वर्षो से यह झूठ फैलाया जा रहा है कि आर्य विदेशी गौरे रंग के थे जबकि द्रविड़ (अनार्य) काले रंग के थे।
भारत में पहला उपग्रह बना. महान भारतीय गणितज्ञ के नाम पर इसका नामकरण किया गया आर्यभट्ट। तमिलनाडू के राजनेताओं ने यह कह कर विरोध किया कि आर्य भट्ट तो विदेशी ब्राह्मण था. उसके नाम को प्रयोग ना किया जाए।
लेख में दिए 2 चित्र 1725 AD के हैं जो जम्मू के संग्रहालय में हैं। बाएं चित्र में राजा बलि उनके गुरु शुक्राचार्य गौरे रंग के हैं। परन्तु भगवान वामन (पुराणों के अनुसार माता अदिति और ऋषि कश्यप के पुत्र) काले रंग के हैं।
वामपंथी इतिहासकार बलि को द्रविड़ बताते हैं इसलिए चित्रकार को उन्हें काला दिखाना चाहिए था। परन्तु सच यह है कि आर्य द्रविड़ का झूठ उत्तर और दक्षिण में मतभेद पैदा करने के लिए फैलाया गया।
दूसरे चित्र में हिरण्याक्ष और वाराह युद्ध का दृश्य है। पुराणों के अनुसार हिरण्याक्ष बलि का पूर्वज है अतः द्रविड़ है। परन्तु चित्र में हिरण्याक्ष को भी गौरा दिखाया गया है।
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कुछ दिन पहले MA की इतिहास की पुस्तक पढ़ रहा था। उसमे लिखा था प्राचीन भारत में जाति को वर्ण कहा जाता था। संस्कृत भाषा में वर्ण का अर्थ है रंग. अतः रंग के आधार पर उत्तर भारतीयों ने गौरे रंग वालों को ब्राह्मण/आर्य कहा। उत्तर भारत के काले रंग वाले व दक्षिण भारत के काले रंग वालों को भी शूद्र/दस्यु/द्रविड़ आदि नाम से कहा। यही बात UGC के इतिहास चैनल पर एक प्राध्यापिका बोल रही थी|
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रोमिला थापर ने भी अपनी पुस्तक 'भारत का इतिहास' में लिखा कि वर्ण व्यवस्था का मूल रंगभेद था। जाति के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द वर्ण का अर्थ ही रंग होता है।
सच्चाई इसके बिलकुल विपरीत है। सभी भाषाओं में अनेकार्थी शब्द होते हैं. वर्ण शब्द भी अनेकार्थी है. यहाँ वर्ण शब्द का अर्थ है चुनाव. गुण, कर्म और स्वभाव से वर्ण निश्चित होता था. जन्म से नहीं.
इस विषय में हमारे भ्रमित करने या संबंधित इतिहास का विकृतीकरण करने का कार्य मैकडानल ने विशेष रूप से किया। उन्होंने अपनी पुस्तक 'वैदिक रीडर' में लिखा-ऋग्वेद की ऋचाओं से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री से पता चलता है कि 'इण्डो आर्यन' लोग सिंधु पार करके भी आदिवासियों के साथ युद्घ में संलग्न रहे। ऋग्वेद में उनकी इन विजयों का वर्णन है। वे अपनी तुलना में आदिवासियों को यज्ञविहीन, आस्थाहीन, काली चमड़ी वाले व दास रंग वाले और अपने आपको आर्य-गोरे रंग वाले कहते थे। मैकडानल का यही झूठ आज तक हमारे विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है।
ग्रिफिथ ने ऋग्वेद (1/10/1) का अंग्रेजी में अनुवाद करते हुए की टिप्पणी में लिखा है-कालेरंग के आदिवासी, जिन्हेांने आर्यों का विरोध किया। 'उन्होंने कृष्णवर्णों के दुर्गों को नष्ट किया। उन्होंने दस्युओं को आर्यों के सम्मुख झुकाया तथा आर्यों को उन्होंने भूमि दी। सप्तसिन्धु में वे दस्युओं के शस्त्रों को आर्यों के सम्मुख पराभूत करते हैं।''
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वैदिक वांग्मय और इतिहास के विशेषज्ञ स्वामी दयानंद सरस्वती जी का कथन इस विषय में मार्ग दर्शक है।
स्वामीजी के अनुसार किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहाँ के जंगलियों से लड़कर, जय पाकर, निकालकर इस देश के राजा हुए
(सन्दर्भ-सत्यार्थप्रकाश 8 सम्मुलास)
जो आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही मैं भी मानता हूँ, आर्यावर्त देश इस भूमि का नाम इसलिए है कि इसमें आदि सृष्टि से आर्य लोग निवास करते हैं इसकी अवधि उत्तर में हिमालय दक्षिण में विन्ध्याचल पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रहमपुत्र नदी है इन चारों के बीच में जितना प्रदेश है उसको आर्यावर्त कहते और जो इसमें सदा रहते हैं उनको आर्य कहते हैं। (सन्दर्भ-स्वमंतव्यामंतव्यप्रकाश-स्वामी दयानंद)।
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सर्वप्रथम तो हमें कुछ तथ्यों को समझने की आवश्यकता हैं:-
प्रथम तो 'आर्य' शब्द जातिसूचक नहीं अपितु गुणवाचक हैं अर्थात आर्य शब्द किसी विशेष जाति, समूह अथवा कबीले आदि का नाम नहीं हैं अपितु अपने आचरण, वाणी और कर्म में वैदिक सिद्धांतों का पालन करने वाले, शिष्ट, स्नेही, कभी पाप कार्य न करनेवाले, सत्य की उन्नति और प्रचार करनेवाले, आतंरिक और बाह्य शुचिता इत्यादि गुणों को सदैव धारण करनेवाले आर्य कहलाते हैं।
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आर्य का प्रयोग वेदों में श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए (ऋक १/१०३/३, ऋक १/१३०/८ ,ऋक १०/४९/३) विशेषण रूप में प्रयोग हुआ हैं।
अनार्य अथवा दस्यु किसे कहा गया हैं
अनार्य अथवा दस्यु के लिए 'अयज्व’ विशेषण वेदों में (ऋग्वेद १|३३|४) आया है अर्थात् जो शुभ कर्मों और संकल्पों से रहित हो और ऐसा व्यक्ति पाप कर्म करने वाला अपराधी ही होता है। अतः यहां राजा को प्रजा की रक्षा के लिए ऐसे लोगों का वध करने के लिए कहा गया है। सायण ने इस में दस्यु का अर्थ चोर किया है।
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यजुर्वेद ३०/ ५ में कहा हैं- तपसे शुद्रम अर्थात शुद्र वह हैं जो परिश्रमी, साहसी तथा तपस्वी हैं।
वेदों में अनेक मन्त्रों में शूद्रों के प्रति भी सदा ही प्रेम-प्रीति का व्यवहार करने और उन्हें अपना ही अंग समझने की बात कही गयी हैं और वेदों का ज्ञान ईश्वर द्वारा ब्राह्मण से लेकर शुद्र तक सभी के लिए बताया गया हैं।
यजुर्वेद २६.२ के अनुसार हे मनुष्यों! जैसे मैं परमात्मा सबका कल्याण करने वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो , उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिसे ‘अरण’ अर्थात पराया समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ, वैसे ही तुम भी आगे आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलते रहो।
अथर्ववेद १९.६२.१ में प्रार्थना हैं की हे परमात्मा ! आप मुझे ब्राह्मण का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्यारा बना दें।
यजुर्वेद १८.४८ में प्रार्थना हैं की हे परमात्मन आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिये, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिये, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिये और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये।
अथर्ववेद १९.३२.८ हे शत्रु विदारक परमेश्वर मुझको ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए, और वैश्य के लिए और शुद्र के लिए और जिसके लिए हम चाह सकते हैं और प्रत्येक विविध प्रकार देखने वाले पुरुष के लिए प्रिय कर।
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