Monday, January 30, 2017

अंग्रेजी भाषा का सच।

*"अंग्रेजी" भाषा का सच यह है*

अँग्रेज़ी भाषा एक दम रद्दी है, इस भाषा का जब मैने इतिहास पढ़ा तो पता चला की पाँचवी शताब्दी में तो ये भाषा आई इसका मतलब है कि मुश्किल से 1500 साल पुरानी है l

*हमारी भाषा तो करोड़ों वर्ष पुरानी है संस्कृत, हिन्दी, मराठी, कन्नड़, मलयालम। अंग्रेजी दुनिया की सबसे रद्दी भाषा है, इसकी कोई अपनी व्याकरण नहीं  है जो सूद्ढ़ हो और अपनी हो।*

आपको एक उदाहरण देता हूँ. अँग्रेज़ी में एक शब्द है “PUT” इसका उच्चारण होता है पुट दूसरा शब्द है “BUT” इसका उच्चारण है बट इसी तरह “CUT ” को कट बोला जाता है जबकि तीनों शब्द एक समान हैं. इसकी बजह है भाषा के व्याकरण का ना होना. इसी तरह कभी “CH” का उच्चारण “का” होता है तो कभी “च”  कोई नियम नहीं है l इस भाषा की कितनी बड़ी कमज़ोरी है।

*अँग्रेज़ी में एक शब्द होता है “SUN” जिसका मतलब होता है सूरज l मै सारे काले अँग्रेज़ों को चुनौती देता हूँ कि सूरज का दूसरा शब्द अँग्रेज़ी में से ढूँढ कर दिखाए यानी की “SUN” का पर्यायवाची; पूरी अँग्रेज़ी में दूसरा शब्द नही है जो सूरज को बता सके l अब हम संस्कृत की बात करें  “सूर्य” एक शब्द  है इसके अलावा दिनकर , दिवाकर, भास्कर 84 शब्द हैं संकृत में।*

अंग्रेजी का एक शब्द हैं *“MOON”* इसके अलावा कोई शब्द नहीं  है; संस्कृत में *56* शब्द है चाँद के लिये l इसी तरह पानी के लिए भी जहाँ अँग्रेज़ी में एक शब्द  है *“WATER”* चाहे वो नदी का हो, नाले का या कुए का. संस्कृत में हर पानी के लिए अलग- अलग शब्द है, सागर के पानी से लेकर कीचड़ के पानी तक सभी के लिए अलग- अलग शब्द है।
अंग्रेजी कितनी ग़रीब भाषा है, शब्द ही नही है. चाचा भी “अंकल” मौसा भी “अंकल” फूफा भी “अंकल” और फूफा का फूफा भी “अंकल” और मौसा का मौसा भी “अंकल” कोई शब्द ही नहीँ है अंकल के अलावा इसी तरह चाची, मामी, मौसी सभी के लिए *“आंटी”* कोई शब्द ही नहीँ है इसके अलावा।

*हम तो मूर्ख हैं जो इस अँग्रेज़ी के चक्कर में फस गये। अकल नहीं है, अकल उन्ही की मारी गयी है जो अँग्रेज़ी सीख गये हैं l जिन्होने नहीं  सीखी वो बहुत होशियार है l कभी- कभी में अँग्रेज़ी पढ़ें लिखे घरों में भी जाता हूँ l वे अँग्रेज़ी की बजह से मुझे कैसे मूर्ख दिखाई देते हैं उसका उदाहरण देता हूँ l वो ना तो अंग्रेज हैं और ना हिन्दुस्तानी है बीच की खिचड़ी हैं l वो खिचड़ी कैसी हैं; एक परिवार में गया, पिताजी का नाम रामदयाल, माताजी का नाम गायत्री देवी, बेटे का नाम “टिन्कू”। रामदयाल और गायत्री देवी का ये टिन्कू कहा से आ गया l जब में उन से पूछता हूँ कि आपको टिंकू का मतलब पता है तो उनको नहीं पता होता है l*

ऐसे मूर्ख लोग है अर्थ मालूम नही नाम रख लिया टिंकू l फिर में उनको अँग्रेज़ी शब्द कोष दिखता हूँ, अँग्रेज़ी की सबसे पुराना शब्द कोष है वेबस्टेर;  जिसमें *टिन्कू का अर्थ है “आवारा लड़का”*l जो लड़का माँ बाप की ना सुने वो टिंकू और हम पढ़े लिखे मूर्ख लोग क्या कर रहें है, अच्छे ख़ासे आज्ञाकारी पुत्र को आवारा बनाने में लगे हैं इस अग्रेज़ी के चक्कर में।
अंगेजी पढ़े लिखे घरों में डिंपल, बबली, डब्ली, पपपी, बबलू, डब्लू जैसे बेतुके और अर्थहीन नाम ही मिलते हैं l भारत में नामों की कमी हो गई है क्या?

कभी कभी में इससे भी बड़ी मूर्खताएँ मैं देखता हूँ l कभी किसी अधकचरे हिन्दुस्तानी के घर में जाऊं तो रोब झाड़ने के लिए अँग्रेज़ी बोलते हैं चाहे ग़लत ही क्यों ना हो l वह चाहे तो हिन्दी में भी बोल सकता है लेकिन रोब झाड़ने के लिए अँग्रेज़ी मैं ही बोलेगा। वो बोलेगा *“ओ श्रवण कुमार  she is my misses ”* तो मैं पूछता हूँ ” really” ! she is your misses ?”

*क्योंकि उसको “मिसेज़” का अर्थ नहीं  मालूम।“मिसेज” का अर्थ क्या है? किसी भी सभ्यता में जो शब्द निकलते उनका अपना सामाजिक इतिहास और अर्थ होता है । इंगलेंड की सभ्यता का सबसे ख़राब पहलू ये है जो आपको कभी पसंद नहीं आएगी कि वहाँ एक पुरुष और एक स्त्री जीवन भर साथ कभी नहीं रहते; बदलते रहते है कपड़ों की तरह. मेने कई  लेखों में  पडा है इंग्लेंड और यूरोप में है उनकी 40 -40 शादियाँ हो चुकी और और 41वी करने को तैयारी है ।एक पुरुष कई स्त्रियों से संबंध रखता है एक स्त्री कई पुरुषों से संबंध रखती है। तो पत्नी को छोड़ कर पुरुष जितनी भी स्त्रियों से संबंध रखता है वो सब “मिसेज़” कहलाती है। इसका मतलब हुआ कोई भी महिला जिसके साथ आप रात को सोएं। अब यहाँ धर्म पत्नी को मिसेज़ बनाने में लगे हैं; मूर्खों के मूर्ख।*

*“मिस्टर”* का मतलब उल्टा, पति को छोड़ कर पुरुष जिसके साथ आप रात बिताएँ। छोड़िए इन अँग्रेज़ी शब्दों को इनमें कोई दम नही है ।एक तो सबसे खराब अँग्रेज़ी का शब्द है *“मेडम”* पता नहीं  है लोग बोलते कैसे है । आप जानते है यूरोप में मेडम कौन होती है ।ऐसी सभ्यता जहाँ परस्त्री गमन होगा वहां वेश्यावृति भी होगी ।परस्त्री गमन पर पुरुष गमन चरम पर होगा ।तो वैश्याएँ जो अपने कोठों को चल़ाती हैं अपनी वेश्यावृती के धंधे को चलाने के लिए ।वैश्या प्रमुख को वहां मैडम कहा जात है ।हमारे यहाँ ऐसे मूर्ख लोग हैं जो अपनी बहिनों को मैडम कहते है, अपनी पत्नि को मैडम कहते है ।और पत्नि को भी शर्म नहीं आती मैडम कलवाने में वो भी कहती हैं मैडम कहो मुझको । पहले जान तो लो इसका मतलब फिर कहलाओ।

*अपने भारत में कितने सुंदर सुंदर शब्द हैं जैसे  “श्रीमती” श्री यानी लक्ष्मी मति यानी बिद्धि जिसमें लक्ष्मी और सरस्वती एक साथ निवास करें वो श्रीमती उसको हमने मिसेज़ बना दिया । इस देश का सत्यानाश किया अँग्रेज़ी पढ़े लिखे लोगों ने; पहले तो अँग्रेज़ी भाषा ने किया फिर इन्होने और ज़्यादा किया ।मेरा आपसे हाथ जोड़ के निवेदन है इस अँग्रेज़ी भाषा के चक्कर में मत पड़िये कुछ रखा नहीं है इसमें।

*विश्व के सबसे ताकतवर देश  चीन और जापान...अमेरिका..इंग्लेंड..ये सिर्फ अपनी भाषा बोलते है..बिज़्नेस भी अपनी भाषा मे ही करते है*
क्योंकि बहा का आम नागरिक समर्पित है ।पर हमारे यहाँ इस तरीके के लोग है जो इस तरह की बात सुनकर तुरंत अपने पिछवाडे मे आग लगाकर घूमने लगते है ।
मै सिर्फ यही कहूँगा इस तरह के लोगो को
जो अपनी हिन्दी को छोड़कर अँग्रेजी की प्रशंसा करते है वो लोग अपनी माँ को माँ बोलना भूलकर किसी  वैश्या को माँ बोलने मे गर्व महसूस करते है।

हिंदी भाषा का प्रयोग करें।
हिंदी स्वाभिमान।
इंडिया नहीं भारत अभियान।

श्री कृष्ण और अर्जुन - लधु कथा।

एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राहमण को भिक्षा मागते देखा....

अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राहमण को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी।

जिसे पाकर ब्राहमण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर लौट चला।

किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था, राह में एक लुटेरे ने उससे वो पोटली छीन ली।

ब्राहमण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राहमण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा।

ब्राहमण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया, ब्राहमण की व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गयी अर्जुन ने विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राहमण को मूल्यवान एक माणिक दिया।

ब्राहमण उसे लेकर घर पंहुचा उसके घर में एक पुराना घड़ा था जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था,ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया।

किन्तु उसका दुर्भाग्य, दिन भर का थका मांदा होने के कारण उसे नींद आ गयी... इस बीच
ब्राहमण की स्त्री नदी में जल लेने चली गयी किन्तु मार्ग में
ही उसका घड़ा टूट गया, उसने सोंचा, घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है उसे ले आती हूँ, ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले कर
चली गई और जैसे ही उसने घड़े
को नदी में डुबोया वह माणिक भी जल की धारा के साथ बह गया।

ब्राहमण को जब यह बात पता चली तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया।

अर्जुन और श्री कृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में देखा तो जाकर उसका कारण पूंछा।

सारा वृतांत सुनकर अर्जुन को बड़ी हताशा हुई और मन ही मन सोचने लगे इस अभागे ब्राहमण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता।

अब यहाँ से प्रभु की लीला प्रारंभ हुई।उन्होंने उस ब्राहमण को दो पैसे दान में दिए।

तब अर्जुन ने उनसे पुछा “प्रभु
मेरी दी मुद्राए और माणिक
भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसो से
इसका क्या होगा” ?

यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा भर दिए और अर्जुन से उस
ब्राहमण के पीछे जाने को कहा।

रास्ते में ब्राहमण सोचता हुआ जा रहा था कि "दो पैसो से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन नहीं आएगा प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया ? प्रभु की यह कैसी लीला है "?

ऐसा विचार करता हुआ वह
चला जा रहा था उसकी दृष्टि एक मछुवारे पर पड़ी, उसने देखा कि मछुवारे के जाल में एक
मछली फँसी है, और वह छूटने के लिए तड़प रही है ।

ब्राहमण को उस मछली पर दया आ गयी। उसने सोचा"इन दो पैसो से पेट की आग तो बुझेगी नहीं।क्यों? न इस मछली के प्राण ही बचा लिए जाये"।

यह सोचकर उसने दो पैसो में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरा और मछली को नदी में छोड़ने चल पड़ा।

तभी मछली के मुख से कुछ निकला।उस निर्धन ब्राह्मण ने देखा ,वह वही माणिक था जो उसने घड़े में छुपाया था।

ब्राहमण प्रसन्नता के मारे चिल्लाने लगा “मिल गया, मिल गया ”..!!!

तभी भाग्यवश वह लुटेरा भी वहाँ से गुजर रहा था जिसने ब्राहमण की मुद्राये लूटी थी।

उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना “ मिल गया मिल गया ” लुटेरा भयभीत हो गया। उसने सोंचा कि ब्राहमण उसे पहचान गया है और इसीलिए चिल्ला रहा है, अब जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा।

इससे डरकर वह ब्राहमण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा। और उससे लूटी हुई सारी मुद्राये भी उसे वापस कर दी।

यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके।

अर्जुन बोले,प्रभु यह कैसी लीला है? जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक नहीं कर सका वह आपके दो पैसो ने कर दिखाया।

श्री कृष्णा ने कहा “अर्जुन यह अपनी सोंच का अंतर है, जब तुमने उस निर्धन को थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक दिया तब उसने मात्र अपने सुख के विषय में सोचा। किन्तु जब मैनें उसको दो पैसे दिए। तब उसने दूसरे के दुःख के विषय में सोचा। इसलिए हे अर्जुन-सत्य तो यह है कि, जब आप दूसरो के दुःख के विषय में सोंचते है, जब आप दूसरे का भला कर रहे होते हैं, तब आप ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं, और तब ईश्वर आपके साथ होते हैं।

जय श्री कृष्ण।

Tuesday, January 24, 2017

सुभाष चन्द्र बोस जयंती विशेष.

सुभाष चन्द्र बोस जयंती विशेष - नेताजी के जीवन से जुड़े रोचक प्रेरक प्रसंग | Inspirational Stories of Subhash Chandra Bose in Hindi - Gajab Khabar
सुभाष चन्द्र बोस के बारे में जितना जाना जाए ,जितना पढ़ा जाए वो कम लगता है बचपन से हे प्रतिभा के धनी सुभाष Simple Living and High Thinking यानी सादा जीवन उच्च विचार की विचारधारा को मानते थे | गरीबो और मित्रो की मदद को वे सदा तत्पर रहते थे | पिता की इच्छा पुरी करने के लिए उन्होंने ICS परीक्षा भी पास की | 23 जनवरी 1897 को ओडिशा के कटक शहर में जन्मे नेताजी के जन्म दिवस पर आपको हम उनके जीवन से जुड़े रोचक पहलुओं से रुबुरु करवाते है |

स्कूल ड्रेस पहनने की खुशी

सुभाष जब पांच साल एक थे जब उन्हें बताया गया कि अब वो भी अपने बड़े भाई-बहनों के साथ स्कूल जायेंगे | 14 भाई-बहन में उनका नम्बर 9वा था | सबसे ज्यादा खुश इसलिए थे कि उनके लिए भी नई स्कूल ड्रेस बनेगी और वे स्कूल जायेंगे | उनका बचपन से ही पढाई में मन लगता था | चौथी कक्षा में वे मिशनरी स्कूल को छोड़ रावेजा कॉलेजिएट स्कूल चले गये | तब उन्हें उनकी मातृभाषा बंगाली बिलकुल नही आती थी और उन्हें जब पहली बार बंगाली में लेख लिखने को मिला तो उनकी गलतियों को उनके शिक्षक ने पुरी कक्षा में सुनाया | उन्होंने इस बेइज्जती का बदला वार्षिक परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर लिया |

मैट्रिक के परीक्षा में कलकत्ता में टॉप अंक अर्जित किये | स्नातक की परीक्षा उन्होंने फिलोस्पी विषय में प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता से पास किया | माँ बाप का सपना पूरा करने के लिए ICS (इंडियन सिविल सर्विसेज) की परीक्षा पास कर 1919 में लन्दन गये | सुभाष नने ICS की परीक्षा में अंग्रेजी में सबसे ज्यादा नम्बर अर्जित किये और आल ओवर चौथा स्थान प्राप्त किया | यह उस समय के लिए बड़ी बात तजी क्योंकि भारतीयों के लिए ICS परीक्षा में भाग लेना आम नही था |

देश के लिए छोडी नौकरी

वैसे तो नेताजी की देशभक्ति के बारे में सभी जानते है पर उनमे यह भावना युवाकाल से ही थी | ICS की परीक्षा में पास होने के बाद वो दो वर्ष की ट्रेनिग ले रहे थे | एक दिन उनके टेस्ट पेपर में अंग्रेजी से बंगला में अनूवाद करने को मिला उसमे वाक्य का मतलब था “भारतीय जनता आमतौर पर बेईमान होती है” जैसे ही सुभाष ने वाक्य पढ़ा | वे गुस्सा होते हुए अनुवाद छोडकर इस वाक्य का विरोध करने लगे |

ट्रेनिंग के देखरेख करने वाले अंग्रेज अफसर से उन्होंने कहा “यह तो झूठा कलंक लगाना है हम भारतीय होकर ऐसा अपमान सहन नही कर सकते ” | अफसर उनकी देशभक्ति देखते हुए खुश हुआ और बोला “जो भी परीक्षा में पास करने के लिए आपको वाक्य का अनुवाद करना ही होगा “| इस पर नेताजी ने जवाब दिया “अगर ऐसी बात है तो नही चाहिए मुझे ऐसी नौकरी | अपने देश के मुह पर कालिख पोतकर नौकरी करने से अच्छा भूखा मरना पसंद करुना और वे परीक्षा को बीच में ही छोडकर चले गये |

दोस्तों के लिए कुछ भी करने को रहते थे तैयार

एकबार उनका दोस्त चेचक से ग्रसित हो गया | वह बंगाल के किसी छोटे जाति से आता था | उसके होस्टल के साथी उसे अकेला छोड़ गये | नेताजी को इस बात का पता चला तो वे फौरन उसके पास गये और इसका इलाज शुरू करवाया | वे प्रतिदिन उसे देखने जाते | उनके पिता को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने नेताजी को कहा “ध्यान रखना ये बीमारी तुम्हे भी लग सकती है ”

तो नेताजी ने बड़े प्रेम से जवाब दिया “पिताजी छुत के इस रोग के बारे में आपकी बात तो सही है पर मै अपने निर्धन और बेसहारा मित्र की मदद नही करूंगा तो और कौन करेगा ? वह स्वस्थ कैसे होगा ? आखिर संकट में ही तो मित्र की पहचान होती है ” इस पर उनके पिता सुभाष से काफी प्रसन्न और प्रभावित हुए  | उन्होंने कहा “मुझे गर्व है कि तुम मेरे पुत्र हो “

Friday, January 13, 2017

क्या है मकर संक्रांति ?

सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करना ‘मकर संक्रांन्ति’ कहलाता है। इसी दिन से सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं। शास्त्रों में उत्तरायण के समय को देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन को देवताओं की रात कहा गया है। इस तरह मकर संक्रान्ति एक तरह से देवताओं की सुबह होती है। इस दिन स्नान, दान, जप, तप, श्राद्ध तथा अनुष्ठान का बहुत महत्व है। कहते हैं कि इस मौके पर किया गया दान सौ गुना होकर वापस फलीभूत होता है। मकर संक्रान्ति के दिन घी तिल कंबल खिचड़ी दान का खास महत्व है। पूरे देश का त्यौहार मकर संक्रांति।

ऐसी मान्यता है कि गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर तीर्थ राज प्रयाग में ‘मकर संक्राति’ पर्व के दिन सभी देवी-देवता अपना स्वरूप बदल कर स्नान के लिए आते हैं। इस मौके पर इलाहाबाद (प्रयाग) के संगम स्थल पर हर साल लगभग एक मास तक माघ मेला लगता है, जहां लोग कल्पवास भी करते हैं। बारह साल में एक बार कुंभ मेला लगता है, यह भी लगभग एक महीने तक रहता है। इसी तरह 6 बरसों में अर्धकुंभ मेला भी लगता है। मकर सक्रान्ति पर्व हर साल 14 जनवरी को पड़ता है। एक और प्रसिद्ध मेला बंगाल में मकर संक्रांन्ति पर्व पर गंगा सागर में लगता है।

गंगा सागर के मेले के पीछे पौराणिक कथा है, कि आज के दिन गंगा जी स्वर्ग से उतरकर भागीरथ के पीछे-पीछे चल कर कपिल मुनि के आश्रम में जाकर सागर में मिल गईं। गंगा जी के पावन जल से ही राजा सगर के 60 हजार शापग्रस्त पुत्रों का उद्धार हुआ था। इसी घटना की स्मृति में यह तीर्थ का नाम गंगा सागर के नाम से विख्यात हुआ और हर साल 14 जनवरी को गंगा सागर में मेले का आयोजन होने लगा।

महाराष्ट्र में ऐसा माना जाता है कि मकर संक्रांन्ति से सूर्य की गति तिल-तिल बढ़ने लगती है, इसलिये इस दिन तिल के बने मिष्ठान बनाकर एक-दूसरे को बांटने की परंपरा है। महाराष्ट्र और गुजरात में मकर संक्रांन्ति पर्व पर अनेक खेल प्रतियोगिताओं का भी आयोजन होता है।

पंजाब, जम्मू-कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश में लोहड़ी के नाम से मकर सक्रान्ति पर्व मनाया जाता है। एक प्रचालित लोक कथा के अनुसार मकर संक्रान्ति के दिन कंस ने श्री कृष्ण को मारने के लिए लोहिता नाम की राक्षसी को गोकुल भेजा था। जिसे श्री कृष्ण ने खेल-खेल में ही मार डाला था। उसी घटना के फलस्वरूप लोहड़ी पर्व मनाया जाता है। सिंधी समाज भी मकर संक्रांन्ति के एक दिन पूर्व इसे ‘लाल लोही’ के रूप में मनाता है। दक्षिण भारत में मकर संक्रान्ति को पोंगल के रूप में मनाया जाता है। इस दिन तिल, चावल, दाल की खिचड़ी बनायी जाती है। इस मौके पर बैलों की लड़ाई होती है, इसे मत्तु पोंगल भी कहते है। तमिलनाडु में तमिल पंचांग का नया साल पोंगल ही होता है।

राजस्थान की प्रथा के अनुसार इस दिन महिलाएं तिल के लड्डू तथा चूरमें के लड्डू बनाकर सास-ससुर या दूसरे बड़े-बुजुर्गों का देती हैं और उनका आशीर्वाद लेती हैं। राजस्थान-हरियाणा में मुख्य रूप से दाल, बाटी, चूरमा, खीर-पूरी का भगवान को भोग लगाकर भोजन किया जाता है। कई जगहों पर विशाल दंगल का आयोजन भी किया जाता है। राजस्थान की राजधानी जयपुर में पतंग प्रतियोगिताएं भी होती हैं । इसके अलावा दक्षिण बिहार के मदार क्षेत्र में भी एक मेला लगता है।

ग्रंथों में है इसके महत्व का वर्णन मकर संक्रांति के त्यौहार का वर्णन जाने-माने ग्रंथों में भी मिलता है।

माघे मासि महादेव यो दद्यात् घृतकम्बलम् ।
स भुक्त्वा सकलान भोगान् अन्ते मोक्षं च विन्दति।।
माघ मासे तिलान यस्तु ब्राहमणेभ्यः प्रयच्छति।
सर्व सत्त्व समाकीर्णं नरकं स न पश्यति ।।
(महाभारत अनुशासन पर्व)

मकर संक्रांन्ति के दिन गंगा स्नान और गंगा तट पर दान की खास महिमा है। तीर्थ राज प्रयाग में मकर संक्रांन्ति मेला तो सारी दुनिया में विख्यात है। इसका वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी श्री रामचरित मानस में लिखा है:-

माघ मकर गत रवि जब होई।
तीरथ पतिहिं आव सब कोई।।
देव दनुज किंनर नर श्रेनी ।
सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनी।।

इस दिन सूर्य अपनी कक्षाओं में बदलाव कर दक्षिणायन से उत्तर तरफ होकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं। जिस राशि में सूर्य की कक्षा का परिवर्तन होता है, उसे ‘संक्रमण’ या ‘संक्रांन्ति’ कहा जाता है। मकर संक्रांन्ति से सूर्य उत्तरायण हो जाने का मतलब गरम मौसम की शुरुआत की तरह देखा जाता है।

जय श्री कृष्ण जय श्री राम.

संसार में सभी कुछ में ईश्वर बसा हुआ है।

एक धनी सेठ थे। बड़े उदार और परपकारी थे।  जो भी संत उनके शहर में आता था। वे उनकी सेवा-सुश्रुता करने से पीछे नहीं हटते थे। सेठ जी के दान-पुण्य की ख्याति दूर दूर तक फैल गई थी। उनके कार्यों की जब चारों और प्रशंसा होने लगी तो सेठ जी को अपने सद्गुणों और प्रतिष्ठा का धीरे धीरे अहंकार भी होने लगा। एक बार एक संत उनके शहर में पधारे। सेठ जी ने उन्हें अपने आवास पर पधार कर कृतार्थ करने की प्रार्थना करी।  संत निश्चित समय पर सेठ जी के बंगले पर पहुंच गए। सेठ जी संत को अपना भव्य बंगला दिखाने लगे। संत अलमस्त थे परन्तु सेठ जी अपने बड़प्पन की डींगे हाकनें में व्यस्त थे। आखिर में संत ने सेठ जी को उपदेश देने का मन बनाया। संत ने सेठ जी से दिवार पर टंगे हुए मानचित्र पर ईशारा  करते हुए पूछा ,”सेठ जी इस मानचित्र में आपका शहर कौन सा हैं?” सेठ ने मानचित्र पर एक बिंदु पर उंगली टिकाई। संत ने हैरानी करते हुए कहा,”इतने बड़े मानचित्र पर तुम्हारा शहर बस इतना सा ही हैं? क्या तुम इस नक़्शे पर अपना बंगला दिखा सकते हो?” सेठ ने उत्तर दिया,”इतने बड़े नक़्शे में मेरा बंगला कहां दिखेगा? वह तो ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है।” संत ने पूछा, “सेठ जी तो फिर इस धन-सम्पदा का इतना अभिमान किस बात का?” शर्म के मारे सेठ जी का सर झुक गया। वे समझ गए कि दुनिया और ब्रह्माण्ड की बात क्या करना, इस छोटे से नक़्शे में उनका नामो निशान तक नहीं है। अपनी अज्ञानता के कारण वह बेवजह स्वयं को अति महत्वपूर्ण मान अपने पर अभिमान कर रहे हैं। आज मनुष्य तुच्छ सांसारिक साधनों को एकत्र कर अभिमानी बन जाता हैं। वह भूल जाता है कि इस जगत में जो कुछ भी दिखनेवाला है उस सब में ईश्वर बसा हुआ हैं।

यजुर्वेद 40/1 में इसी सन्देश को सुन्दर शब्दों में बखान करते हुए लिखा है कि  इस संसार में जो कुछ भी दिखनेवाला हैं। यह सभी कुछ ईश्वर से व्याप्त है अर्थात ईश्वर सब में बसा हुआ है। अत: इस संसार के समस्त ऐश्वर्य और धन आदि को तो त्याग की इच्छा से भोग कर। किसी दूसरे के धन की कभी इच्छा मत कर। मनुष्य जो कुछ भोगता है उससे उसकी शारीरिक, आत्मिक और मानसिक पुष्टि हो। वह ईश्वर के कार्यों और ईश्वर की सेवा के लिए हो। यही इस संसार में भोग करने का सर्व श्रेष्ठ नियम है।

क्या वेदों में जादू-टोना आदि अन्धविश्वास का वर्णन हैं?

वेदों के विषय में एक भ्रान्ति प्रचलित हो गई है कि वेदों में जादू-टोने आदि अन्धविश्वास का वर्णन हैं। इसका मुख्य कारण सायणाचार्य, महीधर आदि द्वारा वेदों के कुछ प्रकरणों में जादू-टोना को अन्धविश्वास के रूप में अपने भाष्य में वर्णन हैं। विदेशी लेखकों जैसे ब्लूमफील्ड[i] आदि भी इस मान्यता का समर्थन करते दीखते हैं। अनेक भारतीय लेखक भी उन्हीं का अनुसरण कर इसी मान्यता का समर्थन करते प्रतीत होते हैं[ii]। वैदिक विद्वान श्री प्रियरत्न आर्ष[iii] के अनुसार जादू शब्द वेद के “यातु” शब्द का रूपान्तर या अपभ्रश है। यातु शब्द का अर्थ निघण्टु 2/19 के अनुसार हिंसा है। अथर्ववेद 8/8/6/18 में जादू, इंद्रजाल आदि का प्रयोग शत्रु सेना को नष्ट करने के लिए हुआ हैं जो पूर्ण रूप से वैज्ञानिक एवं सत्य है। जबकि तांत्रिक ग्रंथों में जादू-टोने के नाम पर कल्पित और अवैज्ञानिक वर्णन मिलते हैं। इस विषय में रामदास गौड़ की हिंदुत्व नामक पुस्तक में लिखते है कि “तंत्रोक्त, मरणोच्चाटन, वशीकरण, अभिचारिक क्रिया का प्रसंग अथर्ववेद संहिता में पाया जाता है सही, किन्तु तन्त्र के अन्यान्य प्रधान लक्षण नहीं मिलते। ऐसी दशा में तंत्र को हम अथर्व संहितामूलक नहीं कह सकते”। अथर्ववेद के विभिन्न मन्त्रों में शारीरिक और मानसिक रोगों का उपचार , शत्रु घात,अपने अंदर के रोगों और दोषों को हटाकर स्वास्थ्य एवं अच्छे गुणों को ग्रहण करने का सन्देश दिया गया हैं। इन मन्त्रों के मूल सन्देश को न समझ पाने के कारण इस भ्रान्ति का प्रचलन हुआ।

हम यहाँ अथर्ववेद के कुछ सूक्तो एवं मंत्रो पर विचार कर यह सिद्ध करेगे की वेदों में जादू टोना या अश्लीलता नहीं है। अथर्ववेद के सूक्तों में मणि शब्द का प्रयोग कई स्थानों पर हुआ है। सायण आदि भाष्यकारों ने मणि का अर्थ वह पदार्थ किया हैं जिसे शरीर के किसी अंग पर बांधकर मंत्र का पाठ करने से अभिष्ट फल के प्राप्ति अथवा किसी अनिष्ट का निवारण किया जादू टोने से किया जा सकता हैं। मणि अथवा रत्न शब्द किसी भी अत्यंत उपयोगी अथवा मूल्यवान वस्तु के लिए प्रयोग हुआ हैं। उस वस्तु को अर्थात मणि को शरीर से बांधने का अर्थ है उसे वश में कर लेना, उसका उपयोग लेना, उसका सेवन करना आदि।

कुछ मणि सूक्त इस प्रकार हैं

1. पर्णमणि- अथर्ववेद 3/5 सूक्त का अर्थ करते हुए सायण आचार्य लिखते हैं “जो व्यक्ति तेज, बल, आयु और धन आदि को प्राप्त करना चाहता हो, वह पर्ण अर्थात दाक के वृक्ष की बनी हुई मणि को त्रयोदशी के दिन दही और सहद में भिगोकर तीन दिन रखे और चौथे दिन निकलकर उस मणि को इस सूक्त के मंत्रो का पाठ करके बांध ले और दही और शहद को खा ले। इसी सूक्त में सायण लिखते हैं की यदि किसी राजा का राज्य छीन जाये तो काम्पील नमक वृक्ष की टहनियों से चावल पकाकर मंत्र का पाठ कर ग्रहण करे तो उसे राज्य की प्राप्ति हो जाएगी।”

सायण का अर्थ अगर इतना कारगर होता तो भारत के लोग जो की वेदों के ज्ञान से परिचित थे कभी भी पराधीन नहीं बनते, अगर बनते तो जादू टोना करके अपने आपको फिर से स्वतंत्र कर लेते। पर्ण का अर्थ होता हैं पत्र और मणि का बहुमूल्य इससे पर्णमणि का अर्थ हुआ बहुमूल्य पत्र। अगर कोई व्यक्ति राज्य का राजा बनना चाहता है तो राज्य के नागरिको का समर्थन (vote or veto) जो की बहुमूल्य है, उसे प्राप्त हो जाये तभी वह राजा बन सकता हैं। इसी सूक्त के दुसरे मंत्र में प्रार्थना हैं की राज्य के क्षत्रियो को मेरे अनुकूल कर, तीसरे मंत्र में राज्य के देव अर्थात विद्वानों को अनुकूल कर, छठे में राज्य के धीवर, रथकार लोग, कारीगर लोग, मनीषी लोग हैं उनके मेरे अनुकूल बनाने की प्रार्थना करी गई हैं। इस प्रकार इस सूक्त में एक अभ्यर्थी की राष्ट्र के नेता बनने की प्रार्थना काव्यमय शैली में पर्ण-मणि द्वारा व्यक्त करी गयी हैं। जादू टोने का तो कहीं पर नामो निशान ही नहीं है।

2. जांगिडमणि

अथर्ववेद 2/4 सूक्त तथा 19/34-35 सूक्तों में जांगिडमणि की महिमा बताते हुए सायण लिखते हैं “जो व्यक्ति कृत्या (हिंसा) से बचना चाहता हो, अपनी रक्षा चाहता हो तथा विघ्नों की शांति चाहता हो, वह जांगिड पेड़ से बनी विशेष प्रकार की मणि को शण (सन) के धागे में पिरोकर मणि बांधने की विधि से इस सूक्त के मंत्रो को पड़कर बांध ले।” उसका मंतव्य पूर्ण हो जायेगा।

अथर्ववेद के इन सूक्तों का ध्यान से विश्लेषण करने पर पता चलते हैं की जांगिड किसी प्रकार की मणि नहीं हैं, जिसको बांधने से हिंसा से रक्षा हो सके अपितु एक औषधि है जो भूमि से उत्पन्न होने वाली वनस्पति हैं , जो रोगों का निवारण करने वाली है। (अथर्व 19/34/9) रोगों की चिकित्सा करने वाली हैं (अथर्व 19/35/1,अथर्व 19/35/5, अथर्व 2/4/3) इस सूक्त में जो राक्षसों को मारने की बात कहीं गयी हैं। वो रोगजनक कृमिरूप (Microbes) शत्रु हैं जो रोगी बनाते हैं।

यहाँ भी कहीं जादू टोने का नहीं अपितु आयुर्वेद का वर्णन हैं

3. शंखमणि

अथर्ववेद 4/10 सूक्त में शंखमणि का वर्णन हैं. सायण के अनुसार उपनयन संस्कार के पश्चात बालक की दीर्घ आयु के लिए शंख को इस सूक्त के मंत्रो के साथ बांध दे तथा यह भी लिखा हैं बाढ़ आ जाने पर रक्षा करने के लिए भी शंख बांध लेने से डूबने का भय दूर हो जाता हैं।

सायण का मंतव्य विधान रूप से असंभव हैं अगर शंख बांधने से आयु बढ़ सकती हैं तो सायण ने स्वयं अपनी आयु क्यों नहीं बढाकर 100 वर्ष से ऊपर कर ली होती। अगर शंख बांधने से डूबने का खतरा नहीं रहता, तब तो किसी की भी डूबने से मृत्यु ही नहीं होती। सत्य यह है शंख को अथर्ववेद 4/10/3 में विश्व भेसज अर्थात अनेक प्रकार के रोगों को दूर करने वाला बताया गया है। अथर्ववेद 4/10/1 में रोगों को दुर्बल करने वाला बताया गया है। अथर्ववेद 4/10/2 में शंख को कृमि राक्षस को मरने वाला बताया गया है। अथर्ववेद 4/10/4 में शंख को आयु बढाने वाली औषधि बताया गया है। आयुर्वेद में शंख को बारीक़ पिस कर शंख भस्म बनाए का वर्णन हैं जिससे अनेक रोगों से मुक्ति मिलती हैं।

4. शतवारमणि

अथर्ववेद 19/36 सूक्त का भाष्य करते हुए सायण लिखते हैं “जिस व्यक्ति की संताने मर जाती हो और इस प्रकार उसके कुल का क्षय हो रहा हो , वह इस सूक्त के मंत्रो को पढकर शतवारमणि को बांध ले तो उसका यह संकट दूर हो जाता है। ”

शतवारमणि कोई जादू टोने करने वाली वस्तु नहीं हैं अपितु एक औषधी है जिससे शरीर को बल मिलता है और रोगों का नाश होता हैं।

ऊपर की पंक्तियो में हमने चार मणियो की समीक्षा पाठको के सम्मुख दी गई है। इनमे किसी में भी जादू टोने का उल्लेख नहीं है। प्रत्युत चार गुणकारी औषधियो का वर्णन हैं। जिनसे रोगनिवारण में बहुत उपयोगी होने के कारण मूल्यवान मणि कह दिया गया हैं।

5. कृत्या और अभिचार

अथर्ववेद में बहुत से स्थलों (19/34/4,2/4/6,8/5/2) पर कृत्या-अभिचार के प्रयागों का वर्णन मिलता है। सायण के भाष्य को पढ़ कर लगता हैं की अभिचार शब्द का अर्थ हैं किसी शत्रु को पीड़ा पहुचाने के लिए, उसे रोगी बनाने के लिए अथवा उसकी मृत्यु के लिए कोई विशेष हवन अथवा कर्म काण्ड का करना। कृत्या का अर्थ हैं ऐसे यज्ञ आदि अनुष्ठान द्वारा किसी की हिंसा कर उसे मार डालना।

अभिचार का अर्थ बनता हैं विरोधी द्वारा शास्त्रों से प्रहार अथवा आक्रमण तथा कृत्या का अर्थ बनता हैं उस प्रहार से हुए घाव बनता हैं। मणि सूक्त की औषधियो से उस घाव की पीड़ा को दूर किया जा सकता हैं। यही इन मन्त्रों का मूल सन्देश हैं।

इस प्रकार जहाँ भी वेदों में मणि आदि का उल्लेख हैं। वह किसी भी प्रकार जादू टोने से सम्बंधित नहीं हैं। आयुर्वेद के साथ अथर्ववेद का सम्बन्ध कर के विभिन्न औषधियो को अगर देखे तो मणि शब्द से औषधी का अर्थ स्पष्ट हो जाता हैं।

अथर्ववेद को विनियोगो की छाया से मुक्त कर स्वंत्र रूप से देखे तो वेद मंत्र बड़ी सुंदर और जीवन उपयोगी शिक्षा देने वाले दिखने लगेगे और अथर्ववेद में जादू टोना होने के मिथक की भ्रान्ति दूर होगी।

[i] Hymns of the Atharva Veda translated by Maurice Bloomfield Sacred Books of the East, Vol. 42,1897

[ii] The Atharva Veda is the chief source of our knowledge of popular magic, hypnotism, black magic etc. P.6 Hinduism: Analytical Study by Amulya Mohapatra, Bijaya Mohapatra

[iii] अथर्ववेदीय मन्त्रविद्या पृष्ठ 2