Tuesday, April 12, 2022

1965 का युद्ध।

1965 का युद्ध था, और कमान जनरल अख्तर के हाथ मे थी।

शानदार मौका था ये हिंदुस्तान से कश्मीर छीनने का। भारत की सेना 1962 के शॉक से अभी उबरी न थी। दूसरी सुरक्षा, याने नेहरू का इंटरनेशनल औरा भी अब नही था। वो साल भर पहले इस दुनिया से जा चुके थे। 

और भारत मे एक कमजोर आदमी पीएम था। जिसे सत्ताधारी पार्टी दो गुटों की खींचतान के कारण में मौका मिला था।
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इधर पाकिस्तान अपने स्वर्णयुग में था। जनरल अयूब 8 साल से सत्ता में थे। वो शानदार आठ साल, पाकिस्तान के इतिहास में चहुमुंखी विकास का एकमात्र दौर था। और सेना, तो अत्याधुनिक अमरीकी हथियारों से लैस..

इस ऐतिहासिक क्षण को जाने कैसे दिया जाता। पहले कच्छ के रन में ट्रायल किया गया। रेडक्लिफ लाइन वहां अस्पस्ट थी, तो बार्डर डिस्प्यूट वहां भी था। पाकिस्तान ने हमला किया। हिंदुस्तान गच्चा खा गया। पाकिस्तान ने काफी इलाके जीत लिए। 

ट्रायल सफल रहा। 

अब कश्मीर में असल काम करना था। ईस्टर्न कमांड के मुखिया जनरल अख्तर हुसैन मलिक के हाथ थी। पहले कबायलियों ने घुसपैठ की। इधर उधर आर्म्ड अप्राइजिंग होने लगी। ऐसा लगे कि जैसे कश्मीर के लोकल लोग रिवोल्ट कर रहे हो। ये ऑपरेशन जिब्राल्टर था। 

उसके पीछे ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम। याने सीधे पाकिस्तानी सेना टूट पड़ी। राजौरी, पुंछ, अखनूर के सेक्टर्स में पाकिस्तान इस तरह घुसा जैसे मक्खन में गर्म चाकू घुसता है। अब श्रीनगर ज्यादा दूर नही था। बस , दो दिन ..
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पाकिस्तान जीत के नशे में था। लेकिन अयूब की चिंता दूसरी थी। मलिक साहब तो अहमदिया थे। कादियानी कहते है पाकिस्तान में, 

स्थानीय राजनीति में कादियानियों को गैर मुस्लिम, दोयम दर्जे का स्टेटस देने की कोशिशें चल रही थी। ऐसे में कोई कादियानी कश्मीर जिता दे, हीरो बन जाये, तो आंतरिक राजनीति के इक्वेशन गड़बड़ा जाते। 

अख्तर हुसैन मलिक को हीरो बनने से रोकना था। इसलिए ठीक जीत की दहलीज पर अख्तर साहब से कमान वापस ले ली गयी। 

अयूब के फेवरिट चमचे, शुद्ध सुन्नी मुसलमान, जनरल याह्या को कमान दी गयी। 
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जनरल याह्या, भारत की सरजमी पर ( जो अब पाकिस्तानी कब्जे में थी) हेलीकॉप्टर से उतरे। चार्ज लिया। और सिचुएशन समझने लगे। 

इधर कमांड बदल गयी, तो फौजों में कनफ्यूजन छा गया। अख्तर के कुछ आदेश, याह्या ने बदले। आदेश कुछ यूनिट तक पहुचा, उन्होंने रणनीति बदल ली। जिन यूनिट तक बात न पहुँची, पुरानी रणनीति पर चलते रहे। तीन दिन यह अफरातफरी बनी रही।
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भारतीय फौजो को सांस लेने के लिए इतना वक्त कुछ ज्यादा ही था। उसने पलटकर हाजी पीर जीत लिया। पाकिस्तान के आगे बढ़ने का रास्ता बंद हो गया।

पाकिस्तान कुछ पलटवार करता, कि पहले भारत ने पंजाब, राजस्थान में भी नए मोर्चे खोल दिये। यह तो गजब हुआ। कमजोर नेता यकायक ही आयरनमैन बन गया था। पाक ने सोचा नही था कि इंडिया इंटरनेशनल बार्डर क्रॉस करेगा। 

अब फौजे कश्मीर से हटाकर पंजाब लाने की योजना बनने लगी। पूरी होती उससे पहले भारत लाहौर पहुच गया। चेसबोर्ड पूरी तरह बदल गया था, पाकिस्तान ने घुटने टेक दिए। 
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आगे की कहानी आपको पता है। जो मैं बताना चाहता हूँ, वो यह कि एक पेट्रियोटिक, सधे हुए जनरल को सिर्फ दूसरे सेक्ट का होने के कारण राह रोकी गयी। 

वो तीन दिन अगर अपनी धार्मिक सोच, सेक्टोरल नफरत और आंतरिक राजनीति के चक्कर मे अयूब ने बर्बाद न किये होते, तो कश्मीर की समस्या तब ही सुलझ गयी होती। (पाकिस्तानी नजरिये से) 
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अपनी धार्मिक सोच, सेक्टोरल नफरत, और आंतरिक राजनीति के चक्कर मे भाजपा ने 1989-90 के ब्लंडर किये और करवाये नही होते, तो कश्मीरी आतंकवाद की समस्या, पंजाब की तरह 20 साल पहले सुलझ चुकी होती। 

क्या यह सच नही के रेडक्लिफ लाइन कब दोनो तरफ एक ही तरह के लोग हैं। बेवकूफ, शार्ट साइटेड, और नफरत में अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मारने वाले लोग। 

जनरल अख्तर हुसैन की कहानी से तो मुझे ऐसा ही लगता है।

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