नरेंद्र मोदी ने इलाहाबाद संग्रहालय में रखा हुआ “सेंगोल” निकाल कर लोकसभा में स्थापित करने का निर्णय किया है।
यह “सेंगोल” सनातन संस्कृति का चिन्ह है जो 800 वर्ष तक राज करने वाले “चोला राजवंश” की निशानी है और जो राज चलाने के लिए मार्गदर्शन करता था राजवंश के राजाओं का।
नेहरू ने इसे स्वीकार तो कर लिया परंतु क्योंकि यह सनातन की निशानी था, इसे लोकसभा में स्थापित न करके संग्रहालय में रखवा दिया और किसी को इसके बारे में जानकारी ही नहीं हुई।
गयासुद्दीन नेहरू ने न्यायप्रिय शासन संचालन के लिए अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में सैंगोल ग्रहण किया था, उसके बाद प्रधानमंत्री बने। इस परंपरा को क्यों भुला दिया गया? यह नेहरू और कांग्रेस के लिए फिर से एक बड़ा प्रश्न बनकर सामने आ गया है।
इससे भी बड़ी दुख की बात है कि सैंगोल के शीर्ष पर भोले बाबा के अनन्य भक्त नंदी की मूरत बनी हुई है। जब मोदी जी सैंगोल स्वीकार कर शासन पीठ के समक्ष इसे स्थापित करेंगे, तो एक बार फिर भारत की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्न खड़ा हो जाएगा। लेकिन इस प्रश्न के लिए भी कौन उत्तरदाई है, गयासुद्दीन नेहरू.
#सेंगोल का अर्थ कर्तव्यपरायणता होता है। यह एक #राजदंड है। शिवभक्त महाशक्ति चोल राजा अपने 500 वर्ष के लंबे शासनकाल में सत्ता हस्तांतरित करते थे।
यह पवित्र राजदंड वैदिक #पुजारियों द्वारा पहले गंगाजल से पवित्र किया जाता है। फिर क्रमशः शासक को सौंपते हैं। उत्तरापथ में राजमुकुट से सत्ता हस्तांतरित होती है।
1947 में राजगोपालाचारी के अनुरोध पर कि भारतीय संस्कृति में सत्ता हस्तांतरण एक प्रक्रिया से होती है, नेहरू तैयार हो गये।
चेन्नई के सोनारों ने एक पवित्र सेंगोल बनाया। जिसे पहले लाकर माउंटबेटन को दिया गया। फिर पुजारियों ने मंत्रोच्चार से इसे गंगाजल से पवित्र किया और नेहरू को सौंप दिया।
यह कार्य तमिलनाडु के शैव मठ थिवरुदुथुराई के महायाजकों ने संपन्न कराया गया था।
तमिलनाडु की कलाकार पद्मा सुब्रमण्यम ने जब प्रधानमंत्री को यह अवगत कराया तो उस सेंगोल की बहुत खोज हुई।
प्रयागराज के संग्रहालय में यह सेंगोल मिला। जो लिखा गया था वह कहने योग्य नहीं है। इसे संग्रहालय में नेहरू की छड़ी कहके रखा गया था।
सेंगोल पर गोल पृथ्वी बनी है। उस पर भगवान शिव के वाहन नंदी हैं। यह सनातन धर्म के राज्यधर्म का एक प्रतीक अब नई संसद में लोकसभा अध्यक्ष की पीठ के पास होगा।
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