Friday, August 27, 2021

अफगानिस्तान संकट।

अमेरिका उस मतवाद पर प्रहार नहीं कर पाया, जिसमें बसे हैं तालिबान आतंकी धड़े के प्राण...*
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नेपोलियन ने कहा था कि किसी भी युद्ध में योद्धाओं के मनोबल और उनकी भौतिक ताकत में वही संबंध है जो दस और एक में होता है। इसे अफगानिस्तान के हालिया इतिहास में कई बार देखा जा चुका है। फिर भी यह बात बड़े-बड़े रणनीतिकार नहीं समझ पाए। शायद वे इसे देखकर भी अनदेखा करते हैं। इसका सबसे सटीक उदाहरण तालिबान है। यह वह नाम है जो पिछले तीस साल से आतंक का पर्याय बन कुख्यात हो चला है। तालिबान का पूरा परिचय छिपाया जाता है। हालांकि, उनकी करतूतें खूब दिखाई जाती हैं। जैसे तालिबान द्वारा किसी को मारकर खंभे पर लटका देना, स्त्रियों को प्रताड़ित करना या ऐतिहासिक-सांस्कृतिक प्रतीकों को ध्वस्त करना आदि। गैर-मुस्लिमों के साथ उनके अपमानजनक व्यवहार को भी दिखाया जाता है, लेकिन इस पर चुप्पी साध ली जाती है कि तालिबान असल में ऐसा करते क्यों हैं? यह तब है जब खुद तालिबान बड़ी ठसक के साथ इन कृत्यों के पीछे कारणों की जोरशोर से मुनादी करता है। वहीं उससे प्रताड़ित पक्ष इस पर खामोश रहते हैं। इससे तालिबान का मनोबल बढ़ता है। अफगानिस्तान के संदर्भ में हालिया विमर्श अभी भी ट्रंप-बाइडन प्रतिद्वंद्विता, लचर अफगान सैन्य बल, भ्रष्टाचार, पाकिस्तानी छल और भौगोलिक स्थिति इत्यादि पर तो हो रहा है, मगर तालिबान के विचार और उसके स्नोत पर चर्चा शून्य है।

भारत में तो संघ परिवार को ‘हिंदू तालिबान’ कहकर लांछित किया जा रहा है, जबकि मूल तालिबान के प्रति सम्मान का भाव है। खुद संघ-भाजपा भी तालिबान पर कुछ कहने में संकोच करते हैं। यह सब भी तुलनात्मक मनोबल ही दर्शाता है। वस्तुत: तालिबान के कारनामों का कारण उनके नाम में मौजूद है। तालिबान यानी छात्र। किसके छात्र? देवबंदी मदरसों के छात्र। यह कोई छिपी बात नहीं। वर्ष 1995-2001 के बीच जब अफगानिस्तान के शासक के रूप में तालिबान कुख्यात हुए तो असंख्य विदेशी पत्रकारों ने भारत स्थित देवबंद आकर उस संस्था को जानने-समझने की कोशिश की थी, जिसकी सीख तालिबान लागू करते रहे। उन्होंने वही किया था जो दुनिया में अनेक इस्लामी शासकों ने गत चौदह सौ सालों में किया, परंतु यह सब जानकर भी अनजान बना जाता है। यहां टैगोर की पंक्ति सत्य लगती है कि सत्य को अस्वीकार करने वाले की पराजय होती है।

जिहादी संगठनों और इस्लामी सत्ताओं से लड़ने में यही हो रहा है। तालिबान के विचार, उनके मदरसों के पाठ्यक्रम और किताबों आदि को श्रद्धास्पद मानकर तालिबान से महज भौतिक, शारीरिक लड़ाई लड़ी जा रही है। ऐसे में परिणाम तय है। आप मुल्ला उमर, बगदादी या ओसामा से निपटेंगे तो उनके बाद दूसरे आ जाएंगे, क्योंकि अपने मतवाद पर उनका भरोसा यथावत है। दूसरी ओर अमेरिकी, यूरोपीय नेता, नीति नियंता और सेनानायक भ्रमित हैं। उन्हें समझ नहीं आता कि वे किससे और किसलिए लड़ रहे हैं?

एक पुरानी कहानी है। एक राक्षस अजेय था, क्योंकि उसके प्राण उसकी देह में नहीं, बल्कि किसी पर्वत पर रहने वाले तोते में बसे थे। आज जिहादी आतंक कुछ वैसा ही राक्षस है, जिसे खत्म करने में बेहतरीन हथियारों से सुसज्जित सेनाएं भी असमर्थ हैं। अमेरिका-यूरोप की आतंक के विरुद्ध युद्ध में नाकामी का यही कारण रहा वे उस मतवाद पर प्रहार नहीं कर पाए हैं, जिसमें इस आतंक के प्राण बसे हैं। मात्र आतंकी सरगनाओं को मारने से काम नहीं बनेगा।

विचित्र यह है कि अमेरिका, यूरोप या भारत की आम जनता भी धीरे-धीरे असलियत समझ चुकी है, मगर नेता नजरें चुराते हैं। जिहादी इतिहास के अध्ययन और अनुभवों से अब तमाम लोग झूठे प्रचार को खारिज करने लगे हैं। इस्लामी संगठनों, नेताओं और मौलानाओं के बयानों व क्रियाकलापों का संबंध समझ रहे हैं। सभी किसी न किसी बहाने जिहादी हिंसा का प्रत्यक्ष/परोक्ष समर्थन करते हैं। ऐसा करते हुए सदैव इस्लाम का ही हवाला देते हैं।

स्पष्ट है कि तालिबान को हराने में विफलता उद्देश्य की पहचान में गलती के कारण मिली है। तालिबान के पीड़ितों को यह बताना था कि उन्हें तालिबान के वैचारिक स्नेत और आधार को नकारना होगा। अन्यथा जीत नहीं सकते। क्या वाम विचारधारा को आदर देकर साम्यवाद को पराजित किया जा सकता था? वैसे ही शरीयत, देवबंदी मदरसों और मौलानाओं को पुरस्कृत-प्रोत्साहित कर जिहाद को हराना असंभव है। यही अफगानिस्तान का सबक है, जिसे सीखकर ही सही लड़ाई होगी। किसी मतवाद की बुराइयां दिखाना सहज शैक्षिक काम है। उस मतवाद को मानने वालों का मनोबल तभी टूटेगा, जब वे विचारों का बचाव विचार से करने में विफल होंगे। यह किया जा सकता है। केवल डटने भर की जरूरत है।

दुर्भाग्यवश अभी तक दुनिया के दिग्गज नेता और बुद्धिजीवी तालिबानी आतंक को उनके मजहबी विश्वास से अलग कर निपटने की कोशिशों में लगे हैं। किसी मजहब के प्रति आस्था भाव में उन्होंने उसके हिंसक राजनीतिक स्वरूप से भी आंखें मूंद ली हैं। इसी कारण तालिबान के खिलाफ लंबी और महंगी लड़ाई लड़ने के बावजूद अमेरिका को उसके साथ समझौते पर मजबूर होना पड़ा। अमेरिका द्वारा इसे केवल एक सामरिक संघर्ष मान लेना उसके लिए बड़ी भूल साबित हुई। वास्तव में यह एक वैचारिक लड़ाई भी थी।

तालिबान विशुद्ध जिहादी हैं। वे अमेरिका का सहयोग करने वाले अफगान लोगों को इस्लाम विरोधी समझ कर मारते हैं। इस्लामी सिद्धांत गैर-मुसलमानों, जिन्हें काफिर कहा जाता है, से दोस्ती की मनाही करता है। इसी कारण आम अफगान देश छोड़कर भाग रहे हैं, क्योंकि उन्हें तालिबान से जीतना असंभव लगता है। तालिबान ने तो इस्लामिक कानून लागू करने की दिशा में कदम भी बढ़ा दिए हैं। इसके बावजूद वैश्विक विमर्श में इस केंद्रीय तत्व का उल्लेख लुप्त है। इसी भूल के कारण जिहाद के विविध रूपों, संगठनों और संस्थानों के विरुद्ध लड़ाई बिल्कुल लचर रही है। जिहादियों से लड़ने वालों का दुर्बल आत्मविश्वास वैचारिक भ्रम का परिणाम है। इसे सुधारे बिना कोई अन्य मार्ग नहीं।

- डॉ. शंकर शरण (२७ अगस्त २०२१)

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