*शंका — वेद तो मनुष्य द्वारा भी निर्मित हो सकता है।*
*तो उनके समाधान के लिए यदि मनुष्यो ने वेद बनाया होता तो सृष्टि को बनानेवाला भी मनुष्य ही होना चाहिए;* *क्योंकि जिस वस्तु को जो बनाता है, उनका नियामक भी वही होता है, और मनुष्य का इतना सामर्थ्य भी नही की अपने पूरे शरीर को भी* *यथार्थरूप में जान लेवे। अर्थात बिना वेद की सहायता लिए।*
*मनुष्य अर्थात आत्मा स्वभावतः अल्पज्ञ होने से मनुष्य की शक्ति भी अल्प है, जब कि परमात्मा सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान होने से सृष्टि के क्रम के अनुकूल ही वेद ज्ञान दिया है।*
*मनुष्य अपने स्वार्थ के अनुकूल ही बात कहता है, जैसे हम संसार में देखतें जो अपनी वस्तु का बिक्री करता है, उनका जो विज्ञापन देता है, वंहा विज्ञापन और वस्तु का कोई तालमेल ही नही होता, किन्तु ईश्वर प्रदत्त वेद और कार्यजगत अर्थात सृष्टि में पुर्णतः समानता है।*
*तो यंहा प्रश्न होता है, की परमात्मा सर्वज्ञ कैसे है ?*
*परमात्मा सर्वव्यापक होने से सर्वज्ञ है।* *सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में व्यापक होने से सब कुछ जाननेवाला है।*
*इस कारण ऋषि कणाद ने वेद को परम प्रमाण मानते हुए कहा कि वेद में धर्म का उपदेश होने से हम आमान्य को प्रमाण मानते है।*
*यंहा दूसरे सूत्र में ऋषि ने बताया कि धर्म उसे कहतें है,की जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि होती हो, वह धर्म है,* *तब जिज्ञासु ने जिज्ञासा की, कि आप किस आधार पर कह सकतें है, की धर्म अभ्युदय और निःश्रेयस का साधन है, अर्थात अर्थ,काम और मोक्ष का साधन है।*
तब ऋषि ने कहा *तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्*
*मनुष्य, अपने आलस्य,प्रमाद ( अन्तःकरण की दुर्बलता )विप्रलिप्सा आदि दोषों के कारण ज्ञानी होने पर भी इन दोषों की संभावना दूर नही होती, किन्तु परमात्मा* *एक ऐसी सत्ता है, जो इन दोषों से सर्वथा रहित है।*
*वेद का पूर्ण प्रामाण्य तभी संभव है, जब इसे जगत के समान ईश्वर की रचना माना जाय। वेद को ईश्वर की रचना माने जाने में ऋषि कणाद ने कहा कि धर्म पदवाच्य-द्रव्यादि पदार्थो के रूपमें विस्तृत-जगत जिस प्रक्रिया से अभिव्यक्त किया जाता है,उसका विवरण उसी रूप में वेदों में किया गया है। जब यह तथ्य स्वीकार है, की इस जगत को अभिव्यक्त करनेवाला ईश्वर है, तब यह निश्चिन्त है, की उसकी अभिव्यक्ति की प्रक्रिया को वही जान सकता है, जगत को न बनाने वाला कोई मानव नही। इससे स्पष्ट है, ईश्वर-रचित जगत् और उसकी अभिव्यक्ति की प्रक्रियाओं का यदि कंही विवरण दिया गया है, तो वह विवरण ईश्वर की रचना हो सकता है।* *और *सृष्टि क्रम के अनुकूल विवरण वेद में ही होने से वेद का प्रामाण्य सिद्ध होता है।*
*Therory और practical इन दोनो का सामञ्जस्य harmony तभी संभव है,* *जब इन दोनों का रचयिता एक हो। यद्यपि भिन्न रचयिता हो, तो असामञ्जस्य की* *संभावना बराबर बनी रहती है।*
*इसी स्थिति को कणाद ऋषि ने अपने शास्त्र के प्रतिपाद्य( जो प्रतिपादन के योग्य हो ) विषय के अनुरूप निर्दिष्ट किया कि अब हम धर्म की व्याख्या करेंगे।
*अथातो धर्म व्याख्यास्याम* *और धर्म उन साधनों का नाम है, जिनसे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि होती हो। *यतोभ्युदयनिःश्रेयस सिद्धि: स धर्म:*
*और वह साधन विश्व के रूप में विस्तृत द्रव्यादि पदार्थ है। क्योंकि वह रचना ईश्वर की है,उसका पूर्णज्ञान उसीको होना सम्भव है। उसने वह ज्ञान जीवात्माओं के कल्याण की भावना से वेद रूप में प्रकट किया इसप्रकार द्रव्यादि पदार्थमय धर्म का कथन करने से वेद ईश्वरोक्त होने की स्पष्टता होने से व इसी आधार पर *तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्*
*यंहा शास्त्र में जिस विषय को प्रतिपाद्य किया है, उनका मूल वेदों से ही लिया गया है।*
*मुख्यतः ऋग्वेद से और कुछ यजुर्वेद से।*
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