मुझे आपसे भाषा की पराधीनता के विषय पर बात करनी है। अपने भारत देश की आजादी के 63 साल बाद में सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि भाषा के स्तर पर अभी तक हम स्वतंत्र नहीं हो पाए, स्वाधीन नहीं हो पाए, भाषा के स्तर पर अभी भी हमारे देश में बहुत गहरी गुलामी है। दुर्भाग्य हमारे देश का ये है कि आजादी के पहले ये भाषा की गुलामी जितनी थी, आजादी के 63 साल के बाद ये भाषा की गुलामी और अधिक बढ़ गई है, और भी गहरी हो गई है। भारत देश अंग्रेजों की गुलामी से तो आजाद हो गया है लेकिन अंग्रेज़ियत की गुलामी, भाषा की गुलामी अभी भी इस देश में बरकरार हैं| मुझे ये कहते हुए बहुत दुख होता है, अपफसोस होता है कि दुनिया में बहुत सारे देश अलग-अलग समय पर गुलाम हुए हैं। दुनिया में कुल 200 देश है। इनमें से 71 देशों का इतिहास ऐसा है जो अलग-अलग समय परग ुलाम हुए हैं। गुलामी के लंबे दौर को उन्होंने झेला है, भोगा है। हमारे बहुत सारे पडोसी देश है, चीन भी काफी लम्बे समय तक गुलाम रहा है, मलेशिया गुलाम रहा है मिस्त्र गुलाम रहा है, इंडोनेशिया गुलाम रहा है, बर्मा गुलाम रहा है, श्रीलंका गुलाम रहा है और थोड़ा दूर में चले तो ब्राजील, मैल्सिको, चिली, को स्टारेपफा, कोलम्बिया, क्यूबा जैसे देश अलग-अलग समय पर गुलाम हुए हैं। जापान गुलाम हुआ, चीन गुलमा हुआ है। दुनिया में कैसे कुल 71 देश हैं जो अलग-अलग समय पर किसी न किसी के गुलाम हुए हैं। कोई अंग्रेजों का गुलाम हुआ, कोई फ़्रांसीसियों का गुलाम हुआ, कोई डच लोगों का गुलाम हुआ जिनको हालैंड निवासी कहा जाता है, कोई स्पेनिश लोगों का गुलाम हुआ, कोई पुतर्गालियों का गुलाम हुआ। अलग-अलग समय पर बहुत सारे देश गुलाम हुए हैं लेकिन गुलामी के बाद उन सभी देशों ने सबसे पहले अपनी मातृ-भाषा को स्थापित कराया है और सबसे पहले अपनी मातृभाषा को अपनाया है, और उसके बाद वो देश आजादी की राह पर इतने आगे बढे, तेजी से भारत से भी बहुत आगे निकल गए हैं। कई सारे देश जो आजादी में भारत से पीछे रहे माने जिनकी आजादी भारत के बाद आई है जैसे मैं नाम ले के आपको उदाहरण दूँ हमारा पडौसी देश है- चीन जिसकी आजादी हमसे दो साल बाद आई है। हम तो 1947 में आजाद हो गए लेकिन चीन तो 1949 में जाकर एक बड़ी क्रान्ति के बाद आजाद हुआ। लेकिन चीन हमसे कई गुणा आगे निकल चुका है- आर्थिक रूप से, सामाजिक रूप से और वैश्विक ताकत के रूप में सारी दुनिया में चीन का डंका अभी बज रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति को चीन में जाकर चीन की सरकार को सलामी देनी पड़ रही है, चीन की सरकार को नमस्ते करनी पड़ रही है। कभी भी ऐसा दुनिया में नहीं हुआ कि अमेरिका का राष्ट्रपति चीन में जाकर चीन को सलामी दे लेकिन अभी अमेरिकी राष्ट्रपति ये कहते हैं कि सारी दुनिया में अभी ताकत के रूप में जो सबसे महत्वपूर्ण देश उभर रहा है वो चीन। ये चीन 1949 तक भूखमरी का शिकार था, दुनिया में सबसे पीछे गिने जाने वाले देशों में गिना जाता था, आज उसकी अर्थवयव्स्था बहुत तेज है, समाज व्यवस्था बहुत बेहतर है, राज्य प्रशासन उनके यहां कापफी कुछ भ्रष्टाचार से मुक्त है, थोडत्र बहुत भ्रष्टाचार वहां होता है लेकिन ऐसा नहीं जैसे भारत में होता हैं सारी दुनिया के लोग चीन कालोहा मान रहे हैं चीन को नेता मान रहे हैं, चीन को विश्व गुरू की पदवी दी जा रही हैं ये सब चीन का हो रहा है, आखिर इन सबके पीछे कारण क्या है? चीन के विद्वानों से अगर आप पूछेंगें कि आप मुश्किल से पिछले साठ-बाषठ साल से इतनी तरक्की कैसे कर ली है, तो वो सबसे सब एक ही बात कहते हैं, एक ही जवाब देते हैं कि हमने हमारी मातृभाषा को राष्ट्रभाषा बनाया है। हमने हमारी मातृभाषा को अपेन जीवन में लाया हैं हमने हमारी मातृभाषा को विज्ञानों और तकनीकी की भाषा बनाया हैं हमने हमारी मातृभाषा केा पाठशाला और विश्वविद्यालय की भाषा बनाया हैं हमने हमारी मातृभाषा को शोध् और प्रक्रिया की भाषा बनाया है, इसीलिए दुनिया में इतनी तेजी से आगे बढ़ पाए हैं। चीन के विद्वानों का ये कहना है कि चीन अगर आज भी अंग्रेजी भाषा में डूबा रहता क्योंकि आप जानते हैं चीन लम्बे समय तक अंग्रेजों का गुलाम रहा और अंग्रेजी भाषा का कब्जा रहा। चीन के विद्वान कहते हैं अगर चीन अभी भी अंग्रेजियत में डूबा रहता, अंग्रेजी भाषा में डूबा रहता तो चीन भी 1947 और 1949 की स्थिति से आगे नहीं बढ़ पाता और इतना शक्तिशाली और ताकतवर देश नहीं बन पाता। हमारा पड़ौसी दूसरा देश जापान है। लम्बे समय तक जापान गुलाम रहा अमेरिका का लम्बे समय तक जापान गुलाम रहा है डच लोगों का लम्बे समय तक जापान पर पुर्तगालियों ने भी राज किया है लेकिन जापान जब आजाद हुआ इस विदेशी गुलामी से तो जापान में भी सबसेपहला काम जो हुआ, उन्होंने अपनी मातृ भाषा को राष्ट्रभाषा और अपने जीवन के हर क्षेत्रा में मातृभाषा को सम्मान दिया, मातृभाषा को प्रश्रय दिया, मातृभाषा का उपयोग किया। उसमें से जापाना आज दुनिया के सबसे ताकतवर आर्थिक देशों में गिना जाने लगा है। आर्थिक ताकत जापान की इतनी बड़ी है कि अमेरिकी की जो वितीय संस्थाएं हैं, वो ज्यादातर इस समय जापान के कब्जे में है, और अमेरिकी की एक बड़ी संस्था मानी जाती है जो पिफल्म बनाने वाली है जिसको हालीवुड के नाम से सारी दुनिया जानती है, हालीवुड में पिफल्में बनाने के लिए सबसे ज्यादा पैसा अगर लगा रहा है तो वे जापान के पैसा लग रहा है, पूरा जापान का नियंत्राण वहां पर है। अमेरिका के होटल उद्योग में, अमेरिका के मोटर उद्योग में, अमेरिका के बीमा उद्योग में, अमेरिका के वितीय उद्योगों में सबसे ज्यादा ताकत अगर लगी है तो जापान की। अमेरिका के बाजार में अगर सबसे ज्यादा चीजें हैं तो वो चीन की। अमेरिका का वित्तीय ताकत में सबसे बड़ी ताकत है तो जापान की। ये दोनों देश लगभग अमेरिका के बराबर खडे़ हो गए हैं। आपको याद है कि इसी जापान को अमेरिका ने तबाह कर दिया था, बर्बाद कर दिया था। 2-2 एटम बम्ब गिराए गए थे 1945 में। एक हिरोशिमा पर और एक नागासाकी पर। लाखों जापनावासी उसमें मारे गए थे और देश की कमर टूट गई थी, लेकिन एटम बम्ब गिरने के मात्रा 65-66 वर्षों में जापान ऐसी ताकत से खड़ा हुआ है कि उनकी रीढ की हड्डी अब इतनी मजबूत है कि दूसरे बहुत सारे देश उनका सहारा लेकर दुनिया में चलने की कोशिश कर रहे हैं। जापान के विद्वानों से जब ये पूछा जाता है कि आपने इतनी जल्दी हइतनी तेज तरक्की की है इसका कारण क्या है? वो भी वही उत्तर देते हैं कि हमने जापान की भाषा को अपनी राष्ट्रभाषा बनाया, मातृभाषा को राष्ट्रभाषा का सम्मान दिया, जीवन के हर क्षेत्रा में जापानी को अपनाया। वो प्राथमिक स्तर का कोई विद्यालय हो या विश्वविद्यालय स्तर की कोई शिक्षा हो हर जगह जापानी भाषा वहां चलवाई। इंजीनियरिंग काॅलेज, मैडिकल काॅलेज, सारे के सारे संस्थान जो शोध् करते हैं जापानी में काम करने लगे हैं- यही कारण है जापान के तरक्की करने का विकास करने का। जापान के जो बड़े अर्थशास्त्राी हें वो ये कहा करते हैं कि किसी भी देश की तरक्की और विकास में सबसे बड़ा अनुदान जो होता है वो उस देश की संकल्प शक्ति का होता है। हम लोग कई बार इस गलत पफहमी के शिकोर हो जाते हैं कि किसी देश की तरक्की में पूंजी का बहुत योगदान है, पैसे का योगदान है। पिफर यहां पफंस जाते हैं आकर कि किसी देश की तरक्की में तकनीकी का बहुत बड़ा योगदान है। पिफर हम सोचने लगते हैं कि किसी देश के विकास का विदेशी कम्पनियें का मद्द करना बहुत बड़ा योगदान है लेकिन जापान के अर्थशास्त्राी, समाजशास्त्राी सब इस तर्क को नकारते हैं। वो ये कहते हैं कि किसी भी देश की तरक्की और उसके विकास में सबसे बड़ा योगदान होता है- संकल्प शक्ति का और वो मानते हैं कि संकल्प शक्ति मातृभाषा से ही आ सकती है विदेशी भाषाओं में संकल्प नहीं लिए जाते और विदेशी भाषाओं के संकल्प कभी पूरे नहीं हो पाते। ये जापान की कहानी है। हम थोड़ा दूर चले किसी और देश की कहानी देखें, क्यूबा की कहानी देखें, ब्राजील की देखें। ब्राजील एक बहुत बड़ा देश है लेटिन अमेरिका में, दक्षिणी अमेरकिा में, जो बहुत तेजी से विकसित हो रहा है, हालांकि अमेरिका के नजदीक है लेकिन ब्राजील देश में अमेरिका की भाषा अंग्रेजी नहीं चलती है, उनकी अपनी भाषा चलती है। लम्बे समय तक ब्राजील भी गुलाम रहा है विदेशियों का लेकिन आजादी के बाद उन्होंने भी अपनी राष्ट्रभाषा को मातृभाषा बनाया, उसका सम्मान बढ़ाया। जीवन में हर कदम पर उसका उपयोग बढ़ाया। उसमें से ब्राजील बहुत ताकतवर होकर निकला। दुनिया के 71 देशों की आप कहानी यदि देखेंगे तो ऐसी ही कहानी दिखाई देती है। ये तो मैंने कुछ नाम लिए जापान, चीन, ब्राजील जैसे देशों के जो बहुत बड़े देश हैं दुनिया के जिनकी अर्थ व्यवस्था बहुत बड़ी है, जिनकी आबादी बहुत है, जिनके संसाध्न बहुत हैं मैं कुछ उदाहरण देना चाहता हूँ दुनिया के कुछ छोटे-छोटे देशों के जिनकी भौगोलिक सीमाएं भारत के एक जिले से भी छोटी है, जिनकी आबादी भारत के एक जिले से भी कम है। ऐसे देश एक दो नहीं चैबीस हैं। एक छोटा सा देश है जिसका नाम है पिफनलैंड है, एक छोटा देश है उसका नाम है डेनमार्क, एक छोटा सा देश् है उसका नाम है नार्वे- ऐसे दुनिया में 24 छोटे देश हैं जो भारत के एक-एक जिले से कम हैं, जिनकी आकदी 10 लाख, 15 लाख, 20-22 लाख के आस-पास की है, बहुत अध्कि हो तो 30 लाख की हैं इन देशों की कहानी भी अगर आप पढ़ेंगे तो इनकी कहानी भी यही है। जैसे पिफनलैंड बहुत छोआ सा देश है। दुनिया के 200 देशों से छोटे देशों में उसकी गिनती होती है। इतने छोटे से देश ने एक संकल्प ले रखा है और ये उनका संकल्प 100 साल पुराना हैं 100 साल पहले पिफनलैंड गुलाम हो गया था और गुलामी के बाद उन्होंने आजादी पाई। आजादी के बाद उनका पहला संकल्प है जिसको 100 साल से टस से मस नहीं होने दिया, और वो संकल्प ये है कि हम कभी भी विदेशी भाषा में अपने देश में कोई काम नहीं करेंगें। पिफनलैंड की सरकार चलेगी तो पिफनिश भाषा में काम करेगी, पिफनलैंड के विश्वविद्यालय चलेगें तो पिफनिश भाषा में काम करेंगे, पिफनलैंड के बच्चों को प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक शिक्षा पिफनिश भाषा में होगी, उनके यहां विज्ञान-तकनीकी का कमा किया जाएगा तो पिफनिश भाशा में होगा, उनके यहां मेडिकल, इंजीनियरिंग काॅलेज चलाए जाएंगे तो पिफनिश भाषा में चलाए जाएंगें, छोटा सा देश पिफनलैंड अपनी मातृभाषा को सीने से ऐसे चिपकाए हुए जैसे कोई मां अपने बच्चे को छाती से चिपकाकर रखती है। आस-पास के देश इतना दबाव डालते रहते हैं पिफनलैंड के उपर अगर आप यूरोप का नक्शा देखेंगे तो पिफनलैंड इग्लैंड से बहुत ज्यादा दूर नहीं है, पिफनलैंड Úांस से भी बहुत ज्यादा दूर नहीं है, स्पेन-पुर्तगाल से भी बहुत ज्यादा दूर नहीं है, जर्मनी से भी बहुत ज्यादा दूर नहीं है, ये बड़े देश पिफनलैंड पर दबाव डालते रहते हैं कि भाषा बदल दो, भाषा के साथ और भी चीजें बदल दो लेकिन पिफनलैंड के निवासी कहते हैं, हमारी आजादी तब तक सुरक्षित है जब तक हमारी मातृभाषा सुरक्षित हैं जिस दिन हमने मातृभाषा को छोड़ दिया, उस दिन हमारी आजादी चली जाएगी। आप जरा कल्पना करिए थोड़ी देर के लिए कि 30 लाख की आबादी का छोटा सा देश जो 24-25 बड़े देशों से चारों तरपफ से घिरा हुआ है जिसके पास अपनी सेना नहीं है, जिसके पास अपनी पुलिस व्यवस्था नहीं है, वा देश टिका हुआ है, अपनी आजादी को बरकरार रखे हुए है, 100 साल से उकी आजादी बरकरार है, किसी देश की हिम्मत नहीं है उनके देश में हस्तक्षेप करने की, तो वो कहते हैं उसका एक ही कारण है- मातृभाषा जो इस समय उनकी राष्ट्रभाषा है। पिफनलैंड के बगल में और एक छोटा सा देश है डेनमार्क, बिल्कुल छोटा सा देश है। डेनमार्क की आबादी तो मुश्किल से 22 लाख के आस-पास है। डेनमार्क की मातृभाषा डेनिश है। उनके यहां सक काम डेनिश में होता है। सारी दुनिया के जो भाषा वैज्ञानी हैं वो इस बात पर हैरानी व्यक्त करते हैं कि दुनिया में शब्दों की संख्या के अनुसार सबसे छोटी भाशा डेनिश भाषा है, जिसमें सबसे कम शब्द है। सबसे कम शब्दों वाली डेनिश भाषा डेनमार्क की राष्ट्रभाषा है जिसमें सारा काम होता है। डेनमार्क के निवासियों को ये कहते हुए बड़ा गर्व होता है कि भले हमारी भाषा दुनिया में सबसे कम शब्दों वाली भाषा हेा लेनिक वो हमारी मातृभाषा है और उस पर हम कोई समझौता नहीं कर सकते। जैसे हम लोग कई बार बात करते हैं ना कि हमारी मां दूसरे की मां से कम सुन्दर हो लेकिन वो हमारी मां है, मां समझौते के लायक नहीं होती है, ऐसे ही डेनमार्क के निवाीस इस बात को गौरव से कहते हैं कि हमारी भाषा छोटी है तो क्या हुआ, हमारा देश सबसे छोटा है तो क्या, हमारा देश दुश्मनों से घिरा हुआ है तो क्या हुआ लेकिन हमने मातृभाषा को राष्ट्र भाषा बना रखा है। ये छोटे-छोटे देश हैं। डेनमार्क के साथ एक और छोटा सा देश है। उसका नाम है- स्वीडन। स्वीडन की भारत से तुलना करेंगे तो स्वीडन भारत के किसी एक राज्य से भी आध्े में निपट जाएगा, सिमट जाएगा, इतना छोटा देश है। स्वीडन भी गुलाम रहा विदेशियों का लेकिन जब आजाद हुआ तो उन्होंने स्वीडिश भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया और एक बाद उसे जो अपनाया है आज तक उससे पीछे नहीं हटे हैं। दुनिया में स्वीडिश भाषा की पताका, पफहराने में लगे हुए हैं। तो पिफनलैंड हो, डेनमार्क हो, स्वीडन हो, इन्हीं के पड़ोस में एक और छोटा सा देश है नार्वे। नार्वे भी एक समय गुलाम हुआ था। 100 साल पहले लगभग, वो भी आजाद हुआ था। नार्वें के लोगों ने आजादी के बाद जो सबसे पहला काम किया वो ये कि अपनी मातृभाषा को राष्ट्रभाषा बनाया। आज नार्वें की भाषा नार्वेजियन है। सारी इंजीनियरिंग की पढ़ाई मेडिकल की पढ़ाई, मैनेजमैंट की पढ़ाइ्र, बचपन से लेकर आखरी उच्च कक्षा तक पढ़ाई, सब कुछ नार्वेजियन में होता है।
ऐसे दुनिया के छोटे-छोटे देशों के उदाहरण ले लें या दुनिया के बड़े-बड़े देशों के उदाहरण ले लें, सभी उदाहरणों से एक बात जो स्पष्ट होती है वो ये कि जिस देश ने भी मातृभाषा को राष्ट्रभाषा बनाया, वो देश दुनिया में गर्व के साथ, सम्मान के साथ खड़ा है। भले वो छोटा हो अथवा बड़ा हो। भले ही अर्थ व्यवस्था में कोई देश बहुत छोटा हो सकता है, अर्थ व्यवस्था में दूसरा केाई देश बड़ा हो सकता है, आबादी के हिसाब से कोई देश छोटा हो सकता है, कोई देश बड़ा हो सकता है, भूगोल की सीमा के अनुसार कोई देश बहुत छोटा है, तो कोई बड़ा है- ये सब प्रश्न बाहर हो जाते हैं जब मूल प्रश्न उनके यहां मातृभाषा और राष्ट्रभाषा का आता है। इन सभी देशों में एक बात जो मैं देखता हूँ, जो समान है वो ये कि ये देश कई मामलों में भिन्न-भिन्न हैं लेकिन ये एक मामले में एक जैसें हैं कि इन सब देशों ने मातृभाषा को राष्ट्रभाषा बनाया, जीवन का अंग बनाया, उसको अंग बनाया, उसको आगे बढ़ाया, लगातार बढ़ा रहे हैं और गर्व और सम्मान के साथ संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक सम्मानित स्वतंत्रा देश की हैसियत पा रहे हैं।
मैं अपने देश भारत की बात करता हूँ। अपने देश भारत का सबसे बड़ा दुख और दुर्भाग्य है, कि दुनिया में आबादी के हिसाब से सबसे बड़ा दूसरा देश, चीन पहला देश जिसकी आबादी 140 करोड़, भारत दूसरा बड़ा देश जिसकी आबादी लगभग 119 करोड़, दुनिया में प्राकृतिक संसाध्नों में सबसे बड़ा देश, दुनिया में सबसे ज्यादा डाॅक्टरों वाला देश, सबसे ज्यादा इंजीनियरों वाला देश, सबसे ज्यादा वैज्ञानिकों वाला देश, सबसे बड़े किसानों का देश, सबसे ज्यादा कुशल मजदूरों वाला देश लेकिन मातृभाषा को राष्ट्रभाषा बनाने में ये देश दुनिया का सबसे पिफसड्डी देश है, सबसे आखिरी पायदान पर खड़ा हुआ देश है।
हमसे पहले और हमसे बादमें जो भी देश आजाद हुए, उन सबने मातृभाषा को राष्ट्रभाषा बना लिया, अपना देश आजादी के 63 साल बाद भी इंतजार कर रहा है कि कब भारत की मातृभाषा राष्ट्र की भाषा बने और इस देश का विकास तेजी से हो और इसके विकास के रास्ते दूसरों के लिए खुले। भारत अभी भी हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बना पाया। जो भारत की 22 भाषाएं संविधन ने स्वीकृत की हैं इनमें से किसी को भी राष्ट्रभाषा नहीं बना पाया। मैं तो कई बार यहां तक कहता हूँ कि अंग्रेजी को हटाओ, हिंदी को ला सकते हो तो लाओ, नहीं तो संस्कृत को राष्ट्रभाषा बना लो, सारे झगड़े भारत के खत्म हो जाये। कापफी लम्बे समय तक इस देश में संस्कृत राष्ट्रभाषा रहीं है और जब तक इस देश की राष्ट्रभाषा संस्कृत रही है, आप मान या ना माने ये देश सोने की चिड़िया रहा है और सबसे ऊंचे पायदान पर खड़ा रहा है। हमारे देश में स्वर्णयुग माना जाता है। भारत में सबसे अच्छा समय किसी भी इतिहासकार को पूछो तो वो कहते हैं महर्षि चाणक्य के समय से लेकर 7-8वीं शताब्दी तक का भारत दुनिया के सबसे ऊंचे पायदान पर खड़ा हुआ भारत था। शिक्षा में सबसे ऊँचा, व्यापार में सबसे ऊँचा, तकनीकी – विज्ञान में सबसे ऊँचा, दर्शन शास्त्रों के लिखे जाने में सबसे ऊँचा, ज्ञान के स्तर में सबसे ऊँचा रहा है। कैसे रहा है? इसका सबसे बड़ा कारण है कि संस्कृत उस समय देश की राष्ट्रभाषा रही, संस्कृत उस समय देश की राज्यभाषा रही, संस्कृत इस देश के लोगों के पढ़ने-पढ़ाने की भाषा रही, संस्कृत इस देश में बोलने चालने की भाषा रही, संस्कृत इस देश में हर काम की भाषा रही हैं जब तक संस्कृत इस देश की राष्ट्रभाषा, राज्यभाषा रही तब तक भारत दुनिया में सिरमौर रहा, ऊँचा रहा, लेकिन जैसे-जैसे भारत में संस्कृत का पराभव हुआ, जैसे-जैसे संस्कृत की ऊँचाई कम होना शुरू हुई, भारत का भी पराभव हुआ और पतन होना शुरू हुआ। ये कुछ संयोग नहीं है, इस पर गंभीर शोध् करने की जरूरत है कि संस्कृत का पतन जैसे ही इस देश में शुरू हुआ, वैसे ही विदेशी लोगों के आक्रमण भी शुरू हो गए इस देश में। पहला विदेशी आक्रमण मुहम्मद बिन कासिम का 7 वीं शताब्दी, पिफर उसके बाद महमुद गजनवी, पिफर उसके बाद लम्बी एक श्रुंखला तैमूर लंग, नादिरशाह, अहमद शाह अब्दाली पिफर बाबर और बाबर के परिवार के लोग, पिफर उसके बाद पुर्तगाली, पिफर अंग्रेज, Úांसीसी और स्पेनिश लोग ये सारे के सारे विदेशी हमले भारत में उसी समय में हुए हैं जब संस्कृत हमारे देश में पतन की स्थिति में रही है, पराभव की स्थिति में रही है। संस्कृत की ऊंचाई जब तक बनी रही, राष्ट्र की ऊँचाई बनी रही, संस्कृत का जैसे-जैसे पराभव हुआ, संस्कृत माने ज्ञान की भाषा, तो विदेशी हमलों का शिकार देश हुआ और पिफर गुलाम हो गए। गुलामी का एक लंबा दौर हमने देखा। अंग्रेजों की पूरी की पूरी 250 सालों की गुलामी देखी, Úांसीसियों, पुर्तगालियों की देखी, उसके पहले हस्लाम को मानने वाले भात के कमोवेश एक तिहाई इलाके में हमने देखी, इस पूरे के पूरे दौर को देखंेगे तो इसका सबसे बड़ा कारण है ज्ञान का गिरना, ज्ञान का पराभ्व और परोक्ष रूप से भाषा का पराभव, हमारी राष्ट्रभाषा, हमारी राजभाषा का गिरते चले जाना, उसका समाप्त होते चले जाना और एक स्तर पर उसका निष्प्राण हो जाना। अंग्रेजों ने तो साजिश करके, षडयंत्रा, करके भारत में चलने वाले 7 लाख 32 हजार गुरूकुलों को जो मूल रूप में संस्कृत में पढ़ाया करते थे, जड़ से खत्म कर दिया था, बंद कर दिया था और उसी के कारण इस देश में बहुत गहरी गुलामी आ गई और उस गुलामी से आजाद होने के लिए हमने लंबा संघर्ष किया। इस देश की गुलामी के समय में आजादी का संघर्ष करने वाले जितने भी क्रांतिकारी थे, वो चाहे किसी भी नाम से इस देश में काम कर रहे हों- नाना साहब पेश्वा की बात करें तो, तो झांसी रानी लक्ष्मीबाई की बात करे तो, रानी कितुर चन्ना की बात करें तो, राव कुँवर बहादुर सिंह की बात करें तो – भारत के किसी क्रांतिकारी की बात करे, सभी क्रांतिकारियों का ये मानना था कि भारत की आजादी मातृभाषा से जुड़ी हुई है। जब तक हमारी मातृभाषा को सम्मान नहीं दिला पाएंगें हम इस देश में आजादी नहीं ला पाएंगें। ये हमारे 1857 के दौर के क्रांतिकारियों का कहना था। नाना साहब पेशवा ने भारत की आजादी का एक घोषण पत्रा बनाया था। उस घोषणा पत्रा का प्रथम वाक्य आप पढ़ेंगे तो आप में रोमांच पैदा हो जाएगा। नाना साहब पेशवा अपने घोषणा पत्रा में लिखते हैं कि वह दिन दूर नहीं जब भारत में आजादी का सूर्य उगेगा और वो दिन वो होगा जब हम हमारी मातृभाषा में देश के सारे काम कर पाएंगें। लोगों को न्याय मातृभाषा में मिले, लोगों को शिक्षा मातृभाषा में मिले, लोगों की आमबोल मातृभाषा में हो, वह दिन दूर नहीं है, हम बहुत जल्दी देख पाएंगे, ये नाना साहब के घोषणा पत्रा का प्रथम वाक्य है।
अब नाना साहब पेशवा का घोषणा पत्रा हो या तात्या टोपे, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का संकल्प हो या दूसरे दौर के आजादी के जो नेता माने जाते हैं लोकमान्य तिलक का घोषणा पत्रा आप पढ़े, जिसके पहले वाक्य में लिखा है राष्ट्रभाषा का स्थान तो सिपर्फ और हिन्दी को मिल सकता है, भले ही मैं मराठी भाषा हूँ लेकिन हिन्दी ही राष्ट्रभाषा हो सकती है। महात्मा गांध्ी भी इसी तरह के वाक्य कहा करते थे। महात्मा गांध्ी ने भी एक बार नहीं सैकड़ों बार ये कहा कि इस भारत की अगर राष्ट्रभाषा हो सकती है तो मात्रा हिन्दी हो सकती है क्योंकि हिन्दी ही राष्ट्र की एकता को बांध्ने में सक्षम है। ऐसे ही हमारे देश के एक महान महापुरूष महर्षि दयानंद हुए। वो भी यही मानते थे कि पूरे देश को एकता के सूत्रा में पिरो सकती है तो हिंदी है, पूरे देश को एक साथ बांध् सकती है तो हिन्दी है, भारत की राष्ट्रभाषा होने का गौरव अगर किसी को मिल सकता है तो वह हिन्दी है तो महर्षि दयानंद हो, महात्मा गांध्ी हो, लोकमान्य तिलक रहे हों और इसके बाद जेसे महर्षि अरविंद रहे, सुभाष चन्द्र बोस रहे, चन्द्रशेखर आजाद रहे, अशपफाक रहे और विनायक सावरकर रहे, ऐसे जो तीसरे दौर के आजादी के जो नायक रहे, उनके शब्दों को, उनके लेखों को दिए गए भाषणों को आप सुनेगें तो वो सभी एक बात पर सहमत हैं कि अंग्रेजी भाषा का स्थान भारत में अगर कोई ले सकता है तो वह भारत की मातृभाषा हिन्दी ही है। जल्दी से जल्दी अंग्रेजी को भारत से विस्थापित होना चाहिए और उसके स्थान पर हिन्दी को स्थापित किया जाना चाहिए। भारत के सभी दौर के क्रांतिकारियों की ये अभिलाषा रही कि भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हो, साथ-साथ में अंग्रेजी की गुलामी से भी आजाद हो और भारत की मातृभाषा हिन्दी इस देश में स्थापित हो। लेकिन आजादी के बाद क्या हुआ इस देश में। 15 अगस्त 1947 को हम आजाद हो गए। आजादी मिलने के थोड़े दिन पहले तक महात्मा गांध्ी ये कहा करते थे कि जिस दिन आजादी मिल गई, 6 महीने के अन्दर पूरे देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी हो जाएगी और सरकार के काम काज की भाषा हिन्दी हो जाएगी, संसद और विधनसभाओं की भाषा हिन्दी हो जाएगी और महात्मा गांध्ी ने इतनी कड़ी बात कही थी कि जो संसद में बोलने वाला सांसद हिन्दी में बात नहीं करेगा, जो विधन सभाओं में बोलने वाला विधयक हिन्दी में बात नहीं करेगा, तो मैं सबसे पहला आदमी हूंगा जो उनके खिलापफ आन्दोलन करूंगा और अंग्रेजी बोलने वालों को जल में भिजवाऊंगा। इतने कड़े शब्द उन्होंने बोले थे। वो कहा करते थे कि आजादी के बाद भारत का कोई सांसद या विधयक अंग्रेजी में बात करे इससे बड़ा अपमान भारत का कोई दूसरा नहीं हो सकता और मैं बर्दास्त नहीं करूंगा कि भारत का कोई सांसद या विधयक अंग्रेजी में बात करे। एक बार गांध्ी जी ने इससे भी कड़ी बात कही कि मुझे सता नहीं चाहिए, सिंहासन नहीं चाहिए लेकिन एक चीज तो मुझे चाहिए और उसके लिए मैं मर जाऊंगा, अपनी जान दे दूंगा, वो है मुझे राष्ट्रभाषा का सम्मान चाहिए, राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा चाहिए। इसके लिए तो मैं अपना बलिदान करने के लिए तैयार हूँ। उन्होंने कहा कि भारत की आजादी के बाद अगर सरकार ने अंग्रेजी को नहीं हटाया तो मेरी जगह भारत सरकार की जगह जेल होगी, मैं भारत सरकार के खिलापफ सत्याग्रह करूंगा। इतने ज्यादा आग्रही थे वो मातृभाषा के प्रति। एक दिन गांध्ी जी ने यहां तक कहा कि भारत में आजादी मिलने के बाद अगर भारत का साधरण नागरिक कोई भी बात को अपनी मातृभाषा में कहे, सरकार उसकी व्यवस्था न करें तो उस सरकार को चुल्लु भर पानी में डूब मरना चाहिए। इतने कड़े वाक्य एक दिन गांध्ी जी ने कहा मुझे सता नहीं चाहिए, सिंहासन नहीं चाहिए लेकिन मेरे दिन में एक बात आती है बार-बार कि मैं एक दिन के लिए भारत का शासक बन जाऊ और ऐसा शासक बनू जो 25 वे घंटे इस्तीपफा दे दूं। 24 घंटे में सबसे पहला काम हिन्दी को राष्ट्र की भाषा बनाऊंगा। पूरे देश से शराब की दुकाने बंद करवाऊंगा। पूरे देश पर गौहतया का कलंक लगा है, इस गौ हत्या को बंद कराने का कानून संसद में पारित कराऊंगा।
अब आप सोचिए कि महात्मा गांध्ी जिनके मन में इतनी तीव्रता थी राष्ट्र भाषा हिन्दी को लेकर उनके परम शिष्यों के हाथ जब इस देश की सत्ता आई तो उन्होंने महात्मा गांध्ी में बिल्कुल उलटे स्वरों में बोलना शुरू कर दिया। उन्होंने कहना शुरू किया की भारत में अंग्रेजी के बिना कोई काम नहीं चल सकता। भारत में विज्ञान और तकनीकी को आगे बढ़ाना है तो अंग्रेजी के बिना ये संभव नहीं हो सकता, भारत का विकास करना है तो अंग्रेजी के बिना ये संभव नहीं हो सकता, भारत को विश्व के मानचित्रा पर स्थापित कराना है तो अंग्रेजी के बिना ये नहीं हो सकता, यूरोप ओर अमेरिका जैसा बनाना है तो ये अंग्रेजी के बिना नहीं हो सकता। अंग्र्रेजी विश्व की भाषा है, अंग्रेजी वैज्ञानिक भाषा है, अंग्रेजी समृ(शाली भाषा है, अंग्रेजी सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित भाषा है – इस तरह से तर्क देना शुरू किया गया, संसद के बाहर इस तरह के तर्क दिए जाने लगे और इसका परिणाम हुआ आज तक हिन्दी राष्ट्रभाषा बन नहीं पाई, अंग्रेजी इस देश की राष्ट्रभाषा की तरह स्थापित है और सारे देश में अंग्रेजियत का बोलबाला है। भारत शासन की व्यवस्था अंग्रेजी में चलती है, भारत के न्यायालयों में झगड़े सुलटाने के पफैलसे अंग्रेजी में होते हैं, पक्ष और विपक्ष की बहस दलीले अंग्रेजी में दी जाती है, भारत के चिकित्सक मरीजों, को जो अंग्रेजी नहीं जानते हैं, उनको जो लिखकर देते हैं वो कागज की पुर्जी अंग्रेजी में होती है, मरीज जो दवाएं खरीदते हैं बाजार से वो अंग्रेजी में होती है, हमारे देश के प्राथमिक स्तर के विद्यार्थियों को डंडे मार-मारकर अंग्रेजी सिखाई जाती है, अगर वो अंग्रेजी न पढ़ना चाहे तो जबरदस्ती अंग्रेजी में पढ़ाया जाता है और वो पफेल होते रहते हैं, हमारे शीर्ष वैज्ञानिक संस्थानों में अंग्रेजी है, हमारी शीर्ष कृषि शोध् संस्थानों में अंग्रेजी है, हमारे देश के नीचे से लेकर उपर तक के हर स्तर पर अंग्रेजी-अंग्रेजी है। आप पूछेंगे कैसा क्यों? शहीदों की भाषा तो अंग्रेजी नहीं थी, बलिदान देने वालों की भाषा तो अंग्रेजी नहीं थी, आजादी के आन्दोलन की भाषा तो अंग्रेजी नहीं थी, आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की भाषा तो अंग्रेजी नहीं थी, पिफर आजादी के बाद ये अंग्रेजी स्थापित कैसे हुई? और इतनी गहराई से आगे कैसे बढ़ गई, इसके पीछे एक बड़ी कहानी है। मुझे तो कई बार लगता है कि वो एक षडयंत्रा है, साजिश है। वो षडयंत्रा और साजिश ये है कि भारत अंग्रेजों की गुलामी से भले आजाद हो जाए लेकिन अंग्रेजी की गुलामी में भारत पफंसा रहना चाहिए। तो षडयंत्रा क्या हुआ? हमारे देश कें संविधन में एक अनुच्छेद लिखा गया। उसका नम्बर है- 343 अनुच्छेद नम्बर 343 में लिखा गया कि संविधन लागू होने के 15 वर्ष तक अंग्रेजी इस देश में यूनियन माने संघ सरकार की भाषा के रूप में काम करेगी और राज्य सरकार की भाषा के रूप में काम करेगी और राज्य सरकारें भी चाहे तो अंग्रेजी में काम कर सकेगी। संविधन लागू होने के 15 वर्ष के बाद माने 1965 में अंग्रेजी हटाई जाएगी और उसके लिए एक संसदीय समिति बनाई जाएगी और वो समिति जिस तरह का विचार रखेगी और उस पर राष्ट्रपति विचार करेंगे और राष्ट्रपति की अनुशंसा से संसद में एक विध्ेयक को पारित करके अंग्रेजी को हटा दिया जायेगा, उसके स्थान पर हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं को स्थापित किया जायेगा, ये हमारे संविधन मंे लिखा गया। लेकिन ये जो लिखा गया वो अनुच्छेद 343 में लिखा गया। उस अनुच्छेद 343 का जो पेराग्राम एक है उसमें ये बात है, 2 नम्बर और 3 नम्बर को जो पढ़े तो बिल्कुल उलटी बात है। तीसरे पेराग्राम में लिखा गया कि भारत के जो राज्य हैं, अगर कोई राज्य विरोध् करेगा तो पिफर अंग्रेजी को नहीं हटाया जाएगा माने अंग्रेजी को हटाने का विरोध् करेगा कोई राज्य, हिन्दी को स्थापित करने के विरोध् में केाई राज्य होगा तो अंग्रेजी को नहीं हटाया जाएगा।
पिफर इसी के आगे अनुच्छेद 348 लिखा गया संविधन में। उस अनुच्छेद में ये लिख दिया गया कि भारत में भले ही हिन्दी आम बोलचाल की भाषा रहे लेकिन उच्चतम न्यायालय में, उच्च न्यायाल में और कानून के स्तर पर तो अंग्रेजी ही प्रामाणिक भाषा रहेगी। ये अनुच्छेद 348 में लिख दिया गया। एक जगह लिख रहे हैं 15 साल में हिन्दी व भारतीय भाषाएं आ जाएंगी, एक जगह लिख रहे है कि नहीं उसके लिए राज्यों की सहमति लेनी पड़ेगी, पिफर 348 में कह दिया कि उच्चतम न्यायालयों और उच्च न्यायालय में तो हिन्दी के प्रश्न ही नहीं उठेगें, वहंा तो अंग्रेजी ही चलेगी मतलब सीध सा है कि एक जगह हिन्दी को राष्ट्रभाषा की बात सिखाकर दूसरी जगह हिन्दी की जड़ काट दी हैं इसके बाद क्या हुआ? इसके बाद संसद की एक समिति बनाई गई। 1955 में वो समिति स्थापित हुई। उस समिति से कहा गया कि आप रिपोर्ट दीजिए। उस समिति ने ये कह दिया कि अभी भारत में अंग्रेजी को हटाने का अनुकूल समय नहीं आया है। जब तक अंग्रेजी को हटाने का अनुकूल समय नहीं आए सब तक प्रतीक्षा की जाये। राष्ट्रपति ने कहा कि अंग्रेजी को हटाने की बात नहीं है। पिफर उसके बाद एक दूसरी समिति बनी। उनकी भी रिपोर्ट इसी तरह से आई और उसके बाद 1963 में संसद में बड़ी बहस हुई इस पर कि अंग्रेजी हटाओ और हिन्दी लाओ, इस बहस में भी अंत में यही हुआ कि अंग्रेजी को अभी थोड़े दिन तक रखा जाये। पिफर जब 1965 का समय पूरा हो गया और 15 साल की अवध् िसमाप्त हो गई कि भारत की राजभाषा, राष्ट्रभाषा हिन्दी बने तो दक्षिण भारत में दंगे हो गए और दक्षिण भारत में जो दंगें हुए, भारत सरकार की खुपिफया विभाग की रिपोर्ट बताती है कि वो दंगे अपने आप नहीं हुए कराए गए। उन नेताओं के द्वारा भड़काए गए जो नहीं चाहते थे कि अंग्रेजी इस देश में से हटे। तो सरकार को मौका मिल गया ये कहने का कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के नाम पर अगर दंगे हो रहे हैं तो हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बनाया जा सकता। अंग्रेजी को ही बरकरार रखना पड़ेगा और 1967 में विध्ेयक पास कर दिया गया। पिफर 1968 में उस विध्ेयक में एक संशोध्न कर दिया गया कि भारत के जितने भी राज्य हैं, इनमें से एक राज्य भी अगर अंग्रेजी का समर्थन करेगा तो भारत में अंग्रेजी ही लागू रहेगी। भारत में इस समय 33 राज्य हैं और 33 राज्यों मे ंसे एक भी राज्य ये कहता है कि अंग्रेजी होनी ही चाहिए तो पूरे भारत में अंग्रेजी ही रहेगी। अब ही कानून है जो भारत में हिन्दी के गले में पफांसी के पफंदे जैसा लटका है। ये हमारे देश ?
ऐसे दुनिया के छोटे-छोटे देशों के उदाहरण ले लें या दुनिया के बड़े-बड़े देशों के उदाहरण ले लें, सभी उदाहरणों से एक बात जो स्पष्ट होती है वो ये कि जिस देश ने भी मातृभाषा को राष्ट्रभाषा बनाया, वो देश दुनिया में गर्व के साथ, सम्मान के साथ खड़ा है। भले वो छोटा हो अथवा बड़ा हो। भले ही अर्थ व्यवस्था में कोई देश बहुत छोटा हो सकता है, अर्थ व्यवस्था में दूसरा केाई देश बड़ा हो सकता है, आबादी के हिसाब से कोई देश छोटा हो सकता है, कोई देश बड़ा हो सकता है, भूगोल की सीमा के अनुसार कोई देश बहुत छोटा है, तो कोई बड़ा है- ये सब प्रश्न बाहर हो जाते हैं जब मूल प्रश्न उनके यहां मातृभाषा और राष्ट्रभाषा का आता है। इन सभी देशों में एक बात जो मैं देखता हूँ, जो समान है वो ये कि ये देश कई मामलों में भिन्न-भिन्न हैं लेकिन ये एक मामले में एक जैसें हैं कि इन सब देशों ने मातृभाषा को राष्ट्रभाषा बनाया, जीवन का अंग बनाया, उसको अंग बनाया, उसको आगे बढ़ाया, लगातार बढ़ा रहे हैं और गर्व और सम्मान के साथ संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक सम्मानित स्वतंत्रा देश की हैसियत पा रहे हैं।
मैं अपने देश भारत की बात करता हूँ। अपने देश भारत का सबसे बड़ा दुख और दुर्भाग्य है, कि दुनिया में आबादी के हिसाब से सबसे बड़ा दूसरा देश, चीन पहला देश जिसकी आबादी 140 करोड़, भारत दूसरा बड़ा देश जिसकी आबादी लगभग 119 करोड़, दुनिया में प्राकृतिक संसाध्नों में सबसे बड़ा देश, दुनिया में सबसे ज्यादा डाॅक्टरों वाला देश, सबसे ज्यादा इंजीनियरों वाला देश, सबसे ज्यादा वैज्ञानिकों वाला देश, सबसे बड़े किसानों का देश, सबसे ज्यादा कुशल मजदूरों वाला देश लेकिन मातृभाषा को राष्ट्रभाषा बनाने में ये देश दुनिया का सबसे पिफसड्डी देश है, सबसे आखिरी पायदान पर खड़ा हुआ देश है।
हमसे पहले और हमसे बादमें जो भी देश आजाद हुए, उन सबने मातृभाषा को राष्ट्रभाषा बना लिया, अपना देश आजादी के 63 साल बाद भी इंतजार कर रहा है कि कब भारत की मातृभाषा राष्ट्र की भाषा बने और इस देश का विकास तेजी से हो और इसके विकास के रास्ते दूसरों के लिए खुले। भारत अभी भी हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बना पाया। जो भारत की 22 भाषाएं संविधन ने स्वीकृत की हैं इनमें से किसी को भी राष्ट्रभाषा नहीं बना पाया। मैं तो कई बार यहां तक कहता हूँ कि अंग्रेजी को हटाओ, हिंदी को ला सकते हो तो लाओ, नहीं तो संस्कृत को राष्ट्रभाषा बना लो, सारे झगड़े भारत के खत्म हो जाये। कापफी लम्बे समय तक इस देश में संस्कृत राष्ट्रभाषा रहीं है और जब तक इस देश की राष्ट्रभाषा संस्कृत रही है, आप मान या ना माने ये देश सोने की चिड़िया रहा है और सबसे ऊंचे पायदान पर खड़ा रहा है। हमारे देश में स्वर्णयुग माना जाता है। भारत में सबसे अच्छा समय किसी भी इतिहासकार को पूछो तो वो कहते हैं महर्षि चाणक्य के समय से लेकर 7-8वीं शताब्दी तक का भारत दुनिया के सबसे ऊंचे पायदान पर खड़ा हुआ भारत था। शिक्षा में सबसे ऊँचा, व्यापार में सबसे ऊँचा, तकनीकी – विज्ञान में सबसे ऊँचा, दर्शन शास्त्रों के लिखे जाने में सबसे ऊँचा, ज्ञान के स्तर में सबसे ऊँचा रहा है। कैसे रहा है? इसका सबसे बड़ा कारण है कि संस्कृत उस समय देश की राष्ट्रभाषा रही, संस्कृत उस समय देश की राज्यभाषा रही, संस्कृत इस देश के लोगों के पढ़ने-पढ़ाने की भाषा रही, संस्कृत इस देश में बोलने चालने की भाषा रही, संस्कृत इस देश में हर काम की भाषा रही हैं जब तक संस्कृत इस देश की राष्ट्रभाषा, राज्यभाषा रही तब तक भारत दुनिया में सिरमौर रहा, ऊँचा रहा, लेकिन जैसे-जैसे भारत में संस्कृत का पराभव हुआ, जैसे-जैसे संस्कृत की ऊँचाई कम होना शुरू हुई, भारत का भी पराभव हुआ और पतन होना शुरू हुआ। ये कुछ संयोग नहीं है, इस पर गंभीर शोध् करने की जरूरत है कि संस्कृत का पतन जैसे ही इस देश में शुरू हुआ, वैसे ही विदेशी लोगों के आक्रमण भी शुरू हो गए इस देश में। पहला विदेशी आक्रमण मुहम्मद बिन कासिम का 7 वीं शताब्दी, पिफर उसके बाद महमुद गजनवी, पिफर उसके बाद लम्बी एक श्रुंखला तैमूर लंग, नादिरशाह, अहमद शाह अब्दाली पिफर बाबर और बाबर के परिवार के लोग, पिफर उसके बाद पुर्तगाली, पिफर अंग्रेज, Úांसीसी और स्पेनिश लोग ये सारे के सारे विदेशी हमले भारत में उसी समय में हुए हैं जब संस्कृत हमारे देश में पतन की स्थिति में रही है, पराभव की स्थिति में रही है। संस्कृत की ऊंचाई जब तक बनी रही, राष्ट्र की ऊँचाई बनी रही, संस्कृत का जैसे-जैसे पराभव हुआ, संस्कृत माने ज्ञान की भाषा, तो विदेशी हमलों का शिकार देश हुआ और पिफर गुलाम हो गए। गुलामी का एक लंबा दौर हमने देखा। अंग्रेजों की पूरी की पूरी 250 सालों की गुलामी देखी, Úांसीसियों, पुर्तगालियों की देखी, उसके पहले हस्लाम को मानने वाले भात के कमोवेश एक तिहाई इलाके में हमने देखी, इस पूरे के पूरे दौर को देखंेगे तो इसका सबसे बड़ा कारण है ज्ञान का गिरना, ज्ञान का पराभ्व और परोक्ष रूप से भाषा का पराभव, हमारी राष्ट्रभाषा, हमारी राजभाषा का गिरते चले जाना, उसका समाप्त होते चले जाना और एक स्तर पर उसका निष्प्राण हो जाना। अंग्रेजों ने तो साजिश करके, षडयंत्रा, करके भारत में चलने वाले 7 लाख 32 हजार गुरूकुलों को जो मूल रूप में संस्कृत में पढ़ाया करते थे, जड़ से खत्म कर दिया था, बंद कर दिया था और उसी के कारण इस देश में बहुत गहरी गुलामी आ गई और उस गुलामी से आजाद होने के लिए हमने लंबा संघर्ष किया। इस देश की गुलामी के समय में आजादी का संघर्ष करने वाले जितने भी क्रांतिकारी थे, वो चाहे किसी भी नाम से इस देश में काम कर रहे हों- नाना साहब पेश्वा की बात करें तो, तो झांसी रानी लक्ष्मीबाई की बात करे तो, रानी कितुर चन्ना की बात करें तो, राव कुँवर बहादुर सिंह की बात करें तो – भारत के किसी क्रांतिकारी की बात करे, सभी क्रांतिकारियों का ये मानना था कि भारत की आजादी मातृभाषा से जुड़ी हुई है। जब तक हमारी मातृभाषा को सम्मान नहीं दिला पाएंगें हम इस देश में आजादी नहीं ला पाएंगें। ये हमारे 1857 के दौर के क्रांतिकारियों का कहना था। नाना साहब पेशवा ने भारत की आजादी का एक घोषण पत्रा बनाया था। उस घोषणा पत्रा का प्रथम वाक्य आप पढ़ेंगे तो आप में रोमांच पैदा हो जाएगा। नाना साहब पेशवा अपने घोषणा पत्रा में लिखते हैं कि वह दिन दूर नहीं जब भारत में आजादी का सूर्य उगेगा और वो दिन वो होगा जब हम हमारी मातृभाषा में देश के सारे काम कर पाएंगें। लोगों को न्याय मातृभाषा में मिले, लोगों को शिक्षा मातृभाषा में मिले, लोगों की आमबोल मातृभाषा में हो, वह दिन दूर नहीं है, हम बहुत जल्दी देख पाएंगे, ये नाना साहब के घोषणा पत्रा का प्रथम वाक्य है।
अब नाना साहब पेशवा का घोषणा पत्रा हो या तात्या टोपे, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का संकल्प हो या दूसरे दौर के आजादी के जो नेता माने जाते हैं लोकमान्य तिलक का घोषणा पत्रा आप पढ़े, जिसके पहले वाक्य में लिखा है राष्ट्रभाषा का स्थान तो सिपर्फ और हिन्दी को मिल सकता है, भले ही मैं मराठी भाषा हूँ लेकिन हिन्दी ही राष्ट्रभाषा हो सकती है। महात्मा गांध्ी भी इसी तरह के वाक्य कहा करते थे। महात्मा गांध्ी ने भी एक बार नहीं सैकड़ों बार ये कहा कि इस भारत की अगर राष्ट्रभाषा हो सकती है तो मात्रा हिन्दी हो सकती है क्योंकि हिन्दी ही राष्ट्र की एकता को बांध्ने में सक्षम है। ऐसे ही हमारे देश के एक महान महापुरूष महर्षि दयानंद हुए। वो भी यही मानते थे कि पूरे देश को एकता के सूत्रा में पिरो सकती है तो हिंदी है, पूरे देश को एक साथ बांध् सकती है तो हिन्दी है, भारत की राष्ट्रभाषा होने का गौरव अगर किसी को मिल सकता है तो वह हिन्दी है तो महर्षि दयानंद हो, महात्मा गांध्ी हो, लोकमान्य तिलक रहे हों और इसके बाद जेसे महर्षि अरविंद रहे, सुभाष चन्द्र बोस रहे, चन्द्रशेखर आजाद रहे, अशपफाक रहे और विनायक सावरकर रहे, ऐसे जो तीसरे दौर के आजादी के जो नायक रहे, उनके शब्दों को, उनके लेखों को दिए गए भाषणों को आप सुनेगें तो वो सभी एक बात पर सहमत हैं कि अंग्रेजी भाषा का स्थान भारत में अगर कोई ले सकता है तो वह भारत की मातृभाषा हिन्दी ही है। जल्दी से जल्दी अंग्रेजी को भारत से विस्थापित होना चाहिए और उसके स्थान पर हिन्दी को स्थापित किया जाना चाहिए। भारत के सभी दौर के क्रांतिकारियों की ये अभिलाषा रही कि भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हो, साथ-साथ में अंग्रेजी की गुलामी से भी आजाद हो और भारत की मातृभाषा हिन्दी इस देश में स्थापित हो। लेकिन आजादी के बाद क्या हुआ इस देश में। 15 अगस्त 1947 को हम आजाद हो गए। आजादी मिलने के थोड़े दिन पहले तक महात्मा गांध्ी ये कहा करते थे कि जिस दिन आजादी मिल गई, 6 महीने के अन्दर पूरे देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी हो जाएगी और सरकार के काम काज की भाषा हिन्दी हो जाएगी, संसद और विधनसभाओं की भाषा हिन्दी हो जाएगी और महात्मा गांध्ी ने इतनी कड़ी बात कही थी कि जो संसद में बोलने वाला सांसद हिन्दी में बात नहीं करेगा, जो विधन सभाओं में बोलने वाला विधयक हिन्दी में बात नहीं करेगा, तो मैं सबसे पहला आदमी हूंगा जो उनके खिलापफ आन्दोलन करूंगा और अंग्रेजी बोलने वालों को जल में भिजवाऊंगा। इतने कड़े शब्द उन्होंने बोले थे। वो कहा करते थे कि आजादी के बाद भारत का कोई सांसद या विधयक अंग्रेजी में बात करे इससे बड़ा अपमान भारत का कोई दूसरा नहीं हो सकता और मैं बर्दास्त नहीं करूंगा कि भारत का कोई सांसद या विधयक अंग्रेजी में बात करे। एक बार गांध्ी जी ने इससे भी कड़ी बात कही कि मुझे सता नहीं चाहिए, सिंहासन नहीं चाहिए लेकिन एक चीज तो मुझे चाहिए और उसके लिए मैं मर जाऊंगा, अपनी जान दे दूंगा, वो है मुझे राष्ट्रभाषा का सम्मान चाहिए, राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा चाहिए। इसके लिए तो मैं अपना बलिदान करने के लिए तैयार हूँ। उन्होंने कहा कि भारत की आजादी के बाद अगर सरकार ने अंग्रेजी को नहीं हटाया तो मेरी जगह भारत सरकार की जगह जेल होगी, मैं भारत सरकार के खिलापफ सत्याग्रह करूंगा। इतने ज्यादा आग्रही थे वो मातृभाषा के प्रति। एक दिन गांध्ी जी ने यहां तक कहा कि भारत में आजादी मिलने के बाद अगर भारत का साधरण नागरिक कोई भी बात को अपनी मातृभाषा में कहे, सरकार उसकी व्यवस्था न करें तो उस सरकार को चुल्लु भर पानी में डूब मरना चाहिए। इतने कड़े वाक्य एक दिन गांध्ी जी ने कहा मुझे सता नहीं चाहिए, सिंहासन नहीं चाहिए लेकिन मेरे दिन में एक बात आती है बार-बार कि मैं एक दिन के लिए भारत का शासक बन जाऊ और ऐसा शासक बनू जो 25 वे घंटे इस्तीपफा दे दूं। 24 घंटे में सबसे पहला काम हिन्दी को राष्ट्र की भाषा बनाऊंगा। पूरे देश से शराब की दुकाने बंद करवाऊंगा। पूरे देश पर गौहतया का कलंक लगा है, इस गौ हत्या को बंद कराने का कानून संसद में पारित कराऊंगा।
अब आप सोचिए कि महात्मा गांध्ी जिनके मन में इतनी तीव्रता थी राष्ट्र भाषा हिन्दी को लेकर उनके परम शिष्यों के हाथ जब इस देश की सत्ता आई तो उन्होंने महात्मा गांध्ी में बिल्कुल उलटे स्वरों में बोलना शुरू कर दिया। उन्होंने कहना शुरू किया की भारत में अंग्रेजी के बिना कोई काम नहीं चल सकता। भारत में विज्ञान और तकनीकी को आगे बढ़ाना है तो अंग्रेजी के बिना ये संभव नहीं हो सकता, भारत का विकास करना है तो अंग्रेजी के बिना ये संभव नहीं हो सकता, भारत को विश्व के मानचित्रा पर स्थापित कराना है तो अंग्रेजी के बिना ये नहीं हो सकता, यूरोप ओर अमेरिका जैसा बनाना है तो ये अंग्रेजी के बिना नहीं हो सकता। अंग्र्रेजी विश्व की भाषा है, अंग्रेजी वैज्ञानिक भाषा है, अंग्रेजी समृ(शाली भाषा है, अंग्रेजी सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित भाषा है – इस तरह से तर्क देना शुरू किया गया, संसद के बाहर इस तरह के तर्क दिए जाने लगे और इसका परिणाम हुआ आज तक हिन्दी राष्ट्रभाषा बन नहीं पाई, अंग्रेजी इस देश की राष्ट्रभाषा की तरह स्थापित है और सारे देश में अंग्रेजियत का बोलबाला है। भारत शासन की व्यवस्था अंग्रेजी में चलती है, भारत के न्यायालयों में झगड़े सुलटाने के पफैलसे अंग्रेजी में होते हैं, पक्ष और विपक्ष की बहस दलीले अंग्रेजी में दी जाती है, भारत के चिकित्सक मरीजों, को जो अंग्रेजी नहीं जानते हैं, उनको जो लिखकर देते हैं वो कागज की पुर्जी अंग्रेजी में होती है, मरीज जो दवाएं खरीदते हैं बाजार से वो अंग्रेजी में होती है, हमारे देश के प्राथमिक स्तर के विद्यार्थियों को डंडे मार-मारकर अंग्रेजी सिखाई जाती है, अगर वो अंग्रेजी न पढ़ना चाहे तो जबरदस्ती अंग्रेजी में पढ़ाया जाता है और वो पफेल होते रहते हैं, हमारे शीर्ष वैज्ञानिक संस्थानों में अंग्रेजी है, हमारी शीर्ष कृषि शोध् संस्थानों में अंग्रेजी है, हमारे देश के नीचे से लेकर उपर तक के हर स्तर पर अंग्रेजी-अंग्रेजी है। आप पूछेंगे कैसा क्यों? शहीदों की भाषा तो अंग्रेजी नहीं थी, बलिदान देने वालों की भाषा तो अंग्रेजी नहीं थी, आजादी के आन्दोलन की भाषा तो अंग्रेजी नहीं थी, आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की भाषा तो अंग्रेजी नहीं थी, पिफर आजादी के बाद ये अंग्रेजी स्थापित कैसे हुई? और इतनी गहराई से आगे कैसे बढ़ गई, इसके पीछे एक बड़ी कहानी है। मुझे तो कई बार लगता है कि वो एक षडयंत्रा है, साजिश है। वो षडयंत्रा और साजिश ये है कि भारत अंग्रेजों की गुलामी से भले आजाद हो जाए लेकिन अंग्रेजी की गुलामी में भारत पफंसा रहना चाहिए। तो षडयंत्रा क्या हुआ? हमारे देश कें संविधन में एक अनुच्छेद लिखा गया। उसका नम्बर है- 343 अनुच्छेद नम्बर 343 में लिखा गया कि संविधन लागू होने के 15 वर्ष तक अंग्रेजी इस देश में यूनियन माने संघ सरकार की भाषा के रूप में काम करेगी और राज्य सरकार की भाषा के रूप में काम करेगी और राज्य सरकारें भी चाहे तो अंग्रेजी में काम कर सकेगी। संविधन लागू होने के 15 वर्ष के बाद माने 1965 में अंग्रेजी हटाई जाएगी और उसके लिए एक संसदीय समिति बनाई जाएगी और वो समिति जिस तरह का विचार रखेगी और उस पर राष्ट्रपति विचार करेंगे और राष्ट्रपति की अनुशंसा से संसद में एक विध्ेयक को पारित करके अंग्रेजी को हटा दिया जायेगा, उसके स्थान पर हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं को स्थापित किया जायेगा, ये हमारे संविधन मंे लिखा गया। लेकिन ये जो लिखा गया वो अनुच्छेद 343 में लिखा गया। उस अनुच्छेद 343 का जो पेराग्राम एक है उसमें ये बात है, 2 नम्बर और 3 नम्बर को जो पढ़े तो बिल्कुल उलटी बात है। तीसरे पेराग्राम में लिखा गया कि भारत के जो राज्य हैं, अगर कोई राज्य विरोध् करेगा तो पिफर अंग्रेजी को नहीं हटाया जाएगा माने अंग्रेजी को हटाने का विरोध् करेगा कोई राज्य, हिन्दी को स्थापित करने के विरोध् में केाई राज्य होगा तो अंग्रेजी को नहीं हटाया जाएगा।
पिफर इसी के आगे अनुच्छेद 348 लिखा गया संविधन में। उस अनुच्छेद में ये लिख दिया गया कि भारत में भले ही हिन्दी आम बोलचाल की भाषा रहे लेकिन उच्चतम न्यायालय में, उच्च न्यायाल में और कानून के स्तर पर तो अंग्रेजी ही प्रामाणिक भाषा रहेगी। ये अनुच्छेद 348 में लिख दिया गया। एक जगह लिख रहे हैं 15 साल में हिन्दी व भारतीय भाषाएं आ जाएंगी, एक जगह लिख रहे है कि नहीं उसके लिए राज्यों की सहमति लेनी पड़ेगी, पिफर 348 में कह दिया कि उच्चतम न्यायालयों और उच्च न्यायालय में तो हिन्दी के प्रश्न ही नहीं उठेगें, वहंा तो अंग्रेजी ही चलेगी मतलब सीध सा है कि एक जगह हिन्दी को राष्ट्रभाषा की बात सिखाकर दूसरी जगह हिन्दी की जड़ काट दी हैं इसके बाद क्या हुआ? इसके बाद संसद की एक समिति बनाई गई। 1955 में वो समिति स्थापित हुई। उस समिति से कहा गया कि आप रिपोर्ट दीजिए। उस समिति ने ये कह दिया कि अभी भारत में अंग्रेजी को हटाने का अनुकूल समय नहीं आया है। जब तक अंग्रेजी को हटाने का अनुकूल समय नहीं आए सब तक प्रतीक्षा की जाये। राष्ट्रपति ने कहा कि अंग्रेजी को हटाने की बात नहीं है। पिफर उसके बाद एक दूसरी समिति बनी। उनकी भी रिपोर्ट इसी तरह से आई और उसके बाद 1963 में संसद में बड़ी बहस हुई इस पर कि अंग्रेजी हटाओ और हिन्दी लाओ, इस बहस में भी अंत में यही हुआ कि अंग्रेजी को अभी थोड़े दिन तक रखा जाये। पिफर जब 1965 का समय पूरा हो गया और 15 साल की अवध् िसमाप्त हो गई कि भारत की राजभाषा, राष्ट्रभाषा हिन्दी बने तो दक्षिण भारत में दंगे हो गए और दक्षिण भारत में जो दंगें हुए, भारत सरकार की खुपिफया विभाग की रिपोर्ट बताती है कि वो दंगे अपने आप नहीं हुए कराए गए। उन नेताओं के द्वारा भड़काए गए जो नहीं चाहते थे कि अंग्रेजी इस देश में से हटे। तो सरकार को मौका मिल गया ये कहने का कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के नाम पर अगर दंगे हो रहे हैं तो हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बनाया जा सकता। अंग्रेजी को ही बरकरार रखना पड़ेगा और 1967 में विध्ेयक पास कर दिया गया। पिफर 1968 में उस विध्ेयक में एक संशोध्न कर दिया गया कि भारत के जितने भी राज्य हैं, इनमें से एक राज्य भी अगर अंग्रेजी का समर्थन करेगा तो भारत में अंग्रेजी ही लागू रहेगी। भारत में इस समय 33 राज्य हैं और 33 राज्यों मे ंसे एक भी राज्य ये कहता है कि अंग्रेजी होनी ही चाहिए तो पूरे भारत में अंग्रेजी ही रहेगी। अब ही कानून है जो भारत में हिन्दी के गले में पफांसी के पफंदे जैसा लटका है। ये हमारे देश ?
आंग्लभाषा भी है, फ्रेंचभाषा भी है,
रूसीभाषा भी है, चीनीभाषा भी है,
भाषा सब हैं, मगर मात्र हैं;
मात्र भाषा नहीं, मातृभाषा है हिन्दी।।
रूसीभाषा भी है, चीनीभाषा भी है,
भाषा सब हैं, मगर मात्र हैं;
मात्र भाषा नहीं, मातृभाषा है हिन्दी।।
प्रेम माता सा कोई भी दूजा नहीं,
मातृसेवा से बढ़कर है पूजा नहीं,
मातृभाषा की उन्नति का निश्चय करो;
ज्ञान के साथ संस्कृति का संचय करो।।
मातृसेवा से बढ़कर है पूजा नहीं,
मातृभाषा की उन्नति का निश्चय करो;
ज्ञान के साथ संस्कृति का संचय करो।।
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