ईळते त्वामवस्यवः कण्वासो वृक्तबर्हिषः । हविष्मन्तो अरंकृतः ॥ ऋ 1/14/5
अर्थ- हे परमेश्वर! (अवस्यवः) अपनी सुरक्षा चाहनेवाले, जिज्ञासु [अव गतौ] (कण्वासः) मेधावी [रण शब्दे] जो तुम्हारी स्तुति करते और कण-कण का ज्ञान अर्जन करते हैं (वृक्तबर्हिषः) जिन्होंने अपने हृदयों के झाड़-झंखाड़ों (वासनाओं) को काटकर तुम्हारे बैठने के लिये अपना हृदय सिंहासन सजाया है। (हविष्मन्तः) जिनका जीवन हवि के समान पवित्र बन गया है, (अरंकृतः) जो यम-नियमों के पालन से सुशोभित हो गये हैं या जिन्होंने संसार के भोगों से अलं=‘बस’ कर लिया है (त्वाम्) तुझे वे जन (ईडते) भजते हैं।
परमात्मा की भक्ति तो अपने-अपने विश्वास के अनुसार बहुत से लोग करते हैं। यहाँ तक कि चोर-लुटेरे भी अपने कार्य की सिद्धि के लिये देवी-देवताओं की मनौती मनाते हैं। गीता में इन सभी भक्तों को चार श्रेणियों में विभक्त किया है
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभः।।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एक भक्तिर्विशिष्यते। गीता 7.16-17।।
दुखों से ग्रस्त, जिज्ञासु=जानने की इच्छा वाले, सांसारिक धनैश्वर्य को चाहने वाले और ज्ञानी, ये चार प्रकार के लोग भगवान् की भक्ति करते हैं जिनमें परमात्मा में अनन्य प्रेम, भक्ति रखने वाला ज्ञानी ही सबसे श्रेष्ठ है।
सर्वप्रथम दुखी लोगों को ही भगवान् का नाम स्मरण होता है ‘दुख में सुमरिन सब करें सुख में करे न कोय’। जब व्यक्ति सभी ओर से अपने आपको संकटों से घिरा हुआ पाता है और उसे कोई दूसरा उपाय नहीं सूझता तब वह भगवान् की शरण में जाता है।
दूसरी श्रेणी के लोग इसलिये भी भगवान् का नाम स्मरण करते हैं कि चलो देखें तो सही कि भगवान् कैसा है और उसकी भक्ति से कुछ लाभ होता है या नहीं।
तीसरी श्रेणी में वे लोग हैं जो सांसारिक धन-सम्पत्ति या अपने कार्य की सफलता, पद-प्राप्ति आदि को ध्यान में रख जप, तप, अनुष्ठान आदि करते हैं। इनका दृष्टिकोण विशुद्ध व्यापारिक होता है।
चतुर्थ श्रेणी में ज्ञानी आते हैं जिन्हें किसी प्रकार के दुख निवारण, जिज्ञासा और सांसारिक वस्तु की इच्छा नहीं है। वे अनन्य भाव से उसके प्रेम और भक्ति में श्रद्धान्वित होकर लगे रहते हैं।
ईश्वर-प्राप्ति के उपायों में भक्तियोग सबसे सुगम है
कहहु भक्ति पथ कवन प्रयासा, जोग न मख जप तप उपवासा।
सरल स्वभाव न मन कुटिलाई, जथा लाभ सन्तोष सुहाई।। (रामचरित. उ. का.)
परमात्मा में अनन्य प्रेम होना ही भक्ति है। वेद का यह मन्त्र मार्गदर्शन करते हुये कहता है
1. अवस्यव- जिन्हें मृत्यु सामने दिखाई देती है और वे उससे बचना चाहते हैं तो दूसरे उपायों को सुरक्षित न मान वे प्रभु की शरण को सर्वोत्तम जान उसी के शरणागत हो जाते हैं।
2. कण्वास- मेधावी लोग ही ठीक प्रकार से भक्तियोग का अभ्यास कर सकते हैं। परमात्मा को इन्द्रियों द्वारा देखा जाना सम्भव नहीं। उसे केवल ज्ञान-नेत्र अर्थात्- अन्तःकरण से अनुभव मात्र किया जा सकता है। जैसे कि हमें भूख-प्यास की अनुभूति होती है। भक्ति केवल अन्ध श्रद्धा न होकर ज्ञान सहित सर्वात्मना अपने आपको परमात्मा में निमग्न कर देना है। यह कार्य बुद्धिमान् ही
कर सकता है, अज्ञानी नहीं।
3. वृक्तबर्हिष- जैसे यज्ञादि में झाड़-झंखाड़ और पत्थरों को हटाकर भूमि को समतल कर सुन्दर आसन बिछाये जाते हैं जिन पर ऋत्विक् लोग बैठते हैं वैसे ही परमात्मा का आवाहन करने के लिये हृदयवेदि के चारों ओर उगी काम-क्रोध की खरपतवार और राग-द्वेष के कण्टकों को हटाकर श्रद्धा का आसन बिछाया जाता है तब कहीं वे परमदेव आकर बैठते हैं।
4. हविष्मन्त- यज्ञ में जिन पदार्थ़ों की आहुति दी जाती है, पहले उन्हें शुद्ध करते हैं और फिर शाकल्य बना विधि-विधान से अग्नि में उसकी आहुति देते हैं। इसी भाँति जिनका जीवन पवित्र हो गया है उन्हीं पर परमात्मा कृपादृष्टि करते हैं। अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते=जिसने अपने आपको तप की भट्ठा् में तपाया नहीं वह कच्चा है और जैसे कच्चे घड़े में पानी नहीं ठहरता वैसे ही उसे परमात्मा का दर्शन नहीं होता।
5. अरङ्कृत- जब किसी के यहाँ कोई अतिथि आता है तो घर का स्वामी स्वयं स्वच्छ वत्र पहनकर अन्य कार्य़ों से निवृत्त होकर द्वार पर उसकी प्रतीक्षा करता है। ऐसे ही उस प्रभु को अपना अतिथि बनाने के लिये यम-नियमों से सुसज्जित और सांसारिक झंझटों से विरक्त होकर उत्सुकता से उसकी प्रतीक्षा में पलक-पांवड़े बिछाने होते हैं। भक्ति का नशा इतना चढ़ जाये कि क्षणभर भी प्रभु से दूर होना कष्टदायक हो, तब कहीं जाकर उसकी कृपादृष्टि होती है। जिसके दर्शन हो जाने पर अन्य किसी को जानने या देखने की इच्छा शेष नहीं रहती।
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