न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।
हृदा हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति ।।
श्वेताश्वतर-उपनिषद् -- ४/२०
भावार्थ -- इसे दिखाने के लिए कोई रूप नहीं है और न ही कोई उसे आँख से देख सकता है । उसे तो हृदय और मन से देखना चाहिए क्योंकि सब जगह रहनेवाला हृदय में रह रहा है । उस हृदय में रहनेवाले को हृदय तथा मन से जानो और मुक्ति प्राप्त करो ।
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