Monday, July 24, 2017

नालंदा विश्वविद्यालय को क्यों जलाया गया था।

इतिहास- नालंदा, बख्तियार खिलजी और आज हमारी शिक्षा व्यवस्था के दायरेराजीव रंजन प्रसाद
नालंदा में एक बहुत उँची सी दीवाल के सामने खड़ा मैं उस भयावह दृश्य की कल्पना कर रहा था जब तुर्क लुटेरे बख्तियार खिलजी ने सन ११९९ ई. में इस विश्वविद्यालय को आग के हवाले कर दिया होगा। कई दीवारों पर आग से जलने के चिह्न मौजूद हैं जो एक सिरफिरे आक्रांता का जुनून पूरी चीत्कार के साथ कह रहे हैं। आँख बंद कर के महसूस करता हूँ कि कैसा उत्कृष्ट युग रहा होगा वह जब लगभग दस हजार विद्यार्थी यहाँ अध्ययनरत रहा करते होंगे और प्रत्येक सात विद्यार्थी पर एक शिक्षक भी। एक आक्रांता जिसे धन चाहिये था वह सोने की चिडिया को चाहे जितना नोंच खुरच लेता उसे विश्वविद्यालय से ऐसा क्या विद्वेष था?

एक किंवदंती है खिलजी बहुत बीमार पड़ गया था और जब उसके निजी हकीमों से कुछ न हुआ तो किसी ने सलाह दी नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख राहुल शीलभद्र को बुला कर उनसे इलाज कराने की। कहते हैं कि खिलजी इतना अधिक चिड़चिड़ा, बददिमाग और कट्टर था कि उसने आयुर्वेदाचार्य के सामने बिना दवा खिलाये ठीक करने की शर्त रखी। उल्लेख मिलता है कि अपने चिकित्सकीय पेशे का सम्मान करते हुए आचार्य शीलभद्र ने आक्रांता को भी बचाना अपना धर्म समझा और गोपनीयता से उस पवित्र कुरान के पृष्ठों में औषधि का लेप प्रयुक्त किया जिसे खिलजी स्वयं पढ़ा करता था। पवित्र कुरान के पृष्ठो से उँगली पर लग लग कर औषधि खिलजी की जिह्वा तक पहुँची और चमत्कारिक रूप से यह तुर्क आक्रांता ठीक हो गया।

पिशाच के मित्र नहीं होते इस क्रूर तुर्क के भीतर इस ईर्ष्या ने जन्म लिया कि आखिर एक वैद्य इतना श्रेष्ठ ज्ञान कैसे रख सकता है? इस साधारण सेनापति एख्तियारूद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने तब केवल दो सौ घुड़सवारों के साथ वर्तमान बिहार क्षेत्र में उदंतपुर पर आक्रमण कर इसके किलों को जीत लिया। जब नालंदा पर आक्रमण हुआ तब बैद्ध भिक्षुओं ने इस भयानक शत्रु का सामना नहीं किया।

नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश का मुख्यद्वारअहिंसा और शिक्षा का आलोक जगाये यह क्षेत्र सेना की आवश्यकता क्या समझता? कहते हैं कि सैनिक केवल युद्ध के लिये ही नहीं होते अपितु थोपे गये युद्ध की स्थिति में रक्षा के लिये भी होते हैं। बख्तियार खिलजी ने सेना के अभाव में अरक्षित नालंदा विश्वविद्यालय पर कहर बरपा दिया। हजारों की संख्या में बौद्ध भिक्षुओं का संहार किया गया। शिक्षक और विद्यार्थियों के लहू से पूरी धरती को पाट कर भी जब अहसानफरामोश खिलजी को चैन नहीं मिला तो उसने एक भव्य शिक्षण संस्था में आग लगा दी। उल्लेख मिलता है कि नालंदा में एक समय तीन बडे पुस्तकालय थे - 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर' । एक पुस्तकालय भवन तो नौ तलों का हुआ करता था। इतनी पुस्तकों थी जो जब जलाई गयीं तो उनपर बख्तियार खिलजी की सेना के लिये छ: माह तक भोजन पकता रहा।

कहते हैं कई अध्यापकों और बौद्ध भिक्षुओं ने अपने कपडों में छुपा कर कई दुर्लभ पाण्डुलिपियों को बचाया तथा उन्हें तिब्बत की ओर ले गये। कालांतर में इन्हीं ज्ञाननिधियों ने तिब्बत क्षेत्र को बैद्ध धर्म और ज्ञान के बड़े केन्द्र में परिवर्तित कर दिया। यद्यपि यह जोड़ना प्रासगिक होगा कि तिब्बत की स्वायत्तता और अपनी ही तरह की सांस्कृतिक शुद्धता पर चीनी हमला एक तरह से खिलजी के नालंदा पर आक्रमण के समतुल्य ही कहा जा सकता है।

तिब्बत की पहचान उसी तरह नष्ट हो रही है जैसे कभी नालंदा को मिट्टी में मिला दिया गया। महान शोधकर्ता राहुल सांस्कृतियायन जिस तरह तिब्बत से अनेकों प्राचीन पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपियों को पुन: भारत लाने और उनका अनुवाद कर हमारी पीढी को सौंपने में सफल हुए उसके लिये उनका हम ऋण संभवत: कभी नहीं चुका सकेंगे। तिब्बत ने उसी तरह अपनी धरोहरों और ज्ञान की सुरक्षा के लिये सेना की आवश्यकता नहीं समझी जैसी कि नालंदा या विक्रमशिला ने और फिर यहाँ का सब कुछ समय ने मिट्टी की परतों के भीतर छिपा लिया। हमारा सौभाग्य है लगभग विलुप्त हो चुके इस विश्वविद्यालय के खण्डहरों को अलेक्जेंडर कनिंघम ने तलाश कर बाहर निकाला।

अवशेषों से झांकता प्राचीन वैभवह्वेनसांग के लेखों के आधार पर ही इन खण्डहरों की पहचान नालंदा विश्वविद्यालय के रूप में की गयी थी। सातवीं शताब्दी में भारत आये ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय में न केवल विध्यार्थी रहे अपितु बाद में उन्होंने एक शिक्षक के रूप में भी यहाँ अपनी सेवाएँ दी थीं। ह्वेनसांग ही क्यों इस विश्वविद्यालय में चीन, तिब्बत, कोरिया, जापान, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। यद्यपि नालंदा की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम (४५०-४७० ई) को दिया जाता है तथापि लगभग बारहवीं शताब्दी तक नालंदा की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति रही है।

कुछ बातें प्राचीन शिक्षण से वर्तमान शिक्षा पद्यति की भी करनी आवश्यक है। ह्वेनसांग विवरण देते हैं कि उन दिनों प्रवेश परीक्षा विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर ही हो जाया करती थी जहाँ प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थी को द्वारपाल के प्रश्नों के उत्तर देने होते थे। जिस विश्वविद्यालय का द्वारपाल भी इतना अधिक विद्वान रहा करता होगा कि उसके विवेक के आधार पर छात्रों के प्रवेश सुनिश्चित किये जाएँ तो यह यह मान सकते हैं कि भीतर शिक्षकों के ज्ञान का स्तर कितना विस्तृत रहा होगा! प्रवेश प्राप्ति के बाद विद्यार्थियों को आचार, विचार और व्यवहार की शुद्धता के साथ अध्ययन करना अपेक्षित था। आज हमारे एंटरेंस टेस्ट भी हजारों लोगों को पुलविद्ध्वंसक अभियंता बनाने में लगे हैं क्योकि शिक्षा और साधना के बीच के अंतर को समाप्त कर हमने बाजार को द्वारपाल बना दिया है।
कितने लोग जानते हैं कि प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलविद आर्यभट एक समय में नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति रहे थे। उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध है वे हैं - दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र। उन्होंने आर्यभट्ट सिद्धांत की भी रचना की थी किंतु वर्तमान में केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। इक्कीसवी सदी में हमारे वैज्ञानिक आर्यभट्ट की तुलना मे कहाँ ठहरते हैं तथा हमारे विश्वविद्यालय नालंदा की तुलना में किस पायदान पर ठहरते हैं यह गहरी विवेचना का विषय है। खिलजी ने तो तोड़ा है लेकिन हमने जोड़ना भी नहीं सीखा, हम भी दोषी हैं।

विश्वविद्यालय के छात्रावास का एक कक्षभारत में ट्यूशन का इतिहास आचार्य द्रोण से प्रारंभ होता है इसे पहले और इसके बाद भी बहुत समय तक ट्यूशन दिये जाने की जानकारी शास्त्रों में नहीं मिलती। पैसे से पोषित कोई शिक्षक ही किसी एकलव्य का अंगूठा माँग सकता है और अपने ही विद्यार्थियो के खिलाफ शस्त्र संधान कर युद्ध कर सकता है। प्राचीन शिक्षा पद्यति में शिक्षक और विद्यार्थी का भरण-पोषण तथा अन्य व्यवस्थाएँ आसपास के गाँव तथा शासन व्यवस्था द्वारा ही सुनिश्चित की जाती थीं। नालंदा का ही समय लीजिये जब लगभग दो सौ गाँव आपस में मिल कर यहाँ की अर्थ-व्यवस्था संचालित करते थे और शिक्षा पूरी तरह मुफ्त में दी जाती थी। शिक्षा भी कोई आम नहीं अपितु विश्व में श्रेष्ठतम। सात बडे कक्ष और तीन सौ अन्य अध्यापन कक्षों के विषय में जानकारी मिलती है। केवल छात्रावासों को ही देखा जाये तो आज की व्यवस्थाएँ भी पानी भरने लगें, छात्रावास कक्ष में सोने के लिए पत्थर की चौकी, अध्ययन के लिये प्रकाश व्यवस्था, पुस्तक आदि रखने का स्थान निर्मित थे। अधिक वरिष्ठता पर अकेला कमरा था।
कनिष्ठता की स्थिति में एक वरिष्ठ और एक कनिष्ठ छात्र को एक कमरा साथ दिया जाता था जिससे कि नये विद्यार्थी को मार्गदर्शन मिल सके। हम सहयोग की अपेक्षा पश्चिम से तलाश कर वहाँ की बीमारी रैगिंग को अपने शिक्षण संस्थानों में ले आये हैं। जब आरंभ ही अविश्वास और तनाव के साथ होता है तो विद्यार्थियों मे भविष्य में किसी तरह के सहयोग और सामंजस्य की कल्पना कैसे की जा सकती है। इसके अलावा शेष व्यवस्थाएँ सामूहिक थीं जैसे प्रार्थना कक्ष, अध्ययन कक्ष, स्नान, बागीचे आदि। निरंतर विद्वानों के व्याख्यान चलते रहते थे तथा विद्यार्थी अपनी शंकाव्के समाधान के लिये तत्पर अपने अध्यापकों के साथ जुटे रहा करते थे। बौद्ध धर्म से इस शिक्षण संस्थान के प्रमुखता से जुडे होने के पश्चात भी यहाँ हिन्दु तथा जैन मतों से संबंधित अध्ययन कराये जाने के संकेत मिलते हैं। साथ ही साथ वेद, विज्ञान, खगोलशास्त्र, सांख्य, वास्तुकला, शिल्प, मूर्तिकला, व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम में शामिल थे।

बख्तियार खिलजी मूर्ख था। उसने ताकत के मद में बंगाल पर अधिकार के बाद तिब्बत और चीन पर अधिकार की कोशिश की किंतु इस प्रयास में उसकी सेना नष्ट हो गयी और उसे अधमरी हालत में देवकोट लाया गया था। देवकोट में ही उसके सहायक अलीमर्दान ने खिलजी ही हत्या कर दी थी। शायद मौत उसके पापों की सही सजा नहीं है नालंदा की हजारों जलाई गयी पुस्तकों के कारण विलुप्त हुए ज्ञान का अभिषाप है तुम पर खिलजी, कि तुम्हारी आत्मा को अश्वत्थामा होना नसीब हो, दोजख में भी चैन न मिले तुम्हें। दैनिक जागरण की वेबसाईट पर पढा था कि खिलजी की दफन स्थली अब पीर बाबा की मजार बन गयी है और लोग उससे मन्नत माँगने भी आते हैं। मन्नत माँगने वालों में बहुतायत हिन्दू भी हैं। प्रकाशित खबर का शीर्षक था “उपेक्षित है बख्तियार खिलजी की एतिहासिक मजार”। मैं महसूस कर सकता हूँ इस व्यंग्य को चूंकि यह गंगा जमुनी संस्कृति शत्रु और मित्र भी नहीं जानती। हर माँगी जा रही दुआ तुम्हे नश्तर की तरह चुभती ही होगी खिलजी, रही बात मेरी तो मेरे पास न तो तुम्हारी मजार पर चढाने के लिये चादर है न ही तुम्हारी कब्र को देखने के लिये पहुचने का व्यर्थ समय।

नालंदा विश्वविद्यालय को क्यों जलाया गया था..? जानिए सच्चाई ...??
एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव वाला तुर्क मियां लूटेरा था ....बख्तियार खिलजी. इसने ११९९ इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया।

उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था.
एक बार वह बहुत बीमार पड़ा उसके हकीमों ने उसको बचाने की पूरी कोशिश कर ली ... मगर वह ठीक नहीं हो सका.

किसी ने उसको सलाह दी... नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र जी को बुलाया जाय और उनसे भारतीय विधियों से इलाज कराया जाय उसे यह सलाह पसंद नहीं थी कि कोई भारतीय वैद्य ...उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान रखते हो और वह किसी काफ़िर से .उसका इलाज करवाए फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए उनको बुलाना पड़ा
उसने वैद्यराज के सामने शर्त रखी... मैं तुम्हारी दी हुई कोई दवा नहीं खाऊंगा...
किसी भी तरह मुझे ठीक करों ...वर्ना ...मरने के लिए तैयार रहो.
बेचारे वैद्यराज को नींद नहीं आई... बहुत उपाय सोचा... अगले दिन उस सनकी के पास कुरान लेकर चले गए.. कहा...इस कुरान की पृष्ठ संख्या ... इतने से इतने तक पढ़ लीजिये... ठीक हो जायेंगे...!
उसने पढ़ा और ठीक हो गया .. जी गया...

उसको बड़ी झुंझलाहट हुई...उसको ख़ुशी नहीं हुई.. उसको बहुत गुस्सा आया कि ... उसके मुसलमानी हकीमों से इन भारतीय वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है...!

बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने के बदले ...उनको पुरस्कार देना तो दूर ... उसने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग लगवा दिया ...पुस्तकालयों को ही जला के राख कर दिया...!

वहां इतनी पुस्तकें थीं कि ...आग लगी भी तो तीन माह तक पुस्तकें धू धू करके जलती रहीं
उसने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षु मार डाले.

आज भी बेशरम सरकारें...उस नालायक बख्तियार खिलजी के नाम पर रेलवे स्टेशन बनाये पड़ी हैं... !
उखाड़ फेंको इन अपमानजनक नामों को...
मैंने यह तो बताया ही नहीं... कुरान पढ़ के वह कैसे ठीक हुआ था.
हम हिन्दू किसी भी धर्म ग्रन्थ को जमीन पर रख के नहीं पढ़ते...
थूक लगा के उसके पृष्ठ नहीं पलटते
मिएँ ठीक उलटा करते हैं..... कुरान के हर पेज को थूक लगा लगा के पलटते हैं...!

बस... वैद्यराज राहुल श्रीभद्र जी ने कुरान के कुछ पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप लगा दिया था... वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज चाट गया...ठीक हो गया और उसने इस एहसान का बदला नालंदा को नेस्तनाबूत करके दिया

आईये अब थोड़ा नालंदा के बारे में भी जान लेते है

यह प्राचीन भारत में उच्च् शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण--पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शती में भारत भ्रमण के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था।
स्थापना व संरक्षण

इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७० को प्राप्त है। इस विश्वविद्यालय को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानिए शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला।
स्वरूप

यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब १०,००० एवं अध्यापकों की संख्या २००० थी। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं शती तक अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी।
परिसर

अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी।
प्रबंधन

समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे। कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देख--भाल करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय की देख--रेख यही समिति करती थी। इसी से सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था।
आचार्य

इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से ज्ञात होता है, प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट भी इस विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध है वे हैं: दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र। ज्ञाता बताते हैं, कि उनका एक अन्य ग्रन्थ आर्यभट्ट सिद्धांत भी था, जिसके आज मात्र ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ का ७वीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।
प्रवेश के नियम

प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और उसके कारण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था। यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध आचरण और संघ के नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक था।
अध्ययन-अध्यापन पद्धति

इस विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी। शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था।
अध्ययन क्षेत्र

यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत थे। नालंदा कि खुदाई में मिलि अनेक काँसे की मूर्तियोँ के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।
पुस्तकालय

नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी। यह 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर' नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था। 'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे।

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