12 सितंबर 2006 की बात है। तत्कालीन रोमन केथोलिक पॉप बेनेडिक्ट सोलहवां जर्मनी के रेगेन्सबर्ग विश्वविद्यालय के सहस्त्रों विद्यार्थियों और शिक्षकों के समक्ष व्याख्यान दे रहे थे। अपने व्याख्यान के दौरान पॉप महोदय ने ऐसा कुछ कह दिया कि तुरंत ही इससे इस्लामी दुनिया में बड़ा हो-हल्ला शुरू हो गया। भारत में भी पॉप के विरुद्ध खूब रोष प्रकट किया गया। वास्तव में, मुस्लिम रोष का कारण यह था कि पॉप महोदय ने अपने व्याख्यान के दौरान सन् 1391 में दो व्यक्तियों के मध्य हुए एक संवाद का उल्लेख कर दिया था।
सन् 1391 में अंकारा के निकट एक स्थान पर बीजान्टिन ईसाई सम्राट मैनुएल द्वितीय पलाइओगस (Manuel II Palaeologus) और एक फारसी विद्वान के मध्य इतिहास में ईसाईयत और इस्लाम का योगदान व उनके सत्य पर एक संवाद हुआ था। संवाद में ‘पवित्र युद्ध’ और युद्ध के नियमों पर भी चर्चा हुई। संवाद के अंत में ईसाई सम्राट ने फारसी विद्वान से कह दिया, “मुझे वह नया कुछ दिखाओ जो मुहम्मद लाए थे, और वहां आपको केवल बुराई और अमानवीय चीजें ही मिलेंगी, जैसे कि तलवार से उनके विश्वास को फैलाने की उनकी आज्ञा।” (अर्थात् Show me just what Mohammed brought that was new, and there you will find things only evil and inhuman, such as his command to spread by the sword the faith he preached.)
सारा विवाद और हंगामा इसी अंश पर हुआ था, लेकिन क्या यह सच नहीं कि इस्लामी परंपरा में केवल हिंसा की पराकाष्ठा करने वाले ही हीरो समझे गए हैं? क्या यह विचित्र बात नहीं है कि जिन बातों को स्वयं मुसलमान गर्व से अपनी उपलब्धि, अपनी विरासत मानते हैं, जब ठीक वही बात कोई गैर-मुसलमान अपनी भावना के साथ कहे तो यह उनके रोष का कारण बन जाती है? उदाहरणार्थ, मुसलमानों के विश्व प्रसिद्ध अल-अजहर यूनिवर्सिटी (मिस्र) के प्रमुख आलिम अहमद हसन अज-जायत सहजता से कहते हैं, “मुसलमानों के लिए जिहाद एक खुदाई कर्तव्य है: उनका मजहब है एक कुरान और एक तलवार।” परंतु इसी बात को कोई काफिर कहे तो इस्लाम को बदनाम करने का आरोप लगाकर क्रोध दिखाया जाता है। भारत में हिंदूओं के पूजा स्थलों का विध्वंस करने वाले गजनवी, गोरी, खिलजी, तुगलक, तैमूर, अकबर, औरंगजेब, टीपू आदि के जेहादी कारनामों पर आज कितने मुसलमान गर्व नहीं करते? यह कहना मिथ्याचार है कि इस्लामी आतंकवादियों पर फक्र करना मुट्ठीभर 'सिरफिरों' का काम है । दुनिया भर में मुस्लिम समुदाय में आज जिहादी आतंकियों की तस्वीरें गर्म जलेबी की तरह बिकती हैं। धरती के हर कोने के मुस्लिम प्रदर्शनों के पोस्टरों में बम, छुरे, धड़ से अलग किए रक्तरंजित सिर और ‘मार डालो’, ‘सिर उतार लो’ जैसे नारे और कुरान के चित्र छाए रहते हैं! उन पोस्टरों में अन्य हिंसक चीजों के साथ कुरान भी क्यों?
दुनिया भर के विवेकशील उदार लोगों को यह देखना चाहिए कि विषय कुछ भी हो, इस्लाम के पास हिंसा के अलावा कभी कोई तर्क नहीं होता। कहीं कोई किताब लिखे तो हिंसा, कोई फिल्म बनी तो हिंसा, कोई रेखाचित्र बने तो हिंसा, समाचार छपे तो हिंसा, बयान आए तो हिंसा, अकादमिक विमर्श हो तो हिंसा, इस्लामी संगठन द्वारा सत्ता लेने के लिए हिंसा, सत्ता मिल जाए तो शरियत लागू करने के लिए हिंसा, यहाँ तक कि किसी नापसंद लेखक को कोई पुरस्कृत करे तब भी हिंसा ही उनके पास एक मात्र प्रतिक्रिया और उत्तर होता है। पॉप ने चौदहवीं शती के बीजान्टिन सम्राट के हवाले से कुछ कहा तो उसके उत्तर में भी हिंसा और धमकियाँ तो खूब दी गई, किन्तु उसका कोई विद्वत्त उत्तर कहीं से नहीं आया!! किसी गैर-मुस्लिम के प्रश्न छोड़िए, अपने ही समुदाय के कुछ विवेकशील लोगों के प्रश्नों के उत्तर मुस्लिम समुदाय कैसे देता है? इब्न वराक, सलमान रुश्दी, तस्लीमा नसरीन, अयान हिरसी अली, इरशत माँझी या वफा सुल्तान जैसे प्रबुद्ध मुसलमानों की बातों का भी उत्तर हिंसा के अलावा कभी, कहीं कुछ नहीं आता। आजकल एक्स-मुस्लिम मूवमेन्ट के युवा मूर्तद के भी मजहबी किताबों की शिक्षाओं पर अपने-अपने सवाल है, पर उत्तर में धमकी या गालीगलौच के अलावा कभी कुछ मिलता ही नहीं। इस बिन्दु पर मौन रहना न केवल आत्मघाती है , बल्कि मुस्लिम समाज के लिए भी बुरा है।
यदि कोई कहे कि यह इस्लामी हिंसा हाल की घटनाएं हैं, तो यह भी झूठ है। अल्लामा इकबाल को इस्लामी चिंतकों में गिना जाता है। उनकी रचनाओं ‘शिकवा’ (1909) और ‘जवावे-शिकवा’ (1913) को क्लासिक माना जाता है। उसमें भी संपूर्ण इस्लामी इतिहास के बारे में मात्र रक्तपात, विध्वंस, सभ्यताएं की सभ्यताएं मिटा देने के गर्वीले बयान हैं। इतना ही नहीं, तलवार के सिद्धांत को छोड़ देना ही इकबाल ने विश्व में मुस्लिम समुदाय के पतन का एकमात्र कारण बताया, इसीलिए इकबाल ने अल्लाह के मुंह से फिर मुसलमानों में वही खूंरेजी का भाव पैदा करने का आह्वान तक दिखाया है! अल्लाह से शिकायत करते हुए इकबाल लिखते है:-
बस रहे थे यहीं सलजूक भी, तूरानी भी
अहले-चीं चीन में, ईरान में सासानी भी
इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी
इसी दुनिया में यहूदी भी थे, नसरानी भी
*पर तिरे नाम पे तलवार उठाई किसने?*
तू ही कह दे कि उखाड़ा दरे-खैबर किसने?
शहर कैसर का जो था किया सर किसने?
तोड़े मखलूके-खुदावंद के पैकर किसने?
काटकर रख दिए कुफ्फार के लश्कर किसने?
किसने ठंडा किया आतशकद-ए-ईराँ को?
किसने फिर जिंदा किया तज्किरे-यजदाँ को?
तुझको छोड़ा कि रसूले-अरबी को छोड़ा?
बुतगरी पेशा किया? बुतशिकनी को छोड़ा?
अर्थात् शायर इकबाल आवेश मिश्रित गर्व से कह रहे हैं कि दुनिया में इस्लाम फैलाने व दूसरे मजहब वालों को मिटाने के लिए मुसलमानों ने भरमूर कत्लो-गारत की। यूरोप में सीजर का राज्य उजाड़ा। ईरान में पारसियों की पवित्र अग्नि (आतशकद-ए-ईराँ) बुझा डाली। अंतिम दो पंक्तियों में इकबाल पूछते है, “बुतशिकनी को छोड़ा?” अर्थात् “क्या हमने काफिरों के मंदिर व देवमूर्तियों का विध्वंस करना बंद किया?”
14वीं शती में बीजान्टिन ईसाई सम्राट मैनुएल द्वितीय पलाइओगस ने जो प्रश्न उठाया था उसका उत्तर क्या इकबाल नहीं दे रहे है? क्या इकबाल ने कोई मनमानी बातें कहीं हैं? भारत के ही अनेक मुस्लिम इतिहासकारों और आलिमों ने विस्तार से उसकी तफसीलें लिखी हैं। स्वयं इस्लामी मूल ग्रंथों में वैसे ही आह्वान व घोषणाएँ मौजूद हैं। यद्यपि अधिकतर सामान्य मुस्लिम यह नहीं जानते और उन ग्रंथों को प्रायः न पढ़े होने के कारण उनमें ऐसी बातें होने की बात पर विश्वास नहीं करते। उनकी श्रद्धा सहज है, किन्तु तथ्यों की जानकारी नहीं। पर चूंकि इस्लाम के नेता, मार्गदर्शक और विद्वान मजहबी किताबों की एक-एक बात को आज भी अक्षरशः अनुकरणीय मानते हैं, तब इस पूरे संदर्भ में बीजान्टिन ईसाई सम्राट मैनुएल द्वितीय पलाइओगस का सवाल आज छ: शताब्दियों के बाद भी क्या प्रासंगिक नहीं है?
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