कई सहस्त्र वर्षों से भारतीय समाज रामायण को बड़े ही श्रद्धाभाव से मानता और सुनता चला आया है । इस समय मुख्य रूप से दो ग्रंथ प्रचलित हैं वाल्मिकी मुनि कृत रामायण और तुलसीदास कृत रामचरितमानस, रामायण भी कई प्रकार की मिलती हैं जिनकी कथाओं में थोड़ा थोड़ा भेद मिलता है । परंतु मुख्य रूप से रामचरितमानस का प्रभाव इस समय मानव समाज पर अधिक है
। ऐसा इसलिए क्योंकि तुलसीदास ने वालामिकी रामायण के वास्ताविक श्ब्दों के अर्थ न पकड़कर उनकी सर्वथा उपेक्षा ही की और कई चमत्कारों और काल्पिनक बातों को रामायण के पात्रों से जोड़कर इसे अविश्वसनीय बना दिया है ।
परिणाम ये हुआ कि लोग रामायण को मात्र तीर, भालों, बर्छों से लड़ा गया एक जंगली लोगों के युद्ध से अधिक और कुछ नहीं मानते । और जो हिन्दू समाज रामायण का पाठ बड़े श्रद्धाभाव से सुनते हैं उनके लिए भी राम मात्र पाप मुक्ति और पूजा पाठ करके मूर्तीयों पर फूल माला फेरने तक ही सीमित हैं , और वामपंथी, नास्तिक, ईसाई, मुसलमान आदि तो रामायण को इन्हीं ऊटपटांग बातों के कारण हेय दृष्टि से देखकर तिरस्कार तक करते हैं ।
चमत्कारों और अतार्किक विज्ञानविरुद्ध प्रसंगों को आधार बनाकर तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखकर राम का महत्व बढ़ाने के बजाए घटा अवश्य दिया है । जैसा कि कहते हैं कि यदि हमें किसी परिवार की पीढ़ीयों के इतिहास का पता लगाना हो तो हमें उस परिवर के सबसे वृद्ध व्यक्ति से वो इतिहास पूछना पड़ेगा न कि उस परिवार के पाँच वर्षीय बालक से । ठीक वैसे ही राम चरित्र के वास्ताविक रूप को जानने हेतु हमें राम युग के वाल्मिकी मुनि की रामायण का आश्रय लेना होगा न कि मात्र 600 वर्ष पूर्व तुलसीकृत रामचरितमानस के ।
जबतक रामायण का वह विज्ञानसम्मत और तर्कसम्मत स्वरूप जनता के सामने प्रस्तुत नहीं किया जायेगा तबतक लोग इसे केवल एक भक्तिग्रंथ मानकर अकर्मण्य ही बने रहेंगे । हमारे कथावचकों ने भी श्रीराम जी के स्वरूप को इतना विकृत करके अत्यंत क्षमाशील और शत्रुओं को अभयदान देने वाले एक मोम के ढेले जैसा बनाकर प्रस्तुत किया है ।
रामायण त्रेतायुग के महायुद्ध का एक अद्भुत इतिहास है जिसके आधार पर लोगों का युद्ध के कर्तव्य, राष्ट्रप्रेम, दृढ़ता, राजनीति, शत्रुदमन आदि शिक्षाओं से रक्त गर्म होना चाहिए था और श्रीराम एक महाबली प्रखर योद्धा थे ।
बजाए इसके राम, लक्षमण और सीता जी की मूर्तीयाँ स्थापित करके उनकी फूल माला करके पापमुक्ति, पैसा कमाना ही प्रयोजन बनकर रह गया और रामायण का वह विशुद्ध स्वरूप जनता के समझ में न आ पाया । रामायण की घटनाओं का तार्किक वर्णन प्रस्तुत करने पर ही वास्ताविक इतिहास पता लग सकता है ।
इसी कारण हम यहाँ रामायण की कुछ घटनाओं का तार्किक और विज्ञानसम्मत पक्ष यहाँ प्रस्तुत करेंगे जैसा कि वाल्मिकी मुनि के मन्तव्य के आधार पर है ।
(१) श्रीराम चन्द्र और लक्ष्मण जी का व्यक्तित्व :- जैसा कि तुलसीदास ने अपनी रामचरितमानस में बहुत सी चमत्कारिक घटनाओं को श्रीराम जी के जीवन के साथ जोड़कर उनके कर्तव्यपरायण स्वरूप को छिपा दिया है , वाल्मिकी मुनि की रामायण के अनुसार श्रीराम और लक्ष्मण जी आर्यवर्त ( भारत) में ऐसे महाबली योद्धा राजकुमार हुए हैं कि अनेकों राज्यों के राजकुमारों की चमक उनके सामने फीकी थी, ये दोनों राजकुमार समस्त अस्त्रशस्त्र विद्या में निपुण थे सभी प्रकार के राजनैतिक दाँव पेंच और कूटनीति में निपुण थे ये सब विद्या इन्होंने वशिष्ठ और विश्वामित्र जी से गुरुकुलों में प्राप्त की थी । पृथिवी के बड़े भूभाग पर राजा राम के रघुवंशीयों का ही चक्रवर्ती शासन था । और राजधानी अयोध्या को आज के उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर अयोध्या से तुलना नहीं करनी चाहिए ।
(२) रामायण का प्रगत युग :- ये पश्चिमी लोगों की मान्यता है कि युग जितना पुराना हो उसके लोग उतने ही अप्रगत , अशीक्षित, जंगली और बर्बर ही होने चाहिएँ । ऐसा वे डारविन के सिद्धांतों के आधार पर कहते हैं कि मानव जंगली अवस्था से विकसित होता होता उन्नति करता गया । परन्तु वैदिक परम्परा इसके विपरीत है , जब मनुष्य रचना हुई तो वह साक्षात ईश्वर के सान्निध्य में अत्यंत विज्ञानयुक्त थे और रूप में सुंदर और अत्यंत बुद्धि और बल से सम्पन्न थे , समय के साथ ह्रास होता गया और मानव वेद की उच्च शिक्षा से दूर होता होता सम्प्रदायों में बँटता गया और ऐसे ही मानव सभ्यता ह्रासभाव को प्राप्त हुई ।
ठीक इसीलिए रामायण कालीन युग आज की तुलना में अत्यंत प्रगत था । जितने दिव्यास्त्रों के नाम हम सुनते हैं वे सब विज्ञान की यांत्रिक रचनाओं के परिणाम हैं, और बहुत बार रामायण में प्रयोग किया जाने वाला शब्द विमान भी इसकी साक्षी देता है । क्योंकि शब्द बिना किसी अर्थ के नहीं होता है , पदार्थ के अस्तित्व में ही उसके शब्द का प्रयोग होता है ।
(३ ) बाली-सुग्रीव बंदर नहीं थे :- वर्तमान में सभी बाली-सुग्रीव, हनुमान जी को बंदर ही समझते हैं और उनके पूँछ और बंदर का मुख उनके चित्रों पर लगा देते हैं, वास्तव में वानर जंगलों में रहने वाली क्षत्रियों की शाखा थी, और इसी कारण उनके मुख पर ऐसी रंगों से आकृति बनाई जाती थी, ठीक वैसे ही जैसे कि आज के आदिवासी लोग अफ्रीका के जंगलों में बनाते हैं । लेकिन इस अर्थ को न समझकर हमारे कथाकारों ने इनको मानव से बंदर ही बना डाला । जैसे दूसरे विश्वयुद्ध में अफ्रीका के रेगिस्तान में जर्मन और इंग्लैंड की सेना में भयंकर युद्ध हुआ था । जिस कारण इनको Desert Rats कहा जाता था, यदि आज से लगभग हज़ार वर्ष बाद इस युद्ध का इतिहास लिखा जायेगा और कोई ये लिखे कि जर्मन ने चूहों की सेना खड़ी की ! तो ये कितना हास्यास्पद लगेगा ? ठीक वैसे ही हास्यास्पद है बाली सुग्रीव को बंदर कहना ।
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