Sunday, September 19, 2021

हरयाणे का पहला गुरुकुल।

गुरुकुल कुरुक्षेत्र। हरयाणे का पहला गुरुकुल 
संस्थापक :- लाला ज्योतिप्रसाद जी, 
लेखक :- डॉ सत्यकेतु विद्यालंकार 
पुस्तक :- आर्य समाज का इतिहास -3
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा 
          गुरुकुल कांगड़ी की शिक्षा प्रणाली और वहाँ के धार्मिक व सदाचारमय जीवन से आकृष्ट होकर थानेसर ( हरयाणा ) के सुप्रसिद्ध रईस लाला ज्योति प्रसाद के मन में यह शुभ संकल्प उत्पन्न हुआ , कि वह भी गुरुकुल काँगड़ी की एक शाखा अपने प्रदेश में स्थापित कराएँ । उन्होंने अपना विचार महात्मा मुंशीराम ( स्वामी श्रद्धानन्द ) के सम्मुख रखा , जो उस समय गुरुकुल काँगड़ी के मुख्याधिष्ठाता थे । महात्माजी ने लाला ज्योति प्रसाद के संकल्प का हृदय से स्वागत किया , जिसके परिणामस्वरूप १३ एप्रिल , सन् १९१२ के दिन गुरुकुल कुरुक्षेत्र की स्थापना हुई । गुरुकुल के लिए लाला ज्योति प्रसाद ने न केवल कन्धला कलाँ गाँव की १०४८ बीघा जमीन ही दान रूप में प्रदान कर दी , अपितु कार्य प्रारम्भ करने के लिए दस हजार रुपये भी दिये । गुरुकुल कांगड़ी के इतिहास में जो स्थान मुंशी अमनसिंह का है , गुरुकुल कुरुक्षेत्र में वही लाला ज्योति प्रसाद का है । उनके सात्विक दान के कारण ही कुरुक्षेत्र गुरुकुल की स्थापना सम्भव हुई । 
       संवत् १९६६ की वैशाखी के पुण्य पर्व ( १३ एप्रिल , सन् १९१२ ) के दिन गुरुकुल कुरुक्षेत्र की आधारशिला रखते हुए महात्मा मुंशीराम ने ये शब्द कहे थे – “ जिस धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि में आज से लगभग ५००० वर्ष पूर्व भारत के विनाश का बीज बोया गया था , उसी भूमि में आज यह भारत की उन्नति का बीज बोया जा रहा है । मंगलमय भगवान् करे कि इस ज्ञानतरु से ऐसे सुगन्धित फूल उत्पन्न हों जो भारत भूमि को फिर से अपनी पुरानी उन्नतावस्था में लाने में सहायक हों । " 
       लाला ज्योति प्रसाद गुरुकुल कुरुक्षेत्र को उन्नति के पथ पर अग्रसर करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे । इस कार्य में लाला भगीरथमल उनके परम सहायक थे । इन आर्य सज्जनों के प्रयत्न से कुरुक्षेत्र में स्थापित गुरुकुल रूपी पौदे की जड़ें भली - भाँति जम गई । पर अपने लगाये हुए पौदे को फलता - फूलता देखने के लिए लाला ज्योति प्रसाद चिरकाल तक जीवित नहीं रहे । सन् १९१४ में उनकी मृत्यु हो गई , और कुछ समय पश्चात् लाला भगीरथमल भी इस असार संसार से विदा हो गए । गुरुकुल के इन आदि व्यवस्थापकों के दिवंगत हो जाने पर लाला नौबत राय ने मुख्याधिष्ठाता के रूप में इस संस्था का कार्यभार सँभाला , और पण्डित विष्णुमित्र को आचार्य के पद पर नियुक्त किया गया । इन दोनों आर्य सज्जनों ने गुरुकुल की उन्नति एवं व्यवस्था पर बहुत ध्यान दिया , जिसके परिणामस्वरूप यह संस्था निरन्तर उन्नति करती गई । धीरे - धीरे वहाँ आठ कक्षाएँ हो गईं , जिनमें वही पढ़ाई होती थी जो गुरुकुल कांगड़ी द्वारा निर्धारित की जाती थी । 
        सन् १९२३ में गुरुकुल कुरुक्षेत्र से ६ विद्यार्थी आठवीं श्रेणी की वार्षिक परीक्षा उत्तीर्ण कर नवीं कक्षा की पढ़ाई के लिए गुरुकुल काँगड़ी गये और तब से प्रति वर्ष आठवीं कक्षा को उत्तीर्ण करने के पश्चात् कुरुक्षेत्र के विद्यार्थी काँगड़ी जाने लगे । सन् १९४१ तक यही क्रम चलता रहा । गुरुकुल कुरुक्षेत्र में केवल आठ कक्षाएँ थीं , जिनमें गुरुकुल काँगड़ी की पाठविधि का अनुसरण किया जाता था , और ब्रह्मचारियों के रहन - सहन , खान - पान , दिनचर्या आदि के सम्बन्ध में वही व्यवस्थाएं थीं जो गुरुकुल कांगड़ी द्वारा निर्धारित थीं । गुरुकुल काँगड़ी के समान गुरुकुल कुरुक्षेत्र भी आर्य प्रतिनिधि सभा , पंजाब के अधीन था , और उसकी सब सम्पत्ति इसी सभा के नाम रजिस्टर्ड थी । पर प्रबन्ध और सुव्यवस्था को दृष्टि में रखकर सन् १९१६ में इसके लिए एक पृथक् स्थानीय कमेटी का भी निर्माण कर दिया गया था । 
        सन् १९४२ में गुरुकुरु काँगड़ी के सुयोग्य स्नातक पण्डित प्रियव्रत विद्यालंकार गुरुकुल कुरुक्षेत्र के मुख्याधिष्ठाता और आचार्य के पदों पर नियुक्त हुए । चिर काल ( चौथाई सदी के लगभग ) तक इन पदों पर रहते हुए पण्डित प्रियव्रत ने गुरुकुल कुरुक्षेत्र को बहुत उन्नत किया । उसकी शिक्षा को आठवीं कक्षा से बढ़ाकर दसवीं तक कर दिया गया , और दस वर्ष तक वहाँ शिक्षा प्राप्त कर विद्यार्थी गुरुकुल काँगड़ी की अधिकारी परीक्षा उत्तीर्ण कर वहाँ के महाविद्यालय विभाग में प्रवेश पाने लगे । जबकि गुरुकुल मुलतान में नवीं दसवीं कक्षाओं की पढ़ाई को अत्यन्त व्ययसाध्य समझ कर बन्द कर दिया गया था , पण्डित प्रियव्रत के पुरुषार्थ से कुरुक्षेत्र गुरुकुल में उनका प्रारम्भ किया गया और इस संस्था ने काँगड़ी गुरुकुल की प्रधान शाखा की स्थिति प्राप्त कर ली । पण्डित प्रियव्रत के प्रयत्न से गुरुकुल कुरुक्षेत्र के बाह्य कलेवर में भी बहुत वृद्धि हुई । बहुत - सी नयी इमारतें बनीं , पुष्पवाटिका , बाग तथा खेती पर समुचित ध्यान दिया गया । प्रचुर मात्रा में जल की प्राप्ति के लिए ट्यूब वैल लगवाया गया , और ब्रह्मचारियों के छात्रावास , भोजन भण्डार व स्नानागार आदि को सुव्यवस्थित एवं आकर्षक रूप प्रदान किया गया । गुरुकुल के लिए प्रभूत मात्रा में धन एकत्र करने में पण्डित प्रियव्रत ने विशेष तत्परता प्रदर्शित की , और उनके पुरुषार्थ के कारण इस शिक्षण - संस्था ने अत्यन्त व्यवस्थित रूप प्राप्त कर लिया । प्रियव्रतजी के पश्चात् श्री विश्वनाथ विद्यालंकार , श्री राजेन्द्रपाल और श्री सत्यव्रत आदि अनेक आर्य विद्वानों ने गुरुकुल कुरुक्षेत्र के कार्यभार को सँभाला , पर किसी एक महानुभाव के पर्याप्त समय तक पदाधिकारी न रहने के कारण वहाँ के कार्य में स्थायित्व नहीं आ सका । 
      सन् १९७६ में जब आर्य प्रतिनिधि सभा , पंजाब का त्रिविभाजन हुआ , और हरयाणा के लिए पृथक् आर्य प्रतिनिधि सभा का संगठन कर लिया गया , तो गुरुकुल कुरुक्षेत्र हरयाणा की सभा के अधीन हो गया । इस समय यह गुरुकुल आर्य प्रतिनिधि सभा , हरयाणा के तत्त्वावधान में उन्नति के पथ पर निरन्तर अग्रसर हो रहा है । उसके आचार्य श्री हरिदत्त शास्त्री हैं , और श्री साधुराम गुप्त ने मुख्याधिष्ठाता के रूप में उसका कार्यभार संभाला हुआ है । विद्यार्थियों की संख्या वहाँ तीन सौ के लगभग है , और अध्यापक व अन्य कर्मचारी ५० हैं । इस समय भी यह गुरुकुल , गुरुकुल कांगड़ी विश्व विद्यालय के साथ सम्बद्ध है , और इसी विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित पाठविधि का वहाँ अनुसरण किया जाता है । 
       कुरुक्षेत्र गुरुकुल में आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त कर जो विद्यार्थी बाद में गुरुकुल काँगड़ी में प्रविष्ट हुए , उनमें पण्डित सत्यदेव वेदालंकार का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । वह एक अत्यन्त सफल व समृद्ध उद्योगपति हैं , और लक्ष्मी की उन पर विशेष कृपा है । गुरुकुल कुरुक्षेत्र से उन्हें अत्यधिक लगाव है , और उसकी चौमुखी उन्नति के लिए वह सब प्रकार से सहायता करने को उद्यत हैं । उनकी इच्छा है , कि इस संस्था के छात्रावास में एक हजार विद्यार्थियों के निवास की व्यवस्था हो , और छात्रावास का स्तर इतना ऊँचा हो कि उसमें निवास करने वाले विद्यार्थियों को वे सब सुविधाएँ उपलब्ध हों जो गुरुकुलीय शिक्षा के लिए आवश्यक हैं । इसी दृष्टि से उन्होंने एक लाख से भी अधिक रुपये गुरुकुल कुरुक्षेत्र को प्रदान करने का निश्चय किया है । वह चाहते हैं कि शुरू में पाँच सौ विद्यार्थियों के निवास की समुचित व्यवस्था हो जाए , और धीरे - धीरे यह संख्या बढ़ कर एक हजार तक पहुँच जाए । इसके लिए वह आवश्यक धनराशि प्रदान करने को उद्यत हैं । यह आशा की जानी चाहिये कि गुरुकुल कुरुक्षेत्र के अधिकारी व कार्यकर्ता पण्डित सत्यदेव के गुरुकुल - प्रेम से पूरा - पूरा लाभ उठाएँगे और अपनी संस्था को विकसित करने के इस सुवर्णीय अवसर को हाथ से नहीं जाने देंगे । 
         गुरुकुल कुरुक्षेत्र के पास एक हजार बीघे से भी अधिक भूमि है । खेती और बागवानी द्वारा वहाँ इतना अन्न , सब्जी और फल पैदा किये जा सकते हैं , जो विद्यार्थियों के लिए पर्याप्त हों । गुरुकुल की अपनी गौशाला भी है । हरयाणा की गौवें दूध के लिए भारत भर में प्रसिद्ध हैं । दूध , घी की आवश्यकता भी गुरुकुल द्वारा स्वयं ही पूरी की जा सकती है । कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय गुरुकुल के साथ लगा हुआ है , जिसके कारण पुस्तकालय आदि की भी वहाँ सब सुविधाएँ हैं । धार्मिक दृष्टि से भी कुरुक्षेत्र का बहुत महत्त्व है । वह एक पवित्र तीर्थ है , और धर्म प्राण हिन्दुओं के लिए अपना विशेष आकर्षण रखता है । वस्तुतः , गुरुकुल कुरुक्षेत्र के पास वे सब साधन व परिस्थितियाँ विद्यमान हैं , जो किसी शिक्षण - संस्था के उत्कर्ष के लिए आवश्यक हैं । पण्डित सत्यदेव वेदालंकार के रूप में एक ऐसा दानी भी उसे उपलब्ध है , जो उसकी उन्नति के लिए प्रभूत धनराशि देने के लिए उद्यत है । इस दशा में गुरुकुल कुरुक्षेत्र के उज्ज्वल भविष्य के सम्बन्ध में सन्देह कर सकना सम्भव ही नहीं है । 
        वर्तमान समय में इस गुरुकुल का वार्षिक व्यय छह लाख से ऊपर है । भोजन शुल्क आदि से जो धन गुरुकुल को प्राप्त होता है , उसके अतिरिक्त खेती से भी इस संस्था को दो लाख रुपये के लगभग आमदनी होती है ।

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