Saturday, May 28, 2022

केनोपनिषदके प्रथम खंडके पहले मंत्र।

केनोपनिषदके प्रथम खंडके पहले मंत्र में जो प्रश्न पूछा गया है उसका उत्तर दूसरे मंत्रसे, पूछनेवाले योग्य शिष्यसे गुरुने कहा-- तू जो पूछता है कि मन आदि इंद्रियसमूहको अपने विषयोंकी ओर प्रेरित करनेवाला कौन देव है और वह उन्हें किस प्रकार प्रेरित करताहै, सुन--
       ---  आत्माका सर्वनियन्तृत्व---
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणश्चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराः  प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ।।२।।

जो श्रोत्रका श्रोत्र, मनका मन और वाणीका भी वाणीहै वही प्राणका प्राण और चक्षुका चक्षु है (ऐसा जानकर) धीर पुरुष संसारसे मुक्त होकर इस लोकसे जाकर अमर हो जाते हैं ।। २।।
श्रोत्रस्य श्रोतम् -- जिससे श्रवण करते हैं वह 'श्रोत्र’ है अर्थात् शब्दके श्रवणमें साधन यानी शब्दका अभिव्यंजक श्रोत्रेन्द्रिय है । उसकाभी श्रोत्र वह है जिसके विषयमें तुने पूछा है कि ‘चक्षु और श्रोत्रको कौन देव नियुक्त करता है ?’
शंका--- प्रश्नके उत्तरमें तो यह बतलाना चाहिये था कि इस प्रकार के गुणोंवाला व्यक्ति श्रोत्रादिको प्रेरित करता है ; उसमें यह कहना कि वह श्रोत्रका श्रोत्र है -- ठीक उत्तर नहीं है ।
समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उस प्रेरकका और किसी प्रकार कोई विषेश रूप नहीं जाना जा सकता । यदि दराँती आदिका प्रयोग करनेवालेके समान श्रोत्रादि व्यापारसे अतिरिक्त किसी अपने व्यापारसे विशिष्ट कोई श्रोत्रादिका नियोक्ता ज्ञात होता तो यह उत्तर अनुचित होता । किंतु यहां खेत काटनेवालेके समान कोई श्रोत्रादिका स्वव्यापारविशिष्ट प्रयोक्ता ज्ञात नहीं है । अवयव सहयोगसे उत्पन्न है श्रोत्रादिका जो चिदाभासकी फलव्याप्तिका लिंगरूप आलोचना, संकल्प एवं निश्चय आदिरूप व्यापार है उसीसे यह जाना जाता है कि गृह आदिके समान जिसके प्रयोजनसे श्रोत्रादि कारण- कलाप प्रवृत्त हो रहा है वह श्रोत्रादिसे असंहत (पृथक्) कोई तत्व अवश्य है । संहत पदार्थ परार्थ (दूसरेके साधनरूप) हुआ करते हैं ; इसीसे कोई श्रोत्रादिका प्रयोक्ता अवश्य है -- यह जाना जाता है । अतः यह ’श्रोत्रस्य श्रोत्रम्’ इत्यादि उत्तर ठीक ही है ।
शंका -- किन्तु इस ‘श्रोत्रस्य श्रोतम्’ इत्यादि पदका यहाँ क्या अर्थ अभिप्रेत है ? क्योंकि जिस तरह एक प्रकाशको दूसरे प्रकाशका प्रयोजन नहीं होता उसी तरह एक श्रोत्रको दूसरे श्रोत्रसे तो कोई प्रयोजन है ही नहीं ।
समाधान -- यह भी कोई दोष नहीं है । यहां इस पदका अर्थ इस प्रक़र है -- श्रोत्र अपने विषयको अभिव्यक्त करनेमें समर्थ है -- यह देखा ही जाता है । किन्तु श्रोत्रका वह अपने विषयको अभिव्यक्त करने का सामर्थ्य नित्य असंहत, सर्वांतर चेतन आत्मज्योतिके रहनेपर ही रह सकता है, न रहनेपर नहीं रह सकता ।अतः उसे ‘श्रोत्रस्य श्रोत्रम्’ इत्यादि कहना उचित ही है । ‘यह अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित है’ ‘उसके प्रकाशसे ही यह सब प्रकाशित होता है’ ‘जिस तेजसे प्रदिप्त हूआ सूर्य तपता है’ इत्यादि श्रुतियाँभी इसी अर्थकी द्योतक हैं । तथा गीतामें भी कहा है -- ‘जो तेज सूर्यमें स्थित होकर संपूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है ।’ ’हे भारत ! इसी प्रकार संपूर्ण क्षेत्रको क्षेत्री प्रकाशित करता है । ‘कठोपनिषदमें भी कहा है -- ‘वह नित्योंका नित्य और चेतनोंका चैतन है’ इत्यादि । श्रोत्रादि इन्द्रियवर्ग ही सबका आत्मभूत चेतन है -- यह बात (लोकमें) प्रसिद्ध है । उसे भ्रांतिका इस पदसे निराकरण किया जाता है । अतः श्रोत्रादिका भी श्रोत्रादि अर्थात् उनकी सामर्थ्यका निमित्तभूत ऐसा कोई पदार्थ है, जो आत्मवेत्ताओंकी बुद्धिका विषय सबसे अन्तरतम, कूटस्थ, अजन्मा, अजर, अमर और अभयरूप है -- इस प्रकार यह उत्तर और शब्दार्थ ठीक ही है ।
इसी प्रकार वह मनका -- अंत:करणका मन है, क्योंकि चिज्ज्योतिके प्रकाशके बिना अंत:करण अपने विषय संकल्प और अध्यवसाय (निश्चय) आदिमें समर्थ नहीं हो सकता । अतः वह मनका भी मन है ; यहां बुद्धि और मनको एक मानकर मनका निर्देश किया गया है ।
यद्वाचो ह वाचम् -- इस वाक्यके ‘यत्’ शब्दका ‘यस्मात्’ अर्थ ( हेत्वर्थ) -- में ‘क्योंकि वह श्रोत्रका श्रोत्र है, क्योंकि वह मनका मन है’  इस प्रकार श्रोत्रादि सभी पदोंसे संबंध है । ‘ वाचो ह वाचम्’ इस पदसमूहमें ‘वचम’ पदकी द्वितीया विभक्ति प्रथमा विभक्तके रूपमें परिणत कर ली जा है, जैसा कि ‘प्राणस्य प्राण:’ में देखा जाता है । यदि कहो कि ‘वाचो ह वाचम्’ इस प्रयोगके अनुरोधसे ’प्राणस्य प्राणम्’इस प्रकार द्वितीया ही क्यों नहीं कर ली जाती ? तो ऐसा कहना उचित नहीं क्योंकि बहुतोंका अनुरोध मानना ही युक्ति संगत है । अतः ‘स उ प्राणस्य प्राण:’ इस पदसमूहके (स और प्राण:) दो शब्दोंके अनुरोधसे ‘वाचम्’ इस शब्दको ही ‘वाक्’ इतना कहना चाहिये । ऐसा करनेसे ही बहुतोंका अनुरोधयुक्त  (स्वीकार) किया समझा जायगा । 
इसके सिवा, पूछी हुई वस्तुका निर्देश प्रथमा विभक्तिसे ही करना उचित है । (अभिप्राय यह कि) जिसके विषयमें तूने पूछा है वह प्राणका यानी प्राण नामक वृत्ति-विशेषका प्राण है । उसके कारण ही प्राणका प्राणनसामर्थ्य है, क्योंकि आत्मासे अनधिष्ठित प्राणका प्रणन संभव नहीं है, जैसा कि  ’यदि यह आनंदस्वरूप आकाश न होता तो कौन जीवीत रहता और कौन श्वासोच्छ्वास करता’ ‘यह प्राणको उपर ले जाता है तथा अपानको नीचेकी ओर छोडता है’ इत्यादि श्रुतियाँसे सिद्ध होता है । यहां( इस उपनिषद में) भी यह कहेंगे ही कि जिसके द्वारा प्राण प्राणन करता है ऊसीको तू ब्रह्म जान ।
शंका -- परंतु यहाँ श्रोत्रादि इन्द्रियोंके प्रसंगमें घ्राणको ही ग्रहण करना युक्तियुक्त है, प्राणको नहीं ।
समाधान -- यह ठीक है । किन्तु श्रुति, प्राणको ग्रहण करनेसे ही घ्राणकाभी ग्रहण किया मानती है । इस प्रकरणको यही अर्थ बतलाना अभिष्ट है कि जिसके लिये संपूर्ण इन्द्रियसमूहकी प्रवृत्ति है वही ब्रह्म है ।
  तथा (वह ब्रह्म) चक्षुका चक्षु है । रूपको प्रकाशित करने वाले चक्षु- इन्द्रियमें जो रूपको ग्रहण करने की सामर्थ्य है वह आत्मचैतन्यसे अधिष्ठित होनेके कारण ही है ।इसलिए वह चक्षुका चक्षु है । 
प्रश्न --- कर्ताको अपने पूछे हुए पदार्थको जाननेकी इच्छा हुई ही करती है, इसलिए तथा ‘ अमृता भवन्ति’ (अमर हो जाते हैं) ऐसी फलश्रुति होनेके कारण भी उपर्युक्त श्रोत्रादिके श्रोत्रादिरूप ब्रह्मको जानकर --इस प्रकार यहाँ ‘ज्ञात्वा’ क्रियाका अध्याहार किया जाता है, क्योंकि अमरत्वकी प्राप्ति ज्ञानसे ही होती है, जैसा कि(ब्रह्मको) जानकार मुक्त हो जाता है’ इस उक्तिकी सामर्थ्यसे सिद्ध होता है । जीव श्रोत्रादि करण- कलापको त्यागकर -- श्रोत्रादिमें ही आत्मभाव करके उनकी उपाधिसे युक्त होकर जन्मता मरता और संसारको प्राप्तहोता है । अतः श्रोत्रादिका श्रोत्रादि रूप ब्रह्मही आत्मा है ऐसा जानकर और अतिमोचन करके अर्थात् श्रोत्रादिमें आत्मभावकोत्यागकर धीर पुरुष ‘प्रेत्य’ अर्थात् पुत्र, मित्र, कलत्र और बन्धुओंमें अहंता- ममताके व्यवहाररूप इस लोकसे विलग होकर यानी संपूर्ण एषणाओंसे मुक्त होकर अमृत- अमरण- धर्मा हो जाते हैं । जो लोग श्रोत्रादिमें आत्मभावका त्याग करते हैं वे धीर यानी बुद्धिमान होते हैं । क्योंकि विशिष्ट बुद्धिमत्वके बिना श्रोत्रादिमें आत्म- भावका त्याग नहीं किया जा सकता । 
‘कर्मसे, प्रजासे अथवा धनसे नहीं, किन्हीं-किन्हींने केवल त्यागसे ही अमरत्व लाभ किया है’ ‘स्वयंभूने इन्द्रियोंको बहिर्मुख करके हिंसित कर दिया है, इसलिए जीव बाह्य वस्तुओंको ही देखता है, अपने अंतरात्माको नहीं देखता । कोइ बुद्धिमान पुरुष अमरत्वकी इच्छासे इन्द्रियोंको रोककर अपने प्रत्यगात्माको देखता है’ ‘जिस समय इसके ह्वदयकी कामनाएँ छूट जाती हैं.....इस अवस्थामें वह ब्रह्मकोप्राप्तहोता है’ इत्यादि श्रुतियाँसे भी यही सिद्ध होता है ।अथवा एषणात्याग तो ’अतिमुच्य’ इस पदसे ही सिद्ध हो जाता है, अतः ‘अस्माल्लोकात्प्रेत्य’ का यह भाव समझना चाहिये कि इस शरीरसे अलग होकर यानी मरकर(अमर हो जाते हैं) ।।२।।

🌹🙏ऊँ परमात्मने नमः🙏🌹

🌹🌹🌼🌼🌹🏵🏵🌹🌹

🙏🙏जय श्री कृष्ण 🙏🙏

No comments:

Post a Comment