Sunday, July 3, 2022

भ्रष्टाचार।

आज भ्रष्टाचार बहुत बड़ी समस्या बन चुका है। सनातन धर्म मे इसे रोकने के लिए क्या कहा गया है।
स ताननुपरिक्रामेत् सर्वानेव सदा स्वयम् ।
तेषां वृत्तं परिणयेत् सम्यग् राष्ट्रेषु तत्चरैः ॥ - मनुस्मृति 7.123
राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादायिनः शठाः।
भृत्याः भवन्ति प्रायेण तेभ्योरक्षेदिमाः प्रजाः।।
- मनुस्मृति 7.124
ये कार्यिकेभ्योऽर्थमेव गृह्यीयु: पापचेतसः।
तेषां सर्वस्वामदाय राजा कुर्यात्प्रवासनम्।।
- मनुस्मृति 7.125
भावार्थ -राजा और सम्बन्धित अधिकारी गण कर्मचारियों पर कर्त्तव्य पालन पर तीक्ष्ण दृष्टि रखे। प्रजा के लिये राज्य कर्मचारी अधिकतर अपने वेतन के अलावा भी कमाई करने के इच्छुक रहते हैं। ऐसे राज्य कर्मचारियों से प्रजा की रक्षा के लिये राज्य प्रमुख को तत्पर रहना चाहिये। पाप की इच्छा से रिश्वत आदि द्वारा धन लेने वाले राज्य कर्मचारियों को घर से निकाल देना चाहिये। उनकी सारी संपत्ति छीनकर उन्हें देश से निकाल देना चाहिये।
राजा कर्मसु युक्तानां स्त्रीणां प्रेष्यजनस्य च ।
प्रत्यहं कल्पयेद् वृत्तिं स्थानं कर्मानुरूपतः ॥ - मनुस्मृति 7.126
पणो देयोऽवकृष्टस्य षडुत्कृष्टस्य वेतनम् ।
षाण्मासिकस्तथाऽच्छादो धान्यद्रोणस्तु मासिकः ॥ मनुस्मृति 7.127
भावार्थ- जो स्त्री व अन्य कर्मचारीगण अस्थायी/तदर्थ या दैनिक आधार पर लगाए गए हैं राजा प्रतिदिन उनकी देय राशि की व्यवस्था करे । उन कर्मचारियों को 6 महीने मे वस्त्र और 1 महीने मे धान्य (अनाज) भी देवेन।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के षष्ठम् समुल्लास में मनुस्मृति के श्लोक के आधार पर भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने पर प्रधानमंत्री और न्यायाधीश तक को दण्डित किये जाने के सम्बन्ध में लिखा है -
कार्षापणं भवेदण्डयो यत्रान्य: प्राकृतो जन:|
तत्र राजा भवेदण्डय: सहस्त्रमिति धारणा|| मनुस्मृति८.३३६ ||
साधारण जनता से राजा को सहस्त्र गुणा दण्ड होना चाहिये, (जिस अपराध में साधारण प्रजा को एक जूता मारा जाये उसी अपराध मे‍ राजा को एक हजार जूते मारने का दण्ड देना चाहिये|
प्रश्न : जो राजा वा रानी अथवा न्यायाधीश वा उसके परिवार का को‍ई भी सदस्य व्यभिचारादि कुकर्म करे
तो उसको कौन दण्ड देवे ?
उत्तर : सभा, अर्थात उसको तो प्रजापुरुषों से भी अधिक दण्ड होना चाहिये|
जो राजा दण्ड देने योग्य को छोड़ देता और जिसको दण्ड देना न चाहिये, उसको दण्ड देता है
वह जीता हुआ बड़ी निन्दा को और मरे पीछे बड़े दु:ख को प्राप्त होता है इसलिये अपराधी को
दण्ड मिले, अनपराधी को दण्ड कभी न देवे|
अदब्डयान्दण्डयन् राजा दण्डयांश्चैवाप्यदण्डयन् |
अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति || मनुस्मृति ||८|१२८ ||
निष्कर्ष यह है कि आज लोकतन्त्र की हत्या करके सरकार ने निरपराध साधु - संतों और अन्यान्य निरपराध लोगों को बिना किसी अपराध के बरबर्तापूर्ण कुक्रत्वय किया है यह क्षमा करने के योग्य नहीं है इसका उन्हें दण्ड भुगतने के किये तैयार रहना होगा परमेश्वर न्यायकारी है|
अत्रिसंहिता मे राजा के 5 यज्ञ
दुष्टस्य दण्डः सुजनस्य पूजा न्यायेन कोषस्य च संप्रवृध्दिः ।
अपक्षपातोऽर्थिषु राष्ट्ररक्षा पञ्चैव यज्ञाः कथिता नृपाणाम् ॥
1- दुष्टों को दण्ड 2- सज्जनों का सम्मान 3-- न्यायपूर्वक राजकोष की वृद्धि 4- पक्षपात रहित होना व राष्ट्र की रक्षा ये राजा के 5 यज्ञ हैं।
अर्थशास्त्र मे महविद्वान चाणक्य जी कहते हैं
प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् ।
नात्मप्रियं हितं प्रजानां तु प्रियं हितम् ॥
प्रजा के सुख मे राजा का सुख व प्रजा के हित मे राजा का हित है। जो राजा को स्वयम प्यारा या हितकारी लगता है वह नहीं परंतु जो प्रजा का प्रिय और हितकारी है उसी मे राजा का हित है।
भवितव्यं सदा राजा , गर्भिणी सह धर्मीणा |
कारणं च महाराज, शणु येनेदमिष्यते ||४४||
यथा हि गर्भिणी हितया, स्वंप्रिय मनसोSनुगम् |
गर्भस्य हितामाधत्ते , तथा राज्ञाप्यसंशसम् ||४५||
वर्तीतव्यं कुरुश्रेष्ठ , सवा ध्रर्मनुवर्तिना |
स्वंप्रियं तू परित्यज्य , यद् यात्लोकहितं भवेत् ||४६||
|| महाभारत शांतिपर्व राजधर्म पर्व अ.१६ श्लोक ४४,४५,||
महाभारत का ये श्लोक कहते है कि प्रत्येक राजा को गर्भिणी माता के समान होना चाहिए क्योंकि सम्पूर्ण देश , सम्पूर्ण राज्य उसके अंतर्गत आने के कारण उसकी प्रजा भी उसके अन्दर ही आ जाती है | इसलिए यह राज्य की सीमा उसकी गर्भ होती है तो प्रजा उसके गर्भ में निवास करने वाले शिशु के ही समान होती है | जिस प्रकार माता अपने मन के सब भावों को छोड़कर केवल और केवल अपने गर्भस्थ शिशु का ही ध्यान करती है | उसके हित को ही अपना हित मानती है | माता अपने गर्भ में पल रहे बालक के सुख सुविधा का सदा ध्यान रखती है , उसके भरण पौषण की व्यवस्था करती है | अपने गर्भ में पल रहे शिशु को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देती तथा इस अवस्था में शिशु का कष्ट उसका अपना कष्ट होता है | अब उस के जीवन का केवल एक ही उद्देश्य रह जाता है और वह होता है उस के गर्भ में पल रहे शिशु को सुरक्षित रखना , उसे किसी प्रकार के रोग और क्लेश से दूर रखना तथा उसकी रक्षा के लिए अपने कष्ट की भी चिंता न करना

No comments:

Post a Comment