाम अन्नपक्षप्पा था। 1935 ई. में मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। सरकार की ओर से आपको छात्रवष्त्ति भी प्राप्त हुई थी। आप हुमनाबाद की एक पाठशाला में अध्यापक हो गये थे। पाठशाला के अवकाष के समय आप आर्य समाज के साहित्य का अध्ययन किया करते थे। आर्य समाज के लिए आपने बड़े उत्साह और श्रद्धा से काम किया। शोलापुर से आप सत्याग्रहियों को हैदराबाद लाते थे और सत्याग्रह के समाचार हैदराबाद से बाहर भेजते थे। 3 मार्च 1942 ई. के दिन होली में जुलूस के अवसर पर मुसलमानों ने आक्रमण कर दिया, फलस्वरूप आप शहीद हो गए। आप के साथ आपके साथी लक्ष्मण राव जी, राम जी अगडे़ और नरसिंह राव जी गोलियों का निषाना बने थे।
12. राम कृष्ण जी
राम कृष्ण जी का जन्म लावसी ग्राम में एक ब्राह्मण कुल में हुआ था और यह शहीद होने से केवल दो सप्ताह पूर्व ही आर्य समाजी बने थे। एक दिन पठानों ने घोषणा की थी कि ‘उस दिन वे मन्दिर को तोड़ेंगे, जिसे धर्म पर विश्वास हो वे आकर उन मन्दिरों को उनके हाथों से बचा लें।’ सब हिन्दू घबरा कर अपने-अपने मकानों में बैठ गये किन्तु जब राम ने यह घोषणा सुनी तो वे क्रोधाग्नि से जल उठे। पुजारियों ने कभी इन्हें मन्दिर में प्रवेश होने नहीं दिया था और फिर आर्य समाजी होने के कारण इन्हें मन्दिर और इन मन्दिरों की मूर्तियों से क्या रुचि, परन्तु पठानों की इस घोषणा को इन्होंने सम्पूर्ण हिन्दू जाति के लिए एक चैलेंज समझा और जाति की मान रक्षा हेतु मन्दिर द्वार पर अपना डेरा डाला। यहाँ इन पर गोलियों की वर्षा हुई, घायल होने पर भी आपने पठानों को मार भगाया और हिन्दू जाति की लाज रख ली। स्वयं शहीद होकर इन्होंने मन्दिर की रक्षा की और जिस जाति में वे पैदा हुए थे, उसकी प्रतिष्टा रख ली।
13. भीम राव जी
आप हिपला उदगीरद्ध के रहने वाले थे। इनके मित्र माणिक राव की बहन को मुसलमानों ने मुसलमान बना लिया था। भीमराव ने उसे शुद्ध कर लिया था। इस कारण मुसलमानों ने क्रोधित होकर इनके घर को आग लगा दी और इन्हें मार कर इनके हाथ-पांव काट डाले और इन्हें आग में जला दिया।
14. माणिक राव जी
यह भी हिपला उदगीरद्ध के रहने वाले थे। इनकी बहन को मुसलमान बना लिया गया था। जब इनकी बहन को शुद्ध कर लिया गया तो मुसलमानों ने माणिक राव जी को गोलियों का निशाना बना दिया था।
15. सत्य नारायण जी
आप अम्बोलगा ;वीदरद्ध के रहने वाले थे। आर्य समाज का काम बड़े जोष के साथ करते थे, इसीलिए मुसलमान इनके शत्रु हो गए। मुहर्रम के दिनों में वे बाजार से जा रहे थे कि एक मुसलमान ने पीछे से तलवार से हमला कर दिया। वे तुरन्त ही चिकित्सालय पहुंचाए गये पर वहां जाते ही परलोक सिधार गये।
16. महादेव जी
यह तिवाड़े के रहने वाले थे। गुलबर्गा में ही सत्याग्रह करने के कारण जेल में डाल दिए गये थे। जेल वालों के अत्याचार से 1939 ई. में ही चल बसे।
17. अर्जुन सिंह जी
आप आर्य समाज के एक नर-रत्न थे। आप तालुका कन्नड़ औरंगाबाद में पैदा हुए थे। बचपन से ही आप हैदराबाद में रहने लगे थे। अपने उत्साह और निष्ठां के कारण आप हैदराबाद दयानन्द मुक्ति दल के सेनापति बनाए गए थे। सम्वत् 1861 में जंगली विठ्ठोबा की यात्रा में कुषल प्रबन्ध करने के बाद घर वापस लौट रहे थे कि मार्ग में कुछ सशस्त्र मुसलमानों ने आप पर आक्रमण कर दिया, तुरन्त ही उस्मानिया दवाखाना भेजे गए पर दूसरे ही दिन परलोक सिधार गये।
18. गोविन्द राव जी
आप निलंगा जिला बीदर के रहने वाले थे। सत्याग्रह करके जेल गये। पर वहां के अत्याचारों को सहन न कर सकने के कारण देहावसान कर गये।
19. गोन्दिराव जी, लक्ष्मण राव जी इन दोनों ने सत्याग्रह में अपनी जान की बाजी लगा दी। आर्य समाजी शहीदों का यह बहुत ही संक्षिप्त परिचय है। जिसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हैदराबाद में वे निजाम सरकार और मुसलमानों के अत्याचारों का किस प्रकार निषाना बने और वैदिक पताका को ऊॅंचा रखने के लिए किस प्रकार इन्होंने अपना अन्तिम रक्त बिन्दु तक बहा दिया।
अनेक आर्यवीर अपने घरों को लौटकर बीमारी से बलिदानी हुए। इन सभी महान धर्मरक्षक आत्माओं को विनम्र श्रद्धांजलि।

Saturday, July 16, 2022

शिक्षा व्यवस्था मे संस्कृत के ज्ञान विज्ञान को क्यों छुपा दिया गया।

प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ  भास्कराचार्य (1114 – 1185)  के द्वारा रचित एक मुख्य ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि है  हैं।
भास्कराचार्य ने अपने सिद्धान्तशिरोमणि में यह कहा है-
आकृष्टिशक्तिश्चमहि तया यत् खस्थं गुरूं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या ।
आकृष्यते तत् पततीव भाति समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे ।।
– सिद्धान्त० भुवन० १६
अर्थात – पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है जिसके कारण वह ऊपर की भारी वस्तु को अपनी ओर खींच लेती है । वह वस्तु पृथ्वी पर गिरती हुई सी लगती है । पृथ्वी स्वयं सूर्य आदि के आकर्षण से रुकी हुई है,अतः वह निराधार आकाश में स्थित है तथा अपने स्थान से हटती नहीं है और न गिरती है । वह अपनी कील पर घूमती है।
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वराहमिहिर ( 57 BC ) ने अपने ग्रन्थ पञ्चसिद्धान्तिका में कहा है-
पंचभमहाभूतमयस्तारा गण पंजरे महीगोलः।
खेयस्कान्तान्तःस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः ।।
– पञ्चसिद्धान्तिका पृ०३१
अर्थात- तारासमूहरूपी पंजर में गोल पृथ्वी इसी प्रकार रुकी हुई है जैसे दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहा ।
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अपने ग्रन्थ सिद्धान्तशेखर में आचार्य श्रीपति ने कहा है –
उष्णत्वमर्कशिखिनोः शिशिरत्वमिन्दौ,.. निर्हतुरेवमवनेःस्थितिरन्तरिक्षे ।।
– सिद्धान्तशेखर १५/२१ )
नभस्ययस्कान्तमहामणीनां मध्ये स्थितो लोहगुणो यथास्ते ।
आधारशून्यो पि तथैव सर्वधारो धरित्र्या ध्रुवमेव गोलः ।।
–सिद्धान्तशेखर १५/२२
अर्थात -पृथ्वी की अन्तरिक्ष में स्थिति उसी प्रकार स्वाभाविक है, जैसे सूर्य्य में गर्मी, चन्द्र में शीतलता और वायु में गतिशीलता । दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहे का गोला स्थिर रहता है, उसी प्रकार पृथ्वी भी अपनी धुरी पर रुकी हुई है ।

रामायण एक काल्पनिक कथा या वास्ताविकता ?

कई सहस्त्र वर्षों से भारतीय समाज रामायण को बड़े ही श्रद्धाभाव से मानता और सुनता चला आया है । इस समय मुख्य रूप से दो ग्रंथ प्रचलित हैं वाल्मिकी मुनि कृत रामायण और तुलसीदास कृत रामचरितमानस, रामायण भी कई प्रकार की मिलती हैं जिनकी कथाओं में थोड़ा थोड़ा भेद मिलता है । परंतु मुख्य रूप से रामचरितमानस का प्रभाव इस समय मानव समाज पर अधिक है 
। ऐसा इसलिए क्योंकि तुलसीदास ने वालामिकी रामायण के वास्ताविक श्ब्दों के अर्थ न पकड़कर उनकी सर्वथा उपेक्षा ही की और कई  चमत्कारों और काल्पिनक बातों को रामायण के पात्रों से जोड़कर इसे अविश्वसनीय बना दिया है । 
परिणाम ये हुआ कि लोग रामायण को मात्र तीर, भालों, बर्छों से लड़ा गया एक जंगली लोगों के युद्ध से अधिक और कुछ नहीं मानते । और जो हिन्दू समाज रामायण का पाठ बड़े श्रद्धाभाव से सुनते हैं उनके लिए भी राम मात्र पाप मुक्ति और पूजा पाठ करके मूर्तीयों पर फूल माला फेरने तक ही सीमित हैं , और वामपंथी, नास्तिक, ईसाई, मुसलमान आदि तो रामायण को इन्हीं ऊटपटांग बातों के कारण हेय दृष्टि से देखकर तिरस्कार तक करते हैं । 
चमत्कारों और अतार्किक विज्ञानविरुद्ध प्रसंगों को आधार बनाकर तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखकर राम का महत्व बढ़ाने के बजाए घटा अवश्य दिया है । जैसा कि कहते हैं कि यदि हमें किसी परिवार की पीढ़ीयों के इतिहास का पता लगाना हो तो हमें उस परिवर के सबसे वृद्ध व्यक्ति से वो इतिहास पूछना पड़ेगा न कि उस परिवार के पाँच वर्षीय बालक से । ठीक वैसे ही राम चरित्र के वास्ताविक रूप को जानने हेतु हमें राम युग के वाल्मिकी मुनि की रामायण का आश्रय लेना होगा न कि मात्र 600  वर्ष पूर्व तुलसीकृत रामचरितमानस के । 
जबतक रामायण का वह विज्ञानसम्मत और तर्कसम्मत स्वरूप जनता के सामने प्रस्तुत नहीं किया जायेगा तबतक लोग इसे केवल एक भक्तिग्रंथ मानकर अकर्मण्य ही बने रहेंगे । हमारे कथावचकों ने भी श्रीराम जी के स्वरूप को इतना विकृत करके अत्यंत क्षमाशील और शत्रुओं को अभयदान देने वाले एक मोम के ढेले जैसा बनाकर प्रस्तुत किया है । 
 रामायण त्रेतायुग के महायुद्ध का एक अद्भुत इतिहास है जिसके आधार पर लोगों का युद्ध के कर्तव्य, राष्ट्रप्रेम, दृढ़ता, राजनीति, शत्रुदमन आदि शिक्षाओं से रक्त गर्म होना चाहिए था और श्रीराम एक महाबली प्रखर योद्धा थे । 
बजाए इसके राम, लक्षमण और सीता जी की मूर्तीयाँ स्थापित करके उनकी फूल माला करके पापमुक्ति, पैसा कमाना ही प्रयोजन बनकर रह गया और रामायण का वह विशुद्ध स्वरूप जनता के समझ में न आ पाया । रामायण की घटनाओं का तार्किक वर्णन प्रस्तुत करने पर ही वास्ताविक इतिहास पता लग सकता है । 
इसी कारण हम यहाँ रामायण की कुछ घटनाओं का तार्किक और विज्ञानसम्मत पक्ष यहाँ प्रस्तुत करेंगे जैसा कि वाल्मिकी मुनि के मन्तव्य के आधार पर है ।
(१) श्रीराम चन्द्र और लक्ष्मण जी का व्यक्तित्व :- जैसा कि तुलसीदास ने अपनी रामचरितमानस में बहुत सी चमत्कारिक घटनाओं को श्रीराम जी के जीवन के साथ जोड़कर उनके कर्तव्यपरायण स्वरूप को छिपा दिया है , वाल्मिकी मुनि की रामायण के अनुसार श्रीराम और लक्ष्मण जी आर्यवर्त ( भारत) में ऐसे महाबली योद्धा राजकुमार हुए हैं कि अनेकों राज्यों के राजकुमारों की चमक उनके सामने फीकी थी, ये दोनों राजकुमार समस्त अस्त्रशस्त्र विद्या में निपुण थे सभी प्रकार के राजनैतिक दाँव पेंच और कूटनीति में निपुण थे ये सब विद्या इन्होंने वशिष्ठ और विश्वामित्र जी से गुरुकुलों में प्राप्त की थी । पृथिवी के बड़े भूभाग पर राजा राम के रघुवंशीयों का ही चक्रवर्ती शासन था । और राजधानी अयोध्या को आज के उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर अयोध्या से तुलना नहीं करनी चाहिए । 
(२) रामायण का प्रगत युग :- ये पश्चिमी लोगों की मान्यता है कि युग जितना पुराना हो उसके लोग उतने ही अप्रगत , अशीक्षित, जंगली और बर्बर ही होने चाहिएँ । ऐसा वे डारविन के सिद्धांतों के आधार पर कहते हैं कि मानव जंगली अवस्था से विकसित होता होता उन्नति करता गया । परन्तु वैदिक परम्परा इसके विपरीत है , जब मनुष्य रचना हुई तो वह साक्षात ईश्वर के सान्निध्य में अत्यंत विज्ञानयुक्त थे और रूप में सुंदर और अत्यंत बुद्धि और बल से सम्पन्न थे , समय के साथ ह्रास होता गया और मानव वेद की उच्च शिक्षा से दूर होता होता सम्प्रदायों में बँटता गया और ऐसे ही मानव सभ्यता ह्रासभाव को प्राप्त हुई । 
ठीक इसीलिए रामायण कालीन युग आज की तुलना में अत्यंत प्रगत था । जितने दिव्यास्त्रों के नाम हम सुनते हैं वे सब विज्ञान की यांत्रिक रचनाओं के परिणाम हैं, और बहुत बार रामायण में प्रयोग किया जाने वाला शब्द विमान भी इसकी साक्षी देता है । क्योंकि शब्द बिना किसी अर्थ के नहीं होता है , पदार्थ के अस्तित्व में ही उसके शब्द का प्रयोग होता है ।
(३ ) बाली-सुग्रीव बंदर नहीं थे :- वर्तमान में सभी बाली-सुग्रीव, हनुमान जी को बंदर ही समझते हैं और उनके पूँछ और बंदर का मुख उनके चित्रों पर लगा देते हैं, वास्तव में वानर जंगलों में रहने वाली क्षत्रियों की शाखा थी, और इसी कारण उनके मुख पर ऐसी रंगों से आकृति बनाई जाती थी, ठीक वैसे ही जैसे कि आज के आदिवासी लोग अफ्रीका के जंगलों में बनाते हैं । लेकिन इस अर्थ को न समझकर हमारे कथाकारों ने इनको मानव से बंदर ही बना डाला । जैसे दूसरे विश्वयुद्ध में अफ्रीका के रेगिस्तान में जर्मन और इंग्लैंड की सेना में भयंकर युद्ध हुआ था । जिस कारण इनको Desert Rats कहा जाता था, यदि आज से लगभग हज़ार वर्ष बाद इस युद्ध का इतिहास लिखा जायेगा और कोई ये लिखे कि जर्मन ने चूहों की सेना खड़ी की ! तो ये कितना हास्यास्पद लगेगा ? ठीक वैसे ही हास्यास्पद है बाली सुग्रीव को बंदर कहना ।

इसाई मिशनरी का मायाजाल।

गैर ईसाईयों को ईसाई बनाने के लिए किस तरह के षड्यंत्रों का प्रयोग किया जाता है वह विचारणीय है. क्या आपने कभी सुना है कि कुछ  मुस्लिम आज तक इसाई बने हैं? आखिर हिन्दू ही इतना आसान क्यों है.
 कुछ समय पहले झारखण्ड सरकार ने No Conversion ( धर्मान्तरण रोकने का कानून बनाया तो समस्त ईसाइयों ने इसका जबर्दस्त विरोध किया. जानिए इनके कुछ छल कपट जो पूर्व में अपनाए गए थे या आज अपनाए जा रहे हैं. 
1- जिसे आज हम झारखंड कहते वह उस समय बिहार का हिस्सा था. आदिवासियों में एक अफवाह फैलाई गई कि आदिवासी हिन्दू नहीं इसाई हैं.
उस समय कार्तिक उरांव, जो वनवासियों के समुदाय से थे एवं कांग्रेस में इंदिरा गांधी के समकक्ष नेता थे, ने इसका बहुत ही कड़ा और कारगर विरोध किया। उन्होंने कहा कि पहले सरकार इस बात को निश्चित करे कि बाहर से कौन आया था ? यदि हम यहाँ के मूलवासी हैं तो फिर हम ईसाई कैसे हुए क्योंकि ईसाई पन्थ तो भारत से नहीं निकला। और यदि हम बाहर से आये ईसाईयत को लेकर, तो फिर आर्य यहाँ के मूलवासी हुए। और यदि हम ही बाहर से आये तो फिर ईसा के जन्म से हज़ारों वर्ष पूर्व हमारे समुदाय में निषादराज गुह, शबरी, कणप्पा आदि कैसे हुए ? उन्होंने यह कहा कि हम सदैव हिन्दू थे और रहेंगे।
उसके बाद कार्तिक उरांव ने बिना किसी पूर्व सूचना एवं तैयारी के भारत के भिन्न भिन्न कोनों से वनवासियों के पाहन, वृद्ध तथा टाना भगतों को बुलाया और यह कहा कि आप अपने जन्मोत्सव, विवाह आदि में जो लोकगीत गाते हैं उन्हें हमें बताईए। और फिर वहां सैकड़ों गीत गाये गए और सबों में यही वर्णन मिला कि यशोदा जी बालकृष्ण को पालना झुला रही हैं, सीता माता राम जी को पुष्पवाटिका में निहार रही हैं, कौशल्या जी राम जी को दूध पिला रही हैं, कृष्ण जी रुक्मिणी से परिहास कर रहे हैं, आदि आदि। साथ ही यह भी कहा कि हम एकादशी को अन्न नहीं खाते, जगन्नाथ भगवान की रथयात्रा, विजयादशमी, रामनवमी, रक्षाबन्धन, देवोत्थान पर्व, होली, दीपावली आदि बड़े धूमधाम से मनाते हैं।
फिर कार्तिक उरांव ने कहा कि यहाँ यदि एक भी व्यक्ति यह गीत गा दे कि मरियम ईसा को पालना झुला रही हैं और यह गीत हमारे परम्परा में प्राचीन काल से है तो मैं भी ईसाई बन जाऊंगा। उन्होंने यह भी कहा कि मैं वनवासियों के उरांव समुदाय से हूँ। हनुमानजी हमारे आदिगुरु हैं और उन्होंने हमें राम नाम की दीक्षा दी थी। ओ राम , ओ राम कहते कहते हम उरांव के नाम से जाने गए। हम हिन्दू ही पैदा हुए और हिन्दू ही मरेंगे। 
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2-जेमो केन्याटा केन्या की जनता के बीच राष्ट्रपिता का दर्जा रखते हैं। उन्होंने कहा था, 
जब केन्या में ईसाई मिशनरियां आर्इं उस समय हमारी धरती हमारे पास थी और उनकी बाइबिल उनके पास। 
उन्होंने हम से कहा – “आँख बंद कर प्रार्थना करो.” 
जब हमारी आंखें खुलीं तो हमने देखा कि उनकी बाइबिल हमारे पास थी और हमारी धरती उनके पास।
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3- छत्तीसगढ़ - एक मिशनरी के हाथ में 2 मूर्तियाँ. एक भगवान कृष्ण की. दूसरी यीशु की. ईसाई मिशनरी (प्रचारक) गाँव वालों को कहता है कि देखो जिसका भगवान सच्चा होगा वह पानी में तैर जाएगा. यीशू की मूर्ति तैरती हैं ( क्योंकि वह लकड़ी की बनी थी) और श्रीकृष्ण की मूर्ति पानी में डूब जाती है (क्योंकि वह POP या मिट्टी की बनी थी). ये ट्रिक कई गाँवों में अजमाई गई. एक गाँव में एक युवक ने कहा कि हमारे यहाँ तो अग्नि परीक्षा होती है तो मिशनरी बहाना बनाकर निकल जाता है.  
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4-इसाई चमत्कारिक प्रेरक/ प्रचारक – पाल दिनाकरन – प्रार्थना के पैक बेचते हैं.
पॉल दिनाकरण प्रार्थना की ताकत से भक्तों को शारीरिक तकलीफों व दूसरी समस्याओं से छुटकारा दिलाने का दावा करते हैं। पॉल बाबा अपने भक्तो को इश्योरेंस या प्रीपेड कार्ड की तरह प्रेयर पैकेज बेचते हैं। यानी, वे जिसके लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं, उससे मोटी रकम भी वसूलते हैं। मसलन 3000 रुपये में आप अपने बच्चों व परिवार के लिए प्रार्थना करवा सकते हैं। पॉल दिनाकरन जो कि एक इसाई प्रेरक हैं उनकी संपत्ति 5000 करोड़ से ज्यादा है,बिशप के.पी.योहन्नान की संपत्ति 7000 करोड़ है, ब्रदर थान्कू (कोट्टायम , करेला ) की संपत्ति 6000 हज़ार करोड़ से अधिक है.
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5 .अभी कुछ साल पहले मदर टेरेसा के बीटिफिकेशन हुआ था अर्थात मदर टेरेसा को सन्त घोषित किया गया., जिसके लिए राईगंज के पास की रहनेवाली किन्हीं मोनिका बेसरा से जुड़े 'चमत्कार' का विवरण पेश किया गया था। गौरतलब है कि 'चमत्कार' की घटना की प्रामाणिकता को लेकर सिस्टर्स आफ चैरिटी के लोगाें ने लम्बा चौड़ा 450 पेज का विवरण वैटिकन को भेजा था। यह प्रचारित किया गया था कि मोनिका के टयूमर पर जैसे ही मदर टेरेसा के लॉकेट का स्पर्श हुआ, वह फोड़ा छूमन्तर हुआ। दूसरी तरफ खुद मोनिका बेसरा के पति सैकिया मूर्म ने खुद 'चमत्कार' की घटना पर यकीन नहीं किया था और मीडियाकर्मियों को बताया था कि किस तरह मोनिका का लम्बा इलाज चला था। दूसरे राईगंज के सिविल अस्पताल के डाक्टरों ने भी बताया था कि किस तरह मोनिका बेसरा का लम्बा इलाज उन्होंने उसके टयूमर ठीक होने के लिए किया।
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ईसाई दयालुता केवल तभी तक है जब तक कोई व्यक्ति ईसाई नहीं बनता. यदि इन्हें लोगों की भूख, गरीबी और बिमारी की ही चिन्ता होती तो अफ्रीका महाद्वीप के उन देशों में जाते जहाँ 95% जनसंख्या ईसाई है.आज जरूरत है कि प्रत्येक भारतीय महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश पढ़े और विधर्मियों के छल कपट को समझे. यदि हम आज नहीं जागे तो कल तक बहुत देर हो जाएगी.

Thursday, July 14, 2022

वेदों मे शिव।

वेदों में शिव ईश्वर का एक नाम है जिसका अर्थ कल्याणकारी है एवं एक नाम रूद्र है जिसका अर्थ दुष्ट कर्मों को करने वालो को रुलाने वाला है। वेदों में एक ईश्वर के अनेक नाम गुणों के आधार पर बताये गए हैं। ऐसे में ईश्वर के शिव नामक नाम के आधार पर एक पात्र की कल्पना करना जो भांग जैसे नशे को ग्रहण करता है। यह अज्ञानता का प्रतीक मात्र है। सावन के महीने में कावड़ यात्रा पिछले कुछ वर्षों से विशेष रूप से प्रचलित हो गई है। कावड़ लाने वाले शिव की घुट्टी कहकर भांग आदि का सेवन करते है। इसे कुछ लोग भांग सेवन को धार्मिकता बताते है। जबकि यह केवल और केवल अन्धविश्वास है।

वेदों के शिव--

हम प्रतिदिन अपनी सन्ध्या उपासना के अन्तर्गत नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च(यजु० १६/४१)के द्वारा परम पिता का स्मरण करते हैं।

अर्थ- जो मनुष्य सुख को प्राप्त कराने हारे परमेश्वर और सुखप्राप्ति के हेतु विद्वान् का भी सत्कार कल्याण करने और सब प्राणियों को सुख पहुंचाने वाले का भी सत्कार मङ्गलकारी और अत्यन्त मङ्गलस्वरूप पुरुष का भी सत्कार करते हैं,वे कल्याण को प्राप्त होते हैं।
इस मन्त्र में शंभव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव, शिवतर शब्द आये हैं जो एक ही परमात्मा के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं।
वेदों में ईश्वर को उनके गुणों और कर्मों के अनुसार बताया है--
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
                    -यजु० ३/६०
विविध ज्ञान भण्डार, विद्यात्रयी के आगार, सुरक्षित आत्मबल के वर्धक परमात्मा का यजन करें। जिस प्रकार पक जाने पर खरबूजा अपने डण्ठल से स्वतः ही अलग हो जाता है वैसे ही हम इस मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें, मोक्ष से न छूटें।
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि।।
                         -यजु० १६/२
हे मेघ वा सत्य उपदेश से सुख पहुंचाने वाले दुष्टों को भय और श्रेष्ठों के लिए सुखकारी शिक्षक विद्वन्! जो आप की घोर उपद्रव से रहित सत्य धर्मों को प्रकाशित करने हारी कल्याणकारिणी देह वा विस्तृत उपदेश रूप नीति है उस अत्यन्त सुख प्राप्त करने वाली देह वा विस्तृत उपदेश की नीति से हम लोगों को आप सब ओर से शीघ्र शिक्षा कीजिये।
अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्।
अहीँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराची: परा सुव।।
                             -यजु० १६/५
हे रुद्र रोगनाशक वैद्य! जो मुख्य विद्वानों में प्रसिद्ध सबसे उत्तम कक्षा के वैद्यकशास्त्र को पढ़ाने तथा निदान आदि को जान के रोगों को निवृत्त करनेवाले आप सब सर्प के तुल्य प्राणान्त करनेहारे रोगों को निश्चय से ओषधियों से हटाते हुए अधिक उपदेश करें सो आप जो सब नीच गति को पहुंचाने वाली रोगकारिणी ओषधि वा व्यभिचारिणी स्त्रियां हैं, उनको दूर कीजिये।
या ते रुद्र शिवा तनू: शिवा विश्वाहा भेषजी।
शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे।।
                     -यजु० १६/४९
हे राजा के वैद्य तू जो तेरी कल्याण करने वाली देह वा विस्तारयुक्त नीति देखने में प्रिय ओषधियों के तुल्य रोगनाशक और रोगी को सुखदायी पीड़ा हरने वाली है उससे जीने के लिए सब दिन हम को सुख कर।
उपनिषदों में भी शिव की महिमा निम्न प्रकार से है-
स ब्रह्मा स विष्णु: स रुद्रस्स: शिवस्सोऽक्षरस्स: परम: स्वराट्।
स इन्द्रस्स: कालाग्निस्स चन्द्रमा:।।
                 -कैवल्यो० १/८
वह जगत् का निर्माता, पालनकर्ता, दण्ड देने वाला, कल्याण करने वाला, विनाश को न प्राप्त होने वाला, सर्वोपरि, शासक, ऐश्वर्यवान्, काल का भी काल, शान्ति और प्रकाश देने वाला है।
प्रपंचोपशमं शान्तं शिवमद्वैतम् चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः।।७।।
     -माण्डूक्य०
प्रपंच जाग्रतादि अवस्थायें जहां शान्त हो जाती हैं, शान्त आनन्दमय अतुलनीय चौथा तुरीयपाद मानते हैं वह आत्मा है और जानने के योग्य है।
यहां शिव का अर्थ शान्त और आनन्दमय के रूप में देखा जा सकता है।
सर्वाननशिरोग्रीव: सर्वभूतगुहाशय:।
सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात्सर्वगत: शिव:।।
                       -श्वेता० ४/१४

जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कर्ता एक ही है, जो सब प्राणियों के हृदयाकाश में विराजमान है, जो सर्वव्यापक है, वही सुखस्वरूप भगवान् शिव सर्वगत अर्थात् सर्वत्र प्राप्त है।
इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है-
सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य सृष्टारमनेकरुपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति।।
                         -श्वेता० ४/१४

परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, हृदय के मध्य में विराजमान है, अखिल विश्व की रचना अनेक रूपों में करता है। वह अकेला अनन्त विश्व में सब ओर व्याप्त है। उसी कल्याणकारी परमेश्वर को जानने पर स्थाई रूप से मानव परम शान्ति को प्राप्त होता है।
नचेशिता नैव च तस्य लिंङ्गम्।।
               -श्वेता० ६/१

उस शिव का कोई नियन्ता नहीं और न उसका कोई लिंग वा निशान है।
योगदर्शन में परमात्मा की प्रतीति इस प्रकार की गई है-
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।। १/१/२४

जो अविद्यादि क्लेश, कुशल, अकुशल, इष्ट, अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।
स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्।। १/१/२६
वह ईश्वर प्राचीन गुरुओं का भी गुरु है। उसमें भूत भविष्यत् और वर्तमान काल का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है,क्योंकि वह अजर, अमर नित्य है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपने पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में निराकार शिवादि नामों की व्याख्या इस प्रकार की है--

(रुदिर् अश्रुविमोचने) इस धातु से 'णिच्' प्रत्यय होने से 'रुद्र' शब्द सिद्ध होता है।'यो रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्र:' जो दुष्ट कर्म करनेहारों को रुलाता है, इससे परमेश्वर का नाम 'रुद्र' है।

यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत् कर्मणा करोति यत् कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते।।

यह यजुर्वेद के ब्राह्मण का वचन है।

जीव जिस का मन से ध्यान करता उस को वाणी से बोलता, जिस को वाणी जे बोलता उस को कर्म से करता, जिस को कर्म से करता उसी को प्राप्त होता है। इस से क्या सिद्ध हुआ कि जो जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है। जब दुष्ट कर्म करनेवाले जीव ईश्वर की न्यायरूपी व्यवस्था से दुःखरूप फल पाते, तब रोते हैं और इसी प्रकार ईश्वर उन को रुलाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम 'रुद्र' है।

(डुकृञ् करणे) 'शम्' पूर्वक इस धातु से 'शङ्कर' शब्द सिद्ध हुआ है। 'य: शङ्कल्याणं सुखं करोति स शङ्कर:' जो कल्याण अर्थात् सुख का करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम 'शङ्कर' है।

'महत्' शब्द पूर्वक 'देव' शब्द से 'महादेव' शब्द सिद्ध होता है। 'यो महतां देव: स महादेव:' जो महान् देवों का देव अर्थात् विद्वानों का भी विद्वान्, सूर्यादि पदार्थों का प्रकाशक है, इस लिए उस परमात्मा का नाम 'महादेव' है।

(शिवु कल्याणे) इस धातु से 'शिव' शब्द सिद्ध होता है। 'बहुलमेतन्निदर्शनम्।' इससे शिवु धातु माना जाता है, जो कल्याण स्वरूप और कल्याण करने हारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम 'शिव' है।

निष्कर्ष- उपरोक्त लेख द्वारा योगी शिव और निराकार शिव में अन्तर बतलाया है। ईश्वर के अनगिनत गुण होने के कारण अनगिनत नाम है। शिव भी इसी प्रकार से ईश्वर का एक नाम है। आइये निराकार शिव की स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करे। ऐसे मिथ्या शिव की नहीं जिसके भांग पीते हुए चित्रण को सत्य मानने की हमारी बुद्धि ही अनुमति नहीं देती। 

(नोट-यह लेख किसी की निंदा विशेष की भावना से नहीं अपितु सत्य के मंडन और असत्य के त्याग की भावना से लिखा गया है।)

Wednesday, July 13, 2022

गुरु पूर्णिमा पर मदरसों के उस्तादों का इतिहास।

आज भी भारत और पाकिस्तान के मदरसों में गजवा ए हिन्द के लिए योजनाए बनती हैं। सर तन से जुदा के नारे के पीछे यही मदरसा तालीम है। तालिबान वालो के उस्ताद देवबन्दी आलिम है। आज भी पाकिस्तान में सबसे अधिक विदेशी दान मदरसों को आता है जो अमेरिका और यूरोप में रहने वाले शांतिप्रिय धनी लोग भेजते हैं। मौलाना मसूद अजहर जैसे लोग अनेक मदरसे चलाते हैं।
 भारत पर राज्य करने वाले अधिकांश मुस्लिम शासक अनपढ़ थे तथा उन्हें इस्लाम का विशेष ज्ञान न होता था। इसी कारण मदरसों में पढे़ उलेमाओं का शासक पर निरतंर दबदबा बना रहता था। मदरसों में पढे़ इस्लामी विद्वानों को सरकारी नौकरियों में ऊँचे पदों पर नियुक्त किया जाता था। ये अधिकांश विदेशी मुसलमान ही होते थे।

छोटे वर्ग के हिन्दुस्थानी मुसलमानों को नौकरियों में नियुक्त नहीं किया जाता था। उलेमा, जो मज़हब के ज्ञाता माने जाते थे, सुल्तानों को मज़हब के अनुसार शरिया कानून आधारित शासन करने पर विवश करते थे। किसी भी शासक को उलेमा के खिलाफ चलने की हिम्मत न होती थी।

इसी कारण इस्लामी विद्वान आज भी मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गज़नी, मोहम्मद गौरी, बाबर, औरंगजे़ब या टीपू सुल्तान पर जो कट्टर मुस्लिम शासक रहे, नाज़ करते है लेकिन सम्राट अकबर पर नहीं।

शासकों पर उलेमा सर्वदा कड़ी नज़र रखते थे और जब-जब शासन में विकृतियाँ आईं मदरसों में पढे़ इन्हीं उलेमाओं ने सभी प्रकार के जिहादी तरीके अपनाए और स्थिति को संभाला।
मुख्यतया ऐसा दो बार देखने को मिला। पहला तो जब अकबर ने शरिया कानून आधारित शासन न किया तथा उलेमाओं की न चली तो अकबर के निधन के तुरंत बाद मौलाना शेख अहमद सरहिन्दी ने कमांड संभाली और अपनी परी ताकत लगाकर जहाँगीर को विवश किया कि वह अपने पिता अकबर के रास्ते पर न चले तथा केवल शरिया कानून आधारित शासन करे। मौलाना सरहिन्दी के प्रयत्नों के फलस्वरूप जहाँगीर ने वायदा किया।
औरंगजेब और दाराशिकोह के बीच में युध्द में अमीरों (सामंतों) ने औरंगजेब का साथ दिया क्योंकि पर्दे के पीछे से उलेमा औरंगजेब के पक्ष में थे।

 18वीं शताब्दी के विख्यात, मुस्लिम जगत के जाने-माने उलेमा शाह वलीउल्लाह ने जो भारत में जन्मे थे, अफगानिस्तान के बादशाह अहमद शाह अब्दाली को पत्र लिखकर हिन्दुस्थान पर आक्रमण करवाया ताकि मुस्लिम शासन पुनः मज़बूत हों तथा दूसरी काफ़िर ताकतों ( मुख्यतः महाराष्ट्र के मराठाओं) को कुचला जा सके। शाह वलीउल्लाह दिल्ली के प्रसिद्ध मदरसे रहीमिया में हदीस की शिक्षा देते थे जिसे उनके उत्तराधिकारियों ने चालू रखा जिससे वह देश का प्रसिद्ध मदरसा बना रहा।

19वीं शताब्दी में इसी मदरसे में पढे़ विशिष्ट इस्लामी ज्ञानी सईद अहमद ने सन् 1826 ई. में 2400 कि.मी. का दुर्गम रास्ता पार करके अपने अनेक मौलानाओ व मौलवियो को साथ लेकर उस काल के भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग (अब पाकिसतान में) जाकर सिख ताकतों के साथ तलवारों द्वारा जिहाद किया।
शाह वलीउल्लाह द्वारा स्थापित मदरसे से निकले मौलाना नानौतवी ने 19वीं शताब्दी में देवबंद में मदरसा स्थापित किया, जो आज एक विश्व विख्यात मदरसा है। 
यह एक छोटा सा विवरण है जो मदरसों की शक्ति का इतिहास बताता है। आज भी भारत के मदरसे गजवा ए हिन्द के विचार को आगे बढ़ा रहे हैं।

Tuesday, July 12, 2022

ये वही रूसी पनडुब्बियां हैं।

जिन्होंने 1971की जंग में अमेरिका के विरुद्ध ढाल बनकर भारतीय नोसेना की रक्षा की थी😯
50 साल पहले  1971 में अमेरिका ने भारत को 1971 के युद्ध को रोकने की धमकी दी थी।  चिंतित भारत ने सोवियत संघ को एक एसओएस भेजा।  एक ऐसी कहानी जिसे भारतीय इतिहास की किताबों से लगभग मिटा दिया गया है। 

जब 1971 के युद्ध में पाकिस्तान की हार आसान लग रही थी, तो किसिंजर ने निक्सन को बंगाल की खाड़ी में परमाणु-संचालित विमानवाहक पोत यूएसएस एंटरप्राइज के नेतृत्व में यूएस 7वीं फ्लीट टास्क फोर्स भेजने के लिए प्रेरित किया। 

यूएसएस एंटरप्राइज, 75,000 टन, 1970 के दशक में 70 से अधिक लड़ाकू विमानों के साथ दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु-संचालित विमानवाहक पोत था। समुद्र की सतह पर एक चलता-फिरता राक्षस ।  भारतीय नौसेना के बेड़े का नेतृत्व 20,000 टन के विमानवाहक पोत विक्रांत ने किया, जिसमें 20 हल्के लड़ाकू विमान थे। 

अधिकारिक तौर पर यूएसएस एंटरप्राइज को खाड़ी बंगाल में भेजे जाने का  कारण बांग्लादेश में अमेरिकी नागरिकों की सुरक्षा करने के लिए भेजा जाना बताया गया था, जबकि अनौपचारिक रूप से यह भारतीय सेना को धमकाना और पूर्वी पाकिस्तान की मुक्ति को रोकना था।  भारत को जल्द ही एक और बुरी खबर मिली। 

सोवियत खुफिया ने भारत को सूचना दी कि कमांडो वाहक एचएमएस एल्बियन के साथ विमान वाहक एचएमएस ईगल के नेतृत्व में एक शक्तिशाली ब्रिटिश नौसैनिक बेड़ा, कई विध्वंसक और अन्य जहाजों के साथ पश्चिम से भारत के जल क्षेत्र में अरब सागर की ओर आ रहे थे। 

ब्रिटिश और अमेरिकियों ने भारत को डराने के लिए एक समन्वित नेवी हमले की योजना बनाई: अरब सागर में ब्रिटिश जहाज भारत के पश्चिमी तट को निशाना बनाएंगे, जबकि अमेरिकी चटगांव में हमला करेंगे। भारतीय नौसेना ब्रिटिश और अमेरिकी जहाजों के बीच फंस गई थी । 

वह दिसंबर 1971 था, और दुनिया के दो प्रमुख लोकतंत्र अब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए खतरा बन रहे थे।  दिल्ली से एक एसओएस को मास्को भेजा गया था।  रेड नेवी ने जल्द ही यूएसएस एंटरप्राइज को ब्लॉक करने के लिए व्लादिवोस्तोक से 16 सोवियत नौसैनिक इकाइयों और छह परमाणु पनडुब्बियों को भेजा। 

भारतीय नौसेना के पूर्वी कमान के प्रमुख एडमिरल एन कृष्णन ने अपनी पुस्तक 'नो वे बट सरेंडर' में लिखा है कि उन्हें डर था कि अमेरिकी चटगांव पहुंच जाएंगे।  उन्होंने उल्लेख किया कि कैसे उन्होंने इसे धीमा करने के लिए करो या मरो की चाल में उद्यम पर हमला करने के बारे में सोचा। 

2 दिसंबर 1971 को, जल दैत्य यूएसएस एंटरप्राइज के नेतृत्व में यूएस 7वीं फ्लीट की टास्क फोर्स बंगाल की खाड़ी में पहुंची।  ब्रिटिश बेड़ा अरब सागर में आ रहा था।  दुनिया ने अपनी सांस रोक रखी थी।
लेकिन, अमेरिकियों के लिए अज्ञात, जलमग्न सोवियत पनडुब्बियों ने उन्हें पीछे छोड़ दिया था। 

जैसे ही यूएसएस एंटरप्राइज पूर्वी पाकिस्तान की ओर बढ़ा, सोवियत पनडुब्बियां बिना किसी चेतावनी के सामने आईं।  सोवियत सबमरीन अब भारत और अमेरिकी नौसैनिक बल के बीच खड़े थे। 

अमेरिकी_हैरान_रह_गए। 

7वें अमेरिकी फ्लीट कमांडर ने एडमिरल गॉर्डन से कहा: "सर, हमें बहुत देर हो चुकी है। सोवियत यहां हैं!" पिछे हटने के अलावा कोई चारा नहीं 

अमेरिकी और ब्रिटिश दोनों बेड़े पीछे हट गए।  आज, अधिकांश भारतीय बंगाल की खाड़ी में दो महाशक्तियों के बीच इस विशाल नौसैनिक शतरंज की लड़ाई को भूल गए हैं।
तो याद करना जरूरी है  

(©विनोद कुमार झा - पूर्व नौसेना अधिकारी)