जब भी मैं जोधाबाई और अकबर के विवाह प्रसंग को सुनता या देखता था तो मन में कुछ अनुत्तरित सवाल कौंधने लगते थे।
आन, बान और शान के लिए मर मिटने वाले, शूरवीरता के लिए पूरे विश्व मे प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय, अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं??
हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती हैं??
जोधा और अकबर की प्रेम कहानी पर केंद्रित अनेक फिल्में और टीवी धारावाहिक मेरे मन की टीस को और ज्यादा बड़ा देते। जब यह पीड़ा असहनीय हो गई तो एक दिन गुरुदेव श्री जे पी पाण्डेय जी से इस प्रसंग में इतिहास जानने की जिज्ञासा व्यक्त की तो गुरुवर ने अपने पुस्तकालय से अकबर के दरबारी 'अबुल फजल' द्वारा लिखित 'अकबरनामा' निकाल कर पढ़ने के लिए दी। उत्सुकतावश उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ डाला। पूरी किताब पढ़ने के बाद घोर आश्चर्य तब हुआ जब पूरी पुस्तक में जोधाबाई का कहीं कोई उल्लेख ही नही मिला। मेरी आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा को भांपते हुए गुरुवर श्री ने एक अन्य ऐतिहासिक ग्रंथ 'तुजुक-ए-जहांगिरी' जो जहांगीर की आत्मकथा है, दिया। इसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहांगीर ने अपनी मां जोधाबाई का एक भी बार जिक्र नही किया। हां कुछ स्थानों पर हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था। अब जोधाबाई के बारे में सभी एतिहासिक दावे झूठे समझ आ रहे थे। कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आयी कि “जोधा बाई” का पूरे इतिहास में कहीं कोई नाम नहीं है।
इस खोजबीन में एक नई बात सामने आई जो बहुत चौकानें वाली है। इतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर पता चला कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में 'रुकमा' नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी। रुकमा की बेटी होने के कारण उस लड़की को 'रुकमा-बिट्टी' नाम से बुलाते थे। आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को 'हीर कुँवर' नाम दिया। चूँकि हीर कुँवर का लालन पालन राजपूताना में हुआ इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भांति परिचित थी। राजा भारमल उसे कभी हीर कुँवरनी तो कभी हरका कह कर बुलाते थे।
उत्तराधिकार के विवाद को लेकर जब पड़ोसी राजाओं ने राजा भारमल की सहायता करने से इनकार कर दिया तो उन्हें मजबूरन अकबर की सहायता लेनी पड़ी। सहायता के एवज में अकबर ने राजा भारमल की पुत्री से विवाह की शर्त रख दी तो राजा भारमल ने क्रोधित होकर प्रस्ताव ठुकरा दिया था। प्रस्ताव अस्वीकृत होने से नाराज होकर अकबर ने राजा भारमल को युद्ध की चुनौती दे दी। आपसी फूट के कारण आसपास के राजाओं ने राजा भारमल की सहायता करने से मना कर दिया। इस अप्रत्याशित स्थिति से राजा भारमल घबरा गए क्योंकि वे जानते थे कि अकबर की सेना उनकी सेना से बहुत बड़ी है सो युद्ध मे अकबर से जीतना संभव नही है।
चूंकि राजा भारमल अकबर की लंपटता से भली-भांति परिचित थे सो उन्होंने कूटनीति का सहारा लेते हुए अकबर के समक्ष संधि प्रस्ताव भेजा कि उन्हें अकबर का प्रस्ताव स्वीकार है वे मुगलो के साथ रिश्ता बनाने तैयार हैं। अकबर ने जैसे ही यह संधि प्रस्ताव सुना तो विवाह हेतु तुरंत आमेर पहुँच गया। राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बनाकर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया।
चूँकि राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था इसलिये ऐतिहासिक ग्रंथो में हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया। जबकि वास्तव में वह कच्छवाह राजकुमारी नही दासी-पुत्री थी।
राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन किया था।
इस विवाह के विषय मे अरब में बहुत सी किताबों में लिखा है (“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें संदेह है।
इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है।
'अकबर-ए-महुरियत' में यह साफ-साफ लिखा है कि (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں) हमें इस हिन्दू निकाह पर संदेह है क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आखों में आँसू नही थे और ना ही हिन्दू गोद भरई की रस्म हुई थी।
सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन और गुरू गोविन्द सिंह ने इस विवाह के विषय मे कहा था कि (ਰਾਜਪੁਤਾਨਾ ਆਬ ਤਲਵਾਰੋ ਓਰ ਦਿਮਾਗ ਦੋਨੋ ਸੇ ਕਾਮ ਲੇਨੇ ਲਾਗਹ ਗਯਾ ਹੈ) कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनो का इस्तेमाल करना सीख लिया है, मतलब राजपुताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगा है।
17वी सदी में जब 'परसी' भारत भ्रमण के लिये आये तब उन्होंने अपनी रचना ”परसी तित्ता” में लिखा “यह भारतीय राजा एक परसियन वैश्या को सही हरम में भेज रहा है, अत: हमारे देव(अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें"।
भारतीय राजाओं के दरबारों में राव और भाटों का विशेष स्थान होता था वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे। उन्होंने साफ साफ लिखा है- ”गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ,ले ग्याली पसवान कुमारी ,राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत। (1563 AD)" मतलब आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है, हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत 1563 AD।
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