Friday, September 24, 2021

स्वामी ओमानंद सरस्वती।

लेखक :- स्वामी ओमानंद सरस्वती 
पुस्तक :- आर्यसमाज के बलिदान 
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा 

         धर्म पर ही मिटूगा मैं धर्म ही मुझको प्यारा है । 
         यही हमदर्द है मेरा यही मेरा सहारा है ।। 

      हिन्दू जाति का धार्मिक इतिहास बलिदान की रक्त रञ्जित कहानियों से भरा पड़ा है । इस शस्य स्यामल सुन्दर देश पर जिस किसी विदेशी ने आक्रमण किया , उसी ने इस जाति का नामो निशान तक मिटा देने का प्रयत्न किया ; परन्तु कुछ ऐसी दैवी सम्पत्ति - दिव्य - रण इस जाति में हैं जिन्होंने इसकी सदा रक्षा की है । कुरान की इस निष्ठुरता , क्रूरता , द्वेष की आधारस्थली शिक्षा ने कि काफिरों को मारने से बहिश्त मिलता है , वे कदापि क्षमा के योग्य नहीं हैं - संसार में कितना हत्याकांड मचाया है , कैसे - कैसे अनर्थ किये हैं , इसको इतिहास भलीभांति जानता है । 
         आर्यावर्त्त में २५० या ३०० वर्ष का शासनकाल उसमें भी औरङ्गजेब जमाना इनके शासन और सभ्यता का नमूना है । गुरु तेगबहादुर की निर्मम हत्या , बन्दा बैरागी और उसके साथियों का अमानुषिक उपायों द्वारा प्राणहरण तथा इस्लाम कबूल करवाने के लिए जगह जगह मुहम्मदी तलवारों द्वारा हुए कत्लेआम का इतिहास हम दोहराना नहीं चाहते । हम पाठकों को उस धर्मवीर की कहानी सुनाना चाहते हैं जो हिन्दू जाति का सुपुत्र था , आर्यभूमि का लाल था और अपनी इस मातृभूमि से दूर कन्दहार देश में अपने धर्म के कारण इस्लामी कानून का शिकार हो गया । 
         मुरली मनोहर कन्दहार का रहने वाला था । उसके माता - पिता व्यापार करते हुए उसी प्रान्त में जा बसे थे । मुरली कपूर खत्रियों के कुल का सुपुत्र था । कपड़े की दुकान करता था । उसके शरीर का गठन सुन्दर था । रंग गोरा था । देह बलिष्ठ थी । आयु उसकी लगभग २३ वर्ष की होगी । उसकी नसों में आर्य जाति का रक्त वेग से प्रवाहित होता था । गीता का वह परम भक्त था । वह नित्य स्नानादि से निवृत होकर गीता का पाठ किया करता था । अपनी मधुर वाणी से जब वह श्लोक का उच्चारण करता था तब लोग तन्मय होकर सुनने लग जाते थे । इस प्रकार सुख शांति और आनन्द के साथ उन के दिन व्यतीत हो रहे थे । 
       नित्य की भान्ति मुरली मनोहर नदी पर स्नान करने गया । उससे कुछ दूरी पर कुछ पठान भी स्नानादि कर रहे थे । उन्होंने छेड़खानी प्रारम्भ की । दोनों हाथों से पानी उलीचने लगे । पहले तो मुरली कुछ नहीं बोला परन्तु जब जप करना कठिन हो गया तब उसने निषेध किया । पठान तो मौका ही ढूंढ रहे थे । विवाद बढ़ने लगा । पहले तो पठानों ने मुरली के माता पिता को गालियाँ दी । पश्चात् उसके मुंह पर थूक कर देवी देवताओं को गाली देने लग गये । मुरली गाली सहन न कर सका । वह भी मनुष्य था । उसमें भी आत्मसम्मान की मात्रा विद्यमान थी । उसने भी उसी तरह जवाब लौटाना शुरू कर दिया । पठान क्रोध से आग बबूला हो गये । उन्होंने चिल्ला कर कहा - अच्छा काफिर कल देखा जायेगा । मुरली ने सोचा चलो बात खत्म हुई , परन्तु पठान तो वैसे नहीं थे । 
        नहाकर वह घर आया । कपड़े पहनकर दुकान जाने को तैयारी कर रहा था कि उसे मालूम हुआ कि उसका मकान अफगान सिपाहियों ने घेर लिया है । वह बाहर आया और कैद कर लिया गया । मुरली मनोहर कन्दहार के गवर्नर के पास लाया गया । कचहरी में पठान चिल्ला उठे - खून कर दो । काफिर है कल ! कत्ल । हाकिम की निगाह ने न्याय अन्याय सब कुछ ऐक नजर में समझ लिया । परन्तु वह स्थिति को पलटने में असमर्थ था । मजहबी जोश के विरुद्ध निर्णय करना उसके काबू के बाहर की बात थी ।
        मुकदमा शुरू हुआ । गवाहों ने साबित कर दिया कि काफिर मुरली ने ' पीर ' को गालियां दी हैं । मुरली के चेहरे को देखकर हाकिम का दिल कांप गया । उसने कहा- " मुरलीमनोहर " ! पीर को गालियां देकर सचमुच तुमने काफिर का काम किया है । कानून में तुम्हारी सजा मौत है लेकिन तुम्हारी नौजवानी और पहली भूल के कारण मैं तुम्हें माफी दे सकता हूं यदि तुम इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लो । बड़े आराम से तुम अपना जीवन बिता सकोगे । मुरली यह सुनकर चौंक उठा । उसने कहा - मैं इस्लाम धर्म कभी भी कबूल नहीं करूगा । मैं सच्चा हिन्दू हूं । जीते जी कभी भी हिन्दू जाति के भाल पर कलङ्क का टीका नहीं लगा सकता । हाकिम ने कहा - बेवकूफ ! बे मौत मरेगा । जीने मरने का सवाल है । सोचकर जवाब दो । मुरली मनोहर ने कहा - हम कौनसे सदा जीने के लिए आये हैं । यह जान तो जाने के लिये ही है । फिर क्यों चार दिन की जिन्दगी के लिये अपना धर्म छोड़ कर अधर्म को ग्रहण करू , अपना नाम कलङ्कित करू ' , अपने वंश का नाम डुबाऊं और जिस जाति में जन्म लिया उसका नाम बदनाम करूं । इस्लाम धर्म का नाम लेना मेरे लिए पाप है । इस्लाम कबूल करने की बनिस्बत मैं इस कचहरी की दीवार पर सिर पटक कर मर जाना अच्छा समझता हूँ । हाकिम ने कहा - मुरली मनोहर ! आज रात भर सोचने का तुम्हें फिर मौका देता हूँ । अच्छी तरह सोच लो । " 
           मुरली रात भर गीता का पाठ करता रहा और भगवान् से प्रार्थना करता रहा कि उसे वह शक्ति और बल प्रदान करे कि मृत्यु का सामना शान्ति के साथ कर सके । प्रातः मुरली के माता पिता रोते रोते मिलने आये । मां ने कहा -बेटा , मेरी बात मान ले । यदि तू जिन्दा रहेगा तो मैं कभी देख तो लूगी । मुरली का चित्त यह सुनकर मन्युपूर्ण हो गया । उसने कहा - मैं अपनी माता के मुख से यह क्या बात सुन रहा हूं । मुझे ऐसी आशा नहीं थी । मां ! तुम हिन्दू नारी होती हुई यह क्या कह रही हो । यदि यही उपदेश देना था , तो मुझे क्यों आर्य जाति में उत्पन्न किया , क्यों बचपन ही से गीता के श्लोकों का पाठ कराया । मां , तुम आर्य माता हो , आर्यत्व का परिचय दो । यह पठान भी देखलें कि किस प्रकार एक प्रार्य माता अपने पुत्र को कर्तव्य के रणाङ्गण में विजय का आशीर्वाद देकर भेजती है । हाकिम ने पूछा - क्या इरादा है ? मुरली ने कहा- मैं हिन्दू हूं - आर्य जाति का पुत्र हूं । उनका पवित्र रक्त मेरी धमनियों में चल रहा है । मुझे अपने धर्म को बेचने या बर्बाद करने का कोई अधिकार नहीं । जाति का ही मुझ पर अधिकार है । आपका म्लेच्छ धर्म ग्रहण नहीं कर सकता । एक ऊंची जगह पर मुरली को आधा गाड़ दिया गया । हिन्दू जनता अपने सपूत को आंखों के सामने मरते देख गर्म गर्म आंसू बहा रही थी । ईंट , पत्थर , ढेलों से पठानों ने मुरली को मार डाला । वे एक काफिर को मार कर अत्यधिक प्रसन्नता प्रकट कर रहे थे । हकीकतराय की स्मृति को पुनः जगा कर , अपने धर्म प्रेम का परिचय देकर मुरली परमात्मा की गोद में चला गया 
( दयानन्द सन्देश दिल्ली के कर्मवीर परिशिष्टाङ्क की सहायता से । )

Thursday, September 23, 2021

युद्ध जिसने इजरायल निर्माण किया।

वह युद्ध जिसने इजरायल निर्माण किया व तुर्की के खलीफा साम्राज्य का अंत किया. 
हैफा युद्ध. Battle of Haifa (वह इतिहास जो हमसे छिपाया गया.)
23 सितंबर सन 1918 ई.जब हिन्दूओं ने खलीफा की सेना को हराया 
यह युद्ध प्रथम विश्व युद्ध के दौरान शांति के लिए सिनाई और फिलस्तीन के बीच चलाए जा रहे अभियान के अंतिम महीनों में लड़ा गया था, इस दिन भारतीय वीरों ने जर्मनी और तुर्कों की सेनाओं को हाइफा शहर से बाहर खदेड दिया गया था.
ब्रिटिश सेना की तरफ से इस युद्ध में भाग ले रही जोधपुर और मैसूर लांसर को हैफा पर फिर से कब्जा जमाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। नेतृत्व कर रहे थे जोधपुर लांसर के मेजर दलपतसिंह
शेखावत और कैप्टन अमान सिंह जोधा।
पहाड़ी पर स्थित हैफा के किले पर काबिज जर्मन सेना लगातार मशीनगन से गोलीबारी कर रही थी। वहीं जोधपुर की सेना के पास सिर्फ नाम मात्र की बंदूकें ही थी।
मेजर दलपत सिंह के नेतृत्व में जोधपुर की सेना आगे बढ़ी तो जर्मन सेना ने गोलियों की बौछार कर दी। उन्हें एक बार पीछे हटना पड़ा।
इसके पश्चात उन्होंने अलग दिशा से चढ़ाई शुरू की। इस दौरान मैसूर लांसर की सेना लगातार फायरिंग कर उन्हें कवर प्रदान किया। इस युद्ध में जोधपुर की टुकड़ी ने जर्मन व तुर्की सेना को पराजित कर किले पर कब्जा कर लिया।
इस युद्ध में उन्होंने 1350 जर्मन व तुर्क सैनिकों को बंदी बना लिया। इसमें से से 35 अधिकारी भी शामिल थे। सैनिकों से ग्यारह मशीनगन के साथ ही बड़ी संख्या में हथियार जब्त किए गए। भीषण युद्ध में सीधी चढ़ाई करने के दौरान जोधपुर लांसर के मेजर दलपतसिंह गंभीर रूप से घायल हो गए।
इसके बावजूद उन्होंने प्रयास नहीं छोड़ा। इस युद्ध में दलपतसिंह सहित जोधपुर के आठ सैनिक शहीद हुए। जबकि साठ घोड़े भी मारे गए।
 23 सितंबर, 1918 को दिन में 2 बजे जोधपुर लांसर व मैसूर लांसर के घुड़सवारों ने हैफा शहर पर चढ़ाई की और एक घंटे में ही हैफा शहर के दुर्ग पर विजय पताका फहरा दी।
भारतीय शूरवीरों ने जर्मन- तुर्की सेना के 700 सैनिकों को युद्धबंदी बना लिया. इनमें 23 तुर्की तथा 2 जर्मन अफसर भी थे. वहीं 17 तोपें, 11 मशीनगन व हजारों की संख्या में जिंदा कारतूस भी जब्त किए गए. घुड़सवार हमले का यह निर्णायक युद्ध था।
23 सितम्बर को जोधपुर लांसर्स के हमले में तुर्की सेना के पांव उखाडऩे में मेजर शहीद दलपत सिंह शेखावत की अहम भूमिका रही। उन्हें मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया गया। कैप्टन अमान सिंह बहादुर, दफादार जोरसिंह को इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट एवं कैप्टन अनोप सिंह व सैकण्ड लेफ्टीनेंट सगतसिंह को मिलिट्री क्रॉस से नवाजा गया।
दलपत सिंह ने तुर्की सेना की तोपों का मुंह उन्हीं की ओर मोड़ते हुए जबरदस्त वीरता का परिचय दिया था। एेसे में उन्हें हीरो ऑफ हैफा के नाम से पूरा इजराइल इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में पढ़ता है।
मारवाड़ की घुड़सवार सेना ने जर्मन सेना की मशीनगनों का मुकाबला करते हुए इजरायल के हाइफा शहर पर महज एक घंटे में कब्जा कर लिया था. इस युद्ध का नेतृत्व जोधपुर लांसर के मेजर दलपतसिंह शेखावत और कैप्टन अमान सिंह जोधा किया था.
तलवार और भालों से लड़ी गई ये लड़ाई आधुनिक भारत की बड़ी और आखिरी जंग थी, इसी जंग ने इजरायल राष्ट्र के निर्माण के रास्ते खोल दिए. अन्ततः 14 मई सन 1948 को यहूदियों का नया देश इजरायल बना.
जर्मन मशीनगनों पर भारी पड़ी तलवारें और भाले उस वक्त जोधपुर रियासत के घुड़सवारों के पास हथियार के नाम पर मात्र बंदूकें, लेंस एक प्रकार का भाला और तलवारें थी. वहीं जर्मन सेना तोपों तथा मशीनगनों से लैस थी, लेकिन राजस्थान के रणबांकुरों के हौसले के आगे दुश्मन पस्त हो गया, इस दौरान मेजर दलपत सिंह बलिदान हो गए.
हैफा में बलिदान हुए मेजर दलपत सिंह शेखावत पाली जिले के नाडोल के निकट देवली पाबूजी के रहने वाले थे, यहां के जागीरदार ठाकुर हरि सिंह के इकलौते पुत्र थे. ठाकुर दलपत सिंह को पढ़ाई के लिए जोधपुर के शासक सर प्रताप ने इंग्लैंड भेजा था, 18 साल की उम्र में वे जोधपुर लांसर में बतौर घुड़सवार भर्ती हुए और बाद में मेजर बने.
एक हजार तीन सौ पचास जर्मन सैनिक और तुर्क सैनिकों पर मुट्ठी भर भारतीय सैनिकों ने कब्जा कर लिया था, इसमें दो जर्मन अधिकारी, पैंतीस ओटोमन अधिकारी, सत्रह तोपखाना बंदूकें और ग्यारह मशीनगने भी शामिल थी. इस दौरान आठ लोग मारे गए, चौंतीस घायल हुए, साठ घोड़े मारे गए और तिरासी अन्य घायल हुए.
इस युद्ध में मेजर दलपत सिंह के समेत छह घुड़सवार जोधपुर लांसर सवार तगतसिंह, सवार शहजादसिंह, मेजर शेरसिंह आईओएम, दफादार धोकलसिंह, सवार गोपालसिंह और सवार सुल्तानसिंह भी इस युद्ध में शहीद हुए थे.
मेजर दलपत सिंह को मिलिट्री क्रॉस जबकि कैप्टन अमान सिंह जोधा को सरदार बहादुर की उपाधी देते हुए इंडियन आर्डर ऑफ मेरिट तथा ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंपायर से सम्मानित किया गया था.

Tuesday, September 21, 2021

काले धागे का कलंक।

यदि एक भी बेटी यह पढ़ कर सावधान हो जाती है तो मेरा लिखना सार्थक हो जाएगा।

अनेक बार उन नव युवतियों को समझाने का मौका मिला है जो लव जेहाद के चक्कर मे थी। इसी क्रम में उनकी परिवारिक पृष्ठभूमि भी पता चली। लगभग सभी युवतियों के गले, पैर या कलाई में काला धागा बंधा हुआ था। यह धागा उनकी माँ, दादी, मौसी या बुआ आदि ने नजदीकी मौलवी से लाकर दिया था। इस धागे को बुरी नजर से बचाने के लिए बांधा गया था। परन्तु सच्चाई यह है कि इसी धागे के कारण वह उस लड़के के लव जेहाद में फंसी। वास्तव में यह धागा कमजोर मनोबल व अंधश्रद्धा का प्रतीक है। इससे पता चल जाता है कि लड़की का आसानी से मानसिक दोहन किया जा सकता है।

घर मे नवयुवती (नव विवाहिता बहू या बेटी) के मानसिक रोग का इलाज  इसी काले धागे 
से मिया जी करते हैं। इसी काले धागे के बहाने मियाँ जी घर तक पहुंच जाते हैं और उसी के साथ घर से नकदी और गहने गायब होने का सिलसिला शुरू होता है। उस नवयुवती के अजीब व्यवहार का कारण सैयद या पीर नहीं दबी हुई इच्छा या मनोरोग है. इसका इलाज काला धागा , झाड फूंक या ताबीज नहीं मनोचिकित्सक है. इस धागे के कारण शोषण का रास्ता खुल जाता है. 

विचार करिए- यदि कलमा पढ़े हुए और फूंक मारे हुए धागे में कोई शक्ति होती तो बड़े अपराधी, राजनेता, अधिकारी और उद्योगपतियों के शरीर पर सैंकड़ों धागे बंधे होते। बुरी नजर, ओपरी पराई, जिन्न, भूत, सैयद, चुड़ैल और पीर आदि केवल मानसिक भ्रम हैं। आजप्रत्येक शहर में हजारों CCTV लगे हुए हैं। यदि कोई जिन्न या पीर होता तो इनमे अवश्य दिखाई देता।

क्या आपके गले या हाथ में भी कोई ताबीज, नीला, लाल या काला धागा बांधा हुआ है?
क्या आप भी बुरी नजर से बचने के लिए, ऊपरी बला से बचने के लिए, शारीरिक रोग के लिए, धन की कमी के लिए, भूत प्रेत से बचने के लिए, परिवारिक सदस्य को वश में करने के लिए पहनते हैं?
मैंने एक मौलवी को देखा है जो मधुमेह के लिए गले में बांधने का धागा देता था। अनेको पढ़े लिखे मूर्ख उससे यह धागा लेकर आते थे और मानते थे कि इससे सचमुच मधुमेह ठीक हो जाएगा।

क्या गले आदि में ताबीज बांधने से कोई लाभ होता है?
नहीं, इससे कोई लाभ नही होता और न ही हो सकता है। मनोवैज्ञानिक प्रभाव अवश्य होता है। यह मनोवैज्ञानिक प्रभाव तो बिना ताबीज भी हो सकता है स्वयं का मनोबल बढ़ाने से।
मैंने जीवन मे अनेक बार मौलवी और पुजारियों के ताबीजों को खोल कर पढा है। सभी मे रेखाओं से कुछ रेखांकित किया होता है, अस्पष्ट शब्द और अंक होते हैं।
मैं अपने जीवन मे अनेक बार श्मशान और कब्रिस्तान आदि में भूत खोजने के लिए गया हूँ। परन्तु मुझे कभी नही मिला। ये कहना महामूर्खता है क्योकि वे रात को निकलते हैं इसलिए दिखाई नही दिए होंगे। अनेक बार उन घटनाओं की भी खोज की है जिन्हें भूत से सम्बंधित बताया गया। परन्तु पता करने पर उनके पीछे मानसिक रोगी या स्वार्थी लोग  ही मिले।

पूरे लेख का उद्देश्य यही है कि गले/हाथ मे किसी भी तरह धागा, लॉकेट, ताबीज और नजर रक्षा यन्त्र बांधना, अष्टधातु की अंगूठी पहनना आदि केवल मानसिक और बौद्धिक अज्ञानता है। इनसे कोई लाभ नही होता। आज ही इन्हें फेंक दें। अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार केवल सोने चांदी आदि के आभूषण पहने। परन्तु छोटे बच्चों को सोने चांदी आदि के आभूषण भी न पहनाए। यह ताबीज, अष्टधातु की अंगूठी आदि सब मानसिक कमजोरी की निशानी हैं। इन्हें फेंके और कभी किसी को भी इन्हें  पहनने की सलाह न दें।

Monday, September 20, 2021

अजमेर और बहराइच जैसी कब्रों की पूजा।

दादू दुनिया बावरी, कबरे पूजे ऊत।
जिनको कीड़े खा गए उनसे मांगे पूत ॥

अजमेर और बहराइच जैसी कब्रों की पूजा करने वाले विचार करें----
लाखों सूरमा वीर हृदय वाले महात्मा जान पर खेल कर धर्म पर बलि दे गये |
सीस दिये किन्तु धर्म नहीं छोड़ा |
आप जानते हैं जब मुसलमान नहीं आए थे | तो उनकी जियारतें, कबरें, मकबरे, खानकाहें और गोरिस्तान भी इस देश में न थे जब 8-9 सौ वर्ष से मुसलमान आए तब से ही भारत में कबरपरस्ती शुरू हुई |
जो अत्याचारी मुसलमान हिन्दु वीरों के हाथ से मारे गए | मुसलमानों ने उनको शहीद बना दिया और हिन्दुओं को जहन्नमि (नारकी)। शोक शत सहस्त्र शोक |
हमारे वीर बलिदानी धर्म रक्षक पूर्वजों जिन अत्याचारियों का वध किया,
हमारे पूर्वजों के हाथों से जो लोग मर कर दोजख (नरकाग्नि) में पहुँचाए गए |
हम अयोग्य सन्तान और कपूत पुत्र उन्हें शहीद समझ कर उन पर धूपदीप जलाते हैं
| इस मूर्खता पर शोकातिशोक ! इस अपमान की कोई सीमा नहीं रही |

ऐ हिन्दु भाइयो ! सारे भारत में जहां पक्के और उँचे कबरें देखते हो, वह लोग तुम्हारे ही पूर्वजों के हाथों से वध किये गये थे |
उनके पूजने से तुम्हारी भलाई कभी और किसी प्रकार सम्भव नहीं | प्रथ‌म अच्छी प्रकार सोच लो |
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अगर पीरे मुर्दा बकारे आमदे |
जि शाहीन मुर्दा शिकार आमदे ||
यदि मरा हुआ पीर काम आ सकता तो मृत बाज भी शिकार कर सकते | मुसलमानों ने मन्दिर तोड़े, बुत तोड़े | लाखों का वध किया | इस कठोर आघात के कारण लोग मुसलमान हुए | देखो तैमूर का रोजनामचा (डायरी)

पण्डित लेखराम जी आर्य पथिक कृत 'कुलियात आर्य मुसाफिर 'से
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अपने आपको हिन्दू कहने वाली हिन्दू जाति राम, कृष्ण, हनुमान आदि व अन्य देवी देवताओं को छोड़कर मुसलिम पीरों कि कब्रों पर सर पटकती फिरती हैं। मेरे इस हिन्दू जाति से कुछ प्रश्न हैं।
१.क्या एक कब्र जिसमे मुर्दे की लाश मिट्टी में बदल चूँकि हैं वो किसी की मनोकामना
पूरी कर सकती हैं?
२. सभी कब्र उन मुसलमानों की हैं जो हमारे पूर्वजो से लड़ते हुए मारे गए थे, उनकी कब्रों पर जाकर मन्नत मांगना क्या उन वीर पूर्वजो का अपमान नहीं हैं जिन्होंने अपने प्राण धर्म रक्षा करते की बलि वेदी पर समर्पित कर दियें थे?
३. क्या हिन्दुओ के रामजी, कृष्णजी देवी देवता शक्तिहीन हो चुकें हैं जो मुसलमानों की कब्रों पर सर पटकने के लिए जाना आवश्यक हैं?
४. जब गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहाँ हैं की कर्म करने से ही सफलता
प्राप्त होती हैं तो मजारों में दुआ मांगने से क्या हासिल होगा?
५. भला किसी मुस्लिम देश में वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, हरी सिंह नलवा आदि वीरो की स्मृति में कोई स्मारक आदि बनाकर उन्हें पूजा जाता हैं तो भला हमारे ही देश पर आक्रमण करने वालो की कब्र पर हम क्यों शीश झुकाते हैं?
६. क्या संसार में इससे बड़ी मुर्खता का प्रमाण आपको मिल सकता हैं?
७. हिन्दू जाती कौन सी ऐसी अध्यात्मिक प्रगति मुसलमानों की कब्रों की पूजा
कर प्राप्त कर रहीं हैं जो वेदों- उपनिषदों में कहीं नहीं गयीं हैं?
८. कब्र पूजा को हिन्दू मुस्लिम एकता की मिसाल और सेकुलरता की निशानी बताना हिन्दुओ को अँधेरे में रखना नहीं तो क्या हैं ?
९. इतिहास की पुस्तकों कें गौरी – गजनी का नाम तो आता हैं जिन्होंने हिन्दुओ को हरा दिया था पर मुसलमानों को हराने वाले राजा सोहेल देव पासी का नाम तक न मिलना क्या हिन्दुओं की सदा पराजय हुई थी ऐसी मानसिकता को बनाना नहीं हैं?
१०. क्या हिन्दू फिर एक बार २४ हिन्दू राजाओ की भांति मिल कर संगठित होकर देश पर आये संकट जैसे की आंतकवाद, जबरन धर्म परिवर्तन,नक्सलवाद,बंगलादेशी मुसलमानों की घुसपेठ आदि का मुंहतोड़ जवाब नहीं दे सकते?

हरबंस मुखिया के लेक्चर पर दो शब्द।

VIJAYMANOHARTIWARI

 इतिहास में डिग्री लेकर कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों में पदों पर सुशोभित होना एक बात है और इतिहास को महसूस करना और उसे जीना, बिल्कुल ही दूसरी बात है। अलेक्झेंडर कनिंघम अंग्रेज था। पढ़ाई से इंजीनियर था। नौकरी फौज में थी। मगर भारत आया तो बरबाद प्राचीन धरोहरों से अपनी आत्मा को जोड़ बैठा। वह इतिहास को जीने वाला इंसान था। आज उसका स्मरण उसकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई या फौज की सेवाओं की बदौलत नहीं है। वह अमर है, क्योंकि उसने भारत के इतिहास पर जमी धूल को जमीन पर जाकर मृत्युपर्यंत साफ किया। वह नालंदा से भरहूत और सारनाथ से सांची तक भटका और मरने के पहले हमारा ही चमचमाता हुआ अतीत हमारे सामने आइने की तरह रखकर गया।
 आज के डिग्रीधारी और सातवें वेतनमान के बाद आठवें या कहीं राजधानी में किसी मंत्री के साथ या सचिवालय में डेप्यूटेशन पर जमने की घात में बैठे कितने अध्यापक और प्राध्यापक अपने भीतर अपने आहत इतिहास को जी रहे हैं? कनिंघम परदेशी था मगर भारत आते ही सोते-जागते उसके भीतर भारत ही धड़का। कनिंघम जैसे बीसियों ब्रिटिश युवा थे, जो जज से लेकर क्लर्क बनकर आए और प्राचीन भारत का ध्वस्त वैभव देखकर भारत में जिनकी आत्मा रम गई। उन्होंने संस्कृत और पाली भाषाएं सीखीं। शिलालेख और ग्रंथ पढ़े। स्कॉटिश कारोबारी जेम्स फग्युर्सन ने भारत के टेंपल आर्किटेक्चर पर जो किया है, वह महान भारत की किसी स्तुति से कम नहीं है।

 मुझे लगता है कि आज संस्थाओं और विभागों में डटे सौ प्रतिशत जन्मजात भारतीय इतिहास के नाम पर इतिहास की मनरेगा में काम कर रहे हैं। इतिहास उनके लिए मुर्दा जानकारियों का एक ऐसा कब्रस्तान है, जिसमें वे तयशुदा पाठ्यक्रम फातिहा की तरह पढ़ने आते हैं। जीवन भर की नाैकरी में वे कुछ नया और मौलिक नहीं कर पाते। किसी आसान और बेजान टॉपिक पर पीएचडी की शक्तिवर्द्धक खुराक उनके कॅरिअर में कहीं पदासीन होने लायक उत्तेजना भर ले आती है। उसके बाद वे स्वतंत्र भारत के "सेक्युलर स्वर्णकाल' में वामपंथियों का फैलाया हुआ मलबा ही सरकारी तगारियों में एक से दूसरी क्लास में ढोते हैं। इतिहासकारों की ज्यादातर परिषदें और काउंसिलें भी लकीर की फकीर रही हैं। कुछ अपवाद बेशक होंगे।

 एक बहुत ताजा उदाहरण। इतिहास के कुछ प्रोफेसरों ने पिछले दिनों एक वेबनार का आयोजन किया। मुख्य वक्ता जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के रिटायर्ड प्रोफेसर हरबंस मुखिया थे। इसमें 20 राज्यों के सवा सौ से ज्यादा प्राध्यापक, शोधार्थी और विद्यार्थी शामिल थे। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को जमीन पर लाने वाली टास्क फोर्स में ज्यादातर ऐसे ही लोग हैं। 

"मध्य भारतीय इतिहास' अनुसंधान प्रतिष्ठान (सीआईएचआरएफ) की पहल पर हुए इस वेबनार में प्रो. हरबंस मुखिया के विचार किसी "मध्यभारत' पर नहीं, "मनगढ़ंत मध्यकाल' की महिमा पर सुनाई दिए। इस वेबनार की लिंक मुझे बहुत देर से मिली। मैंने इसे पूरा सुना। 

आयोजकों को शायद ज्ञात न हो कि जिन स्वर्गीय इतिहासकार डॉ. सुरेश मिश्र की स्मृति में यह वेबनार हुआ, वे स्वयं सल्तनतकाल और मुगलकाल जैसे किसी स्वर्णिम कालखंडों की अवधारणा के विरुद्ध थे और भारतीय इतिहास की इस मनमानी खिलवाड़ पर उनसे मेरी लंबी चर्चाएं हुई थीं। वे मानते थे कि सरकारों को बहुत कठोरता से इसकी सफाई कर देनी चाहिए। 

मुगलों की महिमा गाने में उम्र बिताई...

 एक ऐसे समय जब हर दिन नए तथ्य और नई जानकारियां सामने आ रही हैं और इतिहास की मान्यताओं के पुराने आधार खिसक रहे हैं, तब हरबंस मुखिया की आंखों पर चढ़ा चश्मा मध्यकाल को मुगले-आजम के भव्य सेट की तरह ही देखता है। उनकी घड़ी की सुइयां हिजरी के कैलेंडर पर अटकी हैं। मुखिया ने मुग्ध मन से कहा-"मुस्लिम शासकों का काल भारत में अर्थव्यवस्था और सामाजिक स्तर पर अत्यंत गतिशीलता का काल है, जब जीडीपी में भारत के पास दुनिया का चौथाई हिस्सा था। मुगलों के समय भारत में स्थापत्य, नृत्य, संगीत, चित्रकला और कलाओं का अदभुत विकास हुआ।' मुगलों के वास्तुकला के योगदान में वे ताजमहल घुमाना नहीं भूले। उनके अनुसार कपड़ा उद्योग अत्यंत विकसित अवस्था में था। ऐसे में मुस्लिम शासन को अंधकार का युग कहना ठीक नहीं है। "यह इतिहास को देखने की एक गलत दृष्टि है, जिसे अंग्रेजों के समय जेम्स मिल और डाउसन ने शुरू किया।'

 मुगलों के एक नमकहलाल वकील की तरह वे बोले-"मुस्लिम शासनकाल में एक भी हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ। पहला हिंदू-मुस्लिम दंगा तो औरंगजेब की मौत के सात साल बाद 1714 में अहमदाबाद में हुआ जो दो दिन तक चला था। वह होली के दिन गाय को जिबह करने के कारण शुरू हुआ। पूरी 18 वीं सदी में सिर्फ पांच दंगे दर्ज हैं। जबकि आज के दौर में इससे कहीं ज्यादा दंगे होते हैं। मुगल तो सबके बीच शांति और सुलह चाहते थे।'
 वल्लाह, क्या सेक्युलर अदा है? जबकि यह हकीकत भी दस्तावेजों में सरेआम दर्ज है कि दिल्ली पर तुर्कों का कब्जा जमने के बाद ही देश भर में आग और धुआं किस तरह फैलाया गया। मंदिरों की तोड़फोड़, लूटमार, दिल्ली में लूट के माल की नुमाइशें, गुलाम बच्चे-बच्चियों के बाजार, कत्लोगारत, सड़ती हुई लाशों के खलिहान, किले के बुर्जों पर टंगी भुस भरी हुई लाशें, कटे हुए सिरों की मीनारें और चबूतरे, अनगिनत औरतों के लगातार सामूहिक आत्मदाह समकालीन विवरणों में जगह-जगह मौजूद हैं। ऐसे "शांंतिप्रिय और जनकल्याणकारी शासन' में दंगे न होना मुखिया की नजर में कितनी बड़ी उपलब्धि है, जिस पर मुगलों को सौ में से सौ नंबर मिलने चाहिए!

धर्मांतरण पर इन्हें डाटा चाहिए...

 लालच और छलबल से हुए धर्मांतरण पर "मासूम' प्रो. मुखिया ने कहा-"इसका कोई डाटा उपलब्ध नहीं है। न ही कोई किताब है। केवल फुटकर विवरण हैं। ऐसा क्यों है कि धर्मांतरण पर कोई डाटा नहीं है? ऐसा इसलिए है कि किसी एक एजेंसी धर्मांतरण के लिए जिम्मेदार नहीं है। न राज्य और न ही सूफियों के स्तर पर किसी विशेष कालखंड में धर्मांतरण किया गया। यह धीमी गति की एक प्रक्रिया थी, जिसमें शासकों का कोई मतलब नहीं था। औरंगजेब के समय केवल दो सौ लोग मुसलमान बने।'

 लगता है मुखिया को डाटा देखने के लिए पुरातात्विक खुदाई में निकले खिलजी, तुगलक, लोदी और मुगल ब्रांड के उच्च तकनीक से बने लैपटॉप, हार्डडिस्क, सीडी, चिप या पैन ड्राइव चाहिए। जबकि सारे समकालीन इतिहासकारों ने पराजित हिंदू राज्यों में धर्मांतरण के घृणित ब्यौरे हर सदी में लिख छोड़े हैं। जियाउद्दीन बरनी और फखरे मुदब्बिर जैसे महानुभावों ने तो पूरी संहिताएं रचीं कि इस्लाम का कब्जा होने के बाद स्थानीय काफिरों के साथ कैसा व्यवहार किया जाए। उन्हें सिर्फ जजिया लेकर न छोड़ा जाए। उनके साथ दोयम दरजे के कैसे सुलूक किए जाएं, उन्हें कैसे गरीब बनाया जाए, इस्लामी विधि विधान से यह कार्य संपन्न करने संबंधी ड्राफ्ट उन्होंने बहुत मेहनत से तैयार किए और दरबारों में लंबी बहसें कीं हैं। शायद मुखिया ने सुनी नहीं!

 धर्मांतरित हिंदुओं के अपमान का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ। उन बेरहम सुलतानों की नजर में अपना धर्म छोड़ने वाले ये आखिर तक "नीच' ही थे। ऐसे काफिरों के लिए वे खुलेआम यही शब्द इस्तेमाल करते थे-"नीच।' क्या मजाक है कि अनगिनत लोग आज भी उन क्रूर हमलावरों से अपनी बल्दियतें जोड़कर फख्र महसूस करते हैं। औरंगाबाद में औरंगजेब और भोपाल में दोस्त मोहम्मद खान के बैनर टांगते हुए ऐसे कई चेहरे दिखाई दे जाएंगे। यह ऐसा ही है जैसे कोई खुद को खुद गाली देकर खुद ही खुश हो जाए!
सरकार, यूजीसी और मीडिया सब बेकार...

 मुखिया ने आखिर में केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा किया। वे बोले कि सरकार, यूजीसी, सोशल मीडिया और टीवी चैनलों के जरिए हमें फिर से जेम्स मिल के नजरिए की तरफ धकेला जा रहा है। हमने मध्यकाल आठवीं सदी से 18 वीं सदी तक माना था लेकिन अब यूजीसी 1206 से शुरू मान रही है। हमने साठ साल पहले इतिहास को देखने का ढंग बदला था। लेकिन अब हमें फिर से वापस वहीं ले जाने की कोशिश की जा रही है। "ऐसा क्यों हो रहा है, आप हिंदू और मुसलमान के बीच दंगे और विवाद करके समाज को बनाना चाहते हैं?' मुखिया के मन की बात सबने सुनी।
 उनका पूरा व्याख्यान उसी पुरानी घिसी-पिटी परिपाटी पर आधारित था, जिसमें दिल्ली पर कब्जा जमाने वाले बाहरी तुर्कों और मुगलों को हर हाल में एक आदर्श शासक के रूप में देखा जाता रहा है। मुखिया ने वर्तमान केंद्र सरकार की इतिहास को समझने की दृष्टि पर सवाल खड़े किए और पाठ्यक्रमों में बदलाव का विरोध किया। अखंड भारत के संदर्भ में उन्होंने कहा कि उनका आशय 1947 के पहले के उस अखंड भारत का नहीं है, जैसा आरएसएस वाले बनाना चाहते हैं।

मध्यकाल की असलियत से बेखबर...

 मुझे आश्चर्य है कि किसी प्रोफेसर ने मुखिया के कथन पर कोई चूं तक नहीं की। किसी ने उन दसियों समकालीन लेखकों की किताबों का एक भी ब्यौरा नहीं बताया, जो सल्तनत और मुगलकाल की सारी थ्योरी को उलटने में सक्षम है। उल्टा सारे श्रोता प्रोफेसर उन्हें रोबोट की तरह सुनते रहे। किसी ने यह तक नहीं कहा कि  हम मध्यभारत पर काम करने वाली परिषद से हैं, आप कहां मध्यकाल में घसीटे जा रहे हैं, जबकि पूरा मध्यकाल बाहरी हमलावर हत्यारों और लुटेरों की छीना-झपटी में हुई भारत की बेरहम पिसाई का कलंकित कालखंड है। पृथ्वीराज चौहान के बाद दिल्ली इन्हीं लुटेरों का एक अड्डा बन गई थी, जिस पर एक के बाद दूसरे लुटेरों के झुंड झपटते रहे। 

 सारी सेक्युलर कलई खुलने के बावजूद अब भी मुखियाओं, थापरों और हबीबों को सुना जाना इस बात का प्रमाण है कि इतिहास के सरकारी कामगारों के दृष्टिकोण कितने खोखले हैं। जब खाली दिमाग सेक्युलर खूंूटियों से बंधे हों और समस्त बुद्धि एक डिग्री हासिल करने में ही खर्च हो गई हो तो मुखिया को सुनना एक प्रोफेसर या रिसर्चर के जीवन की धन्यता ही होगी। उनसे कहीं ज्यादा कीमती और मौलिक काम ताे यूट्यूब पर कई शौकिया लोग कर रहे हैं। वे इतिहास को जी रहे हैं। वे नए तथ्यों को सामने ला रहे हैं। नया खोज रहे हैं। इस दृष्टि के लिए मुखिया जैसे किसी मार्गदर्शक के निकट बैठकर की गई एक अदद पीएचडी अनिवार्य नहीं है!

 एक विहंगम दृष्टि से भी दिल्ली-आगरा के सात सौ सालों का नजारा देखेंगे तो लगेगा कि एनिमल प्लानेट का कोई ऐसा शो देख रहे हैं, जिसमें लार टपकाते भूखे लकड़बग्घों के झुंड अपने शिकार की घात में चारों तरफ मंडरा रहे हैं। किसी के मुंह में मांस के लोथड़े हैं। कोई हड्‌डी खींचकर भाग रहा है। कोई मुर्दों की चमड़ी खींच रहा है। वे आपस में एक दूसरे पर भी काट, गुर्रा और छीन-झपट रहे हैं। मुखिया की नजर में यही "महान साम्राज्य स्थापना के मध्यकालीन मनोरम दृश्य' हैं!

 और उनका मध्यकाल इतना महान है कि हम उत्तर भारत में मौर्य, गुप्त, पाल, गहड़वाल, गुर्जर प्रतिहार, परमार, कलचुरि, चंदेल गोंड और दक्षिण भारत में चोल, होयसला, पल्लव, पांड्य, काकातीया साम्राज्यों को हमेशा के लिए हाशिए पर डाल सकते हैं। सेक्युलर गर्भगृह में मुगले-आजम की प्राण प्रतिष्ठा के लिए दिल्ली को केंद्र बनाकर सल्तनत और मुगल काल के लकड़बग्घों को सुलतान और बादशाह के मुकुट पहना दिए गए।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अबाध है...

 मीडिया के जिन महानुभावों को लगता है 2014 के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है, कहने-करने की आजादी नहीं है, उन्हें ध्यान रहे कि हरबंस मुखिया के प्रशंसक श्रोताओं और आयोजकों में मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात के विश्वविद्यालयों के कामगार अग्रणी रूप से शामिल हैं। लेकिन उन पर उच्च शिक्षा विभागों ने कोई एक्शन नहीं लिया है। मंत्रियों और नौकरशाहों को खबर भी नहीं होगी। हो सकता है कि ये विभाग अगला वेबनार इरफान हबीब या रोमिला थापर का प्लान कर रहे हों। क्या पिछली सरकारों में यही गणमान्य इतिहासविद् सरकार के नीतिगत निर्णयों के प्रतिकूल ऐसे व्याख्यान करते थे? मुखिया तो संघ का मजाक उड़ा गए और सरकार पर सवाल खड़े कर गए। क्या पिछली सरकारों में कोई जनपथ के दस नंबरियों पर उंगली उठाने की जुर्रत कर सकता था?

 मुर्दा जानकारियों के कब्रस्तान में एक प्रभावशाली मुर्दा आकर अपनी एक्सपायरी डेट की तकरीर दे गया है। विभागीय कब्रों में लेटे मुर्दे ताली बजाकर वाहवाह कह रहे हैं। जीवित समाज के ये मरणासन्न लक्षण किस तरह के भविष्य की ओर ले जाएंगे?

#indianhistory #harbansmukhiya 

वेबनार की लिंक-
https://youtu.be/66yWkoSu_bg

Sunday, September 19, 2021

कौन तुझे भजते हैं।

ईळते त्वामवस्यवः कण्वासो वृक्तबर्हिषः । हविष्मन्तो अरंकृतः ॥ ऋ 1/14/5

अर्थ- हे परमेश्वर! (अवस्यवः) अपनी सुरक्षा चाहनेवाले, जिज्ञासु [अव गतौ] (कण्वासः) मेधावी [रण शब्दे] जो तुम्हारी स्तुति करते और कण-कण का ज्ञान अर्जन करते हैं (वृक्तबर्हिषः) जिन्होंने अपने हृदयों के झाड़-झंखाड़ों (वासनाओं) को काटकर तुम्हारे बैठने के लिये अपना हृदय सिंहासन सजाया है। (हविष्मन्तः) जिनका जीवन हवि के समान पवित्र बन गया है, (अरंकृतः) जो यम-नियमों के पालन से सुशोभित हो गये हैं या जिन्होंने संसार के भोगों से अलं=‘बस’ कर लिया है (त्वाम्) तुझे वे जन (ईडते) भजते हैं।

परमात्मा की भक्ति तो अपने-अपने विश्वास के अनुसार बहुत से लोग करते हैं। यहाँ तक कि चोर-लुटेरे भी अपने कार्य की सिद्धि के लिये देवी-देवताओं की मनौती मनाते हैं। गीता में इन सभी भक्तों को चार श्रेणियों में विभक्त किया है

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभः।।

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एक भक्तिर्विशिष्यते। गीता 7.16-17।।

दुखों से ग्रस्त, जिज्ञासु=जानने की इच्छा वाले, सांसारिक धनैश्वर्य को चाहने वाले और ज्ञानी, ये चार प्रकार के लोग भगवान् की भक्ति करते हैं जिनमें परमात्मा में अनन्य प्रेम, भक्ति रखने वाला ज्ञानी ही सबसे श्रेष्ठ है।

सर्वप्रथम दुखी लोगों को ही भगवान् का नाम स्मरण होता है ‘दुख में सुमरिन सब करें सुख में करे न कोय’। जब व्यक्ति सभी ओर से अपने आपको संकटों से घिरा हुआ पाता है और उसे कोई दूसरा उपाय नहीं सूझता तब वह भगवान् की शरण में जाता है।

दूसरी श्रेणी के लोग इसलिये भी भगवान् का नाम स्मरण करते हैं कि चलो देखें तो सही कि भगवान् कैसा है और उसकी भक्ति से कुछ लाभ होता है या नहीं।

तीसरी श्रेणी में वे लोग हैं जो सांसारिक धन-सम्पत्ति या अपने कार्य की सफलता, पद-प्राप्ति आदि को ध्यान में रख जप, तप, अनुष्ठान आदि करते हैं। इनका दृष्टिकोण विशुद्ध व्यापारिक होता है।

चतुर्थ श्रेणी में ज्ञानी आते हैं जिन्हें किसी प्रकार के दुख निवारण, जिज्ञासा और सांसारिक वस्तु की इच्छा नहीं है। वे अनन्य भाव से उसके प्रेम और भक्ति में श्रद्धान्वित होकर लगे रहते हैं।

ईश्वर-प्राप्ति के उपायों में भक्तियोग सबसे सुगम है

कहहु भक्ति पथ कवन प्रयासा, जोग न मख जप तप उपवासा।
सरल स्वभाव न मन कुटिलाई, जथा लाभ सन्तोष सुहाई।। (रामचरित. उ. का.)

परमात्मा में अनन्य प्रेम होना ही भक्ति है। वेद का यह मन्त्र मार्गदर्शन करते हुये कहता है

1. अवस्यव- जिन्हें मृत्यु सामने दिखाई देती है और वे उससे बचना चाहते हैं तो दूसरे उपायों को सुरक्षित न मान वे प्रभु की शरण को सर्वोत्तम जान उसी के शरणागत हो जाते हैं।

2. कण्वास- मेधावी लोग ही ठीक प्रकार से भक्तियोग का अभ्यास कर सकते हैं। परमात्मा को इन्द्रियों द्वारा देखा जाना सम्भव नहीं। उसे केवल ज्ञान-नेत्र अर्थात्- अन्तःकरण से अनुभव मात्र किया जा सकता है। जैसे कि हमें भूख-प्यास की अनुभूति होती है। भक्ति केवल अन्ध श्रद्धा न होकर ज्ञान सहित सर्वात्मना अपने आपको परमात्मा में निमग्न कर देना है। यह कार्य बुद्धिमान् ही
कर सकता है, अज्ञानी नहीं।

3. वृक्तबर्हिष- जैसे यज्ञादि में झाड़-झंखाड़ और पत्थरों को हटाकर भूमि को समतल कर सुन्दर आसन बिछाये जाते हैं जिन पर ऋत्विक् लोग बैठते हैं वैसे ही परमात्मा का आवाहन करने के लिये हृदयवेदि के चारों ओर उगी काम-क्रोध की खरपतवार और राग-द्वेष के कण्टकों को हटाकर श्रद्धा का आसन बिछाया जाता है तब कहीं वे परमदेव आकर बैठते हैं।

4. हविष्मन्त- यज्ञ में जिन पदार्थ़ों की आहुति दी जाती है, पहले उन्हें शुद्ध करते हैं और फिर शाकल्य बना विधि-विधान से अग्नि में उसकी आहुति देते हैं। इसी भाँति जिनका जीवन पवित्र हो गया है उन्हीं पर परमात्मा कृपादृष्टि करते हैं। अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते=जिसने अपने आपको तप की भट्ठा् में तपाया नहीं वह कच्चा है और जैसे कच्चे घड़े में पानी नहीं ठहरता वैसे ही उसे परमात्मा का दर्शन नहीं होता।

5. अरङ्कृत- जब किसी के यहाँ कोई अतिथि आता है तो घर का स्वामी स्वयं स्वच्छ वत्र पहनकर अन्य कार्य़ों से निवृत्त होकर द्वार पर उसकी प्रतीक्षा करता है। ऐसे ही उस प्रभु को अपना अतिथि बनाने के लिये यम-नियमों से सुसज्जित और सांसारिक झंझटों से विरक्त होकर उत्सुकता से उसकी प्रतीक्षा में पलक-पांवड़े बिछाने होते हैं। भक्ति का नशा इतना चढ़ जाये कि क्षणभर भी प्रभु से दूर होना कष्टदायक हो, तब कहीं जाकर उसकी कृपादृष्टि होती है। जिसके दर्शन हो जाने पर अन्य किसी को जानने या देखने की इच्छा शेष नहीं रहती।

चौ0 राजमल जैलदार का बलिदान दिवस।

चौ0 राजमल जैलदार का बलिदान दिवस: 16 सितम्बर
आर्यसमाज खाण्डाखेड़ी: एक सिंहावलोकन
लेखक :- श्री सहदेव समर्पित जी 

हरियाणा में आर्यसमाजः

    आर्यसमाज की स्थापना स्वामी दयानन्द ने 1875 ई0 में बम्बई में की थी। आर्यसमाज ने तात्कालीन परिस्थितियों में देश और समाज में एक नवजीवन का संचार किया। स्वामी दयानन्द के वेदाधारित सिद्धान्तों, उनके तप, त्याग, अप्रतिम प्रतिभा और विलक्षण योग्यता के कारण आर्य समाज का आन्दोलन तीव्र गति से फैलता चला गया और देश के वातावरण को इसने किसी न किसी रूप में प्रभावित अवश्य किया। स्वामी दयानन्द के समकालीन अनुयायियों में एक अद्भुत ऊर्जा थी जिसका प्रभाव परवर्ती अनुयायियों में भी बना रहा। टंकारा में जन्म लेकर हिमालय की घाटियों में ज्ञानपिपासा लिए घूमने वाले दयानन्द ने मथुरा में विद्याध्ययन किया और हरिद्वार, काशी जैसी सांस्कृतिक राजद्दानियों से लेकर लाहौर, मुम्बई, कलकत्ता, पूना, राजपूताना तक वैदिक सिद्धान्तों का सघन प्रसार किया। एक अलौकिक ज्योतिपुंज की तरह स्वामी दयानन्द के आगमन से पूर्व ही जिज्ञासुओं के हृदय में उल्लास छा जाता था तो विरोधियों में खलबली मच जाती थी। इसी दौरान अनेक प्रतिभाशाली नवयुवक स्वामी दयानन्द के सम्पर्क में आए। दीपक से दीपक प्रज्वलित हुए और यह क्रांति का प्रकाश फैलता ही चला गया।
    हरियाणा का अस्तित्त्व यद्यपि उस समय इस प्रकार का नहीं था, परन्तु यह क्षेत्र आर्यसमाज का स्वाभाविक अनुयायी था। मेहनत और ईमानदारी तो इस क्षेत्र के लोगों के स्वभाव का अंग ही थी- स्वामी दयानन्द के स्पष्ट सरल और आडम्बररहित सिद्धान्त यहाँ के लोगों के हृदय में अनायास की घर करते चले गए। महर्षि दयानन्द का यद्यपि इस क्षेत्र में अधिक आवागमन नहीं रहा। जुलाई 1878 में महर्षि अम्बाला आए थे और संवत् 1935 में रेवाड़ी। एक बार पानीपत में रुकने का भी उल्लेख मिलता है। स्वामी दयानन्द के आगमन की अनुगूंज रेवाड़ी में सर्वाधिक समय तक व्याप्त रही।
    यद्यपि आर्यसमाज के सिद्धान्तों की विवेचना करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है तथापि हरियाणा क्षेत्र में आर्य समाज के तीव्र प्रभाव का मुुख्य कारण यही था कि आर्य समाज के सिद्धान्त यहाँ के लोगों को अपने से लगे। प्रत्यक्ष रूप से आर्यसमाज के प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने का श्रेय उनके व्यक्तिगत सम्पर्क में आए उनके अनुयायियों को दिया जा सकता है। गुरुदत्त विद्यार्थी, लाला साईंदास, महात्मा मुंशीराम, पं0 लेखराम आदि उच्चकोटि के प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे, जिनका अलौकिक समर्पण आर्यसमाज के प्रचार प्रसार में सहयोगी बना। हरियाणा में आर्यसमाज के प्रसार प्रचार के लिए प्रथम पीढ़ी के आर्यों में आर्यसमाज के इतिहास में पण्डित बस्तीराम, पं0 शम्भूदत्त, चौ0 भीमसिंह, लाला लाजपतराय, स्वामी ब्रह्मानन्द, राव युधिष्ठिर, चौ0 पीरूसिंह, महात्मा भगत फूलसिंह, स्वामी स्वतंत्रतानन्द आदि कुछ महनीय व्यक्तियों के नाम आदर पूर्वक लिए जाते हैं। यह एक सुखद संयोग था कि हिसार क्षेत्र में उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में आर्यसमाज के तपे हुए कार्यकर्त्ता एकत्र हुए जो अपने व्यावसायिक सामाजिक जीवन की सफलता के साथ साथ आर्यसमाज के प्रचार के लिए सदैव तत्पर रहे। हिसार में सक्रिय इन प्रथम पीढ़ी के नेताओं में लाला लाजपतराय, लाला चन्दूलाल तायल, बाबू चूड़ामणि, पं0 लखपतराय, डॉ0 रामजीलाल हुड्डा, चौ0 राजमल जैलदार खाण्डा, चौ0 लाजपतराय सिसाय आदि की गणना प्रमुखता से की जा सकती है।
    हरियाणा के ग्रामीण क्षेत्र की आर्यसमाजों में हिसार जिले के आर्यसमाज खाण्डाखेड़ी का नाम अग्रणी है। खाण्डा ग्राम जिसे अब खाण्डा खुर्द सहित संयुक्त रूप से खाण्डाखेड़ी कहा जाता है, नारनौंद के पूर्व में जींद भिवानी मार्ग पर जींद से लगभग उन्नीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस गांव का अपना एक इतिहास है। इस भूमि ने देश को अनेक राजनीतिज्ञ, प्रशासनिक अधिकारी व समाज सेवी प्रदान किये हैं। आज से एक शताब्दी पूर्व के कालखण्ड में यह ग्राम तात्कालीन हरियाणा देहात कहे जाने वाले रोहतक हिसार जिले का प्रमुख गांव था जो राष्ट्रीय व सामाजिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े हुए नेताओं का यहाँ आम आवागमन था। आर्यसमाज के प्रमुख नेता जो राष्ट्रीय आन्दोलन के भी कर्णधार थे इस गांव में प्रायः आते थे।
    आर्यसमाज खाण्डाखेड़ी की स्थापना 1900 ई0 से पूर्व हो चुकी थी। हमारा अनुमान है कि यह वर्ष 1890 ई0 के आसपास रहा होगा। डॉ0 सत्यकेतु विद्यालंकार ने आर्यसमाज का इतिहास द्वितीय भाग में उल्लेख किया है कि इस क्षेत्र में जाटों में सर्वप्रथम यज्ञोपवीत लेने वाले व्यक्ति चौ0 राजमल जैलदार खाण्डा और चौ0 उदमीराम थे।
    इतिहासकारों ने चौ0 राजमल जैलदार के डॉ0 रामजीलाल हुड्डा के प्रभाव से यज्ञोपवीत लेकर आर्यसमाज में आने का उल्लेख किया है। इस बात से इन्कार करने का तो कोई कारण नहीं है, लेकिन चौ0 राजमल और डॉ0 हुड्डा का संबंध डॉ0 हुड्डा के हिसार आने से पूर्व का था। डॉ0 रामजीलाल हुड्डा 1892 ई0 में सहायक सिविल सर्जन के रूप में हिसार आए थे। डॉ0 हुड्डा और राजमल समवयस्क थे। डॉ0 हुड्डा का जन्म 1864 में और राजमल का जन्म 1862 में हुआ था। डॉ0 हुड्डा 1886 में अध्ययनार्थ लाहौर गए थे। संभवतः वहीं वे आर्यसमाज के प्रभाव में आए। क्योंकि उस समय का शिक्षित वर्ग किसी न किसी रूप में आर्यसमाज से अवश्य प्रभावित होता था। यद्यपि रामजीलाल का परिचय 1881 में रोहतक में लाला लाजपतराय से हो चुका था, पर उस समय तक लाला लाजपतराय स्वयं पूर्ण रूप से आर्यसमाज में नहीं आए थे। डॉ0 हुड्डा और राजमल के स्वाभाविक अन्तरंग संबंध थे। राजमल डॉ0 हुड्डा के ग्रांव सांघी में विवाहित थे। अतः इतना तो निश्चित है कि राजमल डॉ0 हुड्डा के हिसार आगमन (1892) से काफी पूर्व आर्यसमाज से जुड़ चुके थे और आर्यसमाज लाहौर की गतिविधियों में भाग लेते थे।
    चौ0 राजमल व चौ0 उदमीराम के पश्चात् (डॉ0 सत्यकेतु ने ऊदराम लिखा है।) खाण्डाखेड़ी तहसील के ग्रामीण क्षेत्र में आर्यसमाज का विजय रथ तीव्र गति से दौड़ने लगा। इनकी प्रेरणा से गांव के इनके परिजनों के अतिरिक्त नारनौंद से चौ0 फतहसिंह, सिसाय के चौ0 लाजपतराय, मिलकपुर के चौ0 गंगाराम आदि प्रमुख व्यक्ति आर्यसमाज से जुड़ गए। इन क्षेत्रों के आर्यसमाज भी 1900 से पूर्व स्थापित हो चुके थे।
    आर्यसमाज हिसार का इतिहास तो 1886 में लाला लाजपतराय के हिसार आगमन से प्रारम्भ होता है। लाला लाजपतराय का जन्म 28 जनवरी 1865 में हुआ था। पिता पर इस्लाम का प्रभाव था। स्वयं भी ब्रह्मसमाज के प्रभाव में थे। 1881 में लाहौर के गवर्नमेंट कालेज में प्रवेश लिया। वहाँ आर्यसमाज के वैज्ञानिक अनुयायी पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी और त्यागमूर्त्ति महात्मा हंसराज की संगति में (सहपाठी) आर्यसमाज के रंग में रंग गए। 1882 में पहली बार आर्यसमाज में गए और लाला साईदास का स्नेहिल वरदहस्त पाकर आर्यसमाज के हो गए। 1886 में आप हिसार के लाला रामजीदास के (लाला चन्दूलाल के दादा) एक मुकदमे के सिलसिले में हिसार आए थे। इस क्षेत्र को उपयुक्त समझकर यहीं प्रैक्टिस करने लगे। उसी वर्ष हिसार में आर्यसमाज की स्थापना हुई। 1891-92 में आर्यसमाज का भवन बना, जिसमें लाला चन्दूलाल तायल, लाला हरिलाल और बालमुकुन्द ने तन मन धन से योगदान किया। आज यह आर्यसमाज (लाजपतराय चौक) विश्व की दर्शनीय आर्यसमाजों में से एक है।
    हरियाणा के ग्रामीण क्षेत्र में आर्यसमाज के प्रचार के लिए गंभीर चुनौतियाँ भी थीं। लाला लाजपतराय ग्रामीण क्षेत्र में आर्यसमाज के प्रसार के प्रबल पक्षधर थे। 1892 में डॉ0 रामजीलाल हुड्डा के आगमन के पश्चात् इस क्षेत्र में सफल प्रयास हुए। सतरौल खाप के प्रमुख व्यक्तित्त्व चौ0 राजमल सहित इस टीम ने इस चुनौती को स्वीकार किया। डॉ0 रामजीलाल एक सफल सर्जन के साथ साथ एक स्वच्छ सरल व्यक्ति थे। अंग्रेजी शिक्षा, उच्च सामाजिक स्तर, उच्च अधिकारियों से अंतरंग संबंधों का उनके अंदर लेशमात्र भी अभिमान नहीं था। वे असहाय निर्धन व्यक्तियों को न केवल निःशुल्क दवाईयाँ देते अपितु अपने घर से भोजन भी कराते। डॉ0 रामजीलाल अपने साथियों पं0 लखपतराय, बाबू चूड़ामणि, राजमल जैलदार, लाला लाजपतराय आदि के साथ ऊंटों पर पैदल, बैलगाडि़यों पर ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचारार्थ जाते थे।
सबसे बड़ी चुनौतीः
    ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे बड़ी चुनौती तात्कालीन सामाजिक व्यवस्था थी। जाट इस क्षेत्र का प्रमुख किसान वर्ग था, परन्तु उनकी सामाजिक स्थिति ऐसी नहीं थी, जैसी कि वर्तमान में है। जाटों के आर्यसमाज से जुड़ने में एक बड़ी बाधा आ रही थी कि उन्हें द्विज नहीं समझा जाता था। फलतः वे जनेऊ धारण नहीं कर सकते थे। आर्यसमाज उन्हें जनेऊ धारण कराता था। यह एक क्रान्ति थी जिससे जाति व्यवस्था के सड़े गले नियम चटख रहे थे। पौराणिक वर्ग की और से स्थान स्थान पर पंचायतें हो रहीं थी और जनेऊ लेने वालों का सामाजिक बहिष्कार तक किया जा रहा था। सोनीपत जिले के खांडा ग्राम में बीसवीं सदी के प्रारम्भ में पौराणिक वर्ग की ओर से एक पंचायत हुई जिसमें यह प्रस्ताव लाया गया कि जो लोग आर्यसमाज के बहकावे में आकर जनेऊ लेकर आर्य बनते हैं, उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया जाए। यह कार्यक्रम ब्रह्मचारी जयरामदास के शिष्य कूड़ेराम का था। वहाँ पर दूसरे पक्ष के लोग भी उपस्थित थे। किसी ने सुझाव दिया कि जाट द्विज हैं या नहीं इस विषय पर शास्त्रार्थ करा लिया जाए। पौराणिक पक्ष की ओर से काशी के पण्डित शिवकुमार व आर्यसमाज की और से पण्डित गणपति शर्मा के मध्य शास्त्रार्थ हुआ जिसमें आर्यसमाज ने जाटों को क्षत्रिय और यज्ञोपवीत का अद्दिकारी सिद्ध किया। 1902 में इसी प्रकार की पंचायत खिड़वाली में भी हुड्डा खाप की हुई थी, जिसमें चौधरी मातूराम जी (चौ0 भूपेन्द्रसिंह हुड्डा के पिता) द्वारा सिर उतारकर जनेऊ उतारने की बात कही गई थी।
    इसी प्रकार का एक शास्त्रार्थ खाण्डाखेड़ी गांव में भी हुआ था उसमें आर्यसमाज का पक्ष आर्यमुनि जी ने रखा था। राजमल जैलदार के लिए यह एक परीक्षा की घड़ी थी। जाटों को शूद्र कहने वालों का पक्ष यहाँ संख्या बल की दृष्टि से मजबूत था। उस पक्ष को यह भी ज्ञात था कि शास्त्रार्थ में तो आर्यसमाज का पक्ष विजयी होगा ही। इसलिए इस शास्त्रार्थ में नारनौंद, बास, पेटवाड़ के जिज्ञासुओं के साथ साथ गड़बड़ करने वाले तत्त्व भी लाठियों और गंडासियों से लैस होकर आ गए। राजमल जैलदार और उनके साथियों ने इस योजना को समझा और इस प्रकार की व्यवस्था की कि गड़बड़ करने वाले शास्त्रार्थ स्थल चौपाल में नहीं पहुंच सकें। इस शास्त्रार्थ में आर्यसमाज की विजय हुई। बहुत से लोगों ने आर्यसमाज में सम्मिलित होने की घोषणा की। इस शास्त्रार्थ के पश्चात् सत्य को स्वीकार न करके गंाव के ब्राह्मणों ने आर्यसमाजी जाटों का बहिष्कार कर दिया और उनके किसी भी प्रकार के संस्कार न कराने का संकल्प किया। आर्यसमाजियों ने इस चुनौती को स्वीकार किया। उन्होंने पाई ग्राम से एक ब्राह्मण हरिशरण को लाकर गांव में बसा लिया और बहिष्कार धरा का धरा रह गया।
    इस घटनाक्रम के बाद क्षेत्र में आर्यसमाज की तूती बोलने लगी। हजारों आर्यसमाज के अनुयायी बने। क्षेत्र का शायद ही कोई गांव ऐसा होगा जिसमें आर्यसमाज की सक्रियता न हो। सिसाय, मिलकपुर, कोथकलां, मिर्चपुर इक्कस, नारनौंद आदि बड़े गांवों में आर्यसमाज के प्रभावी जलसे होने लगे।
    आर्यसमाज के अनेक कार्यकर्त्ताओं के साथ साथ अनेक प्रचारक भी इस क्षेत्र से निकले। खाण्डाखेड़ी से चौ0 राजमल के चचेरे भाई चौ0 भागमल के पौत्र चौ0 शीशराम (चौ0 मित्रसेन के पूज्य पिता) का जन्म 1878 में हुआ। चौ0 शीशराम आर्यसमाज के एक बड़े प्रचारकथे। आप आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा के अवैतनिक प्रचारक रहे। हालांकि सभा इन्हें 40 रुपये मासिक वेतन देना चाहती थी पर इनके पिता चौ0 शादीराम के आग्रह पर इन्होंने निःशुल्क ही वैदिक धर्म का प्रचार किया। आप डॉ0 रामजीलाल, लाला लाजपतराय, पं0 लखपतराय, महात्मा हंसराज आदि के साथ गांव गांव प्रचारार्थ जाते थे। आपके मधुर कण्ठ से निःसृत सिद्धान्तवादी गीतों और व्याख्यानों से लोग अत्यंत प्रभावित होते थे। आप एक साधारण किसान होते हुए भी निःशुल्क निःस्वार्थ आर्यसमाज का प्रचार करते रहे। 1940 में काला मोतिया के कारण आपकी नेत्रज्योति चली गई। परन्तु यह आपदा भी आपको आपके कर्त्तव्य पथ से डिगा न सकी। 7 फरवरी 1978 को शतायु प्राप्त करके शरीर छोड़ा। चौ0 शीशराम के अतिरिक्त इस क्षेत्र के उपदेशकों में चौ0 भूराराम चिड़ी निवासी, चौ0 कालूराम कोथकलां, चौ0 हरदेवसिंह कोथकलां, (यद्यपि आप अध्यापक थे तथापि आशुकवि थे।) चौ0 लालचन्द मिलकपुर, पं0 प्रभुदयाल प्रभाकर पौली आदि महान् उपदेशक निकले। नारनौंद, मिलकपुर, सिसाय, इक्कस, मिर्चपुर आदि से आर्यसमाज के तपे हुए कार्यकर्त्ता निकले। मिलकपुर के चौ0 मातूराम का हैदराबाद के आन्दोलन में 50 वर्ष की अवस्था में बलिदान हुआ।
क्रान्तिकारियों से संबंधः
    चौ0 राजमल जैलदार का सामाजिक दायरा अति विस्तृत था। सरकारी अधिकारी हों या आर्यसमाज के नेता अथवा राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रमुख क्रान्तिकारी, उनके आवास और भोजन की व्यवस्था राजमल की ओर से ही होती थी। गांव के बुजुर्गों के अनुसार भरतपुर के महाराजा भी राजमल की ख्याति सुनकर उनसे मिलने के लिए गांव में आए थे। देवतास्वरूप भाई परमानन्द इस क्षेत्र. में राजमल के आतिथ्य में छः मास तक भूमिगत रहे थे। नवंबर 1931 को डॉ0 रामजीलाल को भिवानी में रेलगाड़ी में द्वितीय श्रेणी की सीट पर सोते हुए मिले थे। भाई परमानन्द को इस क्षेत्र के अलग अलग गांवों में सरकार की नजर से बचाकर रखा गया था। नारनौंद में आर्यसमाज मन्दिर के अन्दर का भवन भाई परमानन्द के सम्मान में 1930 में बनाया गया। इस आशय का पत्थर लगा हुआ है।
    सरदार भगतसिंह का राजमल परिवार के साथ अत्यंत अंतरंग संबंध था। भगतसिंह का परिवार पुराना आर्यसमाजी परिवार था। भगतसिंह के दादा सरदार अर्जुनसिंह जी ने स्वामी दयानन्द से दीक्षा ली थी। वे आर्यसमाज के प्रचारक उपदेशक, नेता, कार्यकर्त्ता और शास्त्रार्थ महारथी थे। उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी- ‘हमारे गुरु साहेबान वैदों के पैरोकार थे।’ भगतसिंह के पिता सरदार किशनसिंह भी आर्यसमाज के नेता और प्रवक्ता थे। सरदार अजीतसिंह एक प्रखर आर्यसमाजी थे। यह परिवार लायलपुर में आर्यों के नाम से प्रसिद्ध था। जिस क्षेत्र में उनके बाग थे उस क्षेत्र को अब भी आर्यों के बाग के नाम से जाना जाता है। आर्य समाजी परिवार व सिन्धु गोत्र होने से राजमल परिवार के साथ उनके अन्तरंग संबंध थे। नारनौंद के स्वतंत्रता सेनानी श्री चन्दनसिंह होत्री भी भगतसिंह के अनन्य मित्र थे। साण्डर्स के वध के पश्चात् भगतसिंह के वध की कलकत्ता फरारी की योजना भी खाण्डा में ही बनी थी। लाला लाजपतराय की मृत्यु को सारे देश का अपमान माना गया था। राजमल के तो वे अत्यंत घनिष्ठ मित्र थे। जब भगतसिंह ने उनकी हत्या के अपराधी को दण्ड देने का संकल्प किया तो राजमल सहित सभी क्षेत्रवासी सहयोग को तत्पर हो गए। कलकत्ता में स्थापित सेठ छाजूराम राजमल के अंतरंग मित्र थे। राजमल व छाजूराम की अंतरंगता का उल्लेख डॉ0 रामजीलाल हुड्डा ने अपनी डायरियों में दर्जनों स्थानों पर किया है। भगतसिंह की फरारी की योजना के अनुसार सुशीला दीदी उन दिनों सेठ छाजूराम की धर्मपत्नी लक्ष्मी देवी व सुपुत्री सावित्री देवी की ट्यूटर के रूप में कलकत्ता में ही थीं। भगतसिंह और दुर्गा भाभी (दुर्गा देवी वोहरा) एक दिन होटल में रहे। दूसरे दिन सेठ सर छाजूराम की कोठी में चले गए। वहाँ एक सप्ताह से अधिक तक निवास किया। बाद में इन्हें आर्यसमाज, 19, विधान सरणि में स्थानान्तरित कर दिया गया। भगतसिंह मन्दिर के ऊपर गुम्बज वाली कोठरी में बदले हुए हरि नाम से रहते थे। अंग्रजी वेश और हैट वाला भगतसिंह का प्रसिद्ध चित्र आर्यसमाज कलकत्ता के प्रवास काल का ही है।
    लाला लाजपतराय से राजमल की अंतरंगता का उल्लेख भी डॉ0 रामजीलाल ने किया है। डॉ0 रामजीलाल तो लाला लाजपतराय के प्रति अत्यंत भावुक और सहृदय थे। लाला लाजपतराय एकाधिक बार खाण्डाखेड़ी भी आए थे। 23 दिसम्बर 1909 की घटना का उल्लेख करते हुए डॉ0 रामजीलाल लिखते हैं कि सुबह लगभग 5 मील तक सैर की। 24 दिसम्बर को भी डॉ0 रामजीलाल, चौ0 राजमल, पण्डित लखपतराय और लाला लाजपतराय इन चारों मित्रों ने मंगाली तक लगभग पांच मील पैदल यात्रा की और चैस शतरंज खेला।
    आर्यसमाज के नेता और डी0 ए0 वी0 आन्दोलन के कर्णधार महात्मा हंसराज जी व उनके सुपुत्र बलराज भी अनेकशः खाण्डाखेड़ी आए थे। एक बार 1900 व द्वितीय  बार 24 दिसम्बर 1931 को महात्मा हंसराज के खाण्डाखेड़ी पधारने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। उस जलसे में मेहता रामचन्द्र भी उनके साथ थे। महात्मा हंसराज की अपील पर 1200 रूपये का दान एकत्र हुआ। दीनबंधु सर छोटूराम राजमल का बहुत सम्मान करते थे। उनके चुनाव में मदद करने के लिए चौ0 राजमल रोहतक गए थे। उस समय एक लोकगीत उस क्षेत्र में प्रचलित हुआ था जिसके भाव थे कि चौ0 राजमल खुद चुनाव नहीं लड़ रहा छोटूराम को लड़वा रहा है।
शिक्षा का प्रचार-
    डॉ0 रामजीलाल ने आर्यसमाज के प्रचार, कुरीतियों के निवारण के लिए व्यापक कार्य किया वहीं अपनी जाति के उत्थान के लिए शिक्षा के प्रचार के महनीय प्रयत्न किये। लाहौर में पढ़ते हुए चार मित्रों के संकल्प का चौ0 ईश्वरसिंह गहलोत ने बलदेव भेंट में वर्णन किया है। उनमें चौ0 बलदेव सिंह, भानीराम गंगाना के अतिरिक्त रामजीलाल हुड्डा के सुपुत्र रणजीत सिंह और चौ0 राजमल  के परिवार के पौत्र चौ0 मामनसिंह (चौ0 मित्रसैन आर्य के चाचा) भी थे। मामन सिंह ने जाट स्कूल में छः मास तक अवैतनिक कार्य किया। 1913 में जाट एंग्लो संस्कृत हाई स्कूल की स्थापना में डॉ0 रामजीलाल, चौ0 मातूराम व उस क्षेत्र के नेताओं के साथ चौ0 राजमल का भी महत्त्वपूर्ण योगदान था। हिसार में लाला चन्दूलाल तायल के निधन के पश्चात् उनकी स्मृति में सी0 ए0 वी0 हाई स्कूल की स्थापना की गई, उस हिसार की टीम में चौ0 राजमल भी थे। चौ0 छाजूराम ने इसके लिए विपुल राशि दान की। 1926 में हिसार में जाट स्कूल की स्थापना हुई। नवम्बर 1924 में इसके संस्थापक सदस्यों की चौ0 लाजपतराय सिसाय के निवास पर मीटिंग हुई। इन 13 सदस्यों में सेठ छाजूराम सहित खाण्डाखेड़ी से चौ0 राजमल व चौ0 सूरजमल भी उपस्थित थे। 16 जुलाई 1926 को सेठ छाजूराम व पंजाब के गवर्नर ने हाथ में तसला और करनी लेकर इस विद्यालय के भवन की नींव का पत्थर रखा। सर छोटूराम ने इसके लिए भवन उपलब्ध कराने व पंजाब युनिवर्सिटी से मान्यता दिलाने में महनीय योगदान किया। संगरिया स्कूल की योजना में भी राजमल, डॉ0 रामजीलाल के निकट सहयोगी थे।
    शिक्षा संस्थाओं के लिए अर्थ संग्रह करने में राजमल सदैव अग्रणी रहे। जनवरी 1913 में सिसाय आर्यसमाज के जलसे में महात्मा हंसराज की अपील पर सर छाजूराम ने 700 रुपये, चौ0 राजमल ने 550 रूपये, चौ0 शिवनाथ ने 500 रुपये, चौ0 बख्तावर व इन्द्रराज ने दो दो सौ रुपये का अंशदान किया। दयानन्द एंग्लो वैदिक कालेज फण्ड के आर्थिक योगदान करने वाले क्षेत्रों का उल्लेख कैनैथ ड्ब्ल्यू जान्स ने ‘आर्य धर्म’ में किया है। मार्च 1890 ई0 में रोहतक क्षेत्र का उल्लेख सर्वाधिक योगदान करने वाले क्षेत्रों के अन्तर्गत (3000 रुपये या उससे अद्दिक) तथा हिसार क्षेत्र का उल्लेख एक हजार रुपये से तीन हजार रुपये का योगदान करने वाले क्षेत्रों में किया है।
    आर्यसमाज के लोग शिक्षा संस्थाओं के लिए धन संग्रह करने में सर्वथा समर्पित थे। ये लोग झोलियाँ करके चन्दा मांगते थे। पं0 लखपतराय, डॉ0 रामजीलाल, चौ0 राजमल ने दिसम्बर 1913 में ग्राम खाण्डा खुर्द (खेड़ी) में चौपाल के चबूतरे पर बैठकर धन संग्रह किया। चौ0 उदमीराम, चौ0 बनवारी, चौ0 शिवनाथ और हनुमान ने सौ सौ रुपये और राजमल ने 125 रुपये का अंशदान किया। एक सप्ताह में खाण्डाखेड़ी से 1162 रूपये, नारनौंद से 705 रुपये, थुराना से 687 रुपये संग्रह किये गए।
    चौ0 राजमल अपने ग्राम में भी शिक्षा के प्रचार के लिए कटिबद्ध थे। विशेषकर लड़कियों की शिक्षा के संबंध में। राजमल के आग्रह पर डॉ0 रामजीलाल ने 7 अप्रैल 1909 को अपनी सुपुत्री चन्द्रमुखी को लिखा कि वह खाण्डा जाए, एक लड़कियों का स्कूल चलाए और स्त्रियों में आर्यसमाज का काम करे। राजमल स्वयं 27 जनवरी 1911 को महिला अध्यापिका की खोज में शेरगढ़ जाते हैं। इनके प्रयासों से खाण्डाखेड़ी में आर्य कन्या पाठशाला की स्थापना हुई। सेठ छाजूराम ने इसका भवन बनवाया और संवत् 1973 में इसका लोकार्पण किया। यह भवन आज भी विद्यमान है और इसके द्वार पर इस आशय का पत्थर लगा हुआ है। हालांकि अब इसका उपयोग आर्यसमाज के कामों के लिए नहीं हो रहा है। कन्याओं की शिक्षा के लिए चौ0 मित्रसेन की अध्यक्षता वाले परम मित्र मानव निर्माण संस्थान द्वारा परममित्र कन्या विद्या निकेतन, वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, लड़कियों का कालेज, बी0 एड0 कालेज, जे0 बी0 टी0 केन्द्र आदि अनेक संस्थाएँ चलाई जा रही हैं।
    आर्यसमाज के प्रचार, शिक्षा के प्रचार के अलावा राजमल जैलदार ने अपने व्यक्तिगत प्रभाव से गांव के विकास में भी बड़ा योगदान किया। गांव में आर्यसमाज, डिस्पैंसरी और 40 गांवों के डाकघर की लगभग एक साथ ही स्थापना हुई। राजमल का अन्य सामाजिक कार्यों के साथ दलितोद्धार और शुद्धि के कार्यक्रमों में भी बड़ा योगदान था। नारनौंद में एक व्यक्ति की शुद्धि का स्पष्ट उल्लेख है। सिकन्दर हयात खां ने कर्ज मामले में किसानों को राहत देने से साफ इन्कार कर दिया था। सर छोटूराम के साथ राजमल लाहौर में सिकन्दर हयात खां से मिले, जिसमें उन्होंने कर्ज के कारण किसान की जमीन, बैल, मकान और दुधारू भैंस की कुड़की न होने का कानून बनाने का सुझाव दिया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। जाटों को क्षत्रिय घोषित किये जाने के बाद बनी संस्था धर्म रक्षिणी जाट क्षत्रिय सभा के राजमल प्रमुख सदस्य थे और डॉ0 रामजीलाल के साथ दिल्ली में आयोजित इसके कार्यक्रमों में प्रायः भाग लेते थे। वार लीग की बैठकों में भी उनके भाग लेने के उल्लेख मिलते हैं।
सरकारी प्रकोपः
    प्रारम्भिक अवलोकन में यह एक विपरीत बात लग सकती है कि सरकार द्वारा प्रदत्त जैलदार (ऑनरेरी मजिस्ट्रेट) की उपाधि धारण करने वाले राजमल राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति संवेदनशील और सक्रिय कैसे थे। वास्तव में उनकी उपाधि का कारण उनकी अंग्रेज के प्रति चाटुकारिता नहीं अपितु उनके सामाजिक प्रभाव और जनसेवा के कार्य हैं। सरकार के कोप के कम से कम तीन तो स्पष्ट प्रमाण हैं। नवम्बर 1918 में डी0 सी0 मि0 लतीफ द्वारा यह मिथ्या प्रचार करके उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास किया गया कि उन्होंने फौज में भर्तियों के मामले में धन ग्रहण किया है। दूसरे उनकी जैलदारी छीनने का प्रयास किया गया जो उनके साथियों की सक्रियता से सफल नहीं हो सका। इस तथ्य का उल्लेख महात्मा हंसराज जी ने आर्य जगत् लाहौर के ऋषि बोधांक 24 माघ 1 फागुन 1982 विक्रमी के अंक में किया है। डॉ0 रामजीलाल का भी राजनपुर (वर्तमान पाकिस्तान) में तबादला कर दिया गया। हिसार के डी0 सी0 काजी मोहम्मद असमत खां ने सेठ चिरंजीलाल और उनके भाईयों को अपमानित करना चाहा। अनाथालय भिवानी को खोलने को लेकर भी सरकार प्रसन्न नहीं थीे। इसमें सहयोग के अपराध के लिए बाबू चूड़ामणि एडवोकेट पर एक भयंकर अभियोग चलाया गया। पं0 लखपतराय बैरिस्टर एॅट लॉ के बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयासों से ये षड्यंत्र सफल न हो सके। सरकार के रुष्ट होने का तीसरा प्रमाण यह है कि राजमल की हत्या के पश्चात् पुलिस की कार्यवाही अत्यंत धीमी चल रही थी। इसका उल्लेख डॉ0 रामजीलाल हुड्डा ने किया है।
    राजमल का जन्म 1862 ई0 में हुआ था। पांच वर्ष की अवस्था में ही आपके पूज्य पिता का देहान्त हो गया था। आपके पिता जी का नाम चौ0 गिरधाल सिंह और दादा का नाम श्याबदास था। आपके पूर्वज कल्ली सतरौल खाप के मुखिया थे, जिनकी अपनी खाप सेना थी। जींद और नाभा की सेना को राव तुलाराम पर आक्रमण करने में बाद्दा डालने में संभवतः इस खाप का भी योगदान था। ये इतिहास की गहराईयों में विलुप्त अध्याय हैं, जिनके संबंध में गहन शोध की आवश्यकता है।
    16 सितम्बर 1932 को चौ0 राजमल, उनके परम मित्र चौ0 मातूराम (खाण्डाखेड़ी) और चौ0 उदमीराम (चौ0 सूरजमल के पिता) धर्मखेड़ी के मार्ग पर घूमने के लिए निकले थे। चौ0 राजमल व चौ0 मातूराम को सांघी खिड़वाली के मुगला शेख द्वारा गोली मार दी गई। चौ0 उदमीराम को धमकी देकर छोड़ दिया गया। उस कालखण्ड में आर्यसमाज के अनेक बड़े नेताओं की इसी प्रकार हत्या की गई थी यह इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं।
    राजमल की हत्या के बाद भी आर्यसमाज खाण्डाखेड़ी का उनका लगाया पौधा फलता फूलता रहा। हैदराबाद आन्दोलन में इन्हीं के परिवार के तूहीराम के नेतृत्व में 16 वर्ष की आयु से लेकर 68 वर्ष की आयु तक के आर्यवीरों के जत्थे ने श्री ज्ञानेन्द्र के जत्थे में शामिल होकर गुलबर्गा जेल में 2-2 साल की सजा पाई। हिन्दी आन्दोलन में चौ0 मित्रसेन सिन्धु (चौ0 राजमल के भाई के पड़पौत्र) रोहतक से शामिल होकर हिसार जेल में रहे। आज भी चौ0 मित्रसेन के व्यक्तिगत रूचि लेने के कारण यह आर्यसमाज ग्रामीण क्षेत्र की सर्वाधिक सक्रिय आर्यसमाज है। इसके प्रधान दिलबाग सिंह पटवारी और मंत्री सुखदेवसिंह आर्य हैं। इसके वार्षिकोत्सव पर गांव व आसपास से हजारों की संख्या में लोग जुटते हैं।
    यह एक विडम्बना ही है कि आर्यसमाज के प्रारम्भिक नेताओं में अति महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले चौ0 राजमल का इतिहास में उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया। इसका एक तो कारण यह है कि आर्यसमाज इस दौरान अनेक संघर्षों से गुजरा। जिस आर्य प्रतिनिधि सभा से ये लोग जुड़े हुए थे उसका सारा पुराना रिकार्ड विभाजन की भेंट चढ़ गया। दूसरा इन लोगों ने कभी अपने नाम की परवाह नहीं की। हरियाणा की नई पीढ़ी अपने पूर्वजों के इतिहास को जानकर उनके तप त्याग, आत्म बलिदान और समर्पण से कुछ प्रेरणा ले सके इसी उद्देश्य को लेकर यह प्रयास किया गया है। इसमें कुछ त्रुटियाँ भी हो सकती हैं, लेकिन समाज और राष्ट्र रूपी भवन की नींव के पत्थर बने बलिदानियों को यह एक छोटी सी श्रद्धांजली है।
आधार ग्रंथ
1 डॉ0 सत्यकेतु विद्यालंकार, आर्यसमाज का इतिहास प्रथम व द्वितीय भाग
2 हरियाणा के आर्यसमाज का इतिहास, डॉ0 रणजीतसिंह
3 सा0 आर्य प्रति0 सभा के मासिक पत्र सार्वदेशिक के अगस्त सितम्बर 1939 के अंक
4 आर्यसमाज नागौरी गेट हिसार की स्मारिका
5 आत्मकथा लाला लाजपतराय
6 डॉ0 रामजीलाल की दैनिक डायरियाँ
7 बलदेव भेंट चौ0 ईश्वरसिंह गहलोत
8 पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी डॉ0 रामप्रकाश
9 आर्यधर्म कैनैथ ड्ब्ल्यू जॉन्स
10 आर्यसमाज कलकत्ता का शतवर्षीय इतिहास
11 ैमजी ब्ीींरन त्ंउ रू  । स्पमि ॅपजी । च्नतचवेम
12 भ्पेंत ब्पजल रू चसंबमे - च्मतेवदंसपजपमे डण्डण् श्रनदमरं
13 आर्यजगत् लाहौर ऋषि बोधांक 24 मा0 1 फा0 1982 वि0
14 खाण्डाखेड़ी के एक मात्र जीवित स्वतंत्रता सेनानी किशन खाती  व अन्य बुजुर्गों से भेंटवार्ता
15 वैदिक पथ के पथिक चौ0 मित्रसेन आर्य
(शांतिधर्मी के सितम्बर 2008 के अंक में प्रकाशित लेख)

हनुमान जी के नाम पर हमें उल्लू बनाना आसान है?

हर रोज टेलीविज़न पर, अखबारों मे इस तरह के विज्ञापन आते हैं। जिनमे हनुमान जी के नाम पर ताबीज, माला, हनुमान यन्त्र आदि बेचा जाता है. इससे पहले यह अखबारों और पत्रिकाओं में बिकता था. अब ऑनलाइन भी बिकता है. इसका  हनुमान जी से कोई सम्बन्ध नहीं है. यह शुद्ध ठगी है.  ये लोग आपकी श्रद्धा का उपयोग धंधे के लिए करते हैं. इनसे कष्ट दूर नहीं होते. इनसे कोई समृद्धि नहीं आती. इनसे कोई परीक्षा पास नही हो सकती. इनसे भाग्य नहीं बदलता. बिल गेट्स, वारेन बफ्फे, मुकेश अम्बानी किसी यन्त्र से धनी नहीं बने. ओलम्पिक विजेता, राजनेता व नोबल विजेता इन ताबीजों, धागों व यंत्रों से सफल नहीं होते.   
ध्यान दें-
1- हनुमान जी ने बिना किसी मूल्य के श्रीराम जी का कार्य किया. तो आज अचानक हनुमान जी को एजेंटों की जरूरत कैसे हो गई. ये हनुमान जी की अपमान है.
2- यदि इन धातु और प्लास्टिक के टुकड़ों (श्री यन्त्र , नजर रक्षा कवच आदि) में कोई गुण होता तो धनी उद्योगपति व राजनेता इन्हें अपने पास ही रखते.
3- ईश्वर को रिश्वत नहीं चाहिए.
4- हम इनका विरोध नहीं करेंगे तो ये इसी तरह लोगों को ठगते रहेंगे.
5-जब भूत प्रेत पिशाच आदि होते ही नहीं तब हनुमान जी किसे भगाएंगे.

कैसे थे हनुमान जी? वाल्मीकि रामायण से हनुमान जी के गुणों को जानिए. 

पहली बार हनुमान जी से भेंट होने पर भगवान श्राीरम जी लक्ष्मण से हनुमान जी के विषय में कहते हैं. 
(१) वेदज्ञ और राजमन्त्री हनुमान जी :-
सचिवोऽयं कपीन्द्रस्य सुग्रीवस्य महात्मनः । तमेव कांक्षमाणस्य ममान्तिक मिहागतः ।।२३।।
ना ऋग्वेद विनीतस्य ना यजुर्वेदधरिणः । ना सामवेदविदुषः शक्यमेवविभाषितम् ।।२८।।
( वल्मिक रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग-३ )
अर्थात् :- हे लक्षमण ! यह ( हनुमान जी ) सुग्रीव के मन्त्री हैं और उनकी इच्छा से यह मेरे पास आये हैं । जिस व्यक्ति ने ऋग्वेद को नहीं पढ़ा है, जिसने यजुर्वेद को धारण नहीं किया है, जो सामवेद का पण्डित नहीं है, वह व्यक्ति, जैसी वाणी यह बोल रहे हैं वैसी नहीं बोल सकता है ।
 शब्दशास्त्र ( व्कायरण ) के पण्डित हनुमान जी :-
नृनं व्याकरण कृत्मनमनेन बहुधा श्रुतम् । बहुव्यवहारतानेन न किञ्चिदशाब्दितम् ।।२९।।
( वल्मिकी रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग-३ )
अर्थात् :- इन्होंने निश्चित ही सम्पूर्ण व्याकरण पढ़ा है क्योंकि इन्होंने अपने सम्पूर्ण वर्तालाप में एक भी अशुद्ध शब्द का उच्चारण नहीं किया है ।

श्रीरामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैनं बटृरूपिणाम । शब्दशास्त्रमशेण श्रुतं नृनमनेकधा ।।१७।।
अनेकभाषितं कृत्सनं न किञ्चिदपशब्दितम् । ततः प्राह हनुमन्तं राघवो ज्ञान विग्रहः ।।१८।।
( वल्मिकी रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग-१ )
अर्थात् :- राम ने कहा "हे लक्षमण ! इस ब्रह्मचारी को देखो । अवश्य ही इसने सम्पूर्ण व्याकरण कई बार भली प्रकार से पढ़ा है । देखो ! इतनी बातें कहीं किन्तु इसके बोलने में कहीं कोई एक भी अशुद्धि नहीं हुई ।

वाक्यज्ञो वाक्य कुशलः पुनः न उवाच किंचन ॥
तम् अभ्यभाष सौमित्रे सुग्रीव सचिवम् कपिम् ।
वाक्यज्ञम् मधुरैः वाक्यैः स्नेह युक्तम् अरिन्दम ॥
न मुखे नेत्रयोः च अपि ललाटे च भ्रुवोः तथा ।
अन्येषु अपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित् ॥
अविस्तरम् असंदिग्धम् अविलम्बितम् अव्यथम् ।
उरःस्थम् कण्ठगम् वाक्यम् वर्तते मध्यमे स्वरम् ॥
अञ्जनि पुत्र हनुमान जी श्री राम चन्द्र से प्रथम भेट में ही मन मोह लिया जिसके प्रत्युतर में भगवन ने लक्ष्मण जी से ये कहा ।
वाक्यज्ञ बीर श्री रामचंद्र और लक्षमण से इस प्रकार वाक्यकुशल हनुमान जी चुप हो गए ।
हे लक्षमण सुग्रीव के वाक्यविशारद सचिव और शत्रुओ के नाश करने वाले इस कपीश्रेष्ठ से तुम मधुर वाणी नीति पूर्वक से तुम बात करो

इतना ही नही प्रत्युत बोलते समय भी इनके नेत्र ललाट और भौहे तथा शरीर के अन्य अव्यय विकृत को प्राप्त नही हुआ ।
इन्होने अपने कथन से न ही अन्धाधुन बढ़ाया है और न ही इतना संक्षिप्त ही किया की उनका भाव समझने में भ्रम उत्पन्न हो इन्होने ने अपने कथन को व्यक्त करते समय न ही शीघ्रता ही दिखलाई और न ही विलम्ब किया इनके कहे हुए वचन हृदयस्थ और कंठगत है जो अक्षर जहाँ उठान चाहिए वही उठाया है इनका स्वर भी मध्यम है ।
इनकी वाणी व्याकरण से संस्कारित क्रम संपन्न और न ही धीमी है न ही तेज ये जो बाते कहते है वो अत्यंत मधुर और गुण युक्त है ।
लक्षमण द्वारा हनुमान की प्रसंसा ।

प्रसन्न मुख वर्णः च व्यक्तम् हृष्टः च भाषते ।
न अनृतम् वक्ष्यते वीरो हनूमान् मारुतात्मजः ॥४-४-३२॥
धीर पवन तनय हर्षित हो प्रसन्न मुख से बातचीत कर रहे है इससे जान पड़ता है की ये कभी झूठ नही बोलते ।

 सुग्रीव द्वारा हनुमान जी की प्रशंसा  ।
तेजसा वा अपि ते भूतम् न समम् भुवि विद्यते । तत् यथा लभ्यते सीता तत् त्वम् एव अनुचिंतय ॥४-४४-६॥
त्वयि एव हनुमन् अस्ति बलम् बुद्धिः पराक्रमः। देश काल अनुवृत्तिः च नयः च नय पण्डित ॥४-४४-७॥
तुम्हारे जैसा तेजस्वी इस पृथ्वी पर दूसरा कोई नही है अतः तुम ऐसा काम करना जिससे सीता का पता लग जाए. हे हनुमन तुममे बल बुद्धि बिक्रम तथा देश और काल का ज्ञान और निति का बिचार पूर्ण रूप से है एवं तुम निति में पण्डित हो ।

वेदों में विश्वकर्मा परमात्मा एवं ऐतिहासिक शिल्पी विश्वकर्मा।

(विश्वकर्मा पूजा दिवस के शुभ अवसर पर प्रकाशित)
परमपिता परमात्मा की कल्याणी वाणी वेद के "विश्वकर्म्मा" शब्द से ईश्वर,सूर्य, वायु, अग्नि का ग्रहण होता है। प्रचलित ऐतिहासिक महापुरुष शिल्पशास्त्र के ज्ञाता विश्वकर्मा एवं वेदों के विश्वकर्मा भिन्न हैं। इस लेख के माध्यम से दोनों में अंतर को स्पष्ट किया जायेगा।
निरूक्तकार महर्षि यास्क विश्वकर्मा शब्द का यौगिक अर्थ लिखते हैं।
विश्वकर्मा सर्वस्य कर्ता तस्यैषा भवति’’ निरुक्त शास्त्रे १०/२५ 
तथा प्राचीन वैदिक विद्वान् कहते हैं
‘‘विश्वानि कर्माणि येन यस्य वा स विश्वकर्मा अथवा विश्वेषु कर्म यस्य वा स विश्वकर्मा"
अर्थात् जगत के सम्पूर्ण कर्म जिसके द्वारा सम्पन्न होते हैं अथवा सम्पूर्ण जगत में जिसका कर्म है वह सब जगत् का कर्ता परमपिता परमेश्वर विश्वकर्मा है।
विश्वकर्मा शब्द के इस यथार्थ अर्थ के आधार पर विविध कला कौशल के आविष्कार यद्यपि अनेक विश्व कर्मा सिद्ध हो सकते हैं। तथापि सर्वाधार सर्वकर्ता परमपिता परमात्मा ही सर्व प्रथम विश्वकर्मा है। ऐतरेय ब्राह्मणग्रन्थ के मतानुसार ‘प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा विश्वकर्माऽभवत्’
"प्रजापति (परमेश्वर) प्रजा को उत्पन्न करने से सर्वप्रथम विश्वकर्मा है।"
वेद में परमेश्वर के विश्वकर्त्व अद्भुत व मनोरम चित्रण विश्वकर्मा नाम लेकर अनेक स्थानों पर किया गया है। सृष्टि का मुख्य निर्माण कारण परमात्मा ही है। वही सब सृष्टि को प्रकृति के उपादान कारण से बनाता है, जीवात्मा नहीं। इस कारण सर्वप्रथम विश्वकर्मा परमेश्वर है। परमेश्वर ने जगत् को बनाने की सामग्री प्रकृति से सृष्टि की रचना की है । इस लिए वही उपासनीय है ।
तथा जो शिल्पविद्या के विद्वान् विश्वकर्मा हुए हैं
उन में ऋषि प्रभास के पुत्र को आदि विश्वकर्मा माना जाता है, तथा इस के अतिरिक्त ऋषि भुवन के पुत्र विश्वकर्मा, ऋषि त्वष्टा के पुत्र विश्वकर्मा आदि अनेक विश्वकर्मा हुए हैं । वर्तमान में विश्वकर्मा समाज शिल्प विद्या से सम्बंधित समाज माना जाता हैं।
वेद शिल्प विद्या अर्थात श्रम विद्या का अत्यंत गौरव करते हुए हर एक मनुष्य के लिए निरंतर पुरुषार्थ की आज्ञा देते हैं| वेदों में निठल्लापन पाप है| वेदों में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष तक जीने की आज्ञा है (यजुर्वेद ४०.२)| मनुष्य जीवन के प्रत्येक पड़ाव को ही ‘आश्रम’ कहा गया है – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ,वानप्रस्थ और सन्यास, इन के साथ ही मनुष्य को शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करने का उपदेश है | वैदिक वर्ण व्यवस्था भी कर्म और श्रम पर ही आधारित व्यवस्था है (देखें- वेदों में जाति व्यवस्था नहीं)| आजकल जिन श्रम आधारित व्यवसायों को छोटा समझा जाता है, आइए देखें कि वेद उनके बारे में क्या कह रहे हैं –
कृषि :
ऋग्वेद १.११७.२१ – राजा और मंत्री दोनों मिल कर, बीज बोयें और समय- समय पर खेती कर प्रशंसा पाते हुए, आर्यों का आदर्श बनें|
ऋग्वेद ८.२२.६ भी राजा और मंत्री से यही कह रहा है|
ऋग्वेद ४.५७.४ – राजा हल पकड़ कर, मौसम आते ही खेती की शुरुआत करे और दूध देने वाली स्वस्थ गायों के लिए भी प्रबंध करे|
वेद, कृषि को कितना उच्च स्थान और महत्त्व देते हैं कि स्वयं राजा को इस की शुरुआत करने के लिए कहते हैं| इस की एक प्रसिद्ध मिसाल रामायण (१.६६.४) में राजा जनक द्वारा हल चलाते हुए सीता की प्राप्ति है | इस से पता चलता है कि राजा- महाराजा भी वेदों की आज्ञा का पालन करते हुए स्वयं खेती किया करते थे|
ऋग्वेद १०.१०४.४ और १०.१०१.३ में परमात्मा विद्वानों से भी हल चलाने के लिए कहते हैं|
महाभारत आदिपर्व में ऋषि धौम्य अपने शिष्य आरुणि को खेत का पानी बंधने के लिए भेजते हैं अर्थात् ऋषि लोग भी खेती के कार्यों में संलग्न हुआ करते थे| 
ऋग्वेद का सम्पूर्ण ४.५७ सूक्त ही सभी के लिए कृषि की महिमा लिए हुए है|
जुलाहे और दर्जी :
सभी के हित के लिए ऋषि यज्ञ करते हैं,परिवहन की विद्या जानते हैं, भेड़ों के पालन से ऊन प्राप्त कर वस्त्र बुनते हैं और उन्हें साफ़ भी करते हैं ( ऋग्वेद १०.२६)|
यजुर्वेद १९.८० विद्वानों द्वारा विविध प्रकार के वस्त्र बुनने का वर्णन करता है|
ऋग्वेद १०.५३.६ बुनाई का महत्व बता रहा है|
ऋग्वेद ६.९.२ और ६.९.३ – इन मंत्रों में बुनाई सिखाने के लिए अलग से शाला खोलने के लिए कहा गया है – जहां सभी को बुनाई सीखने का उपदेश है|
शिल्पकार और कारीगर :
शिल्पकार,कारीगर,मिस्त्री, बढई,लुहार, स्वर्णकार इत्यादि को वेद ‘तक्क्षा’ कह कर पुकारते हैं|
ऋग्वेद ४.३६.१ रथ और विमान बनाने वालों की कीर्ति गा रहा है|
ऋग्वेद ४.३६.२ रथ और विमान बनाने वाले बढई और शिल्पियों को यज्ञ इत्यादि शुभ कर्मों में निमंत्रित कर उनका सत्कार करने के लिए कहता है|
इसी सूक्त का मंत्र ६ ‘तक्क्षा ‘ का स्तुति गान कर रहा है और मंत्र ७ उन्हें विद्वान, धैर्यशाली और सृजन करने वाला कहता है|
वाहन, कपडे, बर्तन, किले, अस्त्र, खिलौने, घड़ा, कुआँ, इमारतें और नगर इत्यादि बनाने वालों का महत्त्व दर्शाते कुछ मंत्रों के संदर्भ : 
ऋग्वेद १०.३९.१४, १०.५३.१०, १०.५३.८, 
अथर्ववेद १४.१.५३, 
ऋग्वेद १.२०.२, 
अथर्ववेद १४.२.२२, १४.२.२३, १४.२.६७, १५.२.६५ 
ऋग्वेद २.४१.५, ७.३.७, ७.१५.१४ |
ऋग्वेद के मंत्र १.११६.३-५ और ७.८८.३ जहाज बनाने वालों की प्रशंसा के गीत गाते हुए आर्यों को समुद्र यात्रा से विश्व भ्रमण का सन्देश दे रहे हैं|
अन्य कई व्यवसायों के कुछ मंत्र संदर्भ :
वाणिज्य – ऋग्वेद ५.४५.६, १.११२.११,
मल्लाह – ऋग्वेद १०.५३.८, यजुर्वेद २१.३, यजुर्वेद २१.७, अथर्ववेद ५.४.४, ३.६.७,
नाई – अथर्ववेद ८.२.१९ ,
स्वर्णकार और माली – ऋग्वेद ८.४७.१५,
लोहा गलाने वाले और लुहार – ऋग्वेद ५.९.५ ,
धातु व्यवसाय – यजुर्वेद २८.१३|
वेदों के प्रमाण पंडित धर्मदेव विद्यामार्तण्ड जी की पुस्तक "वेदों का यथार्थ स्वरुप" से लिए गए है एवं अग्निवीर द्वारा प्रकाशित लेख से साभार है।

हरयाणे का पहला गुरुकुल।

गुरुकुल कुरुक्षेत्र। हरयाणे का पहला गुरुकुल 
संस्थापक :- लाला ज्योतिप्रसाद जी, 
लेखक :- डॉ सत्यकेतु विद्यालंकार 
पुस्तक :- आर्य समाज का इतिहास -3
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा 
          गुरुकुल कांगड़ी की शिक्षा प्रणाली और वहाँ के धार्मिक व सदाचारमय जीवन से आकृष्ट होकर थानेसर ( हरयाणा ) के सुप्रसिद्ध रईस लाला ज्योति प्रसाद के मन में यह शुभ संकल्प उत्पन्न हुआ , कि वह भी गुरुकुल काँगड़ी की एक शाखा अपने प्रदेश में स्थापित कराएँ । उन्होंने अपना विचार महात्मा मुंशीराम ( स्वामी श्रद्धानन्द ) के सम्मुख रखा , जो उस समय गुरुकुल काँगड़ी के मुख्याधिष्ठाता थे । महात्माजी ने लाला ज्योति प्रसाद के संकल्प का हृदय से स्वागत किया , जिसके परिणामस्वरूप १३ एप्रिल , सन् १९१२ के दिन गुरुकुल कुरुक्षेत्र की स्थापना हुई । गुरुकुल के लिए लाला ज्योति प्रसाद ने न केवल कन्धला कलाँ गाँव की १०४८ बीघा जमीन ही दान रूप में प्रदान कर दी , अपितु कार्य प्रारम्भ करने के लिए दस हजार रुपये भी दिये । गुरुकुल कांगड़ी के इतिहास में जो स्थान मुंशी अमनसिंह का है , गुरुकुल कुरुक्षेत्र में वही लाला ज्योति प्रसाद का है । उनके सात्विक दान के कारण ही कुरुक्षेत्र गुरुकुल की स्थापना सम्भव हुई । 
       संवत् १९६६ की वैशाखी के पुण्य पर्व ( १३ एप्रिल , सन् १९१२ ) के दिन गुरुकुल कुरुक्षेत्र की आधारशिला रखते हुए महात्मा मुंशीराम ने ये शब्द कहे थे – “ जिस धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि में आज से लगभग ५००० वर्ष पूर्व भारत के विनाश का बीज बोया गया था , उसी भूमि में आज यह भारत की उन्नति का बीज बोया जा रहा है । मंगलमय भगवान् करे कि इस ज्ञानतरु से ऐसे सुगन्धित फूल उत्पन्न हों जो भारत भूमि को फिर से अपनी पुरानी उन्नतावस्था में लाने में सहायक हों । " 
       लाला ज्योति प्रसाद गुरुकुल कुरुक्षेत्र को उन्नति के पथ पर अग्रसर करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे । इस कार्य में लाला भगीरथमल उनके परम सहायक थे । इन आर्य सज्जनों के प्रयत्न से कुरुक्षेत्र में स्थापित गुरुकुल रूपी पौदे की जड़ें भली - भाँति जम गई । पर अपने लगाये हुए पौदे को फलता - फूलता देखने के लिए लाला ज्योति प्रसाद चिरकाल तक जीवित नहीं रहे । सन् १९१४ में उनकी मृत्यु हो गई , और कुछ समय पश्चात् लाला भगीरथमल भी इस असार संसार से विदा हो गए । गुरुकुल के इन आदि व्यवस्थापकों के दिवंगत हो जाने पर लाला नौबत राय ने मुख्याधिष्ठाता के रूप में इस संस्था का कार्यभार सँभाला , और पण्डित विष्णुमित्र को आचार्य के पद पर नियुक्त किया गया । इन दोनों आर्य सज्जनों ने गुरुकुल की उन्नति एवं व्यवस्था पर बहुत ध्यान दिया , जिसके परिणामस्वरूप यह संस्था निरन्तर उन्नति करती गई । धीरे - धीरे वहाँ आठ कक्षाएँ हो गईं , जिनमें वही पढ़ाई होती थी जो गुरुकुल कांगड़ी द्वारा निर्धारित की जाती थी । 
        सन् १९२३ में गुरुकुल कुरुक्षेत्र से ६ विद्यार्थी आठवीं श्रेणी की वार्षिक परीक्षा उत्तीर्ण कर नवीं कक्षा की पढ़ाई के लिए गुरुकुल काँगड़ी गये और तब से प्रति वर्ष आठवीं कक्षा को उत्तीर्ण करने के पश्चात् कुरुक्षेत्र के विद्यार्थी काँगड़ी जाने लगे । सन् १९४१ तक यही क्रम चलता रहा । गुरुकुल कुरुक्षेत्र में केवल आठ कक्षाएँ थीं , जिनमें गुरुकुल काँगड़ी की पाठविधि का अनुसरण किया जाता था , और ब्रह्मचारियों के रहन - सहन , खान - पान , दिनचर्या आदि के सम्बन्ध में वही व्यवस्थाएं थीं जो गुरुकुल कांगड़ी द्वारा निर्धारित थीं । गुरुकुल काँगड़ी के समान गुरुकुल कुरुक्षेत्र भी आर्य प्रतिनिधि सभा , पंजाब के अधीन था , और उसकी सब सम्पत्ति इसी सभा के नाम रजिस्टर्ड थी । पर प्रबन्ध और सुव्यवस्था को दृष्टि में रखकर सन् १९१६ में इसके लिए एक पृथक् स्थानीय कमेटी का भी निर्माण कर दिया गया था । 
        सन् १९४२ में गुरुकुरु काँगड़ी के सुयोग्य स्नातक पण्डित प्रियव्रत विद्यालंकार गुरुकुल कुरुक्षेत्र के मुख्याधिष्ठाता और आचार्य के पदों पर नियुक्त हुए । चिर काल ( चौथाई सदी के लगभग ) तक इन पदों पर रहते हुए पण्डित प्रियव्रत ने गुरुकुल कुरुक्षेत्र को बहुत उन्नत किया । उसकी शिक्षा को आठवीं कक्षा से बढ़ाकर दसवीं तक कर दिया गया , और दस वर्ष तक वहाँ शिक्षा प्राप्त कर विद्यार्थी गुरुकुल काँगड़ी की अधिकारी परीक्षा उत्तीर्ण कर वहाँ के महाविद्यालय विभाग में प्रवेश पाने लगे । जबकि गुरुकुल मुलतान में नवीं दसवीं कक्षाओं की पढ़ाई को अत्यन्त व्ययसाध्य समझ कर बन्द कर दिया गया था , पण्डित प्रियव्रत के पुरुषार्थ से कुरुक्षेत्र गुरुकुल में उनका प्रारम्भ किया गया और इस संस्था ने काँगड़ी गुरुकुल की प्रधान शाखा की स्थिति प्राप्त कर ली । पण्डित प्रियव्रत के प्रयत्न से गुरुकुल कुरुक्षेत्र के बाह्य कलेवर में भी बहुत वृद्धि हुई । बहुत - सी नयी इमारतें बनीं , पुष्पवाटिका , बाग तथा खेती पर समुचित ध्यान दिया गया । प्रचुर मात्रा में जल की प्राप्ति के लिए ट्यूब वैल लगवाया गया , और ब्रह्मचारियों के छात्रावास , भोजन भण्डार व स्नानागार आदि को सुव्यवस्थित एवं आकर्षक रूप प्रदान किया गया । गुरुकुल के लिए प्रभूत मात्रा में धन एकत्र करने में पण्डित प्रियव्रत ने विशेष तत्परता प्रदर्शित की , और उनके पुरुषार्थ के कारण इस शिक्षण - संस्था ने अत्यन्त व्यवस्थित रूप प्राप्त कर लिया । प्रियव्रतजी के पश्चात् श्री विश्वनाथ विद्यालंकार , श्री राजेन्द्रपाल और श्री सत्यव्रत आदि अनेक आर्य विद्वानों ने गुरुकुल कुरुक्षेत्र के कार्यभार को सँभाला , पर किसी एक महानुभाव के पर्याप्त समय तक पदाधिकारी न रहने के कारण वहाँ के कार्य में स्थायित्व नहीं आ सका । 
      सन् १९७६ में जब आर्य प्रतिनिधि सभा , पंजाब का त्रिविभाजन हुआ , और हरयाणा के लिए पृथक् आर्य प्रतिनिधि सभा का संगठन कर लिया गया , तो गुरुकुल कुरुक्षेत्र हरयाणा की सभा के अधीन हो गया । इस समय यह गुरुकुल आर्य प्रतिनिधि सभा , हरयाणा के तत्त्वावधान में उन्नति के पथ पर निरन्तर अग्रसर हो रहा है । उसके आचार्य श्री हरिदत्त शास्त्री हैं , और श्री साधुराम गुप्त ने मुख्याधिष्ठाता के रूप में उसका कार्यभार संभाला हुआ है । विद्यार्थियों की संख्या वहाँ तीन सौ के लगभग है , और अध्यापक व अन्य कर्मचारी ५० हैं । इस समय भी यह गुरुकुल , गुरुकुल कांगड़ी विश्व विद्यालय के साथ सम्बद्ध है , और इसी विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित पाठविधि का वहाँ अनुसरण किया जाता है । 
       कुरुक्षेत्र गुरुकुल में आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त कर जो विद्यार्थी बाद में गुरुकुल काँगड़ी में प्रविष्ट हुए , उनमें पण्डित सत्यदेव वेदालंकार का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । वह एक अत्यन्त सफल व समृद्ध उद्योगपति हैं , और लक्ष्मी की उन पर विशेष कृपा है । गुरुकुल कुरुक्षेत्र से उन्हें अत्यधिक लगाव है , और उसकी चौमुखी उन्नति के लिए वह सब प्रकार से सहायता करने को उद्यत हैं । उनकी इच्छा है , कि इस संस्था के छात्रावास में एक हजार विद्यार्थियों के निवास की व्यवस्था हो , और छात्रावास का स्तर इतना ऊँचा हो कि उसमें निवास करने वाले विद्यार्थियों को वे सब सुविधाएँ उपलब्ध हों जो गुरुकुलीय शिक्षा के लिए आवश्यक हैं । इसी दृष्टि से उन्होंने एक लाख से भी अधिक रुपये गुरुकुल कुरुक्षेत्र को प्रदान करने का निश्चय किया है । वह चाहते हैं कि शुरू में पाँच सौ विद्यार्थियों के निवास की समुचित व्यवस्था हो जाए , और धीरे - धीरे यह संख्या बढ़ कर एक हजार तक पहुँच जाए । इसके लिए वह आवश्यक धनराशि प्रदान करने को उद्यत हैं । यह आशा की जानी चाहिये कि गुरुकुल कुरुक्षेत्र के अधिकारी व कार्यकर्ता पण्डित सत्यदेव के गुरुकुल - प्रेम से पूरा - पूरा लाभ उठाएँगे और अपनी संस्था को विकसित करने के इस सुवर्णीय अवसर को हाथ से नहीं जाने देंगे । 
         गुरुकुल कुरुक्षेत्र के पास एक हजार बीघे से भी अधिक भूमि है । खेती और बागवानी द्वारा वहाँ इतना अन्न , सब्जी और फल पैदा किये जा सकते हैं , जो विद्यार्थियों के लिए पर्याप्त हों । गुरुकुल की अपनी गौशाला भी है । हरयाणा की गौवें दूध के लिए भारत भर में प्रसिद्ध हैं । दूध , घी की आवश्यकता भी गुरुकुल द्वारा स्वयं ही पूरी की जा सकती है । कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय गुरुकुल के साथ लगा हुआ है , जिसके कारण पुस्तकालय आदि की भी वहाँ सब सुविधाएँ हैं । धार्मिक दृष्टि से भी कुरुक्षेत्र का बहुत महत्त्व है । वह एक पवित्र तीर्थ है , और धर्म प्राण हिन्दुओं के लिए अपना विशेष आकर्षण रखता है । वस्तुतः , गुरुकुल कुरुक्षेत्र के पास वे सब साधन व परिस्थितियाँ विद्यमान हैं , जो किसी शिक्षण - संस्था के उत्कर्ष के लिए आवश्यक हैं । पण्डित सत्यदेव वेदालंकार के रूप में एक ऐसा दानी भी उसे उपलब्ध है , जो उसकी उन्नति के लिए प्रभूत धनराशि देने के लिए उद्यत है । इस दशा में गुरुकुल कुरुक्षेत्र के उज्ज्वल भविष्य के सम्बन्ध में सन्देह कर सकना सम्भव ही नहीं है । 
        वर्तमान समय में इस गुरुकुल का वार्षिक व्यय छह लाख से ऊपर है । भोजन शुल्क आदि से जो धन गुरुकुल को प्राप्त होता है , उसके अतिरिक्त खेती से भी इस संस्था को दो लाख रुपये के लगभग आमदनी होती है ।

आर्यवीर शुक्रराज शास्त्री का बलिदान।

नेपाल के शहीद 
आर्यवीर शुक्रराज शास्त्री का बलिदान 
लेखक :- श्रद्धेय स्वामी ओमानंद सरस्वती 
पुस्तक :- आर्यसमाज के बलिदान 
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा 
             नेपाल राज्य आर्यराज्य होते हुये भी पौराणिक पाखण्डियों के जाल में फंसा हुआ था । आज तक इसी कारण विजय दशमी के पवित्र पर्व पर हजारों मूक निरपराध भैंसे बकरे आदि प्राणियों की बाल कल्पित मिथ्या पत्थर के देवी देवताओं पर चढ़ाई जाती है । इस वाम मार्ग के नंगे बीभत्स नृत्य से उपासना के पवित्र मन्दिरों में भगवान की पूजा के नाम पर रक्त की धारा बहती है । आर्यसमाज के लिये इस प्रकार के अत्याचार असह्य हैं अतः आर्यसमाज के वीरों ने इस प्रकार के दुष्कृत्य के विरुद्ध नेपाल में भी मोर्चा लेना प्रारम्भ किया । आर्यसमाज से प्रभावित एक नाथ सम्प्रदाय के सन्त स्वामी ब्रह्मनाथ जी थे , जिन का जन्म इस आर्य राज्य नेपाल में हुआ था । वे भारत वर्ष में भी भ्रमणार्थ व तीर्थयात्रा के लिये आते जाते रहते थे । वे आर्यसमाज के सच्चे पवित्र सिद्धान्तों के व्याख्यान सुनकर प्रभावित हुये और आर्यसमाजी बन गये । उन्होंने नेपाली भाषा में सत्यार्थप्रकाश छपवाया किन्तु इस पवित्र ग्रन्थ का भी नेपाल के आर्य राज्य में प्रवेश वर्जित था । अतः क्या करते विवशता थी । तुलसीपुर आर्यसमाज सीमा पर था वहां सभी सत्यार्थप्रकाश रखवा दिये गये , वहां से गुप्त रूप से सत्यार्थ प्रकाश नेपाल राज्य में सर्वत्र प्रसारित कर दिये गये । इस तपस्वी साधु ने प्रेरणा करके अनेक विद्यार्थियों को भारत वर्ष में गुरुकुलों में शिक्षार्थ भेज दिया । उसमें ही पं० शुक्रराज शास्त्री , पं० रायसिंह तथा पं० इन्द्रसेन आदि थे जो स्नातक बनकर नेपाल में प्रचारार्थ गये , वहां उन को क्या क्या कष्ट सहने पड़े इन की सच्ची कथा पं० शुक्रराज जी शास्त्री के वृत्त को पढ़ने से ज्ञात हो जायेगी ।
         हुतात्मा पं० शुक्रराज जी शास्त्री जी का जन्म आर्य राज्य नेपाल में हुवा था । नेपाल राज्य की राजधानी काठमांडु में एक ब्राह्मण परिवार में नेपाल के राज्य ज्योतिषी श्री पं० माधवराव जोशी के घर हुवा । श्री जोशी जी ने महर्षि दयानन्द जी महाराज के दर्शन काशी में किये तथा उनके व्याख्यान भी सुने । आप आर्यसमाज से प्रभावित होकर नेपाल पहुंचे । वहां सर्वप्रथम इन्होंने यह दृढनिश्चय किया कि पहिले अपनी सन्तान को आर्यसमाजी बनाकर आर्यसमाज की भेंट चढ़ाना चाहिये । जहां आर्यसमाज का प्रचार पं० माधवराव जो ने नेपाल में प्रारम्भ किया वहां अपने दोनों पुत्रों को गुरुकुल सिकन्दराबाद जिला बुलन्द शहर में शिक्षार्थ प्रविष्ट करा दिया । यह गुरुकुल वीतराग महात्मा स्वामी दर्शनानन्द जी ताकिकशिरोमणि शास्त्रार्थ महारथी ने खोला था । इस निःशुल्क गुरुकुल का स्नातक बनकर आपने नेपाल में प्रचारार्थ जाने से पूर्व लाहौर से पंजाब की शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की । फिर नेपाल में जाकर आपने अपने प्रचार कार्य से हलचल मचादी , जिसे पुराणी किरानी आदि पाखण्डी कैसे सहन कर सकते थे । आप पंडित थे , धुरन्धर विद्वान् थे , आप ने मूर्तिपूजा मृतकश्राद्ध और अवतारवाद का खण्डन किया , इनके विरुद्ध बोलना नेपाल के राणाओं के राज्य में घोर अपराध था , वहां इन के विरुद्ध कोई जबान नहीं खोल सकता था । 
      दोहा- ओ जबां खामोश वरना काट डाली जाएगी । गर करी फर्याद तो बाहर निकाली जाएगी । इसलिए यह वीर विद्वान् उन की क्रूर दृष्टि से कैसे बच सकते थे । किन्तु वैदिक धर्म का यह सच्चा वीर किसी से डरनेवाला नहीं था । उस का कारण पैतृक वीरता के संस्कार ही थे जिनका कुछ परिचय पाठकों के ज्ञानार्थ दिया जाता है । यथार्थ में नेपाल में आर्यसमाज का प्रचार नेपालकेसरी वीरशिरामणि पं० माधवराव जोशी के परिवार के साथ मुख्यरूप से जुड़ा हुआ है । श्री पं० शुक्रराज शास्त्री के पिता श्री माधवराव जोशी का जन्म नेपाल के प्रसिद्ध ज्योतिषी श्रीकंठराज जोशी के घर हुआ धार्मिक परिवार होने के कारण जोशी जी को अपने घर में ही पौराणिक सम्प्रदाय की शिक्षा दीक्षा सहज में मिल गई । जैसा वाम मार्ग का प्रचार मांस मदिरा खुलकर नेपाल में होता है । उसी का प्रचार वे भी करते रहे । फिर भी आत्मा में कुछ पुराने संस्कार थे , उन्हें वहां के सन्तों , महन्तों और पुजारियों के पतित पाखण्ड का जीवन अच्छा नहीं लगा । उनकी काली करतूतों को देखकर उन के मन में घृणा उत्पन्न होने लगी और सच्चे धर्म को जिज्ञासा उन के हृदय मन्दिर में उत्पन्न हुई । माधवराव जी बहुत प्रखर बुद्धि के व्यक्ति थे । उन की सच्ची लग्न ने उन्हें घर से भगा दिया । वे बिना माता पिता की प्राज्ञा के ही जगन्नाथ पुरी पहुंच गये । वे पैदल पटना पहुँचे , वहां से रेल गाड़ी द्वारा पुरी गये । वहां भी धर्म के नाम पर पाखण्ड के दर्शन हुये । वहां से प्रस्थान कर धर्मनगरी काशी में आ विराजे । वहां भी पाखण्डी तिलकधारी पण्डों के दुष्कृत्यों को देखकर निराशा ही बढ़ी । उन दिनों स्वामी दयानन्द जी महाराज की सारे देश में बड़ी ही चर्चा थी । इनका सौभाग्य था कि इन्हें महर्षि दयानन्द के वहां पवित्र दर्शन हो गए । महर्षि दयानन्द के भाषणों को सुनकर ये अत्यन्त प्रभावित हुये कि जीवन का कांटा ही बदल गया । वे सच्चे और पक्के वैदिकधर्मी बन गये । स्वामी जी के पवित्र दर्शनों तथा उपदेशों को सुन एक विशेष उत्साह लेकर अपने देश नेपाल लौट गये ।
           श्री माधवराव जी ने महर्षि दयानन्द जी महाराज से शंका समाधान के लिये अनेक प्रश्न , जाति , वर्णव्यवस्था , ईश्वर निराकार है वा साकार , परमेश्वर की प्राप्ति के साधन , यम , नियम , योगसाधन तथा शास्त्र के विरोधादि पर पूछकर शंका समाधान किया और शंका समाधान से सन्तुष्ट होकर और ऋषि भक्त बनकर नेपाल लौटे । जोशी नेपाल के राज पुरोहित थे , उनका बड़ा सम्मान था । वे राजकुमारों को शिक्षा देने में अपना अधिक समय लगाते थे । वे चुस्त और हाजिर जवाब होने से बड़े लोकप्रिय थे । स्वामी दयानन्द जी के निर्वाण वा बलिदान से आपको बहुत बड़ा धक्का लगा । उन्हें अपने वर्तमान जीवन से घृणा और ग्लानि हो गई और वे स्वामी दयानन्द के दर्शनों से पवित्र होकर अपने जीवन में परिवर्तन करने के लिए विवश होगये । उन्हें राजघराने की विलासिता तथा फूट से भी वैराग्य उत्पन्न हुवा और वे अपने भ्राता जी को साथ लेकर पुनः काशी चले गये । काशी नगरो में दो वर्ष तक उनका स्वाध्याय तथा सत्संग चलता रहा । उनकी सत्यार्थप्रकाश पढ़ने की बड़ी प्रबल इच्छा थी । किन्तु सत्यार्थप्रकाश की प्राप्ति उन दिनों दुर्लभ थी । प्रयत्न करने पर भी उनको वहां सत्यार्थप्रकाश नहीं मिल सका । 
            सत्यार्थप्रकाश पढ़ने की उनकी इच्छा उस समय अधूरी ही रहगई । वे नेपाल लौटगये । एक दिन एक प्रसिद्ध नेपाली ज्योतिषी ने जोशी जी को अपने घर बुलाया वहां परस्पर बातचीत हो ही रही थी कि अकस्मात् जोशी जी का ध्यान रद्दी के टोकरे पर गया जहां एक फटा हुवा सत्यार्थ प्रकाश पड़ा था । उसे देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई । बड़ी प्रतीक्षा के पश्चात् उन्हें मनचाही वस्तु मिल गई । वे उसे देखकर उछल पड़े । सत्यार्थप्रकाश का श्रद्धापूर्वक आद्योपान्त स्वाध्याय करने से वैदिक सिद्धान्तों के यथार्थ ज्ञान से उनकी श्रद्धा और अधिक बढ़ गई । सब शंकायें समाप्त हुई और श्रद्वा ने हृदय में स्थान लिया और आर्यसमाज के प्रचार में जोशी जी जुट गये । परिणाम की कोई चिन्ता नहीं की " बोले सो अभय वैदिक धर्म का जय ' यह निर्भयता का जयघोष ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की ही देन है । जो आर्यसमाज की छत्र छाया में आया वही निर्भता का अमृतपान कर गया । उन्होंने निर्भय होकर आर्यसमाज के प्रचार की दुन्दुभी सारे नेपाल में बजादी , फिर क्या था नेपाल में सर्वत्र आर्यसमाज की चर्चा होने लगी । आर्यसमाज के विरोधियों ने फिर क्या था , जोशी जी के विरुद्ध प्रधानमन्त्री के कान भरने प्रारम्भ कर दिये । इसी कारण जोशी जी को इन शिकायतों के कारण राजदरबार बुलाया गया । उस समय प्रधानमन्त्री ३ सरकार देव शमशेर जंगबहादुर राणा जी थे । वह जोशी जी के बाल प्रेमी थे । बाल्यकाल के सखा होने से अनेक वर्ष साथ साथ खेले थे । प्रधानमन्त्री ने प्रेम से कहा माधव ! तुम इस आर्यसमाज की गंगा में डुबकी मत लगावो । यदि नहीं माने तो इसमें डूब ही जावोगे । अतः इससे बचो तथा औरों को बचायो । जोशी जी ने उत्तर दिया कि हे देव इस अमृतमयी गंगा में डुबकी लगाने से इस के अमृत भरे जल - कण जो मुख में चले जाते हैं तो बहुत स्वादु वा मधुर लगते हैं । श्रीमान् जी देव तुल्य हैं , श्री महाराज भी स्वयं इस अमृत का पान कर आनन्दित हों तथा प्रजा को भी अमृतपान कराके पुण्य के भागी बनेंगे । श्री महाराज ने जोशी जी के वचन सुनकर उनके विरुद्ध जो अभियोग बना था उससे मुक्त कर दिया । इन के प्रेम तथा उदारभाव के कारण जोशी जी बचे रहे । विरोधियों के षड्यन्त्र सफल नहीं हो सके । किन्तु ३ महाराज चन्द्र शमशेर राणा जी के शासन में फिर विरोधियों को षड्यन्त्र करने का सुअवसर मिल गया । 
                               तिरस्कार 
      एक बार शास्त्रार्थ के बहाने जोशी जी को दरबार में बुलाकर खूब मार - पीट की गई और एक तंग कोठड़ी में कैद करके बन्द कर दिया । अन्य आर्यसमाजियों पर भी बड़े अत्याचार किये गये । जोशी जी को मार - पीट के पश्चात् क्षतविक्षत तथा लहुलुहान करके , सिपाहियों से पकड़वाकर उनको सारे नगर में बुरी प्रकार से घुमाया गया । अपने पिता जी की यह दुर्दशा शुक्रराज ने अपनी आँखों से बाल्यकाल में ही देख ली थी । इस भयंकर दृश्य ने बालक के सुकोमल हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ी । यह सारा दृश्य इस बालक ने एक दुकान पर बैठे हुये अपनी प्रांखों से देखा । जोशी जी के परिवार के अन्य सदस्यों को इसी प्रकार बुरी प्रकार से सताया गया । 
        एक धर्मात्मा व्यक्ति के धार्मिक परिवार को ऐसे विकट सङ्कट का सामना करना पड़ा , ऐसी भयङ्कर आपत्ति को देखकर बड़े बड़े धैर्य्यशाली व्यक्तियों का धैर्य भी डगमगा जाता है , किन्तु जोशी जी का परिवार ऐसी परिस्थिति में भी विचलित नहीं हुवा । इस समय र्याद जोशी जी क्षमायाचना कर लेते तो यह सङ्कट टल सकता था , किन्तु उन्होंने तो महाराजा भर्तृहरि विरचित और महर्षि दयानन्द का यह प्रियवचन अपने हृदय में निहित कर रखा था कि- 
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु , लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । 
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा , न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।। 
       नीतिकुशल लोग हमारी निन्दा करें वा प्रशंसा करें , धन वैभव पाये अथवा चला जाये , आज ही मृत्यु हो जाये अथवा लम्बे समय तक जीवित रहें , ऐसी सभी विषम परिस्थितियों में भी धैर्यवान् और नीतिज्ञ सत्पुरुष कभी भी सन्मार्ग से विचलित होकर उसके प्रतिकूल आचरण नहीं करते । 
         इसी आदर्श को सामने रखकर जोशी जी ने क्षमा मांगने से सर्वथा निषेध कर दिया । कारागार में रहते हुये ही उन्हें सूचना मिली कि बाहर निकलते ही उनका बहुत बुरी तरह से अपमान किया जायेगा । काला मुंह करके भैंसे पर बिठाकर नगर में घुमाया जायेगा और गले में एक पट्टी लटकाई जायेगी जिस पर लिखा होगा- " नेपाल की जनता को भड़काने वाले को यह दण्ड दिया जाता है । " इसको सुनकर इन्होंने जेल से भागने का निश्चय कर लिया और अवसर पाकर अपने एक साथी के साथ वहां से निकल भागे ।
         कारागार से निकल कर अपने परिवार को वीरगंज से लेकर रक्सोल होते हुये ये गोरखपर जा पहुंचे । इनके साहसी कार्यकलापों की चर्चा सुनकर आर्यसमाजों ने इनकी भरपूर सहायता की तथा इनके बच्चों के पढ़ने का भी प्रबन्ध कर दिया । शुक्रराज को भी गुरुकुल सिकन्दराबाद में प्रविष्ट करा दिया , वहां से वे विद्वान् स्नातक बनकर निकले । 
                    पं० शुक्रराज शास्त्री कार्य क्षेत्र में 
        भारत से विद्याध्ययन करके पं० शुक्रराज शास्त्री नेपाल में जाकर वहां के महाराणा ३ महाराज चन्द्र शमशेर से मिले । राणा ने जोशी जी के प्रति किये गये व्यवहार के लिए पश्चात्ताप किया तथा शास्त्री जी को निर्भीक और स्वतन्त्र शास्त्रार्थ के लिये आमन्त्रित किया जिसे शास्त्री जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया । महाराज के गुरु श्री हेमराज से उनका शास्त्रार्थ हुआ । शास्त्रार्थ में शास्त्री शुक्रराज ने मूर्तिपूजा का प्रबल खण्डन किया और हेमराज को निरुत्तर कर दिया । महाराणा को भी यह खण्डन बहुत अखरा किन्तु अपनी प्रतिज्ञानुसार शास्त्री जी को घर जाने दिया । 
        शास्त्री जी भी भांप गये कि महाराणा उनसे अप्रसन्न हैं अतः एक बार वे पुनः भारत लौट आये ।  महाराज भी जान गये कि इस परिवार के रहते हुये नेपाल में आर्यसमाज का प्रचार बढ़ेगा अतः उसने इस परिवार को समूल नष्ट करने का पक्का निश्चय कर लिया । इसी के अनुसार ३ महाराज ने शुक्रराज शास्त्र को किसी मिष से पुनः नेपाल बुला लिया और शास्त्री जी से स्नेह का व्यवहार करने लगे । शास्त्री जी सारे षड्यन्त्र को भांप गये और पुनः भारत लौट आये तथा प्रयाग में रहकर अध्यापन कार्य करने लगे । 
          इसी मध्य उन्हें सूचना मिली कि उनके बड़े छोटे भाई तथा उनकी अपनी पत्नी भी स्वर्ग सिधार गये । इससे भी वे अपने लक्ष्य से डिगे नहीं और कहा- " मेरा विवाह १४ वर्ष की कन्या से हुआ था , मेरा उससे कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था । मैं आदित्य ब्रह्मचारी हूं , अब मैं अधिक स्वतन्त्रतापूर्वक नेपाल में आर्यसमाज और सुधार का कार्य कर सकूँगा । इस पवित्र कार्य हेतु यदि मुझे शरीर त्याग भी करना पड़े तो भो सहर्ष करूगा । शास्त्री जी के प्रभाव से ही नेपाल राज्य में यह नियम बन गया कि जो व्यक्ति छोटे बच्चे बच्चियों का विवाह नहीं करेंगे तो उनको जाति बहिष्कृत नहीं किया जाएगा । इन्हीं के प्रभाव से " त्रिवेन्द्र कालिज ' की स्थापना भी हुई ।
                       पं० मदनमोहन मालवीय से भेंट 
      इन्हीं दिनों शुक्रराज शास्त्री को पता चला कि कलकत्ता में पं० मदनमोहन मालवीय आये हुये हैं । शास्त्री जी उनसे मिले और नेपाल की स्थिति से अवगत कराया । मालवीय जी उनके परिवार के कार्य से अत्यन्त प्रभावित हुये तथा आगे लगे रहने की भी प्रेरणा दी और आर्थिक सहायता भी की । दार्जिलिंग पहुँच कर शास्त्री जी ने अपना प्रचार कार्य तीव्र गति से प्रारम्भ कर दिया और “ दयानन्द एंग्लो वैदिक हाई स्कूल , हिन्दू महासभा और प्रार्य हिन्दू महासभा की स्थापना की ।
                          महात्मा गांधी से भेंट 
        एक बार गांधी जी कलकत्ता गये तो श्री शुक्रराज शास्त्री उनसे भी मिले और नेपाल की स्थिति पर दोनों में लम्बे समय तक विचार विमर्श हुआ । नेपाल के गुप्तचर शास्त्री जी के पीछे लगे हुये थे ही , उन्होंने सब सूचना महाराणा को भेज दी । शास्त्री जी ने उसी समय गांधी जी को ब्रह्मसूत्रशांकर भाष्य की भामती टीका पर किया अपना भाष्य भी भेंट किया । इस भाष्य की एक प्रति मेरे पास भी है ।
                          सुभाषचन्द्र वसु से भेंट 
        उसी दिन जब शास्त्री जी गांधी जी से मिलकर लौट रहे थे तो मार्ग में सुभाषचन्द्र बोस से भी भेंट हुई और नेपाल की स्थिति पर वार्तालाप हुा । समाचारपत्रों के संवाददाता भी उस समय वहीं थे । इस भेंट का विस्तृत विवरण दूसरे ही दिन सभी समाचार पत्रों में छप गया कि नेपाल के सामाजिक और राष्ट्रिय नेता पं ० शुक्रराज शास्त्री ने गांधी जी और सुभाषचन्द्र बोस से भेंट की और नेपाल में सुधार सम्बन्धी बातच त हुई । इससे सारे नेपाल में भारी हलचल मच गई । राजपुरोहित और पुजारियों ने इस स्थिति का लाभ उठाया और सरकार को शास्त्री जी के विरुद्ध भड़का दिया । शास्त्री जी के हितेच्छुओं ने शास्त्री जी को कहा कि नेपाल में आपके प्रतिकूल वातावरण है अतः आप इधर आने का प्रयत्न न करें । किन्तु शास्त्री जी को कोई भय नहीं था । उन्होंने कहा- में निर्भीक संन्यासी महर्षि दयानन्द सरस्वती का शिष्य हूं । अपने धर्मप्रचार कार्य में मृत्यु का कोई भय नहीं करता और नेपाल जाकर आर्यसमाज का प्रचार अवश्य करूगा । 
            यह निश्चय करके शास्त्री जी नेपाल चले गये और अपने सहयोगियों से मिलकर ' प्रजा परिषद् का निर्माण किया । इसे देखकर महाराणा सरकार आपे से बाहर होगई और अपने षड्यन्त्र की आस्था और कार्यवाही प्रारम्भ कर दी । शास्त्री जी और उनकी परिषद् के लोगों को जेल में डाल दिया । शास्त्री जी के विरुद्ध यह अभियोग लगाया गया कि इन्होंने भारत में जाकर क्रान्तिकारी और राष्ट्रिय नेताओं से मिलकर नेपाल सरकार के विरुद्ध षड्यन्त्र किया है । यह दोष लगाकर शास्त्री जी को राणा के सम्मुख लाया गया । शास्त्री जी ने सलाम करने के स्थान पर ' नमस्ते ' की । इनकी प्रत्युत्तरात्मिका बुद्धि और तर्कपूर्ण वार्तालाप से सभी परिचित थे । वे इन्हें क्रान्तिकारियों का गुरु मानते थे । अतः सबसे पहले इन्हीं को समाप्त करने की योजना बनाई और दूसरा अपराध यह सिद्ध करना चाहा कि शास्त्री जी ने नारायण हट्टी में रक्तपात का काण्ड करवा कर रागानों को मारने की चाल चली थी । 
          जनता ने राणा से प्रार्थना की कि वे शास्त्री जी को क्षमा करदें और दूसरी और शास्त्री जी से भी कहा गया कि आप भी क्षमा मांग लें । शास्त्री जी ने तुरन्त विरोध किया और कहा कि मेरा कोई दोष नहीं है , मैं क्षमा किस बात की मांगू । यदि मेरा वास्तव में दोष है तो मुझे दण्ड मिलना ही चाहिए । शास्त्री जी को फांसी की सजा सुनाकर पुनः जेल भेज दिया गया । जनता उनकी धर्म पर दृढ़ता को देखकर अत्यन्त प्रभावित हुई । 
                      धर्म हेतु सहर्ष जीवन बलिदान 
         अन्तिम दिन सायंकाल शास्त्री जी भोजन के लिए बैठे ही थे कि बुलावा आगया । भोजन रक्खा ही रह गया । रात के बारह बजे पुलिस कर्मचारियों से भरी गाड़ी जेल में आगई । दूसरी गाड़ी राणा शमशेर तथा अन्य अधिकारी आये । पंडित शुक्रराज शास्त्री को रस्सी से बांधकर दूर जंगल में ले जाया गया । शास्त्री जी को एक वृक्ष के नीचे कुछ ईटों के सहारे खड़ा कर दिया गया । उन्होंने पुलिस कर्मचारियों को पीछे करके फांसी का फंदा स्वयं गले में डाल लिया और “ ओ३म् - ओ३म् " कहते हुये इस नश्वर शरीर को आर्यसमाज हेतु न्यौछावर कर दिया । साथ ही राणा सरकार ने अपने माथे पर एक अमिट कलंक का टीका लगा लिया । जनता को भयत्रस्त करने के लिये शास्त्री जी का शव ८ पहर तक वहीं लटकाये रक्खा गया और एक गत्ते पर यह लिख कर कि सारे देश को भड़काने वाले क्रान्तिकारियों के गुरु और आर्यसमाजी होने पर ऐसा ही दण्ड मिलना था । शास्त्री जी के गले में लटका दिया । 
          यह वृक्ष आज भी भारत नेपाल राजमार्ग पर खड़ा हुआ अमर हुतात्मा पण्डित शुक्रराज जी शास्त्री की याद दिला रहा है । अभी भी जनता इस पेड़ पर तिलक लगाती है । वहां से गुजरने वाले प्रत्येक यात्री का मस्तिष्क शास्त्री जी के प्रति श्रद्धा से झुक जाता है । वस्तुतः आर्यसमाज की बलिवेदी पर स्वयं को आहुत करके शास्त्री जी ने नेपाल में वैदिकधर्म का प्रचार करने के लिए भावी पीढी का मार्ग प्रशस्त कर दिया । युगों तक श्री शास्त्री जी का यह पवित्र बलिदान राष्ट्र सेवकों को प्रेरित करता रहेगा ।
          श्री शुक्रराज शास्त्री के पश्चात् उन्हीं के साथी प्रसिद्ध आर्यसमाजी श्री गंगालाल जी को पेड़ से बांधकर गोली से उड़ा दिया गया । दूसरे सहयोगी श्री धर्मभक्त को भी पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी गई । पञ्जाब निवासी श्री मास्टर गुरुदयालसिंह भी इसी भांति शहीद हुये । देश से निर्वासित हुये अनेकों को जेल में सताया गया । बहुत से बलिदानियों का नाम तक भी ज्ञात नहीं हो पाया । नेपाल में आज सभी प्रकार का जो परिवर्तन दिखाई दे रहा है वह सब ऐसे वीर हुतात्माओं के पवित्र बलिदान का सुपरिणाम है ।
नोट :- यह फोटो अमर स्वामी जी की पुस्तक श्री शुक्रराज शास्त्री जी का बलिदान नामक पुस्तक से लिया गया है जो कि हरयाणा साहित्य संस्थान गुरुकुल झज्जर से प्रकाशित है।

हैदराबाद सत्याग्रह।

आज से 70 वर्ष पूर्व 17 सितंबर 1948 हैदराबाद राज्य (वर्तमान का हैदराबाद शहर और कर्नाटक राज्य) का विलय भारतीय संघ मे हुआ था।
तत्कालीन हैदराबाद राज्य में बहुमत जनता हिन्दू थी पर राज्य मुसलमान था। निजाम अपनी रियासत को पाकिस्तान मे मिलाने चाहता था और 1930 से ही हिन्दूओ को इस्लाम कबुलने के लिए तरह तरह दबाव बनाया करता था।
हैदराबाद शहर मे प्रथम आर्य समाज की स्थापना 1892 मे स्थापना हुई। 1938 तक तत्कालीन हैदराबाद राज्य मे 250 से ज्यादा आर्य समाज के केंद्र खुल गए थे। इसी के साथ आर्य समाज ने बहुसंख्यक हिन्दूओ हित मे आर्य समाज मे अपनी आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी थी। जिन्हें दबाव से मुसलमान बनाया गया था उनके लिए शुद्धि आंदोलन चलाया गया।
*घर वापसी मे प्रख्यात विद्वान पंडित रामचंद्र देहलवी जी के भाषणो का महत्वपूर्ण योगदान रहता था।
आर्य समाज को हैदराबाद को इस्लामिक राज्य बनाने मे सबसे बङा रोङा मानते हुए, निजाम ने संगठन पर कङे प्रतिबंध लगाने के आदेश दिए। इसमे सम्मेलन करने, किसी नई जगह पर हवन करने पर भी प्रतिबंध था। यहां तक ओ३म् का भगवा झंडा लहराने पर भी जेल भेज दिया जाता था।
9 अक्टूबर 1938 को आर्य समाज ने महात्मा नारायण स्वामी के नेतृत्व मे निजाम के विरूद्ध पहला सत्याग्रह किया। इसके बाद करीब 6 और सत्याग्रह हुए।12000 सत्याग्रहियो मे से 7000 हैदराबाद राज्य के बाहर से थे। इसमे बङी संख्या गुरुकुल कांगङी हरिद्वार के ब्रह्मचारीयो की थी।सैकड़ों कार्यकर्ताओ जेल में डाला गया जिसमे से कुछ ने अनशन के दौरान अपने प्राण त्याग दिए।
आज देश का दुर्भाग्य है कि जीन लोगों ने कभी इतिहास पढा नही वह इतिहास बदलने की बात करते हैं......संसार के सम्मानित राष्ट्रों का इतिहास उन व्यक्तियों के चरित्रों से सदा भरपूर रहा है, जिन्होंने उच्च एवं पवित्र उद्देष्यों की पूर्ति के लिए महान् से महान् त्याग किया और समय पड़ने पर इस संघर्ष में अपने जीवन को न्योछावर कर दिया और पीछे बलिदानों के अवषेश रख गए, जो अनुगामियों का पथ प्रदर्शन कर सकते हैं
शहीदों को मृत्यु कभी स्पर्श नहीं करती अपितु वे स्वयं मर कर अमर हो जाते हैं। इतिहास साक्षी है। ऐसी महान् आत्माओं का रक्त कदापि व्यर्थ नहीं गया अपितु समय आने पर एक ऐसे प्रखर प्रचंड रूप में प्रवाहित हो निकला जिसमें हिंसा, अत्याचार और पाशविकता के दल स्वतः निमग्न हो गए। ये व्यक्ति धर्म-प्रचार, सदुपदेश, प्रजावाद की प्रस्थापना, शांति और प्रेम एवं सत्य को साधारण व्यक्तियों तक पहुंचाने के लिये अपने जीवन-लक्ष्य की कठिनाईयों को पार कर आगे बढ़ते ही रहे। इन्होंने सदा पराक्रान्तों का साथ दिया और मानवता के उच्च आदर्शो के रक्षक हुए और इन हेतुओं से निज तन-मन-धन की बलि देकर स्पष्ट कर दिया कि इनका सेवा कार्य में कितना उत्साह था तथा बलिवेदी से कितना ऊंचा प्रेम था।
आर्य समाज के शहीद मरने के बाद अमर हो गये और इन हुतात्माओं के रक्त से हैदराबाद में वैदिक धर्म का जो चमन सींचा गया, वह अब एक विस्तृत उद्यान बन गया है और रियासत में वैदिक धर्म का नव सन्देश दे रहा है। यहां हम कुछ आर्य समाजी शहीदों का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं जो वर्तमान में संसार में उपस्थित तो नहीं हैं पर वे सबके ह्रदयों में स्मरण रहेंगे और ऐसा प्रतीत होता है कि हम इन्हें कभी भूल नहीं सकेंगे।
1. वेद प्रकाश जी
वेद प्रकाष जी का पूर्व नाम दासप्पा था। दासप्पा संवत् 1827 में गुजोटी में पैदा हुए। इनकी माता का नाम रेवती बाई और पिताश्री का नाम रामप्पा था। गरीब माता-पिता को इसकी क्या सूचना थी कि उनका बेटा बड़ा होकर हुतात्मा बनेगा और वैदिक धर्म के मार्गं में शहीद होकर अमर हो जाएगा। दासप्पा ने मराठी माध्यम से आठवीं श्रेणी तक षिक्षा ग्रहण की। जैसे-जैसे ये बढ़ते गये वैसे-वैसे वे धर्म की ओर आकर्षित होते गये। वे आर्य समाज के सत्संगों में बराबर सम्मिलित होते थे। वैदिक धर्म के आकर्षण ने इन्हें महर्शि दयानन्द का पक्का भक्त बना दिया। आर्य समाजी बनने के बाद यह वेद प्रकाश कहलाने लगे थे। इनका आर्य समाज में असाधारण प्रेम एवं निश्ठा के ही कारण गुंजोटी में आर्य समाज की नींव डाली गयी पर स्थानीय इर्स्यालू यवन इन्हें देखकर जलने लगे थे। वेद प्रकाश जी सुगठित शरीर एवं सद्गुण रखते थे और लाठी-तलवार चलाने की विद्या में पर्याप्त दक्ष थे। इनकी यह दक्षता कई भयंकर संकटों के समय इनकी सहायक सि( हुई। कई बार विरोधी दल ने इन पर आक्रमण किये और ये अपने आपको सुरक्षित रखने में सफल हुए।
गुंजोटी का छोटे खां नाम का एक पठान स्त्रियों को गलत निगाहों से देखता था। एक दिन वेद प्रकाश जी ने इसे ऐसा करने से रोका और सावधान किया कि भविष्य में इस प्रकार कुद्रष्टि मातसमाज पर न डालें। यह बात गुण्डों को हृदयग्राही न थी और सब इनके शत्रु हो गए। वेद प्रकाश जी ने गुंजोटी में हिन्दुओं के लिये पान की एक दुकान खोल दी और चांद खान पान का एक व्यापारीद्ध इनका शत्रु हो गया और भीतर ही भीतर इनके विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगा। एक दिन यवनों ने स्थानीय आर्य समाज के मन्त्री के मकान पर अकस्मात् धावा बोल दिया, इसकी सूचना वेद प्रकाश जी को मिली, वे इन आक्रमणकारियों को रोकने के लिए निःशस्त्र ही चले गये। मन्त्री के मकान के समीप दो-तीन मुसलमानों ने इन्हें पकड़ लिया और आठ-नौ व्यक्तियों ने इन्हें नीचे गिरा कर हत्या कर दी। विषेश उल्लेखनीय बात यह है कि उस दिन पुलिस ने वहां के प्रतिष्ठित हिन्दुओं को थाने में बुलाकर बैठा रखा था। आक्रमकत्र्ताओं और हत्यारों को पहचान लिया गया और न्यायालय में गवाह भी उपस्थित किये, पर फिर भी हत्यारों को निर्दोश घोषित कर दिया गया। वेद प्रकाश जी का रक्त हैदराबाद में पहला रक्त था जो बड़ी निर्दयता के साथ बहाया गया था और इसके बाद वीर आर्यों के बलिदानों का एक सिलसिला सा चल पड़ा।
2. धर्म प्रकाश जी
धर्म प्रकाश जी का पूर्व नाम नागप्पा था। नागप्पा जी का जन्म कल्याणी में संवत् 1839 में हुआ था। इनके पिताश्री का नाम सायन्ना था। इनका पदार्पण जब आर्य समाज में हुआ तब से ये धर्म प्रकाश कहलाने लगे। कल्याणी एक मुस्लिम नवाब की जागीर थी। वहां मुसलमानों का अत्याचार नंग-नाच कर रहा था। मुसलमानो के अत्याचारों को देखकर धर्म प्रकाश इसकी रोक-थाम की तैयारी में लग गये। हिन्दुओं को शस्त्र विद्या सिखाने लगे। कल्याणी के मुसलमान हिन्दुओं के शारीरिक अभ्यास से रुस्ठ हो गये और उन्होंने इनकी हत्या करने की कमर कस ली। कल्याणी के इस धर्मवीर पर कई बार आक्रमण किये गये पर आक्रमकारियों को सफलता नहीं मिली। कल्याणी के खाकसार इनकी हत्या की ताक में रहने लगे। 27 जून 1837 ई. की रात को धर्म प्रकाश आर्य समाज कल्याणी के सत्संग से अपने घर वापस जा रहे थे कि खाकसारों ने इन्हें एक गली में घेर कर बरछों और भालों की सहायता से मार डाला। वेद प्रकाश की हत्या से आर्य समाज में शोक व दुःख की लहर दौड़ गयी। इस हत्याकाण्ड के हत्यारे भी न्यायालय से निर्दोष छोड़ दिये गये।
3. महादेव जी
महादेव जी अकोलगा के रहने वाले थे। साकोल आर्य समाज के सत्संगों में जब इन्हें कई बार सम्मिलित होने का अवसर मिला, तब वैदिक धर्म का जादू इन पर चढ़ गया। इनके मन और मस्तिक्ष पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि आर्य समाजी बन जाने के बाद वैदिक धर्म के प्रचार की धुन लग गयी। तरुणोत्साह और साहस इन्हें इस मार्ग पर आगे बढ़ाता ही रहा। महादेव जी की मुखाकष्ति पर तेज था। भाषण देते समय इनके मुख से जो वाक्य निकलते, उन्हें लोग बड़ी तन्मयता और रुचि से सुनते और एक तरुण आर्य युवक को प्रचार के काम में इस प्रकार तल्लीन देखकर लोगों को भी इच्छा होती थी कि वे भी इसी प्रकार बनें। महादेव जी के प्रचार का काम जब प्रगति पर था उस समय मुसलमान इनके अकारण षत्रु बन गये। कई बार इन पर इस द्रष्टि से आक्रमण हुए कि वे सदा के लिए मौन हो जाए पर वे बचते ही रहे।
एक दिन की घटना है कि महादेव जी अपने प्रिय धर्म प्रचारार्थ कहीं जा रहे थे कि रास्ते में किसी अज्ञात व्यक्ति ने पीछे से आकर छुरा घोंप दिया और 14 जुलाई 1938 के दिन यह आर्य युवक 25 वर्ष की आयु में सदा के लिए इस संसार से बिदा हो गया।
4. श्याम लाल जी
धर्मवीर श्याम लाल जी का जन्म 1903 ई. भालकी में हुआ था। इनके पिताश्री का नाम भोला प्रसाद और माता का छोटूबाई था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा मराठी में हुई। ये एक पौराणिक परिवार से थे। इनके एक मामा आर्य समाजी थे, जिनके प्रभाव से श्याम लाल जी के ज्येश्ठ भ्राता बंसीलाल जी वैदिक धर्म के अनुयायी और स्वामी दयानन्द के अन्तःकरण के भक्त बन गये और आर्य समाज के सर्वप्रिय नेता भी कहलाने लगे। गुलबर्गा में आपके ही प्रयासों से आर्य समाज की स्थापना हुई। वे स्वयं इस समाज के मन्त्री बनकर कार्य संचालन करते रहे। 1925 ई. में वकील बने और उदगीर में वकालत करने लगे। निजी जीविकोपयोगी कार्य करते हुए आर्य समाज का प्रचार भी करते थे। 1926 ई. में इन्हें चर्म रोग लग गया और वह इतना बढ़ा कि पूरा शरीर फूल गया। रोग निवारणार्थ आप लाहौर गये। अभी आप लाहौर में ही थे कि 1926 ई. में स्वामी श्रद्धानन्द जी शहीद हो गये। स्वामी जी के इस बलिदान का प्रभाव इन पर अत्यधिक पड़ा। लाहौर से वापस आकर उदगीर में आर्य समाज की स्थापना की और प्रतिज्ञा की कि आजीवन वैदिक धर्म का प्रचार करेंगे। उदगीर के तात्कालीन मुसलमान तहसीलदार ने स्थानीय मुसलमानों को प्रेरित कर इनके मकान पर आक्रमण करवा दिया, परन्तु यह आक्रमण विफल रहा। आर्य समाज उदगीर की स्थापना के बाद आपके अथक प्रयासों से विजय दशमी के अवसर पर प्रथम बार जुलूस निकाला गया। होली के जुलूस के अवसर पर आप पर पुनः आक्रमण हुआ पर इस बार भी आप बच गये। श्याम लाल जी ने अछूतों के लिए एक पाठशाला, एक व्यायाम शाला तथा एक निःशुल्क चिकित्सालय भी स्थापित किया। 1928 ई. में उदगीर आर्य समाज का वार्षिकोत्सव हुआ और इसी के बाद पुलिस आपका पीछा करने लगी। इसी वर्ष धारा 104 के अधीन आप पर झूठा मुकद्दमा चलाया गया और आपसे दो हजार की जमानत और मुचलका लिया गया। श्याम लाल जी उदगीर से बाहर निकलकर भालकी, कल्याणी, औराद, शाहजहानी, लातूर तथा औसा आदि स्थानों पर प्रचार करने लगे। कई बार मुसलमानों ने आप पर आक्रमण किया और कई ऐसे अवसर आये जब कि हिन्दुओं ने आपको अपने पास आश्रय देना अस्वीकार किया। आपने कई रातें मार्ग पर चलते हुए बितायीं और दिन में फिर प्रचार कार्य किया। 1935 ई. में माणिक नगर की यात्रा के अवसर पर मुसलमानों ने आप पर छुरा घोंप देने का प्रयत्न किया पर एक नवयुवक बीच में आया, स्वयं जख्मी हुआ और इन्हें बचा लिया। 1938 ई. में इन पर पुलिस ने एक झूठा मुकद्दमा चलाया और न्यायालय ने इन्हें दीर्घकालिक दण्ड दिया। अभी आप कारावास में दंड भोग रहे थे कि आपका देहांत हो गया। पं. श्याम लाल जी का नाम हैदराबाद आर्य समाज के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा रहेगा क्योंकि ये अपने अथक प्रयत्नों, संघर्ष और श्रद्धा से आर्य समाज को शक्तिषाली और विस्तृत करने की चिन्ता अन्तिम श्वास तक करते रहे।
5. व्यंकटराव जी
व्यंकटराव जी कंधार जिला नांदेड़ के रहने वाले थे। इन्होंने स्टेट कांग्रेस द्वारा संचालित सत्याग्रह में भाग लिया और दण्ड भोगते रहे। कारावास के अधिकारियों द्वारा मार-पीट के कारण 18 अप्रैल 1938 ई. में आप परलोक सिधार गये।
6. विष्णु भगवान् जी
विष्णु भगवान् जी ताण्डूर ;गुलबर्गाद्ध के रहने वाले थे। इन्होंने गुलबर्गा में ही सत्याग्रह किया और वहीं इन्हें कारावास का दण्ड दिया गया। आपको गुलबर्गा से औरंगाबाद और फिर हैदराबाद जेल में रखा गया और यहां दूसरे सत्याग्रहियों के साथ इन्हें इतना पीटा गया कि ये सहन न कर सके और 2 मई 1939 ई. में आपने 30 वर्ष की आयु में अपना शरीरान्त किया।
7. माधवराव सदाशिवराव जी
आप लातूर के रहने वाले थे। आपने 30 वर्ष की आयु में आर्य सत्याग्रह में भाग लिया और गुलबर्गा जेल में बन्द कर दिये गए। 26 मई 1939 ई. के दिन कड़कती धूप में नंगे पैर जेल में कठिन परिश्रम करने से रोगग्रस्त हो गए। चिकित्सा का कोई प्रबन्ध नहीं किया गया और आप इस प्रकार निजाम सरकार की क्रूरता के कारण देहावसान कर गये। माधव राव सदाशिवराव के देहान्त की सूचना पाकर असंख्य नर-नारी इनके अन्तिम दर्शन करने गए पर पुलिस ने रोक दिया और जेल में ही इनका शव अग्नि की भेंट कर दिया गया।
8. पाण्डुरंग जी
उस्मानाबाद के रहने वाले युवा आर्य सत्याग्रही को सत्याग्रह के कारण ही कारावास का दंड दिया गया था। गुलबर्गा जेल में इन पर इन्फुएंजा का आक्रमण हुआ पर चिकित्सा का कोई प्रबन्ध न किया गया। हालत चिन्ताजनक होती गई। 25 मई 1939 के दिन इन्हें नागरिक औषधालय में भेजा गया और वहीं 27 मई को इनका देहान्त हो गया। असंख्य नर-नारी इनके अन्तिम दर्शन को आए पर पुलिस ने इन्हें वापस जाने पर विवश कर दिया और पुलिस द्वारा ही इनका अन्तिम संस्कार किया गया।
9. राधाकृष्ण जी
राधाकृष्ण जी निजामाबाद के एक राजस्थानी थे। 1903 ई. में आपका जन्म हुआ था। आपके पिता का नाम जीतमल था। 1934 ई. में आप आर्य समाजी बने और तभी से इसके प्रचार की धुन लग गई। इन्होंने ही निजामाबाद में आर्य समाज की स्थापना की थी। इसी कारण आप पुलिस की वक्रद्रष्टि में खटने लगे। मुहर्रम के दिनों में आप पर मुकद्दमा चलाया गया और इनसे एक साल के लिए दो हजार रुपये का मुचलका लेकर छोड़ा गया। आर्य सत्याग्रह के समय आप बड़े उत्साह के साथ चन्दा एकत्रित करने में जुटे थे। 2 सितम्बर 1931 ई. के दिन एक अरबी ने छुरा घोंप कर मार डाला और यह बात सर्व विदित हो गई कि इनकी हत्या के षड्यंत्र में पुलिस का हाथ था।
10. लक्ष्मण राव जी
आपने धार्मिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह किया। जेल के कठोर व्यवहार को सहन न कर सकने के कारण 3 अगस्त 1939 ई. को हैदराबाद जेल में आपका देहान्त हो गया।
11. शिवचन्द्र जी
आपका जन्म 3 मार्च 1916 ई. में दुबलगुण्डी में हुआ था। आपके पिताश्री का नाम अन्नपक्षप्पा था। 1935 ई. में मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। सरकार की ओर से आपको छात्रवष्त्ति भी प्राप्त हुई थी। आप हुमनाबाद की एक पाठशाला में अध्यापक हो गये थे। पाठशाला के अवकाष के समय आप आर्य समाज के साहित्य का अध्ययन किया करते थे। आर्य समाज के लिए आपने बड़े उत्साह और श्रद्धा से काम किया। शोलापुर से आप सत्याग्रहियों को हैदराबाद लाते थे और सत्याग्रह के समाचार हैदराबाद से बाहर भेजते थे। 3 मार्च 1942 ई. के दिन होली में जुलूस के अवसर पर मुसलमानों ने आक्रमण कर दिया, फलस्वरूप आप शहीद हो गए। आप के साथ आपके साथी लक्ष्मण राव जी, राम जी अगडे़ और नरसिंह राव जी गोलियों का निषाना बने थे।
12. राम कृष्ण जी
राम कृष्ण जी का जन्म लावसी ग्राम में एक ब्राह्मण कुल में हुआ था और यह शहीद होने से केवल दो सप्ताह पूर्व ही आर्य समाजी बने थे। एक दिन पठानों ने घोषणा की थी कि ‘उस दिन वे मन्दिर को तोड़ेंगे, जिसे धर्म पर विश्वास हो वे आकर उन मन्दिरों को उनके हाथों से बचा लें।’ सब हिन्दू घबरा कर अपने-अपने मकानों में बैठ गये किन्तु जब राम ने यह घोषणा सुनी तो वे क्रोधाग्नि से जल उठे। पुजारियों ने कभी इन्हें मन्दिर में प्रवेश होने नहीं दिया था और फिर आर्य समाजी होने के कारण इन्हें मन्दिर और इन मन्दिरों की मूर्तियों से क्या रुचि, परन्तु पठानों की इस घोषणा को इन्होंने सम्पूर्ण हिन्दू जाति के लिए एक चैलेंज समझा और जाति की मान रक्षा हेतु मन्दिर द्वार पर अपना डेरा डाला। यहाँ इन पर गोलियों की वर्षा हुई, घायल होने पर भी आपने पठानों को मार भगाया और हिन्दू जाति की लाज रख ली। स्वयं शहीद होकर इन्होंने मन्दिर की रक्षा की और जिस जाति में वे पैदा हुए थे, उसकी प्रतिष्टा रख ली।
13. भीम राव जी
आप हिपला उदगीरद्ध के रहने वाले थे। इनके मित्र माणिक राव की बहन को मुसलमानों ने मुसलमान बना लिया था। भीमराव ने उसे शुद्ध कर लिया था। इस कारण मुसलमानों ने क्रोधित होकर इनके घर को आग लगा दी और इन्हें मार कर इनके हाथ-पांव काट डाले और इन्हें आग में जला दिया।
14. माणिक राव जी
यह भी हिपला उदगीरद्ध के रहने वाले थे। इनकी बहन को मुसलमान बना लिया गया था। जब इनकी बहन को शुद्ध कर लिया गया तो मुसलमानों ने माणिक राव जी को गोलियों का निशाना बना दिया था।
15. सत्य नारायण जी
आप अम्बोलगा ;वीदरद्ध के रहने वाले थे। आर्य समाज का काम बड़े जोष के साथ करते थे, इसीलिए मुसलमान इनके शत्रु हो गए। मुहर्रम के दिनों में वे बाजार से जा रहे थे कि एक मुसलमान ने पीछे से तलवार से हमला कर दिया। वे तुरन्त ही चिकित्सालय पहुंचाए गये पर वहां जाते ही परलोक सिधार गये।
16. महादेव जी
यह तिवाड़े के रहने वाले थे। गुलबर्गा में ही सत्याग्रह करने के कारण जेल में डाल दिए गये थे। जेल वालों के अत्याचार से 1939 ई. में ही चल बसे।
17. अर्जुन सिंह जी
आप आर्य समाज के एक नर-रत्न थे। आप तालुका कन्नड़ औरंगाबाद में पैदा हुए थे। बचपन से ही आप हैदराबाद में रहने लगे थे। अपने उत्साह और निष्ठां के कारण आप हैदराबाद दयानन्द मुक्ति दल के सेनापति बनाए गए थे। सम्वत् 1861 में जंगली विठ्ठोबा की यात्रा में कुषल प्रबन्ध करने के बाद घर वापस लौट रहे थे कि मार्ग में कुछ सशस्त्र मुसलमानों ने आप पर आक्रमण कर दिया, तुरन्त ही उस्मानिया दवाखाना भेजे गए पर दूसरे ही दिन परलोक सिधार गये।
18. गोविन्द राव जी
आप निलंगा जिला बीदर के रहने वाले थे। सत्याग्रह करके जेल गये। पर वहां के अत्याचारों को सहन न कर सकने के कारण देहावसान कर गये।
19. गोन्दिराव जी, लक्ष्मण राव जी इन दोनों ने सत्याग्रह में अपनी जान की बाजी लगा दी। आर्य समाजी शहीदों का यह बहुत ही संक्षिप्त परिचय है। जिसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हैदराबाद में वे निजाम सरकार और मुसलमानों के अत्याचारों का किस प्रकार निषाना बने और वैदिक पताका को ऊॅंचा रखने के लिए किस प्रकार इन्होंने अपना अन्तिम रक्त बिन्दु तक बहा दिया।