Saturday, August 6, 2022

दुरुस्त हुई एक ऐतिहासिक गलती.

दिव्य कुमार सोती
(दो वर्ष पहले प्रकाशित  पुन: प्रकाशित किया जा रहा है। )

आखिरकार दशकों के इंतजार के बाद जम्मू-कश्मीर के भारत में पुन: एकीकरण की दिशा में एक बड़ा कदम उठा लिया गया। इससे एक ऐतिहासिक गलती को ठीक किया गया। गत दिवस गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में अनुच्छेद 370 को हटाने का संकल्प पत्र पेश किया। इस हेतु केंद्रीय कैबिनेट की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी कर भारतीय संविधान के सभी प्रावधानों को जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू कर दिया। चूंकि अनुच्छेद 370 के तहत ऐसा करने के लिए जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की सिफारिश की आवश्यकता होती इसलिए राष्ट्रपति ने संविधान के निर्वाचन के लिए प्रदत्त अनुच्छेद 367 में एक धारा जोड़ते हुए कहा कि जम्मू-कश्मीर संविधान सभा से आशय राज्य विधानसभा समझा जाए। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर में संविधान सभा दोबारा बुलाने की संभावना और जरूरत समाप्त हो गई। चूंकि फिलहाल राज्य में विधानसभा भंग है और वहां राज्यपाल शासन लागू है इसलिए विधायी शक्तियां राज्यपाल में निहित हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि राज्यपाल के केंद्र का प्रतिनिधि होने के कारण उसकी शक्तियां संसद में निहित हैं। यहां यह समझना जरूरी है कि अनुच्छेद 370 को संवैधानिक पेचीदगियों के चलते संवैधानिक संशोधन करके खत्म नहीं किया गया और न ही उसमें संशोधन किया गया, बल्कि सरकार ने इसी अनुच्छेद का इस्तेमाल कर इसके प्रावधानों का अर्थ बदल दिया।
एक तरह से अनुच्छेद 370 का संवैधानिक शुद्धिकरण करने की कोशिश की गई ताकि यह जम्मू कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण में बाधा न रह जाए। भविष्य में इस संबंध में कुछ और कानूनी कदम उठाए जा सकते हैं, क्योंकि बीते सात दशकों में विसंगतियों की सूची काफी लंबी हो चुकी है। इसके साथ ही अनुच्छेद 35ए जैसे प्रावधान जिसके तहत जम्मू-कश्मीर राज्य को मूल निवासी की परिभाषा तय करने की शक्ति प्राप्त थी, के भी समाप्त होने का रास्ता खुल गया। अनुच्छेद 35ए के निष्प्रभावी होने बाद अब कोई भी भारतीय नागरिक जम्मू कश्मीर में बस सकेगा और संपत्ति भी खरीद पाएगा। यह देखने वाली बात होगी कि इन संवैधानिक बदलावों का सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 35ए को लेकर लंबित याचिकाओं पर क्या असर होगा, लेकिन यह उल्लेखनीय है कि गृहमंत्री ने जम्मू-कश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक भी पेश कर दिया है। इसके पारित होने पर सामरिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण लद्दाख एक केंद्र शासित राज्य बन जाएगा, जिसमें कोई विधानसभा नहीं होगी। लद्दाख में पहले ही हिल काउंसिल को काफी अधिकार प्राप्त हैं और संभावना है कि उन्हें जारी रखा जाए। लद्दाख क्षेत्र के लोगों की लंबे समय से यह मांग थी कि लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया जाए। लद्दाख के भूभाग पर चीन भी दावा जताता रहा है। फिलहाल सामरिक रूप से अति संवेदनशील इस क्षेत्र का प्रशासन एक आइएएस अधिकारी के हाथ में होता है। अब इस क्षेत्र को उप-राज्यपाल और मुख्य सचिव चलाएंगे।
जब से कश्मीर में अलगाववाद की समस्या शुरू हुई तब से जम्मू आधारित पार्टियों और सामाजिक संगठनों की यह मांग रही कि उन्हें कश्मीर से अलगकर पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जाए। इसके लिए प्रजा परिषद जैसी जम्मू की पार्टियां बड़े आंदोलन भी कर चुकी हैं। इसके अलावा विस्थापित कश्मीरी पंडित भी अपने लिए एक छोटे केंद्र शासित प्रदेश की मांग करते रहे हैं। इसके विरोधी इसे सांप्रदायिक आधार पर राज्य को बांटने की योजना बताकर इसकी आलोचना करते रहे। इस मांग को मानने में एक जोखिम यह था कि मुस्लिम बहुल कश्मीर के पूरी तरह अलग राज्य होने पर अन्य समुदायों का वहां के शासन में दखल बिल्कुल ही समाप्त हो जाए। शायद इसीलिए मोदी सरकार ने जम्मू और कश्मीर को साथ ही रखते हुए उसे केंद्र शासित राज्य का दर्जा देने की व्यवस्था की। इसी के साथ प्रदेश में परिसीमन का रास्ता भी साफ हो गया, जिसे कश्मीर की पार्टियों ने विधानसभा में प्रस्ताव लाकर 2026 तक टाल दिया था जबकि पूरे देश में 2006 में परिसीमन हुआ था। मोदी सरकार के ताजा फैसले के बाद जम्मू कश्मीर में चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार तो होगी, पर दिल्ली सरकार की तरह कई महत्वपूर्ण अधिकार उसके पास नहीं होंगे। इससे केंद्र सरकार को आतंकवाद को कुचलने में मदद मिलेगी।
अनुच्छेद 370, 35-ए और परिसीमन के जरिये घाटी के नेताओं ने कश्मीर में जेहाद को संरक्षण देकर कई गंभीर समस्याएं पैदा कीं। इन समस्याओं ने कश्मीर को हर प्रकार की देश विरोधी गतिविधि का गढ़ बना डाला और पाकिस्तान को भारत के अंदर युद्ध छेड़ने का मैदान मुहैया कराया। इसके चलते पिछले सात दशकों में हमें हजारों सैनिकों और नागरिकों को गंवाना पड़ा। अनुच्छेद 370 और 35-ए जैसे संवैधानिक प्रावधानों का लाभ उठाकर ही ऐसी स्थिति पैदा की गई कि लाखों कश्मीरी पंडितों और सिखों को रातोंरात अपना घरबार छोड़कर भागना पड़ा। 1947 में पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए शरणार्थियों को पूरे देश में नागरिकता मिल गई, लेकिन जम्मू-कश्मीर पर सात दशक से राज करते रहे घाटी के नेताओं ने वहां यह भी नहीं होने दिया। अन्याय की हद तब हुई जब कश्मीरी नेताओं ने विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए कुछ कालोनियां तक नहीं बनने दीं। यही नहीं घोर सांप्रदायिक माहौल ने घाटी में कट्टरपंथ को इतनी हवा दी कि बात अलगाववाद से आगे बढ़ती-बढ़ती बुरहान वानी और जाकिर मूसा के जरिये कश्मीरी युवाओं को बगदादी के इस्लामिक स्टेट जैसे शासन के सपने दिखाने तक आ गई। कश्मीर की मस्जिदें राजनीति का केंद्र बना दी गईं और कश्मीरी युवाओं का शेष भारत से संवाद तकरीबन खत्म कर दिया गया। इसका असर यह हुआ कि घाटी के युवाओं का जेहादी विचारों के अलावा किसी और प्रकार के विचारों के संपर्क ही खत्म हो गया। उम्मीद की जाती है कि ताजा संवैधानिक बदलावों के बाद शेष भारत के लोगों का वहां आना-जाना, बसना और व्यापार करना बढ़ेगा जिससे घाटी में ताजा हवा के झोंके आएंगे।
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