Sunday, July 3, 2022

जाति व्यवस्था या वर्ण व्यवस्था ?

‘वृञ् वरणे’ इस मूल शब्द से वर्ण शब्द की उत्पत्ति हुई है । वर्ण का अर्थ होता है, जिसके माध्यम से किसी का वरण किया जाये, चयन किया जाये, छांटा जाये उसको वर्ण कहा जाता है । मनुष्यों के गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर ही समाज को चार भागों में बाँट दिया गया है, जिसको कि वर्ण कहा जाता है । वह देश, राष्ट्र, समाज वा संगठन उत्कृष्ट माना जाता है जहाँ ज्ञान-विज्ञान का प्रचार-प्रसार होता हो, सत्य-न्याय का व्यवहार होता हो तथा साधन-सम्पन्नता हो, किसी प्रकार की कोई कमी न हो । इसके विपरीत समाज के शत्रु-रूप तीन चीजें अज्ञान, अन्याय और अभाव जब बढ़ जाती हैं तो समाज अवश्य ही पतन को प्राप्त हो जाता है । सब मनुष्यों का यह कर्त्तव्य है कि इन तीन चीजों को समाज में फैलने न देवें, किन्तु इनको सदा समाप्त करने के लिए ही प्रयत्नशील होवें ।
मुख्य रूप से जो मनुष्य अज्ञान को समाप्त करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हो कर समाज में कार्य करता है और ज्ञान-विज्ञान का प्रचार-प्रसार करता है उस धर्म व सत्यज्ञान के रक्षक व्यक्ति को ब्राह्मण नाम से वर्णित किया जाता है । जो व्यक्ति समाज में हो रहे विभिन्न प्रकार के अन्याय को दूर करने हेतु प्रयत्नशील हो और न्याय व देश का रक्षक बना हुआ हो उसको क्षत्रिय नाम से कहा जाता है । इसी प्रकार जो व्यक्ति समाज में स्थित अनेक प्रकार के अभाव को दूर करता हो, ऐसे समृद्धि व सम्पन्नता के रक्षक को वैश्य नाम से चयन किया जाता है । इन तीन प्रकार के व्यक्तियों से अतिरिक्त भी कुछ लोग समाज में रहते हैं जो कि इन तीनों कार्यों को ही करने में असमर्थ हों, जिनके पास कुछ योग्यता विशेष न हो किन्तु इन तीनों प्रकार के व्यक्तियों की सेवा आदि के द्वारा सहयोग कर सकें, ऐसे सेवा में निपुण व्यक्ति को शूद्र नाम से वरण किया जाता है । ये सब विभाग पूर्वक निर्णय व्यक्ति के कर्मों को देख कर ही किया जाता है न कि उसके जन्म को देख कर । वेदों में बताई गई वर्ण आश्रम व्यवस्था बुद्धिमत्ता पूर्वक और न्याय पूर्वक उन्नति कराने वाली है । जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसको वैसा ही फल मिलना चाहिए । तो क्रमशः व्यक्ति अपनी योग्यता को बढ़ाकर शूद्र से वैश्य और वैश्य से क्षत्रिय बन सकता है। फिर क्षत्रिय से ब्राह्मण और फिर ब्राह्मण से संन्यासी बनकर उत्तरोत्तर उन्नति कर सकता है , और मोक्ष तक पहुंच सकता है ।
प्राचीन काल में जब बालक गुरुकुल में अध्ययन के लिए जाता था तो विद्या प्राप्ति के पश्चात् उन बालकों के गुण, कर्म, स्वभाव आदि देख कर गुरु वा आचार्य यह स्वयं निर्धारण करते थे कि यह बालक किस वर्ण का है अर्थात् बालक यदि ज्ञानी, बुद्धिमान्, पढ़ने-पढ़ाने में निपुण हो तो ब्राह्मण, यदि निडर, बलशाली, वीर, पराक्रमी, योद्धा हो तो क्षत्रिय, यदि ! यानि के एक ब्राह्मण के घर शूद्र और एक शूद्र के यहाँ ब्राह्मण का जन्म हो सकता था ! ..लेकिन धीरे-धीरे यह व्यवस्था लोप हो गयी और जन्म से वर्ण व्यवस्था आ गयी ..और इस व्यवस्था का पतन प्रारम्भ हो गया।
इतिहास में ऐसे कई जाति बदलने उद्धरण है .. ..यह एक विज्ञान है ..ऋतु दर्शन के सोलहवीं अट्ठारहवीं और बीसवी रात्रि में मिलने से सजातीय संतान और अन्य दिनों में विजातीय संतान उत्पन्न होते है।
एकवर्ण मिदं पूर्व विश्वमासीद् युधिष्ठिर ।।
कर्म क्रिया विभेदन चातुर्वर्ण्यं प्रतिष्ठितम्॥
सर्वे वै योनिजा मर्त्याः सर्वे मूत्रपुरोषजाः ।।
एकेन्दि्रयेन्द्रियार्थवश्च तस्माच्छील गुणैद्विजः ।।
शूद्रोऽपि शील सम्पन्नों गुणवान् ब्राह्णो भवेत् ।।
ब्राह्णोऽपि क्रियाहीनःशूद्रात् प्रत्यवरो भवेत्॥ (महाभारत वन पर्व)
पहले एक ही वर्ण था पीछे गुण, कर्म भेद से चार बने ।। सभी लोग एक ही प्रकार से पैदा होते हैं ।। सभी की एक सी इन्द्रियाँ हैं ।। इसलिए जन्म से जाति मानना उचित नहीं हैं ।। यदि शूद्र अच्छे कर्म करता है तो उसे ब्राह्मण ही कहना चाहिए और कर्तव्यच्युत ब्राह्मण को शूद्र से भी नीचा मानना चाहिए ।।
ब्राम्हणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतपः।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्रभवैगुणै:॥ (गीता.18.41)
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥ (गीता.4.13)
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का विभाजन व्यक्ति के कर्म और गुणों के हिसाब से होता है, न की जन्म के. गीता में भगवन श्री कृष्ण ने और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है कि वर्णों की व्यवस्था जन्म के आधार पर नहीं कर्म के आधार पर होती है।
वेदाध्ययनमप्येतत् ब्राह्मण्यं प्रतिपद्यते ।।
विप्रवद्वैश्यराजन्यौ राक्षसा रावण दया॥
शवृद चांडाल दासाश्च लुब्धकाभीर धीवराः ।।
येन्येऽपि वृषलाः केचित्तेपि वेदान धीयते॥
शूद्रा देशान्तरं गत्त्वा ब्राह्मण्यं श्रिता ।।
व्यापाराकार भाषद्यैविप्रतुल्यैः प्रकल्पितैः॥ (भविष्य पुराण)
ब्राह्मण की भाँति क्षत्रिय और वैश्य भी वेदों का अध्ययन करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लेता है ।। रावण आदि राक्षस, श्वाद, चाण्डाल, दास, लुब्धक, आभीर, धीवर आदि के समान वृषल (वर्णसंकर) जाति वाले भी वेदों का अध्ययन कर लेते हैं ।। 
शूद्र लोग दूसरे देशों में जाकर और ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि का आश्रय प्राप्त करके ब्राह्मणों के व्यापार, आकार और भाषा आदि का अभ्यास करके ब्राह्मण ही कहलाने लगते हैं ।।
जातिरिति च ।। न चर्मणो न रक्तस्य मांसस्य न चास्थिनः ।। 
न जातिरात्मनो जातिव्यवहार प्रकल्पिता॥
जाति चमड़े की नहीं होती, रक्त, माँस की नहीं होती, हड्डियों की नहीं होती, आत्मा की नहीं होती ।। वह तो मात्र लोक- व्यवस्था के लिये कल्पित कर ली गई ।।
अनभ्यासेन वेदानामाचारस्य च वर्जनात् ।।
आलस्यात् अन्न दोषाच्च मृत्युर्विंप्रान् जिघांसति॥ (मनु.)
वेदों का अभ्यास न करने से, आचार छोड़ देने से, कुधान्य खाने से ब्राह्मण की मृत्यु हो जाती है ।।
अनध्यापन शीलं दच सदाचार बिलंघनम् ।।
सालस च दुरन्नाहं ब्राह्मणं बाधते यमः॥
स्वाध्याय न करने से, आलस्य से ओर कुधान्य खाने से ब्राह्मण का पतन हो जाता है ।।
एक ही कुल (परिवार) में चारों वर्णी-ऋग्वेद (9/112/3) में वर्ण-व्यवस्था का आदर्श रूप बताया गया है। इसमें कहा गया है- एक व्यक्ति कारीगर है, दूसरा सदस्य चिकित्सक है और तीसरा चक्की चलाता है। इस तरह एक ही परिवार में सभी वर्णों के कर्म करने वाले हो सकते हैं।कर्म से वर्ण-व्यवस्था को सही ठहराते हुए भागवत पुराण (7 स्कंध, 11वां अध्याय व 357 श्लोक) में कहा गया है- जिस वर्ण के जो लक्षण बताए गए हैं, यदि उनमें वे लक्षण नहीं पाए जाएं बल्कि दूसरे वर्ण के पाए जाएं हैं तो वे उसी वर्ण के कहे जाने चाहिए। भविष्य पुराण ( 42, श्लोक35) में कहा गया है- शूद्र ब्राह्मण से उत्तम कर्म करता है तो वह ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ है।
‘भृगु संहिता’ में भी चारों वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख इस प्रकार है कि सर्वप्रथम ब्राह्मण वर्ण था, उसके बाद कर्मों और गुणों के अनुसार ब्राह्मण ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण वाले बने तथा इन वर्णों के रंग भी क्रमशः श्वेत, रक्तिम, पीत और कृष्ण थे। बाद कें तीनों वर्ण ब्राह्मण वर्ण से ही विकसित हुए। यह विकास अति रोचक है जो ब्राह्मण कठोर, शक्तिशाली, क्रोधी स्वभाव के थे, वे रजोगुण की प्रधानता के कारण क्षत्रिय बन गए। जिनमें तमोगुण की प्रधानता हुई, वे शूद्र बने। जिनमें पीत गुण अर्थात् तमो मिश्रित रजो गुण की प्रधानता रही, वे वैश्य कहलाये तथा जो अपने धर्म पर दृढ़ रहे तथा सतोगुण की जिनमें प्रधानता रही वे ब्राह्मण ही रहे। इस प्रकार ब्राह्मणों से चार वर्णो का गुण और कर्म के आधार पर विकास 
हुआ।
इसी प्रकार ‘आपस्तम्ब सूत्रों’ में भी यही बात कही गई है कि वर्ण ‘जन्मना’ न होकर वास्तव में ‘कर्मणा’ होता है -
“धर्मचर्ययाजधन्योवर्णः पूर्वपूर्ववर्णमापद्यतेजातिपरिवृत्तौ।
अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जधन्यं जधन्यं वर्णमापद्यते जाति परिवृत्तौ।।
अर्थात् धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाता है - जिस-जिस के वह योग्य होता है । वैसे ही अधर्म आचरण से पूर्व अर्थात् उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वाले वर्ण को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जाता है।
महर्षि मनु जी ने ‘मनुस्मृति’ में बताया है कि –
“शूद्रो बा्रह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जात्मेवन्तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च।।
अर्थात् शूद्र कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय के समान गुण, कर्म स्वभाव वाला हो, तो वह शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है। वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो, उसके गुण व कर्म शूद्र के समान हो, तो वह शूद्र हो जाता है, वैसे ही क्षत्रिय या वैश्य कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण व शूद्र के समान होने पर, ब्राह्मण व शूद्र हो जाता है। ऋग्वेद में भी वर्ण विभाजन का आधार कर्म ही है। निःसन्देह गुणों और कर्मो का प्रभाव इतना प्रबल होता है कि वह सहज ही वर्ण परिवर्तन कर देता है यथा विश्वामित्र जन्मना क्षत्रिय थे, लेकिन उनके कर्मो और गुणों ने उन्हें ब्राह्मण की पदवी दी। राजा युधिष्ठिर ने नहुष से ब्राह्मण के गुण - यथा, दान, क्षमा, दया, शील चरित्र आदि बताए। उनके अनुसार यदि कोई शूद्र वर्ण का व्यक्ति इन उत्कृष्ट गुणों से युक्त हो तो वह ब्राह्मण माना जाएगा।
वर्ण परिवर्तन के कुछ उदाहरण -
(क) ऐतरेय ऋषि दास के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की | ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है |
(ख) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये |ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(ग्) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(घ) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?
(ङ्ग) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(च्) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(छ) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(ज) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(झ) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(ट) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
(ठ) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |
(ढ़) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(ण) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना |
(त) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(थ) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(द) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(न) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
(प) वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९) |
(फ) मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं | वर्ण परिवर्तन की साक्षी देने वाले यह श्लोक मनुस्मृति में बहुत बाद के काल में मिलाए गए हैं | इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं – पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश | 
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(भ) महाभारत अनुसन्धान पर्व (३५.१७-१८) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है – मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर |
(म) आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं | इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं | लेकिन कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए |
(य) रावण का तो सर्व विदित ही है कि वह विश्रवा ऋषि के पुत्र होते हुए भी राक्षस बन गया था ।
उच्च वर्ण में विजातीय संतान उत्पन्न होने की बात गले नहीं उतर रही है परन्तु यही सत्य है और शास्त्रोक्त भी ..इसी से भारत में वर्ण व्यवस्था और मजबूत होगी और ऊँच नीच का भेदभाव भी समाप्त होगा ! यदि हम इस विशुद्ध वर्ण व्यवस्था को समझते हैं और अपनाते हैं तो निश्चित है कि मानव में एकता की वृद्धि होगी तथा इससे भारतवर्ष में चली आ रही लाखो साल पुरानी ऊँच-नीच जातिवाद आदि की समस्या हमेशा के लिए खत्म हो जायेगी !

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