विषय- जीवात्मा की चार अवस्थाएं
जीवात्मा के विकास की चार अवस्थाएं हैं।
जीवात्मा 'हंस' है, 'वसु' है, 'होता' है, 'अतिथि' है। जब जीवात्मा उत्तरोत्तर विकास करता जाता है तव ये अवस्थाएं प्राप्त होती जाती हैं। जीवात्मा जब हंस की तरह जीवन व्यतीत करता है, जैसे हंस पानी में रहकर पानी में नहीं भीगता है उसी प्रकार से जीवात्मा संसार में रहकर संसार में लिप्त न हो यह पहली विकसित अवस्था है। इस तरह का अभ्यास करने वाले को कहा जाता है कि वह नर देह में वास कर रहा है, इससे नीचा तो पशु समान है, यह ब्रह्मचर्य की अवस्था है।
इसके बाद दूसरी अवस्था आती है 'वसु' की अवस्था।
यह वो अवस्था है जब मनुष्य वसु की तरह अपना जीवन व्यतीत करता है, अर्थात् स्वयं भी वसता है तथा दूसरों को भी बसाता है, दूसरों की हर संभव मदद करता है वह मानो नर देह से उत्तम शरीर में वास कर रहा है, इसे वर देह भी कहते हैं। यह गृहस्थ की अवस्था है।
तीसरी विकसित अवस्था 'होता' की आती है।
जिस प्रकार से हवन करते समय सामग्री को हवन में अर्पित किया जाता है, इसी प्रकार से जब मनुष्य अपने आप को समाज के लिए अर्पित कर दे। अब उसका अपना कुछ नहीं है, अपना सर्वस्व दूसरों के उपकार के लिए समर्पित करने लगे। वह प्रत्येक वस्तु को अपना न समझ कर परमात्मा की समझता है और त्याग भावना अपनाकर जीवन जीता है।। यह ऋत देह अवस्था भी कहलाती है। ऋत अर्थात निरपेक्ष सत्य। इस अवस्था में वह समझ जाता है कि संसार के विषय ऋत नहीं हैं, सिर्फ परमात्मा ही ऋत है, निरपेक्ष सत्य वही परमात्मा है। इस अवस्था को वानप्रस्थ की अवस्था भी कहते हैं।
इससे और अधिक विकसित चौथी अवस्था 'अथिति' है।
जब मनुष्य इस देह के वास को अथिति की तरह समझने लग जाता है। अब मनुष्य अपने ज्ञानरूपी धन से समाज का घूम-घूम कर उपकार करता है कहीं भी स्थायी रूप से नहीं रहता और पूर्ण रूप से परमात्मा को समर्पित हो जाता है, वह अत्यंत ऊँचा उठ जाता है, इसे व्योमदेह भी कहते हैं। वास्तव में यह अवस्था संन्यास की अवस्था है।
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