#विजयमनोहरतिवारी
"द फ्लॉवर ऑफ अलेप्पो' ट्यूनीशिया के एक 18 साल के नौजवान मुराद की कहानी है। 2016 में आई डेढ़ घंटे की इस फिल्म में इस्लामी दुनिया की एक ऐसी मामूली झलक है, जो इस्लामिक स्टेट के धूमकेतु जैसे उभार के दिनों में दुनिया के हजारों घरों में घटित हुई थी। ये वो घर थे, जिनके नौजवान लड़के-लड़कियां इस्लामी खलीफा के आदर्श राज्य की खातिर िसर पर कफन बांधकर निकल गए थे। भारत से भी कुछ नौजवान सीरिया और इराक की तरफ गए थे।
ट्यूनीशिया सवा करोड़ से कम 98 फीसदी मुस्लिम आबादी वाला एक उत्तर अफ्रीका का मुल्क है, जो सातवीं सदी में ही अरबों के हाथों अपनी प्राचीन पहचान खो चुका था। यहांं एक बिखरते परिवार का इकलौता बेटा है मुराद। उसकी मां सलमा नर्स है और जिस परिवेश में वे रहते हैं, वह पूरी तरह पाश्चात्य रंग में ढला हुआ समाज है। सलमा अपने आर्टिस्ट पति से अलग हो रही है। मुराद उसके साथ ही है। सलमा को ज्यादातर एंबूलैंस में अपनी मेडिकल सेवा में व्यस्त ही बताया गया है।
सीरिया में इस्लामिक स्टेट के उभार का असर यहां भी दिखने लगता है, जब कट्टर दिमागवालों का एक जत्था फैशन स्टोर्स की लड़कियों को डराने-धमकाने लगता है। वे कुरान पढ़ते हैं। नमाज करते हैं। उनके हाथों में हथियार हैं और प्लास्टिक के उन पुतलों के सिरों पर िनशाना लगाते हैं, जो आधुनिक लिबास की दुकानों पर सजे होते हैं। मुराद म्युजिक का शौकीन है, जो अपनी गर्लफ्रेंड के साथ गिटार के तार छेड़ता रहता है। उसका अकेलापन इन टोपीधारियों तक लेकर आ जाता है, जहां मजहब की एक कड़क खुराक उसके दिमाग में डाली जाती है। अब दीन की दूरदृष्टि के साथ उसके सिर पर भी टोपी आ जाती है। अचानक ही हंसती-खेलती दुनिया दुश्मन हो जाती है और दुश्मन को मारना बेहद जरूरी है।
एक दिन वह घर छोड़ देता है। ट्यूनीशिया में अचानक दर्जनों परिवार तस्वीरों के साथ सामने आने लगते हैं, जिनके नौजवान बच्चे घर छोड़कर चले गए। वे सब सीरिया का रुख करते हैं। मुराद भी वहीं जा पहुंचता है। काले झंडों पर अरबी नारे लिखी खुली गाड़ियों में में हथियार लहराते हुए निकलते हैं। अल्लाहो-अकबर का महामंत्र गुंजाते, सरकारी फौजों पर निशाना लगाते, अपने ख्वाबों की जन्नत का मुल्क बनाते, सिर पर सवार अपना खून और दूसरों के खून के प्यासे जिहादी।
सलमा अपने इकलौते बेटे को वापस लाने की खातिर नर्स के रूप में इस्लामिक स्टेट को अपनी सेवाएं देने के लिए ट्यूनीशिया से सीरिया आती है। वह आतंकियों के गिरोहों में काम शुरू करती है और यहां उस जैसी दूसरी औरतें पहले से देखती है, जो हथियार चलाने में माहिर हैं और इस्लाम उनके सिर पर भी वैसा ही सवार है, जैसा उन हथियारबंद जिहादियों के सिर पर, जिन्हें किसी का भी सिर काट लाना बच्चों के खेल जैसा है।
अगर आपने इराक की यजीदी लड़की नादिया मुराद की कहानी "द लास्ट गर्ल' पढ़ी है तो सलमा के सीरिया पहुंचते ही ऐसी कई नादिया मुरादों से आप रूबरू होते हैं। खूबसूरत सलमा को एक सेक्स स्लेव के रूप में वे ही आतंकी इस्तेमाल करते हैं। वह उसका वीडियो भी बनाते हैं। सब तरफ से हताश और लुटी-पिटी सलमा एक दिन गन से उन सबको मार देती है। वह फौजी लिबास में बाहर निकलती है तो उसे दुश्मन समझकर एक बंदूक उसे निशाने पर लेती हुई नजर आती है। वह बंदूक उसी के बेटे मुराद के हाथों में हैं। ट्रिगर दबता है। गोली उसके सीने में धंसती है। वह गिरती है। मुराद जोश में उसके पास आकर नकाब हटाता है तो चौंककर देखता है।
काले लिबास में मौसूल की मस्जिद में देखे गए खलीफा अबू बकर अल बगदादी को एक दिन कुत्ते की मौत मरता हुआ दुनिया ने देखा मगर वह दुनिया भर के हजारों घरों के नौजवान लड़के-लड़कियों को ईंधन के रूप में इस्तेमाल कर चुका था। नादिया मुराद की किताब इस्लामी विजेताओं के हाथ आने वाली गुलाम लड़कियों की दर्द भरी दास्तान है, जो बाजार में कौड़ियों के दाम बेची और खरीदी जाती हैं। खुद नादिया को एक हाजी से लेकर एक दीनदार डॉक्टर तक ने खरीदा और इस्तेमाल करके बेचा था।
सलमा की लाश के सामने मुराद के आते ही फिल्म खत्म हो जाती है। मगर फिल्म तो बगदादी के मरने से भी खत्म नहीं हुई है। जब तक मरने के बाद काल्पनिक जन्नत का ख्वाब किताबी दास्तानों में रहेगा, बगदादी भी होते रहेंगे और कोई न कोई सलमा अपने किसी न किसी इकलौते मुराद को खोएगी ही। गैर मजहबी होने से कोई न कोई नादिया कहीं न कहीं से उठाई ही जाएगी। वह बिकेगी और बरबाद होगी। बेमौत मरने वाले बेकसूर अनगिनत लोगों के तो न अब किसी को नाम मालूम हैं और न आगे होंगे।
ये न फिल्म हैं, न किताबें। ये रेत पर मुरझाते फूलों की कहानियां हैं। वे फूल, जिन्हें खिलकर गुलशन को महकाना था। उस गुलशन को, जिसमें कोई दुश्मन था ही नहीं। वह कल्पना से पैदा किया गया डर था। एक ख्वाबों की जन्नत के लिए, जो कहीं है ही नहीं!
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