Saturday, June 18, 2022

हे पाप !

"हे पाप ! यदि मैं तुझमें ग्रस्त होकर इतना न भटकता, इतना दुःख न पाता तो मैं कभी भी कुटिलता की, असत्य जीवन की बुराई को अनुभव न कर पाता और कभी पुण्य का सच्चा पुजारी न बन पाता।"
*****
अव मा पाप्मन् सृज वशी सन् मृळयासि नः। आ मा भद्रस्य लोके पाप्मन् धेह्यविहुतम् ॥
-अथर्व०६।२६।१ 
ऋषिः - ब्रह्मा। 
देवता - पाप्मा। 
छन्दः - अनुष्टुप्। 
विनय - हे पाप ! तू अब मुझे छोड़ दे। तूने मुझे बहुत देर अपने वश में रखा, अब तो मेरा तुझे वश में करने का समय आ गया है। तेरे वशीभूत होकर मैंने बहुत दुःख पाये, अब तो मेरा सुख पाने का समय आ गया है। हे पाप ! तुझसे पाए दुःख ही अब मेरे सुख के कारण हो जायँ। यह तो ईश्वरीय नियम है कि दु:ख के बाद सुख आते हैं और पाप की प्रतिक्रिया में पुण्य का प्रादुर्भाव होता है। अब तो उस प्रतिक्रिया का समय आ गया है। तुझसे दुःख पा-पाकर आज मैं सीधा हो गया हूँ, अकुटिल हो गया हूँ। मेरे सब कुटिलता, टेढ़ापन, झूठ, पाखण्ड तुझ पाप की तरफ ले-जानेवाले थे। पर आज अकुटिल, सरल, सीधा, सच्चा होकर मैं तो अब भद्र के लोक की तरफ चल पड़ा हूँ। हे पाप ! यदि मैं तुझमें ग्रस्त होकर इतना न भटकता, इतना दुःख न पाता तो मैं कभी भी कुटिलता की, असत्य जीवन की बुराई को अनुभव न कर पाता और कभी पुण्य का सच्चा पुजारी न बन सकता। इस तरह हे पाप ! तू ही आज मुझे भद्र के लोक में स्थापित कर रहा है। हे पाप! तू अब अकुटिल हुए मुझे कल्याण के लोक में पहुँचा दे। मैं जितना पक्का बेशर्म-पापी था उतना ही कट्टर, दृढ़, सच्चा, पुण्यात्मा मुझे बना दे। जितना ही गहरा मैं पाप के गर्त में गया हुआ था उतना ही ऊँचा तू मुझे पुण्य के लोक में स्थिर कर दे।
शब्दार्थ - (पाप्मन्) हे पाप ! तू (मा) मुझे (अवसृज) छोड दे, (वशी सन्) अब मेरे वश में होता हुआ तू नः मुझे (मृळयासि) सुखी कर दे। (पाप्मन) हे पाप ! तू अब (अविह्युतं) कुटिलतारहित, सरल बने (मा) मुझे (भद्रस्य लोके) कल्याण के लोक में (आधेहि) स्थापित कर दे।
**********
स्रोत - वैदिक विनय। (कार्तिक १६)
लेखक - आचार्य अभयदेव।
प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।

No comments:

Post a Comment