१. यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म
- शतपथ ब्राह्मण
यज्ञ संसार का सर्वश्रेष्ठ कर्म है।
२. यज्ञो वै कल्पवृक्षः।।
यज्ञ कामनाओं को पूर्ण करनेवाला है।
३. ईजानाः स्वर्गं यन्ति लोकम्।।
-अथर्ववेद १८.४.२
यज्ञकर्त्ता स्वर्ग (सुख) को प्राप्त करते है ।
४. अग्निहोत्रं जुहूयात् स्वर्गकामः।।
स्वर्ग की अभिलाषा रखने वाले व्यक्ति यज्ञ करें।
५. होतृषदनम् हरितम् हिरण्यम् ।।
यज्ञ वाले का घर धन - धान्य से पूर्ण होता है।
६. यज्ञात् भवति पर्जन्यः।।
- गीता
यज्ञ से वर्षा होती है ।
७. इयं ते यज्ञियाः तनू ।।
ये तेरा शरीर यज्ञादि शुभ कर्मों के लिए है ।
८ . स्वर्ग कामो यजेत्, पुत्र कामो यजेत्।।
स्वर्ग और पुत्र की कामना करनेवाले व्यक्ति यज्ञ करें ।
९. यज्ञं जनयन्त सूरयः।।
- ऋग्वेद १०.६६.२
हे विद्वान्! संसार में यज्ञ का प्रचार करो।
१०. यज्ञो वै देवानामात्मा।।
- शतपथ ब्राह्मण
यज्ञ देवताओं की आत्मा है।
११. यज्ञेन दुष्यन्तो मित्राः भवन्ति।।
- तै ० उप०
यज्ञ करने वाले व्यक्ति के शत्रु भी मित्र बन जाते है।
१२. प्राचं यज्ञं प्रणयता सखायः।।
- ऋग्वेद १०.१०१.२
१३. अयज्वानः सनका प्रेतमीयुः।।
- ऋग्वेद १.३३.४
यज्ञ न करनेवाले उन्मत्त का सर्वनाश हो जाता है।
१४. न मर्धन्ति स्वतवसो हविष्कृतम्।।
- ऋग्वेद १. १६६ .२
याज्ञिक को महाबली भी नहीं मार सकता।
१५. सजोषसो यज्ञमवन्तु देवाः।।
-ऋग्वेद ३.८.८
विद्वान् परस्पर प्रीतिपूर्वक यज्ञ की रक्षा करें।
१७. यज्ञस्य प्राविता भव।।
-ऋग्वेद ३.२१.३
तू यज्ञ का रक्षक बन।
१८. यज्ञो हित इन्द्र वर्धनो भूत्।।
- ऋग्वेद ३.३२.१२
हे जीव! यज्ञ ही तुझे बढ़ानेवाला है।
१९. यज्ञस्ते वज्रमहिहत्य आवत्।।
- ऋग्वेद ३.३२.१२)
यज्ञरूपी वज्र पाप नाश में सफलता दिलाता है।
२०. अयज्ञियो हतवर्चा भवति।।
- अथर्ववेद १२.२.३७
यज्ञ न करनेवाला का तेज नष्ट हो जाता है।
२१. यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः।।
- अथर्ववेद ९.१०.१४
यज्ञ विश्व व ब्रह्माण्ड का केन्द्र है।
२२. ईच्छन्ति देवाः सुन्वन्तम्।।
- ऋग्वेद ८.२.१८
यज्ञकर्त्ता को देवगण भी चाहते है।
२३. अतमेरुर्यजमानस्य प्रजा भूयात्।।
- यजुर्वेद १.२३)
हे ईश्वर ! यजमान की संतान संतापरहित हो।
२४. स यज्ञेन वनवद् देव मर्तान्।।
- ऋग्वेद ५.३.५
प्रभु यज्ञकर्त्ता मनुष्य को देव बनाकर शक्तियुक्त कर देता है।
२५. विश्वायुर्धेधि यजथाय देव।।
- ऋग्वेद १०.७.१)
हे देव! हमें सम्पूर्ण आयु यज्ञ के लिए दो।
२६. यजस्व वीर।।
- ऋग्वेद २.२६.२
हे वीर! तू यज्ञ कर।
२७. देहि में द दामि ते।।
तुम मुझे दो, मैं तुम्हें देता हूं।
२८. यज्ञो हि त इंद्र वर्धनो भूत
- ऋग्वेद
No comments:
Post a Comment