Tuesday, June 3, 2014

|| इस्लाम की मान्यता क्या है ||

|| इस्लाम की मान्यता क्या है ||
इस्लाम की मान्यता को जो दिल से मानता है और जुबान से इकरार करता है उसी का ही नाम मूसलमान है तथा ईमानदार कहलाता है इसे भली प्रकार सभी लोग समझने का प्रयास करे की आखिर मुस्लमान कौन है | जब की बहुत पहले इस्लामिक शिक्षा क्या है उर्दू में जिस किताब का नाम तालीमुल इस्लाम है जो चार भागों में है इस्लाम जगत के विद्वान् मुफ़्ती किफायतुल्ला साहब की लिखी हुई है जिसके दो भाग के कुछ हिस्से तक मै लिख चूका हू जिसे आप लोगों ने भी पढ़ी होगी जिसमे इस्लामिक शिक्षा को ही दर्शया गया है | मै जो लिख रहा हू इन सभी इस्लामी पुस्तकों से एक-एक अक्षर को मिलकर देखलें अगर उसमे कुछ अंतर दिखाई पड़े तब मुझे झूठा कहना | अगर मेरी बातें इस्लामी पुस्तकों से अक्षर सह: मेल है तो मुझे झूठा बताने वाले और गाली देने वाले आप सभी लोग मुह तोड़ जवाब दे मै आप लोगो से यही आशा रखता हू, कल का पोस्ट क्या है उर्दू में उसकी हिंदी बना कर दे रहा हू आप सभी लोग उसे ध्यान से पढ़े |
इमान ओ कुफ़्र का बयान:ईमान यह है की अल्लाह व रसूल की बताई हुई तमाम बातो का यकीन करे और दिल से सच जाने अगर किसी ऐसी एक बात का भी इंकार है इसके बारे में यकीनी तौर पर मालूम है की यह इस्लाम की बात की है तो यह कुफ़्र है | यानि जो बाते उसमे बताई गई है उसको मानना ईमान है और न मानना ही कुफ़्र है | जैसे कयामत, फरिश्ते, जन्नत, दोज़ख, हिसाब को न मानना या नमाज, रोजा, हज, जकात को फर्ज न जानना क्या कुरान को अल्लाह का कलाम न समझना, काबा, कुरान, या किसी नबी या फरिश्ता की तौहीन करनी, या किसी सुन्नत को हल्का बताना शरियत के हुकुम का मज़ाक उड़ाना और ऐसी ही इस्लाम की किसी मालूम व मशहूर बात का इंकार करना या उसमे शक करना यकीनन कुफ़्र है | मुस्लमान होने के लिए ईमान को अकायद के साथ इकरार भी जरुरी है, जब तक कोई मज़बूरी न हो | मसलन मुह से बोली नहीं निकलती या जुबान से कहने में जान जाती हो या कोई अजूद कटा जाता हो तो उस वक्त जुबान से इकरार करना जरुरी नहीं, बल्कि सिर्फ जुबान से खिलाफ इस्लाम बात भी जान बचाने के लिए कह सकता है, लेकिन न कहना ही अच्छा है | इसके सिवा जब कभी जुबान से कलमा कुफ़्र निकलेगा काफ़िर समझा जायेगा | अगरचे यह कहें की खाली जुबान से कहा दिल से नहीं उसी तरह वह बाते जो कुफ़्र की निशानी है जब उसको करेगा काफ़िर समझा जाएगा जैसा जनेऊ डालना, चुटिया रखना, सलेब लटकाना |

मुस्लमान होने के लिए इतना काफी है की सिर्फ दीन इस्लाम ही को सच्चा मजहब माने और किसी जरुरी दिनी का मुनकिर न हो और जरूरियात दिनी के खिलाफ आकिदा न रखता हो अगर ये तमाम जरूरियात दीन का उसको इल्म न हो लिहाज़ा बिलकुल लठ, गवार, जाहिल जो इस्लाम को हक़ मानें और इस्लामी आकिदो के खिलाफ कोई आकिदा न रक्खे चाहे कलमा भी सही न पढ़ सकता हो वह मुस्लमान है मोमिन है काफ़िर नहीं | अलबत्ता नमाज रोज़ा हज वगैरा अयमल के तर्कसे गुनाहगार तो होगा लेकिन मोमिन रहेगा, इसलिए की आमान ईमान में दाखिल नहीं | आकिदा, जो चीज बेशुबह हराम हो उसको हलाल जानना, और जो यकीनन हलाल हो उसको हराम जानना कुफ़्र है | जब की यह हराम व हलाल होना मालूम व मशहूर हो या यह शख्स उसको जानता हो |
शिर्क = शिर्क की माने है अल्लाह के सिवा किसी और को खुदा जानना या इबादद के लायक समझना और यह कुफ़्र की सबसे बदतर किस्म है इसके सिवा ऐसा ही सख्त कुफ़्र क्यों न हो – हकीकतन शिर्क है | किसी कुफ़्र की मगफिरत न होगी कुफ़्र के सिवा सब गुनाह अल्लाह ताला की मुश्यत पर हैं जिसे चाहे बक्श दे |
आकिदा = कबिरह (छोटा) गुनाह करने से मुस्लमान काफ़िर नहीं हो जाता बल्कि मुस्लमान ही रहता है | अगर बिन तौबा किये मर जाये तो भी उसे जन्नत मिलेगी गुनाह की सज़ा भुगत कर या माफ़ी पाकर और यह माफ़ी अल्लाह ताला महज अपनी महरबानी से दे या हुजुर(स) की शिफात से | मसला जो किसी मरे हुए काफिर के लिए मगफीरत की दुआ करे किसी काफ़िर, मुरतिद को मरहूम या मग्फुर, या बहश्ती कहें या किसी हिन्दू मुर्दा को बैकुंठ वासी कहें वह खुद काफ़िर है|
नोट- हिन्दुओ कान खोलकर सुनो और ऑंखें खोलकर पढ़ो, जानो और समझो भी की मुस्लमान कौन है ? की मुस्लमान वह है शरियत व इस्लामी कानून के अनुसार कोई मुस्लमान किसी मरे हुए हिन्दू के भलाई के लिए भी परमात्मा से प्रार्थना नहीं कर सकता और ना हीं उस हिन्दू को स्वर्ग वासी या वैकुण्ठ वासी कह सकता है अगर कोई मुस्लमान ऐसा करता है तो वह भी काफ़िर हो जायेगा जो की बहुतसे मुसलमानों को भी यह बात पता नही है |
आकिदा = मुस्लमान को मुस्लमान जानना और काफ़िर को काफ़िर जानना जरुरी है | अलबत्त: किसी खास आदमी के काफ़िर होने का या मुस्लमान होने का यकीन उस वक्त तक नहीं किया जा सकता जब तक की शरिय: (शरियत) की दलील से खात्मा का हाल मालूम न हो जाये की कुफ़्र पर मरा या इस्लाम पर मरा | लेकिन इसके यह मयने नहीं की जिसने यकीनन कुफ़्र किया हो उसके काफ़िर होने में शक किया जाये | इसलिए की यकीनी काफ़िर के कुफ़्र में शक करना खुद का काफ़िर हो जाना है | इसलिए शरियत का हुक्म ज़ाहिर के लिहाज से होता है | अलबत्त: इस्लाम में फैसला हकीकत के एतबार से होगा इसको यूँ समझो की कोई काफ़िर यहूदी, नसरानी, हिन्दू, मर गया तोह ये यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता की कुफ़्र पर मरा, हमे अल्लाह और रसूल का यही हुक्म है की उसे काफिर ही जाने और काफ़िर ही का बर्ताव उसके साथ करे जिस तरह मुस्लमान है और उसका कोई कौल व फयल इस्लाम के खिलाफ नहीं है तो फर्ज है हुम उसे मुस्लमान ही समझो अगर चे उसके खात्मा का भी हाल नहीं मालूम |
आकिदा = कुफ़्र व इस्लाम के सिवा कोई तीसरा दर्जा नहीं आदमी क्या मुस्लमान होगा या काफ़िर ऐसा नहीं के न काफ़िर हो न मुस्लमान बल्कि एक कोई जरुर होगा | आकिदा = मुस्लमान हमेशा जन्नत में रहेंगे कभी निकाले नहीं जायेंगे, और काफ़िर हमेशा दोजख़ में रहेंगे कभी निकाले नहीं जायेंगे | मसलह अल्लाह के सिवा किसी और को सिजदा करना कुफ़्र है और सिजदा ताजिमी हराम है |
बिदयत = जो बात रसूल(स) से साबित न हो वो बिदयत है | और इसके दो किस्म है एक बिदयत हसन, दूसरी बिदयत सैयेय| बिदयत हसन: वह है जो किसी सुन्नत के मुखालिफ व मजाहम न हो, जैसा, मस्जिद पक्की बनवाना, कुरानशरीफ सुनहरी हुर्फोसे लिखना, जुबान से नियत करना | इल्म सर्फ़, इल्म नुह, इल्म रियाजी, खुसूसन इल्म हयेय्त, व हिन्दसा, पढ़ना पढ़ाना –आज कल के मदरसे –वाज या जलसे, हिन्द व दस्तार वगैरह सैकड़ों ऐसी चीजें हैं, जो हुजुर के जमाने में नथीं-वह सब बिद्यत हसन:हैं | ऐसी के बाज़ वाजिब तक है | कल जो उर्दू में पेज लगाये थे जिसकी हिंदी यह है |
अब जरुर यह बात समझ में आ गई होगी की इसलाम क्या है, के जिसका मानने वाला ही मुसलमान कहलाता है | यह तो मात्र ईमान की प्रारम्भिक बातें है, इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण इसलाम क्या है इसकी जानकारी देने में बड़ा लम्बा समय लगेगा | मै फिर लिख रहा हूँ की यह जानकारी कानुने शरियत से मैंने दी है, हदीसों में भी यही जान कारी और भी हैं | मुझे झुठलाने से पहले इन किताबों झुठलाना पड़ेगा | पहले लिखा हूँ तयलिमुल इसलाम नामी पुस्तक को देखलें जिसमे भी पूरी जानकारी मैंने पहले दी है |
-महेन्द्रपाल आर्य –वैदिक प्रवक्ता –दिल्ली ==

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