Wednesday, July 6, 2022

मैक्समूलर का सच।

अब मित्रो आप को कुछ कोटेशन की ओर ले चलते है जो मैक्समूलर ने कही ,
‘‘भारतीय समाज में यह एक उल्लेखनीय दौर रहा है कि ब्राह्मणों ने महत्वपूर्ण स्थिति बना ली थी, परंतु अपने विषय में उसने जो साहित्य रचा निस्संदेह वह बहुत ही अवांछनीय है। कोई भी यह कल्पना नहीं कर सकता कि इतिहास के उस दौर में आदिम समाज में ही कोई ऐसा साहित्य रचा जा सकता हो जो इतना पांडित्यपूर्ण हो और कालातित हो। रचनाएं इतनी अनर्गल हैं कि जिनका कोई जोड़ नहीं। उसमें उपहासास्पद विचार भरे पड़े हैं जिनमें सशक्त भाषा और सुविचारित तर्क हैं और विचित्र परंपराएं हैं। ये विकृत रचनाओं का अंशमात्र है जैसे पीतल या रांग में रत्न जड़ दिए गए हों। यह क्षूद्र साहित्य सामान्यत: अरूचिकर शब्दाडंबर है जिसमें पोंगापंथी, अहंकार और पूरा पांडित्य भरा पड़ा है। इतिहासकारों के लिए बहुत महत्वपूर्ण बात है कि वे यह पता लगाएं कि किसी राष्ट्र का स्वस्थ विकास ऐसी पोंगापंथी और अंधविश्वासों के रहते कितनी तीव्रता से हो सकता है। हमारे लिए यह जानना महत्वपूर्ण है कि आरंभिक काल में क्या कोई देश ऐसी महामारी से ग्रस्त हो सकता है। ऐसी रचनाओं का उसी प्रकार अध्ययन किया जाना चाहिए जैसे कोई चिकित्सक मंदबुद्धि और मनोरोगियों की दशा का परीक्षण करता है।’’ –
(प्रो. मैक्समूलर, प्राचीन संस्कृति साहित्य, पृष्ठ संख्या 200)
मैक्समूलर के अनुसार अगर ऋग्वेद न होता तो भारतीय प्राचीन इतिहास शून्य है ।
यह हर कोई आर्य समाजी बन्धु (संस्कृत विशेषज्ञ) भली भांति समझते है कि वेदो में कोई इतिहास नही । 
अब आप समझ सकते है , कि इतिहास किस स्तर पर लिखी गई होगी । 
मैक्समूलर साहब आर्यो के मिडिल ईस्ट से आया हुआ के सन्दर्भ में जो प्रमाण देते है वह "बागजकोइ का अभिलेख" (1400) ईसा पूर्व है , जिस पर इंद्र , वरुण और मित्र लिखा हुआ है आरामाइक भाषा मे (लुप्त भाषा)। इसी आधार पर ऋग्वैदिक काल का समय 1500 से 1000 ईसा पूर्व निश्चित किया । जबकि सत्य यह है कि न तो ऋग्वेद में कोई इतिहास है जिसके आधार पर कोई प्रमाण निकाला जाए । कृण्वन्तो विश्वमार्यम ऋग्वेद के इस सूक्ति का अर्थ ही होता है , की "हम श्रेष्ठ बने और अन्य को भी बनावे ।" 
और ऋग्वेद की सूक्ति , "अहम भूमिमददामार्याय " , ईश्वर कहता है कि मैं यह भूमि आर्यो (श्रेष्ठ जनों ) को देता हूँ । 
निरुक्त में आचार्य आर्य शब्द निर्वचन करते हुए यास्क आचार्य , आर्यो को ईश्वर पुत्र कहते है - (आर्य ईश्वर पुत्रः)
रामायण , महाभारत में भी इस शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप में राम , कृष्ण , और हनुमान जैसे वीरो पर विशेषण रूप में हुआ है ।
आगे इन्ही मिशनरी वर्ग के विद्वानो द्वारा रचित ग्रन्थ हमारे देश मे मुख्य प्रमाण बने है , आगे वामपंथी इतिहासकार भी इन्ही को कोट करते हुए आगे बढ़ते है , इनमे 
ताराचंद, सुंदरलाल, विपिन चंद्र, बीएल ग्रोवर, सुकुमार भट्टाचार्य, इएच कार, डॉक्टर हीरालाल सिंह, एम एस जैन, एमजी रानाडे, रोमिला थापर , इरफान हबीब , डी एन झा , रामविलास शर्मा , डी डी कौशाम्बी प्रमुख है । आज भी ichr से लेकर लगभग सभी विश्वविद्यालयों के प्रमुख पदों पर वामपंथियो का मजबूत दबदबा है ।
देश की प्राचीन इतिहास की मार्क्सवादी प्रचलित शब्दावली द्वारा हर तरह से छीछालेदर करने का असफल प्रयास किया गया है कि वह क्रोध से अधिक हंसी का विषय लगता है। कुछ उदाहरण देखने योग्य हैं। मनु ‘मानवद्रोही’ थे, विदुर नीति हिन्दुओं की सामंती-संस्कृति की एक महत्वपूर्ण आचार-संहिता है, श्रीमद्भगवदगीता युध्द और हिंसा को वैचारिक आधार देने वाला ग्रंथ है ।
भारतीय इतिहास के रातों-रात बने जानकारों में निर्लज्ज साम्यवादी नेता भी हैं जिन्हें हमारे देश के अंग्रेजी मीडिया के साथ-साथ विदेशों में भी, यदि उनकी टिप्पणियां हिन्दू-विरोधी हैं, तो आज खुल कर उध्दृत किया जाता है। उदाहरण के लिए अमेरिकी मीडिया आज भी साम्यवादियों को अस्पृश्य मानता है, पर जब हमारे देश के ऐसे लोग जो मार्क्सवादी तथा साम्यवादी दल से जुड़े हैं, हिंदू विरोधी टिप्पणी करते हैं, तब उनकी राजनीतिक पहचान दिए बिना, वे खुलकर उध्दृत किए जाते हैं। उन्हें मात्र एक भारतीय बुध्दजीवी या विचारक का विशेषण देकर उध्दृत किया जाता है। हिंदूओं के विरूध्द विषवमन करनेवालों में चाहे वे कुख्यात साम्यवादी ही क्यों न हो, वहां स्वीकार्य हैं। कथित पूंजीपतियों व मुक्त बाजार का झंडा उठानेवालों को साम्यवादी प्रवक्ता भी स्वीकार हैं क्योंकि हिंदू-विरोध ही उसके प्रकाशन की एक बड़ी शर्त है।
मैक्समूलर के जीवन की यह एक बहुत बड़ी निराशा बोडेन अध्यक्ष न बन पाने को थी जिसका उसके ऊपर बहुत समय तक प्रभाव रहा। मगर फिर भी वह हिन्दू धर्म शास्त्रों के विकृतीकरण और भारतीय धार्मिक नेताओं का ईसाईयत में धर्मान्तरण के लिए प्रयास करता रहा।
उपरोक्त एक जगह हमने मैक्समूलर साहब के एक कोटेशन को उद्धृत किया है अब उसकी समीक्षा करते है । 
मैक्समूलर साहब का यह उद्धरण उस समय का है , जब भाषा विज्ञान पर तर्क गढ़े जा रहे थे और पूर्व में ही ऋग्वेद , सिंधु घाटी , जेड अविस्ता आदि गर्न्थो के आधार पर इतिहास लिखने का कार्य हो चुका था । इनके सामने समस्या खड़ी हो गई जब श्वेहगल बन्धु , गोल्डस्टकर , फ्रेंज बाप , रुडोल्क रुथ , हरमैन ब्रोरवोस , थ्योडर बेनफे जैसे यूरोपियन विद्वानों ने भाषा शास्त्र के आधार पर वेद , उपनिषद , संस्कृत भाषा और व्याकरण आदि विषयों को असाधारण , अद्वितीय रचनाये न केवल कही बल्कि हिन्दू धर्म दर्शन की प्रसंशा में वो बाते और साहित्य लिखी जिससे मिशनरी वर्ग सदमे में आ गया । 1808 में फेडड्रिंक श्व्हेगल ने एक पुस्तक लिखी उसके विषय मे बाड़मर लिखता है , 
हैमिल्टन का शिष्य एक तेजस्वी जर्मन युवक फ्रेडरिक श्वेहगल ने 1808 में भारतीय भाषा और विद्या पर एक पुस्तिका प्रकाशित किया । उसने महाद्वीपीय यूरोप के सामने संस्कृत को रख दिया । श्वेहगल कि यह पुस्तक का अधिकांश भाग आज हमारा उपहास उतपन्न कर देता है । " संस्कृत सम्पूर्ण भाषाओ की जननी है " उसका यह कथन सबसे उप हास्यप्रद है ।
श्वेहगल के इस कथन पर इसाई एवम यहूदी मिशनरी वर्ग भयभीत हो उठा । ईसाई भय का बोडमर ने इस प्रकार लिखा , - 
बाइबिल की पुरातन प्रतिज्ञा के प्रथम 5 पुस्तको के संरक्षक उस दृश्य से भयाहत हो गए की संस्कृत का अध्ययन बाबल की मीनार को नीचे गिरायेगा ।
इस प्रकार संस्कृत के महत्व को न्यून करने के लिए मैक्समूर साहब , बोथलिंगम , ओल्डन बर्ग ,फेरार , राथ , ब्युलेर , डीरिंजर आदि महापक्षपाती लोगो ने प्राक इंडो योरोपियन भाषा (hypothetical proto indo यूरोपियन) के अस्तित्व की कल्पना की । (चित्र में)
ऐसा सब कुछ कल्पनाये करने का कारण यह था कि उन्होंने पूर्व में इतिहास सम्बंधित कल्पनाये तो कर ली थी की 600 वर्ष ईसा पूर्व भारत मे लेखन का कार्य शुरू हुआ अर्थात वैदिक काल के बाद में। परन्तु भाषा विज्ञान और ध्वनि विचार की बात आई तो कल्पनाओ का महल ध्वस्त हो गया । विद्वान कहते है , एक झूठ को बचाने के लिए सौ झूठ बोले जाते है ऐसे यह याद नही होता कि कहाँ क्या झूठ हो गया , यहां भी ऐसी ही समस्या आ खड़ी हो गई ।
बड़ी समस्या और दुविधाएं खड़ी हो गई उनके समक्ष , प्राच्य संस्कृत (वैदिक संस्कृत) की ध्वनि शास्त्र के आधार पर व्याख्या के कारण , इस तरह वह अंधेरे में कल्पनाओ के महल को तलाशने में लग गए ।
तर्क दिए जाने लगे कि वेदों की ध्वनियाँ इतनी संगुंफित, जटिल और पेचीदा हैं कि अप्रशिक्षित जीभ इनका उच्चारण कर ही नहीं सकती है। 
ध्वनियों का मानक एवं सटीक उच्चारण की खोज में अप्रशिक्षित जीभ सदियों से भटकी होगी। आदिम सभ्यता के आरंभ से जाने कितने वर्षों तक जीभ की नोक कभी मूर्द्धा , कभी तालु तो कभी दाँत को टटोलती रही है। जीभ का कभी अगला, कभी बिचला तो कभी पिछला हिस्सा ध्वनियों के उच्चार में उठे होंगे। तब जाकर एक लंबे अभ्यास के बाद अप्रशिक्षित जीभ ध्वनियों के उच्चारण में अभ्यस्त और प्रशिक्षित हुई होगी। उनके अनुसार इनकी जटिलता और पेचीदगी का अनुमान इस बात से लगाया गया कि सिर्फ वेद मंत्रों के शुद्ध उच्चारण के लिए 65 शिक्षाग्रंथों की रचना हुई थी (मध्यकाल में) । क्या 1500 से 600 ईसा पूर्व (मैक्समूर साहब का वैदिक काल) जब लिखने की कला का विकास नही हुआ था (ब्रिटिश कल्पना अनुसार ) तो उस समय ऐसी रचना करना सम्भव था ??
अब समस्या यह आ गई कि इतनी अद्भुत रचना (वेद पर ) इतिहास तो लिख दिया लेकिन एक्सप्लेनेशन क्या करे ??
आखिर कैसे पाषाण काल से 5000 साल तक विकसित हुए सभ्यता के क्रम के साथ वैदिक काल को set किया जाय । यह प्रश्न सदैव ही अनुत्तरित रहा उनके लिए यही कारण है कि तर्को के आभाव में वामपंथी और ईसाई इतिहासकारो ने वैदिक इतिहास को काल्पनिक मानकर वेद , उपनिषद , रामायण आदि को शुंग काल मे रचित साहित्य बता दिया । 
लेकिन इससे यह समस्या हुई कि बौद्ध काल काल्पनिक सिद्ध हो गया कि बुद्ध ने किसी जातिव्यवस्था या पाखण्ड का विरोध किया । 
खैर जो भी है यह स्थिति जस की तस आज भी बनी है ।
खैर , कथित विद्वानों को कही न कही तो पहुचना ही था तो
उनके सामने दो ऑप्शन आये :- 
(1) वेद को अपुरुषेय सृष्टि के आरम्भ का स्वीकार करे ।
(2) संस्कृत के इतिहासिक दृष्टि से न्यून सिद्ध करना ।
पहले ऑप्शन के अनुसार , वह वेदो को अपुरुषेय मान नही सकते थे कारण स्पष्ट था कि वह मिशनरी वर्ग से थे वह बाइबिल से इतर चिंतन नही रख सकते थे जिससे बाइबिल की कल्पनाये न्यून और निम्न साबित होए । जिससे वैदिक धर्म सनातन सत्य सिद्ध हो जाये ।
दूसरा ऑप्शन उन्होंने ने चुना इस तरह काल्पनिक तर्को के गढ़ने का सिलसिला भी चला लेकिन वैचारिक असफलता हाथ आई । क्योकि वैदिक संस्कृत परिष्कृत , शुद्ध और वैज्ञानिक होने के साथ अद्वितीय ज्ञान का भंडार है । और किसी अन्य भाषा प्राकृत आदि के एक शब्द से संस्कृत के कई शब्द बनना सम्भव नही है अतः वैदिक संस्कृत ही आदि भाषा है । 
बाद में वैदिक संस्कृत , महाभारत , रामायण आगे पाणिनि आदि व्याकरण समय के साथ रूढ़ भी हो गए , परन्तु उनमें अर्थांन्तर आये परन्तु उच्चारण के नही ।
वेदो को श्रुति इसलिए नही कहा जाता था कि इन्हें सुनकर ही याद कर कर लिया जाता था , अपितु इसलिए कहा जाता है कि इनके पाठक अपनी मेधा इनके ग्रहण करने के लिए इस तरह बनाना चाहिए कि वह इन्हें सुनकर ही याद कर ले , जिससे कि आवश्यकता पड़ने पर इनके प्रमाणों का समुचित प्रयोग कर सके । क्योकि भारतीय विचारधारा के अनुसार कण्ठ की हुई विद्या का महत्व था । 
आर्यो ने वेदांगों में शिक्षा विद्या और शुद्धोचारण विद्या (वर्णोच्चारण शिक्षा) का समावेश किया , उन्होंने वेद की रक्षा के लिए वेदोच्चारण को महत्व दिया । वैदिक आर्यो ने बड़े सावधानी से की ।
आदि भाषा सतयुग के आदि भाग और देवयुग में रही । सतयुग में मलेक्ष् वाको की उतपत्ति हुई । और त्रेता से भारतीय प्राकृत अस्तित्व में आया ।
रामनामकितम् चेदि पश्य देवि अंगुलिकम् - वाल्मीकि रामायण
तब देखी मुद्रिका मनोहर । राम नाम अंकित अति सुंदर 
( मानस में भी यह रचना है )
(अर्थात हे देवी रामनाम अंकित इस अंगूठी को देखो । ) 
इससे स्पष्ट है कि रामायण काल मे भी लेखन कला प्रचलित थी ।
जिस लिपि में वेद लिखे गए उसका नाम देवनागरी है। विद्वान अर्थात देव लोगों ने संकेत से अक्षर लिखना प्रारम्भ किया इसलिए भी इसका नाम देवनागरी है।
इस प्रकार से आर्य भाषा अपौरुषेय एवं वैदिक काल की भाषा है जिसकी लिपि का विकास भी वैदिक काल में हो गया था।
बन्धुओ ऐसे कईयो प्रमाण वेदो , शास्त्रो में भरे पड़े है जिससे यह सिद्ध हो सके कि वेद अपुरुषेय है । परंतु मिशनरी वर्ग मनु शास्त्र , वाल्मीकि रामायण , पुराण , आदि से केवल selected चीजे उठाते है , इसका कारण यह है कि जब आप के समक्ष अध्ययन और शोध से पूर्व ही निष्कर्ष होते है तो आपको उसी बिंदु पर आना होता है और पूर्व बातो को भी सिद्ध करना होता है जो आप करना चाहते है ।
विश्व के सर्वप्राचीन स्मृति शास्त्र मनुस्मृति में स्मृतिकार मनु महाराज कहते हैं -
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम।
दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृगयु: समलक्षणम्॥
-मनुस्मृति - 1/13
अर्थात - जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और (तु अर्थात) अंगिरा से ऋग, यजु:, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।
अर्थववेद का अंगिरा पर होने का प्रमाण उपलब्ध है -
यदथर्वान्गिरस स य एव विद्वानथर्वान्गिरसो अहरह: स्वाध्यायमधीते ।
-शतपथ ब्राह्मण 11/5/6/7
अर्थात-जो अर्थववेद वाला अंगिरा मुनि वह जो इस प्रकार जानता है कि अर्थवाअंगीरा का हमेशा स्वाध्याय करता है।
श्रुतीरथार्वान्गिरसी: कुर्यादित्यविचारयन ।
-मनुस्मृति 11/33
अर्थात- बिना किसी संदेह के अंगिरा ऋषि पर प्रकट हुई अर्थववेद की श्रुतियो का पाठ करे ।
इन प्रमाणों में स्पष्ट है कि अंगिरा पर अर्थववेद प्रकट हुआ था। इसके अतिरिक्त वेद में भी चारों वेदों का नाम आया है -
यस्मिन्नश्वास ऋषभास उक्षणो वशामेषा अवसृष्टास आहूता: ।
कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदामर्ति जनये चारुमग्नये ।।
-ऋग्वेद 10/91/14
(यस्मिन) जिस सृष्टि में परमात्मा ने (अश्वास) अश्व (ऋषभास) सांड (उक्ष्ण) बैल (वशा) गाय (मेषा) भेड़, बकरियाँ (अवस्रष्टास) उत्पन्न किये और (आहूता) मनुष्यों को प्रदान कर दिए। वही ईश्वर (अग्नेय) अग्नि के लिए (कीलालपो) वायु के लिए (वेधसे) आदित्य के लिए (सोमपृष्ठाय) अंगिरा के लिए (हृदा) उनके ह्रदय में (चारुम) सुन्दर (मतिम) ज्ञान (जनये) प्रकट करता है।
स्मरणीय है कि अग्नि सूर्य ओर वायु कोई जड़ पदार्थ नहीं वरन ऋषि हैं।जड़ पदार्थ में वेद की ज्योति प्रकाशित होने का विचार करना मूर्खता की बात है। क्योंकि जड़ से अर्थात जड़ में ज्ञान नहीं दिया जा सकता है। अग्नि वायु, (वायो), आदित्य ऋषि ही इसका प्रमाण हैं- सायण ऐतरेय ब्राह्मण 5/33 की व्याख्या करते हुए अग्नि आदि को भी जीव विशेष कहते है।
अब सामान्य तर्को से बढ़ने की कोशिश करते है , कि वेद क्यो अपुरुषेय माने जाय । 
(1) मैक्समूलर के अनुसार , आर्य कृषक और पशुचारक थे तो अचानक से कैसे इतने विशाल और ज्ञान के भंडार वाले ग्रन्थ को रच लिया 1500 ईसा पूर्व जबकि उस समय लेखन कला का भी विकास नही हुआ था । जबकि यह कार्य विश्व के किसी सभ्यता से लेकर अद्यतन में कोई न कर सका । और यह इतना वैज्ञानिक है कि 6 th जनरेशन के सुपर कम्यूटर की भाषा संस्कृत है ।
(2) क्या यह सम्भव है कि इतने क्लिष्ट और दुरूह शब्दो के उच्चारण के साथ कोई सामान्य मानव ऐसे ग्रन्थ कंठस्थ कर सकता है । अगर हाँ तो जावा , सुमात्रा , अंडमान , अफ्रीका के आदिवासी ऐसा क्यों न कर सके ??
(3) क्या जंगलो में रहने वाले व्यक्ति a, b ,c, d या किसी हिंदी जानने वाले को चाइनीस book दे दी जाय तो वह व्यक्ति ज्ञान और गुरु के बिना कितने दिनों में उसे पढ़ लेगा ।
इससे सिद्ध है कि किसी कार्य के होने के लिए कारण का होना आवश्यक है , बिना गुरु (परमेश्वर) के ज्ञान असम्भव था । इसलिए सृष्टि के आरंभ में ईश्वर ने मनुष्य दयास्वरूप वेद ज्ञान दिए । मिशनरी वर्ग ने यहां पक्षपात इसलिए भी दिखाया क्योकि बाईबिल के अनुसार ज्ञान की किताब ईसा मसीह लेकर आया था और इसलिए सारे तिथिक्रम की शुरुआत ईसा के समय से ही है उसके पूर्व सभी अनपढ़ , जाहिल थे ।
पूर्व ईसाई आज के वैदिक अध्यापक डेविड फ्राली (वामदेव शास्त्री )के अनुसार , जब ज्ञान के आभाव में अरब , और यूरोप अंधकार में विचरण कर रहे थे उस समय भारतीय मनीषियों ने वेद रच दिए थे ।
#जय_आर्यावर्त
#जय_पाखण्ड_खंडिनी
हिमांशु शुक्ला

No comments:

Post a Comment