अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय नाम का एक मंत्रालय केंद्र सरकार का है। मैं आमतौर पर अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग नहीं करता हूं, खासकर मुस्लिम समाज के संदर्भ में और स्पष्ट रूप से यह मानता हूं कि विशेषाधिकार की इस श्रेणी का सही उपयोग किसी के लिए हो सकता है तो वह केवल पारसी हैं, जिनकी आबादी बढ़ने की बजाए या तो स्थिर है या घट रही है। किसी भी मुल्क में बीस करोड़ की बेतहाशा बढ़ती और थोक आबादी अल्पसंख्यक हो ही नहीं सकती।
फरवरी 2020 में इस मंत्रालय की जानिब से खबर आई थी कि सरकार ने इनका बजट बढ़ाकर 5020 करोड़ कर दिया है। स्कूली बच्चों की छात्रवृत्तियां ही इसमें 2000 करोड़ की थीं। लगभग हर समाचार माध्यम में इस खबर के साथ जो प्रतीकात्मक तस्वीरें प्रकाशित हुईं थीं, वे न पारसियों की थीं, न जैनियों की, न सिख और न किसी बौद्ध विहार की। इन तस्वीरों में अल्पसंख्यकों का चेहरा दिखाने के लिए जिन नौजवानों की भीड़ दर्शाई गई थी, उसका लिबास और हुलिया वही था, जो कानपुर, प्रयागराज, रांची और दिल्ली में बीते शुक्रवार के दिन पूरी दुनिया में देखा गया। वे सब मुस्लिम समाज की नई पीढ़ी के चेहरे हैं, जिनके इरादों और कारनामों में भविष्य के भारत की शक्ल को महसूस किया जा सकता है। बजट के इस योगदान को मुख्तार अब्बास नकवी ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ से जोड़कर पेश किया था।
अल्पसंख्यकों के नाम पर ये मंत्रालय, आयोग और कमेटियां उस सेक्युलर सिस्टम की सड़ी-गली रस्में हैं, जिसे पानी पी-पीकर कोसा गया है, क्योंकि वह सिर्फ मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए था। मुस्लिम वोट बैंक की खातिर सेक्युलर सरकारों की एक ऐसी नीति, जिसे अश्विनी उपाध्याय नाम के एक दानिशमंद वकील ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती थी। अल्पसंख्यक की परिभाषा ही तय नहीं है कि किस राज्य में कितनी आबादी को कब तक अल्पसंख्यक माना जाएगा और अल्पसंख्यकों के नाम पर मंत्रालय, आयोग और बजट के अनुष्ठान भक्तिभाव से चलने लगे। यह घातक शुरुआत उस शर्मनाक हद तक चली गई कि कुछ सरकारों ने मौलवियों और मुअज्जिनों की तनख्वाहें तक तय कर दीं और उससे भी आगे जाकर कुछ सरकारों ने कब्रस्तानों की रखवाली के लिए सैकड़ों करोड़ रुपए फंूकना शुरू कर दिए।
एक महान प्रधानमंत्री तो पता नहीं किस बहक में देश के संसाधनों पर पहले हक की आयत ही उतार गए! एक महान नेत्री की आंखें बाटला हाऊस के आतंकी एनकाउंटर की खबर सुनकर छलक पड़ी थीं। सेक्युलर भावनाओं की ऐसी अभिव्यक्ति दुनिया के किस देश के सर्वोच्च नेताओं के पास होगी? देश में लगातार घट रही घटनाएं बता रही हैं कि भारत अपने और अपने भविष्य के आत्मघात में निवेश के लिए कितना कुछ कर चुका है? अब यह सब आत्मघाती निवेश सिद्ध हो रहे हैं और दुनिया में इसकी दूसरी मिसाल नहीं हैं कि कोई मुल्क अपने ही गले में शान से फंदा लटकाए।
उत्तरप्रदेश ने दंगाइयों से निपटने के लिए तात्कालिक कार्रवाई के अपने तरीके विकसित किए हैं। जैसे दंगाइयों के रहनुमाओं के अवैध कारनामों पर सख्ती से रोक। उनकी नाजायज संपत्तियों पर बुलडोजर वगैरह की कार्रवाई। यह पहली नजर में एक प्रभावी कार्रवाई लगती है लेकिन यह इलाज नहीं है। यह दवाई का ऊपरी छिड़काव है, जिसके बारे में अनपढ़ किसान भी जानता है कि अंदर खरपतवार की जड़ें जमी हुई हैं।
कल के दिन सरकारें बदलेंगी और बुलडोजर की ड्राइविंग सीट पर कोई दूसरा आ बैठेगा जो बुलडोजर की स्टीयरिंग को दूसरी तरफ घुमा देगा। स्थाई इलाज कठोर कानून के जरिए होना चाहिए। चूंकि समस्या देशव्यापी और विदेश प्रायोजित है इसलिए इसकी रोकथाम के लिए स्थाई कानून ही लाया जाना चाहिए। किसी भी पार्टी की सरकार हो, कोई राजी हो या नहीं लेकिन मुख्यमंत्री स्तर पर एक राष्ट्रीय मंथन खुलकर होना चाहिए और कम से कम केंद्र में शासित दल की राज्य सरकारें तो अपने यहां एक जैसा कानून लागू कर ही सकती हैं। अगर सरकारें बदली भी तो ये कानून उलटना इतना आसान नहीं होगा, जनता बर्दाश्त नहीं करेगी।
वे अपने बयानों में लाख बुरे हों मगर दिल्ली में इमाम बुखारी की मुश्किल को भी समझिए। शुक्रवार के हंगामे पर उन्होंने कहा कि वे नहीं जानते कि मस्जिद में ये कौन लोग आ गए थे, जो उत्पात में उतरे।
सच भी है। भक्तों की भीड़ में कौन क्या रखकर किस इरादे से तशरीफ ले आया, पुजारीजी को क्या पता? किंतु यह एक खतरनाक संकेत है कि कोई भी कहीं से भी चला आए और कुछ भी कर गुजरे और बदनामी का कलंक किसी मासूम के ऊपर लगे। इसलिए मस्जिदों में आने वालों का एक रिकॉर्ड होना चाहिए। इमाम की जिम्मेदारी होगी कि वह नजर रखे। सबके पास आधार कार्ड हैं। अत्याधुनिक कैमरे हैं। टेक्नॉलॉजी की मदद से पहचान बहुत आसान है। अगर बाहरी तत्व आकर माहौल बिगाड़ रहे हैं तो मस्जिदों को बदनाम करने से रोकने का यही उपाय है और मुस्लिम कार्यकर्ताओं को ही यह जिम्मेदारी दी जा सकती है।
जिन संकरी गलियों और आबादी से ठसाठस भरी दमघोंटू बस्तियों से निकलकर यह विक्षिप्त और उन्मादी भीड़ भारत का दम घोंटने के लिए प्रकट हो रही है, थोड़ा सा ध्यान उधर भी दें।
खुशगवार माहौल में रह रही शहरों की बाकी आबादी को पता ही नहीं है कि चंद दूरी के फासले पर इन बस्तियों में कौन सा जीवन किस दिशा में जा रहा है और किन हाथों में इन बस्तियों के दिमाग बंधक हो चुके हैं? उन्हें कौन नियंत्रित कर रहा है और पुलिस-प्रशासन का कितना जोर वहां हैं? यह देश का आम अनुभव है कि इन बस्तियों में कानून-व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त है। बिजली वाले वहां बिल वसूलने नहीं जा सकते, नगरीय निकाय की हिम्मत नहीं है कि टैक्स ले सकें, इनकम और दूसरे टैक्सों में इनके योगदान शून्य हैं। सुशील पंडित अक्सर कहते रहे हैं कि भारत के भीतर पांच सौ शहरों में कश्मीर बन चुके हैं। उनका इशारा कानून से ऊपर इन्हीं बेलगाम बस्तियों की तरफ है।
पिछले साल दिल्ली दंगों के समय भी यह सफाई दी गई थी कि बाहरी लोगों ने आकर माहौल बिगाड़ा। ये बाहरी कौन हैं और कहां से आ जाते हैं, जो इनके घरों में पत्थर भी इकट्ठे कर देते हैं, बोतल और पेट्रोल भी रख जाते हैं और दूर तक निशाना साधने वाली मारक गुलेलें भी फिट कर देते हैं। ऐसे बाहरी तत्वों पर सख्त कार्रवाई के लिए इन बस्तियों और गलियों में नियमित ड्रोन की निगरानी के साथ सब तरह के अतिक्रमण हटाकर भीतर तक पहुंच आसान होनी चाहिए ताकि आपात स्थिति में कम से कम फायर ब्रिगेड की गाड़ियां तो जा सकें।
भारत को आत्मनिर्भर तो अकेले जैन,सिख और पारसी ही मिलकर बना देंगे लेकिन अल्पसंख्यक कार्य बजट की राशि के एक हिस्से का सही इस्तेमाल इन्हीं अल्पसंख्यक ठिकानों की नागरिक व्यवस्थाओं पर किया जाए। देश की धमनियों के ब्लॉकेज कम करने के लिए यह काम फौरन अमल में लाने जैसे हैं। अल्पसंख्यकों का बजट उन्हीं के लिए जिनकी तस्वीरें बजट के दिन इस खबर के साथ छपती आई हैं।
आरफा खानम नाम की सोशल मीडिया की एक सुलगी हुई शेरवानी का वह इंटरव्यू याद कीजिए, जो उन्होंने केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान से लिया था। आरफा के एक झुलसे हुए सवाल पर आरिफ साहब ने नौ खंडों में देवबंद के पाठ्यक्रमों का खंड इस चुनौती के साथ उनके मुंह पर दे मारा था कि कोई इनमें झांककर देखे कि बच्चों को मदरसों में पढ़ाया क्या जा रहा है? इंटरव्यू यूट्यूब पर है। फिर से देखिए वे क्या कह रहे हैं? वे कह रहे हैं कि मस्जिदों के मिंबर पर जिनका कब्जा है, वे यही पाठ्यक्रम पढ़कर आ रहे हैं। यह मूल समस्या की जड़ों की तरफ इशारा है।
अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय या इंटेलिजेंस के अफसरों ने अगर यह इंटरव्यू नहीं देखा है तो वे भी आंख पर पट्टी बांधकर सरकारी फाइलों के सेक्युलर कनस्तर और तगारी ही ढो रहे हैं।
यह कदम तत्काल उठना चाहिए कि शिक्षा से जुड़े विशेषज्ञों और न्यायविदों का एक दल अगले छह महीने में देवबंदी पाठ्यक्रमों के इन नौ खंडों की समीक्षा करके रिपोर्ट पेश करे और पूरे देश को बताया जाए कि मदरसों में भरे हजारों बच्चों के दिमागों में इक्कीसवीं सदी का कौन सा इस्लाम ठूंसा जा रहा है? वे मुसलमानों की भावी पीढ़ी को किस रंग-रूप में ढाल रहे हैं?
कश्मीर से कानपुर तक पिछले सत्तर साल के अनुभव अब हमें इस निर्णायक मोड़ तक ले आए हैं कि हर दरवाजे, हर खिड़की और हर रोशनदान से एक पैनी नजर हमें 360 डिग्री पर करनी होगी। सेक्युलर रस्म की तरह इन मंत्रालयों और अायोगों को ढोना उस पार्टी की मजबूरी नहीं हो सकती, जिसने तुष्टिकरण की घातक नीतियों का पर्दाफाश करके कांग्रेस और दूसरी सेक्युलर पार्टियों को कहीं का नहीं छोड़ा।
भारत अब तक अपने आत्मघात और विनाश में पर्याप्त से काफी ज्यादा निवेश कर चुका है। उसने बंटवारा भी मंजूर कर लिया और सत्तर साल तक बटवारे करने वालों को भी ढोता रहा। केरल से कश्मीर तक लाेकतंत्र की खरपतवार को भी लहलहाता हुआ हम देख रहे हैं। शुक्रवार की परम प्रार्थनाएं किन सिद्धियों के दर्शन करा रही हैं, यह भी दुनिया के सामने है। मेहरबानी करके अब भारत और भारतीयों को बख्शा जाए!
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