Wednesday, May 17, 2023

तो आंबेडकर ने अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष में सक्रिय हिस्सा क्यों नहीं लिया??

ये वो सवाल है जो भारतीय समाज की संरचना, इसमें मौजूद शोषण की संस्थाओं के वर्चस्व, इसकी कार्यात्मकता और डायनेमिक्स को समझने के अनिच्छुक लोग अक्सर पूछा करते हैं...... कुछ विस्तार से इस पर बात!
यूँ तो अपढ़ कुपढ़ बेपढ़ लोगों के ऐसे सवालों को महत्वपूर्ण मानने की कोई ज़रूरत नहीं होनी चाहिए, ऐसा कहा जा सकता है! लेकिन सवाल तो सवाल है और अक़्सर  अपरकास्ट के ठीक ठाक चेतना के लोग ये सवाल खड़ा करते रहते हैं और कई बार वो इसका जवाब जानने के लिये ये सवाल नहीं करते बल्कि इस सवाल के ज़रिये उत्पीड़ित सबऑलटर्न आइडेंटिटीस के पूरे आंदोलन को खारिज़ करने के लिये इसका इस्तेमाल करते हैं. 
कुछ समय पहले चर्चित लेखक अशोक कुमार पांडेय ने अपनी एक फेसबुक पोस्ट में अप्रत्यक्ष रूप से आंबेडकर पर निशाना साधते हुए लिखा कि स्वतंत्रता संघर्ष में भाग न लेने वाले और अंग्रेजों के यहां नौकरी करने वालों के वंशजों को भी शर्मिंदा होना चाहिए, उनके बेहूदा तर्क का मैंने उचित जवाब देने की कोशिश की आंबेडकर पर इस तरह हमला करने वाले धूर्त  ये नहीं देखते कि अंग्रेजों के यहां नौकरी करने से पहले आंबेडकर ने सैन्य सचिव के पद पर बड़ौदा राज्य में नौकरी की थी, जहाँ दुनिया के शीर्ष संस्थानों से उच्च शिक्षित आंबेडकर को सवर्ण चपरासी फ़ाइल फेंककर देते थे, सैन्य सचिव अपने ऑफिस में पानी नहीं पी सकता था, उन्हें कोई भी किराए पर आवास देने को तैयार नहीं था, बड़ौदा के राजा भी अपनी रियासत में आंबेडकर को घर नहीं दिला पाये! ऑफिसर्स क्लब में बड़ी मुश्किल से केवल एक मुस्लिम वेटर अलग बर्तनो में आंबेडकर को सर्व करने को तैयार था!
       ये सब देखने जानने और समझने से इंकार करने वाले सवर्ण हमारे देश में बुद्धिजीवी कहलाते हैं.. 
    अयोध्या सिंह,अरुण शौरी और अब अशोक कुमार पाण्डे जैसे लेखक आंबेडकर के खिलाफ़ अभियान चलाते रहे हैं!
आंबेडकर को नीचा दिखाने या उनके खिलाफ़ परसेस्पशन बनाने के मिशन में अशोक कुमार पांडे सबसे नए और सबसे चालाक लेखक हैं । वो आंबेडकर को नीचा दिखाने के साथ तुलसीदास के बचाव में भी खड़े हो जाते हैं।
  भारत का,खासकर हिंदी का अपरकास्ट मार्क्सवादी बौद्धिक अक्सर ऐसा ही होता है। भारत के विकास की इस मंजिल में उसे ऐसा ही होना है..
हमे लेखन का जवाब लेखन से ही देना चाहिए ।
    हमे कहना चाहिए कि गांधी ने अंग्रेजो के खिलाफ नमक सत्याग्रह किया और आंबेडकर ने जातिवादी सवर्णो के खिलाफ महाड में पानी का सत्याग्रह किया..... नमक ज़्यादा ज़रूरी है या पानी?? 
अंग्रेजों के चले जाने के बाद नमक सत्याग्रह की ज़रूरत नहीं रही लेकिन दलित पानी के लिये आज भी संघर्ष करते हैं, तथाकथित आज़ाद भारत में आंबेडकर का पानी का सत्याग्रह आज भी जारी है!
    आंबेडकर की भूमिका को नकारात्मक बताने वाले अपढ़ कुपढ़ और बेपढ़ लोगों की अच्छी ख़ासी तादात उत्तराखंड में भी है उन्हें एक स्थानीय उदाहरण देता हूँ। 
      उत्तराखण्ड के रचनात्मक शिक्षक मंडल के एक यू ट्यूब ऑडियो में प्रो शेखर पाठक ने बताया कि कुमाऊँ के अल्मोड़ा जिले के सल्ट में 5 सितंबर 1942 को अंग्रेजो के खिलाफ सत्याग्रहियों का जनविद्रोह हुआ... जिसे सल्ट का जनविद्रोह या गांधी द्वारा 'कुमाऊँ का बारदोली' कहा गया!
प्रो पाठक के मुताबिक आंदोलनकारियों में और अंग्रेजो के हाथों  मारे गये लोगों में दलित भी थे... एक दलित 'बड़वाराम' अपना वाद्य नरसिंहा बजाकर आंदोलनकारियों का हौंसला बढ़ा रहे थे.. 
जाद भारत में  1980 में इसी सल्ट में 'बड़वाराम' के समुदाय के लोगों ने एक विवाह समारोह में दूल्हे को पालकी में ले जाने की 'हिमाक़त' कर दी...बेचारे समझे होंगे कि भारत तो आज़ाद हो चुका है और हमारे पुरखे 'बड़वाराम' ने भी अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई में हिस्सा लिया था ...लेकिन वो ग़लत थे आज़ाद भारत में उनकी इस हिमाक़त के बदले उसी सल्ट के कफल्टा में 14 दलित ज़िंदा जला दिये गये....वो शहीद हुए... वो आजाद भारत के सल्ट के शहीद हैं... वो असली जनविद्रोह था... आजाद भारत का सल्ट का जनविद्रोह जो 'बड़वाराम' के वंशजों ने किया । उन्होंने सवर्णो के मातहत नरसिम्हा बजाने से इंकार किया, और अपने मानवीय अधिकारों के लिये मारे गये.... 
स्वतंत्रता संघर्ष में हिस्सा लेने वाले लोगों के वंशजों के साथ उन्हीं की जमीन पर उसी जगह पर आजाद भारत में ये सुलूक किया गया और धूर्त लोग पूछते हैं कि आंबेडकर ने अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष में हिस्सा क्यों नहीं लिया? 
     क्योंकि आंबेडकर 'बड़वाराम' की तरह सवर्णों के मातहत बाजा नहीं बजाना चाहते थे क्योंकि आंबेडकर जानते थे कि 'बड़वा' का मतलब कीड़ा मकौड़ा होता है.
क्योंकि  उन्हें पता था कि सवर्णों की मंशा उन्हें इस्तेमाल कर कीड़े मकोड़े की तरह मसल देने की है! क्योंकि सवर्ण दलित को केवल कीड़े का नाम ही नहीं देते वो उसे कीड़े से ज़्यादा मानते भी नहीं । आंबेडकर ने कीड़े मकोड़ों का नहीं बल्कि इंसानों का महान संघर्ष चलाया 
वो संघर्ष आज भी जारी है...
इस तस्वीर को देखें 

तस्वीर में क्लासरूम से बाहर बिठाये गये आदमी से अगर क्लास के भीतर से  कोई ये सवाल करे कि 
" क्लास में ज़हरीला साँप घुस आया है तुम आकर इसे मारते क्यों नहीं???  "
तो इंसानी इतिहास का इससे बेहूदा और बेशर्म सवाल और कोई नहीं हो सकता।
– मोहन मुक्त
- प्रा. जावेद पाशा, संकलन

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