Wednesday, January 25, 2023

प्रिय पाकिस्तान।

प्रिय पाकिस्तान

#विजयमनोहरतिवारी

साल 2001 में मेरी पहली पुस्तक आई थी-‘प्रिय पाकिस्तान।’ यह मेरे कुछ छपे हुए आलेखों का संग्रह था, जिसमें अनछपे आलेख भी थे और कुछ ऐसे भी जो कहीं छप नहीं सकते थे। सारे अालेख तीन भागों में थे-‘पत्थर, फूल और खुशबू।’ पाकिस्तान के नाम लिखी एक लंबी चिट्‌ठी से किताब का शीर्षक बना था-‘प्रिय पाकिस्तान।’

पाकिस्तान पत्थर का ठोस विषय है, प्रतिमा का नहीं, न उस कोमल फूल का जो प्रतिमा पर अर्पित होता है। ऊर्दू के बावजूद खुशबू से उसका दूर तक लेना-देना नहीं है। वह जिस महकते हुए विचार की बुनियाद पर खड़ा किया गया, उसमें प्रतिमाओं को पत्थर बनाने की रवायत है, हिदायत है और वह कयामत तक है। वे बिना अपनी अक्ल लगाए गए 1400 सालों से बुतों के सफाए की मजूरी में लगे हैं!

किताब के कवर के लिए मध्यप्रदेश के विदिशा शहर में किले अंदर के एक स्मारक की लाजवाब तस्वीर मनस्वी प्रकाशन के सर्वेसर्वा मुरली मोहन ने खुद आकर क्लिक की थी। वह प्रतिमाओं को पत्थर बनाने में लगे इसी उजड्‌ड विचार की एक प्रतिनिधि तस्वीर है। वह विजय मंदिर के ध्वंसावशेष हैं!

जब किताब आई तब दिल्ली में बीजेपी की ‘बिना टिकट और खाली जेब’ सरकार थी। अटलजी की अचकन की जेबें एनडीए के दरवाजे पर ही खाली करा ली गई थीं। जेब की जमापूंजी थी-‘अयोध्या, 370, काॅमन सिविल कोड।’

ये मुद्रा एनडीए के झुंड में नहीं चलने वाली थी। राजनीति अपनी कारस्तानियों के लिए शब्द उम्दा गढ़ लेती है। जैसे- कॉमन मिनिमम प्रोग्राम। एनडीए के इस प्रोग्राम में बीजेपी को अस्त्रहीन बनाकर सिंहासन पर बिठा दिया गया था। अटलजी को मैं भारतीय राजनीति का देवानंद कहता हूं। एक्शन की गुंजाइश नहीं है तो अदाएं काम आती हैं। भारत उनकी अदाओं पर अरसे तक मुग्ध रहा!

तब बीजेपी के लिए राज्यों में चार-चार बार की लंबी पारियां सपनों में भी नहीं थी। मोदी युग जैसा कोई युग आएगा, िकसने सोचा था? स्वयं मोदी जी महाराज एक प्रचारक की भूमिका में भारत के छोटे शहरों और कस्बों में प्रवास करते हुए अपने हाफ बांह के कुरते और पाजामे धोकर टांग रहे थे। संसदीय आकाश में लालू और मुलायम जैसे नक्षत्र जगमगाया करते थे। कश्मीर के अब्दुल्ला की तीसरी पीढ़ी हगीज छोड़कर 370 के सहारे कुर्सी पकड़कर चलना सीख रही थी।

परवेज मुशर्रफ सीने में 60 इंच की हवा भरकर जब आगरा तशरीफ लाए तो दिल्ली के शिखर संपादक यह भूल गए कि यह मुगलों का आगरा नहीं है। बादशाह की नजरे-इनायत की मोहताजी उनके सवालों में टपकती थी। भारत अमन की आशा में दिल्ली से लाहौर तक बस कंपनी चला रहा था। अटलजी के साथ शायद देवानंद भी पधारे थे। क्या नजारे थे?

फिर यूपीए का झुंड आया और उसके दस साल धमाकेदार थे। कितने शहरों में कितने धमाके? वह पाकिस्तान की धमक थी। वह धमका हुआ भारत था। बचा-खुचा कश्मीर पंडितों को बाहर कर करीब-करीब कब्जा लिया गया था! सेक्युलर आबोहवा में वह मुशायरों का दौर था, मोहब्बतों का दौर था, रोजे-इफ्तारी की रौनकें बरसती थीं और अयोध्या से राम एक बदशक्ल टेंट से यह सब देखा करते थे!

जैसे हाईवे पर धमकदार फर्राटे से चलती गाड़ी अचानक घरघराकर बंद होने लगे, पीछे धुआं रहरहकर निकलने लगे, आगे बोनट से अजीब आवाजें आने लगें, कांपती हुई गाड़ी बमुश्किल साइड में लगने लगे। पाकिस्तान आज इससे बुरी हालत में साइड में आ गया है। भारत के मीडिया में पाकिस्तान के अंदरुनी हालातों पर एक भी ढंग की कवरेज नहीं है। दाने-दाने को मोहताज एक फटेहाल मुल्क, जहां हर नया दिन जिंदगी को और मुश्किल बना रहा है।

हजार साल हिंदुस्तान से लड़ने की बातें उस लड़खड़ाते हुए शख्स की थीं, जो मुफ्त की शराब ज्यादा गटक गया था। मेरे देखे पाकिस्तान मुफ्त के माल पर कब्जे का दूसरा नाम है, वह एक मुल्क कभी नहीं था। भारत का शायद ही कोई शहर हो, जो नाजायज कब्जों की चपेट से बचा हो। पाकिस्तान भारत का सबसे बड़ा नाजायज कब्जा है। एक बड़े भूभाग पर अतिक्रमण, जिसके साइन बोर्ड पर कुछ गुंडों ने लिख दिया-‘पाकिस्तान।’ सारी मालो-दौलत उसकी हो गई। वह दीन के नाम पर हुआ था। आज दीनहीन कैसे हो गया?

पाकिस्तान के ही एक राजनीतिक विश्लेषक की ताजा टिप्पणी है कि मालदार हिंदुओं और सिखों की लूट की दौलत से 70 साल काम चल गया, अब आटा चाहिए ताकि घर में रोटी बन सके। बच्चे कतार में मुंह बाए खड़े हैं, जो अल्लाह की देन हैं! सिंध से आए दिन आने वाली हर खबर घर से निकली किसी बच्ची की है, जिसे इस्लाम कुबूल कराने के लिए उठा लिया गया है और किसी अधेड़ मौलवी ने सवाब कमा लिया है। बलूचिस्तान की बेचैनी बिल्कुल अलग है, जिसकी कोई खबर तक नहीं है कि कितने लोग कहां से उठा लिए गए, उनका कोई अता-पता नहीं है। एक बड़े कब्जे में दूसरे छोटे कब्जे का हाल भी कमाल है, यानी कश्मीर का एक और बदनसीब टुकड़ा, जो उधर झपट लिया गया था। ईमान की रोशनी में बत्ती गुल है। यह आज का कुल पाकिस्तान है।

एक फारसी कहावत है-‘बाअदब बानसीब, बेअदब बेनसीब!’ वे भारत के माथे पर कश्मीर का नसीब लिखने चले थे और खुद बदनसीब निकले। मामूली बदनसीब नहीं, बादशाहे-बदनसीब!

वह एक ऐसा पड़ोसी है, जो अनचाहा है। जैसे अनचाहे बाल, जिनका सफाया ही किया जाता है। सदियों के डेमोग्राफिक विस्तार में नाजायज किलकारियों की फसलें धरती के किसी भी कोने में कभी बहार का सबब बन ही नहीं सकतीं। पाकिस्तान आज अपने आप पर ही एक भारी बोझ बन गया है। लाहौर से लेकर बहावलपुर तक फैले ‘ज्ञान केंद्रों’ में कसाब के बाद की पीढ़ी बेरोजगार और बदहवास है। किसी हाफिज के पास कोई आसमानी नुस्खा नहीं बचा है। वे असल मायने में गालिब को आज महसूस कर रहे हैं, दिल बहलाने के लिए जन्नत का ख्याल अच्छा है!

मैं ‘प्रिय पाकिस्तान’ के इस सूरते-हाल का यह बयान बागेश्वर बालाजी के पाक कदमों में खत्म करूंगा, जिनके सबसे चहेते धीरेंद्र शास्त्रीजी को चैनलों ने इन दिनों स्क्रीन पर उठाया हुआ है। वे सबके दिल की बात जान जाते हैं। किसका भाई कौन, मकान कब बना, भतीजी का नाम क्या?

सांसारिक रूप से जड़ और आत्मकेंद्रित आम भारतीयों के ये लालची सवाल कभी खत्म नहीं होंगे। पांच सौ किलोमीटर चलकर कोई मध्यमवर्गीय परिवार की देवी एक दरबार में बेटे की सरकारी नौकरी का सवाल लाएगी, दूसरे दरबार में उसकी शादी का और पांच साल बाद यह पूछने कि बच्चे नहीं हो रहे!

अगर एक लाख की सभा में से कोई भारतीय यह सवाल दरबार में पूछ सके तो जरूर पूछे कि अगले पाँच साल में पाकिस्तान का क्या हाल होने जा रहा है? बागेश्वर बालाजी की कृपा से अगर गुरूजी महाराज ने इसका कोई जवाब दे दिया तो वह जवाब नहीं होगा, वह दुनिया भर के लिए सबसे बड़ी ब्रेकिंग न्यूज होगी। चैनल चमक जाएगा, कोई मीडियावाला ही पूछ ले!

पाकिस्तान भारत का एक बिछड़ा और बहका हुआ हिस्सा है। जैसा भी हो वह एक पड़ोसी है। वह ईमान का पक्का है, तभी तो पाकिस्तान है। जो ईमान में कमजोर रह गया, वह हिंदुस्तान ही रह गया! पाकिस्तान कहां से कहां जा पहुंचा!

महाराजजी अंधश्रद्धा के दृष्टिहीन आरोपों पर इतना समय और ऊर्जा क्यों नष्ट कर रहे हैं। अजीब बात है, खर्च आप हो रहे हैं, कारोबार चैनलों का चल रहा है।

अत: अपनी परम सिद्धि से मेरा प्रश्न इसी पेज से प्राप्त कीजिए- ‘2024 में पाकिस्तान के क्या हाल दिखाई दे रहे हैं?’

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