Saturday, May 31, 2014

|| भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

|| भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मूल कारण व आर्य समाज का योगदान ||
1857 में प्रथम बार भारतीय क्रान्तिकारी वीरो ने अंग्रेज शासकों से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी | इस संग्राम का नाम किसी ने गदर,किसी ने विद्रोह तथा किसी ने धार्मिक युद्ध कहा है | मेरे विचार से इसे धर्म युद्ध अथवा विद्रोह कहना उन असंख्य अमर हुतात्माओ के प्रति अन्याय है जिन्होंने माँ भारती को स्वतंत्र करने के लिए अपना सर्वस्य अर्पण कर दिया | इस युद्ध का वास्तविक नामकरण “प्रथम भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम” होना चाहिए, क्योंकि यह भारत की स्वतंत्रता के लिए यह प्रथम युद्ध था |
इस क्रांति का मूल कारण वास्तव में धार्मिक और राजनीतिक दोनों ही थे | क्योंकि धर्म और राजनीति परस्पर सम्बन्ध है, धर्म को राजनीति से पृथक समझना भूल है | उस समय भरत में ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेज अधिकारी मनचाहे भीषण अत्याचार भारतीय जनता पर करते थे | उनके भयंकर अत्याचारों से भारतीय जनता और सैनिक खुब्ध हो गये थे | अंग्रज शासकों के अनेक असहाय अत्याचारों के कारण सैनिको की क्रोधाग्नि ने इतना भयंकर रूप धारण कर लिया था, की इन अत्याचारों का बदला लेने के लिए उतावले हो रहे थे | सर्व साधरण जनों में प्रतिकार की भावना जाग उठी थी |
सान 1853 में अंग्रेज कंपनी ने भारतीय सेना के लिए एक नये ढंग के कारतूस प्रचलित किया | तथा भारत के अनेक स्थानों में इन कारतूसों को तैयार करने हेतु कारखाने खोले | इन नये कारतूसों को दातों से काटना पड़ता था | इसे अजमाने के लिए मात्र एक दो पलटनो में प्रचलित किये गये | वास्तविकता का ज्ञान न होने के कारण सैनिको ने कारतूसों को दातों से काटना स्वीकार कर लिया | अब शनैःशनैः इन कारतूसों का प्रयोग बढ़ता चला गया |
बैरकपुर छावनी का एक ब्राह्मण सिपाही लोटा भरकर अपनी बैरक की ओर जा रहा था | रास्ते में एक हरिजन सिपाही ने पानी पीने हेतु ब्राह्मण सिपाही से लोटा माँगा, तो प्रचलित प्रथानुसार उसने लोटा देने से इंकार कर दिया | जब हरिजन ने कहा मुझे एक सन्यासी ओधड़ बाबा द्वारा पता चला है, क्या तुम्हे मालूम नहीं की तुमहे अपने दातों से जो कारतूस काटने पड़ेंगे उसमे गाय तथा सूअर की चर्बी लगी होगी |
इतना सुनकर ब्राह्मण सैनिक क्रुद्ध हुआ, छावनी में पहुच कर दुसरे सैनिकों को यह दुखद वृतांत सुनाया वह भी गुस्से से लाल हो गये | वह परस्पर एक दुसरे से कहने लगे –अंग्रेज सरकार जान बूझकर हम भारतीयों का धर्म भ्रष्ट करना चाहती है |
उन सैनिको ने अपने अफसरो से पूछा तो उन्होंने मना करते हुये कहा कि यह सर्वथा झूठी अफ़वाह है | नये कारतूसों में इसप्रकार की कोई वस्तु नहीं | सैनिक अफसरों के उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए और बैरकपुर के कारतूस कारखाने में काम करने वाले भारतीय कर्मचारी कारतूस निर्माताओ से पूछा | जब सच्चाई का पता लगा बैरकपुर के सैनिको ने यह सुचना समस्त भारत में फैला दी | बंगाल से पेशावर और महाराष्ट्र तक इस विषय में हज़ारों पत्र भेजे गये | नये कारतूसों का वृत्तान्त बिजली की भांति प्रत्येक भारतीय सैनिको के कानो तक पहुच गया | प्रत्येक हिन्दू व मुसलमान सैनिको ने अंग्रेजों से इस अन्याय का बदला लेने को बेचैन हो उठे |
सर, जान व कर्नल तकर ने 1853 में लिखाया नये कारतूसों में गाय व सूअर की चर्बी लगाई जाती थी | फरवरी 1857 में बैरकपुर केंट की 19 नम्बर पलटनो को आदेश दिया कारतूस मुख से काटने का, तो 19 नम्बर पलटनो ने मना कर दिया अंग्रेजो ने वर्मा से गोरी पलटन मंग्वाली और भारतीय सैनिको को परेड मैदान में बुलवा कर हथियार रखवा कर दण्ड देना चाहते थे | भारतीय सिपाहियों ने चुपचाप हथियार रखने की अपेक्षा तुरंत क्रांति करने का विचार किया | जबकि 31 मई को क्रांति के लिए भारतीयों ने निर्धारित किया था |
जब अंग्रेजों ने हथियार रखने को कहा तो भारत माँ का लाल ब्राह्मण घराने का सिपाही महान क्रन्तिकारी देशभक्त, धर्म परायण-मंगलपांडे बन्दुक लिए कूद पड़े और चिल्ला कर शेष सिपाहियों को अंग्रेजों के विरुद्ध धर्म यूद्ध करने के लिए आमंत्रित करने लगे | एक अंग्रेज अफसर ह्यूसन ने अन्य सिपाहियों से पांडे को गिरफ्तार करने की आज्ञा दी, किन्तु भारतीय कोई भी सिपाही आज्ञा का पालन नहीं किया | अब तक मंगलपांडे ने अपनी बन्दूक से उस अंग्रेज अफसर को ढेर कर दिया | फिर दूसरा अफसर लेफ्टिनेंट अपने घोड़े पर आगे लपका जिसका नाम बाघ था, मंगलपांडे ने इस पर भी गोली चलाई | वह अपने घोड़े के साथ जख्मी हो कर गिर पड़ा | मंगल पांडे अपनी बन्दुक में गोली डाल रहे थे, कि उस बाघ ने अपनी पिस्तौल से गोली चलाई पांडे बच गये | और तलवार से उस अंग्रेज बाघ को समाप्त कर दिया | अब कर्नल ह्वीलर ने पांडे को पकड़ने का आदेश दिया | सिपाहियों ने मना किया | कर्नल घबराकर जनरल के बंगले पर पंहुचा, वहां से जनरल हायर ने अपने साथ गोरी पलटनो को लेकर आगे बढ़े देखा मंगलपांडे ने स्वयं अपनी छाती पर गोली चलाई, जख्मी हो कर गिर पड़े पकड़ लिया गया और मंगलपांडे को 8 अप्रैल 1857 में फाँसी दी गई |
19 और 34 नंबर पलटनों को नौकरी से निकाल दिया गया तथा 34 नंबर के पलटन सूबेदार को भी फाँसी दी गई | यह घटना भारत भर में फैल गई | इसी अप्रैल 57 में अंग्रेजों के बंगलो में लखनऊ, मेरठ, अम्बाला आदि स्थानों में आग लगा दी गई | किन्तु यह सब निश्चित समय से पूर्व ही हो गया | जब की बाबा ओधड़ दास नामी सन्यासी ने कहा था अभी समय नहीं आया है तुम्हे धैर्य से काम लेना है और 100 वर्ष तक प्रयास करना होगा बाबा ओधड़ दास वही सन्यासी है जिन्होंने सैनिकों को कहा था करतूस में गाय और सूअर की चर्बी लगाई जा रही है | महर्षी दयानन्द की जीवन चरित्र को देखा जाए तो ज्ञात होगा की 1855 से 1857 तक के अपने कृयाकलापों का उल्लेख नही किया अज्ञात काल के नाम से कुछ विद्वानों ने माना है | हम सब जानते है की स्वाधीनता के लिए देश व्यापी जो सशस्त्र क्रांति हुई वह सन 1857 में हुई थी | लोगो को क्रांति का सन्देश देने वाले, क्रांति के यज्ञ में अपनी आहुति देने के लिए जन, जन, को अनुप्रेरित और उत्प्रेरित करने वाले दयानन्द सरीखा महामानव इस अवसर पर मौन धारण कर ले, यह सच पूछिए तो आश्चर्य का विषय है |
क्योंकी 57 की क्रांति में मुख्य रूप से चार सन्यासी का नाम लिया गया है जो अपने चिन्हों को राजा, महाराजा, नवाब, बादशाहों से लेकर सैनिको तक पहुचाया जिसकी भूमिका दंडी स्वामी विरजानंद ने निभाई थी गुरु पूर्णानंद का भी नाम उसी भूमिका में है | तथा इन्होने ही अपना चिह्न ओरों तक पहुचने की योजना बनाई | और मुख्य चिह्न कमल के फुल और रोटी थी | बाबा ओधड़ दास और कोई नहीं था वही स्वामी दयानन्द थे | जिन्होंने फुल और रोटी को फौजी पलटनो में जो इस संगठन में सम्मलित थे घुमाया करते थे | रोटी ज्यादातर गाँव में घुमाया जाता था | जिस व्यक्ति को देता था वह अपना कर्तव्य समझकर उस रोटी में से थोड़ी सी तोड़ कर खाता, फिर दुसरो को पहुँचाता था | रोटी ख़त्म हुई की दूसरी रोटी बना कर इसी प्रकार घुमाया जाता था | इसका अर्थ होता था की उस गाँवमें क्रांतियुद्ध में भाग लेने वाले लोग है | यह चमत्कार थोड़े ही दिनों में भारत भर फैल गया | रोटी इस गंभीर अर्थ की सूचक थी, की विदेशी अत्याचारी अंग्रेजों का जहां भी शासन उसे उखाड़ फेका जाये | या तो अंग्रेजों को भारत देश से निकलने के लिए स्वतंत्रता युद्ध में सम्मलित होना चाहिए |
इस प्रकार नाना साहब पेशवा को ऋषि दयानन्द अपनी योजना में सम्मलित किया | क्रांति का सूत्रधार वह होता है जो उसकी चिंगारी को शोलो का रूप प्रदान करने के लिए ईंधन जुटाता है | छावनी में महर्षि को जाने से इसलिए नहीं रोका गया क्योंकि उन्हें भी अंग्रेजों ने ओरों की तरह एक सामान्य साधू समझा | पहले दो चार बार महर्षि सिपाहियों को वेद का महत्व समझाते रहे दयानन्द तो मानो इसी तलाश में थे, जो अपनी ओजस्वी वाणी में राष्ट्रभक्ति की धारा प्रवाहित करनी शुरू करदी, सिपाहियों की भुजाएँ फड़क उठी |
इन्ही दिनों बिहार-जगदीश पुर के 80 वर्षीय राजा कुंवर सिंह के बारे में ज्ञात हुआ ,जो कुंवर सिंह अपनी रियासत और राज्य को बचाने को अंग्रेजों से खार खाए बैठे थे, अंग्रेजों का मिटटी पलीद करने को मौके की ताक में थे | कुंवर सिंह स्वयं महर्षि से बिहार की सीमा पर मिलने आये | ऋषि द्यानानंद राजा कुंवर सिंह को- बिठुर में धुंधूपंत (नाना साहब) पेशवा के साथ संपर्क स्थपित कराते हुए क्रांति हेतु तैयार रहने को कहा |
नाना साहब बिठुर के गोद लिए हुये शासक थे, पर अंग्रेज सरकार उन्हें शासक मानने को तैयार नहीं थी | जिस तरह महर्षि क्रांति का अलख जगाते स्थान –स्थान –पर घूम रहे थे, उसी प्रकार असंतोष की आगमें दग्ध होता नाना साहब भी घूम रहे थे | महर्षि, नानासाहब पेशवा तथा लक्षमी बाई, दामोदर राव, तात्याटोपे, सेनापति व राजा कुंवरसिंह आदि को आवश्यक आदेश, व उपदेश देकर दिल्ली पहुंचे |
कुछ दिन दिल्ली निवास कर दयानन्द, मेरठ, कानपूर, इलहाबाद, फारुखाबाद के गंगा के तट पर रहकर प्राचार कार्य करते रहे, उन्हें कोई अंग्रेज समझ ही नहीं पाए की यह सन्यासी बागी है | 11 मई 1857 महर्षि के आदेश के विपरीत क्रान्तिकारियो ने एक गज़ब काण्ड कर डाला | कानपूर में सैकड़ों अंग्रेज स्त्रियों व बच्चों को मौत के घाट उतार डाले |
क्रांति का आरम्भ बड़ा ही सफल रहा ऐसी आशा वलवती हो गई थी की भारत से विदेशियों की सत्ता समाप्त हो जाएगी | किन्तु मेरठ कांड के बाद यत्र तत्र क्रांतिकारियों की पराजय होने लगी |
उधर झासी की रानी लक्ष्मी बाई काफ़ी समय तक अंग्रेजों के साथ युद्ध करते-करते शहीद हुई | नाना साहब और तात्याटोपे बच निकले अंग्रजो ने उनकी गिरफ्तारियों की इनाम रख दिया | नाना साहब ऋषि दयानन्द से सन्यास की दीक्षा ली |
इस के विफल होने पर महर्षि ने भारत की तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार अपना मार्ग बदल लिया | अब भाषा व लेख के द्वारा स्राव विध क्रांति प्रारंभ की | दयानन्द ही वह पहला भारतीय था जिसने अंग्रेजों के साम्राज्य में सर्वप्रथम स्वदेशी राज्य की मांग की थी | वह अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखते है कोई कितना ही करे जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरी उत्तम होता है अथवा मत मतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य प्रजा पर पिता, माता के समान, कृपा, न्याय एवं दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं होता |
स्वामी जी आर्याभिनय में लिखते है अन्य देशवासी राजा हमारे देश में न हो हम लोग पराधीन कभी न रहो | इससे पता लगता है की महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की क्या भावना थी| राष्ट्र के संगठन के लिए जाती पाँति के झंझटों को मिटाकर एक धर्म एक भाषा समान वेशभूषा तथा खान पान का प्रचार किया | दयानन्द स्वयं गुजरती तथा संस्कृत के उद्भट विद्वान् होते हुए भी हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने की घोषणा की | जबकि बंगाल के बंकिम चन्द्र तथा रविन्द्र नाथ व महाराष्ट्र के विष्णु शास्त्री चिपलूणकर आदि प्रसिद्ध लेखकों ने अपनी रचनाये प्रान्तीय भाषा में ही की थी |
दीर्घ कालीन दासता के कारण भारत वासी अपने प्राचीन गौरव को भूल गये थे | दयानन्द ने उनके प्राचीन गौरव को तथा वैभव का वास्तविक दर्शन करवाया और सप्रमाण सिद्ध किया कि, हम किसिके दास नहीं, अपितु विश्वगुरु हैं | इस प्रकार भारत भूमि को इस योग्य बनाया कि, जिसमे स्वराज्य, पादप विकसित, पुष्पित और फ्लाग्रही हो सके | जैसा 1857 के क्रांति का जन्म दाता गुरु विरजानंद –महर्षि दयानन्द-और उनके शिष्य ही हैं | विदेशों में भारत के लिए जितने क्रांतिकारियां हुए, वह द्यानन्द्के प्रमुख शिष्य पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा के कारण ही हुए | श्याम जी को विदेश में जानेकी प्रेरणा दयानन्द ने ही दी थी | श्यामजी कृष्ण वर्मा क्रांति कारियों के आदि गुरु थे | प्रशिद्ध क्रन्तिकारी विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, भाई परमानन्द, सेनापति बापट, विपिनचंद्रपाल, मदनलालधींगडा, मेडमकामा, सायाजी राय गायकवाड, आदि सभी क्रांतिकारी इनके शिष्य ही थे | इंग्लॅण्ड में रहकर भारतीय जितने भी क्रांतिकारी हुए, वह सब श्यामजीकृष्ण वर्मा के निजी ख़रीदे गये मकान जो इण्डिया हॉउस के नाम से था, वही रहकर सभीने क्रांतिके पाठ पढ़े थे |
अमरीका में जो क्रांति भारतीय स्वाधीनता के लिए हुई, वह देवता स्वरूप भाई परमानन्द के सदउद्योग का फल है | जिन्होंने आजीवन आर्य समाज का प्राचार्य किया और स्वाधीनता के लिए संघर्ष करते रहे |
पंजाब में श्री जयचन्द्र विद्यालंकार क्रांतिकारियों के प्रेरणा श्रोत थे जो D.A.V कॉलेज लाहोर के इतिहास और राजनीतिक शास्त्र के प्रोफेसर थे सरदार भगत सिंह और उनके क्रन्तिकारी साथी उनसे राजनीति की शिक्षा लिया करते थे | सरदार भगत सिंह का जन्म भी आर्यसमाजी परिवार में हुआ था उनके दादा सरदार अर्जुन सिंह पिता श्री किशन सिंह आर्यसमाजी ही थे | भगत सिंह का उपनयन संस्कार आर्य समाज के महोपदेशक लोकनाथ तर्क वाचस्पति ने की थी भगत सिंह के छोटे भाई कुलतार सिंह जी जो पिछले दिनों फरीदाबाद में रहते थे गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ में मेरे रहते हुए भी कई बार स्वामी शक्तिवेश जी ने अपने गुरकुल नें उन्हें बुलाया | जो गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ क्रांतिकारियों का गड़ था आज भी गुफा बने हुए है जहा क्रन्तिकारी आकर शरण लेते थे इसी गुरकुल में मुझे भी रहने का सौभग्य प्राप्त है | इस प्रकार गुरकुल और आर्यसमाज कर्तिकरियो का शरण गाह रहा है भारत भर उन दिनों जहा-जहा आर्यसमाज था उन्ही आर्यसमाज में क्रातिकारी आकर शरण लेते थे |
एक अंगरेज अधिकारी सांडर्स को मार कर भगत सिंह कलकत्ता पहुचें आर्य समाज 19 विधान सरणी जा कर ठहरे थे, भगत सिंह उस आर्य समाज से चलते समय अपनी थाली सेवक तुलसी राम को सोंपते हुए कहा था कोई क्रन्तिकारी आये तो इसी थाली में उसे भोजन करा देना | कारण क्रांति की बिगुल बंगाल के धरती से ही बजी थी भगत सिंह कलकत्ता से दिल्ली आकर वीर अर्जुन पत्रिका कार्यालय में स्वामी श्रधानंद व पंडित इंद्र विद्या वाचस्पति के पास ठहरे क्योंकी उस समय ऐसे लोगो को ठहराने का साहस केवल देशभक्त आर्यसमाजी ही किया करते थे कारण आर्यसमाज को छोड़ कर क्रांतिकारियों को ठहर ने के लिए या ठहेराने के लिए और किसी संस्था का उल्लेख नहीं है | मिस्टर गाँधी जब अफ्रीका से लौट कर आये तो उन्हें ठहराने की हिम्मत लाला मुंशीराम (स्वामीश्रद्धा) ने ही गुरुकुल कांगड़ी में की थी |
राजस्थान के क्रन्तिकारी कुवर प्रताप सिंह बारहट D.A.V. स्कूल के छात्र थे उनके पिता श्री कृष्ण सिंह बारहट ऋषि दयानन्द के अनन्य भक्त थे राम प्रसाद बिस्मिल भी अपना घर वार त्याग दिया किन्तु आर्य समाज के सिपाही बने रहे| जिस रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने मित्र अशफ़ाक खुल्ला खान को आर्य समाज शाजहापुर से जोड़ा और दोनों लोग आर्य समाज शाजहाँ पुर के कार्यकर्ता थे | रामप्रसाद बिस्मिल ने रोशन सिंह और शचीन्द्र नाथ सान्याल को भी आर्य समाज से जोड़े जो बंगाल के थे | हेदराबाद निजाम के विरुद्ध सात्याग्रह चलाकर जनता के हितो की रक्षा केवल आर्यसमजी ही कर पाए थे |
अमृतसर में कोंग्रेस का अधिवेशन मात्र आर्य समाजी नेता स्वामी श्रद्धानन्द ने ही कराई थी | पंजाब केसरी लाला लाजपत राय प्रसिद्ध आर्य नेता व देश भक्त थे | देशभक्ति किसी से तिरोहित नहीं | इसी प्रकार अनेक उदाहरण हमे मिलते है | जिस से यह सिद्ध होता है की देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में आर्यसमाज ने बड़ चड़ कर हिस्सा लिया तथा नेत्रित्व भी किया | स्वदेशी प्राचार विदेशी वस्तुओं का वहिष्कार-अछुत्तोद्धार-शुद्धि प्रचार -गोरक्षा आन्दोलन- शिक्षाप्रचार -स्त्री शिक्षा-विधवा विवाह-बाल विवाह विरोध सभी श्रेष्ठ कार्यो में आर्य समाज अग्रणी रहा है |
बंगाल में क्रन्तिकारीयों की जो कड़ी है एक मोटी पुस्तक बन जाएगी जिसमे कुछ नामो को लिख रहा हूँ | चित्तरंजन दास–रासबिहारी बोस–खुदीराम बोस–शचीन्द्रनाथ सान्याल–नलिनीकांत बाकची- मातोंगिनी हाजरा –बटुकेश्वर दत्त –बाघा जतीन –विनय–बादोल –दिनेश –सुरेन्द्रनाथ बनर्जी–कानाईलाल दत्त –राजेंद्र लाहीडी –सुरेशचन्द्र भट्टाचार्ज–सत्येन्द्रनाथ बोसू –सुभाषचंद्र बोस –जोतिन्द्रो नाथ दास –जोतिन्द्रो नाथ मुखर्जी –हज़ार से ज्यादा लोगों के नाम है | मैंने यह सारा प्रमाण देशभक्तों के इतिहास नामी ग्रंथोंसे ली है जो की स्वामी औमानन्द सरस्वती –श्री वेदव्रत शास्त्री व्यक्रनाचार्य –द्वारा सम्पादित हरियाणा साहित्य संसथान–गुरुकुल झज्जर से प्रकाशित है |
-महेन्द्रपाल आर्य -वैदिक प्रवाकता =दिल्ली

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