Friday, July 17, 2020

एकलव्य के कटे अँगूठे का भ्रांति निवारण।

मघा पाक्षिक में रामायण पर लिख रहे मित्र गिरिजेश राव ने वाल्मीकि रामायण की चर्चा के दौरान उल्लेख किया कि, "युद्ध में हर बार राम लक्ष्मण द्वारा गोह के चर्म से बने हस्त-त्राण पहनकर धनुष बाण चलाने का उल्लेख है। 
त्वरित गति से कम समय में ही अधिक बाण चला लेने की दक्षता और बाण चढ़ाने में अँगूठे के प्रयोग में सामंजस्य नहीं बैठता। कोई और तकनीक अवश्य रही होगी जो बारम्बारता के कारण अँगूठे को घायल होने से बचाती होगी। 
सम्भवत: आज की तरह ही अँगूठे का प्रयोग न होता रहा हो।"

पहला चित्र-

काँची के कैलाशनाथ मंदिर में अँगूठा बचाते धनुर्धर अर्जुन 

कितने ही लोगों ने रामायण पढ़ी है, कितने तो उसके विद्वान भी हैं। 
लेकिन सबकी दृष्टि अलग होती है और उनके अवलोकन भी। 
हम तमसो मा ज्योतिर्गमय की संस्कृति के वाहक हैं। 
हमारे अंक, अहिंसा, योग, शर्करा, हीरे, धातुकर्म, संगीत, शिल्प, शाकाहार, विश्व-बंधुत्व, शवदाह, और मानवमात्र से आगे बढ़कर, प्राणिमात्र के जीवन और अस्मिता के सम्मान जैसे कितने ही तत्व भारत के बाहर कभी आश्चर्य से देखे गए और कभी निरुत्साहित भी किये गए। लेकिन ज्यों-ज्यों अन्य क्षेत्र संस्कृति के प्रकाश से आलोकित हुए, भारतीय परम्पराओं की स्वीकृति और सम्मान दोनों ही बढ़ते चले गये।

गिरिजेश के रामायण अवलोकन से भारतीय शास्त्रों से संबन्धित एक कुटिल ग्रंथि निर्कूट होती है। यह ग्रंथि है महाभारत में एकलव्य और द्रोणाचार्य के संबंध का भ्रम। 
सामान्य समझ यह है कि द्रोणाचार्य ने अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के लिए उससे श्रेष्ठ धनुर्धर एकलव्य का अँगूठा ले लिया।

क्या संसार के सर्वश्रेष्ठ गुरु परशुराम के शिष्य और अपने समय के अजेय योद्धाओं के आचार्य द्रोण को छल से ऐसे किशोर का अँगूठा काटने की कोई ज़रूरत थी, जो उनके इशारे पर अपना सर काटकर रख देता? 
क्षणिक संवाद में एक अनजान शिष्य को एक दूर्लभ सूत्र दे देने की बात समझ आती है। 
माँगने का अर्थ सदा काटना भर नहीं होता। 
एक आचार्य को जानता हूँ जो गुरुदक्षिणा में अपने सिगरेटखोर शिष्यों की धूम्रपान की लत माँग लेते थे।

अथ गुणमुष्टयः
पताका वज्रमुष्टिश्च सिंहकणीं तथैव च। 
मत्सरी काकतुण्डी च योजनीया यथाक्रमम् ॥83॥
दीर्घा तु तर्जनी यत्र आश्रिताङ्गुष्ठमूलकम्। 
पताका  सा च विज्ञेया नलिका दूरमोक्षणे ॥84॥
तर्जनी मध्यमामध्यमङ्गुष्ठो विशते यदि। 
वज्रमुष्टिस्तु सा ज्ञेया स्थूले नाराचमोक्षणे ॥85॥
अङ्गुष्ठनखमूले तु तर्जन्यग्रं सुसंस्थितम्। 
मत्सरी सा च विज्ञेया चित्रलक्ष्यस्य वेधने ॥86॥
अङ्गुष्ठाग्रे तु तर्जन्या मुखं यत्र निवेशितम्। 
काकतुण्डी च विज्ञेया सूक्ष्मलक्ष्येषु योजिता ॥87॥ (धनुर्वेदः)

दूसरा चित्र-

आधुनिक धनुर्धरी शैलियाँ
आधुनिक धनुर्धरी में अंगूठा छूए बिना तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने की विधि को मेडिटरेनियन बो ड्रा कहा जाता है। 
धनुर्वेद में स्पष्ट रूप से इंगित इस विधि के खोजकर्ता सम्भवतः आचार्य द्रोण ही हैं और एकलव्य का अँगूठा माँगने का प्रतीकात्मक अर्थ इतना ही है कि उसे अँगूठे के प्रयोग के कारण आने वाली बाधा से बचने का यह गुरुमंत्र दिया जाये। 
जब द्रोण ने एकलव्य का शिष्यत्व स्वीकार किया तो उसे यह विधि बताकर ऐसा सूत्र दिया, जो तब गुप्त और दुर्लभ था। 
वरना अँगूठा क्या, एकलव्य तो द्रोणाचार्य के संकेत मात्र से अपना शीश दे देता। 
अँगूठा लेने का सांकेतिक अर्थ यही है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे शिष्य स्वीकारते हुए अँगूठे के बिना धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान दिया और गुरुदक्षिणा में अँगूठा देने के बाद एकलव्य तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीरंदाजी करने की आधुनिक भूमध्य शैली (Mediterranean bow draw) से तीर चलाने लगा। निःसन्देह यह बेहतर तरीका है। द्रोण के सभी धनुर्धारी शिष्य इस सूत्र से परिचित थे और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है।
तीसरा चित्र-

असीरिया शासक ऐतिहासिक धनुर्धर असुर बनिपाल (668 – 627 ई.पू.)

त्वरित धनुर्धरी के जिस रहस्य को एकलव्य अपनी लम्बी तपस्या में न जान सका था उसे गुरु द्रोण के स्पर्श ने, शिष्य के रूप में उनकी स्वीकृति ने, क्षणमात्र में उजागर कर दिया था।

अंगूठे के बिना धनुर्धरी करने वाला 'मेडिटरेनीयन बो ड्रा' आज सर्वमान्य है। 
काँची के कैलाशनाथ मंदिर में अँगूठा बचाते धनुर्धर अर्जुन दृष्टव्य हैं। 
वर्तमान ईराक के क्षेत्र के प्रसिद्ध ऐतिहासिक शासक असुर बनिपाल के पाषाण चित्रण में भी मेडिटरेनीयन बो ड्रा स्पष्ट दिखाई देता है।

भूमध्य क्षेत्र का भारत से क्या सम्बंध है? 
असुर वर्तमान असीरिया के वासी थे। 
असुरों के गुरु भृगुवंशी शुक्राचार्य थे। 
जामदग्नेय परशुराम शुक्राचार्य के वंश में जन्मे थे। 
द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या परशुराम से सीखी और एकलव्य के शिष्यत्व को मान्यता देने के लिये उसकी धनुर्विद्या से अँगूठे की भूमिका हटवा दी। 
पलभर के सम्पर्क में अपने शिष्य की दक्षता में ऐसा जादुई परिवर्तन करना आचार्यत्व की पराकाष्ठा है। 
भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा से हम इतना कट गये हैं कि अपने अतीत की सरल सी घटना में भी अनिष्ट की आशंका, और गुरुत्व में छल ढूँढ़ते हैं। 
हमें यह भी ध्यान देना होगा कि भारतीय संस्कृति के प्राचीन भौगोलिक विस्तार को भारत के वर्तमान राजनैतिक-भौगोलिक क्षेत्र तक सीमित समझना भी हमारी दृष्टि को सीमित ही करेगा।

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