आजादी के पूर्व 1937 में गांधीजी के आदेश पर देश मे धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने के लिए ‘वर्धा शिक्षा समिति’का पाठयक्रम तैयार किया। इस पाठ्यक्रम में अरबी,फारसी ,उर्दू और हिंदी को जोड़ कर एक नई भाषा तैयार की गई। जिसे “हिंदूस्तानी भाषा” का नाम दिया गया। इस भाषा मे हिंदी शब्दों को मात्र दस प्रतिशत स्थान मिला बाकी के 90 प्रतिशत शब्द उर्दु, अरबी ,फारसी और तुर्की भाषा से लिए गए।
इस भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए गांधीजी ने ‘हिंदूस्तानी तालीमी संघ ‘ की स्थापना की। इस संघ ने ‘बुनियादी राष्ट्रीय शिक्षा’ नाम से एक पुस्तक प्रकाशित की जिसकी भूमिका स्वयं गांधी जी ने लिखी थी।
इस पुस्तक में अलबरूनी, फिरोजशाह तुगलक, बाबर, अकबर, चाँद बीबी, नुरजहां, ईसा, मुसा, जरस्थु और अकबर आदि पर विस्तृत चर्चा की गई थी लेकिन महाराणा प्रताप, महारानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, शिवा जी, गुरू गोविंद सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि को पाठयक्रम में जगह नही दी गई।
इस पुस्तक में भगवान श्री राम के संबध में जो लिखा गया वह कुछ इस प्रकार था- “बादशाह दशरथ के चार फरजंद थे। शहजादा राम बड़े फरजंद थे। उनका विवाह बेगम सीता के साथ किया गया। मौलवी वाल्मिकी ने लव-कुश को पढाया।’ आदि-आदि…..
इस वर्धा शिक्षा समिति की नई हिंदूस्तानी भाषा का महाकवि निराला, राहुल सांकृत्यान, नारायण चतुर्वेदी ,किशोरीदास वाजपेयी जैसे हिंदी के कई लेखकों ने जबरदस्त विरोध किया।
इसी समय के स्वामी रामचंद्र वीर महाराज (भागवत कथा वाचक आचार्य धर्मेन्द्र के पिता) ने इस शिक्षा समिती का विरोध करते हुए 1938 में यह कविता लिखी जो उस समय बहुत लोकप्रिय हुई थी-
हिंदी को मरोड़, अरबी के शब्द जोड़-जोड़,
हिंदूस्तानी की खिचड़ी जब पकाएगें।
हंस से उतारकर वीणा पाणी शारदा को,
मुरगे की पीठ पर खींचकर बिठाएंगे।
‘बादशाह दशरथ’ ‘शहजादा राम’ कह मौलवी वशिष्ठ बाल्मिकी को बताएगें।*
देवी जानकी को वीर बेगम कहेंगे जब,
तुलसी से संत यहां कैसे फिर आएगें।
तुलसी से संत यहां कैसे फिर आएंगे….
12 अक्टूबर 1947 को हरिजन में महात्मा गांधी राष्ट्रभाषा में क्या गुण होने चाहिए उसे विस्तार से लिखते हैं. इस दौरान गांधी भाषा को लेकर उठ रहे सवालों पर भी अपने विचार रखते हैं.
गांधी ने कहा था, ‘हिंदुस्तानी भाषा न ही संस्कृतनिष्ठ और न ही परसियन होनी चाहिए. बल्कि ये इन दोनों की मिश्रण होनी चाहिए. इसके अलावा दूसरी भाषाओं और विदेशी भाषाओं से भी इसमें शब्द जोड़ा जाना चाहिए.
हिन्दी विरोध में नेहरू भी कम नहीं थे। वह भी दोहरी बातें द्वारा भ्रमित करते रहे।
13 मार्च 1948 को सेवाग्राम में नेहरू ने कहा था, ‘ड्राफ्ट कांस्टीट्यूशन में अंग्रेजी रखी गई है, तो वह सही रखी गई है. न रखना बड़े पैमाने पर झगड़ा-फसाद मोल लेना है. माना कि हमारी एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए. लेकिन उसके लिए यह मौका नहीं है. अच्छा काम, गलत वक्त पर बुरा काम हो जाता है.’
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