- सौर्य आंधी का विवरण... ( Solar Sunami in SaamVed) कुछ वर्षों से वैज्ञानिक सौर्य-आंधी के विषय में जानते हैं । सूर्य से निकलती प्रकाश की किरणों से तो हम सभी परिचित हैं । अन्य इलैक्ट्रोमैग्नेटिक किरणों (जैसे ultraviolet rays, infrared rays) के बारे में भी हम जानते हैं । इनके साथ-साथ, electrons, protons , और अन्य अण्वंशों की एक धारा बहुत ही वेग से सूर्य से चारों ओर फैलती है । इसे ’सौर्य आंध...ी (solar wind)' कहते हैं । इसकी गति लगभग प्रकाश की गति के बराबर होती है । यह ’आंधी’ यदि बेरोकटोक पृथ्वी पर पहुंच जाए, तो सभी प्राणी मर जाएं । परन्तु ऐसा होता नहीं क्योंकि पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति (magnetic field) से यह पहले ही परे फेंक दी जाती है । फिर भी इसका एक छोटा अंश पृथ्वी तक पहुंच जाता है, और यह मेघों के बरसने में सहायक भी होता है। अब आगे इसका विवरण वेदों में पढ़िए । यह मेरी व्याख्या स्व० पं० तुलसीराम स्वामी जी के पदार्थ पर आधारित है। प्र दैवोदासो अग्निर्देव इन्द्रो न मज्मना । अनु मातरं पृथिवीं वि वावृते तस्थौ नाकस्य शर्मणि ॥ सामवेद १।५।७ ॥ पदार्थ: - (दैवोदास:) द्युलोक का दास, अर्थात् विद्युत्-सम्बन्धी (अग्नि:) ऊर्जा (इन्द्र:, न) बादलों में रहने वाली बिजली के समान (मातरम्, पृथिवीम्) माता पृथिवी के (अनु) चारों ओर (मज्मना) बलपूर्वक (प्र, वि, वावृते) अत्यन्त जोर से फैल रही है। और (नाकस्य, शर्मणि, तस्थौ) द्युलोक के घर में स्थित है। व्याख्या - यह ’दैवोदासः अग्निः’ - जो सूर्य की दास है, विद्युत्-सम्बन्धी है, और द्युलोक में स्थित है - electrons और protons की सौर्य-आंधी है । क्योंकि, पहले तो, यह सूर्य से उत्पन्न होती है । दूसरे, electrons और protons का गतिशील होना ही विद्युत् है । तीसरे, ’द्युलोक का घर’ सूर्य है, और उस के साथ-साथ अन्तरिक्ष का वह भाग भी है जहां तक सूर्य का प्रभाव है । सो, यह बाहरी ग्रहों की परिधि तक होता है । लेकिन ग्रह के पास, जहां ग्रह, जैसे पृथ्वी, का प्रभाव अधिक होता है, वहां द्युलोक नहीं, अपितु पृथ्वी लोक ही माना जाता है । अतः, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र तक पृथ्वी लोक होता है । क्योंकि पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति सौर्य-आंधी को पृथ्वी लोक में प्रवेश नहीं करने देती, इसलिए यह द्युलोक तक ही सीमित रहती है । सो, मन्त्रार्थ हुआ - बादलों में रहने वाली बिजली के समान, सूर्य के अधिकार में रहने वाली विद्युत् पृथ्वी के चारों ओर अत्यन्त वेग से और बलपूर्वक फैल रही है, परन्तु द्युलोक में स्थित रहते हुए । अध ज्मो अध वा दिवो बृहतो रोचनादधि । अया वर्धस्व तन्वा गिरा ममा जाता सुक्रतो पृण ॥ सामवेद १।५।८ ॥ पदार्थ: - (सुक्रतो) हे इन्द्र! तू (ज्म:, अधि) पृथिवी के ऊपर (अध, वा) और नीचे (बृहत:, रोचनात्, दिव:, अधि) बड़े प्रकाशमान् द्युलोक के नीचे (अया) इस (तन्वा) विस्तृत शरीर से (मम, गिरा) मेरी वाणी के साथ (वर्धस्व) बढ़, और (जाता) यवादि फसलों को (पृण) तृप्त वा पुष्ट कर । व्याख्या - पुन:, सौर्य आंधी को सम्बोधित करके कहा जाता है कि वह, बढ़ते-बढ़ते, अपना एक अंश द्युलोक से नीचे - पृथ्वी को - दे दे जिससे पृथ्वी पर होने वाली फसलें वर्षा प्राप्त करके पुष्ट हो जाएं । कायमानो वना त्वं यन्मातृरजगन्नप: । न तत्ते प्रमृषे निवर्त्तनं यद्दूरे सन्निहाभुव: ॥ सामवेद १।५।९ ॥ पदार्थ: - (अग्ने) हे अग्नि ! (यत्) जो कि (त्वम्) तू (वना) किरणों को (कायमान: सन्) चाहता हुआ (अप:) व्यापक विद्युत्-रूपी (मातृ+अजगन) माताओं को प्राप्त होता है (उससे जान जाता है कि) (यत्) जो (इह) यहां पृथिवी आदि पर (दूरे, आभुव:) तू दूर हो गया (तत्, निवर्तनम्) वह दूर होना (ते) तुझे (न, प्रमृषे) नहीं अच्छा लगता । व्याख्या - यहां एक और अनोखे वैज्ञानिक तथ्य का विवरण है । सौर्य-आंधी का जो अंश पृथ्वी पर पहुंचता है, उसका अधिकतर भाग पृथ्वी के दोनों चुम्बकीय ध्रुवों पर वायुमण्डल में प्रवेश करता है । वहां यह विद्युत्, Neon lights के समान, लाल-हरे-पीले प्रकाश में बदल कर, एक अद्भुत लीला-सी करती है, जिसे Aurora Borealis (Northern Lights) और Aurora Australis (Southern Lights) के नाम से जाना जाता है । इस ज्ञान के प्रकाश में मन्त्र का अर्थ एकदम सरल हो जाता है - यह व्यापक सौर्य-आंधी जहां पृथ्वी को प्राप्त होती है, वहां प्रकाश की किरणों में बदल जाती है । यह इसका ध्रुवों पर उतरना इस बात का द्योतक है कि किसी अप्रत्यक्ष कारण से यह पूरी पृथ्वी पर न उतर पाई, वरन् ध्रुवों पर ही उतर सकी है । उतरना चाहती तो सर्वत्र है, परन्तु कोई शक्ति उसे सीमित कर रही है ! इस प्रकार वेदों में आलंकारिक रूप से बहुत वैज्ञानिक विद्या निहित है - कुछ ऐसी भी जो अभी अज्ञात है । इसके उद्घाटन के लिए आवश्यक है कि वेदविद् वैज्ञानिकों से जुड़ें और एकसाथ वैदिक मन्त्रों के गूढ़ वैज्ञानिक अर्थों को समझें ।
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Sunday, May 11, 2014
सामवेद में सौर्य आंधी का विवरण
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